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श्रदत्तादान - विरमण व्रत
प्रदत्तं नादत्ते, कृतसुकृतकामः किमपि य ; श्रुतश्रेणीस्तस्मिन् वसति कलहंसीव कमले || विपत्तस्माद् दूरं व्रजति रजनीवाम्बरमणेः । विनीतं विद्येव, त्रिदिवशिवलक्ष्मीर्भजति तम् ॥ ( सिंदूर प्रकरण )
अर्थात् - जो पुण्यकामी बिना किसी की दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करते, उनमें शास्त्र श्रेणी इस प्रकार रहती है, जैसे कमल पर कमलहंसी । ऐसे लोगों से विपत्ति उसी प्रकार दूर हट जाती है, जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर रात्रि हट जाती है । जिस तरह विद्या - विनीत पुरुष को अंगीकार करती है, उसी तरह अदत्तादान के त्यागियों को स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी स्वीकार करती है ।
चोरी का जो सूक्ष्म और स्थूल रूप संक्षेप में बताया गया है, उससे निवृत्त होने के लिये अदत्तादान - विरमरण व्रत को धारण करना उचित है । इस व्रत को धारण करके पालन करने वाला, इस लोक में सुखी रहता है, विश्वासपात्र माना जाता है, यश तथा कीर्ति प्राप्त करता है और परलोक में भी सुख पाता है । इस व्रत की प्रशंसा और इससे होने वाले लाभ