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इस मदिरापान के करनहारे जीव महाकठोर परिणामी होय हैं। अनेक वस्तु मिलाय, तिन सर्वकौं कूटि एक जल कुण्ड में डालि सड़ाव हैं । ता विर्षे कुछ दिनमैं कोटि पड़ि चलें हैं। जल मैं दुर्गन्ध चले, तब उस जलक सर्द जीवों सहित यन्त्र में डालि, अग्निपै चढ़ाय ताका अर्क काढ़ें। ऐसी जो मदिरा, ताकी विवेकी. उत्तम आचारी, शुभ कुली नहीं खाय हैं। जाके पिये बुद्धि जाय, वचन प्रतीति जाय, लोक जो देखें सो धिक्कारें। जो ऐसा जानि कमी मदिरा नहीं तजै तिनकी सममिकौं विवेको निन्दें हैं। मद्यपाधो, पाय के योग ते नरक जाय है। तहाँ ताका 'मुख चोरि, तातो-ताती धातु गालि, ताकौं पिघावें हैं। यहां प्रश्न-नरक में धातु कहाँ है ? ताका समाधानयहां धातु तो नाही; परन्तु जीवन के पाप करि, तहां के पुद्गल परमाणु गलि, धातु तैं ही असंख्यात गुखी अधिक उष्णता स्प, धातु के प्राकार होय हैं। सो धातु पिवाय ते नारको मद्यपायो कौं पाप याद कराने हैं कि जो १२- मैं तेने सुराधानका साताका फल इस ताक मैं ऐसा होय है और इस मदिरापायीकै बुद्धि का अभाव होय है। मद्यपायी के वचन की प्रतीति नाहीं। भद्यपायोकै पुरुषार्थ का अभाव होय है। यह पग-पग मूळ खाय पड़े है। मद्यपायी का किया धर्म, विफल होय है। शीश तैं पगड़ी पड़े। वस्त्र फटैं। मर्यादा रहित मुख आवै सो बकै। माता, स्त्री. भगिनी, पुत्री का ज्ञान नाहां सर्वकौं शक-सा देखें। खाद्य-अनाद्य का ज्ञान रहित होय इत्यादिक पाप व निन्दा का स्थान मदिरा, ताका त्याग करना योग्य है और जिनतें अपने व्रतकों अतीचार लागे सो भो तजना योग्य है। सो दास के अतीचार कहिये है। भांग, तमाखू, गांजा, चरस, याकादिक विषय-पोषण के निमित्त वस्तु का खावना। सो दारू का-सा दोष है और खम्मीर राखी वस्तु जो की जलेबी, अनगाले जल का मही और जे बहुत दिन की रस-वस्तु होय, सो खाये से मदिरा समान दोषकुं उपजावे है और अर्क, गुलाब जल, ये मदिरा सम हिंसा उपजावै है और सिंगिया विष, सौंठिया विष, हल्दिया विष, सौमला खार इत्यादिक विष जाति मदिरा सम दोष उपजावै है और कोई कू मदिरा पीयवे की इच्छा होय, तो इहा मद्य कू देख लेवे। पीछे कछु बड़ाई होय तो पीवना। हे भव्य ! कोई नेत्र हित अन्ध होय है। परन्तु मद्यपायी है सो नेत्र सहित अन्ध है मद्यपायो क सर्व गैसा कहैं हैं कि यह सप्त है। मद्ययायी की करी धर्म-क्रिया विफल होय है। के तौ मद पीवनेहारा खप्त कहावै के वायु-सन्निपात रोग सहित बोलनेहारा खप्त कहावे तथा हौल-दिल होय
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