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stant है, किसी भी प्रकार का संकोच नहीं करता । अधिक कहां तक कहा जावे, संसार में जिनको स्वजन कहा जाता है, परिग्रह के लिये उनकी भी हत्या कर डाली जाती है और आत्म हत्या का घोर पाप भी परिग्रह के लिये ही किया जाता है ।
परिग्रह के लिये स्वयं के शरीर से भी द्रोह किया जाता है । जो व्यवहार शरीर के लिये असह्य है, जिस व्यवहार से शरीर की क्षति होती है, परिग्रह के लिए शरीर के प्रति भी वही व्यवहार किया जाता है और जिस व्यवहार से शरीर सुखी रहता है, पुष्ट तथा सशक्त रहता है. आयु की वृद्धि होती है, उस व्यवहार से शरीर को वंचित रखा जाता है । जैसे अधिक गरिष्ठ और प्रकृति - विरुद्ध भोजन, मैथुन आदि कार्य तथा नशा शरीर के लिए हानिप्रद हैं लेकिन परिग्रह के लिए ऐसे हानिप्रद कार्य भी किये जाते हैं और सत्य तथा सादा भोजन, सीमित श्रम आदि शरीर के लिए लाभप्रद हैं, फिर भी इनसे शरीर को वंचित रखा जाता है अर्थात् मिथ्या' आहार-विहार द्वारा शरीर के साथ द्रोह किया जाता है और वह परिग्रह के लिए ही ।
शरीर से आगे चलिए । जन्म देने वाले माता-पिता, प्रिय माने जाने वाले भाई-बहिन, मित्र, सम्बन्धी, स्त्री-पुत्र आदि परिजन के विषय में विचार करने पर मालूम होगा कि परिग्रह के लिए इन सब से अथवा इनमें से प्रत्येक के साधं द्रोह किया जाता है । मनुष्य पर माता-पिता के अनन्त उपकार हैं, परन्तु परिग्रह के लिए उनका भी अपकार किया जाता है । इस बात को सिद्ध करने के लिए बहुत उदा