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जो बालक-अज्ञान, सो माता-पिता के वचन उल्लम, छिपक, बड़ी घाम में ही भाग, बालकन में खेलने जाय है। तहाँ शीश मैं रज भरै। घाम तन सहै। प्यास लागी, सो सहै है। भख लागी है। औरन के मुख को गारी सहै है। कोई शिर में मारे, सो भी सहै है। इत्यादि खेद के स्थानन में तो जाय। अरु सस्त्र-स्थान अपना
घर, तहां नहीं रहै। ऐसा अज्ञान ये बालक है और एक अज्ञान ग्वाल है। जो सदैव ढोर चरावै। वन ही में रहे, । या मैं भी शुभाशुभ का ज्ञान नाहीं। इस गोपाल को शाल का जोड़ा दीजिये। तो ये अज्ञानी नितम्ब-वल्लभ, शाल । के मोल-गुण कं नहीं जानता-सन्ता, बैठे है तहां शालक, पद नीचे देय बैठे। इसको विशेष-विवेक नहीं होय । सदैव पशन की संगति मैं रहै। सो तैसी हो बुद्धि धारे हैं। इस गंवार क वन में प्यास लागें, तब नदी में जाय, पशु की नाई मुख ही ते जल पावै, हाथ तें नहीं पोवै। खड़ा ही नीतादिक बाधा करै। याके शुभाशुभ की खबरि नाहों। तातपाल भी अज्ञान है। यादिक काहे भूरखनन के भेद, सो इन सर्वकं नीच-संग ही भला लागे है और ऊँच-संग में जाते-बैठते-बोलते, लज्जा उपज है। जैसे—कोई भले-आदमी का पुत्र, होरी के दिन में, अपना मुख श्याम बनाय, नोच-संग के मनुष्यन में खुशी भया, रमै था-स्वछन्द खेले था। सो तहाँ कोई भलाआदमी पाय निकसै, तो लज्जा खाय धिपि जाय है। उस काले-मुख सहित, भलै-संग में लजा उपजै। तैसे इस अज्ञान कौ सुसंग में लज्जा उपज है और अपने समानि, अज्ञान के धरनहारे जीव होय, तिनमें ये अज्ञानी प्रसन्न रहे है। तात ये काक, श्वान, अज्ञान इनकं नोच-स्थान ही प्रिय है। सो इनका ये सहज-स्वभाव जानना । एतेन कं ऊँच-संग मला लाग है। सोही कहिये है। एक तो हंस, महासमुद्र का रहनेहारा, मोती चुगनेहारा, उज्ज्वलबुद्धि, निर्मल नीर का पीवनहारा, ऐसे भले-स्थान का रहनेहारा, सुबुद्धि, महासुन्दर तन का धारी, हंस कू ऊँचस्थान ही अच्छा लाग है। जहाँ बड़ा दरयाव होय, बड़े जल का विस्तार घणा-जल होय, हस तहां सुखी होय।। जे चतुर नर हैं सो भी तहां राजी होय हैं, जहां अनेक-कलाके धारी, विवेकी, चतुर, राजकुमारादि, उज्ज्वल-बुद्धि, आप समानि धर्म-कर्म-कला में समझते होंय । अनेक शुभ-विवेक वार्ता होती होय। नाना नय-जुगतिन की रहसि सहित प्रश्न-उत्तर होते होय। अनेक धर्म-कथा चरचा. शास्त्राभ्यास करें लिये होती होय। जहां की चतुराई में तिनक भला लागै कुसंगत अरति होय सो चतुर कहिए और जे धर्मात्मा हैं । तिनकू धर्म-स्थान सोहोऊँच-स्थान,
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