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वाला चोर कहा जाता है तथा लोग घृणा से देखते हैं । जो वस्तु सार्वजनिक है, जिस वस्तु पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं है, उसे लेने या उसका उपभोग करने का त्याग श्रावकों को नहीं कराया जाता ।
मतलब यह कि दृष्ट अध्यवसायपूर्वक दूसरे के हकों को हरण करने की क्रिया से निवर्तना, स्थूल अदत्तादानविरमण व्रत है । इस तीसरे व्रत के धारण करने में, जहां साधु तीन करण और तीन योग से अदत्तादान का पूर्णतया त्याग करते हैं, वहां श्रावक दो करण और तीन योग से स्थूल-अदत्तादान का त्याग करता हैं । जैसा कि आनन्द श्रावक ने किया था । यथा
तदारांतरं च रणं थूलयं अदिन्नादारणं पञ्चक्खाति जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेति, न कारवेति, मणसा वयसा कायसा ॥
( उपा० सू० प्र० प्र०) अर्थात् - स्थूल मृषावाद त्यागने के पश्चात् आनन्द श्रावक ने स्थूल-अदत्तादान का त्याग दो करण-करूंगा नहीं और कराऊंगा नहीं और तीन योग- मन मे, वचन से काय से किया।
स्थूल-अदत्तादान विरमरण व्रत धारण करने पर श्रावक के न तो सांसारिक काम ही रुकते हैं और न वह स्थूल चोरी के पापों में ही पड़ता है । संसार में भी वह प्रामाणिक और विश्वासपात्र माना जाता है । इसलिये श्रावकों को यह व्रत अवश्य धारण करना चाहिये ।