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( १५६ ) है-अच्छा ही है-लेकिन ब्रह्मचर्य पालन से, जो पारलौकिक लाभ प्राप्त होना चाहिये, वह लाभ ब्रह्मचर्य को व्रत-रूप स्वीकार किये बिना, पूर्णतया प्राप्त नहीं होता। इन बातों को दृष्टि में रख कर ब्रह्मचर्य को व्रत-रूप में स्वीकार करना उचित है । ब्रह्मचर्य को व्रत-रूप स्वीकार करने से किसी प्रकार की हानि नहीं है । हाँ, लाभ अवश्य हैं, जो ऊपर बताये जा चुके हैं। ३-ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह से अलग क्यों है ?
भगवान् महावीर से पूर्व, बाईस तीर्थङ्करों के शासनकाल में ब्रह्मचर्य नामक व्रत अलग न था । उस समय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ये चार ही व्रत थे। चार व्रत होने पर ब्रह्मचर्य का पालन तो होता ही था, लेकिन ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह व्रत के ही अन्तर्गत हो जाता था और परिग्रह के त्याग में स्त्री आदि का भी त्याग समझा जाता था । यद्यपि अपरिग्रह-व्रत में ब्रह्मचर्य-व्रत का भी समावेश हो जाता है और परिग्रह के त्याग में अब्रह्मचर्य का भी त्याग हो जाता है, परन्तु भगवान् महावीर ने अपने समय के एवं भविष्य के वक्र जड़ मनुष्यों को दृष्टि में रखकर, ब्रह्मचर्य व्रत का अलग ही उपदेश दिया । भगवान् पार्श्वनाथ तक चार ही व्रत थे और भगवान् महावीर ने पांच व्रतों का उपदेश दिया। इस बात को लेकर भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के मुनि श्री केशीस्वामीजी और भगवान् महावीर के शिष्य श्री गौतम स्वामीजी में चर्चा हुई, जिसका विस्तृत वर्णन श्री उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्ययन में है । ४-ब्रह्मचर्य व्रत के दो भेद
शास्त्रकारों ने सुविधा की दृष्टि से ब्रह्मचर्य-व्रत के