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________________ इच्छा परिमारण व्रत परिग्रह का रूप और उससे होने वाली हानि का वर्णन किया जा चुका है । साथ ही अपरिग्रह व्रत का रूप भी बताया जा चुका है । सर्वथा प्रात्मकल्याण की इच्छा रखने वाले के लिए तो अपरिग्रही बनना और किसी भी सांसारिक पदार्थ के प्रति इच्छा - मूर्छा न रखना ही आवश्यक है लेकिन जो लोग संसार व्यवहार में बैठे हुए हैं, वे भी क्रमशः मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकें, इसलिए भगवान् ने ऐसे लोगों के वास्ते इच्छा परिमारण व्रत बताया है । संसारव्यवहार में रहने वाले लोगों के लिए सांसारिक पदार्थों का सर्वथा त्याग होना कठिन है । उनसे इच्छा और मूर्छा का बिलकुल अभाव नहीं हो सकता, न वे सांसारिक पदार्थों से असंग ही रह सकते हैं । संसार - व्यवहार में रहने के कारण उनके लिए सांसारिक पदार्थों का संग्रह और सांसारिक पदार्थों के प्रति इच्छा - मूर्छा का होना भी स्वाभाविक समझा जाता है। संसार में कहावत भी है कि 'साधु के पास कौड़ी हो तो कोड़ी का, गृहस्थ के पास कौड़ी न हो तो वह कौड़ी का' । एक कवि भी कहता है -- माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न संभाषते । भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालिंगते ।।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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