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| महाझूठी-वृथा बात काहेको कहाँ हो। अब ताई शरीरविः आत्मा छिन-दिन उपजते मरते सुने नांही। कोई हजारौं बात तो बीस-बीस बरस की देखी मोकों यादि है। कई बात हमारे बड़ों के मुख तें सुनी थी सो सौ-सौ । ५४ बरस की सो भी केतीक यादि हैं । परन्तु रोसो तुम्हारी-सी अउ अन ताई नहीं सुनी। मेरी गुवाली देवो । तब या सेठ ने नहीं दई। तब गुवाल ने अपने मन में विवारि मतौ ( सलाह) करिके वाके टोर अपने घर बांधि राखे। दोष दिनकोबार नहीं आए। तब गुवाल को बुलाय सेठ ने कही। रेगुवाल ! दोय दिन भये सो हमारी ! मैं सि-गईयां नहीं आई सो क्यों ? तब या गुवाल ने कही। सेठ साहिब, गैया तौ कैसी, अरु भैसि कैसी? मोकों का ठीक नही। आत्मा, शरीर में छिन-छिन और आवै है सो अगले तो गये और मैं तो अब आया हौं। सो भोकों किसी के ढोरन की ठोक खबर नाई। तब या सेठ ने कही। रे गवार ! हमतें चौड़ाई (धूर्तता) करि झूठ बोले है । तब धा सेठ ने कुतवाल कू कहि, गुवाल • रुकाया। तब गुवाल ने कही मोकों काहेकों रोक्या है। तब कुतवाल ने कही, सैठ के ढोर ल्याव । तब गुवाल ने कही, मेरो न्याय करौ। तब कुतवाल ने कही, न्याय काहे का है। गुवल ने कही, सेठ कं पूछौ। तब कुतवाल ने सेठ कू बुलवाया । अरु कही, गुवाल कू क्यों रुकाया है। तब सेठ ने कही, आजि दोय बरसतें हमारे ढोर चरावै है । सो अब दोय दिनते, ढोर चुराय राखे हैं। तब कुतवालकं गुवाल ने कही। भो कुतवाल ! याके मत विष एक शरीर में आत्मा छिन-छिन और-और आवता मान है। मैंने यापै गुवाली माँगी, तब या ने कही गुवाली काहै को । वह आत्मा लेने-देनेवाला नाही । तब मैंने या के ढोर बांधि राखे यह सेठ अपना मत मठा। कहि मेरो ग्वाली मोक देय अपने ढोर लेवे। तब कुतवाल ने हजारों ही आदमीन मैं सेठ को झूठा कह्या । गुवाल की गुवाली दिवाईढोर धनो को दिवाये । सो हे भ्रात ! क्षणिकबाद मत धरनहारे, तेरे मतकौं गँवार अज्ञान ढोरन का चरावनहारा गुवाल भी झूठा कहै है। सो त देखि, यह बाल-गोपाल संसार में सबतें हीन अज्ञानी हैं, सो भी तेरा मत असत्य कहैं हैं । तो भो भ्रात क्षणिक मतवाले ! जो विवेको होय, सो कैसे सत्य कहैं ! तातें जाके मत विष आत्मा क्षणभंगुर कह्या होय ताके जान, आगम, पदारथ असत्य हैं। ऐसे याका क्षणिकमत प्रत्यक्ष असत्य बताय स्थाद्वादमत के सनमुख किया।