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परिमारा का नाम तौ, प्रशोत्तर श्रावकाचारजी के अनुसार कहा और तत्वार्थसूत्रजो विर्षे क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, | स्वर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, भाण्ड, कुप्प–श दस हैं। सो नाम भेद हैं । अर्थ मैद केवली-गम्य है तथा विशेष
ज्ञानीन के गम्य है। इन दश जाति के परिग्रह का परिमाण करना सो परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। सो याकै पांच अतिचार हैं । सोही कहिये हैं । अति बाहन, अति संग्रह, अति विस्मय, अति लोभ और अति भारारोपसए पांच हैं। इनका सामान्य अर्थ गाड़ा, गाड़ी, रथ, हस्ती, घोड़ा इत्यादिक असवारी जाति के जैसे-दस हजार घोड़ा, दस रथ इत्यादिक परिमाण राखे थे सो वर्तमान काल में आपके पास परिमाण से थोड़ा है। सो ताके | पूर्ण करवे कौ अनेक उपाय करते, ऐसा विचार । जो मेरे तो दसका परिमाण है । सो पांच तौ हैं, अरु पांच और
ल्यौं। तो मेरे व्रतक दोष नाहीं। ऐसा विचार कर पूरण कर या वाहै है। सो बहुत वाहन नाम दोष है तथा अपने परिमाण ते बहुत इकट्ठ करने की इच्छा होय तथा अपने परिमाण तें बहुत वाहन होय। तौ कहै, ए मेरे नाहीं, मेरे पुत्र के हैं तथा स्त्री के हैं तथा भाई के हैं इत्यादिक अपने मन त कल्पना करि, तिनको इकट्ठ करै। सो अनि का नाम दोष है! अपनीयतः उधिनमा सन्तोष छोड़, अत्यन्त लोभ के योग तैं, अपने जेते अन्न की मर्यादा राखी थो, ताही परिमाण अनेक जाति का अन्न संग्रह करि भड़शालामैं बहुत दिन राखै । तिनमें अनेक जीव पड़ चलें सो तिनकौं देख के, निर्दय-भावना करि ऐसा विचारै। जो मेरे एतै अन्न की मर्यादा है। कोई मर्यादा कं उल्लंधि करि थोड़े हो गया है अरु जीव पड़े सो ही पड़ें। अन्न है। ऐसी कहां सधै ? व्यापार है। नहीं करिये. तो बने नाहीं। ऐसी विचार करि कठोर भाव राख दया नहीं करै। सो बहुत संग्रह नाम दोष है।२१ कठारखाने की दुकान सम्बन्धी किराना, धना, जीरा, हल्दी आदि अनेक वस्तु लेनी-बेचनी। तिनमें सामान्य विशेष लाभादि नहीं जान, परिणामन में खेद करना, संक्लेशता रखनी तथा पहिले तो लाभ जानि वस्तु ल्यावना। पीधे लाभ नहीं मासै तब बहु तृष्णा करि बेचना तथा अपनी मर्यादा ते अधिक भाई जान ताके फेरवे कौ विसम्वाद करना, सो विस्मय नाम दोष है।३। और जहां वाणिज्य के निमित्त अनेक वस्तु संग्रह करना, लेना पोछे बैंचना तब अल्प मोल की वस्त में मिलाय बैंचना, सो अति लोभ नाम दोष है।४। और तहाँ वृभष भैंस, खर, हिम्माल, इनके ऊपर मर्यादा के उपरान्त भार का धरना। जैसे-भाड़ा तो तिनके भार को मर्यादा