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.. ( ३०६) आवश्यक बता दिया है और जिन धर्मोपकरणों का रखना आवश्यक बताया है आगे चल कर, उच्च दशा में, वे भी त्याज्य बताये हैं । अपरिग्रह-व्रत स्वीकार करने के पश्चात् भी मर्यादानुसार जिन वस्त्रों का रखना आवश्यक है, उच्च दशा में पहुंचने पर उन सबको भी क्रमशः त्यागने का भग. वान् ने विधान किया है ।
. भगवती सूत्र में व्यूत्सर्ग का वर्णन पाया है। व्यूत्सर्ग का अर्थ त्याग है । मन, वचन और काय द्वारा बुरे कामों को त्याग देना व्यत्सर्ग है । व्यूत्सर्ग के बाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दो भेद बताये गये हैं । ये दोनों भेद द्रव्य और भाव व्युत्सर्ग के नाम से भी कहे जाते हैं । द्रव्य व्यूत्सर्ग के चार भेद हैं और भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं । द्रव्य व्युत्सर्ग के शरीरोत्सर्ग, गणोत्सर्ग, उपधि व्यूत्सर्ग और भात-पानी व्युत्सर्ग ये चार भेद हैं । भाव व्यूत्सर्ग के कषाय-व्युत्सर्ग, संसार व्युत्सर्ग और कर्म व्यूत्सर्ग, ये तीन भेद हैं । मोक्ष तो भाव व्युत्सर्ग से ही होता है, लेकिन भाव व्युत्सर्ग के लिए द्रव्यव्यूत्सर्ग का होना आवश्यक है । द्रव्यव्यूत्सर्ग के बिना भाव व्यूत्सर्ग तक नहीं पहुंच सकता। यहां व्यूत्सर्ग विषयक समस्त बातों का वर्णन आवश्यक नहीं है, यहां तो केवल यह बताना है कि मुनि के लिए, आगे चल कर शरीर, गण ( गच्छ सम्प्रदाय), उपधि (वस्त्र, पात्र, धर्मोपकरणादि) और भात, पानी, ये सब भी त्याज्य हैं । जब तक साधना का प्रारम्भ है, तभी तक इनका रखना आवश्यक है और जैसे-जैसे आगे बढ़ता जावे, वैसे ये भी त्याज्य हैं । आगे चल कर शरीर गच्छ उपाधि और भोजन - पानी को भी त्याग दे । इस प्रकार उच्च दशा में पहुंचे हुओं के लिए तो शरीर, वस्त्र,