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( २९६ ) अथवा मित्र हैं, मैं इनकी हिंसा कैसे करू? .
यह जन-हिंसा की बात हुई । अब पशु-पक्षी आदि की हिंसा पर विचार किया जाता है । पशु-पक्षियों की हिंसा भी परिग्रह के लिए ही होती है । दीन मूक और किसी की कोई हानि न करने वाले पशु-पक्षियों को भी मनुष्य इच्छा-मूर्छा की प्रेरणा से ही मारता है । शिकार द्वारा, कत्लखानों में अथवा अन्य प्रकार से पशु-पक्षियों की जो हिंसा होती है, वह सब परिग्रह के लिए ही । चर्म, रक्त, केश, दांत, चर्बी, मांस अथवा अन्य किसी अवयव के लिए ही पशु या पक्षी को मारा जाता है । यदि इनमें से किसी की चाह न हो, तो पशु-पक्षियों को मारने का कोई कारण ही नहीं है । जो कोई भी पशु-पक्षियों की हिंसा करता है, वह या तो उस पशु-पक्षी के अंगोपांग दूसरे को बेच कर बदले में और कुछ लेता है अथवा स्वयं ही उनको उपयोग में लेता है। दोनों में से किसी भी लिये हो, फिर भी यह तो स्पष्ट है कि परिग्रह के लिए ही पशुत्रों और पक्षियों की हिंसा की जाती है और परिग्रह के लिए ही दूसरे जीवों की भी हिंसा की जाती है । बन्ध, बध आदि हिंसा के अंग रूप पाप भी परिग्रह के लिए ही होते हैं ।
इस प्रकार परिग्रह के लिए ही हिंसा का पाप होता है । छोटे या बड़े किसी भी जीव की हिंसा ऐसी न होगी, जो परिग्रह के लिए न की गई हो । आरम्भादि द्वारा होने वाली हिंसा भी परिग्रह के लिए ही होती है और महारम्भ द्वारा होने वाली हिंसा तो विशेषतः परिग्रह के लिये ही होती है । मिलों और कारखानों से जो काम होता है, वह