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अपरिग्रह व्रत
परिग्रह से निवर्तने के लिए जो व्रत स्वीकार किया
जाता है उसका नाम ' अपरिग्रह व्रत ' है । इस व्रत को स्वीकार करने से इहलौकिक लाभ भी है और पारलोकिक लाभ भी । इस व्रत को स्वीकार करने पर ग्रात्मा समस्त पापों से निवृत्त हो जाता है । वह रागद्वेष-रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है और इस प्रकार जन्म-मरण के कष्ट से छूट जाता है । जन्म-मरण का मूल हेतु राग-द्वेष ही है । ग्रपरिग्रह होने पर राग-द्वेष मिट जाता है, इसलिए फिर जन्म-मरण नहीं करना पड़ता । अपरिग्रह व्रत स्वीकार करने पर, अनन्तानुवन्धी चौकड़ी, अप्रत्याख्यानी चौकड़ी और प्रत्याख्यानी चौकड़ी का निरोध हो जाता है । इससे जन्ममरण और नरकादि के दुःख से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । परिग्रह के कारण आत्मा जन्म-मरण के जिस बन्धन में है, परतन्त्रता की जिस जंजीर से जकड़ा हुआ है,
परिग्रह व्रत स्वीकार कर लेने पर उस बन्धन और परतन्त्रता से भी छूट जाता है । अपरिग्रह - व्रत स्वीकार करने पर ही पूर्णतया धर्माराधन हो सकता है और तभी कामना रहित तथा शुद्ध रीति से परमात्मा का भजन भी किया जा सकता है ।