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नाहों है। वाही को काल-स्थिति पकि जाय, संसार निकट रहि जाय, तब सहज ही कषाय मन्द होय जाय । सत्संग में आय, अपनी मलि मानि, अपनी अज्ञानता को निन्द्य, प्रायश्चित्त लेय, शुद्ध होय, धर्म सेवन करै तौ ।। २८५ करै। बाको ऐसा मूर्ख, उपदेश तें नाहीं सुलट है। ताते ऐसे क्रोधी कौ धर्मोपदेश मने किया है और आप मानो है, सो धर्म स्थान है जाय के देव-गुरु-धर्म को नमस्कार करता, चित्त मैं लज्जा उपजावै और कोऊ धर्मात्मा, समता भाव सहित, ताकौं देखि, ता सामान्य जानि, विनय-भाव नाहीं करें। तो आप को विशेष पुण्यात्मा जानि, धर्मात्मा जीवन के अविनय रूप प्रवर्त। ऐसे दीर्घ मानी-मूळ कं, धर्मोपदेश नहीं होय तथा आप के तो काहू से मान-भाव नाहीं। आप तौ सुजीव है । परन्तु कोई महापापी मान का निमित्त पाय के सुधर्म तैं तथा धर्मो-जीवन तें, द्वेष-भाव करै। पर के कहैं, धर्म का तथा धर्मो-जीवन का अविनय करें। ऐसे भोल-मूर्खान • धर्मोपदेश नाहीं । कोई मायावी-दगाबाजी, जीव, जो जानते हो भोले जीवन को बहकावे
कौं तथा ठगवै कौं, देव-धर्म-गुरु का स्वरूप और ही रूप कहै है । नय-जुगति देय के, कुदेव-कगुरु-कुधर्म Liका अतिशय प्रन्यावती, सोमा व ड । २ नाघावी तथा अनेक उपाय करि अपना महन्तपना दिखाय, तिन भोले जीवन के अपने पायन नमावै। कोई जुगति तें, उनका धर्म लिया चाहे । ऐसे दगाबाज प्राणी को धर्मोपदेश नाहीं और केई महालीभी, मायाचारी, मनोवांच्छित इन्द्रिय-जनित सुख की इच्छा के धारनेहारे, गज-घोटक-पालकी-रथादि की असवारी के वांच्छनहारे, जिनका पुण्य तौ कम-हीन पुरयी, कमाव-बैदा करवं की तो जिन्हें शक्ति नाहों और भोगोपभोग की दीर्घ तृष्णा सो अपने ज्ञान के बल तैं भोले जीवन के अपने बढ़त्व-भाव का चमत्कार बताय, अपना त्यागी-निष्पृहयना बताय, परारा घोटक-रथादि असवारी का लोभी। पराये धन का इच्छुक लोभी, इन कौं सुधर्म का उपदेश नाहों। क्योंकि ऐसे भोगी, पाखण्डी, माया के जोगते इन्द्रिय-भोग के भोगनहारे इनकों धर्म रुचै नाहीं और सुधर्म रुचै, तो याके भोगभाव, लोभादि सर्व ही अवश्य ही छुटि जाय । सो यो महाकषायी, भोगी, मानी, इन्द्रिय सुख भोग्या चाहे।
सो ऐसे जानते-पूछते धर्म-रहित मूळ कौ धर्मोपदेश मनै है और भोले सरल मानकौं धर्मोपदेश लागे। रौसा ! जानना ये तेरे प्रश्न का उत्तर है। या भांति मर्श दीय भेद कहे। जैसे-रोगो जीव दोय प्रकार है। सो
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