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सामाजिक अपराध नहीं माना जाता था, न अब माना जाता है । विवाह के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही को समान अधिकार हैं, और यह नहीं है कि पसन्द आने के कारण, पुरुष, स्त्री के साथ और स्त्री, पुरुष के साथ विवाह करने लिए नीति या समाज की ओर से बाध्य हो । विवाह तभी हो सकता है, जब स्त्री - पुरुष एक दूसरे को पसन्द करले, और एक दूसरे के साथ विवाह करने के इच्छुक हों । इस विषय में जबरदस्ती को जरा भी स्थान नहीं है ।
ग्रन्थकारों ने विशेषतः तीन प्रकार के विवाह बताये हैं; देव - विवाह, गन्धर्व विवाह और राक्षस विवाह । ये तीनों विवाह क्रमशः उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ माने जाते हैं । इन तीनों विवाहों की व्याख्या नीचे दी जाती है ।
जो विवाह वर और कन्या दोनों की पसन्दगी से हुआ हो, जिसमें वर ने कन्या के और कन्या ने वर के गुणदोष देखकर एक दूसरे ने एक दूसरे को अपने समान माना हो तथा जिस विवाह के करने से वर और कन्या के माता पिता आदि अभिभावक भी प्रसन्न हों, जो विवाह रूप, गुण, स्वभाव आदि की समानता से विधि और साक्षीपूर्वक हुआ हो और जिस विवाह में, दाम्पत्य कलह का भय न हो तथा जो विवाह, दुर्विषय-भोग की इच्छा से नहीं किन्तु पूर्णब्रहमचर्य के आदर्श तक पहुंचने के उद्देश्य से किया गया हो, उसे देव - विवाह कहते हैं । यह विवाह उत्तम माना जाता है ।
जिस विवाह में वर ने कन्या को और कन्या ने वर को पसन्द कर लिया हो, एक दूसरे पर मुग्ध हो गये हों, किन्तु माता - पिता आदि अभिभावक की स्वीकृति के बिना