SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३१० ) उपधि, भण्डोपकरण आदि सभी वस्तु त्याज्य हैवह तो जिनकल्पी ही रहता है - लेकिन जब तक ऐसी क्षमता नहीं है, तब तक के लिए भगवान् ने वस्त्र, पात्र आदि की मर्यादा बता दी है और उस मर्यादानुसार वस्त्र, पात्र आदि रखने का विधान कर दिया है । यदि भगवान् इस प्रकार का विधि-विधान न करते तो आज के साधुओं को केवल कठिनाई ही न होती, किन्तु उनके द्वारा ऐसे कार्य होते, शरीररक्षा आदि के लिए वे ऐसे काम करते जो वस्त्र, पात्रादि रखने के कार्यों से भी बढ़ कर होते । , । उच्च भगवान् ने मुनि के लिए मर्यादानुसार वस्त्र रखने का विधान किया है और वे मर्यादानुसार वस्त्र रखते भी हैं, फिर भी वे नग्न भावी ही हैं, क्योंकि उन्हें वस्त्रों से न तो ममत्व ही होता है, न वे अधिक वस्त्र हो रखते हैं । इसलिए वस्त्र होने पर भी वे भाव में नग्न भावी - अर्थात् नग्न ही माने जाते हैं दशा में पहुंचने पर वे उन थोड़े से वस्त्रों को भी त्याग सकते हैं, लेकिन इससे पहले ही वस्त्र त्याग देना व्यावहारिक दृष्टि से भी उचित नहीं है । शरीर और गरण का व्युत्सर्ग पहले बताया है और उपधि का व्युत्सर्ग उसके पश्चात् है । जब शरीर पर बिलकुल ममत्व न रखे और सम्प्रदाय से भी किसी प्रकार का संबन्ध न रखे, किन्तु असंग रहता हो अर्थात् वन में या गुफाओं में निवास करता हो, तभी उपधि का व्युत्सर्ग कर सकता है । शरीर से तो ममत्व हो, शरीर की रक्षा का प्रयत्न तो करता हो, लेकिन गच्छ को छोड़ बैठे अथवा शरीर से भी ममत्व है और गच्छ में भी है, चेला-वेलनी अनुयायी आदि बनाते रहते हैं और वस्त्र, पात्र आदि उपधि छोड़ बैठे तो वह वैसा
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy