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उसके पास परिग्रह सम्बन्धी पूर्ण पाप विद्यमान है । इच्छा परिमाण व्रत द्वारा, ऐसे महान् परिग्रह से निकला जाता है । जब इच्छा की सीमा कर दी गई, उसका अन्त मालूम हो गया, तब महान् परिग्रह भी नहीं रहा । फिर तो जितने अंश में इच्छा शेष है, उतने ही अंश में परिग्रह भी शेष रहा है और शेष अंश से परे के परिग्रह से निवृत्त हो जाता है । इस कारण फिर परिग्रह की पूर्ण क्रिया नहीं लगती, किन्तु जितने अंश में परिग्रह रहा है, उसी की क्रिया लगती है । इच्छा की सीमा हो जाने पर महान् परिग्रह नहीं रहता किन्तु सीमित अर्थात् अल्प परिग्रह ही रहता है ।
इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला, ग्रप्राप्त वस्तु के लिए चिन्ता नहीं करता, न इस कारण उसे दुःख
ही होता है । भले उसके जानने में नूतन नूतन पदार्थ
ग्रावें, फिर भी वह उन पदार्थों की इच्छा नहीं करता, उनको प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता, न उनके मिलने पर दुःख ही करता है । यदि व्रत में रखी हुई मर्यादा के बाहर का कोई पदार्थ उसे बिना इच्छा या श्रम के भी प्राप्त होता हो, तो उसको भी वह स्वीकार नहीं करता । इस प्रकार वह किसी वस्तु की इच्छा से दुःखी नहीं रहता, किन्तु इस ओर से सर्वथा दुःखरहित हो जाता है । साथ ही यह व्रत स्वीकार करने वाला व्यक्ति त्याग से बचे हुए पदार्थों के प्रति ऐसा ममत्वभाव नहीं रखता कि जिसके कारण उन पदार्थों के छूटने पर दुःख हो । वह सांसारिक पदार्थों का आधार उसी प्रकार लेता है, जिस प्रकार पक्षी वृक्ष का सहारा लेता है । वृक्ष का सहारा बन्दर भी लेता है और पक्षी भी लेता है, लेकिन दोनों के सहारा लेने में अन्तर होता है । वृक्ष