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________________ चोरी का फल चोरी नीच कर्म है । इस नीच काम में प्रवृत्त होने वाले की इन्द्रियां और मन सदा चंचल रहते हैं, जो धर्ममार्ग में बाधक है । धर्म में इन्द्रियों और मन के एकाग्र होने की खास आवश्यकता है किन्तु चोरी करने वाले की इन्द्रियां और मन संयम में नहीं रहते, इससे वह धर्म से सदा दूर रहता है । चोरी करने वाले की वृत्तियां ऐसी खराब हो जाती हैं कि संसार के किसी भी नीच - कार्यं से उसे घृणा नहीं होती । उसकी वृत्तियां निरन्तर पापों में ही जाती हैं । प्रेम, दया, अहिंसा आदि गुण चोरी करने वाले के पास भी नहीं ठहरते । चोरी की निन्दा करते हुए भगवान् ने प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा है " हे जम्बू ! तीसरा ग्राश्रव - द्वार प्रदत्तादान यानी नहीं दिये हुए धनादि को ग्रहण करना है । यह अदत्तादान, हरण करना, जलाना - मारना, भय पाना आदि पापों से लिप्त है । अदत्तादान की उत्पत्ति दूसरे के घन में रौद्र-ध्यान सहित मूर्छा होने से होती है । यानी धन से जिसकी तृष्णा नहीं मिटी है, वही चोरी करता है । चोरी करने वाले लोग, श्राधी रात तथा पर्वतादि विषम स्थानों तक का आश्रय लेते हैं और उत्सवादि में गाफिल तथा सोये हुए को लूट लेना, ठग लेना, दूसरे के चित्त को व्यग्र करना, दूसरे को मार डालना, उनका
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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