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| अन्तर-बाह्य करि दया-मावन सहित, समता-भाव को विधि लिये करना, सो तप कर्म है ।। तहां पंचेन्द्रिय ||Yey । तथा मनकों वशीभत करना षटकाय को दया करनी । सो द्विविधि संयम बारह प्रकार है । सो उपदेश्या।६। है। ऐसे षट् कर्म भरत चक्री प्रजा का पिता, सो सबके थग-भव के सुख का अभिलाषी, कर्म-धर्म के मार्ग कों
दीयक समान जो भला उपदेश सो षट-कर्म रूप उपदेश देय, लोकन को सुखी करे। इति भरत चको के उपदेशित षट्-कर्म । पोछे भरतनाथ मरत चक्रवर्तीकों सोलह स्वप्ने आये । तिनका फल चक्रो ने श्रीजादिनाथ जिन से पूछा। तब भगवान् ने कहो-हे राजन् ! इनका फल चौथे काल में नाहीं । आगे पश्चम काल में, इन स्वप्न का फल प्रगट होयमा। सो कहिये है। प्रथम नाम-प्रथम तो तेबोस सिंह देखें। दूसरे स्वप्न में एकला सिंह, ताके पीछे मृगन का समूह गमन करते देखा । तीसरे स्वप्न में हस्ती का भार धरै, तुरग देखा। चौथे स्वप्न में कागन करि, हंस पीड़ित देखा। पांचवें स्वप्न में बकरेकं सखे पत्र चरते देखा। छ? स्वप्न में बन्दरको हस्ती के कन्धे पर चभ्या देखा। सातवें स्वप्न में भूत नाचते देखे। आठवें स्वप्न में एक सरोवर ताका मध्य तो सुखा और तीर में अगाध जल देखा । नववे स्वप्न में रन राशि रज करि मण्डित, कान्ति रहित देखी । दशवे स्वप्न में श्वानकं पूजा का द्रव्य खाते देखा । ग्यारहवें स्वग्न में तरुण वृषभ दहङ्कता देखा। बारहवें स्वप्न में चन्द्रमाकों शाखा सहित देखा । तेरहवें स्वप्न में दोय वृषम इकट्ठे होय गमन करते देखें । चौदहवें स्वप्न में सूर्य विमानकों मेघ पलट से आच्छादित देण्या। पन्द्रहवें स्वप्न में छाया रहित सूखा एक वृक्ष देखा। सोलहवें स्वप्न में जीर्ण पत्रन का समूह देखा। ये सोलह स्वप्न भये अब इनका अर्थ कहिये है। तहाँ ते बीस सिंह देखे, तिनका फल ये, जो तेईस तीर्थङ्करन के समय में तो खोटी चेष्टा के धारी परिग्रह सहित, जिन-धर्म विष मुनि नहीं होंयगे।श एक सिंह तरनतारन, ताके पीछे मगन के समुहगमन करते देखे। तिनका फल ये है। जो अन्तिम चौबीसवें जिन महावीर तिनके निर्वाण भये पोवे यति मग की नाई दीन नग्न परीषह सहवेकौं असमर्थ, सो परिग्रह का धारन कर, यति बाजैगे। जिन लिंग तज, कुलिङ्ग धरेंगेहाथी के भार सहित तुरङ्ग देखा ताका फल ये है-जो पश्चमकाल में साधु, तप के भार करि दुःखी होयगे। तपधारनेकों असमर्थ होंयगे।३! बकरेक सूखे पत्र खाते देखा। तिसका ये फल है। जो ऊँचे कुल के मनुष्य शुभाचार ते ।।
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