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( २०७) की अबोध अवस्था में होने वाले विवाह को विवाह कहना ही अन्याय है !
जमाई या बहू के शौकीन मां-बाप और मालताल के चट्ट बाराती, बालक और बालिका रूपी छोटे छोटे बछड़ों को सांसारिक जीवन की गाड़ी में जोत कर आप उस गाड़ी पर सवार हो जाते हैं । अर्थात् सांसारिक जीवन का बोझ उन पर बलात् डाल देते हैं। अपनी स्वार्थ-भावना के वश होकर वे लोग नीति की (बालक-विवाह-विरोधी) वातों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, उनका उपहास करते हैं और उन्हें पददलित कर डालते हैं। यद्यपि वे यह सब कुछ करते हैं अच्छा समझकर, हर्ष तथा प्रसन्नता के लिए और अपनी सन्तान को सुखी बनाने के लिए, लेकिन वास्तव में ऐसे लोग जिस बाल-विवाह को अच्छा समझते हैं, वे कभी-कभी बहुत ही बुरा, जिसे हर्ष का कारण समझते हैं, वही शोक का कारण और जिसे सन्तान को सुखी बनाने का साधन मानते हैं, वही सन्तान को दुःखी बनाने का उपाय भी हो जाता है । कुछ लोग इस बात को समझते भी होंगे, लेकिन सामाजिक नियमों से विवश होकर या देखा-देखी बालविवाह के घोर पातकमय कार्य में प्रवृत्त होते हैं और सामाजिक नियम तथा अनुकरण करने वाले स्वभाव के लट्ट से बुद्धि को विवाह करने तक के वास्ते-दूर खदेड़ पाते हैं ।
नाती-पोते द्वारा अपने जीवन को सुखी मानने वाले लोग अपनी सन्तान का बाल्यावस्था में विवाह करके ही सन्तोष नहीं करते, किन्तु विवाह के समय ही-या कुछ ही दिन पश्चात अबोध पति-पत्नी को, उनका उज्ज्वल और सुखमय भविष्य, काला और दुःखमय बनाने के लिए, एक