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पांचवां कुप्य परिमाणातिक्रम अतिचार है । व्रत के आगार में घर की जो वस्तुएं रखी हैं, उन वस्तुनों से बाहर की वस्तुओं का मर्यादाकाल समाप्त होने पर मर्यादा में रखी हुई वस्तुओं में न्यूनता आने पर वापस लेने के विचार से दूसरे के पास रखे तो यह कुप्य परिमाणातिक्रम प्रतिचार है ।
प्रतिचारों की व्याख्या यह भी होती है कि ज्ञात न होने पर स्वयं के अधिकार में मर्यादा से अधिक पदार्थों का हो जाना । पदार्थ तो मर्यादा से अधिक हो गये हैं, लेकिन स्वयं को यह पता नहीं है कि मेरे अधिकार में मर्यादा से अधिक पदार्थ हैं, किन्तु स्वयं यह समझता है कि जो पदार्थ मेरे अधिकार में हैं वे मर्यादा में ही हैं तो यह अतिचार है यानी अनजान में मर्यादा से अधिक पदार्थों का अपने अधिकार में होना यह अतिचार है । जब तक इस बात का पता नहीं है कि मेरे अधिकार में मर्यादा से अधिक पदार्थ हैं, तब तक तो उन पदार्थों का अधिकार में होना अतिचार ही है, लेकिन पता होने पर भी मर्यादा से अधिक पदार्थों का अपने अधिकार में ही रखना, अनाचार है और अनाचार होने पर व्रत भंग हो जाता है ।
संक्षेप में यह पांचों प्रतिचारों का स्वरूप हुआ । जो व्यक्ति इनसे बचकर व्रत का पालन करता है, उसी का व्रत दूषण रहित है, वही व्रत लेने का उद्देश्य पूरा करता है और वहो आराधक तथा आत्मकल्याण करने वाला है ।
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