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( ३१७ ) श्रर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापामात्रं सुहृद । तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्य सर्वे वशाः ||
अर्थात् धन न होने पर माता निन्दा करती है, पिता आदर नहीं करता, भाई बोलते नहीं हैं, स्त्री स्पर्श नहीं करती और 'यह कुछ मांगने न लगे इस भय से मित्र लोग कोई बात भी नहीं करते । इसलिए हे मित्र, धन कमाओ । सब लोग धन के ही वश हैं ।
इस प्रकार जैसे संसार - व्यवहार से निकले हुए साधु के लिए किसी भी सांसारिक पदार्थ का रखना निन्द्य समझा जाता है, उसी प्रकार सांसारिक लोग उस संसार-व्यवहार में रहे हुए की निन्दा - अवहेलना करते हैं, जो सांसारिक पदार्थों से हीन है । जो संसार - व्यवहार में है उसके लिए सांसारिक पदार्थों का संग्रह आवश्यक माना जाता है और दूसरी ओर धर्मशास्त्र सांसारिक पदार्थों को त्याज्य बतलाते हैं । ऐसी दशा में गृहस्थों के लिए ऐसा कौन - सा मार्ग रह जाता है, जिसको अपनाने पर वे संसार-व्यवहार में हीन दृष्टि से भी न देखे जावें और धार्मिक दृष्टि से भी पतित न समझे जावें ? इस बात को दृष्टि में रख कर ही भगवान् ने इच्छा - परिमाण व्रत बताया है । भगवान् जानते थे कि गृहस्थ लोग इच्छा का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते और जिस दिन वे इच्छा का सर्वथा त्याग कर देगें, उस दिन से संसार-व्यवहार में रहना भी त्याग देंगे या संथारा कर लेंगे । लेकिन संसार व्यवहार में रहते हुए इच्छा का सर्वथा निरोध कठिन है । ऐसी दशा में यदि उन्हें भी अपरिग्रह व्रत ही बताया जायेगा तो उनसे अपरिग्रह व्रत का पालन