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'मैं विद्वान् या जितेन्द्रिय हूँ, ऐसा समझकर स्त्रियों के समीप न बैठना चाहिये, क्योंकि चाहे विद्वान् हो या मूर्ख, देह धर्म से, काम-क्रोध के वशीभूत शरीर को स्त्रियां कुमार्ग पर ले जाने में समर्थ हैं । इसीलिए चाहे माता हो, बहन हो या पुत्री हो, इनके साथ भी एकान्त स्थान में न बैठें, क्योंकि इन्द्रियों का बलवान् समूह नीति - रीति से चलने वाले पुरुष को भी अपने पथ से विचलित कर देता है ।'
ब्रह्मचारी को स्त्रियों से परिचय न करने का उपदेश देते हुए शास्त्र में कहा है :
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हत्थपायपलिच्छिन्न कन्ननासविगपि श्रवि वासस्यं नारि बंभयारी विवज्जए ।
- दशवैकालिक सूत्र अ० ८ वां
'जिसके हाथ-पांव टूटे हों, नाक-कान भी कटे हुए हों और अवस्था में भी सौ वर्ष की हो, ऐसी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचारी परिचय न करे, न उसके साथ एकान्त में रहे ।'
ऐसी स्त्री भी, पुरुष के हृदय को और पुरुष भी स्त्री के हृदय को, विचलित करने में समर्थ हो सकता है; अच्छी स्त्री और अच्छे पुरुष की तो बात ही दूसरी है । ब्रह्मचारी को स्त्रियों के परिचय से बचना ही श्रेयस्कर है । पूज्य श्री उदयसागरजी महाराज भी कहा करते थे
गढ़ के पासे डूंगरी, कदियक गढ़ को भंग । साधू पासे अस्तरी, यो ही बड़ो कुसंग ॥