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(१५५) २ -ब्रह्मचर्य को व्रत रूप में क्यों स्वीकारना चाहिये ?
__कहा जा सकता है कि 'प्रतिज्ञा-रूप व्रत स्वीकार किये बिना ही, यदि ब्रह्मचर्य का पालन किया जाय, तो क्या हर्ज है ? यदि कोई हानि नहीं है तो फिर ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करने-यानी व्रत धारण करने की क्या आवश्यकता है ?' इसका उत्तर यह है कि संकल्प-हीन कार्यों की पूर्ति में सन्देह ही रहता है । संकल्प यानी व्रत या प्रतिज्ञा कर लेने पर, कार्य में होने वाली बाधाओं को सहने की शक्ति आती है, मन में दृढ़ता रहती है और 'प्रतिज्ञा से भ्रष्ट न हो जाऊँ !' इस बात का भय रहता है। इसके सिवा व्रतरूप धारण किये बिना ब्रह्मचर्य पालन से परलोक सम्बन्धी जो लाभ होना चाहिये, वह लाभ भी नहीं होता । जैनशास्त्रों में तो इस बात का प्रतिपादन है ही, लेकिन अन्य ग्रन्थों में भी यही बात कही गई है । जैसे :--
संकल्पेन बिना राजन् यत्किचित् कुरुते नरः । फलस्याप्यल्पकं तस्य धर्मस्यार्धक्षयं भवेत् ॥
पद्मपुराण । 'हे राजन् ! संकल्प के बिना जो कुछ किया जाता है, उसका फल बहुत थोड़ा होता है और उस कार्य के धर्म का आधा भाग नष्ट हो जाता है ।'
किसी भी शुभ कार्य को करने के लिये संकल्प का होना अत्यावश्यक है और परलोक के लिये हितकारी नियमों के पालन का संकल्प ही व्रत कहलाता है । यद्यपि व्रत-रूप धारण किये बिना भी ब्रह्मचर्य का पालन करना बुरा नहीं