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( १५७ ) दो भेद कर दिये हैं । एक सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत और दूसरा देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत । सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत उसे कहते हैं, जिसमें जीवन भर के लिये मैथुन से निवृत्त होने, वीर्य अक्षत रखने और सभी प्रकार के काम-भोग न भोगने की प्रतिज्ञा की जावे । इतना ही नहीं, जिन कार्यों से ब्रह्मचर्य-व्रत दूषित बने, वे सभी कार्य त्याग कर नव-वाड़ों का पालन किया जाय । इस व्रत को स्वीकार करने वाला सर्वविरति-पूर्ण ब्रह्मचारी कहलाता है । ऐसा पूर्ण ब्रह्मचारी मन, वचन और काय से वैक्रिय तथा औदारिक शरीर सम्बन्धी काम-भोगों को न भोगता है, न भोगवाता है, न भोगने वाले को अच्छा ही समझता है । सर्वविरत ब्रह्मचारी अठारह प्रकार के काम-भोगों को त्याग कर ब्रह्मचर्य का पूर्णरीति से पालन करने की प्रतिज्ञा करता है । सर्वविरत ब्रह्मचर्य का अन्य ग्रन्थकारों ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य नाम दिया है।
देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत उसे कहते हैं, जिसमें स्व-स्त्री की मर्यादा रखी जाय । इस स्थान पर सर्वविरति-ब्रह्मचर्यव्रत का ही वर्णन किया जाता है। देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का वर्णन आगे किया जाएगा ।
सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कौन कर सकते हैं, इसके लिये आचार्य कहते हैं :
शक्यं ब्रह्मव्रतं घोरं, शूरैश्च न तु कातरैः । करिपर्याणमुद्वोढु, करिभिर्नतु रासभैः ।। ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना, शूरों के लिये ही शक्य