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( १९६) 'धीर्य और रज की अपेक्षा से २५ वर्ष का पुरुष और १६ वर्ष की स्त्री परस्पर समान हैं, इस बात को कुशल वैद्य ही जानते हैं।'
इसके अनुसार विवाह की अवस्था पुरुष की २५ वर्ष और स्त्री की १६ वर्ष ठहरती है । इस अवस्था में स्त्री और पुरुष, इस बात के निर्णय पर भी पहुंच सकते हैं कि हम पूर्ण ब्रहमचर्य का पालन कर सकते हैं या नहीं ? अर्थात विवाह की अावश्यकता का अनुभव, इस अवस्था या इससे अधिक अवस्था में ही हो सकता है और जब तक आवश्यकता न जान पड़े, जब तक विवाह करना धार्मिक और नैतिक दोनों ही दृष्टियों से अपराध है । जैन-शास्त्र पूर्ण ब्रह मचर्य के प्रतिपादक हैं, इसलिए उनमें विवाह-विषयक विधि-विधान नहीं पाया जाता, लेकिन जैन-शास्त्रों में वर्णित कथानों से ही विवाह के विपय पर बहुत प्रकाश पड़ता है । जैनशास्त्रों में वर्णित कथाओं से प्रकट है कि स्त्री-पुरुष का विवाह तभी हो सकता है जब वे विद्या, कला आदि सीख चुके हों और उनके शरीर पर कामवासना का प्रभाव पड़ने लगा हो । औषपातिक सूत्र में कहा है:
__नवंगसुत्तपडिवोहिए, अट्ठारस देसीभासाविसारए गोयरती, गंधव्वरणट्टकुसले, हयजोही, गयजोही, रहजोही, बाहुजोही, बाहुपमद्दी, विद्यालचारी, साहस्सीए अलं भोगसमत्थे या वि भवई।
'जिसके नव ग्रंग (२ कान, २ अांख, २ नाक, १ जीभ, १ त्वचा और १ मन काम-भोग के लिए) जागृत हुए हैं