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( १७६ ) यो हो बड़ो कुसंग भंग तो शील में होसी । बैठ नारि के पास मूल की पूंजी खोसी ॥ शीलादिक आचार के पालन से मन भागा।
नाथ कहे रे बालका ये जोग को रोग लागा। ११-मातृ, पुत्री और भगिनी भाव
सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत के आराधक को स्त्रियों के प्रति मात, पुत्री और भगिनी भाव रखना बहुत ही हितकारी है । धर्म से किंचित् भी प्रेम करने वाले के हृदय में मां, बहन और लड़की के लिए कोई विकार-भावना नहीं होती । हां, जिन्होंने मनुष्यता को हो तिलांजलि दे दी है, जिनमें से मनुष्यत्व ही निकल गया है, उनकी तो बात ही अलग है । ऐसे लोग मां, बेटी और बहिन तो क्या, पशुओं से भी दुष्कर्म करने से नहीं चूकते ।
मात, पुत्री और भगिनी भाव, ब्रह्मचर्य की रक्षा का एक सर्वोत्कृष्ट साधन है। जो स्त्रियां आयु में बड़ी हैं, उनके प्रति मातृ-भाव, जो समान हैं उनके प्रति भगिनी-भाव
और जो छोटी हैं, उनके प्रति पुत्री--भाव रखने से हृदय में विकार उत्पन्न नहीं होता । मातृ, पुत्री और भगिनी भाव का क्या माहात्म्य है, इसके लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है ।
एक लखारा अपनी गधी पर, चूड़ियां लादे हुए चला जा रहा था । गधी धीरे धीरे चलती थी, इसलिये लखारा उसे हांकते हुए कहता जाता था,-मां चल !' 'बहन चल !' 'बेटी चल !' लखारे के इस कथन को सुन कर, मार्ग चलने