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शास्त्र में बताये हुए पांचों व्रत, एक दूसरे से इस प्रकार सम्बन्ध रखते हैं कि एक भी व्रत का पूर्ण रीति से पालन करने पर सब व्रतों का पालन स्वयं हो जाता है और एक भी व्रत का खण्डन करने पर सब व्रतों का खंडन हो जाता है । इसलिये शेष चार व्रत का पालन करने के लिये भी इस व्रत को धारण करना आवश्यक है ।
शास्त्र में अदत्तादान - विरमण के दो रूप बताये गये हैं। एक सूक्ष्म और दूसरा स्थूल अथवा महाव्रत एवं अणुव्रत । सूक्ष्म व्रत साधु के लिये बताया गया है और स्थूलव्रत गृहस्थ श्रावकों के लिये । गृहस्थ - श्रावक सूक्ष्म - प्रदत्ता - दान - विरमण व्रत का पालन नहीं कर सकते, क्योंकि महाव्रत ( सूक्ष्म व्रत ) तीन करण और तीन योग से धारण किया जाता है, तथा उसमें किसी की बिना दी हुई वस्तु मात्र को ग्रहण करने का त्याग करना होता है । सूक्ष्म प्रदत्तादान विरमण व्रत को धारण करते समय साधु प्रतिज्ञा करते हैं
समणे भविस्सामि श्ररणगारे श्रचिणे प्रपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावकम्मं गो करिस्सामिति समुट्ठाए सव्वं भंते प्रदिरणादारणं पञ्चक्खामि ।
( आचा० द्वि० श्रु० १६ वां अ० )
अर्थात् - हे पूज्य ! मैं गृह, धन, पशु, पुत्र को त्याग कर दूसरे का दिया हुआ भोगने वाला साधु होता हूँ । इसलिये मैं सावधान होकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि अदत्तादान का पाप मैं नहीं करूंगा, किन्तु वे ही चीजें भोगूगा, जो दूसरे ने मुझे दी हों ।