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भी साहसी हो, लेकिन यदि उसमें पर- स्त्री चाहने का रोग है, तो उसका समस्त बल, वैभव और साहस, गर्म तवे पर गिरी हुई जल की बूंद के समान नष्ट हो जाते हैं । पराई स्त्री की इच्छा करने वाला, अपनी ही हानि नहीं करता, किन्तु अपने कुल परिवार और मित्रों की भी हानि करता है । राजा रावण में बल की कमी नहीं थी, वैभव भी खूब था और साहस भी पर्याप्त था, लेकिन वह सदाचारी स्वदार-सन्तोषी न था, इसलिए उसका बल, वैभव तथा साहस किसी काम न आया और परिवार नष्ट हो गया । यही बात मणिरथ पद्मोत्तर आदि के लिए भी है । इनमें भी यदि सदाचार का अभाव न होता तो इनके नष्ट होने का भी कोई ऐसा निन्द्य कारण न था । बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में लिखा है कि जो अविचारी पर - स्त्री की अभिलाषा करता है, उसे चार फल मिलते हैं - ( १ ) अपशय, (२) निद्रानाशक चिन्ता, (३) दण्ड और ( ४ ) नरक । इस प्रकार अन्य ग्रन्थों ने भी परदार- गमन की निन्दा ही की है ।
५ – परदार- गमन, मांस और मदिरा के त्याज्य है ।
समान ही
आजकल के पुरुषों में शायद ऐसे पुरुष तो अधिक निकलेंगे जो मांस-मदिरा के त्यागी हों, लेकिन परदार- त्यागी पुरुष सम्भवतः बहुत कम निकलेंगे । मांस-मदिरा के त्यागी और परदार- भोगी पुरुष, सम्भवतः परदार को मांस-मदिरा की अपेक्षा ग्राह्य समझते हैं, लेकिन वास्तव में मांस-मदिरा की अपेक्षा परदार ग्राह्य नहीं है, किन्तु मांस-मदिरा के समान त्याज्य है । मांस-मदिरा की तरह परदार- सेवन भी