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परिग्रह से सर्वथा विरत होने के लिए पहले आभ्यन्तर परिग्रह से विरत होने की आवश्यकता है । जब तक आभ्यन्तर परिग्रह है, तब तक बाह्य परिग्रह से विरत होने का विचार तक नहीं हो सकता । बल्कि आभ्यन्तर परिग्रह का प्राधिक्य होने पर मनुष्य किसी वस्तु, बात या विचार को परिग्रह रूप मान ही नहीं सकता जिसकी गणना परिग्रह में है । ' यह परिग्रह है' ऐसा विचार तभी हो सकता है, जब आभ्यन्तर परिग्रह का जोर कम हुआ होगा । इसलिए सर्वप्रथम आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्त होने की आवश्यकता है । आभ्यन्तर परिग्रह से आत्मा जितने ग्रंश में निवृत्त होता जाएगा, उतने ही अंशों में बाह्य परिग्रह से भी और जब आभ्यन्तर परिग्रह से बिलकुल विरत हो जायेगा, तब बाह्य परिग्रह भी न रहेगा ।
निर्ग्रन्थ- प्रवचन सुनने का लाभ परिग्रह का त्याग और अपरिग्रह - व्रत का स्वीकार ही है, जिसके स्वीकार किये बिना निर्ग्रन्थ-प्रवचन का पालन नहीं हो सकता और जब तक निर्ग्रन्थ-प्रवचन का पूर्णतया पालन नहीं किया जाता, तब तक जन्म-मरण से नहीं छूटा जा सकता । इस दृष्टि से भी परिग्रह त्याग कर अपरिग्रह व्रत स्वीकार करना आवश्यक है ।
शास्त्र का कथन है कि जब तक इन्द्रिय-भोग के पदार्थ न छूटें तब तक जन्म-मरण भी नहीं छूट सकता । इन्द्रिय-भोग के पदार्थों के प्रति जब तक किंचित् भी ममत्व है, तब तक जन्म-मरण भी है और जिन्हें इन्द्रियां प्रिय मानती हैं, उन पदार्थों का ममत्व ही परिग्रह है । संसार -