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________________ ( १५ ) गजसुकमाल सुनि श्मशान में बारहवीं भिक्षु पडिमा धारण किये हुए थे । इतने में सोमल ब्राह्मण श्राया । उसने कोधित हो, गजसुकमाल मुनि के सिर पर चारों ओर मिट्टी की पाल बना कर उसमें जलते हुए खैर के अंगारे भर दिये लेकिन गजसुकमाल मुनि का ध्यान भंग न हुआ । इस भीषण विपत्ति से भी गजसुकमाल मुनि का हृदय क्षुब्ध नहीं हुआ, न ब्राह्मण के प्रति उनके हृदय में क्रोध ही उत्पन्न हुआ । हाँ, दया के भाव अवश्य उत्पन्न हुए । सत्य तो उनके हृदय में स्थित था ही, उसी के प्रभाव से उन्होंने विचारा कि, "मेरे सिर पर जो अंगारे रखे गये हैं, उनसे मेरी कोई क्षति नहीं है। पौद्गलिक शरीर मेरा नहीं है, मैं तो रूप, रस, गन्ध आदि से रहित, उज्ज्वल आत्मा हूँ । यह शरीर रहता तो अच्छा ही था, किन्तु यदि नष्ट हुआ जा रहा है तो मुझे कुछ दुःख नहीं है । हाँ, इस ब्राह्मण की अज्ञानता पर मुझे अवश्य दुःख है, जिसके वश यह ऐसा कर रहा है । इसकी अज्ञानता ही ऐसा करा रही है, इसका दोष नहीं है । आत्मा तो मेरी और इसकी समान ही है । मुझे इसके प्रति किसी प्रकार का क्रोध या घृणा नहीं है अंगारे जल रहे हैं। गजसुकमाल मुनि का मस्तक खिचड़ी की तरह सीज रहा है । किन्तु गजसुकमाल मुनि शांत हैं और उनकी आत्मा एक दिव्य-लोक की ओर प्रस्थान करने की तैयारी कर रही है । गजसुकमाल मुनि अन्त तक शांत रहे । इसी शांति के प्रभाव से उन्हें तत्क्षण केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया और इसी नाशवान् शरीर को त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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