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तया दमन न किया जा सके । विषयेच्छा भी नींद और भूख के समान ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसकी तृप्ति अनिवार्य हो ।' तात्पर्य यह कि कामवासना का दमन विवेक द्वारा सद्ज्ञान एवं भावना के बल से किया जा सकता है, इसलिये प्रत्येक के लिये विवाह करना आवश्यक नहीं है ।
कदाचित् कहा जाय कि 'प्रजोत्पत्ति की दृष्टि से विवाह करना आवश्यक है । यदि सब लोग विवाह न करके ब्रह्मचारी होने लगें तो फिर संसार का ही अन्त हो जाएगा !' ऐसे लोगों को यह उत्तर दिया जाता है कि इस प्रकार की शंका निर्मूल है । अनादि होने के कारण संसार का अन्त नहीं हो सकता, न सभी लोग ब्रह्मचर्य का पालन ही कर सकते हैं । कभी थोड़ी देर के लिये ऐसा मान भी लिया जाय तब भी प्रजोत्पत्ति और संसार की तुम्हें इतनी चिन्ता क्यों ? यदि ब्रहमचर्य का पालन करने से संसार शून्य भी हो जाए तो इसमें किसी की क्या हानि है ? यदि प्रजोत्पत्ति न भी हई या संसार का अन्त भो हो गया, तब भी हर्ज क्या होगा ? तुम्हें तो केवल यह देखना चाहिये कि हमारा उद्धार, विवाह करने-प्रजा या मनुष्य-संसार बढ़ने से होता है, या ब्रहमचर्य पालन करने से ? इस विषय में गांधीजी लिखते हैं-'आदर्श ब्रह मचारी को, कामेच्छा या सन्तानेच्छा से कभी जूझना नहीं पड़ता; ऐसी इच्छा उसे होती ही नहीं ।' महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह ने भी यही कहा था कि 'बह मचारी को संसार या संतान की इच्छा नहीं होती, न इनकी उत्पत्ति या वृद्धि के लिए वह अपने ब्रहमचर्य को ही नष्ट कर सकता है । इस प्रकार सब लोगों के लिये विवाह करना आवश्यक नहीं है, किन्तु जो पूर्ण