SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २२) 'असत्य' ५ है। दूसरे को ठगने के लिये अधिक को कम या कम को अधिक बताता है, कपट से भरा हुआ है और जो वस्तु नहीं है उसे बतलाता है, इसलिये इसका नाम 'कूट कपट' ६ है । सच्ची बात से यह अलग रहता है और सत्य इससे हटा हुआ है, इसलिये इसका नाम 'निरर्थक अनर्थक' ७ है । द्वेष के कारण इससे दूसरे की निन्दा की जाती है, अथवा साधु पुरुष इसकी निन्दा करते हैं, इसलिये इसका नाम 'द्वेष गह. णीय' ८ है । सीधा न होने के कारण इसका नाम 'वक्र'. है । पाप या माया और उसका कारण होने से, इसका नाम 'कल्क तत्कारण' १० है । ठगने के, कारण इसका नाम 'वञ्चना' ११ है। किये हुए काम से, मिथ्या बोलकर इनकार करने से इसका नाम 'मिथ्या पश्चात् कृत' १२ है । अविश्वास उत्पन्न करने के कारण इसका नाम 'सती' (अविश्वास) १३ है । अपने दोष को और दूसरे के गुण को झूठ बोलकर ढांकने से इसका नाम 'उच्छन्न' १४ है । अच्छे मार्ग से हटा कर, न्यायरूपी नदी के तट से अलग रखता है, इसलिये इसका नाम 'उत्कूल' १५ है । पीड़ित मनुष्यों से बोला जाने के कारण, इसका नाम 'आर्त' १६ है। किसी के ऊपर झूठा अपराध लगाने से इसका नाम 'अभ्याख्यान' १७ है । पाप का कारण है, इससे इसका नाम 'किल्विष' १८ है । मन्डलाकर टेढ़ा होने से, इसका नाम 'वलय' १६ है । इसके हृदय का पता नहीं पड़ता, इससे इसका नाम 'गहन' २०है। स्पष्ट न होने के कारण, इसका नाम 'मन्मन' २१ है । वस्तुस्वरूप को ढांकता है, इस कारण, इसका नाम 'नम' २२ है । अपने कपट को छिपाने के लिये बोला जाता है, इसलिये इसका नाम 'निष्कृति' २३ है । इसमें विश्वास नहीं होता, इसलिये इसका नाम 'अप्रत्यय' २४ है । इसका व्यवहार
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy