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श्री जिनेन्द्राय नमः।
श्री सुदृष्टि तरंगिराणी
पं० प्रवर श्री टेकचन्द जी कृत
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ओं नमः सिद्धेभ्यः ।
ओंकारं विन्दुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ॥ १ ॥ अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलमलकलंका | मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥ २ ॥ अज्ञानतिमिराधानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ परमगुरवे नमः परम्पराचार्य्य श्रीगुरवे नमः ।
सकलकलुषविध्वंसकं श्रेयसा परिवर्द्धकं धर्म्मसंबन्धकं भव्यजीवमनः प्रतिबोधकारकमिदं शास्त्र “श्री सुदृष्टि तरंगिणी” नामधेयं, एतन्मूलग्रन्थकर्त्तारः श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्त्तारः श्रीगणधर देवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचोनुसारमासाद्य पंडित प्रवर श्री टेकचन्दजी विरचितम् ।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥ सर्वे श्रोतारः सावधानतया शृण्वन्तु ॥
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विषय-सूची
विषय
ਪ੍ਰਾਨ
प्रथम पर्व
१–१०
पचपरमेष्ठी की स्तुति - टिप्पणिका-इष्टदेव को नमस्कार द्वितीय पर्व
११ २८
संसार सुख सिद्धन के नाही. तो मोक दिये कैसा सुख हैदृष्टि तर जिणो ग्रन्थ- नाम का अर्थ पर शेय में ममत्व भाव करि भ्रमण करते. अनन्त परावर्तन काल भये- अनन्तकाल भ्रमण करते, जांब को काललबंध निकट आये, तब पशलब्धि होय - सम्यक्त्व के दश मेदसम्यक्य के २५ दोष सम्यक्स्व के गुण मोसा लक्षण और वक्ता लक्षण
तृतीय पर्व
२६-४२
पण्डिलों के दो भेद एक दृष्टान्त-ग्रन्थ के आदि षट् वस्तु कथन-मले की दाता सब प्रकार कथा— मोक्ष-महल चढ़ने को सीवान, सम्यक्त्व की उत्पति है
पर्य
४३-७४
एकान्तमतों को समझाय दृढ़ किया-क्षणिकमल को सम्बोधनकर्त्तावादी से निर्णय- नास्तिकमत क सम्वाद - अवतारवादी एकान्तमती का सम्वाद अज्ञानवादी का निर्णय-स्थिरयाद। सम्बाद कई विपरीलमती, अजीव तें जीव की उत्पत्ति मानें हैं। मेघमाला को इन्द्र कहें है- मोरे जीव काल द्रव्य जी असन, ताक वेसन मानें हैं- कई मत अजीव द्रव्य तें जीव की सत्पति मानें हैं—एकान्तमत को स्यादाद नय कृषि सख्य बताया अवतारवादी का वचन, कोई नय करि प्रमाण हैवणिकवादी को स्याद्वाद नय कृषि प्रमाण ठहराय, जीवादि तत्व
विषय
पृष्ठ
बताये - नास्तिकमसी को समझाया- सिद्ध जीव, ज्ञान रहित नहीं है— जीव मरै, वैसी हो योनि में उपजी निराकरण-मोक्षसुख ७५- ६२ पद्मपर्व मोक्ष का स्वरूप और अजीव द्रव्य अष्ट कर्म-कर्म बन्ध, उदय सत्ता. गुणस्थान
षष्ठपर्व
६६- १०६ चौदह माणसात समूघासू जीव समास और पर्याधिप्राण - वनस्पति के सात प्रकार बीज-गुणस्थानों सम्बन्धी जोन संख्या
सप्तम पर्व
धर्म, अधर्म, काल द्रव्य भगवान के गुण
१०५ - ११७
अष्टम पर्ष ११८ - १३६ कुदेव कुगुरु-गुरु का स्वरूप-४६ दोष ( ३२ अन्तराय व
१४ म
नवम पर्ष
१९३७ - १४६ तीन गुप्ति परीषद मुनि वर्णन आचार्य के ३६ गुण दशम प २४--१६८ उपाध्याय के २५ गुण-पाताल लोक वर्णन - मध्य व लोक वर्णन - जिनेन्द्र गुण सम्पत्ति आदि तप-दश प्रकार मूनि मैद मुनियों के चिन्तयन योग्य दश समाचार – मुनि मन्दिर में केसे प्रवेश करें— मुनि स्तुति करें, ताके श्लोक - मुनि प्रमादवश होय. तब कायोत्सर्ग करें
-
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विषय पृष्ठ | विषय
पृष्ठ ग्यारहमा पर्य १६-१७ अठारहयो पर्व
२३१-२६ कुधर्म-सुधर्म और नव नय-सत्य-धर्म, पस प्रमाण करि अखण्ड
मोक्ष मेहय-शेय-उपादेय बारहवां पर्व
१८०-१६५ लमीसा पर्य
२४०-२५८ किस प्रकार की संगति करना-विचार मैं शब-उपादेय और
ज्ञान में ध्य-झंथ-उपादेय-कुलमो के सोन भेद तथा विश्वासघाती ध्यान का स्वरूप-क्रिया में शेय-हय-उपादेय-गर्भ में शुमाशुभ
का एण्टाम्त-चार गति के जीवन की आगति-जामतिबालक के चिह्न-क्रिया-अक्रिया कथन-उसम श्रावक के धर्म
निमित्त-उपादान कारण और शुम वाणिज्य-जघन्य मध्यम कर्म भूषण
उत्कृष्ट ऋतज्ञान सेरहवां पर्व
२६-२६६ १४-२१६
अवधिशान मनः पर्ययज्ञान और केवलज्ञान खान-पान में शेय-हेय-उपादेय-वचन मैं शेय-हेय-उपादेयद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव मैं य-हेय-उपादेय - पद काय के जीवनि
इकीसवी पर्व
२६६-१८२ का शरीर-निगोद के पश्च स्थान-तप में शेय-हेय-उपादेय।
मनुष्य अपनी आयु तथा खोदे है-अपनी भूलकर खुद बन्ध्या है -
शमात्मा को एते दोष नाही-धर्म के प्रसाद तै, अचेतन आकाश धौवइया पर्व
२१७-२२८ भी भक्ति करे, तो इन्द्र-चक्री आदि चेतन द्रव्य भक्ति करे, तो क्या प्रत विर्षे ज्ञेय हेय-उपादेय- दान विर्षे झंय हेय-उपादेय
आश्मर्य-पुण्याधिकारी पुरुषों के भी इन्द्रिय-सुस्थ नाशवान है. पात्र में शय-हेय-उपादेय-पूजा में शेय-हेय-उपादेय
माता-पितादि सर्व स्वारश्च के बन्धन ते बंधे हैं जिसका सा
स्वभाव, वह नहीं मिटता-जिन आशा रहित पण्डित के मुख ते पन्द्रहवा पर्व
२२१-२१२ शास्त्र न सुनना-ऋर जीव, सर्प से भी विशेष दुष्ट हैतीर्थ में शय-हेय-उपादेय
सजन-दुर्जन स्वभाव सोलहवा पर्व २३३ . पाईसवा पर्व
२८३-३०१ परस्पर चर्चा में हत्य-शेय-उपादेय
मुर्स को धनोपदेश कार्यकारी नाही-एसे किसन (व्यापार ) या
रहित है-पण का धन वह नहीं भोगे है, ऐते जीव दया रहित हैसत्रहवा पर्य
२३४-२३५ सन्तोषी आत्मा निधन होने पर. ऐसी भावना मावे-धर्मार्थों अनुमोदना में हेय-शेय-उपादेय
जीवों की इच्छा, चार प्रकार-कवीश्वरों का अभिप्राय
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विषय पृष्ठ विषय
पृष्ठ सेबीसका पर्व
३२---३१८ सुब्बीसा पर्व
३५-३६०
कैसा मित्र तजये योग्य है-इतनी समा में, विरोध बचन नहीं पश्चनकाल वर्णन-शुभ भाव बिना. शुम करनी का फल नाहीशुना किन 37 राम है मामा के बांछक जीव
कहना-शास्त्राभ्यास ते पसे गुण नहीं भये. तो वह काक शब्द
समान है- मरण ते अधिक निद्रा है- दृष्ट जोष के स्वभाव का, हित व कुटुम्बियों को परीक्षा के स्थान-ननव स्थान मैं कौन
दृष्टान्त-अपने मावों से ही. रोग को दीचंता होय है-दुख व कौन कौ परिखिये-एक दुख के अनेक उपचार-प्रथम सो घर छोड़े, फिर ससे जाह-किसको छोड़ कर, किसको प्रहण करना
रोग मिटता है. पर काल नहीं मिटता- इष्ट वियोग कहां है,
कहा नहीं-काल के आगे कोई रक्षक नहीं. एक धर्म रक्षक हैकिस देशवनगर को छोड़ना- स्थानों में लजा नहीं करनी
अग्नि भेद तीन -विचादिक भले गुण क, इन्द्रिय-सुख की बांच्या चौबीसको पर्व
१६-३३३
ठगे-इष्ट-वियोग के दोय भेद-जोसे परिणाम विषय-कथाय
मैं लग है वैसे धर्म में लगें.तो क्या फल होय? कृपण अपने तन पस बल से, निर्बल का भी कार्य सिद्ध होय-हित है. सो बड़ा
को लगे है-मिक्षक मांगने के बहाने. घर-घर उपदेश कर हैबल हैन्याय को प्रशंसा अन्याय का फल-अनेक संकट में.
केवली मिथ्याष्टियों के उपदेश का अन्तर पूर्व पुण्य सहायक:-ये वस्तु किसी के कार्यकारी नाही. ये पदार्थ परोपकार को ही है-षट् स्थानों में लजा नहीं करिये
सत्ताईसा पर्व
३६८-१८ साहस से सर्व संकट मिटे है-दिवेकी जीयों के हास्य के कारण । छ लेश्याओं का स्वरूप-नव-मेद योनि-योनि पत्र कौनतीन स्थान-किसके आदर में दुख व किसके अनादर में सुख- कौन जीवों के शरीर में निगोदिया नाहीं-आठ जाति के जीवों षट् भेद म्लेचा. मला के सात भेद, हितोपदेश
से शौच नहीं पले-निमित शान के आमद-ज्ञान के आठ अङ्ग
मुनियों के ध्यान के १० स्थान-अलोचना के देश अतिचारपबीसा पर्व
३१४-३४८
दोक्षा के अयोग्य, देश काल इन्द्रिय सुख तें तृप्ति नहीं-दो दुख नकादिक के सहे, तो तप अट्ठाईसबो पर्व
३५-३६२ में क्या दूत है-माया कपाय का फल सबसे पुरा है-धर्म-फल शारण का निमित्त पाय, कर्म अवस्था कथन-मिस्यास्वइन्द्रिय-जनित सूख तें. खोटो गति नाहीं-मुनियों के मोक्ष का
तोन भेद आंगुल, तीन प्रकार अक्षर-पर्याप्ति लीन भेद दर्शन
दो भेद - उपशम सम्यक्त्व दो भेद, योग स्थान तीन भेदकारण. श्रावक का घर है-वृद्धि, ६त. तन, पाये का फल,
धर्म अरुचि के तीन कारण, शल्य के तीन मैद-चार निक्षेपये निमित्त काल समान १-मुनि कहीं नहीं रहे? किनका अलौकिक मान के चार भेद-आबिका के गुण-दत्ति के चार विश्वास नहीं करिये
भेद. दण्ड-भेद .
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विषय
[eatest पर्व
श्रावक को २५ क्रिया-प्रमोसर माला
पृष्ठ
३६३-४३४
सीस पर्व
हिंसा में पुण्य का अभाव -दय का कथन इकतीस पर्व
४५२ - ४६० राज लक्षण और राजाओं के पद गुणादि--पुण्यांधिकारियों के सीखये योग्य विद्या-लौकिक १४ विद्या-चौदह एन, नव-निधिचक्रवर्ती के स्वर्षो का फल शुद्ध भगवान के गुण- तीर्थपुर की माता के सोलह स्वत्र
तेतीस प
दूसरी व्रत प्रतिमा-तोन गुणवत
चौतीस
पर्व
चार शिक्षावत सहलेखना
४६५-४५१
बीस पर्व
४६८-४८८ आदिनाथ भगवान के भोग और पुण्यवान के गुण सभा नायक तीन भेद तो प्रावक के तीन भेद-सप्त व्यसन और पहिली दर्शन प्रतिमा
पैतीस वर्ष
तीसरा सामायिक प्रतिमा वर्णन
४८६४६८
४६६ - ५११
५१२ - २१६
विषय
छत्तीeat पर्व
चौथी प्रोषध प्रतिमा कथन पांचवीं सचित त्याग प्रतिमाछठवीं रात्रि भोजन, दिन कुशल त्याग प्रतिमा
वीस पर्व
३२१-२४२ सातवीं वह्मचर्य प्रतिमा शोक्ष-महिमा कुशील का स्वरूपअवक के अन्तराय सात प्रकार श्रावक के सतरह नियम --- श्रावक के २१ गुण - क्रिया- वहा के भेद अन्यमत सम्बन्धी कथन
५४३ - ५४६
-
पृष्ठ
चालीसा प
समोशरण का विशेष वर्णन
५१-५२०
अतीय वर्ष
आठवी आरमि दशवी प्रतिमा पापारम्भ उपदेश श्याम ग्यारह प्रतिमा दो प्रकार उन्तीस पर्व ५४७-६८५ चौबीस तीर के माता-पितादिक के नाम - सिद्धक्षेत्र संख्याअकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन
xxxxxxxx
इकतालीस पर्व
वादिराज मुनि का चरित्र मानसूत्राचार्य का चरित्र क्यालीका पर्व
| ग्रन्थकों का अन्तिम निवेदन
५८६ - ५६६
५६७ ६०६
ક્રૂ૭
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358
m
५उपलक
गाथा
परसदेव बन्दे
अमित जोत्तमरणं जंग एकादहती हरिवभौमाय अपरापरजविरुद्धो सुहोविवारी यो हिसिर उ जन्धर्षे दीपखको भगमठत जायानो
मुहं फलातिरियो गमोपजन्तरखड अहमहमित भय
भा
चारणमग उदेस बादाम्प
हठयोगापाठ जोगा
उ
उपल वहति मिसिराही
可
यौट
म
को दीव कसायो
केवल खारायरक्षियो
ग्रन्थोक्त गाथाओं की अकारादि अनुक्रमणिका
गाया
पृष्ठ संख्या ३५५ जाहें मुसि पतिरही
३६२ जम्मम जय लगत ३६७ जुगमे यं वियोगो ३७१ जेमस विलयकसाथी ४४६ जिरामा मुगा वच साक्ष्य कम उर करुन धारय दब्बो वाप
५३२
भ
पृष्ठ संख्या
गाया
कवकचगद दिसंखो
२० किप्पा जितख बंधय
१२५ | कि शील कपोतथ
२४६ केवल कायमहारो
१४६
१७०
१६१
२६२
२७
३३६
३७२
४३५
५७
२७१
३५६
१३३
कम्मी शिवकशी
कृमय वार कफटो
फ
युवसम देश सीई
हि सुहायो सुधा जराषि पोको
ग
गला फासयमा योनी
गिर सिर कल पकाक छ
पुलिस सीतय उसराउ
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संवदिवा जहक पितामह जन्सी जहियतिध्यरिहितदूरक हिपुर कह सतकारी
१११ रघु हरिया
जिल-पूजा मुनि दाश
२४ जाय तो धम्ममूढय
२६८ | जीयमन्त्री
२५
२७६
भाग वेपत्तावेव
११५ कहिओ जारह झांग
३८
ण
१३७
२३६
३३८
१३७
नाम सुदिष्ट तरंगी
पान सथापाको
माम सथापण ब्
निम से दरिद
रोड़ बसर हरि दोक
द
विदामीचसप
४४
२०३
स
३०१ तो सविठी ३१६तिकाले शिया ये
३२० तस्कर पम्हिणी
३२४ तण वीजय बहू दासक
३३०
封
३४२चावर मिध जाणतो
पृष्ठ संख्या ३४६ ३५७ दव्व का भवमावो ३६१ दृष्य भय कालय ३६२ दोस प्रठारह रहियो ३६५ दोहती रहिय ४३७ | दव्वो तो काय
४३८
देसा धम्मसन्दा
२०४
४४५
भाषा
दालयत्वयप साथ
दुडणारी समितऊ
दुखण जौक समभावो
दीरध थिति जसो
सण व समायो
१२
३७
१३४ | धम्मोचतुपधारो
३१०
१०६
阿
धम्मीदम्यहेतव
३२६
३४७
१५३ धम्मत नगदी
धम्मतरुफल जनु धम्मभाषियंत्रय
1
२२
२६२ प महामहिय
कर ४४५ पणिदिकुतव पुण्य
ਹੁਣ ਜਾਂਦ
१३ ३६
११६
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२६६
२५८
२६३
३४५
३५४
४३६
४७२
२६४
२६७
३२६
३४६
५३२
१०५
१२६
१८७
२०६
૧
२८
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Home
:- TATEMERE
RAM
१७०
गावा पर सपकाव पूठपकाणयहन्ता व वहनी बसपदमा पश्चिम रविसिस उर्स वगाय गिरिमिहर पिताहणे पुरवाय
५०१
५२७ ५२८
दृषिपाततत्वविचारा बोष तव चारतो
पृह संख्या | पाबा पृष्ठ पक्ष्या गाथा
पत्र संख्या | गया १४ मविपतंगदहकावा २०७. विस्यय जीवय जीवो ३७ | संवत मीत मनितो
| मिन्य तविकृश्ये ११३ | भ सुमायौ पादा १२० सुरतरुचिन्तारमणों मग तण घर पुर देमा ३२९ | हमण तियाटमा ५१२ सहित कन्यपधागो मायागमयसहो 116 वाह वा असण
सध्यातिसतह पोस तर दिगिमती ५२६
मवर किमयाभावो ५०१ मदशो मदायक ५३४
सिसिविधाय कुत्ताविधि साम दम पर बवाणी २७ | सिव मिद जामदारय सोता मुहय जयुहो
सोमाणो सिवनशे १४३ | रायवरामहरायो
२५
सुरथ सुणारप मसयो 10 सिंहल बाधाकरा | रण पण गरि पास यात्रा सूरोपवरझायनपसा
सुर सुहकर सिवकारक रोगे रश संगास
सार समामा दयों १४३ सिसरो जमा रोगीसोलुपलदो सह दुहवाणदिहियो
चिरसिंगन परसिंगो रस पीसय बेहपावई
सुकसाठणीकपमुई २६६
स्वाणष्यणहिगमगो २७४ वघा सवणागहयाँ
संचयपिणीपायी
२१० षट् गुण चव विद्यार १६] वावगा इकसप बउको २०० सवरवटीचिंगालो
२१२ ३७ वयणी पादपो
२६६ सुकापडतीबक मागो १२६] बाघ सस्साराजसाणी
हिसानिय ३०७ सर मलागत तरुचाया २५५] वैद्यो वायत शेगो
| हार विहार झे ३१२ सरसा पय पुसगंधड
३२३॥ २५ वरसतसंग अपमाणो
हरिहल सुरवगचको ३२८ सुख सुणियपक्षण गयोगा ૧૧ २८० | विजन अर्थ समागत ३५ सोगोरक्षजे दम्य ३५६
५२९ ५३० ሃህ
१७
मिक्षक प्रगपापबांधय मोपप बारसमानी
३५०
३५
भर
२०२
२५२
123
मद वसुसम्मक दोसउ मगत णिमितहक मश इन्दियजयसूरा मरापयशाण प्रतादामन्तगकक्षय माकपाकरणगा
BE
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सुदृष्टि रंगिणी..:..
.
।
मंगलाचरण मनमांहि भक्ति अयान नमिहौं, देव अरिहंत को सही। फिर सिद्ध पूजो अE गुणमय, सूर गुण छत्तीस ही।
अंग पूर्वधारी अजों उपाध्याय साधु गुण अठबीस बी। यह पंच गुरु प्रन्य मावि सत् ए मंगदा जगईशा बी॥१॥ वृषभसेन बार्षिक गणराय, गौतम स्वामी लौं थुतिलाम । और नम अन्य कवि सूर, जिन कीने मिथ्या-मगनूर ॥२॥ सुमति करण, कुमती हरण, भरन जान भण्डार। क्या मूर्ति सर्वशकों, नमों सूर भवतार ॥ ३ ॥
देव धर्म गुरु या विधि यकी मानिये, काय मन वचन तें भक्ति उर बानिये। और तीरथ नमों सिद्ध तहाँ ते भये, नो जिन जिम्बन किये कृत्तिम थए ॥ ४ ॥ ऐसे इष्ट देवनि जो पूजे, तातं अगले मारग मूजे।। इन प्रसाव अब बुद्ध सवाई, अन्य रच शुभ शुभ फलदाई ॥५॥ में तो इष्ट देवका दासा, होक भक्ति तितने तन श्वासा । सब जीवनः क्षमा कराई, निज सम जानि दया उर बाई ॥ ६॥
॥ग्रन्थ महिमा ॥ ए अन्य सागर अर्थ जल फरि पूरित सहि । बन्नु मष्टान्त मुक्ति नय तरंग उठे सही ।।
ता मध्य जे अधिकार दीप सम जानिये । तत्व रतन करि भरे सकल सुख बानिये ।। सुख खानि तहां समष्टि जावे बैठ जिन वचमावजी । ते चह भुज बुद्धि बल पहुंचे नही तिनको दाब पी। ताते षु सरधा पोत गहि ष्टि सुरति सागर कौं तिरौ । नहिं कोम और उपाय भदि श्रति सौख यह हिरदै धरी ॥७॥
भुरमण समुद्र सो, यह श्रुति उदधि गंभीर । पार कौन जिन बिन लहै, बरणी बुष सम वीर ॥८॥
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भागे वचनिका लिखिर है। सो ऐसे स्तुति करि अरु प्रथम इस ग्रन्थमें प्रवेश करनहारे ज सुबुद्धि हैं। ते धर्मशास्त्रके वेता तिनको बतावै हैं। जो उत्तम तीन कुलमें उपजे धर्मात्मा मोक्षाभिलाषी होय सो रोसे || २ धर्म शास्त्रनि में प्रवेश करें हैं। तात इस ग्रन्धका टिण्यस सामान्य करि लिखिये है। सो उत्तम श्रावकनि | को परमव सुधारवे अर्थ धर्मशास्त्रनिका अभ्यास करना योग्य है। यह धर्मशास्त्र है सो याका सामान्य टिप्पणी कहिये है सो चित्तदेय सुनौ। आगे जो जो कथन इस ग्रन्थमें कहिये तिनको सूचनिका मात्र सामान्य टिप्पणी जो पीठिका सो लिखिये है। सो इस पोठिकाके जाने सब ग्रन्थका सुमिरण होय है। अर्थात् जिस अधिकारका चिंतन किये उस अधिकारके अर्थकी याद होय है तातें इस ग्रन्थके आदि कथनका टिप्पण लिखिये है ॥ सो प्रथम ही तो ग्रन्थकर्ता अपने इष्टदेवको मंगल. निमित नमस्कार करेगा । ७ । पीछे देवका कथन करते प्रश्नपाय सिद्धनिके सुखका कथन है 1२। आगे इस ग्रन्थके नामका कथन है । ३। तापीछे इस ग्रन्थमें ज्ञेयहेय उपादेयका स्वरूप है । ४ । पोई स्वज्ञेय परज्ञेयका वर्णन है । ५। बहुरि अवसर पाय पंच प्रकार परावर्तनका कथन है । ६ । ता आगे सम्यक्त्व होते मिध्यात्व छूटनेत, क्षयोपशमादि पंच लब्धिका स्वरूप है । ७ । बहुरि सम्यक दर्शनके दश भेदनिके स्वरूपका व्याख्यान हैं।८। पीछे सम्यक्त्वके पलीस दोषनिमें जातिमद आदि अष्टमद, अरु शंका आदि सम्यक्तवके आठ दोषनिका, अरु षट् अनायतन अरु तीन मूढ़ता इन पचीसनका स्वरूप है।६। आगे सम्यक्त्वके अष्ट गुणनिका व्याख्यान है । १०। सम्यक दृष्टी वीतराग कह्या ताप शिष्यके प्रश्न उत्तरका कथन है। । आगे शुभ अशुम श्रोतानिका कथन है । २२। आगे वक्ताके गुणोंका कथन है । ५३।। फिर प्रन्थकर्ता अपनी लघुता सहित ग्रन्थ करिकी अभिमानता छाडि ग्रन्थकर्ताकवली हैं, मैं नाहीं। १४। व्यवहारमात्र ग्रन्थ के अर्थ कवीश्वरों ने मिलाये हैं तिनमें बुद्धिको समानता करि कोई चूक होय, तो तिसको शुद्ध करिनेको विशेष ज्ञानीनत विनती करी तापै शिष्यके प्रश्न पाय उत्तर सहित कथन है । १५। ता ग्रन्थ करनेमें तरकी(तक करने वाले ) ने मान बताया, ऐसा प्रश्न होते अनेक युक्ति दृष्टान्त सहित, उत्तर कथन है।२६। पीछे ग्रन्थनिमें ग्रन्थकर्ता अपने नामका भोग धरें ताकी परिपाटी है । २७। पीछे भले बुरे पंडितनका तामैं धर्मार्थी अरु धर्मरहित तिनका दृष्टान्तपूर्वक तरकी ने कही ग्रन्धमैं कोई चूक होइगी तो दोष लागैगा ताके प्रश्न
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पाय निर्दोष ग्रन्थकर्ताका कथन है। १६ । बहुरि ग्रन्थक आदि, आचार्य षट्कार्यनिका कथन करते पाये तिनका कथन है। २०१ पीछै ग्रन्थके आदि मंगल करिये, सो मंगलके षट भैदनिका कथन है ॥२॥ आगे जिन ग्रन्थनि में ए सात कथा होय सोग्रन्थ मंगलकारी होय। तिन कथानि का कथन है। २२। फिर जिन सर्वक्षभाषित ताव, जीव अजीवनि का कथन सत्य है। ऐसा कहते तरकी नै अनेकमतन संबंधी तस्व सत्य बताय प्रश्न किया। सो तिन अन्य मतीन के भाषे जीवादि तावनिमें अरू सर्वज्ञ-भाषित तावनि विष अन्तर है। तिनके कथन का अनेक नय दृष्टान्त युक्ति रूप कथन है। तहाँ कोई ब्रह्मवादी संसारमें एक आत्मा माने है। कोई अवतारवादी मोक्ष-आत्मा कू अवतार माने है। और कोई क्षणिक मती बीव छिन-छिन मैं शरीर दि उपना मान है। कोई साधादी आत्मा की उपजावनहारा माने है। कोई नास्तिकमती जीवका अभाव मान है। कोई अज्ञानवादी मोक्ष विष ज्ञानका अभाव मानें हैं। और कोई मजीव की जीव मानें हैं। स्थिरवादी रोसा मानें हैं, जो जैसा मरै सोही उपजै। कोई जीव को अजीव माने हैं। इत्यादिक भरमवादीनका भरम मेटवै कौं सर्वज्ञ-भाषित तत्त्वनिका स्वरूप कथन है ।२३। बहुरि सत्य असत्य आप्त प्रागम पदार्थ तिनका कथन है । २४। पिछे शुद्धदेवके जानिये का अतिशय चौतीस आदि छियालीस गुसनिका कथन है।२५। बागे जामें यते दोष होय सो देव नाहीं। ते दोष कोन, तिन अष्टादश दोषनिका कथन है ।२६।। बहुरो कुदेवनिका कथन है ।२७। आगे कुगुरुके यहचानवैकू गुणलक्षणका कथन है ।२८। फेरि सुगुरुके मूल गुश भट्ठाईस हैं तिनमें एषणा समिति विष मुनिके भोजन में छियालीस दोष हैं। तिनका कथन है। तहाँ भोजन समय बत्तीस अन्तराय बंधे, उनका तथा मल दोषनिका कथन है। २६। आगे बाईस परोषहनिका कथन है।३०। आगे पंच महाव्रत, पंचसमिति, षड़ावश्यक, पंचेन्द्रीवशीकरस आदि अठाईस मलगुणनिके कथनमें षड्आवश्यकनका विशेष निर्णय है।३३। आगे मुनीश्वरनिके दश भेदनिका कथन है ।३२। बहुरि आचार्यनिके गुणनि वि दशलणधर्म, बारहतप, पंचाचार, षडावश्यक, तीनि गुप्ति, इन छत्तीस गुणनिका कथन है ।३३।। मागे सत्यधमके दशभेदनका कधन है। ३४ । बहुरि दश अतीचार ब्रह्मचर्य के हैं तिनका कथन है। ३५॥ बागे उपाध्यायजीके पच्चीस गुण विर्षे ग्यारह अंग, चौदह पूर्वका कथन है। तिनमें त्रिलोक बिंदु पूर्वके कथनमें
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संक्षेप में तीन लोकका कथन है । तिनमैं मध्यलोकके कथनमें असंख्यात द्वीप समुद्रनिमें आदिके षोड़स अन्त के | षोड़स द्वीपनिके नाम हैं। और तहां ही बढ़ाई द्वीप संबंधी ध्रुबतारनिका प्रमाण कथन है ॥ ३६ ॥ आगे मध्यलोक • विषै चारि सौ अठावण अकृत्रिम जिन मन्दिर हैं, तिनके स्थाननिका वर्णन है । ३७। बहुरि स्वर्गलोकके कथन में आठ युगलानिके सोलह स्वर्गनके नाम, तिन संबंधी देवनिको आयु अरु कायकै प्रमाणका कथन है ॥ अरु युगलनि प्रति इन्द्रनिका प्रमाण अरु युगल प्रति विमानकी संख्याका कथन है। और धरती तें केते केते ऊँचे हैं । तिनके प्रमाणका कथन है । विमाननि के वनका कथन है। स्वर्गनिके आधारनिका अरु स्वर्ग प्रति कामसेवनका, देवनिके मरन पीछे उस ही स्थानमें देव उपजनैका अन्तर और युगलनप्रति देवनकी अवधि विक्रियाका देवनि श्वासोच्छ्वासके अन्तरका प्रमाण, मुकुटनिके चिन्हनिका, विमाननकी मोटाईंका और स्वर्गप्रति श्या अरु देवांगनाकी उत्पत्ति, देवनीको आयु, ऐसे सामान्य ऊर्ध्वलोकका कथन है । इत्यादिक त्रिलोकबिंदु पूर्व विषै इन आदि, ग्यारह अंग चौदह पूर्वका ज्ञान सहित उपाध्यायजीके गुणनका कान है । ३८ । आचारसारजी अनुसार मुनीश्वरोंके विचारयेके समाचार दश हैं। आश्रय पांच हैं | ३६ | धर्मके कथन विषै पहले कुधर्मका कथन है । ४० । बहुरि सुधर्मका । ४२ । आगे नव नयका कथन है । ४२ । आगे धर्मकी परीक्षाको पंचप्रमाण हैं । ४३ । कुसंग त्यागका । ४४ । सुसंगका । ४५ । कौन कौन ध्यान चिन्तवन करने योग्य हैं। कौन कौन नहीं करिए ? औ श्रार्त्त रौद्र ध्यान, नहीं करिये। अरु धर्म्य शुक्ल ध्यान करने योग्य है । ४६ । आर्त्तके चिन्हनका । ४७ सुआचार कुआाचारका कथन है । ४८ । योग्य अयोग्य खानपानका | ।। ४६ । शुभ अशुभ वचन भेदका । ५० । असत्यके ग्यारह भेदनका । ५१ । परस्पर बिना प्रयोजन बतलावना सो विकथा है । ताके पचीस भेदनका । ५२ । द्रव्य क्षेत्र काल भावके कथन विषै स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव तथा परद्रव्य क्षेत्र काल भावका कथन है। तहां स्वद्रव्यकी परीक्षाका कथन है । और द्रव्यनके प्रमाण मनुष्य
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द्रव्य थोरा है। क्षेत्र उपेक्षा मनुष्यका क्षेत्र धोरा है और काल अपेक्षा मनुष्यका काल थोरा है। और भाव अपेक्षा मनुष्य के उपजने का भाव थोरा है । । ५३ । षट्कायके जीवनको आयु, कायका कथन है । ५४ । एकेन्द्रिय तिर्यञ्चन मैं सूक्ष्मवादर है । ५५ । षट् कायके शरीरनके आकारका कथन है । ५६ । ष्ट्र काय जीव केती केली
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कर्म स्थिति बधि ?।५७। पंच इन्द्रियका विषय कितना है ताके प्रमारा। ५८। पंचगोलक निगोदके हैं तै कहां । कहां हैं ?।१६। निगोदि जीवन के प्रमाणकी अनन्तता महा दीर्घ है।।६०। निगोदिके दौय भेद हैं। ६ ५ षटकाय जीव जघन्य आयु पावै तौ एक अन्तम हुर्त मैं केतेक भव करें।६२। सुतप कुतपका कथन है । ६३। | सुतपके बारह भेद हैं तहां जालोचनातपके अतीचार दश हैं। ।६४। कौऊ मुनिमें दीर्घ दोष पड़े तौ ताकी 'जाचार्य, दीर्घ दंड कौन कौन दीजिये ताका कथन है । ६५। विनयतपके पांच भेद हैं। ६६ । सुव्रतके भेद बारह हैं अरु कुव्रत हैं। ६७1 बारह अनुप्रेक्षा हैं।६८। सुदान कुदानका कथन है तह! सुदानकै चारि भेद हैं। ६६। जिनकू दान दीजिये सो पात्र हैं तिनके सुपात्र कुपात्र करि दोय भेद हैं तिनके विशेष भेद पन्द्रह, तिनका अरु तिनके दानके फलका पाचन है। ७०। पूजा मंद दोष है या सुधजा एक कुपूजा। ७। तोरथ दोय हैं | एक सुतीरथ एक कुतीरथ । ७२ । चरचा भेद दोय हैं एक सुचर्चा, एक कुचर्चा। ७३ । बहुरि अनुमोदनाके भेद दोय हैं कहां तो अनुमोदना किये पापबन्ध होय, सो तो पाप अनुमोदना अशुभ है। राक अनुमोदना किये | पुण्य होय सो शुभ अनुमोदना है। ७४ । मोक्षके भेद दोय हैं एक तो भोरे जीवनिकी कल्पी कर्ममलसहित मोक्ष है और एक शुद्ध निरंजन सर्व कर्म मलरहित निर्दोष मोक्ष है । ७५ । कुहान सुज्ञान करि ज्ञानके दोय भेद हैं | तहाँ मतिज्ञानकै तीनिसौछत्तीस भेद रूप वर्णन है। ७६ । श्रुतज्ञानका कथन है तहाँ व्यय ध्रुव उत्पात, ज्ञाता ज्ञेय ज्ञान, ध्याता ध्येय ध्यान, कर्ता कर्म क्रियाका कथन है। ताहीमें संक्षेप तै पल्य सागरका कथन है। ७७। पी, कृतघ्नी विश्वासघातीका दृष्टान्तपूर्वक कथन है । ७८ । च्यारि गति, पाप पुण्यके फल प्रगट जनावनहारे प्रागति जागति (आने जाने)रुप दंडकका कथन है । ७६ । निमित्त उपादानका सुबनिज कुबनिजका बहुरि श्रुतज्ञान समानरूप कथन है । ८०। अवधिज्ञानका कथन है तहां देशावधि परमावधि सर्वावधि करि तोनि भेद रूप कथन है तहाँ देशावधिके हीयमानादि षटभेद रूप कथन है। ५। अर सोई अवधि, मवप्रत्यय गुणप्रत्यय दोष भेद लिये है। ५२ । मनःपर्यय, ऋजुमति विपुलमति करि दोघ मैद रूप है । प३। संक्षेपत केवलज्ञानका 'कथन है।८४ा आगे कहैं हैं जो यह आत्मा अपनी आयुके दिन सोई भरा मोतिनकी मालातिनको वृथा खोवे ।। | है। ६५ । आत्मा अपनी भूल तैं पाप ही बंध प्राप्त होय ऐसा दृष्टान्त देय बता हैं। ८६ । त्रयोदश भय ||
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शुद्धात्मा मैं नहीं । ८७ खिंडी महारादि राजानि की विभूति विनाशोक बतावता कथन है मातापितादि सज्जन कुटुम्बी अपने २ स्वारथरून बंधन तैं बँधे हैं | ८ | जिन २ वस्तूनिका स्वभाव सहज हो चंचल है तिनके मेटवे को कोई उपाय नाहीं । ६० । ऐसा कहै हैं जो कोऊ महापंडित भी होय अरु श्रद्धानरहित मिथ्या श्रद्धानी होय तो तार्के मुखका उपदेश सम्यक दृष्टोनिक सुनना योग्य नाहीं । ६१० सर्व की क्रूरता तैं दुष्ट जीवनको 'क्रूरता बहुत बतावे हैं ऐसा कथन है । ६२ । सज्जन दुर्जन जीवनिका स्त्ररून दृष्टान्तपूर्वक कथन किया है। ९३ । भला उपदेश भी मूर्ख जीवनि कूं कारजकारी नाहीं । ६४ । कैनेक जीव दयारहित हैं ऐसा बतावता कथन है। ६५ । कृपणका धन कहा होय ? 1 ६६ । केरेक जीव दयारहित हो हैं तिनकों बनावता कथन है। ६७ । संतोषी | आत्मा आपकूं दरिद्रावस्थामें भी सुखी भया मानि दारिद्रकं असोस देय हैं । ६८ । धर्म सेवनहारे जीव संसारमें च्यारि प्रकार भावनको वाञ्छा सहित धर्मका साधन करें हैं । ६६ । छन्द काव्यके वक्ता कवीश्वर काव्य छन्द की जोड़ कला करणहारे पण्डित पाँच प्रकार हैं सो अपने अपने स्वभाव के लिये छन्दनिको बनावें हैं । २०० /
पंचमकालकी महिमा जो यामैं वांछित निर्मित नाहीं ऐसा कथन है । २०३। अपने शुद्ध भावनि बिना संजम ध्यान कार्यकारी नाहीं ऐसा कथन दृष्टान्तपूर्वक कहैं हैं । १०२ । अपने हित रूप सुवर्णके परखिवेकों कसौटी समान नव स्थान हैं तिनका कथन है । २०३। इन कसौटी समान स्थानकन पै कौनको परखिये ? | १०४ एक रोग के दुःखकूं उपचार अनेक जीव अनेक रूप अपनी-अपनी दृष्टी प्रमाण बतावें ॥ २०५ | घर कुटुम्बको तज, फेरि घर चाह, कुटुम्बादि हितू चाहें, घर घर दोन होई याचे, जाको आचार्य कहा कहै ? । १०६ । कौनके वास्तै काहे कं तजिये ? । २०७ । जो जो देशमें राती वस्तु नहीं होय तो विवेकी तहां नहीं रहें । १०८ । इन दश स्थानकनिमें लाज नहीं करिये ऐसे स्थानक बताये । १०६ । जाके बल होय सो बलवान है । ११० । स्नेह समान और बल नाही, हित है सोही भुजबल और सैन्य बल है । १११ । नोति मार्गरूप परिणति सोही बड़ी सेना वा भुजबल है । २२२ । अनेक सकटनिमें एक पूर्वोपार्जित पुण्य सहाय है । ११३ । एती वस्तुभई, कार्यकारी नहीं । २२४ । आगे राती वस्तु पर उपकारनिमित्त । २१५। धर्मात्मा जीवनिकं इन स्थानकनिमें लड़ा करना योग्य नाहीं । १२६ । एती बात कहे हैं जो संकटमें सत्पुरुषनिको साहस ही सहाय है । ११७ क है हैं जो यतीन स्थान पंडितनके हँसने के कारण
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हैं । १२८ । सतसंगका किया अनादर भी गुणकारी है । ११९६४ मलेच्छपके षट् भेद हैं । १२०० मूढ़ता के सात भेद बताये हैं । १२१ | सम्यक ज्ञानविषै अरु मिथ्या ज्ञान विषै दृष्टान्त पूर्वक अन्तर अरु फलभेद बताये हैं । १२२ ।
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इन्द्रिय सुखनि तैं आत्माकी तृप्ति नहीं भई । १२३| नरक पशूनिके दोर्घ दुःखनितें नहीं डरचा तो तप संयम के अल्प दुःखनितें क्यों डरो हो ? ॥१२४ | सर्व कषायनि तैं माया कषायका पाप बड़ा बतावता कथन है । २२५॥ पुण्य वृक्षका फल ईन्द्रिय सुख है सो धर्मघातक नाहीं जीवकूं दुःखदाई नाहीं । १२६१ मुनीश्वरोंके मोक्षमार्गका साधन एक, धर्मी | श्रावकनिका मन्दिर है ऐसा कथन है। १२७ बुद्धिपाये व धन पायेका कहा । १२८ । एते निमित्तकाल समान जान तजना | योग्य है । १२६ । एती जगह यतीश्वर नाहीं रहें, रहें तो संजम भ्रष्ट होय । १३० । ऐते जीवनिका विश्वास नाहीं । करिये। ३३२१ मुखमोठा, पीछे तें द्वेष भाव करें ऐसे मित्रनकूं दूरतें तजना | १३२ | ऐसी सभा विषै सभा-विरुद्ध | नाहीं बोलना । १३३ । धर्मशास्त्रपदे के रोते गुण नहीं भये तो पढ़ना बायस (कौवा) के शब्द समान है । २३४ । मरण से भी निद्राको अनिष्ट बतावें हैं । २३५ दुष्टजीवनका स्वभाव हा देह (३६६ पूर्व शरीर विषै रोग होय तिनको दीर्घता बताबें है । २३७ कह हैं जो और रोगनकी ओर नाहीं । २३८ इष्टवियोग अनिष्ट संयोग कहां है कहां नाहीं । १३६ । कालतें आगे मानिकें बचा चाहै सो कोई उपाय नाहीं । २४० अग्रिके तीन भेद हैं सो कौन सी अग्रि काहे को बालै । २४२ । कहे हैं जो तप संयम विद्यादि भले गुण रूपीरतन हैं तिनके ठगवेक इन्द्रिय सुख ठग समान है। २४२ । इष्टवियोगके दो भेद हैं । २४३ | जैसी परगति बिषयकषायनमें एकाग्र होय है, तैसी धर्म विषं होय तो कहा होय ? | २४४ | कृपण अपने तनकूं ठगे है। २४५ । कौन के अतिशय सहित उपदेश वचन हैं अरु कौन के अतिशय रहित उपदेश वचन हैं ऐसा कथन है । २४६ | भिखारी घर-घर मांगे है सो मानं उपदेश ही देता फिर है । २४७ नव मेद जीव उपजनेके योनि स्थानके हैं । २४८ तीन भेद गर्म योनि के हैं । १२४६१ आठ जगह निगोद नाहीं । १५०१ निमित्त ज्ञानके आठ भेद हैं । २५२ आगे जाठ अंग ज्ञान के हैं । २५२ | ध्यान करवे योग्य स्थान बताये है । १५३ । आलोचना के अतीचार दश हैं । १५४ | आचार्य जिस अवसर में दीक्षा नहीं दें ऐसे काल दश हैं तिनको टाल दीक्षा देय हैं । १५५१ श्रीगोम्मटसार सिद्धान्त के अनुसार दश कारण हैं तिनके | निमित्त पाय कर्मको अवस्था अनेक प्रकार होय है तिन कारणिका कथन है । १५६। मिथ्यात्वके दोय मैदनिका.
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1३५७ मावके तीनि मैदनिका कथन है ।१५८। तीनभेद भव्यके हैं।१५६ तीन भेद अंगुलीके हैं।२६०। उगणीस | (१६) भेद माषके प्रमाणके हैं।२६शतीन भेद अक्षरके हैं।२६२। तीनि भेद लिये पर्याप्पिन का स्वरूप है ।२६३ ।। चक्षुदर्शनके दोय भेद हैं । १६४। दोय भेद उपशम सम्यक्त्वके हैं । १६५। योगस्थानके तीन भेद हैं । २६६ । तीन भेद धर्म त अरुचि होनेके हैं। १६७। मिध्यात्वपोषित शल्यके भेद तीन हैं। १६८। आगे च्यारि नितेपनिका कथन है । १६६। अलौकिक मान चारप्रकार हैं। १७० । अर्जिका चार गुण हैं । १७२। दत्ति (दान) के चार भेद हैं।२७२। कुलकरनिकें बारह चुक भये दंड होय, ताके भेद चारि हैं।२७३। हिंसा कोई प्रकार पुण्ध नाही दृष्टान्तकरि बतावता कथन है ।२७४। अनेक दृष्टान्तनिसे दयामैं पुण्य बतावता कथन है ।२७५॥ राजानिमें ऐसे गुण होय तो तिनको प्रजा सूखी होय, राज तेज बढे यश प्रगटै, परभव सुधरै, तातै राजनिमें ऐसे गुण।। अवश्य चाहिये ११७६। चौदह विद्या राजपुत्रिनके सीखने योग्य हैं ।२७७] चौदह विद्या लौकिकी हैं। १७८।। चक्रवर्तीके पुण्य योगतै नस निधि चौदह रत हैं । १७ ! नौशेकालके भाति प्रजाके सूखनिमित्त भरत चक्रीने षट् कर्म बताये । १८०। भरतचक्रीक तिनका फल आदिनाथ स्वामीने कहाकि अभी नाही, पंचम काल | आये आगे प्रकट होयगा । १८११ चक्रवर्तीकी सेना षट् प्रकार है। १८२। शुद्ध भगवानको परीक्षाके मुख्य तीन गुण हैं ।१३। जबै तीर्थकर गर्भ वि अवतर तवे पहिले माताको सोलह स्वप्ने होय तिनके नाम फलका कथन है। १८४ । तीर्थकरादि महान पुरुषनके चिन्ह षट गुण है जे इन षट गुरा सहित होंय सो पुण्याधिकारी जानिये । १८५। आभषणनिमें हार मुख्य है सो हारके ग्यारह भेद हैं ताका कथन है। १८६। आदिनाथ स्वामी के कैलाशपर्वतत निर्वाण जाने विर्षे चौदह दिन बाकी रहे तब आठ पुरुषनिको आठ स्वप्ने भये ११८७ । नायक नाम बड़े का है तिस नायकके तीन भेद हैं। १९८ श्रावकका धर्म ग्यारह प्रतिमा तिनमें पंच उदम्बर व तीन मकार का त्याग करने वाला अष्ट मूलगुण धारी है। तिन मूल गुणिके अतीचारनिमें सात व्यसनके अतीचारका | कथन है। तामैं मांसके अतीचार स्वरूप बाईस अभक्ष्यका कथन है । १८६ । दुसरी प्रतिमामें पंच अणुब्रत तीन गुणब्रत, च्यारी शिक्षाबत बारह ब्रतनिका व इनके अतिचारका तथा दश प्रकार परिग्रहनिका कथन है नवधा भक्ति अरु दातारके सात गुणनिका जर अधाकर्म भोजनके चार भैदनिका अरु चारि प्रकारि दानका अरु सल्लेखना
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। ब्रत अरु सम्यकदर्शन इनका अतीचार सहित कथन है। तीसरी प्रतिमाविर्षे सामायिकका अरु सामायिकके | अतीचार बत्तीस अरू फेरि सामायिकके बाईस अधिारमहा अरु समाविष्ट कलां चारित निनारकनिका कथन
है। १६० । सातवों प्रतिमा ब्रह्मचर्य है सो ब्रह्मचर्यके चारि भेदनिका तथा ब्रह्मचारी ब्राह्मणके दश अधिकारका i अरु शीलकी महिमा अरु कुशोलका निषेध दस गाथानि कर रोसै ब्राह्मणको परीक्षाकं सिरलिंगादि चारि चिनका
तहाँ ही श्रावकके भोजनमें सात अंतरायका । २१२। श्रावकनिके विचारवे योग्य सतरह नियमका 1 ११२। श्रावकके इक्कोस गुण हैं तिनका। २६३ । अन्य मतनके अनुसार ब्राहाणके लक्षणका जोर तहाँ तिनके शास्त्र अरु शास्त्रनिके कर्ता आचार्य तिनकी साक्षी सहित ब्रह्मका। सो जिनमें राते गुण होंय सो ब्रह्म है । १६४। अन्यमत संबन्धी मारकण्डेजी प्राचार्यकृत सुमति शास्त्रमें जल छानवैका कथन किया, जरु बिना गालेका दोष कथन है
१६५। व्यासजी कृत भारत नामा शास्त्रका सातवा स्कंध विष ऐसे वचन हैं कि ब्राह्मण को शोल सहित रहना | वैराग्यादिगुण सहित रहना। २६६ । सुमतिशास्त्र मारकण्डेय ऋषिश्वर कृत तामैं कही भोजन दिनके च्यारिपहर रहैं तिनमें करै तो कैसा २ फल होय है ऐसा कथन है।१६७। शिवपुराण में ऐसी कही है जो ब्राहरणको रातीवस्तु खावना योग्य नाहीं। १६८। अन्यमतके कश्यप नामा आचार्य तिनने कही है जो विष्णभक्त होय ताक कन्दमूल स्वावने योग्य नाही: ऐसा कहा है। २६६ । शिवपुराण अन्यमत सम्बन्धी तामैं कही है जो दया समान तीरथ नाहीं। २००। अन्य मतिनमें ब्राह्मणके दस भेद कहे हैं। २०२। ऐसे अन्यमतनका मी रहस्य दया सहित बताय, ब्रह्मचारीका स्वरूप बताय, पोचं आठवीं प्रतिमा आदि ग्यारहवीं आदि प्रतिमा पर्यंत कथन है। २०२ । ग्यारहवीं प्रतिमामें ऐलक छुल्लक करि दोय भेद श्रावक के कहे हैं । २०३ । मुनि श्रावक का कथन पूरणकर शास्त्र पूरण होते अंतमंगलरूपतीनि काल सम्बंधीचौवीसी भरत क्षेत्रको तिनके नाम, व वर्तमान चौबीसीके समयके पुरुषनिका अरु सिद्ध क्षेत्रनि कौं नमस्कार रूप कथन है । २०४। तीन लोक विष तिष्टते आठ कोड़ी छप्पन लाख सत्यारा हजार च्यारिसौ इक्यासी अकृत्रिम जिन मंदिर हैं तिनकी रचना अरु विस्तारका कथन अरु तिनकों मंगल निमित्त नमस्कार रूप कथन है। २०५। मंगल निमित्त शास्त्रके अंत में पंच परमेष्टी का कथन है। २०६ । अंत मंगल निमित्त श्री अरिहंतदेवका विराजिवेका समोशरणका विस्तार सहित वर्णन है तहां विराजते भगवानक
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नमस्कार करें हैं । २०७ । भगवान के विहारकर्म का वर्णन है। २०५ । वादिराज गुरु जरु मानतुंग नामा आचार्यगुरु स्तोत्रके कर्त्ता तिनकों नमस्कार है। ग्रन्थ पूरण होते कवीश्वर अपना जन्म सफल जानि हर्ष पाया || २०६१ ग्रन्थपूरण होते कवीश्वर अपना नाम धरि जिस नगरमें पूरण किया ताक बताय तिस वर्ष मास दिन को सुफल जानि तिनके सुधरने करि ग्रन्थ पूरण करने का कथन है। २३०। ऐसे इस ग्रन्थका सामान्य टिप्पण । कहा। सो विवेकी श्रोता तथा वक्ता पीठिकाके कथन याद करि मनमें राखें तो इस सब ग्रन्थका सुमिरण होय । २२२ ।
इति श्री सुष्टितरङ्गिणी नाम ग्रन्थ मध्ये सर्वावलोकन पीठिका संक्षेप अर्थं वर्णन नाम प्रथमो परिच्छेदः सम्पूर्णः ॥ १ ॥ ऐसे सामान्य पीठिका कही अब ग्रन्थारम्भ रूप प्रथम ही इष्टदेव कों नमस्कार किजिये है।
गाथा - अरिहंत देव बन्दे, गुरुबन्दे णगण णाण बौरायो। धम्म दयामय बन्बे, कम्मखय कारणं शुद्धं ॥
अर्थ- जो कर्म-अरिनिका नाश किया तातें अरिहंत देव हैं सो ऐसे अरहंतदेवको हमारा नमस्कार होऊ । अरु सर्व परिग्रह रहित ममत्व त्यागी न. राग द्वेष रहित वीतरागी गुरुकूं हमारा नमस्कार होऊ षट्काय जीवनको माता समान रक्षाकी करणहारोदया, सो ऐसी दयामई धर्म कथन सहित सप्तभंगरूप सम्यकप्रकार सर्वज्ञ वीतरागीका प्ररूपा जो धर्म ऐसे धर्म को नमस्कार होऊ। ऐसे प्रथम मंगलके हेतु अपने इष्टदेव धर्मगुरुको भक्ति भाव सहित नमस्कार करते पुण्यका संचय किया। कैसे हैं देव गुरु धर्म, भक्त जीवनके कर्मनाशके कारण हैं। सर्व दोष-रहित, शुद्ध हैं, तातै भक्त मी परंपराय शुद्ध होय है। सो या बात सत्य है जाकी सेवा करे तैसाही फल होय है । सो लौकिक विषै भी प्रगट देखिये है। जो जीव जाकी सेवा करे तैसा ही परंपराय होय । जो कोई जौहरीको सेवा करे तो परंपराय जौहरी होय । कोई सर्राफको चाकरी करे तो सर्राफ होते देखिये । आटा दाल के बेचने हारेकी सेवा करें तो परंपराय दुकानदार होते देखिये है। होन संग विषै शिल्पीको सेवा करे तो शिल्पी पद पावै । बढ़ईकी सेवा करै तो परंपराय बढ़ईका पद पावै, इत्यादिक जैसी जैसी संगति करे तो तैसा हो पद पावें । तैसें शुद्ध देव गुरु धर्मकी सेवा करें तो शुद्ध होय, ऐसा आचार्यने कहा। तातें मैं ऐसा जानि अपने देव गुरु धर्मको वंदनाकरी, ताके फल स्वरूप मेरा कर्म मल नाश होय, शुद्ध अवस्था होऊ । यहाँ
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'कोई इन्द्रिय सुखका लोभी प्रश्नकर जो तुमने कर्म रहित सिद्धपद चाहा सो वहां खावना पीवना, स्त्रीको भोगना, नाना प्रकार सुगन्ध, आभूषण, वस्त्र, रागरंग, नृत्यादिक भोग सुख तो हैं ही नाही तो मोत विषै और कहा सुख है। ताको कहिये हे विषयाभिलाषी ! तोहि सुखकी अभिलाषा है सो हे भाई तू संसार विषै कहा ( क्या ) तो दुःख जाने है और कहा सुख मानें है। सो प्रथम तू कहिले, तब हम तोकौं सिद्धनिका सुख कहेंगे। तब तरकोने | कही संसारमें बड़ा दुःख तो जन्म मरणका है। तब धर्मोने कही र दुःख सिद्धनिमें नाहीं । तब तरकीने काही एक दुःख निरन्तर भूखा है वही कि यह सिद्धनिमें नाहीं । फेरि तस्कीने कही, शोत उष्ण रागद्वेष क्रोधमान माया लोभ र दुःख हैं और नाना प्रकार वायु पित्त कफ खांसी कुष्टादि रोगनिका दुःख है। तथा कमावना देशान्तर फिरना इत्यादिक अनेक तो संसारमें दुःख हैं । तब धर्मेने कही भी भ्रात! सो संसारके दुःख सिद्धनिमें एक भी नहीं और तू सुख इन्द्रिय जनित मार्ने सी देखि, जब षट्स जिह्वार्ते एकमेक होई तब जिह्वाके द्वारा | रसका जानपना होईं तब षट्रसका सुख होई । अरु रसनाते अंतर रहै तब सुख नाहीं । और सिद्ध हैं सो अनंत पुद्गल परमाणु जा रसप मई जैसे-जैसे रसनके अंश धरौं, तिन तोनकाल सम्बन्धी परमाणुओंके रसके स्वादुको एक समय जानि भोगवें है। और तू नृत्यादिकका सुख माने है सो तेरी दृष्टि विषै जावें तब सुख होय अरु दृष्टिमें नहीं जावै तो सुख नांही होय। और सिद्धनिके ज्ञान में जहां-जहां देव मनुष्यनिर्मे अनंतकालके होय गये, होंयगे होंय हैं जे-जे ती निकाल सम्बन्धी नृत्य, सो सर्व केवल ज्ञान तें दोखें हैं। और तिनके सुखको भोगवें हैं । संसारमें तू राग रंगका सुख माने है सो रागका सुख तब हो है जब अपने श्रोत्रनिके सुनिवे विषै आ है तब आप सुखी होय है और अपने सुननेमें नहीं आवे तो सुखनहीं होय। और सिद्ध हैं सो अनंतकाल पहिले जे-जे रागरंग भये ते सब जाने हैं अरु अवतार तीनि लोक विषै राग होय तिनके जानें हैं। और आगामी तीन लोक विषै राग होंगे तिनि सर्व कौ पहिले ही जानें हैं। ऐसे तौनिलोक विषै तीनिकाल सम्बन्धी पुद्गल स्कन्ध मिष्ट स्वरूप होय परनमैं तिनिसर्वकूं एक समय जानि सुख भोग हैं। अरु सुगन्धका सुख संसारी जीवनिक तब होय है जब नासिकाके जानपने विष आवहै और सिद्ध हैं सो तौनिकाल तीनिलोककी पुद्गल परमाणु जे-जे सुगन्धरूप भई तिन सबके सुखकूं एककाल जानि सुख भोग हैं। और स्पर्शन इन्द्रियका
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विषय सुख स्पर्श विर्षे है सो सो जगत जीव तो तन सुं स्पर्श तब जानै सुखी होय। और सिद्ध हैं सो तोनिकाल सम्बन्धी तीनिलोकके स्पर्शनके अष्ट विषय सर्वक एककाल जानि आगे सुखकों भोगे हैं ऐसे भी माई सिनिमें जगत दुःखतो एक भी नांहों अरु वे इन्द्रिय सुखते अनंत गुणो अतीन्द्रिय सुख भोगिर्व हैं। ऐसे अविनाशी | निराकुल सुख सिद्धनिमें हैं सो जानना । ऐसें शुद्धदेव गुरु धर्मके श्रद्धानि सम्यकदृष्टि जीवनके ज्ञानसागरमें
शुद्धोपयोगको सो निराकुल धाराकुं लिये शुभ फलकी उपजावनहारी तरंगन विर्षे अनेक हेय उपादेय रूप तत्त्वज्ञान | मई तरङ्ग उपजै तिनका कथन इस ग्रन्थ विर्षे किया है ताही तें इस ग्रन्थका नाम सुदृष्टितरङ्गिणी कह्या है सोई लिखिये है।
गाथा-साम मुविष्ट तरंगो, गन्यो गेयाय हेय पादेयो। दो भेय गेय गेयं, तिरकापम मेय मुगेय आदेई ॥ २॥
अर्थ-इस ग्रन्धका नाम सुदृष्टितरङ्गिणी है ताविर्षे झेय हेय उपादेयका कथन है सो ज्ञेय तो एक है ताविर्षे | दो भेद करिये है सो एक ज्ञेय तो तजनेयोग्य है अरु एक ज्ञेय उपादेय है। स्वज्ञेय तो उपादेय है अरु परज्ञेय । तज्ने गोन्ध है। माग....माष्टिीयनिक स्वपर पदार्थका जानपना होय है। सी ज्ञेय हेय उपादेय करि सहज हो तीनि प्रकार होय है। सो तहां प्रथम तो ज्ञानके जानने में आवे सो सर्व स्वपरपदार्थ ज्ञेय है। पीछे ताही शेयके दोय भेद होय हैं। कोई पदार्थ अपने हित योग्य नाही सो हेय है, केतेक पदार्थ अपने हित योग्य होई सो उपादेय हैं। ऐसे शेयविष हेय उपादेय करना है सो सम्यकभाव हैं और मिध्यादृष्टि बालबुद्धिनिके त्याग उपादेय नाही होय है। कदाचित होय हो तो विपरीत होय भली वस्तुका त्याग करें अयोग्य वस्तुको अङ्गीकार करें। ऐसे त्याग उपादेय ते पर भव बिगड़ि जाय. तातै सांचे हेय उपादेय वि सम्यग्दृष्टिनिका उपयोग प्रवेश करि सकै | सो ही कहिये हैं। तहां समुच्चय जीव अजीव ज्ञेयका जानना सो तो ज्ञेय है। ताविौं अजीव अचेतन जड़ ज्ञेय सो तो परज्ञेय हेय है और जीववस्तु देखने जानने मई चैतन्य ज्ञेय सो उपादेय है। सो चेतन ज्ञेय भी दोय भेदरूप है। परसत्ता परप्रदेश परगुरण परपर्याय रूप आत्मा सो परज्ञेय है। सो यह पर आत्मा परज्ञेय है सो हेय है ताजने योग्य
है और आपमई स्वप्रदेश स्वगुरा स्वसत्ता स्वपर्याय एकतारूप सो स्वज्ञेय है उपादेय है अङ्गीकार करने योग्य । है। भावार्थ-चेतन अचेतन करि ज्ञेय दोय भेद स्वरूप है। सो धर्मद्रय अधर्मद्रव्य काल आकाश पुद्गल ये
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पंचद तो अजीव ज्ञेय के हैं सो आपतें मित्र ही हैं। तातें हेय हैं तजने योग्य हैं और जीव है सो अनन्त हैं अपनेअपने द्रव्य गुण पर्याय सत्ता प्रदेश जुदे-जुदे लिये हैं। तातैं अपनी आत्मसत्ता बिना अनन्त परजीवसत्ता परज्ञेय सो तजने योग्य है और ज्ञान के जानपने में आये स्वात्मा के अनन्तगुरा सो स्वय हैं उपादेय हैं। अङ्गीकार करने योग्य हैं और भी परज्ञ य के अनेक भेद हैं सो व्यवहारनय करि केतीक तो आत्मा को इष्ट सुखकारी उपादेय हैं और केतीक आत्मा कूं अनिष्ट दुखकारी सो हेय हैं। सो आत्मा को संसारविषै परज्ञ य में ममत्व करि भ्रमण करतें अनन्तानन्त परावर्तन काल भये । परावर्तन कहा, सो ही कहिये हैं-
गाया --- दव्य खेका भय भावो, पाथतं पण अन्त कम जादा । भवमन्ते पण लडी, भव्वो पय मोल होम एव काले ॥ ३ ॥ अर्थ- परावर्तन के पाँच मैद हैं द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भयपरावर्तन, भावपरावर्तन, अब इनका समान्य अर्थ लिखिये हैं। प्रथम ही द्रव्यपरावर्तनके सामान्य भावको सुनौ द्रव्य परावर्तन ताकूं कहिये है जो पुद्गलपरमाणु जीवने रागद्वेष भाव करि एक-एक परमाणु अनन्त अनन्त बार ग्रहीत जरु छोड़े। भावार्थ- जो परमाणु अङ्गीकार करि छोड़े सो अब येही परमाणु जब ग्रहेगा, तब दूसरी बार गिनती में आवेगा । सो ऐसे एक-एक परमाणु जनन्त-जनन्त बार ग्रहीते अरु छोड़े। भावार्थ – जो परमाणु अङ्गीकार करि छोड़े सो जब येही परमाणु जब ग्रहैगा, तब दूसरी बार गिनती में आवेगा । सो ऐसे एक-एक परमाणु अनन्त- अनन्त बार छोड़े और ग्रहे । एक परमाणु ग्रह के तजे पोछें, अनन्तकाल गये उस ही परमाणु ग्रहिये का निमित्त मिला, फेरि तजि फेरि अनन्तकाल गये उसही परमाणु ग्रहिये का निमित्त पाया। ऐसे करते जीवरासित अनन्ते पुद्गलपरमाणु अनन्तानन्त बार ग्रहे अरु छोड़े, सो एक-एक बार छोड़े पीछे मिलते अनन्तकाल लागें तो ऐसे ही अनन्तपरमाशु ग्रह ततें जो काल लागै सो द्रव्यपरावर्तन है। तथा याही का दूसरा नाम पुद्गलपरावर्तन है। सो याका काल केवलज्ञान गम्य अनन्तकाल है । इति द्रव्य परावर्तन
आगे क्षेत्र परावर्तन का स्वरूप कहिये है जो सर्वलोक के मध्यप्रदेश हैं गिनिये सो जीव लोक के मध्यप्रदेश आकाश विषै उपजिमूवा और फेरि और और क्षेत्र में उपज्या मूवा सो नहीं गिना । ऐसे जन्म-मरण करते अनन्तकाल या तब कोई कर्म जोगतें उसको आकाशप्रदेश विषै भूवा जन्म्या, तौ भी नहीं गिन्या । पीछे कैरि
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अनन्तकाल और-और प्रदेशक्षेत्रनि में उपण्या मूवा गिनती में नाहीं आया। ऐसे करते-करते अनन्तकाल पीछे उसही प्रदेश ते लगता दुसरा प्रदेश क्षेत्र में माय जन्म्या तब दूसरा भव गिनती में आया। फेरि मर और-और प्रदेश क्षेत्र में उपण्या-मवा सो नहीं गिना ऐसे प्रमत-भ्रमत अनन्तकाल में दूसरे प्रदेश तें निकसि तीसरा प्रदेश क्षेत्र में उपण्या तब तीसरा मव गिनती भया । ऐसे ही क्रम ते सर्व लोकाकाश के प्रदेश विर्षे जनमैं मरै इम करतें जो काल होय सो दुसरा क्षेत्र परावर्तन.जानना । इति दुसरा क्षेत्र परावर्तन ॥ आगे काल परावर्तन का स्वरूप कहिये है-जो उत्सर्पिणीकाल के बादि समय विष उपजा मूवा फेरि इसही काल में अनेक जन्म-मरण किये सो काल नहीं गिन्या रोसे जन्म-मरण करते एक कालचक्र पूरश भया, फेरि दुसरा कालचक्र लग्या, तामैं आदि के दूसरा समय को तज और काल में उपण्या मया ऐसे करते कई कालचक्र हो गये और पीछे भ्रमते-भ्रमते उत्सर्पिणीकाल के दूसरे समय उपज्या तब दूसरा भव गिनती में बाया, फिर मूवा जन्म्या और काल में उपज्या मुवा, ऐसे करते अनन्तकाल में अनन्त बार जन्म्या भूवा सो नहीं गिन्या। फेरि भ्रमते-भ्रमते अतन्तकाल गये उत्सपिरतीकाल के लगते ही तीसरे समय में उपज्या तब तीसरा भव भथा। ऐसे करते उत्सर्पिणीकाल के चौथे समय में मूवा-उपज्या। पीछे क्रमते पंचमे समय, घ8 समय विर्षे उपण्या मूवा ऐसे एक-एक समय बधता लगाय के बीस कोड़ाकोड़ी काल के जेते समय भये तैतै सर्ब पूरण किये जेता काल लागै सो तीसरा कालपरावर्तन कहिये है। इति तीसरा कालपरावर्तन ॥ आगे चौथा मवपरावर्तन को कहिये है-मो पृथ्वीकाय का प्रथम भवपाय मूक्षा फेरि मर अप तेज वायु वनस्पति बेइन्द्री तेइन्द्री चोइन्द्री पंचइन्द्री असैनी सैनी देव मनुष तिर्यच नारको विष उपज्या मूवा सो भव गिनती में नाहीं आये। ऐसे भ्रमते-भ्रमत अनन्तकाल में पृथ्वीकाय का ही भव पावै तब दोय भव होंथ । पीछे फिर मरा सो चारि गति में भ्रमा सो ऐसा करते अनन्तकाल पीछे जब पृथ्वीकाय का ही भव पावै तब तीनि भव भये ऐसे भ्रमते एक भव का निमित्त अनन्तकाल में मिले सो ऐसा करि असंख्याते भव पृथ्वीकाय के करें। ऐसे अनुक्रम लिये असंख्याते भव अपकाय के करै। ऐसे ही अनुक्रमतें असंख्याते भव | तेजकाय के करे। ऐसे ही अनुक्रम लिये असंख्याते भव वायुकाय के करै। ऐसे ही वनस्पति बेइन्द्री तेइन्द्री | चौइन्द्री पंचेन्द्री तिर्यच के भव अनुक्रमतें कार। असंख्याते भव अनुक्रमते करि पोछे कोई पुण्ययोगत देव होय
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सुख भोगि मरै। पीछे मनुष्य तिर्यंच नारकी होय सो नहीं गिनना जब कोई पुण्य योगः देव ही भया। तब दुसरा, भव होय । रीसे करते देव के असंख्याते भव करै। ऐसे ही क्रम त मनुष्य के असंख्याते भव करै। ऐसे ही || असंख्यात भव नारको के करै। ऐसे हो तिर्यंच पंचेन्द्र के भव करै। इत्यादिक रोसे अनुक्रम लिये चारि गति सम्बन्धी सर्व भव कर सो जाकू जैता काल लागै सो भव परावर्तन है। इति चौथा भवपरावर्तन । आगे पाँचमा भावपरावर्तन को कहिये है-जो सक्ष्म निगोद लब्धपर्याप्तक जीव के अक्षर के अनन्तवें भाग जघन्य ज्ञान है सो ऐसे ज्ञानसहित वा सो अनेक पर्यायन में उपज्या सो नहीं गिना। खस निगोद में भी उपज्या परन्तु बहुत झानधारी उपग्या सो नाहों गिन्या ऐसे करते अनन्त भव भये जब कोई कर्मजोग त ऐसा भव पाया जो जघन्य जान ते एक अंश अधिक ज्ञान का धारी मया । तब दूसरा भव भया, फेरि मूवा उपजा अनेक पर्याय चारगति की अधिक ज्ञान सहित धरी सो नहीं गिनै। जब अनन्तकाल गये ऐसे भव पावे जो जघन्य ज्ञान तेंदोय अंश बधता शान होय। ऐसे एक अंश ते बघता-बघता अनुक्नमते असंख्याते अंश बधते जेता काल लागै सो पांचमां भाव परावर्तन है। इति यश्चमा भावपरावर्तन ॥ आगे इन परावर्तन के काल की अधिकता व होनता कहिये है-सो प्रथम ही पुद्गलपरावर्तन का काल अनन्त है तात अनन्तगुनाकाल क्षेत्रपरावर्तन का है तातें अनन्तगुनाकाल कालपरावर्तन का है। तात अनन्तगुनाकाल भवपरावर्तन का है। तात अनन्तगुनाकाल भावपरावर्तन का है। ऐसे-ऐसे परावर्तन, संसार भ्रमण करते दुःख भोगते अनन्त हो गये सो जब जीव के काललब्धि निकट आवे तब संसारी जीव के पंचलब्धि होय हैं । सो आगे लब्धि कहिये हैंगाथा-खयुक्सम देस सोई, पायोगम कण्णलब्धि पण भेवी। चच सम्म भव्दा भवो, कणणो न भवेय होय सम्मत्तं ॥४॥
अर्ध-तयोपशम्, देशना, विशुद्धि, प्रायोग्य, करण, यह पाँच लब्धि हैं। अब इनका सामान्य अर्थ-कर्म के क्षयोपशम ते प्रगट होय ऐसा संज्ञीपना पंचेन्द्रीपना इनको शक्तिरूप भाव सो क्षयोपशम लब्धि है। जो संज्ञी पंचेन्द्री नहीं होय तौ सम्यक्त नांही होय। ता संज्ञी पंचेन्द्रीपने का क्षयोपशम चाहिये। ३ । और गुरु के उप|| देश धारने को शक्ति सो देशनालब्धि है। जो गुरु के उपदेश धारवे की शक्ति नाहीं होय ता सम्यक्त्व नाही होय || णी
तात गुरु-उपदेश धारने की शक्ति चाहिये।२। आगे समय-समय परिणामन की अनन्तगुणी विशुद्धता होई
होय। तपनालको चलब्धि
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सो विशुद्धि लब्धि कहिये। जो परिणामन की विशुद्धता नाही होय तो सम्यक्त्व नाहीं होय, तातै परिणामन की विशुद्धता चाहिये।३। बहुरि मोहनीय-कर्म की स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर की है ताको अपने परिणाम की विशुद्धता के बलकरि कर्म स्थिति घटाय के अन्तःकोडाकोडी की राखै सो प्रायोग्य लब्धि है। जो मोह-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति होय तो सम्यक्त नाही होय । तातै मोहनीय-कर्म की स्थिति घटनी चाहिये।४। बहुरि करणलब्धि के तीन भेद हैं—अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जहाँ अधःकरण होय तब समय-समय परिणामन को विशुद्धता बढ़ती जाय । आर जे-जे कर्मनि को स्थिति आगे बँधे होय थी तात कर्मस्थिति घटती बंध होय। साता वेदनीय, प्रादेय, सौभाग्य, यश-कीर्ति इन जादि शुभ प्रकृतिन का अनुभाग बधती ( अधिक ) बंध होय । और असातावेदनीय, अयशःकोर्ति, दुर्भग, अनादेय इन आदिक अशुभ-कमनि का अनुभाग घटती बंध होय। पहिले पीछे समय में जीवनि के अधःकरण होय तिनको विशुद्धता के स्थान मिलै भी, नहीं भी मिलै, तातें याका नाम अधःकरण है। २। और जामें समय-समय असंख्यात गुखो कर्म नि की निर्जरा होय सो अपूर्वकरण है। और अशुभ-कर्मनि का अनुभाग पलट शुम रूप होय । समय-समय कर्मनि की स्थिति घटती होय । समय-समय शुभ-कर्मनि का अनुभाग बढ़ता होय। जिन जीवन ने समय अन्तरतें करण मांडा होय तौ परस्पर तिन जीवनि की विशुद्धता नहीं मिले। जाने प्रथम समय में अपूर्वकरण मांडा और काह ने दोय च्यारि पाचादि समय पीछे
करण मांडा होय तौ पहिले करणमांडा ताकी विशुद्धता महानिर्मल होय, याको विशुद्धता के पिछले करण || करनहारे जीव कबहूँ नहीं पाव। इनके परस्पर विशुद्धता नहीं मिले तात याका नाम अपूर्वकरण है।२। अनेक
जोवनि की समयवर्ती विशुद्धता समान होय। तीनि काल सम्बन्धि जीवनि के अनिवृत्तिकाल समय सर्वजीवनि की विशुद्धता एक-सी होय सो अनिवृत्तिकरण है। ३। ऐसे ये करणलब्धि है। सो यह पाँच लब्धि हैं। तहाँ यता विशेष जो च्यारि लब्धि तौ भव्य अभव्य दोऊनि के होय है तात समान हैं। करण लब्धि सम्यक्त्व होते | निकट संसारी भव्यात्मा के ही होय है इस करणलब्धि के पूर्ण होते अन्त समय में सम्यक्त्व को पूर्णता होय
जीव अल्पसंसार का धारणहारा सम्यग्दृष्टि होय है । सो आत्मिक स्वभाव का वेता परद्रव्य ते उदासीन जान्या | है आप चैतन्य स्वभाव अर पर जड़त्व भाव ऐसा सो भव्यात्मा सम्यग्दर्शनी कहिये ऐसे इन पंचलब्धिनि का
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सामान्य स्वरूप कहा। विशेष श्रीगोम्मटसारजी तें जानना । ऐसे पंचलब्धि पूर्ण भए सम्यग्दर्शन होय है। सोता सम्यक्त्व के दश भेद हैं सो हो कहिये हैंगाथा-आग्ण मग उनदेसो, सूतर बीजा संखेय वित्यारो। अत्यायगाव महागादो, समत जिन भास्य य दहमा ॥ ५ ॥
अर्थ-आज्ञा, मार्ग उपदेश, सत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ अवगाढ़,परमावगाढ़,रोसे ये दश मेद सम्यक्त्व के हैं। सो अब इनका सामान्य स्वरूप कहिये है । जहाँ विना उपदेश, जिन आज्ञा का दृढ़ सरधान होना सी आझा सम्यक्त्व है। भोरे सरल परिणामी जीव अल्पज्ञान से ही ऐसा सरधान करें हैं कि जो हम अल्पज्ञानी हैं, विशेष तवज्ञान की शक्ति नाही, परन्तु जिन देव नै भाष्या है सो प्रमाण है। ऐसा दृढ़ श्रद्धान करि कुदेव कुशुरुन की। सेवा नहीं करनी सो आज्ञा सम्यक्त्व है।३। जानें गुरु-उपदेश त जान्या है देव, धर्म, गुरु का स्वरूप जी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र ये रत्नत्रय ही हैं। मोक्षमार्ग और विशेषज्ञान तौ नाहीं परन्तु रत्नत्रय विना मोक्षमार्ग नहीं मानें । ऐसा दृढ़ श्रद्धान होय सो मार्ग सम्यक्त्व है । २ । बहुरि जहाँ तीर्थङ्कर चक्रो कामदेवादिक के पुराण सुन, जान्या होय पुण्य पाप का भैद जानें आर तीर्थङ्करादिक के कल्याण आदिक अतिशय सुन उपजी है पुण्य की चाह जाकें रोसा गुरु-उपदेश सनिकै दृढ़ श्रद्धान भाव मया होय, सो उपदेश सम्यक्त्व है।३। बहुरि आचारोगादि सूत्र का उपदेश जानि सम्यक्त्व श्रद्धान दृढ़ भया होय, सो सूत्र सम्यक्त्व कहिये ।४। बहुरि जहा नाना प्रकार गणित शास्वनि का स्वरूप जानि, रहस्य पाय, सम्यक श्रद्धान दृढ़ होय सो बीज सम्यक्त्व कहिये। ५ । बहुरि जहां शास्त्रनि का संक्षेष श्लोक, काव्य, गाथा, छन्द, पद इत्यादिक का सामान्य अर्थ जानिके जापा पर का भेद पाय सम्यक श्रद्धान दृढ़ किया हो सो संक्षेप सम्यक्त्व कहिये।६ । बहुरि अनेक द्वादशांग का स्वरूप सुनि सम्यक् श्रद्धान दृढ़ कर या होय सो विस्तार सम्यक्त्व कहिये । ७। और कोई विना ही गुरुव शास्त्र का उपदेश सुनैं अकस्मात् कोऊ उल्कापात आदिक दृष्टान्त देखि संसार की दशा विनाशीक जानि उदास होई दृढ़ सम्यक्त्व श्रद्धान होय, सोअर्थ सम्यक्त्व कहिये।८। और जहां अङ्गपूर्व के सुनने करि इत्यादिक निमित्त पाय दृढ़ सम्यक्त्व होय सो अवगाढ़ सम्यक्त्व कहिये।।। जहाँ केवलज्ञान भये प्रत्यक्ष सर्वलोक-अलोक भासते रोसा श्रद्धान है सो परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहिये ।२०। रोसे कहे जो यह दशभेदरूप सम्यक्त्व परसति सो
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| मोक्षरूपी कल्पवृक्ष की दृढ़ जड़ है। तथा मोक्षमहल का प्रथम सोपान कहिये सीढ़ी है। सो रोसे सम्यक्त्व के ये ।। पनीस दोष हैं जहां ये दोष नहीं सो शुद्ध सम्यक्त्व जानना। सो पच्चीस दोष बताईये हैंगाचा-भद बसु सम्मक, दोसड, आयतन षट् य तीन मूढ़ाए। इनदोसप विण सम्म, निम्मत सिंब दीव सम गेय ॥ ६ ॥
अर्थ—पद जाठ, सम्यक्त्व के दोष आठ, अनायतन षट मढ़ता तोनि ये पच्चीस सम्यक्त्व के दोष हैं। अब इनका सामान्य अर्थ कहिये है। जहाँ मामा नाना महारे से काहू के नांहों ऐसा माता का पक्ष लै मद करना सो जातिमद है। । हम बड़े कमाऊ हम अनेक बुद्धि करि धन पैदा कर इत्यादिक अपनी कमाई का मद करना सो लाभमद है। २ । जहाँ हमारे पिता दादा धनादि करि बड़े थे इत्यादिक पिता की पक्ष का मद करना सो कुलमद है। ३। हमारे-सा रूप और काहू का नाही इत्यादिक अपने रूप की महिमा देखि मद करना सो रूप मद है। ४ । हम बड़े तापस्ती रो कदि आपने नए का मद करना सो तप मद है । ५। और अपने बल की अधिकता जानि कहना जो हम-सा बलवान और नाहीं रोसा कहि मद करना सो बल मद है ।६। हमसे और पण्डित नाही हम नाना प्रकार तर्क व्याकरण प्राकृत छन्द काव्य पड़े हैं। इत्यादिक अपनी पण्डिताई का मद करना सो विद्या मद है। ७। हमारा बड़ा हुकुम है राज पञ्च सर्व हमारी आज्ञा माने हैं। ऐसा आपको बड़ा जानि मद करना सो अधिकार मद है। ऐसे यह आठ मद होते सम्यक्त्व मलिन होय हैं। जैसे उज्ज्वल वस्त्र मैल के सम्बन्ध पाय मलिन होय । तैसे इन मदनि के निमित्त पाय सम्यक्त्व-धर्म मलिन होय है। ताते रोसा जानि सम्यग्दृष्टि ये मदभाव नाही करें हैं। जे मिथ्यात्वलिप्त अज्ञानी और धर्म भावमा रहित मोक्षमार्ग जानिवेकों अन्ध समानि पापमार बंध करनहारे वे इन अष्टमदन को करें हैं । और जे जगत त उदासीन सुखराशी सम्घकगुरापासी, जानें मदफांसी वे ए मद पापफर करता जानि मदभाव नाहों करें हैं ।। इति अष्टमद ॥ अगै अष्ट मल लिलिये है। जहां धर्मकार्यनि के सेवनैविर्षे माता-पिता कुटुम्बादि राजा पंच इत्यादिक मुझे पापी जानेंगे ऐसा जानि आप कोई धर्म का सेवन शंका सहित करै सो सम्यक्त्व धर्मकौं मल लागै सो यह शंका नामा दोष है ।। और धर्मसेवन करि पंचेन्द्रिय जनितसुर्खान की अभिलाषा करना सो सम्यक-धर्म का कक्षिा नाम दोष है। २। और धर्मात्मा जीवनि के शरीर में कर्म उदय ते रोग करि तन मलिन भया। सनमें फोड़ा, गमड़ा, वायु. पित्त,
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कफ, खांसी, कुष्टादि रोग देखि क अपने चित्त में ग्लानि करनी सो दुगंछ । विचिकित्सा) नामा सम्यक्त्व का दोष है। ३। और विना परीक्षा देव, गुरु, धर्म की सेवा करनी सो सम्यक्त्व-धर्म का मढ़ता नामा दोष । है। ४। और पराये दोष प्रकाशि, परक दुःख उपजावे. सो सत्यधर्मकौं घाति परदोष कहना ( अनुपराहन) दोष है।५। और धर्म सेवन करते अपने परिणाम अथिर राखना तथा औरनि को धर्म-सेतर करते देख तिनको अधिरता उपजावनी सो अस्थितीकरणनामा सम्यक्त्व का दोष है । ६ । और जाको धर्मात्मा जीव तथा धर्म की चर्चा धर्म-कथा धर्म-स्थान धर्म उपकरण धर्म-उत्सवनि विर्षे द्रव्य लगता देखि इत्यादिक धर्म-वार्ता जाकौ नांहों सुहावै सो वात्सल्य भावरहित अवात्सल्य दोष है । ७ । और जाकू धर्म के उत्सव नाहों सुहावै सो अप्रभावना नामा आठवां दोष हैं। ८। इति सम्यक्त्व के आठ दोष। आगे षट अनायतन दिखाईये है तहां खोटे देव को प्रशंसा करनी, रागी द्वेषी परिग्रही जीवनि के गुरु जान प्रशंसा करनी और दयारहित हिंसा पाखण्ड विष का प्ररूपण हारा असत्यवादी ऋज्ञानी जीवनि के कल्पनामात्र करि किया जो कुधर्म ताकी प्रशंसा करनी। और खोटे, कामी, क्रोधी, भयानीक, कुदेवनि के सेवकनि की प्रशंसा करनी। और कुगुरुनि के सेवकनि की प्रशंसा करनी। और कुधर्म के सेवकनि की प्रशंसा करनी श षट अनायतन सम्यक-धर्म के दोष हैं। तात जे सम्यकदृष्टी हैं सो इनकी प्रशंसा नहीं करे हैं ॥ इति षट् अनायतन ॥ आगे तीनि मूढ़ता लिखिये हैं सो जहां विना परीक्षा देव-पूजा करनी सीस नवावना सो देवमूढ़ता है। और जो विना परीक्षा गुरु को सेवा-पूजा करनी सोस नवावना सो गुरुमूढ़ता है। २१ और विना परीक्षा धर्म का सेवन करना सो धर्म मूढ़ता है। ३. ऐसे कहे जो जष्टमद, अष्ट सम्यक्त्व के दोष, षट अनायतन तोनि मढ़ता र सर्व पञ्चीस दोष सो इनरहित होय सो सम्यक्त्व शुद्ध है ।। इति सम्यक्त्व के पच्चीस दोष । आगे सम्यक्त्वके अष्टशुरण बताइये हैं। इन अष्टगुण सहित सम्यक्त्व
होई सो शुद्ध है। निःशङ्कित निःकांक्षित निर्विचिकित्सिता अमढदृष्टि उपगृहन स्थितीकरण वात्सल्यतः. प्रभावना | यह सम्यक्त्व के आठ गुण हैं। इन सहित सम्यादर्शन उज्ज्वल होय है सोई कहिये है। धर्म सेवन करते कोई
देव व्यन्तर तथा पापी कुटुम्बीजन तथा पंचादिक की शंका नहीं करना। निःशङ्क होय धर्म सेवन करना सो | निशङ्क गुण है सो यह गुण अंजनचोर ने पाल्या है। शधर्म सेवनि करि पंचेन्द्रिय सुखनि की वांछा नहीं करनी
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। सो निःकाक्षित गुण है । सा यह गुण सेठ की कन्या गुणवती ने पाल्या है। २ । जहां पुद्गलस्कन्ध असुहावने । देखि ग्लानि नहीं करनी सो निर्विचिकित्सा गुण है। सो यह राजा उद्यायन ने पाल्या।३। शुद्धदेव, शुद्धगुरु, शुद्धधर्म की परीक्षा करि सेवना सो अमददृष्टि गुण है सो यह रानी रेवती ने पाल्या।४। जहां पराया दोष जानिये तो हु धर्मात्मा जीव प्रकाशैं नहीं सो उपग्रहन गुण है। यह गुण सेठि जिनेन्द्रभक्त ने पाल्या । ५। और कोई धर्मात्मा जीव धर्म सेवन करता कोई कारण पाय धर्म त डिगता होय रोगकरि विभ्रम करि इत्यादिक कारसनिकरि डिगता होय तथा धर्म सेवन विर्षे जाके अथिरता होती होय तौ ताकों तनकरि धनकरि वचनकरि धर्म में थिर करे सो स्थितीकरण गुण है। सो वारिश राजा श्रेणिक के पुत्र मुनि भये तिनने पाल्या है।६। धर्मो जीवनि को देखि धर्मस्थान कं देखि हर्ष करना सो वात्सल्य भाव है सो यह वात्सल्य गुण विष्णुकुमारजी । ने पाल्या है। ७। और जैसे बने तैसे धर्म की प्रभावना उद्योत करें धर्म उत्सव देखि राजी होई सो प्रभावना अङ्ग है। यह गुण बनकुमारजी ने पाल्या है । ८। रोसे कहे जो यह अष्ट अङ्ग हैं सो इन अष्ट अङ्ग सहित सम्यग्दर्शन के धारी जीवनि के सहज ही दृष्टि शुद्ध होय गई है ताके प्रसाद करि पदार्थ नि का स्वरूप जैसे का तैसा भास है । सो यथावत भासिवै कर रागद्वेष नाहीं होय है। इहाँ प्रश्न। जो आपने कहा सम्यक्त्व भये पदार्थनि पै रागद्वेष नाही होय सो अविरत सम्यग्दृष्टिनि के तो प्रत्यक्ष रागद्वेष हिंसा आरम्भ भासै है। ताका समाधान—रागद्वेष का अभाव दोय प्रकार है। एक तो प्रत्यक्ष रागद्वेष का अभाव और एक श्रद्धानपूर्वक। सो प्रत्यक्ष रागद्वेष का अशव तो जिनदेव केवली के है तथा ग्यारहवें बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनीश्वर के है। तथा षष्टम गुणस्थान आदि दसवें गुरास्थानपर्यन्त महावतिन के हैं। और नीचले, अव्रत चौथे गुणस्थानीन के सदृष्टि होते निकट संसारी भव्यात्मा के श्रद्धानपूर्वक रागद्वेष नांही। वानिमित्त दोष तें रागी-सा है। परन्तु शुद्धदृष्टि के प्रसाद ते अन्तरंग रागद्वेष होता नाहीं। यह बिना ही जतन सहज स्वभाव है। सो ऐसी दृष्टि होते अनेक लहरि परिणति विर्षे उठे हैं। जैसे सागर विर्षे तरंग चले तसे सममावन विर्षे विचार होय है ताही के प्रसाद | करि यह सुदृष्टितरंगिणी नाम शास्त्रमैं कहूं हूं। सो ताके सुनने कू अरु कहने कू ऐसे शुभ श्रोता तथा शुभ वक्ता ||
चाहिये । सो श्रोतानि के, शुभाशुभ करि अनेक भेद हैं। और वक्तान् के भी शुभाशुभ करि अनेक भेद हैं सो
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प्रथम ही श्रोतानि का स्वरूप सुनौ ।
गाया - सोता सुहव असूहो, उदह भिस्सोय चउदह सुहोई | सोतधरा मण आदा निर्माणिय पष्णतिले मुह अम्ही ॥७॥
अर्थ --- अब श्रोतानि का शुभाशुभ है सो हो कहिये है। श्रोता शुभ अशुभ करि दोय भेदरूप हैं। सो चौदह श्रोतात मिश्र हैं और चारि श्रोता शुभ हैं। भावार्थ । चौदह श्रोता मिश्र हैं जिनमें आठ तो अशुभ हैं अरु षट् शुभ हैं। सो प्रथम अशुभ आठ के नाम-पाषाणसम. फूटा घड़ा सम, मोडासम, घोटकसम, चालती सम, मशकसम, सर्प सम, भैंसासम इनका स्वभाव कहिये है। सो धर्मात्मा जीवन को चित्तदेय सुनना योग्य है जो जोब उपदेश सुनै, पूछें, आप पढ़ें, बहुतकाल के कथन यादि राखँ इत्यादि बहुत कालताई धर्म किया करें परन्तु अन्तरंग में पापबुद्धि भोजन व हिंसा मार्ग नाहीं तजै। कुधर्म, कुगुरु के पूजने की श्रद्धा नाहीं मिटें। आप क्रोध मानादिक कषाय नहीं तजैं। जाके हृदय में जिनवानी नाहों रुचै सो पाषाण समान श्रोता है । २ । जो रोज दिन प्रति शास्त्र सुनै परन्तु सुनती बार तो सामान्य-सा यादि रहे पीछे भूलि जाय दिलविषै यादि नांहीं रहे सो फूटे घड़ासमान श्रोता है जैसे मैदा पालनहारेको मारै तैसे ही श्रोता जा वक्ता अनेक दृष्टान्त युक्ति सोख अनेक शास्त्र कला आदिक करि पोछें काल पाये जाते कथन सुन्या सौख्या था ताहो का दोषी होय ताका घात करें, सो मैदा समानि श्रोता कहिये । ३ । जैसे घोड़े को घास दाना रातिब देते घोड़ा रातिब देने वाले मारे काटे तैस जो श्रीता जाके पास उपदेश सुनें ताही ते द्वेष करै सो घोड़ा सामानि श्रोता जानना । ४ । जैसे चालनी वारीक भला आटा तो डारिदे अरु भूसी अङ्गीकार करें तैसे ही मला उपदेश सुनै ताका गुण तो ना ग्रह अरु औगुन ग्रहै। जो शास्त्र में दान का तथा चैत्द्यालय करावने आदि द्रव्य लगावने का उपदेश सुनि यह ज्ञान दरिद्री ऐसा सम, जो हम धनवान हैं सो हमकौं कहे हैं कि धन खरचौ सो हमारे धन कहां है ? इमि समभि पापबन्ध करें। तथा तपका कथन शास्त्र में सुनै सो इमि समझें जो हम तन के सुपुष्ट हैं सो हमको कहै है तप करो हम तप होता नाहीं, ऐसा समझ पापबन्ध करें है तथा दान-पूजा शीलसंजम इत्यादि का उपदेश होय तब तो ऊंघें । तथा चित्तविभ्रम में रहे सो नहीं सुनें। कोई निन्दा करै तथा कोई मूर्ख सभा में कलह की कथा ले उठे ताकूं सुनै । तथा कोई पाप कारण को निन्दा शास्त्र में निकसे कि अभक्ष्य खाना योग्य नाहीं । चोरी करना योग्य नाहीं ।
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द्यूत रमना, वेश्यागमन, इत्यादिक कार्य किये पाप होई। ऐसे सुनिकें अभक्ष्य खानेवारा कहे हमारा दोष कह है। सी अभक्ष्य भोजन तजे तो नहीं दोष करि पापबन्ध करि घर जावे । जुवारी ऐसा समझे जो मेरा सु दोष सुन्या है सो प्रगट करें है ऐसा जानि सभा छोड़े। इत्यादिक गुण तो नहीं लेय अरु अवगुण लेवे सौ चालनी सामान आता है। रसभावतो नाना प्रकार चर्चा करै धर्मकथा अनेक यादि राखे । अनेक गाथा, काव्य, छन्द, कवित्त इनको पदं तिनको अर्थ औरनि को समुझावै इत्यादिक वाह्य तैं तो धर्मात्मा-सा दीखै । अरु अन्तरंग धर्म इच्छा रहित, महा क्रोध, मान, माया, लोभ करि सहित, शुद्ध धर्म का निन्दक, धर्मात्मा जीवन का निन्दक कुदेव कुगुरु का प्रशंसक, पावरस करि भोजता, अन्तरंग धर्म भावना रहित होय सो मसकसमान श्रोता है। जैसे मसक रीती (खाली) में पवन भरि मोटी करी सो ऊपरि तैं तो जलभरी भासे । अन्तरंग धूम तैं भरी तथा पवन ते भरी सो ऐसे श्रोता खाली मसकसमान जानना । ६ । जैसे सर्प को दूध पिलाइये तो महादुखदायी विष होय तैसे काहू को अमृतसमानि जिनवचन सुनाइये तौ तिनको सुनि भी पापात्मा पाप का बन्ध करें जैसे कहीं कुकार्यनि की निन्दा निकसै तथा शास्त्रनि विषै खोटे खान-पान की निन्दा का कथन होई तथा क्रोधादि कषायनि की निन्दा तथा सप्तव्यसनि की निन्दा इत्यादिक जाति विरोधी, कर्म विरोधी, पंचविरोधी क्रिया पापकारी है सो विवेकीन को तजना योग्य है । ऐसा कथन शास्त्रनि विणें चलता होई ताके सुने जीव पापकार्य तज, धर्म के मार्ग चलें। इस भव जस पावै, परभव सुखी होई। ऐसे कथन गुणकारी अमृतिसमानि सुनिजो पापाचारी अशुभ आत्मा, द्वेष करै, ऐसा समझे जो यह अवगुण अब हममें हैं सो रा सर्वदृष्टान्त कथन किया सो हमारे ऊपर किया ऐसा विचारि, धर्मद्वेषी होय सो सर्प समानि श्रोता है । ७ । जैसे भैंसा, सरोवर के जल में जावे सो पानी पोवै तो थोरा परन्तु गन्धीय के सर्व जल मलीन करें। और पीवने के योग्य ना राखै, सर्व के तन तथा अपना तन मलीन करें तैसे ही सभा वि जिनवाणी का कथन महानिर्मलता को सुनि भव्य पाप तैं उदास होई धर्म चाह । धर्म की प्रशंसा और धर्मात्मा जीवनि की प्रशंसा करि अनुमोदना तैं पुण्य का बन्ध करै महाहर्ष मानै। तहां अनेक जाति के प्रश्न उत्तर होतें अनेक जीवनि के संशय जांय, ज्ञान की बढ़वारी होय । ताकरि शुद्धतत्व
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श्रद्धान करते सम्यक्त्व श्रद्धान दृढ़ होई। ऐसे कथन होत केलेक भोरे, मन्दज्ञानी, कषायनि के सताये, कोई॥ रोसा प्रश्न या कोई न्यावक की वार्ता सभा में चलायदेय सी सकरि शास्त्र का कथन विरोधा जावै। सर्वसभा के । जीवन के चित्त उद्वेग मई होई सर्व पापबन्ध करें, जाप पापबांधि करि परभव बिगा.. पर को दुःख उपजावे सो || पापबन्ध करनहारे हैं।८।।
अब चौदह श्रोता और हैं सो मित्र तिनमें पक्षको खोट तक मले हैं। तम चालनी समान पाषाणसमान, सर्पसमान, फटेघड़ा समान इन पाँचनि का स्वभाव तो ऊपरि आठ श्रोतान में कहि आये हैं। तातें यहाँ फेरि नहीं कहा । और मी कैतेक खोटे श्रोता हैं तिनका स्वभाव कहिये हैं सो जहाँ धर्म उद्योत देखि आपते तो नाहिं बनै परन्तु धर्मघात विचारे, जहां मला शास्त्र का उपदेश होता देखि तहाँ धर्मघात विचारै सो बिलाव समान श्रोता है। जैसे बिलाव भले दुध को पीव तो नहीं परन्तु ढोल व बासन फोरि डारे। तैसे पुण्यकारी उपदेश को धार तो नांहों परन्तु उपदेश देता देखि द्वेष कर धर्मघात करे सो बिलाव समान श्रोता जानना 1 और जे ऊपर तें उज्ज्वल अन्तरंग मलीन जैसे बगुला ऊपरतें उज्ज्वल अन्तरंग जोवघातक रूप भाव धरै सो तैसे ही कोई जीव बाह्य तो निर्मलवचन विनय सहित भाषः तनमलिन करे धर्मोजन-सा दोनै अरु अन्तरङ्ग मानो क्रोधी कपटी लोभी बहुतनि का बुरा चाह कोऊ का धर्मसेवन देखि द्वेष भाव करै । महा कुआचारो दुर्बुद्धि रौद्रपरिणामी सो धर्मघात चाहै धर्म सेवन नहीं चाह । ऐसा अन्तरङ्ग मलिन ऊपरि त भला सो बगुला समान श्रोता कहिये। तथा और बुलाया बोले तैसे ही बोले । आपमें भाव सहित समझिवे को शक्ति नाहीं। जैसे सूवा को बुलावै वह वैसे ही बोले सो सवा समानि श्रोता कहिये। और मिट्टी को नीर का निमित्त पाई मिट्टो नरम होई तथा अनि का निमित्त पाई जैसे लाख कोमल होई इन दोऊनि का निमित्त छूटै सख्त होई, तैसे हो जिस जीव को जितना काल सत्संग का निमित्त होई तब तो धर्मभाव सहित होय, कोमल होय, दयावान होय और द्रत संयम की भावना करै धर्मात्मा जीवनि सों स्नेह करि उनकी सेवा चाकरी करया चाहै और जब सत्संग का तथा शास्त्रनि का निमित्त नहीं मिले तो कठोर धर्मरहित कर परिणामी होय जावे सी-मिट्री सम्मान तथा लाल समान श्रोता कहिये। और जो सभा में समताभाव सहित तिष्ठ्या शास्त्र का व्याख्यान सुन्या करे और कोई दन्तकथा करता होय तौ ताकी नहीं सुने ।
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और पुण्यकारी कथन का ग्रहण करें। अपने काम से काम सो शुभ श्रोता बकरीसमान है जैसे बकरी-गेवो भई अपना चारा चरै कोईत द्वेष भाव नहि करें। ऐसे बकरी समानि श्रोता कह्या। आगे जैसे डांस जगह-जगह जीवनि को दुःख उपजावे तैसे ही जो जीव सपा में शास्त्र कथन होते उपदेशदातात तथा और धर्मात्मा जीवनि ते देष भावकरि बार-बार कुवचन अविनयवचन बोले, सभा तथा वक्ता को खेद उपजावे सो डांस समानि श्रोता 'कहिये। और जैसे जौंक है सो दुग्ध के भरे आँचल पैलगा लोह हो अङ्गीकार कर, वाका कोई ऐसा ही स्वभाव है। तेसे ही वाको चाहे जैसा उपदेश दो परन्तु पापाचारी जवगुण हो ग्रहै । इस दुर्बुद्धि का ऐसा श्रद्धान होय जो हमने ऐसे उपदेश घने ही सुने हैं। कोई हमारा क्या भला करेगा जो हमारे भाग्य में है सो होयगा। ऐसा श्रोता होय सो जौकसमान श्रोता है। इसको चाहे दयाकरि उपदेश कहो परन्तु दोष हो ग्रहै है सो जानना। आगे जैसे गऊ घासवाय दूध देय, तैसे ही जिनको अल्प उपदेश दिये ही ताको रुचि सहित अङ्गीकार कर अपना बहुत भला करें और तिस उपदेश तें आपकं तत्वज्ञान का लाभ भया जानि ताकी बारम्बार प्रशंसा करें। उपदेशदाता का बहुत उपकार माने, सो गऊ समानि श्रोता है। आगे जैसे हंसपय जो दूध जामें जल मिलाय धरी तो नीर तो नहीं ग्रहै और दुध के अंश अङ्गीकार कर सो हंस की चोंच का रोसा ही स्वभाव है कि ताका स्पर्श भये नीर अर दुध का अंश जुदा-जुदा होय जाय है सो नीर तो तजै अरु दूध के अंश अङ्गीकार करें. तैसेही शुष्टि का धारी सम्यग्दृष्टि है सो अनेक प्रकार उपदेशकों सनि अपनी बुद्धि तें निरधार कर है। पीछे भले प्रकार तावज्ञान सहित जो अर्थ होय है ताको अङ्गीकार कर है। अशुभकारी अनाचार हिंसासहित उपदेश सुनि ताको किरिया का तजना करें है, रोसे जो हितदायक उपदेश ग्रहै। तामें जे जिनआज्ञा में निषेधी सो तजै, जो ग्रहिवघोग्य कहो सो ग्रहै। सो हंस समान श्रोता कहिये। ऐसे चौदह श्रोतानि को जाति है सो तिनमैं चालनीसम, मारिसम, बमुलासम, पाषाशसम, सर्पसम, मैंसासम, फूटा घड़ासम, डांससम, जोंकसम ए नव जाति के श्रोता तो हीन पापाचारी हैं। अरु मिट्टीसम, सुवासमए दो मध्यम श्रोता हैं। और बकरीसम, गऊसम, हंससमय तीन उत्तम प्रोता हैं। ऐसे चौदह श्रोतानि का कथन किया। आगे उत्तम श्रीता च्यारि और हैं तिनका स्वरूप कहिये हैं।
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हैं-तहां जैसे नेत्र तातै भला-बुरा नजर आवै तैसे ही मला श्रोता अपने भला-बुरा मार्ग उपदेशनै जानि जे बुरा | आचार्य पापकारी सो तो तजै और भला पुण्यकारी उपदेश सुनि ताही मार्गपर अपना श्रद्धान करें सो नैत्र समान श्रोता है।। और जैसे दर्पण से अपना मुख देखिये है ताकी अवस्था देखि अपने मुख रज मैल लगा होय तो धीयकै शुद्ध करै। तैसे ही भला उपदेश सुनि अपने चैतन्यस्वभाव पै कर्म रज जानि अपने आत्मप्रदेश निर्मल || | करने का उपाय करे सो दर्पण समान श्रोता है 1२। जैसे तराजू की डंडोतें अधिक व होन जान्यापरै तैसे ही भले, उपदेशक सुनि अपनी बुद्धिरूपी डंडीत भली-बुरी वस्तु को तोले। हीन को तजै अधिक फलदायक अङ्गीकार हरैः सोस की डंट. सम्मान होता है। और जैसे कसौटी पर घसि, भले बुरे सुवर्ण की परीक्षा करे तैसे ही भले श्रोता अपनी बुद्धि कसौटो तैं हितकारो तथा अहितकारोकं जानि तजन ग्रहण करै सो कसौटी समान श्रीता कहिये । ४ । रोसे ये च्यारि गुन सहित उत्तम श्रोता हैं। सो श्रोता ताकू कहिये जाके कर्ण इन्द्रिय होई और कान तो होय अरु मन नहीं होई तो शुभाशुभ विचाररहित असेनी को श्रोता पद सम्भवता नाहीं। ताते मन का धारी सैनी होय ऐसे श्रोत्रइन्द्रिय अरु मन जिनको होई सो शास्त्र के उपदेश धारने को योग्य होय हैं। अरु मन अरु कान तो हैं परन्तु धर्मोपदेश धारबे कों समर्थ नाही सो धर्म इच्छा रहित अज्ञानी आत्म, शुभ-अशुभ विचार बिना मनरहित असैनी समान है ताको धर्मलाभ होता नाहीं। और कानती हैं परन्तु कानन तें धर्मोपदेशरूप अमृत नाही पीय सके, तो कान रहित चौइन्द्री समान जानना । तातै मन अरु कानन के धारी श्रीता है सो अपनीअपनी परिगति प्रमारा फल को पावें हैं। कोई जीव तौ सभा में तिष्ठत शास्त्र का उपदेश सुनि भली भावना करि पुण्य उपजाय, सुफल के मोक्ता होय हैं । सो ऐसे भव्यात्मा को श्रोता कहिये। और कोई जीव शास्त्र का धर्मोपदेश सुनि, खोटी भावना करि पापके भोक्ता होय हैं सो अशुभ श्रोता कहिये। तातें बुरे-भलै दोय जाति श्रोतानि का कथन किया। इति शुभाशुम श्रोतानि का कथन स्वभाव सम्पूर्णम् ।
अब आठ गुण भौतानि में होई सो अपना भला करै, सोई कहिये हैं। गाषा-वांछा सवागहणं, घारण सम्मण पुच्छ उत्तराये। णित्रय ए व सुभेये, सोता गुण एव मुग सिव देई ॥२॥
अर्थ-वांछा कहिये चाह। सवरा कहिये सुनना। गहण कहिये ग्रहण करना। धारण कहिये धारना।
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सम्मस कहिये सुमरण करना । पुच्छ कहिये प्रश्न करना, पूछना। उत्तराये कहिये उत्तर करना । शिचय कहिये | निश्चय करना ए वसुभेये कहिये जाठ भेद सोता कहिये श्रोता के हैं। गुण राव कहिये ऐसे गुण, सुग्गसिव देई
कहिये स्वर्ग मोक्ष देय हैं। भावार्थ-जे निकट संसारी, धर्मात्मा, भला श्रोता होय ताविर्षे ये माठ गुण होय हैं सोई कहिये हैं। तहां जो शास्त्र आपने सुन्या ताके कथन की बारम्बार प्रशंसा करनी। जो इन शास्त्रनि विर्षे मला तापमान सूप पुरधफल दायक कथन है ऐसे हर्ष धरि उस शास्त्र के सुनने की अभिलाषा रहै। और जो आपको वल्लभ नाही लागै तो बाकी प्रशंसा भी न होई और देखने सुनने की अभिलाषा का होगा सो वांछागुण है।। और जो कोई वस्तु आपक हितकारी जानै ती ताकौ सुनै आपको हर्ष भी होई तातें हर्ष सहित शास्त्र सुनि अपना मव सफल मानना सो श्रवण गुश है। २। और जो कोई वस्तु आपको हितकारी जाने तो ताको अङ्गीकार करखे का उपाय भी करै। तैसे ही जो जिस धर्म को हितकारी जाने ताको कथा सुनि ताको अङ्गीकार करै ही करे, सो ग्रहण गुण है। ३। और जे विवेकी अनेक बात सुनै और जो बात आपको सुखकारी लाभकारी सुनै तौ तिस बात को यादि राख है। तैसे ही जा उपदेश से अपना भला होता जानै तो धर्मात्मा श्रोता ताकों भले प्रकार यादि राखें सो धारण है। 8 । और जौ वस्तु आपको सुखकारी पाने ताको विवेकी बारम्बार यादि किया करे तैसे ही धर्मात्मा श्रोता आपको जो उपदेश हितकारी जानै ताको बारम्बार याद करता की चर्चा
करे सो सुमरण गुण कहिये । ५। जैसे काहू को कोई वस्तु को बहुत चाह होई तौ ताको बारम्बार पूछ। | तैसे आपको वल्लम धर्मचर्चा बहुत होय तो प्रश्न करें सो प्रश्न गुण है।६। काह ने कोई बात पूछो सो आप तिस बात को जानता होय तौ तिसको उत्तर देय है सो तैसे ही आप धर्मकथा तत्वज्ञान बातन को समझता होय तो उत्तर देय, सो उत्तरगुण है। ७ । जो कोई वस्तु अपने हाथ आई है ताको भलो जाने तो ताको जतन तें दृढ़ रा । तैसे ही संसार में भ्रमता-ममता उत्कृष्ट धर्म मिला जानि, महायतन तें दृढ़ होई धर्म को राखै सो निश्चयगुण है ।पारोसे यह पाठ गुण सहित जाका हदय होय सो श्रोता मोहफांस त निकसनेवारा मोक्षाभिलाषी जानना । ऐसे श्रोता के लक्षण गुण वर्णन कीने । तथा श्रोता के भला होने के भाव कहे। आगे वक्ता के लक्षण कहैं हैं। ऐसे गुण सहित वक्ता सुखदायक श्रोतानिका भला करें, सो ही कहिये है
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|| गाथा-सम दम धर बहुणारणी, सहूहित लोकोयभानवेत्ताये। प्रिविधिमक विवरायो, सिसिहत इच्छोय एवं गुरु पूजो ॥९॥
अर्थ—सम कहिये समता सहित होय। दम कहिये मन इन्द्रिय का जीतनेवारा होई। धर कहिये इनका धारक होई। वहुणाशी कहिये विशेष ज्ञानी होय । सहशित करिये सर्वको सुखदायक हो सोकर भाव ।। बैत्ताए कहिए लौकिक कला का वेत्ता होई। प्रिक्षखिमय कहिण प्रश्नपूछतें क्षमावान होय उत्तर देनेवारा होय । वियरायो कहिये वीतरागी होय । सिसिहितइच्छोय कहिए शिष्यनिकों भली गति का वांछक होय। एवं गुरु : पूज्यो कहिए ऐसे गुरु पूज्य हैं। भावार्थ-शिष्य जननि का मला तब ही होय जब ऐसा गुरु उपदेशदाता होई। सो ही कहिरा है। प्रथम तो समता भाव सहित तिनकी मूर्ति होई। जो उपदेशदाता गुरु की मुद्रा भयानक होय तौ सभाजन को भय उपजावे तो ताके निमित्त ते शिष्यनि के ज्ञानलाभ न होय। मन में धर्म स्नेह करि हर्ष नहीं उपजे। जैसे भयानक सिंह का आकार रहता होय तो वन के सर्व पशु भी भय खावं तथा जैसे राजा तस्त पर बैठनेहारा कोपसहित भयानक होय तौ ताको देखि सब सेवक ताको भयानीक जानि सुख तजि, भयवान होंथ । तातें सभानायक उपदेशदाता, शान्तस्वभावी चाहिये। ताके निमित्त पाये शिष्यनिकौं सन्तोष उपजै।३। जो गुरु उपदेशदाता संजमी इन्द्रिय मन का जीतनहारा होय तौ समाजन को भी संजम की प्राप्ति होय । कदाचित उपदेशदाता विषयनि का लोलुपी होय तौ सभाजन भी असंजमी होय जावें। तातें गुरु संजमी चाहिये। २। उपदेशदाता विशेषज्ञानी होय तो सभाजन को भी ज्ञान की प्राप्ति होय । उपदेशदाता अज्ञानी होय तो सभाजन भी बझानी रहें। जैसे राजा द्रव्यवान होय तो राजा के सेवक भी धनवान होय । अरु राजा द्रव्यरहित होय तौ ताके सेवक भी द्रव्यरहित दरिद्री होय दुःख पावै। तातै उपदेशदाता गुरु ज्ञानी चाहिये।३। और उपदेशदाता सबजन का हितकारी चाहिये। जो शिष्यजन के परभव सुन का इच्छुक होय तौ मला उपदेश देई, सभा का भला करें। और उपदेशदाता शिष्यजनका हितकारी नहीं होय तो अपना विषय साथै, अपनी मानबड़ाई रहै, पूजा होई, और जीव अपने पांव पूज, और का धन अपने घर में आवे रोसा उपदेश देय शिष्यनि ते दगाकर विश्वास उपजावे, कषाय सहित उपदेश देवे, पीधे श्रोता चाहे जैसो गति जावो। ऐसे गुरु के उपदेश तें जीवन का भला नहीं होय । | तातें गुरु, शिष्यनि का हितकारी चाहिये । ४। उपदेशदाता-गुरु लौकिक व्यवहार का वैत्ता होय तौ लौकपूज्य
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पद बतावै। लौकिक व्यवहारवेत्ता न होय तो लोकविरुद्ध उपदेश देव तौ लोकनिन्दा वा शिष्य का बुरा होय । तातं उपदेशदाता लोकव्यवहारक वेत्ता चाहिये। ५। उपदेशदाता पराये प्रश्न सुनिवे में धीर-वीर होय, उत्तर का देनेवारा होय, जो कदाचित प्रश्न सुनि कोप करें, पराये प्रश्न का उत्तर देने का ज्ञान नहीं होय तौ श्रोता भयस्वाय प्रश्न नहीं कर सकें, सन्देह सहित अज्ञानी रहें। शुद्ध मान नहीं शेष ताते उपदेशदाता पराये प्रश्न को सुनि समताभाव सहित उत्तर देनेवाला विशेष नय जुगति सहित ज्ञानी चाहिये। ६ । और उपदेशदाता गुरु वीतरागी चाहिये जो रागी द्वेषी होय तो क्रोध मान माया लोभ के वशीभूत होय अशुद्ध उपदेश देवे। कोई ने अपनी सेवा चाकरी करो होय तो ताको विश्वास करि उपदेश देय। अर जो अपनी आज्ञा बाहिर होय तो तापै कोप करि कहै। आपको धन देय ताको भला भक्त कहै। ऐसे कोई तें राग कोई तें द्वेष भावकरि यथावत उपदेश नहीं देय तो शिष्यनि को धर्म का लाभ नहीं होय । तातें उपदेशदाता धर्म का धारी वीतरागी चाहिये । ७ उपदेशदाता गुरु, शिष्यनि का स्वर्ग मोक्ष होना वांछे ऐसा होय तो निर्दोष उपदेश देय शिष्यन का भला करें और उपदेश - दाता शिष्यनि को भली गति नहीं वांछे, तो खोटा उपदेशदेय श्रोता का बुरा करै । तातें उपदेशदाता गुरु शिष्यनि को भीगती का इच्छुक चाहिये। ८ । इत्यादि अनेक भले गुण सहित उपदेशदाता गुरु चाहिये। सोही भले श्रोतानि का गुरु है। सम्यकदृष्टिनि का गुरु है। ऐसे गुण सहित गुरु सबको मिलें। और रागी-द्वेषी गुरु कोई बैरी को भी मति मिलौ। ऐसा आशीर्वाद वचन जानना ।
इति श्री मुहष्टितरङ्गिणीग्रन्थमध्ये श्रोता वक्ता स्वरूप वर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः सम्पूर्णः ॥ २ ॥
ऐसे श्रोता वक्ता का शुभाशुभ स्वभाव कहा। सो इनमें तैं शुभ श्रोता वक्ता के गुरा जिनमें हॉय सो इस ग्रन्थ को पढ़ो, धारौं । इस ग्रन्थविषै अनेक रचनारूप कथन है । अरु था ग्रन्थ में अर्थ सो तो अनादिनिधन है काहू का किया नांही । अरु तत्त्वनि का स्वरूप जैसे केवलज्ञानी ने कहा तैसे हो है। जैसे अनन्ते जिनेन्द्र केवलज्ञानी आगे तैं तत्त्वनि का स्वरूप प्ररूपते आये, तैसे ही अर्थ यायें है। अर्थ तो इस ग्रन्थ में कवीश्वर की इच्छा प्रमाण नाहीं हैं, जारन का मिलाप कवीश्वर को बुद्धि अनुसार है। सो अर्थ तो काहू वादी का खड्या जाता नाहीं । काहे तैं, जो अर्थ है सो सर्वज्ञ केवली के वचन अनुसार है। सो ताकी यादी होनख़ानी
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कैसे खण्डि सके। जैसे कोई एक स्तम्भ कोटीभटानि कर रोप्या हुवा ताहि कोऊ हस्त अङ्ग रहित, रोगी, दीन, तुच्छबल का धारो, रंक पुरुष कैसे उपारि सके है। अक्षरनि का मिलाप तुच्छबुद्धि के जोग कर किया है। सो यामें कोऊ, चूक होगी । बुद्धि की सामान्यतातें जो अक्षर मिलाये हैं सोचूक होयगी भी तो एक उपाय विचारचा है सो प्रथमतो मैं भी याको शोधि अक्षरनि को ठोक करूँगा तौभी ग्रन्थ की प्रचुरतात चूक रहेगी तौ ताके निमित्त दूसरा यह उपाय है। जो विशेष बुद्धि, सम्यग्दृष्टि, निर्मल बुद्धि के धारक, जिनआझा रहस्यनि के जाननेहारे, वात्सल्य अङ्ग के धरनहारे, धर्मात्मा पुरुषतिन मैं ऐसी विनती करौं हों—जो है प्रभावना अनके धारी धर्मी जन हो, तुम सज्जन अङ्गी हो और पराये तुच्छगुण में अनुरागी हो, तात कवीश्वर तुमतें ऐसी विनती करै है जो इस ग्रन्थ के प्रारम्भ विषं कहीं मैं अर्थ तथा अक्षरमात्रा विर्षे बुद्धि की न्यूनताकरि मूला होऊँ तो तुम मेरे ऊपर वात्सल्य भाव जनाय, शुद्ध करि लेना। यह विनती जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसारि धर्म श्रद्धान के करनहारे तत्त्वनि का स्वरूप यथावत जाननेहारे सम्यकरुचि के धारीनि तें करी है। और कोऊ छन्दनि की जोड़ वि तथा टीका के करने तिः कोई असरनि को ललिताई तथा सरलताई नहीं होय तौ छन्दकला के शानसम्पदा के धरनहारे भव्यात्मा सरलछन्द कर लेना। आप एता उपकार इस ग्रन्थवि मिलाय अपनी धर्मानुरागता प्रगट करेंगे। रीसी विनती सज्जननितें करी। सो रही चूक ऐसे शुद्ध होयगी। इहाँ कोई तरकी कहै जो आगे भी तौ जिनआझा प्रमाण ग्रन्थ बहुत थे सो तिनकाही अभ्यास किया होता तो भला था। तुमको ऐसे भारी ग्रन्थ गाथा छन्दनि सहित करने का अधिकारी काहे को होना था। तातै मानबुद्धि के जोगते तुमने इस ग्रन्थ को किया. सो तुम्हारा मनोरथ पूरा होता नाही भासे है। यह ग्रन्थ मारी है, ताविर्षे चूक भये उलटे निन्दा को पावोगे। तातें नहीं करना ही भला था ताको कहिये है। जो हे भाई! तैने कही जो तुमने मानके अर्थ ग्रन्थारम्भ किया, सो जिनआज्ञाप्रमाण सरधानीनकै शास्त्रप्रारम्भ में मानादिक प्रयोजन रूप कषाय का काही प्रकार नाहीं। यो कार्य तो सातिशयपुण्यबन्ध के निमित्त कीजिये है। मान का इसविष प्रयोजन नाहीं। तब तरकी ने कही.मान प्रयोजन नांही अरु पुण्य की चाह थी तो आगे अनेक शास्त्र थे तिनका स्वाध्याय करि बर्थ का धारन करते तौ महापुण्य का संचय नहीं होता क्या ? ताों कहिये है, जो हे माई। तैने कहा सो सत्य है, परन्तु
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कोई उपयोग का स्वभाव रोसा है सो नवीन वस्तुविौं उपयोग विशेष थिरता पावै है। नवीन ग्रन्थ जोड़ने में चित्त को एकाग्रता विशेष होय है। तातै चित्त की विशेष लाग. देखि धर्मानुराग विशेष बढ़नेकों धर्मध्यान में । ३. कालविशेष लगावनेकू ग्रन्थ प्रारम्भ विचारचा है और मान का प्रयोजन यहां कछू नाहीं। मानं तौ संसारविष दीर्घ कर्मस्थिति के धारक जीव कषायनि के प्रेरे मिध्यादृष्टि मोहरस भीजै प्राणिनि को चाहे धर्मोनि के नाही, रोसा जानना । तब तरको ने कही ऐसे है तो भले है। परन्तु ग्रन्थविर्षे चूक भये पण्डित हैं सो तुम्हारी बुद्धि की निन्दा करेंगे। तातें होसि पावोगे। ताका गावाट मात: धर्म सेनापि निन्दा होने का तो कार्य नाही। ऐसे धर्म भावना रहित प्राणी कौन हैं जो धर्म के कार्य विर्षे निन्दा करें? तब तर्को नै कही धर्मसेवते तो निन्दा नहीं करेंगे। परन्तु ग्रन्थ में चूक देखि पण्डित हाँसि निन्दा करेंगे। ताको कहिये है—हे भाई, पण्डित दो प्रकार के होय हैं एक तौ धर्मार्थी पण्डित हैं एक मानार्थी पण्डित हैं। सो यह दोय प्रकार पण्डितनि का अन्तरङ्ग स्वभाव भित्र-भित्र है। ए पण्डित दोऊही घन तन समा न जानने। जैसे घन कहिये मेघ अन्तरङ्ग विर्षे तौ निमल जल कर भरे हो हैं । अरु ऊपरि ते स्यामघटारूप होय हैं तैसे हो जाका अन्तरगतौ शुद्ध महानिर्मल धर्मस्नेह जल करि भरचा है अर ऊरि तें संसार दशा ते उदासी, संजमी, तनतें क्षोश मलीन श्याम-सा दो. सो तो धर्मार्थी पण्डित है और मानार्था पण्डित है सो तनसमान है। जैसे, मनुष्यनि का तन ऊपरित तो महासुन्दर सबजनको मला दीखे और अन्तरविर्षे हाड, मांस,रुधिर, चामरूप, महामलीन, घिनकारी, सप्तधातुमई खोटा होय है। तैसे ही मानार्थी परिडत ऊपरितं महासुन्दर काध्यछन्द मनोज्ञ वासीसहित सो सबकी भला भासै। और अन्तरङ्ग धर्मवासनारहित, महामानी, पराये मानखण्डने का अभिलाषी, सजनता रहित, पराये भले गुणनि विर्ष अप्रीतिभाव करनेवारा वज्रपरिणामी सो पण्डित मानार्थी है। सो हे भाई! संसार में दोय जाति के पण्डित हैं। सो जै धमार्थो परिडत हैं सो तो महासज्जन हैं सरलस्वभावी हैं सो तो इस ग्रन्थ को चक देखि रोसा विचारंगे जो चक भई तो कहा भया। जो बड़े-बड़े परिडत होय हैं ते मी चूक जोय हैं। जैसे महापटबी विर्षे बड़े-बड़े चलया. सदैव के आवने-जावने हारे भी दीर्घ उद्यान मार्ग विर्षे चुके हैं । तो । ऐसे मार्ग विष कबहूं-कबहू का भावने जानेहारा अन्धासमान पुरुष, अल्प भासने तें भूलै तो आश्चर्य क्या
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| है? परन्तु ऐसे जन्ध समान जीव का पुरुषार्थ अरु लगन सराहिये, जो ऐसे विकटपंथनि मैं गमन करे है। सो थाका धर्मानुराग सराहिये। जो दीखता तो थौरा अरु ऐसे विषम मार्गनि में गमन करितीर्थ-यात्रा का उद्यम करें है। सौ या धर्मानुराग विशेष है। ऐसा जानि वाका हस्तगहि वाकूमार्ग लगाये बाकी वांछा पूर्ण करे हैं। तैसे ही धर्मार्थी पण्डित तौ ऐसा विचार जो नवीन ग्रन्थनि के करते बड़े-बड़े पंडित भी भूलें हैं सो ही ज्ञानी मलै तो दोष क्या ? परन्तु याकी बुद्धि सराहिये है। सो ऐसा जानि धर्मार्थो पंडित नहीं हँसेंगे। अर तु मानादिक को कह सो धर्म अभिलाषी वक्ता के मानादिक प्रयोजन नाही। परन्तु तेरी ही बुद्धि विर्षे कोई विपरीत विकार उपज्या है तात ऐसा भासे है। जैसे कोई कनक का खानेहारा पुरुष आकाश विष नाना प्रकार रतनमयी रचनासहित एक नगर देखि हर्षायमान होता मया, हँसता भथा। अरु कबहूँ नाना प्रकार भयानीक जीवनि के सिंह, हस्ती, सर्प आदि के विकराल आकार देखि महामयानीक होय रुदन करे है। सो आकाश तौ महानिर्मल निर्दोष है आकाशविष तौ रतनमधी नगर भी नाहीं और सिंहादिक भयानक जीव भी नांहों। परन्तु धतुरे के अमल में याकी दृष्टि मैं विपरीत भासै है तैसेही ग्रन्थ के कर्ता आचार्यादिक भले कीश्वरनि के मान का भाव नाही! कैसे हैं भले कवीश्वर, जे धर्म के धारी परम्परातै जिनभाषित धर्म की प्रवृत्ति वांछनेहारे समतारसस्वादी तिनको तौ सत्कार पूजा मान बड़ाई की इच्छा नाहीं। परन्तु याही ने मिथ्यात्वमई धतूरे का ग्रहण किया है। ताते याको ग्रन्थारम्भ में भले कवीश्वरनि के मान भास है। जैसे काहू के नेत्रनि विर्षे नोलिया रोग है। सो ता पुरुषको सब सफेद, नीला मासै है । सो सुफेद वस्तु तो अपने स्वभावरूप स्वैत है ही परन्तु या पुरुष के नेत्रनि विष नोलिया रोग है सो श्वेतवस्तु नीली भास है। तैसे ही ग्रन्थकर्ता कवीश्वरनिकै तो भान बड़ाई की इच्छा नाहों, परन्त थाही अल्पबुद्धि भोरे जीव का ज्ञान विपरीत रूप भया है। तब तरको ने कहो, यामें तुम्हारे मानबड़ाई नाहीं है तौ ग्रन्थनमैं अपने नाम का भोग काहेको धरोहो? ताका समाधान हे भाई! अपने नाम का भोग मले कवीश्वर हैं सो नाम की इच्छा से नाही धरे हैं। नाम का भोग तो अपनी धर्मबुद्धि ते, पाप ते भय खाय करि धर हैं। ऐसे ही अनादि ते भले कवीश्वरनि की परिपाटी चली आई है सो ग्रन्थकर्ता अपना नाम मोगा अपने किये ग्रन्थ मैं नाहों धरै तौ दोष लागै। कवीश्वरों का चोर होय। आचार्यनि की परम्परा का लोप होय।
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| तात पाय का बन्ध होय है। नाम दिये सर्वनों ऐसा ज्ञान हो जाय है जो यह ग्रन्थ फलाने कवीश्वर का किया है
सो बाके नामकौं जानि धर्मात्मा सेसी विचारै जो वह कवीश्वर तो भला तत्वज्ञाना है। भले सम्यग्ज्ञान का धारी । है। पक्का दसरथानी है। सो वाके वचन प्रमाण हैं। ऐसा धर्मार्थी प्रसिद्ध तत्वज्ञानी कदाचित् एक दोय जगह
चूक भी जाय तो विवेकी धर्मात्मा रोसी कहैं जो एक दोय चुक हैं सो ज्ञान की न्यनता ते भाव नहीं भास्या तातें ये शब्द लिखे गये। परन्तु वाके श्रद्धान बहुत दृढ़ है। ऐसा जानि उस कवीश्वरक नाम धरने ते मला सरधानी जानि, दोष नहीं लगावें और वाके वचन प्रमाण माने हैं। कोई ग्रन्थ का कर्ता अतत्व सरधानी होय तौ वाके नाम मोग तें नाम जानि, विवेकी हैं सो रौसा विचार हैं। जो इस ग्रन्थ का कर्ता अतत्त्व सरधानी है ताका कहा भया कोई शब्द जिन आज्ञा प्रमाण नाहीं, तातें इस वक्ता के वचन प्रमाण नाहीं। ऐसे नाम के भोगते भले कवीश्वर अरु बुरे कवीश्वर की परीक्षा करिये है, सो ता कवीश्वर के नाम करि ग्रन्थ के वचन प्रमारा करिये है। तातें कवीश्वर अपना नाम धरें। अरु कदाचित ग्रन्थकर्ता अपना नाम ग्रन्ध मैं नहीं धरें तो वह वक्ता अन्य कवीश्वरनि का चोर होय। तातै ग्रन्थ में कवीश्वर अपना नाम का भोग धरें हैं। इहां मान का कछु काम नाहीं।। यह तौ धर्मात्मा जीवनिकों अनुमोदना होने के निमित्त नवीन ग्रन्थनि की रचना करिये है। सो याको वांचिक सामान्यबुद्धि तो ज्ञान को बढ़ावेंगे। मोनै विशेष ज्ञानी धर्मात्मा जो ज्ञानसम्पदा के धारी हैं सो ऐसी विचारेंगे जो रोसा दीर्घ ग्रन्थ तव अर्थ सहित की रचना करी सो स्याबासि है। ऐसा जानि धर्मानुराग बढ़ावेंगे। कदाचित् विशेष ज्ञानी इस ग्रन्थ को सुगम जानि याका अभ्यास नहीं करेंगे तो वक्ता ते जो सामान्यबुद्धि होंगे सो भव्यात्मा धर्मानुरागी शुभ फल के अरु तत्वज्ञान के बढ़ने की इस ग्रन्थ का अभ्यास करेंगे। सो इस ग्रन्थ ते जिन आज्ञा का सामान्य रहस्य जानि पोछे विशेष शास्त्रनिमैं प्रवेश पावें ताकरि पुण्य का संचय करेंगे, अरु तत्त्व का भेद पावेंगे। तातें यह ग्रन्थ भव्यनिकी गुणकारी है। ता यामैं कोऊ सामान्य दोष हो गया तो हम शुद्ध कर देंगे ऐसा विचार तौ धर्मात्मा पंडित इस ग्रन्थ की रही चूक शुद्ध करेंगे। और दूसरे मानार्थी पंडित हैं सो पराये मान खण्ड करिने का सदैव उपाय करें हैं सो पराये मान खण्ड भये सुख पावेंगे। सो यों तौ ग्रन्थ में चूक न होयगी तौह दोष लगाठौंगे, सो दोष भये तो दोष लगाठी ही लगाठौं। यह अपना
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तौ मलै प्रकार माक है । सो यह
बङ्गकैसे तजेगा, हाँसि करेगा ही। तातै रोसे धर्म भावनारहित मानी पंडितनि का भय हमको नाही। जो भय है तौ जिन आज्ञा सहित धर्मात्मा पंडित पुरुषन का है। सो इनका भय करना भी योग्य है। क्योंकि जो इस
ग्रन्ध में मेरी बुद्धि को न्यूनता करि जिन आज्ञारहित अतत्त्वसरधानरूप शब्द कोई लिख्या गया होय, तथा कोई । अशुद्ध पाप प्रवृत्ति करावनेहारा लिख्या गया होय तौ तत्त्वज्ञानी उत्तम बुद्धि के धारी जिन-भाषित तत्वनि कर
रहस्यनि के जाननेहारे उस चुक को देखि रोसा सममें जो यह जिन आज्ञारहित शब्द तथा अर्थ लिया गया है सो ऐसा सरधान कवि के होय। ऐसे सन्देहसहित विचार कदाचित् धर्मार्थी पंडित के होय तो इस बात में मैं भी उनको सरधान चूक-सा दीखू तो उन धर्मार्थिन की पांति मोहिं वाह्य-सा जाने, तौ इनसे मेरे सरधान कुंअरु शुद्ध-धर्म के सेवनेक बट्टा लागे। ताते इसका भय तौ मौकं है । सो यह धर्मात्मा सर्व ग्रन्थ के रहस्य देखि रौसा भी विचारेंगे जो सर्व ग्रन्थ का रहस्य तौ भलै प्रकार जिन आज्ञा प्रमाण है। और एक दोय चूक हैं सो श्रद्धानपूर्वक नाहों। यह कोई बुद्धि को मन्दता करि मलि मडि गया है सो ऐसा नानि सबन शुभकर लंग, परन्तु मोकों दोष नाहीं लगावेंगे। ऐसे सज्जनादि गुन के धारी विशेष ज्ञानी धर्मात्मा पुरुष हैं सो बड़े हैं, इनका भय करना ही हमको तत्वज्ञान सरधान में सहायक है तातें इन पुरुषनि का भय हमको गुणकारी है। यातै इनकी हाँ सि निन्दा का भय है ताहोते अतत्त्वसरधान में हमारा ज्ञान नहीं प्रवेश कर है सो ऐसे पुरुषनि के भय का उपकार है। तातें हमको ऐसे सजन जीवनि का भय है। जे जिन अाज्ञा रहित, जिन वचन जानिये को निरन्ध समानि, मिथ्यासरधानी, धर्म के बिछुरे, धर्म अभिलाषारहित अक्षरज्ञानी सो इन पंडितन का हमको भय नाहीं। ये मानार्थी जीव हैं सो परम्पराय कवीश्वरों की परिपाटी मेटन हारे हैं। तातें इनका भय विवेकोनिकों योग्य नाहीं। जैसे कोई जौहरी के दोय रतन थे सो वह रतन उत्कृष्ट मील के थे सो तिन रतनकों कोई ग्राहक आया बड़ा मोल देय लोये। अरु कही हम दिखाय लावें, परखाय लावें हैं। ऐसी बदानी कर गया। सो तुच्छ ज्ञानी, मूर्ख, रत्र परीक्षा के ज्ञानरहित ऐसे बड़ी उम्र के धारी घास लकड़ी के बेचनेहारे ऐसे जड़बुद्धि तिनक वह रतन दिखाया और उनसे कही—याके लाख-लाख दीनार दिये हैं। तुम बड़े पुरुष हो, घने रत्न देखे हैं सो ये कैसे हैं? तब सर्व घास के बेचनेहारे बोले है भ्रात! यह प्रत्यक्ष काँच
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का रंगीला खण्ड है । तुच्छ मोल का है तू काहेकी द्रव्य खोवे है। ऐसे सर्व घसियारों के वचन सुनि खाने देखी जो अस्सी वर्ष के मनुष्य, घने जाननेहारे काँच खण्ड बतावें हैं सो प्रवीण हैं। ऐसे जानि वह ग्राहक रतन लेय जौहरी आया। और कहा - याकों तौ बड़ी-बड़ी उम्र के मनुष्य, कांच खण्ड बतावें हैं । तब जौहरी ने कही तुमने कौन को दिखाये ? उन जौहरीनि की दुकान कौन बाजार में है ? तब ग्राहक ने कही दुकान नहीं और जोहरी मी नाही, घास लकड़ी बेचे हैं। और बाजार में खड़े रहते हैं। तब जौहरी राजी भया । और विचारा जो यह तो घास लकड़ी के बेचनेहारे मूर्ख जीवन ने रत्न को कांच खण्ड कहा तो क्या भया ? उनका वचन प्रमाण नांही। ऐसे समभिकै जौहरी ने बुरा नहीं मान्या । और ग्राहक से कहा- इन रत्नों की परीक्षा घास लकड़ी बेचनेहारेनत नहीं होय है। कोऊ जौहरी को दिखावो। तब ग्राहक ने कही वे भी तो सौ-सौ बरस के बड़े हैं। तब जौहरी ने कही बड़े भये तो क्या भया, वह ज्ञान दरिद्री हीन बनज करनहारे रतनपरीक्षा के ज्ञान से रहित हैं। तातें भले रनकों कांच खण्ड कहना यह उनका वचन प्रमाण नाहीं । तातैं तुम कोई जौहरीकों बताव। शव उस ग्राहक ने एक बड़े जौहरी को दिखाये। तब जौहरी ने उस रतन को देखि सर्व जोग- अजोग जान्यां । कैसा है जौहरी रतनपरीक्षा का जाननहारा, विवेकी, सांची दृष्टि का धारी कहता भया । भो मित्र एक रतन तौ सर्वदोष रहित है सो लाखदीनार का है। एक रत्न में कछु कसरि है, तातें यह रत्न दस हजार दोनार घाटि मोल का है ऐसा जानना । तब ग्राहक आश्चर्यवन्त भया कहता मया, है सुबुद्धि मित्र ! इन दोऊ रत्न का एक-सा तौ रङ्ग है, एक-सा आकार है, एक-सा तौल है. इनके विषै मोल का अन्तर ऐसा कैसे भया, सो बतावो । अरु रतन का धनी जौहरी भी एक का घाटि मोल सुनि, अचिरज पाय उस बड़े जौहरी सों कहता भया । जो है मित्र ! त उस रतनको घास लकड़ी बेचनेहारों ने कांच खंड कहा तब भी उनको मन्दशानी जानि भगत भया । अरु तुमने याके दस हजार दीनार घाटि कहे सो हमको बड़ी चिन्ता भई, तुम विवेकी ही अनेक रत्न परीक्षा में प्रवीण हो अरु हमको ऐसे सूक्ष्मदोष भासते नाहीं, तुम्हारा वचन हमको प्रमाण है। तब उस बड़े जौहरी नै कहा— भी भ्रात तुम देखो, तुमको याके घाटि मोल का दोष बतावें । जा दोषतें याका मोल घटाया है। तब
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इस बड़े जौहरी ने एक जल का बड़ाबासन भराय तामैं एक पोस्त की डोंडी उलटी तिराई, ताके ऊपर प्रथम | तौ शुद्ध रतन धरि ता कड़ाही के जल में तिराई सो कड़ाहो का जल सर्व रतन के रङ्ग समान भया। सर्व को ।। दिखाय पीछे उस रत्र को उठाय लिया। अरु फिर उस घटमोल रत्न को डौडी पर धर तिराया, सो यातें भो सर्व । जल रतनमयो भया। परन्तु एक राईमात्र जल में छोटा रहा सो जल रूप ही रहा, रत्न के रङ्ग नाही भया, जहाँ
जहाँ जल मैं डोडी रतन सहित फिरें, तहाँ-तहाँ राई मात्र जल ही दीखें। तब या बड़े जौहरी ने रख के धनीकों कहो। भो मित्र देखि इस छांटा के दस हजार दीनार घाटि भये हैं। ऐसा दोष है सो तेरे रत्र का दोष देखि। । कोऊ तें तो हमारा द्वेष नाहीं। परन्तु सांची दृष्टि के धारी जोहरी होय तिनका यह धर्म है सो जैसा होय तैसा कहैं। तब याके वचन सुन, याके सांचे ज्ञान की प्रतीत कर ग्राहक ने रतन लिया। जर इनके ज्ञान की प्रतीति कर जौहरी नै दस हजार दीनार घाटि लिये। अरु याका विशेष ज्ञान जानि, विशेष ज्ञान की स्तुति करी। अर अज्ञानी घास के बेचनेहारे ने रतननिकों कांच खण्ड कहा सो तो प्रतोति नहीं करो। अरु विशेष ज्ञान की प्रतीति करी। तैसे हो जे लौकिक पंडित क्रोध मान माया लोम के धारी, धर्मवासना रहित, जिन भाषिततत्त्वरत्न तिनको परीक्षा करवेकों घास लकड़ी बेचनेहारे समान तुच्छज्ञानी, विशेष धर्मअर्थ जानने को असमर्थ, कषायनि के दास, तिनकी हास्य निन्दा का भय नाही। ऐसा जानि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ करूंगा। अज्ञानी जीवन का भय, विवेकी करते नाही। जैसे कोऊ बैल तथा ऊँट है। सो ताको देखिकै नन पुरुष लज्जा भय नांहि करै, नग्न बैठा रहे। वही मनुष्य दस बरस का बालक भी देखे तो लज्जा करे। सो बैल ऊँट तौ बीस बरस के बड़े तनके धारी तिनको लज्जा नहीं करै, अर मनुष्य को बालक दृष्टि देखि लज्जा करिये है सो क्यों ? पशुन में नग्न पने का ज्ञान नाहीं। अरु बालक को नन का ज्ञान है, सो बालक को लज्जा योग्य है। तैसेहो अज्ञानी, धर्मवासना रहित, पशु समान अज्ञानिन को शंका-भयतें धर्मकार्य तजना योग्य नाही, ऐसा जानि ग्रन्थारम्भ करौं हों। तब तरकी ने कही
प्रारम्भ तौ करौ हो परन्तु सावधान होई करियौं। ज्यौं छन्दन को जोड़ि न विनशैं। अर्थ की शुद्धता, वचन की ३५ | मिष्टाई सहित ललिताई इत्यादिक कवीश्वरों की परिपाटी अनुसार निर्दोष करना। ताको कहिये है है भाई!
सर्व दोष रहित ग्रन्थारम्भ तो बड़े कवीश्वरों के नाथ छत्तीस गुण धारक आचार्य चारि ज्ञान के धारी ते करें हैं।
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तथा ग्यारह बज चौदह पूर्व के ज्ञानधारक उपाध्याय जी हैं ते शुद्ध सर्वदोष रहित ग्रन्थारम्भ करें हैं। तथा और यतीश्वर दीर्घज्ञान के धारी अनेक छन्द अर्थ ललताई शब्द की मिष्टताई सहित ग्रन्थ का प्रारम्भ करनहारे हैं। तथा सर्वयतिन के नाथ गणधर देव नारि ज्ञान के धारी मो सर्व दोषरहित ग्रनानि का प्रारम्भ करें हैं। जो कोई सामान्य ज्ञान के धारी धर्मानुरागी कवीश्वर हैं तिनकी जोड़ विर्षे तथा ग्रन्थारम्भ विर्षे सामान्य-विशेष चूक होयगी। हम पै सर्व प्रकार निर्दोष ग्रन्थारम्भ कैसे बनें है। सामान्य दोष के भयतें ग्रन्धाराम्भ नहिं करिये तो परम्पराय कवीश्वरनि का मार्ग बन्द होय। तात अल्प चूक में पाप नाहीं। पाप तो एक कषायनि में है। जो कषायसहित अपनी मान-बड़ाई के अर्थ स्वैच्छा शब्द अर्थ धरै, जानता भी चूकै, तौ ताके पाप लागे और शुद्ध सरधान सहित अपनी बुद्धि की न्यनता से कोऊ भूल भी रहै तौ विशेष ज्ञानी समारि लेहू। ऐसी विनती कर देनी पाप नाहों। ऐसा जानि किया है। जैसे कोई एक विशेष ज्ञानी, अनेक सामान्य बुद्धि के धारी ज्ञानाभ्यास कर हैं सो अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसारि सर्व बालक पाटी परि लिसें हैं। सो आय-आय विशेष ज्ञानी को दिखाते हैं सो सबकी पाटो देखें हैं जो शुद्ध-शुद्ध लिखा होय ताकी बुद्धि की प्रशंसा करें हैं। कोक की पाटो मैं एक दोय मूल भी होय और सर्व पाटी शुद्ध होय तौ विशेषज्ञानी ताकी भी प्रशंसा करें है। जो एक दोय चूक होय तो बताय देय, अरु कहैं याकी भली बुद्धि है, याने भलो-मलो रहसि सहित पाठ लिखा है । ताते राजी होय । अरु कदाचित् चूक होय सो बतावें हैं। तैसे ही सामान्य बुद्धि के धारी कवीश्वरनि का अभिप्राय है। लो हम अपने ज्ञान की सामर्थ्य प्रमाण, तत्वार्थ अक्षरन का शुभ मिलाप करेंगे। अर कोई सूक्ष्म तत्त्वार्थ भाव हमको न भास, अरु विशेष ज्ञानी को चूक भासै, तो हम पै धर्म स्नेह करि शुद्ध करि लेह । ऐसे दीर्घज्ञानी. जिन आज्ञा प्रमाण, जीव अजीव तत्व के भेदी, ज्ञान द्वारा पाया है यावत तत्त्वभेद का रस जानें, ऐसे धर्मो जीवन से विनती करी है। तब इहाँ कोई तरकी ने कही-सज्जनत कहा विनती करोगे? सज्जन तौ चूक होयगी सो शुद्ध करहींगे। सज्जन जीव दया-प्रतिपालक पुरुषन का सहज ही गैसा स्वभाव है। परन्तु जे दुष्ट पापी हैं तिनते विनती करती योग्य थी, जे दुर्जन स्वभावी पर-निन्दा के करनहारे हैं तिनकौं उपशान्त करने को उनकी विनती करनी मली है ताको कहिये हैं। हे माई! जे दुष्ट है तिनका
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कोई ऐसा ही अकृत्रिम अनादि-निधन स्वभाव है जो ये पराये मले कार्य को देख सकते नाहों। यायै कोई अनेक विनती करौ परन्तु यह पापो आत्मा पराई भलो वस्तु को दोष लगाये बिना रहता नाहीं। ऐसे कुबुद्धिनकी ३७ खुशी करनेक जो उपाय कीजिये, सो सर्व वृधा है। जैसे नीम के मिष्ट करनेक नाना मिष्ट रस, दुग्ध, घी ले नीम की जड़ में दीर्घ काल तांई सीचिये तो मी नीम का रस मिष्ट होता नाहीं। जैती भली वस्तु मिष्ट-रस-धारी नोम को जड़ में डारिये सो सर्व वृथा होय जाय। तैसे ही दुष्ट कं खुशी करनेकों जेते उपाय करिये, सो-सो सर्व वृथा जोय हैं। तातें है मासजो वर होली कनियेत. इलाज भी की। और जो वस्तु होती नहीं जानिये तौ ताऐं इलाज काहे का ? तातें सज्जन हैं ते सरलस्वभावी हैं। तातें विनती करी। अर जे दुष्ट हैं तिनतै विनती करी तौ क्या, वह भला वस्तुको दोष लगावै ही। जे दुष्ट हैं तिनकें तो यही मुख्य है जो पराई निन्दा हाँ सि को करि, परिकों पीड़ा उपजाय, आप सूख मानना। तातें ऐसे जानि सज्जन जननते विनती करो, जो यह सजन मल-चूक होयगी सो शुद्ध करेंगे। अरु पराये अवगुणकों हेरनेहारोंत समभाव करि इस ग्रन्थ के करने का उपाय करौं हों। ताके आदि ही षटकार्य आचार्यनि की परिपाटी त चले आये हैं। जे आचार्य तथा और ग्रन्थन के कर्ता कवीश्वर भये ते षट्कार्य ग्रन्थारभ के आदि ही वर्णन करते आये हैं। सो हो परम्पराय लेय इस ग्रन्थ की मादि इहाँ भी लिखिये हैं। गाथा-मंगल णिमित्त हेऊ, जोए पमाण णाम कत्ताए । सूरो ग्रन्धारम्भय, ए षड काजोय धम्म सुत्तादो ॥१०॥
मंगल, निमित्त, हेतु. प्रमाण, नाम, कर्ता, यह षट् हैं। सो जे जाचार्य ग्रन्थारम्भ करें तब आदि में इनका स्वरूप वर्णन करें। सो अब इनका स्वरूप लिखिये है। प्रथम ही मंगल कहैं सो पुण्य, पवित्र, शुभ, क्षेम, कल्याण, सुख, साता इत्यादिक र सर्व मंगल के नाम हैं। मंगल के षट्भेद हैं सो ही कहिये हैं। गाथा-णाम सथापण दब्बो, खेत्तो कालोय भाव षड् भेदो। मंगल पुणदय भावो, ग्रन्थारम्भेय सध्य करई ॥११॥
नाममंगल, स्थापनामंगल, द्रव्यमंगल, क्षेत्रमंगल, कालमंगल,भावमंगल-ये षट् प्रकार मंगल हैं। सो इनका विशेष कहैं हैं। तहाँ नवीन ग्रन्थ के आरम्भ में प्रथम ही मंगल करिये। सो पाप का नाश सोही मंगल है। सो पंच परमेष्ठी के नाम तथा वृषभादि अनेक तीर्थङ्करन का नाम तथा गणधर देवादि महान पुरुष तथा चरमशरीरी
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आदि धर्मात्मा पुरुषन का नाम लेते पाप का नाश होय, सो नाम मंगल है। तीर्थ धर देव के शरीर की नकल बनाय स्थापना करि पूजना, सो स्थापना मंगल है। अरहन्तादि परमेष्ठी के शरीर हैं सो इनका देखना, पूजना, सुमिरण करना, तापरिवार का पास करना, पुरका संचय करना होय, सो द्रव्य मंगल है। जहाँ यतीश्वर ध्यान-अग्नि कर अष्ट कर्म नाशि सिद्ध लोककों प्राप्त भये। जैसे सोनागिरिजी, सम्मेदशिखरजी, पावापुरजी आदि उत्तम क्षेत्रन का नाम लिये पूजा वन्दना किये, पुण्य का बन्ध होय, पाप का नाश होय, सो क्षेत्रमंगल है। जिन कालन में जिनेन्द्रदेव के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण आदि पंच कल्याणक भये होंय सो, तथा नन्दीश्वर विष अष्टाहिका आदिक जिन पूजन के दिन हैं सो कालमंगल हैं। इन काल का नाम लेते, वन्दना करते, ध्यान करते. पाप का नाश होय, पुण्य का लाभ होय, सो कालमंगल है। अष्टकरहित सिद्ध भगवान तथा च्यारि घातिया कर्मरहित तीर्थङ्कर अनन्त चतुष्टय सहित समोशरणादि उत्कृष्ट सम्पदा लेय दिव्य ध्वनि करि उपदेश देते जो साक्षात् भगवान् तिनका नाम ले, स्मरण करते ध्यान करते पाप का नाश होय पुण्य का लाभ होय, सो भावमंगल है। ऐसे ये षट प्रकार मंगल हैं सो भव्य जीवनकों शास्त्र सुनने में बाँचने में पूजन करने में मंगलकारी होहु। याका नाम मंगल भेद है। सो भले कवीश्वरनिकों प्रथम ग्रन्थारम्भ करते मङ्गलकारी होय हैं। बहुरि ग्रन्धारम्भ करिये है ता समय ऐसा विचारिये है जो यह ग्रन्थ करें हैं सो भव्य जीवनि के पाप नाश होने तिनका मिथ्यात्व मिट सम्यक्त्व होने के तथा परभव स्वर्ग मोक्ष होने कं इत्यादि धर्मार्था जीवन कं, शुभ फल को प्राप्ति के निमित्त ग्रन्थ करिये है, सो याका नाम निमित्त भेद है।२। और भव्य जीवनि के पढ़ने, सुनने, उपदेश देने हेतु शास्त्र करिये है सो हेतु नाम गुण है। ३। प्रमाण भेद दोय हैं एक तौ अर्थ प्रमाण, एक अक्षर पद प्रमाण । सो अर्थ प्रमाण तौ अनन्त हैं। ताका तारतम्य भेद सर्वज्ञ केवल-ज्ञानी जाने हैं सो शुद्धमस्थ के ज्ञानगम्य नाहों तात नहीं लिखा। अक्षर प्रमाण है सो अक्षर को गिनती जो या ग्रन्थ के रोसे श्लोक हैं सो अक्षर प्रमाण है। ऐसे दोय प्रकार प्रमाण नाम गुण है। ४। ग्रन्थ पूरण होतें कोई मोक्षमागं सूचक शुभ नाम विचार, ग्रन्थ का पुण्याधिकारी भला नाम देना, सो नाम गुण है । ५। ग्रन्थ के पूरण होते मङ्गलाचरण करि ग्रन्थ का कर्ता अपने नाम का भोग धरै, सो कर्ता नाम गुण है।६। रोसे र षट गुणन का कथन ग्रन्थ के आदि में किया।
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ANAS
ता प्रसाद मेरे सुदृष्टि होते हृदय में, उपजी जो नाना प्रकार ज्ञानतरंग, जैसे समुद्र में अनेक तरंग उप तैसे मेरी ।। || सुदृष्टि समुद्र में अनेक तत्व भेद, वस्तुनि के स्वभाव, जीवनि के वाह्य अभ्यन्तर रूप कर्म को चेष्टा की प्रवृत्ति ।।
आदि तरंग सो ही तरंग या ग्रन्थ वि लिखिये है। तात या ग्रन्थ का नाम "सुदृष्टि तरंगिणी" ऐसा कहा है सो यह शुभ करनहारा ग्रन्थ है सो सम्यक्त्व दृष्टिन के धारने को जानना। तथा और भी जे भठ्यात्मा इस ग्रन्थ का अभ्यास करै, ताकुं तत्त्वनि का ज्ञान होय। तातें सम्यक्त्व पाय अतिशय सहित शुभफलदाता जो पुण्य, ताका लाभ होय। तथा जा ग्रन्थ में यह सात जाति का कथा होई सो भले फलदाता मंगलकारो ग्रन्थ जानना। सो हो
सात भेदरूप कथा या ग्रन्थ में समझ लेना। ते कथा कौन, सो बताईये है। | गाथा-दश्वय वैश्य कालय, भावो तिथ्यय होष फल आदा। पसथावो यह सस्तो, धम्म कचाई धम्म फल देई ॥ १२ ॥
अर्थ-द्रव्यकथा. क्षेत्रकथा, कालकथा, भावकथा, तीर्थकथा, फलकथा, प्रस्तावकथा—ये सात कथा हैं सो इनकू धर्मकथा कहिये है। इनका कथन जहाँ चलै सो शास्त्र धर्मफल का दातार जानना तथा जो कोई भव्य ।। इन सप्न कथान की परस्पर चर्चा करें तो धर्मकथा कहिये। सो इनका सामान्य स्वरुप कहिये है। तहाँ । जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकाशद्रव्य—यह षटद्रव्य हैं सो इनकी चर्चा, इनके गुण पर्यायन की परस्पर चर्चा करनी, सो धर्मफलदायक धर्मकथा कहिये। अब इन कथन का जो शाख विर्षे व्याख्यान किया होय, सो धर्मशास्त्र कहिये। ऐसे शास्त्रन कू पढ़-सुनै-उपदेशे, पुण्यफल का लाभ होय है, सो द्रव्यकधा जानना।। ऊळ, मध्य, पाताल लोकविर्ष तहां ऊवलोक विर्षे कल्पवासी देवन के सोलह स्वर्ग तिनमें देवन की आयु काय सुख की चर्चा करना तथा नवग्रैवेयक,नवअनुत्तर, पंचपंचोत्तर-इन आदिन का आधु काय सुख का कथनादिक, ऊर्ध्वलोक का व्याख्यान सो ऊर्ध्वलोक कथा है। मध्यलोक विर्षे असंख्यात द्वीप समुद्र पच्चीस कोड़ाकोड़ी मध्य पल्य प्रमाण तिनको रचना तथा अढाई द्वीप, पंचमेरु एक-एक मेरुसम्बन्धी बत्तीसबत्तीस विदेह, अरु भरत शेरावत क्षेत्र इनका वर्णन और चौंतीस-चौंतीस विजयार्द्ध पर्वत ताको दोय श्रेणि, तहाँ विद्याधरन की एक सौ दस नगरीन का कथन, षटकुलाचल षटहृदयनतें निकसी चौदह महानदी, जम्बू शालमली वृक्ष आदि एक-एक मेरु सम्बन्धी रचना का कथन तथा पुष्कर द्वारके मध्य भागमें कनकाई मानुषोत्तर पर्वतका
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कचन, ताकरि मनुष्य लोक की हद है। तहाँ तिष्ठते चारयों तरफ चारि जिनमन्दिर तिनका कथन तथा अष्टम द्वीप नन्दीश्वर ताविर्षे चारि अञ्जनगिरि, एक-एक अनगिरि सम्बन्धी चारि-चारि बावड़ी, तिन बावड़ीनि के मध्यभाग सोलह दधिगिरि पर्वत तथा बत्तीस रतिकर पर्वत सो यह पर्वत नीचे तो अनेक प्रकार रतनमई विचित्र शोभा को धरैं हैं और ऊपरि के शिखर लाल हैं तातें रतिकर नाम कहा है। ऐसे ही नीवै तौ अनेक रत्रमयी अरु तिनके शिखर ऊपरतें श्याम सो अअनगिरि हैं तथा एक-एक बावड़ो सम्बन्धी च्यारि-च्यारि बनन का कथन तथा इन पर्वतन में तिष्ठते बावन चैत्यालय तिनका कथन है तथा ग्यारहवें कुण्डलद्वीप के मध्यभाग विर्षे कुण्डलगिरि पर्वत है तहाँ तिष्ठते च्यारि जिनमन्दिर हैं तिनका कथन तथा असंख्यातेद्वीपन में तिष्ठते असंख्याते व्यन्तरदेवन के नगरन की रचना, रुकगिरि तेरहमा द्रोप विष मध्य भाग तिष्ठता सवकगिरि पर्वत ताप च्यारि जिनमन्दिर का कथन, इन आदिक और असंख्यात द्वीप के अन्त में स्मयम्भरमण समुद्र चारि कोन्या क्षेत्र तिन विष तिष्ठते उत्कृष्ट अवगाहनाधारी तिर्यश्च तिनका कथन और असंख्याते द्वोपन में तिष्ठते एक अल्प आयु कर्म के धरनहारे तिर्थश्च तिनका कथन इन आदिक अनेक रचना सम्बन्धी कथन सहित सो मध्यलोक का कथन। सो याको परस्पर चर्चा करनी सो महायुरायफल की दाता है। याको धर्मकथा कहिये और अधोलोक विर्षे दस जाति के भवनवासी देवन के भवन तिनके प्रमाण का कथन, देवन को आयुकाय का कथन । तिनते नोचे पंकमागमैं प्रथम नरक, तिनको आयुकाय का कथन तथा नीचे षट् नारकी और जिनको आधु-काय-दुःख का कथन इत्यादिक तीन लोक का कथन तथा तीन लोक के शिखर पर विराजते अष्ट कर्मरजरहित शुद्धात्मा ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान के धारी अनन्त सूख के धनो अनन्त सिद्ध भगवान, तिन सर्व सिद्ध परमात्मा भगवान को हमारा बारम्बार नमस्कार करि तिनको अवगाहना का कथन तथा ऐसे सामान्य रीति से तीनलोक का || पुरुषाकार उददङ्गाकार तीनसौ तेतालिस राज का घनाकार क्षेत्र का कथन । सो ऐसे क्षेत्र का कथन है।। इस प्रकार तीन लोक को परस्पर चर्चा कर सो धर्मचरचा जानना और ऐसे तीन लोक का कथन जा शास्त्र में होय, तो धर्मफलदायक शास्त्र है।
तीन काल का कथन सो अनन्त अतीतकाल व्यतीत भया, वर्तमानकाल का एक समय और अतीतकाल
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ते अनन्तगुणा अनागतकाल है तथा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल, तिन कालन की फिरन को लिये प्रथम, दुजे आदिक षट्काल विष आयु काय सुख दुःख का कथन की चर्चा इत्यादिक तोनिकाल का कथन है। सो या कथन की परस्पर चर्चा वार्ता करनी सो कालकथा पुण्यदायक है। जिन शास्त्रविर्षे इन तीनि का कथन होय सो धर्मशास्त्र है। याको पूजै पढे सनैं उपदेशै पुण्यफल होय।
जागे भावकथन--सो तहाँ पंचभाव जो उपशमभाव, क्षयोपशमभाव, मौदयिकभाव, क्षायिकभाव और पारिणामिकभाव। तहाँ उपशम भाव ताको कहिये जो कर्म के उपशमतें होय। ताके दोय मैद हैं उपशमसम्यक्त्व, उपशमचारित्र। सो यह दोऊ भाव अपने घातकर्म उपशमाय प्रगट होवें सो उपशम भाव हैं और तिस कर्म के केले अंश तो उदयभाव रूपोंय, केते अंश उपशम भये तथा क्षय भये होंय। सो तिनकरि उदय भया जो रस ता रस प्रकट होते, आत्मा के भाव जैसे होय, सो क्षयोपशम भाव कहिये। तिनके भेद अठारह कुज्ञान तीनि, सुज्ञान चार, दर्शन तीनि, क्षयोपशमसम्यक्त्व, जयोपशमचारित्र, देशसंयम, पंच अन्तराय का क्षयोपशम ऐसे अष्टादश हैं और तिन गुणन के प्रतिपक्षी कर्म सर्वथा नाश भये होय सो क्षायिकगुश है । सो क्षायिक भाव के नव भेद हैं। क्षायिकज्ञान, माथिकदर्शन, क्षायिकचारित्र, क्षायिकसम्यक्त्व, पंचलब्धि-श नव हैं और जे भाव कर्म के उदय ते होंय सो औदायिक भाव हैं। ताके भेद इक्कीस—कषाय वारि, गति चारि, लैश्या षटु, वेद तीन, मिध्यात्व, अज्ञान, असंयम असिद्धत्व और कर्म सहाय रहित स्वयं सिद्ध आत्मा के भाव सो पारिणामिक भाव हैं। ताके भेद तीन–श्रीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व-ये सर्व मिलि मूल भाव पाँच और उत्तरभाव तिरेपन जानना। सो इन पंच मावन के मूल भेद अनेक भाविन का जामें कथन होय, सो धर्मशास्त्र है। परस्पर भावन की चर्चा सो भावकथा है। जहाँते यतीश्वर कर्मनाश शिव गये सो सिद्धक्षेत्र जैसे गिरनारजी, सम्मेदशिखरजी, शत्रुञ्जयजी, सोनागिरिजी, मांगीतुझीजी, गजपंथाजी इन आदि सिद्धक्षेत्रन का जामें कथन होय सो धर्मशास्त्र, भले फल का दाता जानना और इन सिद्धतेत्रन की परस्पर चर्चा कीजिये, सो धर्मकथा है तथा पंचकल्याणकन के जे क्षेत्र, तिनकी कथा तथा इन आदि जे धर्मस्थान की कथा करनी, सो तीर्थ कथा होय आगे जहाँ जीवपुद्गलादि द्रव्य तथा जीव, अजोव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष---इन सप्त तत्व का तथा इनमें पुण्य
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और पाप मिलाये नव पदार्थन का कथन जिस शास्त्र विष होइ. सो धर्मशास्त्र है। इन सप्त तत्त्वनि को विशेष भेदाभेद चर्चा करनी सो फ़ल कथा है। आगे अनेक दृष्टान्त, जुगति व नाना प्रकार नयन करि मिध्यात्व नाश || ४२ | करना, धर्म साधक पापकर्म नाशक अनेक अलङ्कारन का कथन जिन शास्त्रन में होय सो धर्मशास्त्र हैं। अपनी
बुद्धि करि धर्म स्थापन के, पापमग छेदन कू, दृष्टान्त जुगति देय प्रश्न-उत्तर करि चर्चा करना, सो प्रस्ताव कथा है। मेले माहे सात भेट किया नेहमत कथाजा शास्त्र में कथन होय, सो धर्मशास्त्र कहिये । जहाँ इन सात कथा रहित कथन सहित शास्त्र हो सो मिध्यात्वमयी शास्त्र सामान्य जानि तजना योग्य है। तातै शुभ सात कथा हैं सो इन बिना, विषयन के कारण, हिंसा के बंधावनहारे, मिथ्यासरधान के करावनहारे जो शास्त्र हैं सो लोक कथामयो विकथारूप हैं। भो भवि हो, इस शास्त्र विर्षे सातौं ही कथान का रहसि पाइये है। सर्व प्रकार धर्मकथा धर्मफल दाता है तातें धर्मात्मा जोवनकों इस ग्रन्थ का अध्ययन करना योग्य है। ३। इति श्री सुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्थ वि इष्टदेव नमस्कारपूर्वक, ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञाकों लिये, अपनी आलोचना सहित सम्यक्त्वके पच्चीस दोष कथन सहित आदि मंगल षट् भेद लिये, सात भेद धर्मकथादिक वर्णन करनेवाला, तीसरा पर्व पूर्ण भया ।३।
आगे कहिये है-जो मोक्षमहल के चढ़वेकों सोपान तथा शिवरूपी कल्पवृत्त ताका मूल ऐसा सम्यग्दर्शन ताकी उत्पतिको कारण तत्त्व-मैद है। सो जिन देव करि कहे जीवतव, अजीवतत्त्व इन दोय भेद मई है। सो एक तो चेतना लक्षणकों लिये देखने-जानने हारे जीवतत्त्व हैं। एक अजीवतत्त्व, सो जड़ हैं सो चेतना गुण का धारक आत्मतत्त्वज्ञानी के मोरा होय है। सो तिनकी उत्पत्ति कहिये है। जो उत्तम तोनिकुल के उपजे सुभाचारी बालक, तिनको तिनके माता-पिता महाधर्मी, सो अपने कुल के आचार धर्मपराम्पराय चलावेकों, अरु पुत्र को इहाँ जस अरु परभव सुखी होनेकों, पुत्र पर स्नेह दृष्टि करि, पुत्र को पाँच-सात वर्ष की अवस्थातें विद्या का अभ्यास करावने कं गृहस्थाचार्यन पर पढ़ावें हैं। कैसे हैं गृहस्थाचार्य, महाधर्म के धारी सर्व धर्मकला विष प्रवीण हैं, अनेक शस्त्र-शास्त्र विद्या के वेत्ता हैं, महादयालु हैं, कोमल हैं, सौम्यमूर्ति, शुभाचारी हैं। ऐसे उत्तमगुण सहित, निर्मलचित्त, महापंडित, तिनपर भले श्रावकन के बालक पठन करें हैं। सो वह सुबुद्धि,
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गुरु के दिये अक्षर महाविनय तें अङ्गीकार करें है। सो गृहस्थाचार्य या शिष्य कूं शुभलक्षणी विनयवात्सल्यादि गुण सहित जानि, या बालक की अनेक प्रकार परीक्षा करि, शुभ चेष्टा जानि, याकों इस भव- परभव कल्याणकारी सुख 'की करणहारी उत्तम विद्या पढ़ावें हैं । सो प्रथम तौ धर्मशास्त्र, पोछे कर्मशास्त्रन का अभ्यास करावै हैं तहाँ धर्मशास्त्र में प्रथम तौ प्रथमानुयोग पढ़ावें। ताकरि पुण्य-पाप के फलकों जानि, पापकर्मन का फल नरक -पशून के महातीब्र दुख जानि, पाप तैं भय खाय करि, नहीं करना वांछै। पुण्य का फल मनुष्य में चक्री कामदेव नारायण बलभद्र, मंडलेश्वरादि महान राजान के वांछित भोग, अर देवन के उत्तम सुख इत्यादि फला फल जानि, पुण्य के उपाथवे का उद्यम करें। ऐसे पुण्य पाप का स्वभाव जनाथवेकौं प्रथमानुयोग का अभ्यास पहिले ही करावें हैं । पीछे करणानुयोग पढ़ावें । तातें तोनि लोक का स्वरूप आकार-स्वभाव जानें। ताके ज्ञान होतें भोरे जीवन का सा भ्रम नांही उपजै, कि "जो यह लोक काहू का बनाया है। वह लोक का कर्ता चाहे तो लोक समेटि लेय, तौ संसार का अभाव होय, शून्यता होय जाय । तातें यह लोक कृत्रिम है।" ऐसे कोई एक भोरेजीय बालकवत कहे हैं सो तिनके वचन सुन के करणानुयोग के जाननेहार को भ्रम नहीं उपजे । अपने सांचे ज्ञान की चेष्टातें लोक स्वयंसिद्ध जानें। तातें करणानुयोग पढ़ावें। पीछे चरणानुयोग पढ़ावें। ताकर मुनि श्रावकन का आचार जानें। मुनि का निर्दोष भोजन, चालना, बोलना, बैठना आदि यति का आचार जानें तथा श्रावकन का खाना-पीवनादि योग्य-अयोग्य आचार, धर्म सेवनादि क्रिया जानें। तातें अपने ऊँच कुल के ऊँच धर्म, ऊँच आचार के नाहीं तजें। तातें आप म्लेक्ष, अभक्ष्य के खायवे हारन की संगतितें कुआचार नहीं ग्रहैं । तातें चरणानुयोग पढ़ावें । पोछें गुरु पै द्रव्यानुयोग पढ़ें। ताकरि जीव अरु अजोव का भेद जानें। इन जीवअजीव के द्रव्य-गुण पर्यायकों जानें। तातें संसार दशा आप भित्र जानें। अपने तनतें भी जड़त्व भाव जानि एकत्व तजैं। तन-धन कुटुम्बादि का वियोग होते अज्ञानी मोही जीवन की नांई दुखी नहीं होंय, तातैं द्रव्यानुयोग पढ़ावें । ऐसे धर्मशास्त्र का रहस्य जनाथ धर्मसम्बन्धो भरम खोदें। ताके प्रसाद मिथ्या धर्म नहीं रुचै। सद्धर्मअङ्गीकार करि परभव सुधारें। पोछे कर्मशास्त्र पढ़ाये, तहाँ ज्योतिष निमित्तशास्त्र, वैदिक, चित्रकला, संगीतकला, शिल्पशास्त्र, कोकशास्त्र, पिङ्गलशास्त्र, छन्दशास्त्र, रतनपरीक्षा, धातुपरीक्षा इन आदि अनेक देश
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भाषा, अनेक देशन के अत्तरन की स्थापना आदि अनेक शास्त्र-कलादिक पढ़ाय प्रवीण करें। ताके जोग ते । इस लोक विष श्रेष्ठता पावे, सर्व उत्तमलोकन कर पूज्यपद पावै पाखण्डी वापीन करि ठग्या न जाय । सर्वकला- || पूरण सुखी होय तातें अनेक कर्मकला सिखावै। रोसे गुरु की दया करि, पाई जो विद्यानिधि, ताकरि उत्तम || तीनि कुल के बालक, अपनी बुद्धि को निर्मल करि, सर्वसंसार दशा का वेत्ता होय। सो गुरुप्रसाद के जोग ! पाया जो जीव अजीव तत्व का भेद, तातै निर्मल बुद्धि परद्रव्यन ते भिन्नचित्तकरि जड़पदार्थ शरीरादि तिनमें
निर्ममत्वता करिक, कर्मबन्धन ते छुटवे की है इच्छा जाकें, सो जामनमरण दुःस्वनतें भय खाय, दीक्षा धरै तथा नयाँद दीक्षा को समरथ नहीं हाय ती अशुभोपयोगी पापारम्भ का फल दुःख जानि, पापकार्य मैं जतन तें दयामई
भाव सहित प्रवर्ते। श्रावकधर्म का साधन करता गृहस्थ ही रहै सो चारित्र मोह के हृदय तें कुट्रम्ब शरीरादिक के पोषवेकों तथा अपनी मन इन्द्रिय वशोभत नहीं भई तिनके पोषनकों तथा अपने पदस्थप्रमाण कषायनि के जोगते मान-बड़ाई पोषधकों, अपने गुरु का दिया ज्ञान ताको प्रगट कर जगतविर्षे जस रूपी बेल बधाय, न्याय-: मार्ग सहित अपनी बुद्धि बलतें धन का उपार्जन करें। ताकरि अपने तन, कुटम्ब की रक्षा करें। सर्व कुटम्ब लोकन ते यथायोग्य विनयवचन बोल, सर्वको हित उपजावे। आपते गुरुजनते, माता-पिता होंय तिनत, नम्रतापूर्ण वचन सुन्दरविनय सहित प्रकाशिक तिनकौं सुस्ती करें। अरु आपते छोटे होंय तिनते महा हित-मित, अमृत समान कोमल वचन बोलिके हँस मुख ते सौम्यदृष्टि करि देखि तिनक पुचकार सुखी करें। ऐसे यथायोग्य सम्भाषण कर, सबको साता करें। यह तत्ववेत्ता सदैव राज-सम्पदादि भोगता ऐसा विचार चित्तविर्षे किया करै, जो मैं अनादि काल से संसार भ्रमण करता नरकादिक कुगतिन का पापफल भोग दुःखी भया। कबहूँ शुभपरिणति के कलकर पुण्य ते देवादि शुभगति के इन्द्रियजनित सुख मनवांछित भोगे। परन्तु इस जीव की । भोगतृष्णा नहीं मिटी, संसार भ्रमण नहीं मिटा। मैं जन्म-मरण के दुःखन तें कब छुटगा? धन्य हैं मुनि तीर्थङ्कर |
देव, जिनने राज्यसम्पदा तजि, सिद्ध लोक पाया। सो मैं भी अब भला अवसर पाया है। सो ऐसा कार्य कर ४ | जाते संसार का भ्रमण छटै। सदव ऐसा उपाय विचारै। दीक्षा के द्रव्य क्षेत्र काल भावन की एकता का
| निमित्त न मिले तो धर्मात्मा श्रावक पुत्र, अपनी बुद्धि बलते कमलसमान अलिप्त भया गृह में रहै । सो सर्वगृहपालवेक
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उद्यम करे। औरन कूं मोही-सा दोखे अनेक तन क्रिया वचन क्रिया कर सर्व को सन्तोष करि सुख उपजावे । परन्तु यह धर्मात्मा गुरु के पास देखा जो प्रथमानुयोग का रहस्य सो पापारम्भ का फल खोटा जानि गृहकार्यन में रंजायमान न होय । यह तत्त्ववेत्ता उदासीन वृत्ति का धारणहारा, पापारम्भ रहित भया, अपने जुग भव सुधारता अपने शुद्धधर्म की रक्षा करता, विचक्षण, अपने घर के पुत्र-कलत्र कुटुम्बादिक की रक्षा करे। ऐसे जे भव्यप्रासी गृह में रहैं ते परभव में सुखी होंय जे बालक अवस्थाही के अज्ञानी, कुबाचारी, पाप भयरहित, शरीर भोगन में मोहित, इन्द्रिय सुख के लोमी, तन-धन-सम्पदा शाश्वती जाननहारा धर्मभावना रहित हैं, ते जीव गृहारम्भ में अदयासहित प्रवर्त पापबन्धकरि कुगतिविषै दुःखी होय हैं। तांतें सुबुद्धि तीनि कुल के उपजे बालकनकूं अपने सुखनिमित्त, बालपने ही तैं विद्या पढ़ावना योग्य है। जो धर्मात्मा विद्यावान पुत्र होई तौ माता-पिता को सुखकारी होय । जो मूर्ख, अज्ञानी, पापाचारी, अविनोति पुत्र होय तो माता-पितान को दुखकारी होय । ऐसा जानि धर्मात्मा विवेकी पुरुष होय हैं सो अपने पुत्रनकूं धर्मशास्त्रनि विषै प्रवेश करावें हैं । जे पण्डिस धर्मात्मा, धर्मशास्वन का अभ्यास करें सो धर्मशास्त्र के अभ्यास तें सम्यकदृष्टि का लाभ होय हैं। सम्यक्त्व के होते, जीव-जजीव तत्व का जानपना होय है। सो जीवतत्व तो देखने-जानने रूप है, अरु अजोवतत्व के पांच भेद हैं। ए पांचही जड़ हैं. ज्ञानरहित हैं। ऐसे जीव-अजीव तत्व जिनदेव ने प्ररूपे हैं। तैसेही सम्यग्दृष्टि श्रद्धान द्वारा धारण करि, पदार्थन में है- उपादेय करें हैं। ऐसा विचार हैं जो जिनदेव ने जीवाजीव तत्व भेद कहे हैं सो प्रमाण हैं, सत्य हैं। ऐसा दृढ़ श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। दर्शन मोहनीय को तीनि अनन्तानुबन्धी का चारि, इन सात प्रकृतिन का उपशम होना तथा क्षय होना, ऐसे सात प्रकृतिन के क्षय तथा उपशम होते प्रगटा जो आत्मा का अन्तरङ्ग गुरा पर्यायसहित प्रत्येक अनुभव को लिये शुभज्ञान, तातैं षट्द्रव्यन में ऐसा भाव जानता भया जो जीव, अजीव तत्त्व कर दीय भेद तत्व हैं, सो पंचद्रव्य तो ज्ञान-रहित अचेतन हैं, तिनके गुण भी अचेतन हैं, पर्याय भी अचेतन हैं। एक जीवतत्त्व चेतन है ताके गुण पर्याय भी चेतन देखने-जानने हारे हैं, सो ऐसे जीवतत्व भी अनन्त हैं। सो सर्व जीव अपनी-अपनी सत्ता को भिन्न-भिन्न लिये हैं। कोऊ जीव काहूंत मिलता नहीं, सर्व की सत्ता जुदी-जुदी है और सर्व के गुण- पर्याय भी मित्र-मित्र सत्ता को लिये हैं, कोऊ के गुण पर्याय कौतें मिलते नाही ऐसे सर्व संसारी
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जीव अनन्ते पाइये हैं। तिन विषं मैं एक सत्तागुणपर्याय का धारी आत्मा, सो अपने शुभाशुभ कर्मन का फल भोगनहारा अरु अपने भावन अनुसार शुभाशुभ कर्मबन्ध का करनेहारा, एक मैं ही हूँ। सो जब मैं ही रागादिक उपाधि से छुट्र, तौ कर्मबन्धन नाश करि, सिद्धलोक का वासी होहुँ । ऐसा आत्मा के मैदा-भेद रूप अनुभवविर्षे जाके दृढ़ सरघान होय सो निश्चयसम्यक्त्व है। सो मुक्ति स्त्री के विवाहको प्रथम सगाई समानि है। रीसे कहे जे व्यवहार अरु निश्चय सम्यक्त्व, सो तावसरधान होते होय हैं। ताते जिनेन्द्रदेव ने प्ररूप जी जीव-अजीव तत्व, तिन जीवाजीवतत्वन का दृढ़ यथावत् सरधान, सो भव्यन कू करना योग्य है। यहाँ प्रश्न, जीव-अजीव र दोय तत्व तो और भी अनेक मतन में कहे हैं। तुमही अपने जिनदेव के भाषे कहने की महिमा काहेको कहो हो? यामें महत्ता का मई ? ताका समाधान हे माई। सने कही सो प्रमाण है। परन्तु सर्वमतनिविर्षे जोवाजीवताव भेद कहा है सो जिनदेव के कहनेविर्षे अरु अन्यमतन के कहने विर्षे बड़ा अन्तर है। जैसे बालक के वचन अरु बड़े पण्डित पुरुषन के वचन मैं अन्तर, एता है। जो बालक समानि ज्ञानी भोरे जीव के वचन प्रतीतरहित हैं और बड़े पण्डित पुरुष के वचन प्रतीत सहित होय हैं। तैसे ही सामान्य ज्ञान के धारी तुच्छबुद्धि अज्ञानी के वचनविर्षे अरु अन्तर्यामी सर्वज्ञ केवली के वचनविर्षे बड़ा अन्तर है। ताते जिनदेव के कहे जीवाजीवतत्व हैं सो सत्य हैं। तुच्छज्ञानी के कहे तत्त्वभेद प्रमाण नांही। ताते हे भाई! जिनदेव करि कहे तरवन की महत्ता रहेगी देखी जो सामान्य ज्ञानी के वचन तौ असत्य हैं और केवलज्ञानी सर्वज्ञ के वचन सत्य हैं ताते प्रमाण हैं। गात ताका धारण भये तेरा भी भ्रम जाय। ज्ञान की प्राप्ति होय और सम्यक्त्व का लाभ होय । ताते तु धर्मार्थी है सो हे भव्य ! तेरे शुभफल के मिलाप की इच्छा होई मिथ्यात्व फन्द छूटने की वांछा होई तौ मले प्रकारधारना।
भो भव्य तु देखि जो और मतन में तावन का स्वरूप कहा है, सो जैसे अन्धन का हाथी देखना। एक-एक अङ्ग हस्ती का कह के, हस्ती के आकार का अभाव करना। तैसे ही भोरे जीवन का तत्व-भेद कहना है। जो | तत्व का एक अङ्गलेयकें प्रकारों हैं सो ताव का अभाव अतावरूप कहैं हैं। जैसे छ अन्धोंने एक हस्ती आवता
सुना। तब अन्धों ने कही आपन ने हस्ती नहीं देखा, सो एक हस्ती आवै है ताहि लिपटि जावो। अरु ताके तन हाथ फैरिये ज्यों सर्व हाथी जानिये। ऐसा विचारिक उस हो हस्तीकं नजीक आया जान, हस्ती पकड़ा।
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सो छाँही अन्धों ने षट् अङ्ग हस्ती के पकड़े। किसी ने तौ पांव पकड़ा, किसी ने कान, किसी ने दांत, किसी ने ड़ि, किसी ने पूंछ, किसी ने पेट इत्यादिक एक-एक अङ्ग पकड़ तापै अपना हाथ फेरा सो अपना सरधान ऐसा किया जो हाथा ऐसा होय है। अपने मन में भिन्न-भिन्न कल्पना करि, हस्ती छोड़ा। सो पीछे सर्व अन्धे आपस में कहते थे। एक अन्धा बोला हे भाई! हमने हस्ती देखा, तब पांव पकड़नेहारा कहै जो हस्ती धम्म-सा होय है हमने भर देखा। कान नेहा ने कही असत्य बोला, हस्ती सूप-सा होय है, हमने नीके देखा है। तब दांत पकड़नेहारे ने कही तँ भी नहीं देखा हस्ती मूसल-सा होय है। तब सूंड़ पकड़नेहारे ने कही तैं भी नहीं देख्या, हस्ती दगली की बांह समान होय है। तब पेट पकड़नेहारा बोला, जो तूं भी असत्य बोला है हस्ती छैने (कंडे) के बिठा समानि होय है। तब पूंछ पकड़नेहारा बोल्या रे भाई ! तुम काहे को वृथा कहो हो, हमने हाथी मले प्रकार देख्या, हस्ती सोटि समान होय है। ऐसे इन षट् ही अन्धन में विवाद होय है, सो सर्व झूठ है। एक अङ्ग-सा हस्ती नांहीं । हस्ती का अङ्ग देख्या सो एक अङ्ग कूं हस्ती कहैं हैं । नेत्र होय तो सब हस्ती का स्वरूप दीखे, सो नेत्र नाहीं । तातें इन अन्धन का विवाद मिटता नही। अपन अपन अङ्ग कूं सबही हठते हैं हैं । तैसे ही तत्त्वज्ञान का स्वरूप अतत्त्वरूप करि कहें हैं। सो ही स्वरूप तोकों सामान्यपर्ने समझाय कर कहैं हैं । सो हे भव्य ! तू नीके करि धारण करियो । जीवात्मा का देखो, कोई मतवारे तो सब संसारीकें आकार मानें हैं तहाँ देव नरक, पशु, मनुष्य तिन अनन्ते असंख्याते शरीर में एक आत्मा मानें हैं । अरु कोई एक ज्योतिस्वरूप परमब्रह्म है ताका अंश सर्व जगत् के घट-घट विषै कंकरी- पथरी, जलथल, पवन-पानी सर्व जगह व्याप रहा है । जहाँ-तहाँ उस ही एक परमब्रह्म का रूप फैल रहा है। जो कुछ करे है सो वह हो करें हैं, ऐसा कर्ता हर्त्ता है; केई तो ऐसा हो जानि दृढ़ करि रहें हैं और कोऊ आत्मा को क्षण भंगुर मानें कि शरीर मैं आत्मा छिन छिन और और आयें हैं। कोई कर्तावादी कहैं कि जीव को कोई उपजावै है । ऐसी कहैं हैं कि भगवान नवीन जीव बनाय-बनाय संसार में धरता जाय है। वही चाहे तब मारे है। कोई एक मतवाले जीव का अभाव ही मानें हैं। केई मतवाले मोक्ष आत्मा पोछे फेरि संसार विषै अवतार मानें हैं। केई मतवाले मोक्ष विषै आत्मा कूं ज्ञानरहित मानें हैं। केई अज्ञानवादी ऐसा कहैं हैं जो आत्मा में परवस्तु के जानने का ज्ञान है,
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सो हो उपाधि है। जब ज्ञान मिटेगा, तब मोक्ष होगा। कोई स्थिरवादी रीसा मानें है जो देव मरै तो देव ही होय। मनुष्य मरै तो मनुष्य हो होय। पशु मरे तो पशु हो होय। नारकी मरै तो नारकी ही उपजै। स्त्री मरै तो स्त्री ही उपजें। रंक मरै तो रंक ही उपजै। राव मरै तो राव ही उपजे। ऐसे अनेक मतवाले जीवतत्त्व का स्वरूप अपनी-अपनी इच्छा प्रमाण बतावैं हैं। कोई मतवाले अजीवतत्व को भी और का और ही कहैं। सो कोई मतवाले, कालद्रव्य जड़ है ताको चैतन्य रूप माने हैं। ऐसा कहै हैं जो यह कालद्रव्य है सो यम है। कोई बालबुद्धि मेघ अचेतन के देवों का नाथ इन्द्र मानें हैं। ऐसे इन आदि जीव-अजीव तत्वन का भेद अन्यमतनविष
और ही कह हैं। जैसे उन्मत्त की नाई विपरीत भेद कहैं। सो है भवि! तु सुनि। एकाग्रचित्तकरि तूं इस सम्पादकाधारसकर, ज्या जनेकानय का ज्ञान बढ़े, संशय मिटे। तातें अब सबका भ्रम नाशनेकों जिनमत अनुसार केवलज्ञानधारी सर्वज्ञमगवान-भाईं तत्वभेद ताही प्रमाण कहिये है। ताके जानेसरधान किये सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान होय और अनेक धर्मार्थी जीवन का भ्रम जाय। इहाँ प्रश्न--तुमने ऐसा समुच्चय वचन क्यों न कह्या जो वाके सुने सर्व का भ्रम जाय। ऐसा ही क्यों कह्या जो धर्मार्थी जीवन का भ्रम जाय । ताका समाधान-जाका भ्रम जाता जानिये, ताका ही कथन करिये और जाका भ्रम जाता ही नाही, तौ ताका कथन काहे को करिये। जैसे सूरज के उदै सर्व संसार का अन्धकार जाय किन्तु जे पर्वतन की भारी गुफा हैं तिनका अन्धकार नाही जाय। तौ ऐसा कथन कैसे कहै, जो गुफान का भी अन्धकार जाय। तातें जाका भ्रम जाता जानिये, ताही का कथन इहाँ कहा है। तात जे धर्मात्मा निकटमध्य शान्त-स्वभावी हैं ते तौ पापफल नरकादि दुःख जानि पापमार्ग तें उदास होय, पापक तर्जे। धर्म का फल स्वर्गादिक परम्पराय मोक्ष का सुखदाता जानि, धर्म को सर्वे तो याका चित्त जिनदेव की आज्ञारूप होय प्रवर्त। अरु जिन-आझा की प्रतीत भये जीव-अजीव तत्व का निर्णय || होय, जाकरि सम्यग्दृष्टि होय। ता सम्यक्त्व के होते इस धर्थीि का भरम भी नाश होय जाय है। जे धर्मार्थी नहीं हैं ते पापबुद्धि में उदास होते नांहीं। धर्म के फल की इच्छा नाहीं। रोसै भ्रमबुद्धि का भ्रम कैसे जावे और ऐसे भ्रमबुद्धि अनेक धर्म के प्राङ्गन की सेवा करै, नाना प्रकार तप करें। ये अनेक शास्त्र पर्दै-हाय और भलीभली चर्चा धर्मकथा आदि होय तो भी भ्रमबुद्धि कं धर्म का लाभ नहीं होय। वह मोक्षमार्ग का मूल्या, उलटेपंथ
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का जानेहारा, मोक्ष स्थान नहीं पावें। ज्यों-ज्यों ए भ्रमबुद्धि घने-तपकरै, घने-घने शास्त्रों का पाठ करे त्यों-त्यों मोक्षमार्गत घना-घना अन्तर होता जाय। जैसे कोई द्वीपान्तर का जानेहारा पंथी; राह भल, उलटी राह लागा। ताको जाना तो था पूर्व दिशा को, अरु मार्ग लागा पश्चिम दिशा को। सो यह मार्ग भल्या, 'जैता-जेता रोज चले है त्यों-त्यों पूर्व दिशा तें दूर-दूर होता जाय है। तैसे ही यह भ्रमबुद्धि रोसा जाने है जो मैं भलै पंथ लागा हूँ। ऐसा जानि यह स्वेछाचारी, काहू का उपदेश मानता नाही। तातें इस धर्म-भावना-रहित कों जिन-आज्ञा का उपदेश गुणकारी नहीं। इस वास्ते याके भ्रमजाने की नहीं कहैं। ऐसे तेरे प्रश्न का उत्तर जानना--जो धर्मार्थो का भ्रम जाय और धर्मभावनारहित मिथ्यात्वप्राणी का भ्रम नाही जाय है। जात धर्मार्थो का भ्रम जाय ताके निमित्त जो धर्म धुरन्धर, धर्म के धारी, परम्पराय सांचे धर्म का प्रकाश वांछन हारे, मिथ्यात्वगिरिकों वज्र समानि येसे सुदृष्टि प्राचार्या ई-कोसे हैं आचार्य, जिनेन्द्रदेव को भावाप्रमाण धर्मप्रवृत्ति के करनहारे, मैदशानी, सम्यग्दृष्टि, जिनमत के दास, अनेकान्त मत के समझनेहारे, अनेक नय के ज्ञाता, स्याद्वादी, तत्वन का स्वरूप कहैं हैं। हे एकान्त मत के धारी सुबुद्धि पण्डित हौ ! तुमतें मैं परमार्थ के निमित्त 'जिन' का भाष्या अनेकान्त धर्म, ताको रहसि लैघ कहूँ हूँ। जी हे एकान्त मत के धारी! तू ऐसा माने है, कि सर्व संसारी जीवन के अनेक शरीर हैं। तिन अनेक शरीर में तु एकान्त आत्मा मान है। तू जो रोसे कह है कि एक परमात्मा है ताकी ही शक्ति सर्व जगत् विष घट-घट, जल-थल, कंकरी-पथरी, पवन-पानी आदि सर्वव्यापिनी है। ऐसा भ्रम तेरे पाईये है। सी हे मध्यात्मा ! तू अब भले प्रकार विचार देखि। जो परमात्मा तो निदोष-निर्मल है और सर्व संसारी जीव राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप मलदोष सहित महामलिन हैं। सो हे सुबुद्धि ! निर्मल परमात्मा की शक्ति मलिन, दोष सहित कैसे होय ? और परमात्मा है सो तो महासुखी है। संसारी, सर्व ही राग, द्वेष, जन्म, मरण, क्षुधा, तृषा, वायु, पित्त, ज्वर, कुष्टादिक दुःख तिन करि रहित, सुख का समूह है। संसारी जीव सर्व ही हैं सो इवियोग अनिष्टसंयोग के दुःख, तनदुःख, मनदुःख, धनदुःख इत्यादिक अनेक दुःखसागर विर्षे डूब रहे हैं सो भी हे भव्य ! तू विचारि । जो महासुखी रोगरहित परमात्मा की शक्ति, दुःखमई कसे संभवे? परमात्मा तो सुखी, अविनाशी, निर्दोष जन्म-मरण रहित है तातै परमात्मा की शक्ति होती तो सर्व जीव भी निरोग,
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निर्दोष अरु महासुखी होते । सर्व अविनाशी होते, निर्मल होते, जन्म-मरण रहित होते। जैसे अग्रि आप तापमई है तौ ताकी प्रभा जो शक्ति, सो भी तापमई है तथा जैसे दोपक आप प्रकाशरूप है तो ताकी प्रभा भी प्रकाशमई है । तातें जैसी वस्तु होय तैसी ही ताकी शक्ति होइ । सो तो परमात्मा की शक्ति संसारी जीवनविषै एक भी नहीं दीखती है। हे भाई! तू देखि जो सर्व जीवनि विषै परमात्मा को एक सत्ता तो एक जीव सुख होते सर्व ही जीव सुखी होते और एक दुखी होता तो सर्व जीव दुखी होते। एक जीव का नाश होते सर्व का नाश होता जो हे भाई! सर्व की एक सत्ता होती तो एक जीव की जो अवस्था होती सी सर्व की अवस्था होती। जैसे एक सूर्य को सत्तामईं अनेक किरण अनेक घट-पट व पृथ्वीकों प्रकाशमान किये हैं । सो सूर्य और सूर्य की किरणें तिन दोऊन की एक सत्ता है। सो उस सूर्यसत्ता का प्रकाश पृथ्वीविर्षे जेते बट-पट कंकर पत्थर, जल-थल पवन-पानी, भली-बुरी वस्तु इत्यादिक सर्व पदार्थन को जाथ प्रकाशमान किये है--सर्व को प्रकाश है। सर्व मैं रविप्रभा एक-सी दीखे है । परन्तु जब सूर्य अस्त होय, तब ताके संग ही ताकी शक्ति रूप जो किरण सो भो अस्त होय । क्योंकि इनकी सत्ता एक है। तातें सूर्य अस्त होतें किरण भो अस्त भई अरु किरण जस्त होते सर्व पृथ्वी विषै अन्धकार होय है । तैसे ही सर्व जीवन की सत्ता एक होती तौ सुख-दुख एकै काल एक-सा सर्व जोवनिक होता। सो संसार विषै तो कोई जीव सुखी है कोई जीव दुःखी है। कोई रंक है कोई राजा है। कोई रोगो है कोई निरोगी है। कोई दुःख तैं रुदन करें है कोई सुख ते प्रफुल्लित है कोई कैसा दोखे । काहू के गर्मी है। कोई जीव मरि अन्य गति गया है। कोई आय उत्पन्न भया है। ऐसे सांसारिक दशा भिन्न-भिन्न देखिये है । तातें है एकान्तमत के धारणहारे भव्य ! तूं भले प्रकार विचार। जो एक सत्ता सर्व जीवनि की कैसे सम्भवे ? और सुनि- जो परमात्मा सर्व जगत् विषै व्यापक होय शुभाशुभ कर्म जीवन पै करावता तो परमात्मा के पुण्यपाप का बन्ध होता। तुम कहोगे परमात्मा के कर्म का बन्ध होता नहीं। तौ र पाप-पुण्य का बन्ध कौन के भया ? तुम कहोगे काहू को भी नहीं भया तौ पाप-पुण्य का फल वृथा हो गया। अर पाप-पुण्य का फल वृथा भये पापी जीव तो पाप बधावेंगे तजेंगे नांही कहेंगे पाप का फल तो कोई को होता नांहीं । अरु कोई
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पण्य उपजावने को नाना दान, पजा, तप, संयम काहे को करेगा ? क्योंकि पुण्य का फल तो होता नांहो।। तातै ऐसे श्रद्धानतें तो पृथ्वी में पाप बहुत फैलि जाय । शास्त्र-उपदेश, देहरे (मन्दिर) बनावना, तप, संयम, ।। वीर्य गारमा माविष्ठ के आज सो र सर्व मिट जायें। सो या वचन कहने विर्षे प्रत्यक्ष में बड़ी विपरोतिता प्रगट होय और जे पापाचारो विषयाभिलाषी ते ऐसा कहेंगे जो हमारी शक्ति पाप करने की नाही जो कुछ करे है सो परमात्मा करै है। तो पाप की वृद्धि होयगी । जो तुम कहोगे कि ए पाप-पुण्य का फल संसारी जीवन को हो होय है तो तुम्हारे परमात्मा की एक सत्ता का क्या माहात्म्य रहा ? ताते हे भाई! तूं ऐसा भ्रम तजिकै रोसा दृढ़ करि कि जो जीव पुण्य-पाप करै ताका फल ते हो जीव सुख-दुःस्व स्वर्ग नरकादिक भोगवे हैं। ऐसा श्रद्धान होतें यह जीव पाप का फल महादुःख जानि पाप तजै और जे जीव दान पूजा बड़े-बड़े दुद्धर तप संयम इन आदिक शुभ कर्म करें सो ही जीव स्वर्गादिक विष नाना प्रकार इन्द्रियजन्य सुख भोग हैं। तात मो-भो धर्माभिलाषी तुं ऐसा सममि जो करे सो पावै।'
अरु कोई भ्रमबुद्धि कहै सो हमको पाप कर्म का बन्ध होता नहीं। सो इस अज्ञान आत्मा ने अपनी दृष्टि ससा (खरगोश ) की-सी करलई है। जैसे ससा कान तें अपने नैत्र मुंद सन्तोषी भया, तो क्या भया? जब यह बैटकी (शिकारी) नहीं मारे तब ही सुखी होय। जैसे कोई एक शिकारी एक ससा के मारिवे को वन में गया सो ससा भागा। ताके पीछे शिकारी लागा। सो ससा के बते भागा नहीं गया तब अपने कानन तें नेत्र मुंद करि बैठ रहा। याने जानो शिकारी गया, मोकू जब यहाँ कोई दीखता नहीं। ऐसा विचारि सुखी भया, तो क्या भया? पीछे तें नाय शिकारी ने ससा के शस्त्र मारया। सो ससा अपनी मूर्खता के जोग मर चा। तैसे ही यह एकान्तमती भौरा जीव ऐसा विचार है जो श पाप मोकों नहीं लाग है, रोसा जानि राजी होय पायभार लेह नरकादिक दुःस्स को प्राप्त भया चाहै है । सो पापाचारी, पराये धन हरणहारे, पराये मान हरनहारे, अपनी महत्ता बताय औरन कं छलि अपने उपायन तें ताका मान खण्ड करि, अपने महत्त्व भाव का किंचित चमत्कार औरन कुं बताय क, अपनी बुद्धि की चतुरता करि माया जो दगाबाजी ताको विचारि, मोरे जीवन का मान हरि. धन हरि, बहकाय, कुपंथ लगाय, आपको धर्मो जानि रोसा मानते भये जो हमको पाप नहीं लागे। ऐसे विचारि पाप
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बन्ध करि परभव कुगति के पात्र भये। तातें भो भव्य ! तूं रोसा जानि। ज्यौ संसार विर्षे जोव अनन्त है जिनकी सत्ता भी भिन्न-भिन्न अनन्त है, ऐसा तु जानि। पापात्मा पाप तो आप करे और फल औरन को लगावै तथा पाप लागै हो नांहीं ऐसा माने। ऐसे जीव हैं तिनका मनोरथ ऐसा है जो पाप नहीं तजिये। ऐसे दुरात्मा पापारम्मी को कुतिगामी जानहु । जे धर्मो हैं तै पुण्य-पाप का फल आपको लागता जानि, पापतें भयखाय, पाप तजि, शुभ उपजावें हैं। तातै भो भव्य ! जो ऐसे नहीं होती तो बड़े-बड़े पण्डित दान, पूजा, तप, संयम, तीर्थ काहेकों करते। तातें है भव्य ! तुं ऐसा जानि, जो करै है सो ही पावै है। जगत् में भी ऐसा ही सर्वजन कहैं हैं "जो करैगा सो भोगगा।" ताते जाका किया कर्म ताही कू लागै है । अरु जब ये बात्मा पाप-पुण्य ते रहित होय है तब परमात्मा होय है। ताहीको परब्रह्म कहिये ताहीको भगवान कहिये। ऐसा दृढ़ जानि दयाभाव सहित प्रवर्तन योग्य है। जगत् जीव अनन्त हैं तिनको सत्ता जुदी-जुदी है। अपने परिणामन के फल करि सुखी-दुखी होय हैं और जाके आप्त आगम पदार्थन विर्षे सर्व जीवनि की एकही सत्ता मानें हैं सो असत्य है, तजने योग्य है। ऐसे सर्व जगत् विषं एक सत्ता सर्व जीवन की माननहारे ताकों समझाय, अतत्व श्रद्धान मिटाय, जिनमाषित तत्व का श्रद्धान कराया। सत्यधर्म के सन्मुख किया।
इति सर्व ओवनि की एक सत्ता माननेहारे एकान्तवादी का भ्रम निवारण सम्पूर्ण ॥१॥ आगे क्षणिकमति का सम्बोधन कहिये है-केई क्षणिकमतवाले आत्मा को क्षणभंगुर समय-समय एक शरीर विर्षे अनेक आत्मा क्षण-क्षण और-और उपजते माने हैं। ताकों समझाइये है। भी भठ्यात्मा क्षतिकवादी मत के धरनहारे! तू आत्मा को क्षणिकस्थाई माने है। एक शरीर विर्षे क्षण-क्षण और-और आत्मा आवते माने है सो हमको यह बड़ा आश्चर्य है। तुम सरीखे बुद्धिमान ऐसे भूलो तो मोरे जीवनकों कहा कहिये । हे विचक्षण ! तुही विचार । वर्ष-दो वर्ष पहले की कोई दस-पांच बात तोकों याद हैं या नाही? तथा पहर दोय पहर की कोई बात तोकों याद है कि नाही? जो तौकों याद होय तो तू ही विचार कि आत्मा क्षणभंगुर नाही ! तथा एक-दो वर्ष पहिले तुने काहकों दस-पांच हजार रुपया कर्ज दिये थे। सो तोकों याद है कि नाहों। तुने
पास ते खत मंडाया था ताप दस-पाँच भले मनुष्यों की गवाह कराई थी। सो तोकों यह बात याद है कि
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चाहीं ? तू कहँगा यादि है। तो तेरे मत के आप्त आगम पदार्थ झूठे होंगे। जो तू कहेगा कि मेरे आप्त आगम पदार्थ झूठे नाहीं सत्य है आत्मा
कर्ज के दाम नाहीं मिलेंगे। क्योंकि आत्मा तो क्षणभंगुर है। सो कर्ज देनेवाला कोई रह्या नाहीं । आत्मा नवीन आया।
होने पत्र दोय वर्ष पहिले के हैं सो झूठे होय हैं। तोकूं सो एक शरीर में क्षण-क्षण और और आवे है । सो लेन-देन को तिन्हें ठीक नहीं। तेरे रुपया गये गवाहवाले भी सर्व क्षणभंगुर सो भो गये। उनके तन विषै अन्य अन्य आत्मा या सो उनकी गवाह भी कैसे ठीक नाहीं । तातें गवाह भी झूठी भई । खत मांड्या था सो भी झूठा भया। रुपया गये और तू कहँगा रुपया जायगे ? भले आदमिन की तो गवाह है। अरु मोकों भी भलै प्रकार मितिबार याद है और इनके दोय हजार आये हैं सो मैंने जमा किये हैं। सो मोकों याद है । मेरे कर्ज में सन्देह नाहीं । यामैं सन्देह कहा है ? तो है भाई ! तेरे मत की तू ही विचार देख तेरा मत तेरे ही श्रद्धान करि झूठा भया तो और विवेकी परभव के सुख निमित्त, तेरा क्षणभंगुर मत कैसे अङ्गीकार करेगा ? अरु एक और भी सुन हे भाई! तेरा क्षणिकमत कोई हमारे ही श्रागम करि नाहीं निषेध किया किन्तु और भी संसार विषै जेते तुच्छबुद्धि बालगोपाल हैं तिनकर भी निषेधिये है। देखि, तू किसी बालक से कहै कि हे पुत्र तोकूं कोई दस-बीस दिन की बात यादि है । तौ बालक भी कहै मोकों तौ महीना दो महीना की केई बात यादि हैं। तब बालक कौं कहिए। भाई आत्मा तौ क्षणभंगुर है सो शरीर में छिन छिन में आवै है तो तोकों पहिले की बात कहां से यादि होयगी ? तौ बालक भी कहै या बात झूठ है। मोकूं कहाँ तो दस-बीस बात पाँच-चार महीना की बताऊँ हमको सांचे कहौ। जो कोई आत्मा क्षणभंगुर बतावै है सो झूठ है। बालक भी ऐसा कहे है। सो हे भाई तूं सुनि । देखि बालक अज्ञानी भोरा है वह भी तेरा क्षणिक मत झूठा कहे है। तौ विवेकी कैसे सत्य मान सरधान करें ? और सुन कोई भोला अज्ञानी पशुओं का चरावनहारा गुवाल कोई क्षणिकमति के ढोर चरावे धा सो ढोर के धनी पास जाय कही। तुमारे ढोर चरावतें चारि महीना भये, सो अब मेरी चढ़ी गुवाली देऊ। तब ताकूं ता क्षणिकमति ने कही। हे गुवाल ! आत्मा तो क्षणभंगुर है, शरीर मैं आत्मा छिन छिन और आयें है। सो दोय महोना पहले कौन आत्मा था, तानै गुवाली देनी कही थी सो आत्मा । अब नाहीं अरु गुवाल भी वह नाहीं । तब ऐसी सुनिकें गुवाल ने कही। भो सेठ! ऐसे बड़े आदमी होयकें ऐसी
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| महाझूठी-वृथा बात काहेको कहाँ हो। अब ताई शरीरविः आत्मा छिन-दिन उपजते मरते सुने नांही। कोई हजारौं बात तो बीस-बीस बरस की देखी मोकों यादि है। कई बात हमारे बड़ों के मुख तें सुनी थी सो सौ-सौ । ५४ बरस की सो भी केतीक यादि हैं । परन्तु रोसो तुम्हारी-सी अउ अन ताई नहीं सुनी। मेरी गुवाली देवो । तब या सेठ ने नहीं दई। तब गुवाल ने अपने मन में विवारि मतौ ( सलाह) करिके वाके टोर अपने घर बांधि राखे। दोष दिनकोबार नहीं आए। तब गुवाल को बुलाय सेठ ने कही। रेगुवाल ! दोय दिन भये सो हमारी ! मैं सि-गईयां नहीं आई सो क्यों ? तब या गुवाल ने कही। सेठ साहिब, गैया तौ कैसी, अरु भैसि कैसी? मोकों का ठीक नही। आत्मा, शरीर में छिन-छिन और आवै है सो अगले तो गये और मैं तो अब आया हौं। सो भोकों किसी के ढोरन की ठोक खबर नाई। तब या सेठ ने कही। रे गवार ! हमतें चौड़ाई (धूर्तता) करि झूठ बोले है । तब धा सेठ ने कुतवाल कू कहि, गुवाल • रुकाया। तब गुवाल ने कही मोकों काहेकों रोक्या है। तब कुतवाल ने कही, सैठ के ढोर ल्याव । तब गुवाल ने कही, मेरो न्याय करौ। तब कुतवाल ने कही, न्याय काहे का है। गुवल ने कही, सेठ कं पूछौ। तब कुतवाल ने सेठ कू बुलवाया । अरु कही, गुवाल कू क्यों रुकाया है। तब सेठ ने कही, आजि दोय बरसतें हमारे ढोर चरावै है । सो अब दोय दिनते, ढोर चुराय राखे हैं। तब कुतवालकं गुवाल ने कही। भो कुतवाल ! याके मत विष एक शरीर में आत्मा छिन-छिन और-और आवता मान है। मैंने यापै गुवाली माँगी, तब या ने कही गुवाली काहै को । वह आत्मा लेने-देनेवाला नाही । तब मैंने या के ढोर बांधि राखे यह सेठ अपना मत मठा। कहि मेरो ग्वाली मोक देय अपने ढोर लेवे। तब कुतवाल ने हजारों ही आदमीन मैं सेठ को झूठा कह्या । गुवाल की गुवाली दिवाईढोर धनो को दिवाये । सो हे भ्रात ! क्षणिकबाद मत धरनहारे, तेरे मतकौं गँवार अज्ञान ढोरन का चरावनहारा गुवाल भी झूठा कहै है। सो त देखि, यह बाल-गोपाल संसार में सबतें हीन अज्ञानी हैं, सो भी तेरा मत असत्य कहैं हैं । तो भो भ्रात क्षणिक मतवाले ! जो विवेको होय, सो कैसे सत्य कहैं ! तातें जाके मत विष आत्मा क्षणभंगुर कह्या होय ताके जान, आगम, पदारथ असत्य हैं। ऐसे याका क्षणिकमत प्रत्यक्ष असत्य बताय स्थाद्वादमत के सनमुख किया।
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इति क्षणिकमति सम्बोधन । आगे कर्त्तावादीको सम्बोधन का सम्वाद लिखिये है.. केई मतवारे, नवीन आत्मा उपजावतहारा मान हैं। ऐसा कहैं है जो कोई नवीन आत्मा बनाय-बनाय प्रथिवी धरता जाय है, ऐसा कोई भगवान है। याही भगवान की जब इच्छा होय तब आत्माकों हरे है। जो | उपजावे हैं सो ही मारे है। जो रोसा कहै हैं ताकौं कहिये है। हे भाई! जात्मा कोई का बनाया बनताव उपजाया
उपजता, तो लौकिक में सन्तान की उत्पत्ति के निमित विवाहादि काहे कौं करते । जो कोई पुरुष नवीन जात्मा बनावै था ताही का सेवा करते। जब वह आत्मा का पैदा करनहारा राजी होता, तब सौ-पचास तथा लाख-दो लाख क्षौहणी बन्ध आत्मा कर देता। जेसीजाको सेवा देखता, तस आत्मा बनाय देता। तौ लोक, चाकर फौज काह की राखते । अरु विवाहादिक करिक कुटुम्बादिक की वृद्धि काहै कौं करते । सो ऐसी प्रवृत्ति अनादिकाल तें कोई सनी नहा कि कोऊ ने कोई कैंदसबीस आत्मा बनाय दय। अरु अब कोई बनावनेवाला नाहीं कि वह फलाना तथा कोई देव-दानव नवीन जीव बनावै है। कदाचित् तेरे ऐसा ही हठ होय जो, कोई जीव का कर्ता है तो हम तोकौं पूछे हैं। कि उस कर्ता ने जब पहले कोई ही जीव नहीं बनाये थे। तब संसार सृष्टि थी या नाहीं। या वह कर्ता अकेला ही था और कहौ कि उस कर्ता ने पहले कौन-सा जीव बनाया था, ताके पीछे कौन-सा बनाया। अब नई वस्तु बनाइय है सोई काहू की नकल बनाइए है। सो प्रथम कोई वस्तु होय तो बनावै। जैसे कोई सिंह का आकार बनावै है। तौ प्रथम कोऊ सिंह होय तो ताकौ देखि, ताकी नकल का सिंह बनावै है। बिना नकल नवीन वस्तु होती नांहीं। सो कर्ता नै जीव किया, सो कौन की नकल बनाया और आत्मा, बनाया होघ है तो वह परब्रह्म-जात्मा कं किसने बनाया। कर्ता का कर्ता बताओ और तुम कहोगे जो सृष्टि तौ अनादि की है और कर्ता भी अनादि का है। तो है भाई! जहाँ अनादि सृष्टि होय, तहाँ नवीन कर्ता का अभाव आया। संसार स्वयंसिद्ध अनादि-निधन है अनादिकाल का है। अरु तुम स्वयंसिद्ध आत्माकों मानते नाहीं। आत्मा नया होता-उपजता मानौ हौ। सो के तो कोई कर्ता बताओ जाने सृष्टि की है तथा सृष्टि जब इस | कर्ता ने नहीं बनाई थी तब कटू था कै नाही था । अरु तुम कहोगें पहले कछू नहीं था, कर्ताने बनाई तब भई है,
तो पहले शन्यता जावगी। जो कर्ता बिना भी संसार रह्या था तो ऐसे कहने मैं तुमारे कर्ता का अभाव हो गया।
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तातें भी विवेकी! तुम एक वचन की ठीकता करके कही। तब कर्त्तावादी ने विचारी । जो कर्ता कहैं. तो संसार का अरु कर्ता इन दोऊ का ही अन्त भावे । तब कर्त्तावादी बोल्या जो कर्त्ता भी अनादि अरु सृष्टि भी अनादि है। तब स्याद्वादी नै कही जो सृष्टि अनादि है तौ कर्ता की महन्तता कहाँ रही। कर्ता कहना शब्द वृथा भया । अरु हे भ्रात! और भी देखो जो तुम कहाँ हो कि कर्ता प्रथम तो बनावें है जरु पीछे कर्ता हो चाहे तब मारे है। तौ या विषै कुछ गम्भीरता नाहीं। जो प्रथम तो बनायें पीछे वाक आपही बिगाड़े तो बालक की-सी लीला भई । जैसे प्रथम तौ नाना प्रकार रचना, खेल मैं बनावे, पोछे बिगाड़े तातै भो भवि! प्रथम तो बनावै पोछे बिगाड़े, ताको बालक समानि कौतुकी अज्ञानी जानना तथा संसारमैं कोई एक जीव मारै, ताक दोष लगावें हैं । सो कोई अनन्ते जीव मारै तौ ताकी तौ बड़ा हो दोष होय तथा जाकौं आप पैदा करै, सो पुत्र समान हैं, अरु ताहीं कूं मारै तौ पुत्र मारे - सा दोष लागे । तातें कर्त्ता कौं हर्त्तापना सम्भवे नाहीं । अरु तुम कहोगे कर्ता हरै, ताक दोष नाहीं । सो तुम देखो कोई को मारे हैं तब प्रथम तो क्रोध-अग्नि उपजे है तब अन्य (दुसरे) का घात करें है। बिना कषाय पर की घात होतो नांही। तातें जाके कषाथ होय सो संसारी, तन का धारी जगत् जीव जानना । ता विषै नवीन जीव उपजावने की शक्ति होती नाहीं । तातें है भाई ! घनी (बहुत) कहाँ ताई कहिए। अनेक न से कर्तापने का वचन खण्डित होय हैं। तातें भी धर्मार्थी ! ऐसा सरधान तजना ही योग्य है । अब तूं देखि, जो यह संसार अनादि-निधन है, कोई का किया नाहीं । इस संसार विषै अनन्ते जीव हैं। सो भी अनादि-निधन हैं, काहू के किये नांहीं । अनन्ते जीव द्रव्य, अपनी-अपनी मित्र-मित्र सत्ताको लिए अपने-अपने गुण- पर्याय सहित अनादिकाल से चार गतिनि विषै, सुख-दुख भोगवें हैं । जैसी जैसी अपनी परिणति उसके अनुसार पुण्य-पाप के फल को भोगता, पुण्य-पाप उपार्जता, जगत् मैं भ्रमण करें हैं। ताही का फल सुरग नरकादिक के सुख-दुख को पावें हैं । अरु जब यह आत्मा पुण्य-पाप के उपजावनै रहित होय है। तब वीतराग दशाकों धारेगा। तब ही सर्व कर्म नासिके, परमात्मा - सिद्ध पद कौं धारैगा । तब यह सिद्ध भगवान, ज्योतिस्वरूप, स्वयंसिद्ध जगतनाथ काहू का कर्त्ता होता नाही अरु जेते कर्त्ता हर्त्ता हैं, तेते भगवान नाही और सिद्ध भये, कर्ता नहीं। तातैं जो नवीन आत्मा कोई उपजावे है ऐसा सरधान जार्के मतमैं होय, ताके आप्त आगम,
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पदारथ असत्य हैं। ऐसे नवीन जीव का कर्ता कोई है ऐसा मान था सो ताका सरधान मिटाया शुद्ध सरधान कराया। जात्मा स्वयंसिद्ध है काह का किया होता नाहीं ऐसा दृढ़ कराय, जिन भाषित सरधान कराया। इति कर्तावादी को समझाय शुद्ध किया।
आगे कोई नास्तिकमतनि का सम्वाद लिखिये हैं। कई मतवाले जीवकों नास्ति ही माने हैं। ऐसा कह हैं । जो, जीव वस्तु है ही नाहों। वह जीव का अभाव मानें हैं। ते नास्तिकमती यह भी कहैं हैं। जो जीव होय तो दया करिए। तातें जीव नाही, जीव के अभावतें दया का मी अभाव है। अरु दया के अभाव ते पुण्य-पाप का भी अभाव है। जो जीव ही नाही. तो पुण्य-पाप का फल कौन भोगवे? तात पुण्य-पाप भी नहीं और पुण्य-पाय
जनाब समोर मला नीलगाव है। परलोक ही नाही, तो पुण्य-पाप का फल स्वर्ग-नरकादिक की गति कहाँ तें होय। तातें जीद नाही, पुण्य-पाप नाही, नरक-सुरगादिक गति भी नाहीं। संसार भी नहीं। ऐसा नास्तिमती का मत है। सो ता नास्तिमती तें कहिये है सो कौन है ? और यह तूं ऐसे ज्ञान का जाननेहारा कौन है? जाके ऐसा झान ते विचार होय है। सो तूं इसे निश्चय आत्मा जानि। आत्मा बिना, सन्देह काह के होता नाही। आत्मा ही के विकल्प उपजे हैं। ऐसा तूं सत्य करि जानि । यह शरीर है सो तो जड़ है, मूतिक है। या विष देखने-जानने को शक्ति नहीं। या तनकै विकल्प होता नांहीं। तातै यह पूछनेहारा, सन्देह करनहारा, हठ का करनहारा, वाटे-मीठे का स्वाद जाननेहारा, अन्छी-बुरी धारि रागद्वेष करनेहारा, क्रोध, मान, माया, सौम का करनेहारा कोई है। ताही क तं आत्मा जानि और लौकिक विर्षे मी जीव ऐसा कहैं हैं, जो फलानां मुवा है, सो फलानी जगह भूत भया है तथा केई कहै हैं जो हमारा फलाना बड़ा बुड्वा. अागे मूवा था सो अब आय, हमारे पास पूजा मांग है तथा केतेक लोक ऐसा कहैं हैं, जो फलाना मत भया था सो आज फलाने कौं लागा है। ऐसी जगत् विः प्रसिद्धि सब कोई कहै हैं । हे नास्तिमती ! अवार तोकू भी कहिये। जो समान भूमि विर्षे तुम रात्रि को रहो, तो तू भी या कहै कै जो मसान विर्षे बहुत भूत-प्रेत हैं। हम ऐसो भयानोक जगह मैं नहीं जोय, ऐसा तू मी कहै और लोक भी या कहैं हैं। तात हे नास्तिमती भ्रात ! तूं विचारि । जो कोई जीव है तभी तो मत भया है और कोई परलोक है तभी तो व्यन्तर देव भया है। तात हे नास्ति बुद्धि! तूं ऐसा जानि कि जीव है,
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रु परलोक भी है और पाप के फलतें जीव नरक पशु के दुख पावै है। मनुष्य ही होय तो अन्धा, लूला, बहरा, दरिद्रो, अभिमानी, रोगी, दोन, वस्त्र-रहित होय, पुण्य के फल तैं देव होय अरु मनुष्य होय तो सर्व दुख-रहित सुखी होय तातै विवेकी हैं सो पाप नहीं करें हैं। बड़े बुद्धिमान शुभकार्य करें हैं। एक अज्ञानी हैं सो भी कह है । जो कोई हमारी दया लेयके हमारी आत्मा जो अनवट बिना दुखी है सो देय पोखै। हमारी दया करि रोटी वस्तर देय हमारी आत्मा पोख सुखी करै, ताकौं पुण्य होय । ऐसे रंक भी कहै है । तातें है मव्यात्मा, देखि । जीव भी है, जीव की दया भी है। पाप भी है, पाप का फल नरकादि दुःख भी हैं। पुण्य भी है, पुण्य का फल स्वर्गादिक भी है। ऐसा जानिकें अनेक मतन के धर्मात्मा हैं सो पाप का निषेध करें हैं । अरु पुण्य करना उपादेय बतावें हैं । पाप-पुण्य फल के स्थान, अनादि संसारिक देवादिक चारि गति रचना सहित षद्रव्यनि करि बनी जो जगत् रचना, सो यह चारि गति रचना भी अनादि की है । तातें है नास्तिबुद्धि देख । संसार भी है, अरु सर्वकर्मनाश करनहारा भी है। सर्व दुख तैं रहित सुख समूह अतीन्द्रिय भोग का स्वादी अनन्तबली ज्योतिस्वरूप परब्रह्म भगवानपद का धारी सदैव मोक्षरूप है, तातें मोक्ष भी है। हे नास्तिकमती ! तेरा नास्तिमत सर्वमतन तैं खण्ड्या जाय है। तेरे नास्तिकमत का सरधान होतें-सर्वमत, देहरे ( मन्दिर ) दान, पूजा, भगवान की भक्ति, जप, संघम, शीलादिक, भले जगत् के पूज्य गुरा, तिन सर्व को अभाव होय । तातें कोई मत तैं मिलता नाहीं । सर्व मतन के शास्त्र के अभिप्राय तैं, अरु लौकिक प्रवृत्तितैं नास्तिमत झूठा भया। जो लोक मैं तौ दान-पूजादि गुण पूज्य दीखें। तातें नास्तिमत अनेक भाव विचारत असत्य हैं। तातैं जाके मत विषै आत्मा नास्ति कह्या होय ताके आप्त आगम, पदार्थ, अति हेय हैं। ऐसे नास्तिकमती का श्रद्धान मिटाय स्याद्वाद मत के सनमुख किया। इति नास्तिनती सम्वाद विजय कथन ४ आगे अवतारवादी एकान्तमती का सम्वाद लिखिये है ।
आगे कई एक अवतारवादी मोक्ष गये आत्मा का पीछा अवतार मानें हैं। ताको कहिये हैं। भो मोक्षजीवन कूं अवतार मानने-हारै भव्य आत्मा तू सुनि । चांवल जामैं निकसें ऐसा धान ताकौ उगावै तौ उ है। जब धानक कूट, ताके छिलका दूरिकरि, शुद्ध चांवल भए पीछे उनको उनके ही भुसमैं धरि उगईए.
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|| तौ ऊगतौ नाहीं। तैसे ही इस संसारी अशुद्ध आत्माको कर्मरूपो छिलका लगा है, तेते काल तौ चारि गति
शरीरन मैं उपजि, शुभाशुभ फलकौ भोगवता उपज है । जब नाना प्रकार चारित्र सहित तपकरि अष्ट कर्म नाशतें, कर्म-रहित शुद्धात्मा होय सिद्धलोक विर्षे विराज हैं तब पीछे संसारिक शरीर कबहूँ नहीं धारे हैं। जे पात्मा अवतार धारे हैं सो संसारी हैं। शुद्धात्मा नाहीं। शुद्ध है ताके अवतार नाही है। कोई कहै जो भगवान तो शुद्ध ही है, परन्तु जब कोई देव, दानव, राक्षस, भगवान की प्रजा को पीड़ा करे है। तब वह ज्योतिस्वरूप परमात्मा भगवान, प्रजा की रक्षा करवे कों, राक्षसनिकै मारिवेकौं, अवतार लेय है। इस भांति शुद्धात्मा अवतार नाहों लेय है। ताकौं कहीए है। हे भाई! तैने कही सो तेरे कहने करि और दोष प्रगट भया। तूनें कही जो भगवान की प्राक पर पड़ गदर, दानव. गोटा उपजावे हैं तिन राक्षसादि मारवेकौं अरु प्रणा की रक्षा-निमित्त भगवान अवतार लेंय हैं। सो प्रजा तें तो रागभाव आया और राक्षसादिक ते द्वेष भाव आया। तातें हे भाई ! जाके राग-द्वेष होय, सो भगवान नाहीं। भगवानकै रागद्वेष नाहीं। परको मारै सो क्रोधी होय है। सो क्रोधी जीव जगनिन्दा पावै है। तातै कोधी होय सो संसारी है, भगवान नाहीं। तातै धर्मार्थो तूं रोसा जानि जाके काम, क्रोध, राग, द्वेष, मान, मत्सर, छल, जन्म, मरण होय सो भगवान नाहीं ऐसा जानना। देखि, गर्भवास मेटवे के निमित्त नाना प्रकार के दुधर तप कर बाईस परीषहन के महासंकट सहके वीतराग भाव धरिक महाकठिनतें कर्मनाशिकरि मोक्ष भर तब बन्दोवाने तं छुटै। गरमवास के महादुखनतें बचै। अब फेरि गर्भवास के विकट दुखनमैं कैसे जोय ? कबहूँ भी नहीं जाय । जैसे कोऊ मले आदमीकौं दोष लगाय कुतवाल ने पकरि के तहखानेमैं मूंधा। तहाँ मलमूत्र करना, तुच्छ अन्न जल देना, सो वह महामरस समानि दुख सहता व्याकुल भया ।
रोज के रोज नाना प्रकार दुख भोगना । औरन के दुर्वचन सहता। ऐसे महादुख सदैव देखि व्याकुल होय इस ।। भले आदमी ने बिचारी, बन्दीखानेमैं दुःख भोगते दीर्घकाल भया सो कैसे छूटिये ? तब याने कोई बीचवाले की || बड़ी स्तुति करी। अरु कही मैं इहां महादुखी हौं सौ यह कुतवाल माँगै सौ दैहों। मोकों छोड़ो, मैं महादुखी । हों। तब बीचिवाले ने याकी दया करि कुतवाल कूबड़ा धन देना कराय यह छुड़ाया। वाछित धन देय बीचिवाले
की बड़ी स्तुति करि उपकार मानि छुटा। कठिन हैं अपने घर आया। कुटुम्बीजनतें मिल महासुस्ती भया। अब
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कोई उस भले आदमी कौ फेरि कहै तुम इस कुतवाल के तहखाने मैं चालौं, तौ वो कैसे आवे कबहूँ नहीं आवे तैसे ही तन बन्दीवाने ते महादुस्ख भोगते कोई पुण्यते छूटने का उपाय गुरुनि का निमित्त पाय जान्या। सो राज सम्पदा तजि चारित्र अङ्गीकार करि नाना तपरि कर्म बन्धन का क्षय करि सिद्धलोक को प्राप्त भये निर्बन्ध महा सुखी भये। सो अब जगत्पूज्यपद पाय वह केवल ज्ञान का धारी परमात्मा भगवान इस दुर्गन्ध स्थान सप्तधातमई गरा स्थान में कैसे आवे, कबहूँ भी नहीं आवै। तातै भो भव्य । अब सुनि। जाके मन में मोक्ष तें पोछा अवतार होता होय ताके श्राप्त, आगम, पदामा देस हैं। इति रामतारवादी ना सम्वाद कथन !
मागे अज्ञानवादी का सम्वाद लिखिये है। अब केई मतवाले मोक्ष आत्माको ज्ञान-रहित माने हैं। ऐसा कह है, जो आत्मा विर्षे पर-पदारथ के जानने का जेता ज्ञान है सो ही उपाधि है। जब पर के जानने के ज्ञान का अभाव होयगा तब मोक्ष होयगी। ऐसा माने हैं। ताकौ कहिये है। मो मोक्ष आत्मा को ज्ञानरहित माननेहारे! तु आत्माको मोक्षविर्षे ज्ञानरहित मानें हैं। जो पर-पदारथ के जानने का आत्म विषं ज्ञान है । सो तो आत्मा का स्वभाव है। ज्ञान स्वभाव का नाश मए आत्मा का अभाव होय है। जैसे अगनि विर्षे तताई (गर्मी) का गुण है सो तहाँ तताई का अभाव भये अगनि का भी नाश होय तथा दीपक का गुण प्रकाश है सो प्रकाश का नाश भये दीपक का भी अभाव होय। तातें है भव्य ! पर-पदारथ के जानने का ज्ञान है सो आत्मा का स्वभाव है। सोई ज्ञान के प्रभा व भात्मा का अभाव होय है। सो आत्मद्रव्य का अभाव कबहूँ होता नाहीं। तातै भो मठ्यात्मा ! तूं सुनि। आत्मा पर-पदारथ की जाने है। सो पर-पदारथ के जाननें विर्षे कछु दोष नाहीं। दोष तौ राग-द्वेष विर्षे है। सो राग-द्वेषकरि पर-पदारथको देखना, सो आत्मा की अशुद्धता हैं और भी अज्ञानवादी। तू मोक्ष भये पीछे, आत्माकों ज्ञानरहित मानेगा तो भगवान के सर्वज्ञपने का अभाव होयगा। तब भगवान्कू अन्तरयामीपने का पद नहीं बनेगा और तब अन्तरयामीपना नहीं भरा भगवानकं अज्ञानता आवेगी अज्ञानता आये अज्ञानीको र जगतनाथपना नहीं सम्भव है। ताते हे अन्नानवादी! सुख है सौ पर-पदारथ के जानने का ही है। सो जानपना - गि झानते होय है। तातें झान बिना सुख नाहीं। सुख बिना दुखी रहै। सो मोक्षजीवकों दुखीपना सम्भवता नाहीं।। तातें बनन्त सुख का धनी भगवान है। सो केवलज्ञान ही सुख का कारण जानना। सो त देखि, लौकिक विर्षे
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भी जाने थोरे पदारथ देखे-जानै होय, ताकै ज्ञान भी थोड़ा होते, सुख भी थोरा होय । विशेषज्ञानी कू विशेष सुख होय है। जैसे—कोई पुरुष अनेक देशन का फिरनहारा होय, अनेक राज-सभा का बैठनेहारा होय, अनेक मनुष्यन तें बात करनहारा होय, अनेक तरह के नृत्य-गीतादिक का देखनेहारा होय, अनेक जाति के लौकिक चरित्र देखनेहारा होय, अनेक शास्वनि का देखने-जाननेहारा होय, ताकं ज्ञान विशेष होय। जाने रातै स्थान नहीं देखे, ताके ज्ञान भी अल्प होय। सो सुख हैं, सो ज्ञान के आश्रय हैं। सो जाके ज्ञान बहुत, सो बहुत सुखी
और जाके अल्पज्ञान ताकै सुख भी थोरा होय तथा कोई स्थान वि यमीत अनेक कौतुक होंय हैं। सीजाको दोखता नाहीं ताकै तिनका सुख भी नाहीं । जाकू अल्प दोर्खे हैं तिनको अल्प सुख हैं। कोई पुरुष उत्तुंग (ऊँचे) स्थान नजदीक बैठा, ताकी सर्व दीखे है सो सर्व सुखी है ऐसा जानना तथा जैसे—काहू सेठ का मन्दिर है | सौ नाना प्रकार की महिमा को लिए है। कहीं ती अनेक रन जड़ित शोभा है, कहीं अनेक प्रकार चित्राम है, कहीं मनोज्ञ महलन सहित बाग हैं। कहां फुहारे अनेक घटें हैं। कहीं नृत्य गान होय है। कहीं अनेक प्रकार की बिछायत बिछी हैं, कहीं महासुन्दर नर-नारी अनेक वादिन्न बजाय क्रीड़ा करें हैं, इत्यादि अनेक शोभा सहित मन्दिर है । तहाँ केई परदेशी अनेक पुरुष, इस मन्दिर को शोभा देखने कूगये। सो किसी ने एक स्थान देख्या; किसीने दोय, किसीनै चारि, किसी ने दस और किसी ने सर्व स्थान देखे। सो अब देखि, जानें जैसा स्थान देख्या, याकै जानपने में आया तैसा हो सुख मया। जानैं सर्व स्थान देखे ताकै सर्व सुख भया। तैसे ही यह तीन लोकमन्दिर मैं अनेक रचना पाइरा है। तामैं अनन्ते जोव परदेशी तमाशगीर आए हैं। तिन जीवन कू लोक विष जेता-जेता पर पदार्थन का जानिपना होय । ता जीवकों तैसा ही सुख होय है। श्रुतज्ञान के वंश भी अनेक हैं। सो कोई जोव श्रुतज्ञान थोरा पक्ष्या है, ताकै सुख थोरा है। जो अङ्ग पूर्व विशेष पढ़ें हैं तिनके बड़ा सख है। अवधिज्ञानी अपने ज्ञानतें लाखों योजन प्रमाण क्षेत्रको अवधिज्ञानतें जानें, सो विशेष सुखी है। ये ज्ञान एक स्थान पै तिष्ठता दूरवर्ती पदारथन की जानें, ताके सुख विशेष ही होय । मनः पर्ययज्ञानतें पर के मनविकल्प जो होंय तिन सबन कौं जाने। ताकें और भी विशेष सुख होय और इनत अनन्तगुणा सर्व लोकालोक के घट-घट को जानै सो केवलज्ञानी महासुस्ती हैं तातै मो अज्ञानवादी! तूं ऐसा जानि । जो पर-पदार्थन के जानने
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का ज्ञान है सो ही सुख का कारण है। परन्तु इतना विशेष है कि जो संसारी जीव पर-पदार्थन कौं जानें हैं। सो तो रागद्वेष सहित जानें हैं। ताकरि कर्मबन्ध का कर्त्ता होय है । जे वीतरागी कर्मनाशक सर्वज्ञकेवली स्वपर पदार्थ कूं जानें हैं सो राग-द्वेष रहित जानें हैं। सो इन भगवान के राग-द्वेष अभावतें कर्मबन्ध नहीं होय है । तातैं पर - पदार्थन का ज्ञान राग-द्वेष सहित तौ संसार का कारण है। सो तो आत्मा कूं दुखदाई है। राग-द्वेष रहित पर-पदार्थन का जानपने रूम ज्ञान है सो सुखदाई है। तानें है भ्रात अज्ञानवादी ! तू ऐसा दृढ़ सरधान करि, कि जो ज्ञान है सो आत्मा का गुण है। ज्ञान बिना जीव नाहीं। जीव बिना ज्ञान नाहीं । ज्ञान अरु जीव इन विषै गुणगुणीपना है। सो गुणी के नाश तैं गुण का नाश होय; गुण के नाशर्तें गुखी का नाश होय । तातें गुरा गुणी का नाम भेद है, सत्ता मेद नाहीं । जैसे— लवरा में अरु क्षारगुण में नाम भेद है सत्ता भेद नाहीं लवण है सो तौ गुणी हैं रुक्षारपणा लवण का गुण है। गुरु है सो गुणी के आश्रय है। ऐसे ही आत्मा में अरु जैसे सार गुण है सो लवण के आश्रय है। ज्ञान में गुणगुणोपना जानना आत्मा तौ गुणा है अरु ज्ञान गुण है। जाकरि गुणीक जाने सो गुण कहिये तैसे आत्मा को ज्ञान कर जानिये है। ऐसे ही गुसगुणी में एकता जानना। एक के अभाव तें दोऊ का अभाव होय है जैसे- सूरज तो गुणी है अरु जाकर सूर्य जान्या जाय ऐसा प्रकाश सो सूर्य का गुण है। सूर्य के अभाव होते तेज प्रकाश का अभाव होय । प्रकाश के अभाव तें सू" का अभाव होय । तैसे ही आत्मा विषै अरु ज्ञान विषै एकता जानि । नाम भेद है, प्रदेश सत्ता भेद नाहीं । तातें भी सुबुद्धि । तूं आत्मा विज्ञानको उपाधि मति मानें। ज्ञान है सो आत्मा का गुण जानि । ज्ञान के प्रभाव तैं आत्मा का अभाव होय, आत्मा के अभाव तैं मोक्ष का अभाव होय मोक्ष के अभाव कर्म का बंधाव होय कर्म के बँधावतें जगत् में भ्रमाव होय और जगत् भ्रमावतें दुख का बढ़ाव होय । तातैं भो भव्य ! आत्मा तूं जगत् तैं छुट्याचा अरु सुखकों भोगा चाहे है तो आत्माको मोक्ष विषै केवल-ज्ञान सहित जानि जाके मत विष मोक्ष- आत्मा ज्ञान रहित होय ताके आप्त, आगम, पदार्थ असत्य होय हैं। ऐसे अज्ञानवादी को समझाय शुद्ध श्रद्धान कराया। इति अज्ञानवादी का कथन । ६ । आगे स्थिरवादी का सम्वाद लिखिये है। केई स्थिरवादी ऐसा मानें हैं जो जैसा मरें, तैसा हो उपजै । जो देव मरे तो देव हो होय, नारको मरे तो नारकी उपजै,
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तिर्यश्च मरै, तौ तिर्यच ही उपजै। तामैं भी जैसी जाति का पशु मरै, सो ही जाति का पशु उपजें। हस्थी मरै तो ।
हस्थी उपजें, घोटक (घोड़ा) मरै तो घोटक उपजै इत्यादिक जिस जाति में जैसा मरै सो ही उपजै, अपने स्थान | को नहीं तजै। मनुष्य मर तो मनुष्य उपज, तमें भी राव (राजा) मरै तौ राव उपजै, रंक मरै तो रंक उपणे,
ऐसें जो मरे सो ही उपजै। याके मत का यों रहस्य है। जो चार गति संसार तौ है। परन्तु जैसा मरें तैसा ही उपजै सो अपने मत के पोषनैकों ऐसा शब्द ताके ग्रन्थ में कहें।
राज करता जे मरे, ते फिर राज करयि । मरें भीस्व कण मांगते, ते नर भोख मगांय ।। | ऐसे शब्द करि स्थिरवादी ने अपना मत दृढ़ कर रक्खा है रोसे स्थिरवादी कौं कहिये है भो भाई।
सुनि। तेरा मत प्रत्यक्ष अनेक नयन करि खण्ड्या जाय है। तेरा मत कोई मत ते नाहों मिले, ता असत्य है। प्रत्यक्ष तूं देखि। जो तेरा मत प्रमाण होता तो संसार में मतान्तर भी नहीं होता और कोई काही धर्म सेवन करते ? जब जैसा मरै तैसा ही उपजे तो धर्म के अङ्ग कहा फल करेंगे तातै देखि, अनेक मतवाले कोई तौ नाना तप कर हैं, जप करें हैं, भगवान की पूजा करें हैं। इत्यादिक धर्म अङ्ग सेवनि करि, ऐसा विचार हैं जो हमें धर्मप्रसाद ते कुगति नहीं होय ती भली है 1 धर्म फलतें देवादिक शुभ गति होय है, ताके निमित्त केई धर्मात्मा तौ तीर्थ-यात्रा करें हैं तामैं अनेक धन खर्चनेत खेद सहैं हैं। अनेक घर धन्धा तज, कुटुम्बादि ते मोह तज दूर देशान्तर जांथ हैं । केई परभव सुख कौं माना तप करें हैं, केई परभव सुखकौं वांछित दान देय हैं, केई भगवान के मन्दिर बनावेहैं, केई धर्मफल की भगवान के नाम का सुमरन करें हैं, केई राज, सम्पदा, कुटम्ब, लोक, ! इन्द्रिय सुख, शरीर ममत्व इत्यादि सुख छोड़ि दीक्षा धरि वन मैं ध्यान करि अपने पापनाश किया चाहैं हैं। इत्यादिक अनेक जीव अनेक मतन में अनेक प्रकार धर्म का साधन करते देखिये है। ताते भी भ्राता तेरे मत का रहस्य लेय, तौ सर्व धर्म-सेवन का अभाव होय । तातै तेरा मत कोई मत मैं सम्भावता दीसता नाही, ताते असति है। तूं देखि, जो सर्व संसार ऐसा कहै है, जो धर्म-सेवन करेंगा सो देव पद पावैगा, मनुष्य होय तो बड़े पुण्य का धारी राज-पद पावेगा। सेठ-पद पायेगा। जे पापाचारी दुर्बुद्धि पाप का सेवन करेंगे ते पशु होयंगे।। तहां भख, तृषा, शीत उष्णादिक अनेक दुःख भोगेंगे तथा पाप के करनहारे नरक विर्षे नाना विधि के छेदन
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भेदनादि दुःख पागे तथा लोक विडं तथा शास्त्रन विक्रोसा कहैं हैं। फलाना धर्मात्मा धर्मप्रसाद ते देव मया। || | कलाना पापाचार करि नरक गया। ऐसे-ऐसे व्याख्यान लौकिक विर्षे प्रकट सनिये है। अरु कदाचित ऐसी होती कि जो जैसा मरे तैसा हो उपजै तौ "पुण्य-चाप का फल जीव भोगवैगा" ऐसा नहीं कहते। तातै भो भव्य ! आत्मा, यह चार गति संसार विर्षे जीव अनन्त काल का अरहट की नाई भ्रमण करे है। पाप के फल ते अधोगति विर्षे और पुण्य फल ते उर्ध्वगति विर्षे इत्यादिक जीव उपजे हैं। तातें जाके मत विर्षे पुण्य-पाय का फल उथापि ( नष्ट करि) जैसे का तैसा ही उपजता मानै ताके आप्न आगम, पद जसत्य हैं। सो हेय हैं। तार्ते भो भव्य ! धर्मार्थी, अशुभ कर्म किये दुःख स्थान विणे उपजै है और शुभ-कम ते सुख स्थान दिणे उपजें है। ऐसा धारणि करि मिथ्या श्रद्धान तजि। तो तेरा भला होय ऐसे या स्थिरवादी का भरम गुमाय, जिन-भाषित श्रद्धान कराया। इति स्थिरवादी का सम्वाद कथन । ७। आगे केई विपरीतमति अजीव ते जीव उपजता माने हैं तिनकौं समझाइये है। केई भोले प्राणी ऐसा कहैं हैं जो यह आकाश तेजल बरसै है सो इन्द्र है। ताके भरम मिटावे कौ ताकौं कहिये हैं। हे भाई! मेघ है सो तौ वरषा-ऋतु विषैऋतु का कारण पाय "पुद्गल" है सो जलमई परणमि जाय है। सो पगलन के स्कन्ध वरषा-ऋत के कारण जलरूप होय, धारा सहित वरखें हैं। सो यह जल अचेतन है जड़ है, चेतन नाहीं। मुर्तिक पुद्गल है सम्बन्ध जलमयो भये पोछे अन्तर्मुहुर्त काल गये उस जल में अपकाधिक एकेन्द्रिय थावर नाम-कर्म के उदयते महापाप के फल करि आय, एकेन्द्रिय जीव उपज हैं। सो यह महादुःखी हैं। ताकै एक शरीर ही है। च्यारि इन्द्रिय नाहीं। पाप उदयतें होय हैं इन्द्र है सो पंचेन्द्रिय है महा जप, संयम, ध्यान, पूजा, दान आदि अनेक धर्म के फलते होय है। सो इन्द्र देवनि का नाथ बड़ी शक्ति का धारी है। अद्भुत बड़ी लक्ष्मी का ईश्वर है। अनेक देवांगना सहित सुख का मोगनहारा
है रीसा इन्द्र पद वीतरागी, योगीश्वर समता रस के स्वादी-षट काय के पीहर (रक्षक) दीनदयाल, जगत् गुरु, ६४ | उत्कृष्ट दया के फलते इन्द्र होंय हैं। होन-पुनोन को इन्द्र पद होता नाहीं। तातै इन्द्र है सो देव नाथ है और
मेघ है सो पुद्गल स्कन्ध को मिलापते ऋनु का कारण पाय जल होय वरसै है तामैं पाप करनहारा महाजीव | हिंसा का करनहारा जीव माय एकेन्द्रिय उपजे है। यहां प्रत्र-जो इन्द्र नहों तो ऐसा निर्मल आकाश विर्षे
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अनेक प्रकार के बादल अरु दीरघ गरजना के शब्द कौन करै है ? और तुम पुद्गल बन्ध कहाँ हो, सो पुद्गल || अचेतन में ऐसी शक्ति कैसे सम्मवे। ताका समाधान जो हे भाई! तेंने कही कि शब्दादिक की शक्ति इन्द्र बिना कैसे बनें। सो हे सुबुद्धि पुगल को शक्ति बड़ी ह देशि चिन्तामशिर जड़ है तामैं मनवांछित देवे की शक्ति है पारस पाषाण पड़ हैं उसमें लोहकों कंचन करने की शक्ति हैं कल्पवृक्ष है सो जड़ है। तामैं वांछित फल देवे के शक्ति है और-और अनेक ओषधि हैं सर्वजड़ हैं, तिनमैं अनेक रोग खोवन की शक्ति है और धतूरा में ऐसी शक्ति है जो विवेकी का ज्ञान मंगिकरि नाशै है? इत्यादिक जड़ वस्तुन में र शक्ति है कैनाही? और देखि हल्दी पीत है साजी श्याम है तिन दोनोंकै मिलाये से लाली होय है और देखो चकमक अर लोह पाषाणके मिलाप करि झाड़ वृत्त दाह करने की शक्ति है कि नाहों। रोसी अगनि उपज है। इत्यादिक और भी अनेक शक्ति पुद्गल द्रव्य मैं है। तैसे ही मेघ की गर्जना का शब्द भी तूं पुद्गल स्कन्धमयी जानना। तात हे भाई! था मैघ वि. जीवत्वपना नहीं, यह अचेतन-जड़ है तात तूं इस जड़ द्रव्य विर्षे जीवतत्त्वभाव मत कल्पना करे। यह देवनि का नाथ इन्द्र नाहीं। तूं कहेगा कि इस मेघ के तो सब जगतमैं इन्द्र ही कहैं हैं सो है भाई ! जे भोले, सांचे शास्त्रज्ञान रहित जीव हैं तिनने याका नाम रूढ़ित इन्द्र घर लिया है जैसे कोई भने पुरुष का नाम इन्द्रदत्त धर लिया होय । सो इन्द्रदत्त तो ताकों कहिये जो औरनकों इन्द्र पद देय, यह तो भूखा-दीन है। सो याका नाम शूदिक नयतै इन्द्रही कहिये है। तैसे ही आकाश वि. बिना सहाय जल बरसता देखि गरज शब्द होता देखि भोले प्राणी देवत्वभाव की कल्पना करि इन्द्र नाम कहैं। बाकी ( वास्तव में) यह इन्द्र देवन का नाथ नाहीं। चेतना नाही, ज्ञान सहित नाहीं, यह मैघ है सो पुद्गल में स्कन्ध ही वर्षा ऋतु का निमित्त पाय जलमयी होय हैं जैसे-शीत ऋतु का निमित्त पाय सर्व आकाशमैं पुद्गल महाशीत रूप होय हैं उष्ण ऋतु का निमित्त पाय सर्व आकाश विर्षे पुदगल स्कन्ध उपण रूप होय हैं। सो इन तीनों कात का कोई कर्ता नाहीं। अनादित ऐसा ही स्वभाव है जैसे—काल का निमित्त होय ताही प्रमाण पुद्गल रूप परणमैं हैं। ऐसा तूं निश्चय जानना। इस मेघ ङइन्द्र कहैं हैं सो यह इन्द्र चेतन नाहीं, जड़ है। तातै भो भव्य ! जे विवेकी हैं तिनको अजीव विष जीव मानना योग्य नाहीं। ऐसे मैध अचेतनत्व विर्षे इन्द्र पद देवनाथ मानने का सरधान मिटाय
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जात सर्व केवली भाषित सरधान कराया। अरु जाके मत विषै मेघको देवनाथ इन्द्र मानें ताके आप्त आगम पदारथ सत्य नाहीं होय हैं। इति मैघ जड़कों देवनाथ मानें था ताका सन्देह निवारक कथन । ८ ।
जागें और भी कोई भोले जीव मन्द ज्ञान तें अजोवतत्व में जीवतत्त्व का भाव मानें हैं। इस अचेतन काल द्रव्यकों ऐसा कहैं हैं । जो यह कालद्रव्य है सो यम है। सो यह भगवान हजूर के पास का रहनेहारा सेवक है। सो यह भगवान की आज्ञा पाय जीवनकों शरीर में तैं काढ़ ल्यावें है । यह यम महानिर्दयी है। सो जीव मोह के योग तैं कुटुम्ब नहीं तभ्या चाहे हैं । तिन कुटुम्ब में तथा ता तन में सुखी हैं। ताक सोंटा तैं मारि-मारि महादुखी कर जोरावरी शरीर तैं काढ़ि ल्यायें हैं। कई जीव, भगवान के भगत हैं तिनकू मारै नाहीं । तिनके तन में छापे तिलक कण्ठ में काष्ठ को माला देखि वार्के तन तैः दूर तैं ही विनय हैं काढ़ लाये हैं। परन्तु छोड़ता काहूक नाहीं । फेर कैसा ही समय होय, रात होय दिन होय, शीत उष्ण, बरसा, सुखिया, दुखिया होय. शादी होय या गमी होय, भोजन करता होय, सूता होय, धनधारी होय, रोगी होय, निरोगी होय इत्यादिक चाहे जैसा समय होय; परन्तु दया रहित यम काहू कौं छोड़ता नाहीं। ऐसा विभ्रम उपजाय कैं अजीव तत्त्व विषै जीवत्वभाव की कल्पना करें हैं। तिनको कहिये है। हे भाई! भगवान तौं काहू कौं मारता नाहीं और काहू कौं मारने की आज्ञा भो करता नाहीं । वह भगवान जगत् का पिता सर्व का रक्षक दयानिधान, वीतराग, केवलज्ञानी, शुद्ध आत्मा, निर्दोष काहू के मारने का विचार भी करें नाहीं। यहां भी लौकिक मैं किसी कौं कह काहू कोई मरवावें तो ताक मी पाप लगाघ दण्ड पहुंचाइये है । तातें अल्प से धर्मधारी जीव होय हैं सो भी पाप डर ऐसा वचन नाहीं कहैं जो तूं याक मार। कोई कषाय के वश होय कहै हो. तो ताके धर्म कूं दोष लागे और लौकिक में कहैं यह महापापी है, याने फलानेको फलाने के हाथ मराया है, ऐसा लोक भी कहैं हैं। शास्त्रनिविषै भी ऐसा ही उपदेश दे हैं। जो मन-वचन-काय कृतकारित अनुमोदना इनका पुण्य-पाप में फल एक-सा है। सौ हे भाई! तूं विचार। जो जगपति दयानिधान । वीतराग भगवान, पर के मारने का वचन कैसे कहें। तातें ऐसा दोष भगवान को लगावना योग्य नाहीं । जो कोई निर्दोष को दोष लगावें ताक महापापी कहिये । तातें भी भव्य ! भगवान है सो तौ निर्दोष है। वीतराग, दया भण्डार, सर्व का रक्षक है।
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तिस भगवान के वचन हैं सो सर्व जीवक अमृत समान सुखदायी हैं। सो भी अमृत तं तौ तन का आताप ही मिटे हैं। भगवान के वचन-अमृत तैं जन्म-मरण आताप मिटै है तातें भगवान का वचन परघात रूप होता नाहीं और जो यमकं तु जीव माने है। सो राम को जीतस्तु नाहीं । जाकौं तूं यम कहै सो काल द्रव्य जड़ है, जीव नाहीं । इस संसार विषै षट् द्रव्य हैं तिनमें एक जीव और पाँच अजीव हैं । तिन अजीव द्रव्यन में भी एक पुद्गल द्रव्य तौ जड़ मूर्तिक है बाकी चार अमूर्तिक हैं । तिन अमूर्तिन में सर्व भिन्न-भिन्न गुण पर्याय सत्ता धरं हैं। तिनमें एक काल द्रव्य है ताका गुण तौ वर्तमान है। ताकी व्यवहार पर्याय समय, घटी, पहर, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, पूर्व, पल्य, सागर है सो यह समय-समय करि हो, जीव की जैसी जैसी पल्य सागरन आदि की आयु है सो बीततो जाय है। जा जीव ने पूरव भव में जैतै समयन का आयु बान्ध्या है। तैसा स्वासोच्द्रवास भोगि पर्याय पूरा करि परगति को जाय है। ताका नाम मोरे या कहें हैं कि काल ले गया। सो यम कोई चेतना नहीं था । ये ही काल द्रव्य की व्यवहार पर्याय समय-समय करि प्रवर्तती पलक, घरी, दिन, पक्ष, बरष तैं जाय है। सो जाका जितना आयु होय तैते समय ही रहें, पोछे तन तजैं। बन्धी आयु के समय भोग लिये पोछे एक समय नहीं रहे है। देव, इन्द्र चक्री आदि ये भी तिथि पूरण भये पीछे एक घरी भी नहीं रहें। जा समैं थित पूरी हो, आत्मा काय त है । ताक भीले प्राणी कहें हैं। जो थाकौ यम ले गया। सो काल तौ जीव नाहीं, जो जीवकों ले जाय यह काल द्रव्य तौ जड़ है अरु जड़त्व ही ताकी पर्याय हैं। सो व्यवहार पर्याय तो अपने स्वभावमयी समयसमय प्रवर्ततो जाय सो तौ अनन्त काल अनन्त परिवर्तनमयो होते चले जाये हैं । तिनमें इन संसारी जीवन की थिति के भी समय पूरण होते चले जांय हैं। सो थिति पूरण का नाम मरण कहिये है। सो यह इस जीव ही का उपारणा (किया) है। सो शुभ परिणामन तैं तौ देवन को तथा उत्कृष्ट भोग भूमि की आयु कर्म पार्टी है। पापकर्मकादि का उत्कृष्ट आयु-कर्म पावे हैं। भली जायगा ऊँच कुल में उपजि हीन आयु पाय मरण करै सो पर - जीवन को हिंसा का फल जानना । जैसी जैसी इस जीव की परणति शुभाशुभ भई, तैती हो थिति पाईं. अरु वह पूरण भये पर्याय तपता भया। तातें है भाई ! तू ऐसा भ्रम तजि, कि कोई, यम जीवनको ले जाय है । सो यम (काल) कोई जीव नाहीं, जड़ है । तातें जाके मत विषै काल जड़ द्रव्य को यम नामा जीव मानते
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होय ताके जप्त, आगम, पदारथ असति हैं। ऐसे काल कौं यम नाम जीव माननेवाले का भ्रम दूर करि शुद्ध सरधान कराया। इति काल द्रव्य-जड़ को यम माननेहारे जीवन का सरधान पलटन कथन ह
आगे केई मतवारे अजीव वस्तून तें जीवतत्त्व वस्तु उपजते मानें हैं ताका सम्बोधन कथन कहिये है । केई अल्पज्ञानी, पश्च अजीव वस्तूनकों मिलाय कर जीव की उत्पत्ति मानें हैं ऐसा कहें हैं कि जो जीव वस्तु जुदी ही नाहीं, अजीव तत्वन के मिलाप तैं एक जीव शक्ति उपजे है। जैसे--अजीव वस्तु-जड़ द्रव्य जे महुआ बेरजड़ी, गुड़, दही इत्यादि अचेतन वस्तु विषै— मित्र मित्र देखिये. तो मद शक्ति नाहीं अरु इन इकट्ठी कर यन्त्र में धरि इन सबका अर्क काढ़िये है, ता अर्क जो दारू, ता विषै मद-शक्ति प्रगट होय है। सो मद भये नाना शक्ति प्रगट होय अनेक रिस जो तारें हैं मह उतर गये नाना कौतुक करने की शक्ति मिट जाय है। तैसे ही पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश - इन पंच तरव के मिलाप कर जीव-शक्ति प्रगट होय । भिन्न-भिन्न देखिये तो जीवत्व शक्ति काहू में नाहीं, मिलाप तैं जीव होय हैं। जब शक्ति प्रगट होय तब नाना देखने-जाननैमयी क्रिया करे है। अरु जब तवन का मिलाप छूट जाय, तब पंच ही तत्व अपने-अपने तरवन विषै मिल जाय हैं। तब शक्ति भी मिट जाय है। तहां वे एक दृष्टान्त देय अपना मत पोषै हैं सो सुनो।
दोहा - पवन पेंच आंटी परी, धर्मो वधु नाम निकस देव बाहर पर्यो नाम ठाम नहिं ग्राम ॥ १ ॥ ऐसा इस तत्ववादी के मतमैं कह्या है जो पवन चलती मैं ( वेगमैं ) आँटी पड़ गई, ताके योग रज, बालू, रेत, पत्ता, तिणकादि पदारथ उड़ने लगे, जो सबने देखे। तब बाका नाम सबने बधूरचा धरया । विस्तार भया पीछे पवन का पेच पड्या था सो मिट गया। तब अधूरे का भी नाम मिट गया तैसे ही अँधूरे को नई पंच तत्त्वन का मिलाप मिटता नाहीं, तैते कालतौ जीवनामा विकार प्रगट भया और सबने देखा, परन्तु जब तत्व विधुरै सो तो अपने-अपने तरवन में मिलें। तब देखिये तौ जीव तत्व तो कछू वस्तु नाहीं 1 ऐसा कई तत्त्ववादीन का मत है। तिनके मिथ्यात्व दूर करने कौं स्याद्वादी कहें हैं। भो तत्त्ववादी ! तूं सुनि सिंहन के गर्भ मृगन का अवतार होता नाहीं । मृगी के गर्भत सिंह का अवतार होता नाहीं । तैसें
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हो जड़-अचेतन वस्तुत तं चेतन पदारथ वस्तु होती नाहीं। जीव वस्तन तं अजीव वस्त होती नाही. ऐसा नियम है जो पंच जड़ ताव ते जीव होता तो पंच तत्त्वनतें लोक भरचा है सो हर कोई पंचताय मिलाय जीव ताव बनाय लेता। पुत्र-कलन करने कू काहै की कोई उपाय करते। हे तववादी! पंचतत्त्व मिलाय करि तू हमारे पास पांच जीवतत्व बनाय तौ सही, देखें कैसे बनाइए है। जैसे—तने दारू का दृष्टान्त दिया. सो जैसे-गुड़-दही, मऊआ, विरजड़ी इत्यादिक मिलाय हर कोई दास कर लेय है तैसे एक-दो जीव तू भी बनाय लेय। अरु त कहेगा, मेरै बने तौ नाही बने । तो हे भाई! ऐसा सरधान झूठा है। वृथा तू काहैको हठग्राही होय है। अजीव तस्तु ते 'जीव वस्तु होती नाहीं। संसार विर्षे जीव और अजीव-ये दोय तत्व अनादि-निधन हैं। यह अजीव वस्तु ते करया, जीव होता नाहीं। तातें जाकै मत वि पंच अजीव तत्त्वन का जीव होता मान, ताके आप्त,
आगम, पदारथ, असत्य हैं। रीसे अजीव का जीव ताव होता माने था, तार्को समझाय, यथा-योग्य जिन भाषित तरवन का सरधान कराया। इति तत्त्ववादी व पंचतत्व अजीव ते जीव होता माने था ताका सम्बाद कथन । २०! अब इन एकान्तवादीन के एक पक्ष कं मिथ्यात्व बताय इनहीं के वचन तिनको केई नय करि स्थावाद मतत मिलाय, सत्यमैं बताईए है। जैसे-अन्धन का हाथी, अन्धन के वचन करि एक पक्ष असत्य हैं अरु नेत्रनवाला, अन्धन के वचन मिलाय सबकों हाथो कहै, कोई-कोई नय अन्धन के हाथी कहने के वचन सत्यमैं बतावै, तैसे ही कधन कहिए है। भो संसार विर्षे एक आत्मा माननेहारे! जो एक हो आत्मा की सर्व लोक में सत्ता माने है सो या नय करिक तौ तेरा शब्द असत्य बताय आये। जैसे--अन्धा दगली की बाँह ऐसा हाथी माने, सो तो असत्य है, ऐसा हाथी होता नाहीं। तो इन अन्धे का वचन कोई नयत सत्य है। ऐसे ही तेरा सब संसारमैं आत्मा है सो सर्व बात तेरी या नयते सत्य है । सो तू सुनि इस संसारमैं अनन्ते आत्मा भिन्न-भिन्न सत्ताको धरैः सर्व लोकमैं सूक्ष्म जाति के मरे हैं । पृथिवी कायिक सूक्ष्म, तेजकायिक सूक्ष्म, वायुकायिक सूक्ष्म और वनस्पतिकायिक सूक्ष्म-इन पंचस्थावर सूक्ष्मन करि यह लोक भरया है। घी घटवत । जैसे—धी का घडा भरचा है। तामैं कोऊजगै वाली नाहीं। तैसे ही यह लोक सूक्ष्म जीवन ते भरचा है। तहाँ वनस्पति सूक्ष्म तौ अनन्त हैं। चारि स्थावर सूक्ष्म असंख्यात हैं । सो सर्व सूक्ष्म जीवन करि पूरित है । कोई स्थान खाली नाहीं जल,थल, अग्नि, वायु,
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आकाश, कंकर, पत्थर, घट, पट, सर्व जगै सूक्ष्म जीव भरया है। जीव बिना कोई क्षेत्र नाहों। तेरा वचन सत्य होय है। येता विशेष जानना, जो तेरा वचन एक सत्ता रूप सर्व जीव, सो तो असत्य है और सर्व जीवनि की |
सत्ता भिन्न-भिन्न है। यह जिन-वचन सत्य है । तातै धर्म उपदेश भी सम्भवै और पुण्य-पाय फल भी सम्भव है। । ताते सर्व संसारमैं जीव भरि-पूर हैं। परन्तु एक सत्ता नाहों । सर्व की सत्ता भिन्न-भिन्न हैं। ऐसा श्रद्धान कर।
इति कोई नय ते सर्व सेसारमैं घट, पट, जल, पवन, पानीमैं आत्मा है ऐसा कथन आगे अवतारवादी का वचन कोई नय प्रमाण बताइये है । अहो अवतारवादी ! तू मोक्ष आत्मा कौं अवतार मानै है सो मोक्ष दोय प्रकार है एक तो सालोक मोक्ष है सो भोले जीवतौ सालोक की ही मोक्ष कहैं हैं। सो सालोक मोक्षतौ ताकी कहिरा जो या चारि गति समानि जनम-मरण दुख सहित होय । इन्द्रियजन्य सुख बहुत होय । जीवना एक शरीरतें बहुत होय । सागरों पर्यन्त असंख्यात वर्ष ताई जीवना होय 1 रोसा इन्द्रलोक ता इन्द्रलोकको भोले जीव मोत्त कहें हैं । इहाँ कोई कहै, देवलोक को मोक्ष कौन नयकरि भोले जीवन नैं मानी ताकौ कहिये । हे भव्य ! मोक्ष कर्म-रहित है। तहाँ तिष्ठते सिद्ध, सो महासुखी हैं। कबहूँ मरें नाहीं। तातै तिन मोक्ष जीवनको अमर कहैं हैं। इन्द्रलोक के देव भी दीर्घ आयुधारी हैं। सो मनुष्यनि अपेक्षा, अत्यन्त जोवे हैं। मनुष्य के असंख्याते भव बड़ी-बड़ी आयु के होय तो भी देव का एक भव पूरण नहीं होय। देव का आयु-कर्म बड़ा है। ताते शास्त्रनमैं देव का नाम अमर है और सिद्धन का नाम भी अमर है सो अमरपने को कल्पना करि देवलोक भोले जीवन. मोक्ष मानी है। सो बालक ज्ञानी, ताही ते इन्द्रको भगवान जानि ऐसा कहैं हैं। जो मोक्षमैं नाना रतनमई महल हैं। तहाँ भगवान विराज हैं। बड़े-बड़े देव, दानव, भगवान के पास हस्त जोड़े खड़े हैं अनेक अपसरा भगवान निरत गान करें हैं। ऐसा अनेक सुखन सहित भगवान हैं। इनकी आदिल बहुत पंचेन्द्रिय-जनित सुख दीरघ जानि भोले प्राणीन ते थाका नाम सालोक मोत कहिरा है। सो इस सालोक मोक्ष का नाथ इन्द्र है। सो भोले जीव इन्द्र को भगवान मानें हैं। इन्द्रलोक को मोक्ष मानें हैं सो हे अवतारवादी भव्य ! इस सालोक ते इन्द्र मरि अवतार धरै है सो या नयतें अवतार मत प्रगट्या है और दूसरा निरालोक मोक्ष है। सो यह मोक्ष अष्ट कर्मन के नाशते शुद्ध परिणति के धारी यतीश्वरों को
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होय है। जब यह आत्मा कर्म नाश. तन छोडि, मोक्ष होय । सो फेर संसारमैं अवतार नाहों लय है। याका नाम निरालोक मोक्ष है। या मोत्तमैं जनम-मरण नाहीं, इन्द्रिय-जनित सुख नाही, तन का युद्गलोक आकार नाहीं। निरंजन, निराकार, निर्दोष, शुद्ध भगवान सिद्ध हैं। सो निरालोक मोक्ष जानना। मो अवतारवादी भव्य । यह || सुद्ध मोक्ष है यह अवतार नाही होय है ऐसा जानना। तेरे मत का वचन सालोक मोक्ष जो इन्द्रलोक, तहां तें अवतार जानना। इति अवतारवादी का मोक्ष तें अवतार कथन। आगे क्षणिकमती नय का स्थापन ! जो एक नयतें तो असत्ति है और कोई नयतें आत्मा क्षणभंगुर है ऐसा कहिरा है-भो क्षणिक मतवादी भव्य ! तूं एक शरीर में अनेक आत्मा छिन्न-छिन आवते मान है । सो तेरा मत तोकू प्रत्यक्ष असत्य बताया। सो या नय तो तेरी खंडी गई। अरु जा नय ते आत्मा क्षणभंगुर है, सो तोकौं जिन-आज्ञा-प्रमाण आत्मा में क्षणभंगुरपना कहिरा है, सो सुन । एक शरीरमैं तिष्टता इस जीव ने अपनी विशेष आयुकर्म के जोगते, अनेक अल्प आयु के धारी मनुण्य, तिर्यंचन की पयाय विनाती देखो। सो यह निकट संसारी जीवन की पर्याय विनशती देख, उदास होय विचारता भया। जो मेरे देखते एती पर्याय उपजों, एती पर्याय विनशी, सो संसार में जीवों की पर्याय क्षणभंगुर है। ऐसा क्षणभंगुर जगत-जीवों का जीवन है। ऐसी ही अपनी पर्याय तरणभंगुर जानि, उदास होय, राज-सम्पदा तणि, दीक्षा अङ्गीकार करें हैं । ऐसे क्षणभंगुरपना जानना है। सो कल्याण करता है। एक शरीर में ही प्रारमा रहता नाही, कबहूं देव होय मरै है। कबहूं मनुष्य होय मर है। कबहू पशु होय मरे है। कबहूं नारकी होय मरै है। रोसे चारि गति में अनादिकाल का परिभ्रमण कर है, कहीं थिर रहता नहीं। थिरि रहने का स्थान एक मोक्ष है। रोषा विचार, संसार दशाक क्षणभार जानि, संसारतें उदास होय, परिग्रह तज करि, मोक्षाभिलाषी अपना कल्याण करें हैं। तातें भी मन्य क्षणिक मनवादी! तूं संसार में आत्मा तौ सदैव शाश्वत जानि। परन्तु पर्याय चारगति रूप है सो क्षणभंगुर जानि। ऐसा श्रद्धान करितो तोकौं कल्याण करता होयगा। इति क्षणिक मतोन का भ्रम निवारण कथन । आगे केई कर्मवादी आत्माकं भगवान उपजावे हैं ऐसा माने हैं। ताका श्रद्धान तौ आगे खण्डन करचा है। परन्तु कापना भी कोई वस्तु का अङ्ग है सो जिन-आना-प्रमाण कर्ता का स्वभाव । कहिए है। भो कर्त्तावादी भट्यात्मा! तूं नवीन आत्मा का कर्ता भगवान माने, सो नय तो तेरी असति है। परन्तु
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कर्ता का शब्द कोई वस्तु का अङ्ग है ताका छल लेयक भोरे जीवन नै कोई भगवान कर्ता जान्या है सो सांसारिक जीवों की पर्याय का कर्ता भगवान तो नाल बीरन की पर्यापन का कर्ता बताईए है । सो कर्ता के भेद दोय हैं। एक तो भावकर्म कर्ता है। दुसरा द्रव्यकर्म कर्ता है। सो भाव कमन का कर्ता तो यह संसारी आत्मा है। अपने रागद्वेष भावन त शुभाशुभमरि च्यारिगति रूप उपजावे योग्य विकल्प का करना सो भाव-कम है। अरु इन भाव-कर्म के अनुसार प्रवृत्ते जो लोक विर्ष तिष्ठते पुद्गलस्कन्ध, ज्ञानावरणादिक कर्मरूप, सो द्रव्य-कर्म हैं। सो इन द्रव्य-कम के जोगत आत्मा देव, मनुष्य, नारक, पशु एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि की उत्पत्ति रूप आकार सो नाना प्रकार जे शुभाशुभ शरीर तिनका कर्ता द्रव्यकम है। सो जैसा-जैसा शरीर आकार होय तैसा-तैसा भीतर आत्मा का आकार होय है। ता प्रमाण आत्मा सुख दुख का भोक्ता होय है। हे कर्तावादी। इन शरीर, च्यारि गति का कर्ता तौ द्रव्य-कर्म पुद्गल है। भावकर्म रागद्वेष है, ताका कर्ता आत्मा है। जैसा-जैसा भाव-कर्म उपार्जता है, तैसा-तैसा शुभाशुभ शरीर होय है। ताते याका कर्ता आत्मा ही है। ऐसा जानना जो गवान काह का कर्ता नाहीं। ताही तें धर्मात्मानक्याप ! कार्यन का कर्तापना तजि, शुभ कार्यन का कर्त्ता होना योग्य है। इति कविादी की एक नय मिटाय जीवादि तस्वनि का कर्त्तापना कोई नय बताया। आगे नास्तिकमती सर्व प्रकार जीव का अभाव माने हैं। ताका एकान्त छुड़ाय, आत्मा कोई नय करि नास्ति भी है ऐसा कथन बताईय है। भो नास्तिकमती! तेरा मत जीवको सर्व प्रकार नास्ति मान है। सो यह एकान्त मत तौ असति है। जीव-द्रव्य का कबहूँ नास नाहीं। परन्तु जा अपेक्षा | जीव नास्ति भी है ऐसा उपदेश जिन-भाषित तत्वन की नय करि तोकौं बताईरा है, सो तूं चित्त देय सुन । मो भव्य । जीव, द्रव्यार्थिक नयतै तौ सदैव शाश्वत है । सो द्रव्य वस्तु का तौ कबहूँ नाश नाहीं और देव नारकादि च्यारि गति पर्याय हैं सो नास्तिरूप हैं। सो पर्याय के नाश होते जीव का नाश कहिरा है, सो व्यवहार नय है। था व्यवहार नय तें पर्याय विनशते लौकिक में ऐसा कहैं हैं। जो यह देव जीव मुआ (मस्या), यह नारको जीव मुआ। जो यह नर जीव हुआ। यह तिर्यश्च जीव हुआ। ऐसा कह हैं। सो पर्याय नाशतें जीव की नास्ति कही, सो पर्यायार्थिक नय जानना । इति नास्तिक नयकौ सर्व प्रकार असत्य बताय, कोई नय नास्ति
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कहैं ऐसा कथन । आगे केई मतवाले मोक्ष आत्माकों सर्व प्रकार अज्ञान मानें, ताका एकान्त मिटाय कोई नय ज्ञानरहित मोक्ष जीवकों बताइए है
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मी अज्ञानवादी भव्य आत्मा ! तूं सर्व नयकरि मोक्ष आत्मा ज्ञानरहित मानें है । अरु तूं ऐसा कहे है। जो आत्मा में पर-पदारथ देखने-जानने की शक्ति है सो ही उपाधि है। जब पदारथ के देखने-जानने की शक्ति मिटेगी राजीव को मोक्ष होगा। ऐसा है सी तो असत्य तोकों पूर्व बताया हो । श्रम ज्ञानरहित मोक्ष टि आत्मा है। यह वचन कोई नय हैं सो तोकों बताइए है। जो या ज्ञान तैं रहित मोक्ष जीव है, सो तूं चित्तदेय सुनि देखना- जानना तो जीव का स्वभाव है तातें ज्ञान का अभाव भये तो आत्मा का अभाव होय । तातें जेते इन्द्रिय जनित पदारथन को देखना-जानना, सो आत्मा में उपाधि है, तबलौं मोक्ष आत्मा नाहीं । इन्द्रिय जनित ज्ञान का अभाव होय, केवलज्ञान होयगा। तब जीव मोक्ष होयगा। तातें उपाधि ज्ञान जो इन्द्रिय जनित ज्ञान, सो तो इन्द्रिय ज्ञान है। तबलों पदारथन में राग-द्वेष होय है। जब इन्द्रिय ज्ञान मिटि केवलज्ञान होयगा, वह अतीन्द्रिय ज्ञान है, सो यह अतीन्द्रिय ज्ञान आत्मा का स्वभाव है । याके भए पदारथ तैं रागद्वेष नाहीं होय है । तातें भी भव्य ! ज्ञानवादी सुनि मोक्ष आत्मा है सो सर्वज्ञ लोकालोक का जाननहारा, घट-घट का अन्तरयामी भगवान, ताके अतीन्द्रिय ज्ञान है सो कर्म-बन्ध रहित है। सो तो मोक्ष जीव का स्वभाव है, ऐसा जानना। मोक्ष आत्मा में इन्द्रिय ज्ञान नाहीं । यह इन्द्रिय ज्ञान है सो विनाशिक है, चंचल है, होन ज्ञान है, कर्म बंध करता है । सो यह इन्द्रिय-ज्ञान-रहित, मोक्ष आत्मा जानना। ऐसा इस नयतें मोक्ष आत्मा ज्ञान-रहित कथा । इति मोक्ष आत्मा, इन्द्रिय ज्ञान -रहित कोई नय है, सो कथन कया। आगे केई मतवाले जैसा हो जीव मरे तैसा ही उपजता मानें हैं, सो इसका एकान्त मत खंडकें अब कोई नय करि जैसा मरै, तैसा ही उपजें है, ऐसा कहें हैं। भो स्थिरवादी । तेरा मत व तेरी नय तो असति है, सो तोकों का अब कोई नय तेरा वचन सत्य कहैं हैं, सी सुनि जो तूं जानें कि जैसी पर्याय छोडें सो हो पर्याय उपजै, सो सर्व प्रकार तेरा एकान्त मत तौ असत्य है। कोई नयतें वही पर्याय धरै है, कोई और भी पर्याय धरै है, सो तूं सुनि। जिनदेव का है ता प्रमाण कहिये है - जो मनुष्य मरै शुभ भावनतें देव होय, अशुभ भावनतें नारकी व पशु होर और कोई सरल भावतें मनुष्यतें मनुष्य भी होय
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उपज है, ऐसा जानना और तिथंच मरै सो शुभ भावनते देव होय, अशुभ भावनतें नारकी होय, कोई सरल भावते मनुष्य होय तथा आर्त-भावनत पशमरि पशु भी होय है,ऐसा जानना और नारकी मर नारकी होता नाही, यह निश्चय है और देत मर देत होताना । रोसे कोई जैसा मरे, तैसा हो उपजै, और कोई मरै, और ही पर्याय में उपज है। ऐसा जिन भगवान ने कहा है और तैरे मत में या कही कि मरै सो ही उपणै। सो पर्याय नय तौ बनें नाहीं। सो तूं ऐसा जानि, कि जो मरै सो हो उपजै। आत्मा ही पर्याय तजि मरण करै है सो ही आत्मा और पर्याय में उपजै है। सोही आत्मा, अनेक पर्याय में मरण करै है। यही आत्मा, अपने भाव प्रमाण शुभाशुभ गति में उपण है। सो रोसे अनन्तकाल भ्रमण करते भया । यही आत्मा मर-या, यही उपज्या, ऐसा जानना । इस नयतें यह वचन सत्य है कि जो मरे सो ही उपजे है। मोक्ष भये पीछे मरता भी नाही, अरु उपजता मी नाही, ऐसा जानना। इति स्थिरवादी का वचन कोई नय करि सत्य बताया ऐसा कथन।।
इति सुदृष्टितरजिसी नामग्रन्थमध्ये एकान्तवादीन के नय वचन असत्य किरा। कोई नय, वचन प्रमाण बताए। जैसे एक अङ्ग तो हस्ती नाही. सर्व मुड़े हैं। अङ्गन का समूह हस्ती है। कोई नय, राक अङ्ग करि सत्य भी है। ऐसा कथन करनेवाला चतुर्थ पर्व समाप्त। ४ ।
इति सन्धि में अनेक मतनि का विचार किया, रोसे अन्य मतन के धर्मार्थो जीव थे तिनको समझाय, अब जिनदेव करि भाषे जोव अजीव तत्त्व तिनका स्वरूप कहिर है। सो मोक्षाभिलाषी जीव होय, सो इन तस्व भेदनकौं सममें। सो जा मोक्ष के निमित्त, तत्त्व भेद जानिए, सो प्रथम मोक्ष का स्वरूप कहूँ हौं।
भो मोक्षाभिलाषी! हो तुम धर्मार्थो हो, तातें प्रथम मोक्ष का स्वरूप सुनौ। पीछे तुम्हारे इस मोक्ष की इच्छा होयगी, तो तुमकौं मोक्ष का मार्ग भी बतावेंगे। कैसा है मोक्ष ? जेते संसार में जनम-मरण, भूख-प्यास, वात-पित्त कुष्टादि रोग-इन अनादि अनेक दुख हैं। तिन सर्व दुस-दोषः-रहित है और अविनाशी, निराकुल, इन्द्रियरहित, सुख का स्थान है और अनुपम सर्व लोकालोकवर्ती पदारथ का जाननहारा, ऐसा केवलज्ञान-सहित भगवान पद, जगत् के पूज्यवे योग्य है। ता मोक्ष कौं इन्द्र, देव, चक्री, गणधर, मुनि, सर्व सदैव ताको वान्छेपूजे हैं। तहां के सुख अखण्ड हैं, अविनाशी हैं, सर्व कर्म मल रहित हैं, निराबाध हैं तिनके सुख का कबहूँ अन्त
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। नांहीं है आर जेते संसार में देव, इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्री, कामदेव, विद्याधर-इन सबनि के सुख अनन्तकाल के बीते; सो सबनिकों इकट्ठ करिश, तो भी मोक्ष सुस्त्र के एक समय मात्र भी नाहीं होय हैं। इहाँ प्रश्न-जो अहमिन्द्र अरु इन्द्र के सुखत भी बहुत सुख और कहा होयगा, सो कहो? ताकौं कहिए हैं। भो भव्य ! सुनि, जैसे कोई पुरुष ऊँट की असवारी किरा राह में ऊँट को दौड़ावता, चल्या जाय है । सो ताके पीछे एक मारने को वैरी पोठि पीछे लागा, सो वाकौं देखि भय खाय ऊँट दौड़ाया, सो कुदाता चल्या जाय है। पीछे वैरी भी चल्या आये है। ऐसे जात राह (रास्ते) में भूख लागी, अरु प्यास लागी। सो ताके पास लाडू थे सो खाता जाय
है। अस प्यास लागी सो ठण्डा नीर था सो बेला (कटोरा) भरि, पीवता जाय है। सो कछु बन्न-पानी मुख मैं, | कछू भूमि में पड़ता जाय है। ऐसे पुरुष ने ऊँटये लाडू खाय, ठण्डा पानी पीयकै, क्षुधा तिरषा मेंटि, सुख मान्या है! अरु एक पुरुष अपने घर के बाग में सघन छाया में तिष्ठा ताके पासि अनेक सज्जन सुखकारी बैठे हैं। सो द्वेषो कोई नाहीं। सो या पुरुष ने भूख तिरषा मेटवैकौं ठण्डा जल पीया भोजन खाया अरु सुसते सोय रखा। सो इन दोनों में धना (बहुत ) सुख किसके? लाडू जलतो ऊँटवाले ने भी खाये। लाडू जल घर बैठनेवाले ने मी खाये सो जैसा अन्तर इनके सुख में है। तैसा अन्तर देव इन्द्र, बहमिन्द्रन के सत्र में अरु मोक्ष के सुख में है। मोक्ष का सुख तो निराकुल है, भयरहित है अविनाशी है और इन्द्र बहमिन्द्र देव के सुख हैं सो विनाशिक हैं। इनके पीछे कालरूपी वैरी लागा है तातें भय सहित सुख है। ऐसे सामान्य दृष्टान्त का भाव जानना। सो | हे भाई! संसारी इन्द्रादिक के सुख इन्द्रिय जनित तिनत मोक्ष के अतीन्द्रिय सुसते अनन्तानन्त गुणा अन्तर है। तातें जो भव्य सुख का अर्थो होय सो मोक्ष जावे का उपाय करौ। ऐसा उपदेश सुनि कोई भव्यात्मा मोक्ष सुख का अभिलाषी पूछता मया । हे गुरु नाथ ! मोक्ष के सुन अाफ्ने सर्व दुस्ख-रहित कहे। सो मोक्ष केसे पाईए ताका मार्ग कहो । तब गुरु है सोई शिष्य के प्रश्नपाय ताके हितकं कहते भये । भो भव्य ! सुनि, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र है । सो मोक्ष मार्ग है। सौ है भव्य सम्यग्दर्शन तो मोक्ष का सरधान ( श्रद्धान) होय है। मोक्ष अनन्त सुख का स्थान है। ऐसे श्रद्धान होते पीछे सम्यग्ज्ञान होय । तात मोक्ष-मार्ग जान्या जाय है। ता मोक्ष-मार्ग मैं चालिए है।तात प्रथम तौ श्रद्धान चाहिये पीछे जानपना चाहिये पीछे मार्ग में चलना होय है। तब वांछित स्थान
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पहुंचे हैं। तात हे मध्य तूं प्रथम तौ ऐसा सरधान करि कि मोकू गैसो मोक्ष कब होय ? ऐसे गुरु वन्नन सुनिक महाविनयतें रुचि सहित पूंछता भया। भो गुरो सरधान का करावनहारा! सम्यक्त्व कैसे होय सो मोहि कहौ। तब गुरु या शिष्यकं रुचिक जानि कहते भये। तत्त्वार्थसूत्र की फाकी तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । थाका || अर्थ-भी भव्य । तत्त्वन का श्रद्धान है सो ही सम्यग्दर्शन है । तब शिष्य कही भो गुरो! तत्व कहा सो कहौ। तब गुरु दया करि कही-भो वत्स! तत्व भेद जीव अजीव कर दोय प्रकार है। तब शिष्य कही-भो गुरो! जीव अजीव का स्वरूप मोहि विशेष समझाय करि कहाँ। तब गुरु कहैं हैं। भो भव्य ! तूं चित्त देय सुनि । अजीव का स्वरूप तोहि प्रथम कहों हो। सो अजीव-द्रव्य पञ्च प्रकार है। धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, काल-द्रव्य, आकाश-द्रव्य, पुद्गल-द्रव्य-ये पञ्च द्रव्य अजीव हैं जड़ हैं। तिनमें धर्म, अधर्म, काल, प्राकाश-राज्यारि अजीव-द्रव्य अमूर्तिक हैं। सो इनका स्वरूप आगे कहेंगे, तातें यहां नहीं कह्या है और पुद्गल अजीव-द्रव्य है, सो मतिक है, सो ताक दाय भेद हैं। एक तो नो-कम, एक द्रव्य-कर्म। तहां जाकों देखि जो कर्म प्रगट होय, सो नो-कर्म। जैसे-अपने वैरीकौ देखि क्रोध प्रगट होय, सो वैरी कौ क्रोध का नो-कर्म कहिए तथा रूपवान स्वीकौ देखि विकार भाव होय, सो विकार भाव का नो-कर्म स्त्री है। ऐसे सर्वत्र नो-कर्म का स्वरूप जानना और द्रव्य-कर्म है, सो पुद्गलोक है। सो ताके तेईस भेद हैं। सो ही कहिरा हैं; अणु, संख्यातागु, असंख्याताणु, अनन्ताणु, आहाराणु, आहार अग्राह्याणु, तैजस अगु, तैजस अग्राह्याणु भाषाणु, भाषा अग्राह्याणु मनोवर्गणा, मनो अग्राह्यवर्गणा, कार्मणवर्गणा, ध्रु ववर्गला. सान्तरवर्गणा.शन्यवर्गरणा, प्रत्येक वर्गणा, ध्र वशन्यवर्गणा, बादर निगोद वर्गणा, बादर शून्य वर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, नभो वर्गणा, महास्कन्ध वर्गणा ऐसे र तेईस जाति के पुद्गल वर्गणा के भेद हैं। सो अपने-अपने स्वभावरूप सदैव वरते हैं। र सर्व भेद पुदगल के तीनलोक प्रमाण महास्कन्ध है तामें तिष्ठे हैं। ए महास्कन्ध है सो सर्वलोक में जैतो ( जितने) परमाण हैं तिन सर्व का एक बन्धन रूप है। अनादि-निधन महाबत समाति महास्कन्ध जानना । तामें असंख्यात परमाए तो ऐसे हैं सो स्क्रन्धरूप नाहीं, एक-एकही हैं। असंख्याते स्कन्ध दोय परमाणु के हैं, असंख्याते स्कन्ध तीन-तीन परमाणु के हैं। ऐसे ही एक-एक अधिक परमागून के स्कन्ध च्यारि परमाणु का स्कन्ध,
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पांच का षट् आदि उस्कृष्ट संख्यात पर्यन्त जानना। सोश संख्याताणु स्कन्ध हैं। अब या संपाताणु स्कन्धतें एक अधिक परमाणु के असंख्याते स्कन्ध हैं। सो २ जघन्य असंख्याताणु स्कन्ध है। थातें एक परमाणु और अधिक के असंख्याते स्कन्ध हैं असंख्याते स्कन्ध ऐसे हैं जो उत्कृष्ट संख्यात ते तीन-तीन परमाणु के अधिक जानना । च्यारि-च्यारि परमाणु अधिक के जसंख्याते स्कन्ध हैं। पांच अधिक के असंख्याते स्कन्ध हैं इन अधिक उत्कृष्ट संख्याततें एक-एक परमाणु के स्कन्ध वधतै उत्कृष्ट असंख्यात पर्यन्त जानना। सो एक-एक परमाणु के अधिक हैं सो असंख्याते असंख्याते पानना। उत्कृष्ट असंख्यात परमाणु से एक परमाणु अधिक के स्कन्ध जसंख्याते हैं। सो यह जघन्य अनन्ताशून के स्कन्ध हैं । दोय परमाणु अधिक के स्कन्ध असंख्याते हैं। तीन अधिक, च्यारि. आदि अधिक के स्कन्ध एक-एक जाति के असंख्याते स्कन्ध हैं.सो सब अनन्तास पुद्गल स्कन्ध हैं। ऐसे संकपा, पख्यात, म स्वाध है। को सर्व जाति के स्कन्ध वसंख्याते असंच्याते हैं। ऐसे पुद्गल के स्कन्ध अनेक प्रकार हैं। तहाँ जे तेजस जाति के पुद्गल स्कन्ध हैं तिनका तो तेजस शरीर होय है। भाषा जाति के पुद्गल स्कन्धन करि भाषा योग्य जो बेन्द्रिय आदि जीवन के यथायोग्य वचन बोलने की शक्ति लिये स्थान कण्ठादि बनि भाषा घिरे है। मन जाति की वर्गणा करि संझी पंचेन्द्रिय जीवन के हृदय-कमल मैं अष्टपाखड़ी का कमलाकार द्रव्य मन होय है। जात आत्मा के शुभाशुभ विचार की शक्ति होय है। बादर निगोदि वर्गणा के स्कन्धन तै, बादर निगोदिया जोवन के शरीर बने हैं और सूक्ष्म निगौद वर्गणा के स्कन्धत सक्ष्म निगोदिया जीवन के शरीराकार होय हैं और प्रत्येक जाति की वर्गणात प्रत्येक शरीरन का बन्धन होय है। कार्मस वर्गणातें ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मरूप कर्म-स्कन्धमई ऐसा कार्मस शरीर होय है। कर्म होने योग्य होय जे पुदगल स्कन्ध सो कामरा वर्गसा है। तहां आत्मा के जैसे-जैसे राग-द्वेष भावन सहित आत्मा परिसमै, ताही प्रमाण अष्टकर्म रुप होय कार्मण वर्गणा परिणम है। सो अष्टकर्म कौन है । तिनके माम कहिए हैं। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनी, मोहनी, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय-गैस ए अष्ट-कर्म तो मुल हैं तिनको उत्तर प्रकृति एक सौ अड़तालीस हैं। ज्ञानावरणी के नाम; मतिज्ञानावरणी, श्रुतज्ञानावरणी, अवधिज्ञानावरशी, मनपर्ययज्ञानावरणी, केवलज्ञानावरशी- पंच हैं सो जिस-जिस ज्ञान के बावर्श की हैं ते-ते ज्ञानकों घातें तातें
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इनका नाम आवरण कहिये है। ज्ञान नाम तौ जानपने का है। जातें ज्ञेय जानिए, सो तौ ज्ञान है। सो झानपने की अपेक्षा तो एक है। अरु अब एक ज्ञान को जितना-जितना इन पंच ज्ञानावरणीनने आवरण्या है, तेता ज्ञान की पंच भेद करि कल्पना करी है। अरु जब इन भावणीन का मात्र गोयना पेद भाव मिति एक ज्ञान भाव हो रहे है। पंच भेद बानावरणी के निमित्ततें कहिये हैं। ऐसा जानना और दर्शनावरणी प्रकृति नव हैं। सो प्रथम ही चक्षुर्दर्शनावरणी, अचक्षुदर्शनावरसो, अवधिदर्शनावरणो, केवलदर्शनावरसी-ए च्यारि दर्शनावरणी की हैं सो जपने प्रावरणे योग्य दर्शनको आवरणे हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला- नव दर्शनकौं घात हैं। यहाँ प्रश्न-जो दर्शन तौ च्यारि भेदरूप है और दर्शन को आवरणी नव हैं। सो च्यारि दर्शनावरण तौ च्यारि दर्शनकौं घातें हैं। यह पंच निद्रा काहेकौ घाते हैं। ताका समाधान । च्यारि दर्शन के क्षयोपशम को घातक च्यारि दर्शनावरणी हैं। दर्शन को देखने रूप प्रवृत्ति ताकौ पंच निद्रा घाते हैं। ऐसा जानना। आगे वेदनीय के साता, जसाता-ए दो भेद हैं। सो मोह सहित जीवनकों वेदनीय का उदय साता तो अपना उदय बताय जीवको सुखी करे है और असाता के उदय तें मोही जीव दुखी होय। ऐसा वेदनीय है। मागे मोह-कर्म दोय भेद है-राक दर्शनमोह एक चारित्रमोहः तहां दर्शनमोह के भेद तीन हैं-मिथ्यात्य, सम्यग्मिध्यात्व, सम्यक प्रकृति मिथ्यात्व-ए तीन भेद हैं। चारित्रमोह के पच्चोस तिनके नाम-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन-इन चारि चौकड़ी के क्रोध, मान, माया, लोम-इन करि सोलह भेद जानना। नव हास्यादिक के नाम-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेदए पच्चीस चारित्र मोहनीय के हैं। इनका सामान्य अर्थ कहिथे है जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध, महातीब्र पाषाण की रेखा सामानि । याका वासनाकाल अनन्त भव में भी नहीं जाय जातें एक बार क्रोध भया होय, तौ अनन्ते भव ताई तातें समता भाव नाहीं होय । थाके उदय से प्राणी अनन्तकाल संसार भ्रमै है! सो अनन्तानुबन्धी क्रोध जानना और अनन्तानुबन्धी मान महातीब्र पाषाण स्तम्भ समान । कठोर परिणामी ग्रास देय, पै नमै नाहीं। याका भी वासनाकाल अनन्तकाल है। जातें एक बार मान खण्डना होय, ताक् अनन्तभवन में भी निशल्यभाव करि नमैं नाही, सो अनन्तानुबन्धी मान जानना और अनन्तानुबन्धी माया महातीब्र बोस की जड़
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की गठिी समानि, पवन कटुताई भाव है, नाकाबासनाकाल जाम है; जातें एक बार परिणति में द्वेषभाव होय तो तातै अनन्ते काल में भी निशल्यभाव-सरलता नहीं होय ! सो अनन्तानुबन्धी माया जानना । अनन्तानुबन्धी लोभ, महातीब्र किरम के रङ्ग समान जैसे-वस्त्र फटै परन्तु किरम का रङ्ग नहीं जाय। ऐसा ही यह लोभ है। याका वासनाकाल अनन्त है। एक बार लोम प्रगट भया पीछे अनन्तकाल गर भी समता भावनिर्लोभता नहीं होय। ऐसे र अनन्तानुबन्धी को चौकड़ी ही है। याके फलत धनन्तकाल संसार में भ्रमस नहों मिटे। इनके उदय होते सम्यगभाव नहीं होय। अप्रत्याख्यान की चौकड़ी-तहां अप्रत्याख्यान का क्रोध, सो हल रेखावत। जैसे-हल की रेखा वर्ष, छः महीना में वर्षादि कारणपाय मिटै। तैसें ही यह अप्रत्याख्यान क्रोध मिटै और अप्रत्याख्यान मान अस्थि के स्तम्भ के समान जगतविशेष किए नमै है। तैसे ही यह मान कारणपाय विशेष काल गए पीछे मिटै मी है। अप्रत्याख्यान माया हिरन के सोंगवत गांठिको धरै है। याकी माया बहुत काल गर मिटे है। अप्रत्याख्यान लोम कुशुम्भ के रङ्ग समान है। जैसे—विशेष जतनतें कुशुम्भ रङ्ग मिटे है। तैसे ही बहुत काल गर यह लोभ लाय है। ऐसे यह अप्रत्याख्यान की चौकड़ी, श्रावक के अणुव्रत का स्थान जो पंचमगुण-स्थान ताकौं रोके है थाके उदय में पंचमगुण-स्थान नाही होय है। प्रत्यास्यान की चौकड़ी कहिरा है। तहां प्रत्यास्यान क्रोध गाड़ी की रेखा समानि है । जैसे पांच च्यारि दिन तथा पहर में तथा मास पक्ष में गाड़ी को रेखा मिटि जाय । तैसे ही अल्पकाल में प्रत्याख्यान क्रोध उपशान्त होय प्रत्यास्थान मान कछु मन्द है। जैसा काष्ठ का स्तम्भ अल्प जतन से नमैं तैसे ही, स्तुतिमात्र अल्पकाल में उपशान्त होय है। प्रत्याख्यानी माया मेंढे के सोंग में अल्पगांठि होय तैसे ही इस माया का उदय अल्पकाल होय मिटै। प्रत्यास्थान लोभ है सो हल्दी के रङ्ग समान है। जैसे हल्दी का रङ्गः अल्प जतनत मिटै। तैसे ही प्रत्यास्थान लोभ शीघ्र ही मिटै। ऐसे प्रत्याख्यान की चौकड़ी है। सो अपने उदय मुनि-पद नहीं होने देय है। अब सेज्वलन की चौकड़ी कहिय है—सो संज्वलन कोध महामन्द । जैसे जल रेखा तुरन्त मिट, तैसे यह संज्वलन क्रोध का उदय मिटै है। संज्वलनमान, उदय देय बेत समान तुरन्त || मार्दव भाव होय । जैसे-बेत का स्तम्भ तुरन्त नमै है। संज्वलनमाया, गईया के सींगवत, अल्प बांकी
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लिये सरल है। याका उदय, तुरन्त होय तुरन्त मिटै है । संज्वलन लोभ पतङ्ग के रङ्ग समानि है। जैसे पता रग तुरन्त मिटै, तैसे संज्वलन लोभ उदय होय, अल्प रस देय मिटै है। ऐसे संज्वलन की चौकड़ी अपने उदय होते यथाख्यात-चारित्र नहीं होने देय है। ऐसे तो सामान्य सोलह कषाय जानना आगे नो कषाय ताँ माके उदय जीव के हाँसिक प्रगटेसी हास्य-कम है। जाके उदय जीव पर-वस्तु शुभ लागें सुख उपजावै, सो रति-कर्म है। जाके उदय जीवकं पर-वस्तु जनिष्ट लागे सो अरति-कर्म है। पाके. उदय जीवक चिन्ता शोक होय, सो शोक-कर्म है। जा कम के उदय जीव का उर कम्पायमान होय, पर-वस्तु ते भय उपजे सो भय-कर्म है। जा कर्म के उदय जीवक पर-वस्तु देखि ग्लानि उपजे, सो जुगुप्सा-कर्म है। जा कर्म के उदय जीवकू स्त्रीके स्पर्श करने की अभिलाषा होय, सो पुरुषवेद-कर्म है। जा कर्म के उदय से जीवकू पुरुष के सेवन स्पर्श की इच्छा होय, सो स्त्रीवेद-कर्म है । जा कर्म के उदय युगपत पुरुषस्त्री के स्पर्श की इच्छा रूप भाव होय, सो नपुंसकवेद-कर्म है। ऐसे चारित्रमोह की पचीस कहीं। दर्शनमोह का स्वरूप जागे करेंगे। प्रागे देव आयु का उदय जेते काल रहै, तैते काल देव का शरीर आत्मा ते नहीं छूटै। जाके उदय मनुष्य का शरीर आत्मा ते नहीं छूट, सो मनुष्य बायु है। जा कर्म के उदय जीव तिर्यच गति को न छोड़ि सकै, सो तिर्यच आयु-कम है। जा कर्म के उदय जीव नारको का शरीर नहीं तज सके, सो नारक आयु-कर्म है। ऐसे चार आयु जानना। आगे नाम-कर्म कहिये है, सो प्रथम ही वर्ण चतुष्क की कहैं हैं। सो तहाँ स्पर्श को आठ-जाके उदय शरीर कठोर होय, सी कठोर-कर्म है। शरीर कोमल होय, सो कोमल-कर्म है। शरीर भारी होय, सो भारी-कर्म है। शरीर हलका होय, सो हलकाकर्म है। शरीर उष्ण होय, सो उष्ण-कर्म है। शरीर शीतल होय, सो शीतल-कर्म है। शरीर चिकना होय, सो चिक्कन-कर्म है। शरीर रखा होय, सो सूत-कम है। आगे रस की--जाके उदय शरीर खाटा होय, सो सट्टा-कर्म है। शरीर मिष्ट होय, सो मोठा-कर्म है। शरीर कड़वा होय, सो कड़वा-कर्म है। शरीर कषायला होय, सो कषायला-कर्म है : चिरपरा होय, सो चिरपरा-कर्म है। जागे गन्ध की कहिये—जाके उदय शरीर में सुगन्ध होय, सो सुगन्ध-कर्म है। शरीर में दुर्गन्ध होय, सो दुर्गन्ध-कर्म है। आगे वर्ण कहिय है।
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जाके उदय शरीर सुरख होय, सो लाल-कर्म है । जाके उदय शरीर सब्ज (हरा) होय. सो हरा कर्म है । जाके उदय शरीर श्याम होय, सो श्याम-कर्म है। जाके उदय शरीर पोत होय, सो पोत-कर्म है। जाके उदय शरीर श्वेत होय, सो श्वेत-कर्म है। ऐसे वर्ण चतुष्क हैं। आगे संहनन षट् के नाम - बज्रवृषभनाराच, बज्रनाराच. नाराच, अर्धनाराच, कोलक, स्फाटिक—ए षट् हैं। अब इनका अर्थ--- वृषभ नाम तौ नस का है। अरु नाराच 1 नाम कीली का है। अरु संहनन नाम हाड़ का है। सो जाके उदय नस, हाड़, कोली, बज्रमयी होय, सो बज्रवृषभ
fr
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२
नाराच संहनन कर्म है । जाके उदय शरीर में नसें तो बज्ररहित हॉय अरु कोली, हाड़, बज्रमयी होय, सो बज्रनाराच संहनन कर्म है। सन्धनि में दृढ़ कीली होय तोनों ही हाड़, कीली व नसें बज्ररहित जाके उदय होय, सौ नाराच संहनन कर्म है । जाके उदय सन्धनि में अर्ध कीलिका होय, अर्धनाराच संहनन कर्म है। शरीर में कोली रहित हाड़न की नौक ते नौक अड़ी होय, श्ररु गाँठतें दृढ़ होय, सो कीलक संहनन कर्म है। शरीर के हाड़, घास के पूला समानि नशा चांगत दृढ़ि हॉय, सी स्फाटिक- संहनन कर्म है। ऐसे संहनन कर्म है। आगे संस्थान षट् कहिये हैं । तिनके नाम - समचतुरस, न्यग्रोध, परिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक – ए षट् हैं। अब इनका अर्थ बताइये है-तहां जा कर्म के उदय शरीर महासुन्दर शास्त्रोक्त प्रमाणमयी अंगोपांग सहित होय, सौ समचतुरस्र संस्थान-कर्म है। जाके उदय शरीर ऊपरि तैं चौड़ा, नीचे तैं कृशि होय, सोन्यग्रोधपरिमण्डल - संस्थान है। शरीर ऊपरि ते कृश अरु नोचे तैं दीर्घ होय, सो स्वाति-कर्म है : शरीर में पीठि, छाती ऊँची होय, सो कुब्जक संस्थान कर्म है। शरीर काल मर्यादा तें बहुत छोटा होय, सो वामन-नाम-कर्म है। शरीर बेघाटि - रुण्डमुण्ड - हीनाधिक अंगोपांग सहित अशुभ होय, सो हुंडक-संस्थान है। आगे च्यारि गि कहिए है -- जाके उदय देव का शरीर होय, सो देव-गति है । जाके उदय मनुष्य शरीर पावै, सो मनुष्यगति -कर्म है और जा कर्म के उदय तिर्यच का शरीर पावै, सो तिर्यंचगति-कर्म है। जा कर्म के उदय नारक शरीर पावै, सो नारक -गति कर्म है। ऐसे गति। आर्गै गत्यानुपूर्वी कहिए है--तहां देवगति में उपजनेहारा मनुष्य अपनी आयु भोग, शरीर तजि, जा कर्म के उदय, ताही मनुष्य के आकार आत्म प्रदेश अन्तराल में राखे और रूप नाहीं होंय, सो देवगत्यानुपूर्वी कर्म है । २ । मनुष्य गति में उपजनेहारा जीव, अनियतगति आवै, सो
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अपने तैजस शरीर के आकार आत्मप्रदेश अन्तराल में राख. पलटै नाही, सो मनुष्यगत्यानुपूर्वो-कर्म है। २ ।। तिर्थच गति में उपजनेहारा जीव जा कम के उदय जा शरीरको तजि आवै ताका आकार उपजने के संस्थान । २ ताई लिये आवे और रूप नाहीं होने देय, सो तिर्यंचगत्यानपुर्वी-कर्म है।३१जा कर्म के उदय नरक में उपजनेहारा । जीव पर-गति का जैसा शरीर तजे तैसे ही आकार नरक मैं उपजने के संस्थान ताई आवै आत्म प्रदेश और रूप नाहीं होंय, सो नरकगत्यानुपूर्वी-कर्म है।४। ऐसे पूर्वी हैं। आगे पंच शरीर स्वरूप कहिए हैं-तहां जा कम के || उदय वैक्रियिक शरीर रूप पुद्गलन कं परिणगाय जरीन का हवा की ५.५ साल से देवनारकी होय, सो वैक्रिषिक शरीर है ।श जाके उदय आहारक जाति शरीर रूप पुगगलन के स्कन्धकौं परिणमाय आहारक शरीर का बंधान होय, सो आहारक शरीर है। २ । जा कर्म के उदय पुद्गल का ग्रहण करि मनुष्य तिर्थच के शरीरमयी परिणमावै, सो औदारिक शरीर है। ३ । जा कर्म के उदय तेजस जाति के पुद्गलनकौं ग्रहण करि
आत्मा शरीर के बंधान रूय करें, सो तैजस शरीर है।४। संसारी जीव पुरातन अगले कर्म के शुभाशुभ परिणाम तिनत ज्ञानावरणादिक कर्मरूप होने योग्य जे कार्मणवर्गणा पुद्गल स्कन्ध तिनक ग्रहण करि अष्ट कर्मरूप शरीर का बंधान करै, सो कार्मण शरीर हैं। ५। इति शरीर भये। आगे पंच बंधान व पंच संघात का स्वरूप कहिए है, सो जैसे-दिवाल को मारा, ईंट पत्थरादि इनकर दिवाल खड़ी करिये ऐसा तो बंधान है। ता दिवाल 4 लेप करि साफ करिए, सो संघात हैं। तैसे ही शरीरत के बन्धान संघात हैं। तहां इन पंच शरीरन के नस, हाड़ मासादि अवयवन का बन्धानकरि शरीर का करना, सो बन्धान है। ते पाच जानना । अरु इन शरीरन में वातादि लपेटन रूप सफाई, सो पंच संघात है। इति बन्धान संघात । आगे पंच जाति का स्वरूप कहिये हैंतहाँ जाके उदय एकेन्द्रिय का क्षयोपशम पावै ताके स्पर्श इन्द्रिय सहित जो राकेन्द्रिय का शरीर तामें आत्मा का रहना, सो रकेन्द्रिय जाति है। ।।जा कर्म के उदय स्पर्श व रसन इन दोय इन्द्रिय के क्षयोपशम सहित शरीर में आत्मा का रहना, सो इन्द्रिय जाति है। राजा कर्म के उदय स्पर्शन, रसन, प्राश इन तीन इन्द्रिय के क्षयोपशम सहित शरीर का धारण, सो ते इन्द्रिय जाति है।३। और जा कर्म के उदय स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु-इन च्यारि इन्द्रिय के क्षयोपशमसहित शरीर का धारना, सो चौ इन्द्रिय जाति है। जा कर्म के उदय पांचों !
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इन्द्रियों का क्षयोपशम सहित शरीर का थारना, सो पंचेन्द्रिय जाति है। इति जाति। आगे अङ्गोपाङ्ग का स्वरूप कहिय-गाठ वाक उपाय। सो हाथ दोथ परदीय मस्तक एक नितम्ब एक छाती एक पीठ एक ऐसे ।। आठतौए अङ्ग है। अङ्ग में लक्षण होय, सो उपाङ्ग हैं। जैसे--शोश में मुख, कान, नाक, नेत्रादि-ए उपाङ्ग है तथा हाथ, पावन की अंगुली आदि अनेक विधि, सो उपाङ्ग हैं। सो रा अङ्ग-उपाङ्ग तीन शरीरन में होंय हैं। तेजस कार्मरण के नाहीं। तहां जा कर्म के उदय मनुष्य तिर्यंच के शरीरन में अङ्गोपाङ्ग होय, सो जौदारिक अङ्गोपाङ्ग है और जा कर्म के उदय प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनीश्वर के मस्तकतें संशय के निमित्तपाय आहारक शरीर में जङ्गोपाङ्ग होय, सो आहारक अंगोपांग है। जा कर्म के उदय देव नारकी के वैक्रियिक शरीर में अंगोपांग होय, सो वैकियिक अंगोपांग है। इति तीन अंगोपांग। प्रागे विहायोगति कहिये है। तहां जा कर्म के उदय जीव की शुभ चाल होय, सो शुभ विहायोगति-कर्म है। जाके उदय अशुभ चाल होय, सो अशुभ विहायोगति-कर्म है। इति चाल। ऐसे पिंड प्रकृति पेंसठि कहीं। आगे अपिंड प्रकृति कहिर है-तहां जा कर्म के उदय जीव का शरीराकार आत्मप्रदेश यथावत् रहै. हलका भारी नहीं होय, सो मगुरुलघु-कर्म है। जहां शरीर में जाके उदय ऐसे स्थान होय, जिनकरि पवन संचे-निकासे, सो श्वासोश्वास-कर्म है। तहाँ जाके उदय रोसा शरीर होय, जो मूल में तो शीतल अरु जाको प्रभा उष्ण, सो आतप-कर्म है। सो यह प्रकृति सूर्य के विमान सम्बन्धी पृथ्वी कायिक जीव हैं, तिनक होय है। इन एकेन्द्रिय बिना और स्थावरन इसका उदय नाहीं। जाका शरीर शीतल होय, व ताकी प्रभा भी शीतल होय. सो उद्योत-कर्म है। ए प्रकृति एकैन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय तिर्यश्चन के उदय होय है, बाकी तीन गति में नाहीं। जहां जा शरीर में चिह्न अंगोपांग होय जाकर अपना ही घात होय, जैसे-साम्हरि के सोंगादिक जाके भारतें मरे, सौ अपघात-कर्म है। जहाँ जाके उदय शरीर में ऐसे चिह्न अंगोपांग होंय जाकर आप-पर का घात करे, सो पर-घात-कर्म है। निर्माण प्रकृति के दोय भेद हैं। एक
स्थान-निर्माण-एक प्रमाण-निर्माण है। जहां शरीर में जाके अंगोपांग के स्थान होय, सो तौ स्थान-निर्माण८३ | कर्म है। जाके उदय शरीर में अंगोपांग के प्रमाण यथावत् होंय, सो प्रमाण-निर्माण है। जो प्रमाण-निर्माण |
भला नहीं होय तो अंगोपांग अधिक हीन होय, के तौ अंगुली चारि होंय तथा छः अंगुली होय तथा हस्त, पांव,
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नाक, नेत्र, कानादि छोटे होंय तथा प्रः अंगुली होंय तथा बड़े होंय अरु जो स्थान निर्माण भला नहीं होय तौ अंगोपांग स्थान चूंकि होंय, तब असुहावने होय। ऐसे निर्माण प्रकृति दोय प्रकार जानना । जा जीवनें पहले भव में सोलह कारण भावनादिक निमित्तकर तीर्थङ्कर-कर्म बांध्या होय जाके उदय पञ्चकल्याणक होय तथा दीक्षा के आठ वर्ष पहिले जिनने तीर्थंकर का कर्म बांध्या ताके तीन कल्याणक होंय तथा दीक्षा लिये पीछे बांध्या हॉय, ताके दोय कल्याणक हाँय और जाके अन्तर्मुहूर्त आयु में बाकी रह्या ऐसा यतीश्वर तीर्थंकर का बंध भया होय तिनकें ज्ञान-निर्वाण दोय ही कल्याणक एक काल होंय । समवशरणादि विभूति प्रगट नहीं होंय । ऐसे जा कर्म के उदय पंचकल्याणक तथा तीन कल्याणक होंय, जिनके समवशरणादि विभूति प्रगटै सो तीर्थकर कर्म है। ऐसा अगुराष्टक। आगे दुकदश है। तहां जाके उदय अपने योग्य जीव पर्याप्ति धारि पांच षट् का धारन करे. सो पर्याप्त कहिये । जाके उदय शरीर पर्याप्त पूरा नहीं होय पहले हो मरण करें, सो अपर्याप्त कर्म है। जा कर्म के उदय एक शरीर का स्वामी एक जीव होय, सो प्रत्येक कर्म है । जाके उदय एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी होय, सो साधारण कर्म है । जाके उदय दुख जाये दुख मेटवे की शक्ति होंय और सुखी होने को अपनी शक्ति प्रमाण करि कायकौ चंचल करि सर्के, सो त्रस-कर्म है । जाके उदय सुख दुख आये स्थावर में ही सह, मैने को असमर्थ, सी स्थावर कर्म है । जाके उदय ऐसा शरीर पावै जाकरि अन्य बादर पदार्थन कौं जाप रोकै तथा अन्य बादर पदार्थन करि आप गमन करता रुके, सो बादर-कर्म है। जाके उदय आपके ऐसा शरीर हो, सो कोई पर्वत, बज्रादिक तैं नहीं रुकै तथा जाप कोईन कूं नहीं रोके अग्रित, शस्त्र, इत्यादिक निमित्तन मैं नहीं मरै, सो सूक्ष्म-कर्म है। महानिष्ट सुस्वर सबको प्रिय शब्द निकसै सो सुस्वर- कर्म है। जाके उदय ऐसा शब्द निकले जो सर्वक बुरा लगै सो आपको भी बुरा लागे सो दुस्वर-कर्म है। जाके उदय शरीर में कोई ऐसा शुभ चिह्न अंगोपांग में होंय जाकरि सर्वको वल्लभ (प्रिय) होय, सो शुभ-कर्म है । जाके और उदय शरीर में ऐसा कोई चिह्न होय, जाकरि आप सबक बुरा लागे, सो अशुभ कर्म है। जाकै उदय शरीर के सप्तधातु आदि चलाचल रहें जाकर रोग वेष्टित शरीर होय, सो अस्थिर कर्म है। जाके उदय आत्मा जहाँ जाय तहाँ आदर पायें, सो आदेय कर्म है । जाके उदय आत्मा जहाँ जाय तहाँ अनादर पावै, अपमानतें आत्मा दुखी होय, सो अनादेय
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कर्म है। जाके उदय जीव सुखी रहै और सर्व लोग सस्ती करें. भले कर, सो सभा-कर्म है। आके उदय जोस दुख दारिद्रय करि पोड़ित होय ताके जन्मत ही माता-पितादिक कुटुम्ब के मरण कुं प्राप्त भरा होय महादुखी | रहता होय, लोग ताको रंक दीन कहते होय, सो दुभंग-कर्म है। जाके उदय जगत् ते यश पावे, बिना दिये बिना
जाने लोग जाकी कीर्ति करें, सो यशस्कोति-कर्म है। जाके उदय जगत विर्षे बिना जाने बिना देखें लोग पाकी निन्दा कर अपकीरति धारी होय, सो अयशस्कोर्ति-कर्म है। ऐसे नाम-कर्म की तिरानबै प्रकृति जानना। इति नाम-कर्म। आगे गोत्र-कर्म। जहाँ जाके उदय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-इन तीन कुल के मनुष्यों में तथा चारि प्रकार के देवन में उपजे, सो ऊँच-गोत्र-कर्म है। जाके उदय नरक, तिर्थच इन दो गति में उपजे तथा मनुष्य में हीनाचारी शद्र तिनमें उपजे, सो नीच-गोत्र-कर्म है। इति गोत्र-कर्म । आगे अन्तराय का स्वरूप कहैं हैं। जो कर्म के उदय धन होतें भी दान नहीं दिया जाय, सो दानान्तराय-कर्म है। जा कर्म के उदय अनेक दिनलों उद्यम करे, पराई सेवा करि परिकौं राजी करै, अपनी चतुरतातें सर्वकों प्रसन्न रास अनेक उपाय दीप, उदधि, फिरि व्यापारादि कर तौ भी लाभ नहीं होय, सो लाभान्तराय-कर्म है। जा कर्म के उदय से वस्तु भोगी नहीं जाय, आपका चित्त अपने घर में अनेक शुभ वस्तु देख भोग्या चाहे है, परन्तु भोगि नहीं सके, सो भोगअन्तरायकर्म है। जा कर्म के उदय घर में अनेक उपभोग योग्य वस्तु हैं बिस्तर, हाथी, घोटक, रतन, आभूषन, मन्दिर, स्त्री, रथादि अनेक हैं; परन्तु भोगि नहीं सके, सो उपभोगान्तराय-कर्म है। जा कर्म के उदय अनेक भेषजादि यतन करना, नाना प्रकार षट्रस भोजन करना तो भी तन में पुरुषार्थ पराक्रम नहीं होय, सो वोर्यान्तराय-कर्म है। इति अन्तराय-कर्म। ऐसे अष्टमल कर्म को एक-सौ अड़तालीस (१४८) उत्तर प्रकृति कहीं आगे घाति अघाति कहैं हैं। तहो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय-रा चारि कर्म घातिया हैं, तिनको प्रकृति सैंतालीस हैं। वेदनोय, आयु, नाम, गोत्र--रा चारि कर्म अधातिया हैं। इनकी प्रकृति एकसौ एक हैं तहाँ । घातिया के भेद दोय हैं। एक तो देशघातिया,एक सर्वचातिया । तहाँ केवलज्ञानावरणीय बिना चारि तौ ज्ञानावरतीय, तीन दर्शनावरणीय, अन्तराय पांव, हास्यादि नव, संज्वलन की चारि और सम्यक प्रकृति-- छब्बीस प्रकृति देश धातिया हैं और केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरसोय, निद्रा पांच, अनन्तानुबन्धी चारि, अप्रत्याख्यान चारि,
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प्रत्याख्यान चारि, मिथ्यात्व और सम्मानिध्यात्व-ए सर्व इक्कीस सर्वघाती हैं। जे अपने घातवें योग्य जै गुस तिनकौं सर्व प्रकार नहीं घात सके। एकोदेश घातै, सो तौ देशघातिया कहिये और जे अपने घातवें योग्य पुरा तिपय सलार वात, सो सर्व घातिया कहिये हैं। ऐसे घातिया के दोय भेद कहे आगे जीवविपाकी, पुदगलविपाकी, भवविपाकी, क्षेत्र वियाको इन सबका स्वरूप कहिए है। तहाँ प्रथम ही पुद्गलविपाकी है, सौ कहिए है। शरीर पांच, अंगोपांग तीन, संहनन षट्, संस्थान षट,वर्ण चतुष्ककी बीस. स्थिर, उद्योत, बातम, निर्माण, अस्थिर, अगुरुलघु, अशुभ, साधारण, प्रत्येक, अपघात, शुभ, परघात-ए बासठि प्रकृति हैं, सो तो पुदगलवियाको हैं। इन सर्व का उदय शरीर स्कन्ध ऊपर ही होय है। जीव में इनका बल नाहीं। ताते पुद्गलविपाको कही हैं। इति पुद्गलविपाकी। आगे जीवविपाकी कहिये है। तहाँ घातिया की सैंतालीस, गोत्र की दोय, वेदनीय को दोय, जाति पाँच, चाल दोय, गति च्यारि, तीर्थकर उच्छवास पाप्ति-वपर्याप्ति, प्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, सुभग, दुर्भग, यशस्कीर्ति, अयशस्कीर्ति-ऐसे अठत्तरि प्रकृति अपना उदय जीव पै करि सुख-दुख कर हैं। तातै इनकों जीवविपाकी कहिए। इति जीवविपाकी। आगे क्षेत्रविपाकी। आनपूर्वी च्यारिश अपने योग्य अन्तराल का क्षेत्र तामें इनका ही उदय होय है। भावार्थ----जो जीव वर्तमान शरीर तजिक वक्रगति सहित अन्य पर्याय में उपजनेकौं जाय तब अन्तराल में कार्मण अवस्था के क्षेत्र विर्षे आनुपूर्वी का उदय होय है। इति क्षेत्रविषाकी। आगे भवविपाकी। आगे च्यारि आयुकर्मन का उदय अपने-अपने भव विर्षे हो होय है। तातै च्यारि आयु मवविपाकी जानना । इति मवविपाकी। रोसे पुद्गलविपाकी बासठि, जीववियाकी अठत्तर, क्षेत्रवियाकी च्यारि, भवविपाको च्यारि, ऐसे ए सर्व एकसौ अड़तालीस हैं । १४५। ऐसे कहे जो ए अष्टमूल कर्म सो द्रव्यकम है। र सर्व द्रव्यकर्म एद्धगलन के स्कन्ध जानना। सो इन अकर्मन करि समस्त संसारी जीव बंधे हैं। सो जीवराशि दोय प्रकार हैं। एकतौ संसारी एक मोक्षजीव । तिनमें संसारीन के दोय भेद हैं। एक भव्य एक अभव्य । तहाँ अभव्य राशि, अरु भव्य राशि अनन्सानन्त गुणे जीव और दूरमध्य, अभव्य, समानि कबहूं मोक्ष योग्य नाहीं तथा और भी केते मिध्यादृष्टि जीव मोहराग के जोर सो कम सोकलान (जंजीर) बधे मोहना के बन्दी खाने पड़े हैं सो मिथ्यात्व योग्य बंधानते
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| कबहुं नाहीं छूट। रीसे अनादि मिथ्यात्वधारी जीव अनन्त हैं। इनमें कोई जोव मोक्ष जावे योग्य है, ते कारण | पाय मोक्ष होय, सो रातौ संसारी राशि कही। अरु निकटभव्य जीव जो सासादन दूसरे गुणस्थान ते लगाय
अयोगी गुणस्थान पर्यंत है, सो यह मोक्षजीव हैं । र सर्व मोत जावे योग्य हैं। इनमें यथायोग्य कर्मन का सम्बन्ध है। कोई कर्म बन्ध करने योग्य हैं। इन जोवन पै द्रव्य-कर्म का बन्ध पाइये है। सर्व अष्टकर्म की प्रकृति एकसौ अड़तालीस हैं। तिनमें बंध थोग्य एकसौ बीस हैं। बाकी बठाईस इनकी इनही में गमित करी हैं। वचितष्क की बोस थीं सो च्यारि ही मूल राखी, उत्तर भेद तिनके सोलह सो तिन च्यारि में ही गर्मित किये और पंच बंधन, पंच संघात ए दश प्रकृति पंच शरीरन में मिला दई। दर्शनमोह के तीन भेद थे सो दोय भेद एक मिथ्यात में मिलाए। ऐसी वर्ण की सोलह शरीरादिक की दश दर्शनमोह की दोय ! रा सर्व अठाईस एकसौ बीस मैं गर्भित करी। राकसौ बीस राखों सो बंध योग्य प्रकृति नाना जीवापेक्षा एकसौ बोस। तिनको अब गुणस्थानत्व प्रति कहिये हैं। सो मिथ्यात्व गुणस्थान में आहारक द्विक की दोय एक और तीर्थकर ये तीन प्रकृति नहीं बधं हैं। ऊपरिले गुणस्मा-मैं योग्य भास मिलेंगी। मियाल सकौ पारा प्रकृति नाना जीवापेक्षा बंध योग्य हैं और मिथ्यात्व छुटि जब इस जीवकू ऊपरिले गुणस्थान की प्राप्ति होय है । तिनके बंध कहिये है । सो सासादन में ये सोलह प्रकृति का बंध नाहीं। मिथ्यात्व ही में रहै है। तिनके नाम मिथ्यात्व। “नपुंसक वेद" के "नरककात्रिक" । ३. स्फाटिक संहनन, हुंडक संस्थान, जाति च्यारि, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्ति, बाताप, स्थावर–रा सोलह का बन्ध दुसरे सासादन गुणस्थान में नाहीं। तातें सासादन में एकसौ एक का बन्ध है। तीसरे गुणस्थान में दूसरे सासादन से पच्चीस की व्युच्छित्ति करी तिनके नाम । अनन्तानुबन्धी च्यारि, मध्य के संहनन च्यारि, संस्थान मध्य के च्यारि, निद्रामोटी तीन, तिर्यचत्रिककी तीन, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय स्त्रीवेद, नीचगोत्र उद्योतनाम, अशुम चाल-ए पच्चीस तजि तीसरे गुणस्थान छिहन्तरि लेय आया यहां देव और मनुष्य आयु ये दो का बन्ध भी नाहों चौहत्तरि का बन्ध तोजे गुणस्थान है। यहां व्युच्छित्ति नाही राही चौहत्तरि लेष चौथे गुणस्थान आय तहाँ-तहाँ देवायु मनुष्यायु तीर्थकर, र तीन यहाँ मिली तब सर्व मिल सतेतरि का बन्ध चौथे गुसस्थान में है। तहाँ दश को न्युच्छित्ति तिनके नाम 1 अप्रत्याख्यान को च्यारि मनुष्यात्रिक प्रौदारिक
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शरीर, औदारिक अंगोपांग, बनवृषभनाराच संहनन, इन दश को व्युच्छित्ति करि सड़सठि का बंधलेय पंचम गुणस्थान में आया। तहाँ प्रत्याख्यान की चौकड़ी को व्युच्छित्ति करि तिरेसठि लेय छठे गुणस्थान में जाया। यहां प्रमत्त में सठि का बन्ध है। यहाँ षट् को व्युच्छित्ति तिनके नाम अस्थिर, अशुभ, असाता, अयश, अरति. शोकर षट् की व्युध्विति करि सत्तावन लेघ सात गुणस्थान गर तहां आहारक द्विक मिल्या तब गुरासठि का बन्ध अप्रमत्त में। तहाँ देवायु को श्रुच्छित्ति । अडरावन लेय पाठ में गुरास्थान आया 1 तहाँ छत्तीस प्रकृति की व्युच्छित्ति तहाँ सात भाग। सो प्रथम भाग में निद्रा, प्रचला र दोय की व्युच्छित्ति और चार भाग में व्युच्छित्ति नाहां। छठे भाग में तीसको व्युच्छित्ति। तहाँ अगुरुलघ, उच्छवास. अपघात और परघात--रा च्यारि अगुरुलघु चतुष्ककी हैं। तीर्थकर, निर्माण, पर्याप्त, प्रत्येक, त्रस, बादर, सुस्वर, शुम, स्थिर, जादेय दो, सुभग दो, वर्गचतुष्कको दो, च्यारि पंचेन्द्रिय दो, समचतुरस-संस्थान दो, शुभचाल दो, देवगति दो, देवगत्यानुपूर्वी दो, वेक्रियिक अंगोपांग दो, आहारक अंगोपांग एक, वैक्रियिक शरीर दो, आहारक शरीर तैजस शरीर कार्मस शरीर दो, ऐसे ए तीस प्रकृति को छठे भाग में व्युच्छित्ति । अरु सातवें भाग में हास्य, रति, भय, जुगुप्सा-रा च्यारि, र सर्व सातही भाग की छत्तीस को अष्ठम् में व्युधित्ति करि नवम् में गये तहाँ बा इसका बन्ध है इहाँ संज्वलन की चौंकड़ो की च्यारि, पुरुषवेद, इन पंचन को व्युच्छित्ति अनिवृत्त में करि सत्तरा प्रकृतिन का बन्ध दश में लेय गया। तहां सोलह की व्युच्छित्ति। ज्ञानावरगी को पांच, अन्तराय पाँच, दर्शनावरण च्यारि, उच्चगोत्र, यशस्कोर्ति, इन सोलह की व्युच्छित्ति दश में गुणस्थान में करि । एक सातावेदनीय रही। सो ग्यारह में, बारह में, तेरह में-इन तीन गुणस्थान में एक साता का बन्ध है। तेरह में तें चौदह में गये सब साता की || व्युच्छित्ति, तेरह में करि चौदहवेंगुणस्थान गया। तहा बन्ध नाहीं। यह कर्म बन्ध सयोग गुणस्थानवर्ती भगवान कह्या है। सो योगन के निमित्तपाय सातावेदनीय का उपचार करि बन्ध कह्या है। सो बन्ध स्थिति-अनुभाग रहित है। परन्तु निमित्त के सद्भाव होते प्रकृति प्रदेश बन्ध है। सो आत्माकों सुख-दुखकारी नाहों। सुखदुखदायक तौ स्थिति-अनुभाग है । सो मोह के अभावतै कषायन का अभाव है। अस कषायन के प्रभाव से स्थिति अनुभाग-बन्ध का अभाव है तथापि यहाँ योगत्रिक है। तातें योगन के निमित्ततें तैरहवें गुसस्थान ताई
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कर्म का बन्ध काया है। केतक अतत्वश्रद्धानी दीर्घमोह के उदयतें ऐसा माने हैं जो हम सम्यकवन्त है। सो हमारे कर्मबन्ध होता नाही हम अबन्ध हैं। ऐसा उल्टा श्रद्धानकरि कर्मबन्ध के गेटवेत निरुथमी होय,
आपको अशुद्ध का शुद्ध मानि अनेक असंयमक्रियाकरि विषय-कषायन रूप परगति करि, अपना परभव बिगाडें हैं। ताकौ कहिये है। मो विषयन के लोमी! तूं देखि। कमन का बन्ध मुनीश्वरों तें लगाय केवली भगवान् ताई यथायोग्य गुरास्थान ताई पदस्थप्रमाण, समस्त संसारी जीवनकों होय है। जे कर्मरहित जीव हैं तिनके कर्म का बन्ध नाहीं होय है। तातै भो भव्यात्मा! तूं स्वेच्छाचार परिणाम तजिकै जिनदेव-भाषित प्रमाण, सरधान करि, आपका अनादि संचित कर्मबन्ध रूपमलत शुद्ध होयवे का उपाय करि । तात अतीन्द्रिय सुख का मोक्ता होय । ऐसे सयोग केवलीगुणस्थान में एक सातावेदनीय का बन्ध ताकी व्युच्छित्ति करि प्रयोगकेवली होय, अल्पकाल रहकै सिद्धपढ़ पावें हैं। ऐसा सामान्य बन्ध का स्वरूप कह्या । इति बन्ध प्रकरण समाप्तम् । ४।
आगे गुणस्थानप्रति कर्मन का उदय कहिये है। तहाँ बन्ध में मिथ्यात्व एक था 1 यहां दर्शनमोहनीय की तीन जानना, सो एकसौ बीस तौ बन्ध को। सम्यग्मिध्यात्व सम्यकप्रकृति र दोय और बधाई. तब उदय योग्य एकसौ बाईस हैं । १२२ । अब नाना जीव अपेक्षा गुणस्थान कहिये हैं तहाँ मिथ्यात्व में आहारकद्विक को दोय । तीर्थकर सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, र पंच प्रकृति मिध्यात्व में उदययोग्य नाहीं। तारौं प्रथम गुणस्थान में एकसौ सग्रह का उदय है। तहाँ सूक्ष्म, साधारण, अपाप्ति, जातप और मिथ्यात्व-र पंच प्रकृति मिथ्यात्व में व्युच्छित्ति करि एकसौ बारह प्रकृति लेय सासादन में आया । सो यहाँ नरकानुपूर्वी उतारी, तहाँ एकसौ ग्यारह का सासादन मैं उदय । तहां अनन्तानुबन्धी चार, जाति च्यारि । ४ । स्थावर इन नव की ध्धुच्छित्ति करि मिश्रगुणस्थान में एकसौ दोय लेय आया। तीन अानुपूर्वो उतारी तब निन्यानवे रहों। तहाँ एक मिश्रमोहनीय मिली। तहाँ मित्रगुणस्थान में एकसौ प्रकृति का उदय है। तहाँ मिश्रमोहनीय को
व्युच्छित्ति तीजे गुणस्थान करि चौथे गुणस्थान में आया। तहाँ आनुपूर्वी च्यारि सम्यकप्रकृति ए पंच यहाँ मिली | | तब चौथे मैं एकसौ च्यारि का उदय है। इहाँ सत्तरह की व्युच्छित्ति। तिनके नाम-अप्रत्याख्यान । ४ । देवगति
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देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वो, नरक प्राथु, वैक्रियिक, वैक्रियिक अंगोपांग, तिर्यगत्यानु पूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वो. दुर्भग, अयशस्कीर्ति, बनादेव-रा सत्तरह व्युजित्ति करि पंचगुखस्थान में पाया। तहाँ सत्यासी का उदय है। इहाँ बाठ की व्युनिछति, प्रत्याख्यान च्यारि।४। तिर्यंचगति, तिथंचायु, नीचगोत्र उद्योतनाम-ए आठ की व्युच्छित्ति करि पाँचमें तें छठेमें आया। यहाँ आहारकदिक मिले तब इक्यासी का उदय होय हैं। इहां आहारकद्विक की दोय मोटी निद्रा तीन इन पंचन को व्युच्छित्ति छठे में करि सातवें में आया सो आप्रमत्त में छिहत्तरि का उदय है। यहाँ संहनन अन्त के तीन सम्यकप्रकृति, इन ज्यारि ब्युच्छित्ति करि जाठवें मैं आया, सो यहाँ बहत्तर का उदय है। यहाँ षट् हास्यादिक की व्युच्छित्ति करि नववें मैं आया, तो यहां छ्यासठि का उदय है। नवर्वे में तीनवेद, अस्पतन की होम बिनासन, इन पद की व्युब्धिति करि साठि लेय दशवें मैं आया। दश में सूक्ष्मलोभ को ब्युब्धित्ति कटि ग्यारहवें मैं आया. यहाँ गुणसठि का उदय । नाराच, वज्रनाराच, इन दोय की व्युच्छित्ति करि बारहवें में गया। यहां विशेष राता जो नाराच, वज्रनाराच, इन दोय संहनन सहित क्षाधिक श्रेणी नहीं चढ़े है। जो उपशान्त के मार्ग आवै सो उपशम श्रेणीवाला प्राव है। जे जीव क्षायिक श्रेणी चर्दै सो पंच संहनन की व्युन्छित्ति सातवें में ही करें हैं। एक वज्रवृषमनाराचसंहननसहित श्रेणी चढ़ि दशमें ते बारहवें में ही आवै। ग्यारहवें मैं नहीं जाय। ऐसा जानना और इहां उपशम श्रेणीवाले की अपेक्षा ग्यारहवें में नाराच, वज्रनाराक्सहनन की व्युच्छित्ति कही है। प्रथम संहननवाला तो दोऊ श्रेशि चदै है ऐसा जानना। अब ५७ लेय बारहवें मैं आया। तहां ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ६, अन्तराय ५-ए सोलह प्रकृति बारहवें में व्युच्छित्ति करि तैरहवें में आया। तहाँ तीर्थंकर प्रकृति आय मिली वियालीस का उदय सयोग मैं है। तहां तीसकी व्युच्छित्ति-वाचतुष्ककी ४, अगुरुचतुष्ककी ४, संस्थान ६, चाल २, औदारिक १, औदारिक अंगोपांग, तैजस, कार्मण, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर, सुस्वर, दुस्वर, प्रत्येक, निर्माण, वप्रवृषभनाराच संहनन, वेदनीय---य तोस की व्युच्छित्ति तैरहवें मैं करि ग्यारह लेय अयोगगुणस्थान गया। तहाँ चौदहवें में बारह का उदय अरु बारह ही प्रकृति की व्युच्छित्ति पंचेन्द्रिय, पर्यापि, त्रस. बादर, मनुष्यगति, मनुष्यायु, ऊँचगोत्र, यशस्कीर्ति, बादेय, सुभग, तीर्थकर, वेदनीय-इन बारहों ही की चौदहवें मैं व्युच्छित्ति करि, जात्मा अष्टकर्मरहित
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शुद्ध, परमात्मा निरंजन अमूर्तिक इत्यादि गुण प्रगट होय, सिद्धलोकक प्राप्त होय हैं। ऐसे सिद्ध भगवानको हमारा नमस्कार होऊ । ऐसे उदय का सामान्य स्वभाव कह्या । इति उदय ।
आगे सत्ता का स्वरूप संक्षेप से कहिए है। तहाँ सत्ता योग्य प्रकृति एकसौ अड़तालीस हैं। नाना जीव अपेक्षा जहाँ विशेष है सो पहले कहिये है। जो जीव सम्यक् पायकें ऊपरले गुणस्थान में कबई नहीं गया होय, सो ऐसा अनादि मिथ्यादृष्टि, ताके जाहारक चतुष्ककी न्यारि, सम्यकप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और तीर्थकर -- इन सात बिना २४२ की सत्ता है। सादि मिध्यादृष्टिर्के जाके मिश्रमोहनीय की सत्ता होय, ताके १४२ की सत्ता है। जहां मिश्रमोहनीय की सत्ता नाहीं, ताकी जगह सम्यक प्रकृति की सत्ता होय तो भी २४२ को ही सत्ता होय । २४२ तो अगला अरु मिश्रमोहनीय व सम्यकप्रकृति इन दोय की और भए २४३ की सत्ता होय है । जाके तीर्थंकर की सत्ता होय मिश्रमोहनीय का नहीं होय ताके भो १४३ की ही सत्ता होय है । जाके मिश्रमोहनीय व बाहारक चतुष्ककी सत्ता होय ताके २४८ की सत्ता होय। ऐसे सामान्य सत्ता का स्वरूप कहिए है। विशेष भंग इहाँ ग्रन्थ बढ़ने के भय से तथा यह बालबोध ग्रन्थ है सो कठिन होने के भयतें नहीं लिखे हैं। इनका विशेष श्रीगोम्मटसारणी के "कर्मकाण्ड" महाधिकार तामें विशेष सत्ता अधिकार है तहां तैं जानना। ऐसे सत्ता योग्य प्रकृति नाना जीव अपेक्षा २४८ हैं। तहाँ प्रथम गुणस्थान में २४८ को सत्ता है। आहारकद्विक, तीर्थकर इन तीन बिना सासादन में २४५ की सत्ता है। इन तीन प्रकृति की आर्के सत्ता होय, ताके दूसरा गुणस्थान नहीं होय । सो तीसरे गुणस्थान में श्राहारकद्विक आय मिला। तातें मिश्र मैं १४७ की सत्ता भयो। चौथे गुणस्थानमैं तीर्थकर भी मिला, सो चौथे में १४८ की सत्ता है। यहाँ चौथे गुणस्थान में नरकायु की व्युच्छित्ति कर पांचवें गुरुस्थान आया। भावार्थ -- जाके नरकायु की सत्ता होय ताके पंचम गुणस्थान नहीं होय, तातें पांचवें में १४७ की सत्ता है । जाके तिर्थं चायु की सत्ता होय तिनको महाव्रत नहीं होय, तातै तिर्यचायु की व्युच्छित्ति पांचवें में करि छठे में आया। सहाँ प्रमत्त में २४६ की सत्ता है । इहां व्युच्छित्ति नाहीं। आगे जे जीव उपशम श्रेणी चढ़ें तार्के ग्यारहवें गुणस्थान लूं २४६ की सत्ता होय है, आगे गमन नाहीं । क्षायिक श्रेणी चढ़नेवाला जीव सप्तम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी की ४, दर्शनमोहनीय की ३, देवायु—इन आउन की व्युच्छित्ति अप्रमत्तमैं करि
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एकसौ अड़तीस लेय अष्टम् में आया, इहाँ ट्युच्छित्ति नाहीं। अरु ३५ लय नवम्मैं गया। तहा नवम् में ठ्युच्छित्ति तिनके नाम-प्रत्याख्यान ४.. अप्रत्याख्यान ४, लोभ बिना संज्वलन की ३, हास्यादि :--- मोह को २० दर्शनावरणीय की मोटीनिद्रा३ और नामकर्म की जाति ४ नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी तिर्यचगति, ] तिर्यंचगत्यानुग मा साधापा, सपा यावर --मोहई नाम-कर्म की सर्व मिलि छत्तीस भई। श नवमें मैं प्युब्धिति करि दश में आया। इहां एकसौ दोय को सत्ता है। तहां सक्ष्म लोम की ट्युच्छित्ति करि बारहवें मैं आया। तहां २०३ को सत्ता है। सो इहां ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय की षट्, अन्तराय की पाँच–रा सोलह की व्युन्छित्ति करि बारहवेंतें पच्यासी लेयके तेरहवें में गया। तहां व्युच्छित्ति नाहीं। पच्यासी लेय चौदहवें में गया। तहाँ पच्यासी की सत्ता अस यहाँ ही उनकी व्युच्छित्ति सो चौदहवें गुणस्थान के अन्त के दोय समय में पच्यासी की व्युच्छित्ति। सो प्रथम समयमै बहत्तरि, चरम समय में तैरा। सो प्रथम समय बहत्तरि तिनके नाम-वेदनीय गोत्र की एक नीचगोत्र, वर्णचतुष्ककी २०, संस्थान ६, संहनन शरीर ५, बन्धन ५, संघात ५, अंगोपांग ३, चाल २, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, अशुरुलघु, निर्माण, उच्छवास, अपघात, परघात, उद्योत, प्रत्येक स्वरदुकको दोय, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर, दुर्भग, अनादेय, अयश-ए सर्व मिलि ७२ जामना । ए तौ चौदहवें गुणस्थान का सर्व काल पुरण होते दोय समय बाकी रहे तहाँ ताई तो व्युच्छित्ति नाहीं । अरु दुचरम समय में इन बहत्तरि को व्युच्छित्ति करी। अब अन्त के समयमै व्युच्छित्ति-पंचेन्द्रिय, पर्याप्ति, स, बादर, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्याधु, ऊँचगोत्र, यशस्कीति, आदेय, सुभग, तीर्थङ्कर, वेदनीय—ए तेरा प्रकृति चरम समय ट्युच्छित्ति करि जीव सिद्ध होय है । ऐसे अयोग गुणस्थान में पच्यासी कर्म प्रकृतिन को व्युच्छित्ति करि सर्व कर्मरज-रहित शुद्ध निरंजन अमूर्ति सिद्ध परमात्मा होय हैं। ऐसे शुद्ध आत्माकों बारम्बार नमस्कार होऊ। ऐसे यह पुदगल द्रव्य संसारी जीवन के रागद्वेष परणाम करि झानावरसादि
अष्टकर्मरूप होय जीवन के बन्ध उदय सत्ता रूप होय नर नारकादि अनेक गतिनमैं भ्रमण करावें हैं। । इति श्री सुदृष्टितरङ्गिणीनामग्रन्थमध्ये अजीवतत्त्व द्रव्य कर्म पुद्गलीक तिनका बन्ध, उदय, सत्तारूप परिणमन शक्ति सहित
कथन वर्णनो नाम पंचमपर्व सम्पूर्णम् ॥ ५ ॥
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अथानन्तर मोहो जीवनकजसे द्रव्य कर्म नबाव है तेसे ही नावें हैं। जैसे बाजीगर दण्डकरि बन्दरकों | अनेक बार नचावै है। तैसे ही सारी जीवनकों का बागा महारणी दर स बार नचावै है तथा || जैसे-कोई नट धन के लोभ से अपने एक तनके अनेक स्वांग धरि, लोकन कू दिखाय आश्चर्य उपजावे।
कबहूं राजा का स्वाग धरै, कबहूं रंक का, कबहूं स्त्री, कबहूं नर, कबाहूं सिंह, कबहू बकरी, कबहूं सर्प आदि अनेक स्वाँग अपने तन के ऊपरला खलका रूपी वस्त्र ताक फेरि-फेरि स्वाँग बदलि-बदलि तमाशगोरिको हर्षविषाद उपजावै है । तैसे ही यह जीवरूपी नट अपने कर्मजनित शरीर का आवरण ताको पलटि-पलटि अनेक स्वाँगकरि नाँचै है। अनेक स्वाँगधरि जगत् मैं नृत्य करता गमन करे है सो या जीव के गमन करने के मार्ग चौदह हैं। इनही चतुर्दश मार्गन में अनादि काल का जीव गमन कर है। सोही मार्ग बताइए हैं। माथा
गई इन्दियं च काये, जोए बेए कसाय पाणेया । संजम दंस लेस्सा, भविमा सम्मत सन्णि आहारे । गति ४, इन्द्रिय ५, काय ६, योग १५, वेद ३, कषाय २५, ज्ञान ८. संयम ७, दर्शन, लेश्या ६, भव्यअभव्य । मार्गणा, सम्यक ६, संझी २ और आहार २ ऐसे चौदह भेद मार्गणा हैं। अब इनका सामान्य अर्थ लिखिए है। तहाँ गति नाम-कर्म के उदय गति सम्बन्धी शरीरन के आकार धरना सो गति है। इन्द्रिय नाम-कर्म के उदयतें जेती इन्द्रिय अपने शरीर योग्य इन्द्रियन के आकार होंय सो इन्द्रिय मार्गणा है। सस्थावर नाम-कर्म के उदय करि त्रस और स्थावर पर्याय में जन्म लेना सो काय है। नोइन्द्रिय-कर्म के बलते अष्टपांखड़ी का कमलाकार द्रव्यमन के निमित्त आत्मा के प्रदेशन का चंचल होना सो मनोयोग है। स्वर कर्म के उदय वचन बोलने का क्षय, उपशम होना ताके निमित्त पाय आत्मा के प्रदेशन का चंचल होना सो वचन योग है। पंच प्रकार शरीर के उदयतें यथायोग्य काय का निमित्त पाय, आत्मा के प्रदेशन का चंचल होना सो काय योग है। ऐसे योग हैं। वेद-कर्म के उदय से स्त्री को चाहि तथा पुरुष को चाहि तथा स्त्री-पुरुष की थुगपत चाहि इत्यादि भाव सी वेद है। चारित्रमोह के उदय क्रोध-मानादिक कषाय रुप होना, सो कषाय है। जाकरि आत्मा स्वपर पदार्थनकौं जानें, सो ज्ञान है। मोह के तीव्र उदय करि विषयन में मोहित होय, दया विष प्रमादी होय प्रवर्तना सो असंयम है। अप्रत्यक्ष ज्ञान के उदय सहित आत्मा का वाताव्रत रूप युगवत प्रवर्तना, सो देश संयम है। सर्व
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सावारहित क्रिया रूप प्रवर्तन, सो सकल संगम है। ताके पंच भेद हैं। दर्शनावरणीय के प्रयोपशमतें स्वपर के देखने की शक्ति सौ दर्शन है। कषायनमें रजायमान योग सो लक्ष्या है। मोक्ष होने योग्य सम्यदर्शनादि सामग्री प्रकट होने की नाहीं, सो अभव्य है। मोक्ष होने योग्य रत्नत्रयादि सामग्री प्रगट होय तार्के, सी भव्य है। ता भव्य के तीन मैद हैं। जीव अजीव तत्वन का भले प्रकार जानपना दृढ श्रद्धान सो सम्यक्त्व है । सो तस्व श्रद्धान तथा तस्य श्रद्धान करि घट् भेद रूप है। मन का समीपम होने योग्य तथा मन का समीपम नहीं होने योग्य ऐसी की सही नाम है। दारिक, वैनिधिक आहारक इन तीन शरीर खप पुद्गल ग्रहण सो बाहारक है। कार्मश अन्तराल में हम तीन शरीर का ग्रहस नाहीं, सो जनाहारक है। ऐसे जीव के आवागमन करने के चौदह मार्ग कहे और भी जीव के गमन के स्थान हैं, सो कहिए हैं
गामागुन जीवा पज्जती, पाना सराणा मंग्गण मोद। उपमोगोविध कनहो, बीसन्तु परवना मणिदा ॥
अर्थ-तहाँ गुणस्थान जीव समास पर्याप्त प्राप्त संज्ञा चौदह भार्ग सा उपयोग ऐसे इस गाथा में बोस प्ररूपणा जानना । अब सामान्य अर्थ-तहां प्रथम गुणस्थान का सामान्य अर्थ -तहां दर्शनमोह ३, अनन्तानुबन्धी ४ इन सात कर्म प्रकृतिन के उदय जीवकों तत्त्व श्रद्धान भाव का होना ताकरि पंच प्रकार मिथ्यात्वरूप रहना सो मिथ्यात्व गुणस्थान है। इसके होतें जेते गुरु होय सो मिध्यात्व गुरु है। तार्ते माका माम मिध्यात्व गुणस्थान है। प्रथमोपशम सम्धकधारी अपने योग्य जन्तर्मुहूर्त काल पूरा करते, उत्कृष्टपने छः बावली काल बाकी रहतें अनन्तानुबन्धो व्यारिमैं ते कोई एक कषाय का उदय होतें मिथ्यात्व रहित अनन्तानुबन्धी सहित होय सो सासादन सम्यक कहावे है। सो मह सासादन मिथ्यात्व समानि गुण को धरें हैं। जैसे हर भोजन करि पीछे वमन करिए ताका लेश रह जाय अल्पकाल क्षीर का स्वाद रहे पीछे जाता रहेगा। जैसे ही सम्यक पाय कैं ताक वमन कहिए तजि मिथ्यात्वका जावै है । सम्यक काल है तारौं सम्यक का है । तातें सासादन सम्यक है। मिश्रमोह के उदयतें मिश्र श्रद्धान होय है। जैसे मिश्री अरु दही मिलाके खाये वाटामिष्ट स्वाद दोऊ एकै काल बावै । तैसे ही मिथ्यात्व जरु सम्यक इन दोऊ रूप एक श्रद्धान होय है ताते याका नाम मिश्रगुणस्थान है। दर्शनमोह को तोम अनन्तानुबन्धी च्यारि इन सातन के क्षयोपशमतें भया जो जात्मा क्टू
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द्रव्य नव पदार्थ पंचास्तिकाय इनके गुरु पर्यायन का यथावत् श्रद्धान का अनुभव सो ही सांचो दृष्टि यही सम्यक कहिय। यह चारित्रमोह के उदय संयम नहीं धर सकै सो असंयमी है। तातें अव्रत सम्यग्दृष्टि कहा है। तहों ।। 'म्रस हिंसा का त्याग सो तो व्रत है। पंच स्थावरन में व्रत करना तो है परन्तु सर्व प्रकार हिंसा बचती नाही निमित्त पाय स्थावर हिंसा होय है तात स्थावर हिंसा का त्याग नाहीं। मन और इन्द्रिय वश रहती नाहीं । तात ग्यारह बव्रत हैं तातें इस पंचम गुणस्थान में व्रत अव्रत दोऊ है। तात याका नाम प्रतावत है तथा अल्प व्रत के योगत देशव्रत भी नाम है। तहां प्रत्यास्थान के प्रभावत सकल संयम भया ताके सो एकाग्र ध्यान का अवलम्बन छुटि किंचिद् प्रमाद के वश करि पाहार विहार उपदेशादि रूप क्रिया वचन इत्यादिक रूप प्रवृत्ति होना सो प्रमत्त छठा गुणस्थान है। तहां विहार उपदेशादि क्रिया रहित ध्यानावलम्बी योगीश्वर ताको प्रमादरहित अप्रमत्त गुरगधारी कहिए। तहाँ कारण होने के निमित्त पाय परिणामन को महा विशुद्ध ताके योगते समय-समय अनन्त गुणी विशुद्धता लिये समय-समय असंख्यात गुखी निर्जरा कर्मन की होय सो अपूर्वकरण अष्टम गुणस्थान कहिये। याहोर्ते अधिक विशुद्धता लिये हास्यादिक नो कषाय के रस रहित अपने गुरु योग्य काल एक रूप वर्तना अनेक जीवन को एक-सी विशुद्धता होनी और रूप नाहीं होनी सौ अनिवृत्तकरण है। अल्प मोह के अंशनि का सदुभाव और सकल मोह का अभाव सहित निराकुल सुख का स्थान, सो सूक्ष्मसाम्पराय दशमी गुणस्थान है । सकल मोह के उपशम भावतें आत्मा के प्रदेश बडोल-निराकुल सुखमयो स्थाच्यात चारित्र का स्थान, उपशान्त मोह नाम ग्यारहमा गुणस्थान है। सकल मोह के क्षय भावतें प्रगट होय महासुख स्थान, केवलज्ञान का निकटवर्ती सो क्षीण-मोह बारहमा गुरास्थान है। च्यारि शतिया कर्मरहित अनन्त चतुष्टय सहित केवलज्ञानी सकल सिद्ध भगवान, रागद्वेष कषायरहित मन-वचन-काय योग सहित सो सयोग गुणस्थान है। इहां भव्य जीवन के सम्बोधन निमित्त वचनप्राण की शक्ति सहित, वचनयोग के निमित्त पाय वचन का उपदेशरूप खिरना, ताकौ सुनि भव्य ताकौं शिव सुख मार्ग बतावनेक दिव्य-ध्वनि करि उपदेश करते, काय प्रारण के जोरतें | गि | काययोगते जनेक देशन में विहार कर्म करते, समोशरण सहित विचरै, सो तेरहर्मा गुणस्थान है। सो याहीणी गुणस्थान विर्षे अन्तर्महर्त बाकी रहै, केईक केवलीन के समुद्रात होय है। सो समुद्घात के भेद सात हैं। सो !!
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यहाँ केवल समुद्घात का निमित्त पाय समुद्रात का स्वरूप कहिये हैं। सो प्रथम ही नाम कहिए है वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तेजस, आहारक, केवल–ए सात तो समुद्घात हैं। एक भेद उत्पाद रोसे र आठ भेद हैं। अब इसका संक्षेप स्वरूप लिखिए है। तहाँ महावैदना के योगत आत्मा के प्रदेश शरीर के बाहिर निकसना, सो वेदना समुद्यात है। सो बात, पित्त, ताप, पेट, नेत्र, क्रिमि इत्यादिक अनेक रोग सहित, कोई जीव के तौहानगर एक देवा, केस दीमिरीन प्रदेश इत्यादिक अनेक जीवन सम्बन्धी एक-एक प्रदेश बधते असंख्यात प्रदेश वधते भेद वधैं हैं। सो उत्कृष्टपने मल शरीरतें नव गुरो भये और शरीर प्रमाण ऊँचे ऐसे आत्माको तीव्र वेदना होय तौ मारे वेदना के शरीरको छोड़ि प्रदेश बाहिर निकसैं हैं। सो इस वेदनासमुद्घातवाले वनस्पति जीव तीन अशुभलेश्या सहित अनन्त हैं। वायु, तेज, अप, पृथ्वी-इन च्यारि स्थावरन मैं तीन अशुभलेश्या सहित जीव असंख्याते हैं। इनका क्षेत्र तीन लोक है सो इसमैं ऐसा कोई प्रदेश क्षेत्र नहीं बच्या है जहाँ इस आत्मा नै अनन्त-अनन्त वार महादुख भावन करि वेदना समुद्रात ते क्षेत्र नहीं स्पशा सो सर्वदेश प्रदेशनि विर्षे वेदना भोगी है। सो पाप परिणति का फल जानना। इति वेदना समुद्रात ।
आगे कषाय समुद्घात का स्वरूप लिखिये है । तहां क्रोधादिक तोत्र कषाय के निमित्त पाय आत्मा के प्रदेश, मूल शरीर निकसैं तो एक प्रदेश, कोई के दीय प्रदेश, तीन प्रदेश आदि एक-एक प्रदेश बधत मूलशरीर तिगुणे निकसैं हैं। ऊँचे शरीर प्रमाण निकसैं सो घन रूप करिए तौ मल-शरीरतें नव गुणे होय सो इस कषाय समुद्घातवाले अशुभ तीन लेश्यावाले वनस्पतिमैं अनन्त हैं और वायु, तेज, अप, पृथ्वी-इन च्यारि स्थावरन में असंख्यात हैं। भावार्थ--इस लोक मात्र प्रदेशन में कोई एक प्रदेश नहीं रह्या जहाँ । अनेक बार कषाय समुद्घाततै क्षेत्र नहीं स्पर्शा । याने सर्वलोक प्रदेशन पै कषाय समुद्घात किए हैं। सो अशुभ फल का उदय जानना । इति कषाय समुद्घात । २।
आगे मारणान्तिक समुदुधात का स्वरूप लिखिये है.---मारणान्तिक समुद्घातवाले जीव तीन अशुभ- . लेश्या सहित तिनका क्षेत्र सर्व लोक है। तहां जो जीव मरण के अन्तर्महर्त पहले अपने शरीरमैं तिष्ठता ही आत्मा प्रदेशन • बधायक अपने उपजने के स्थान क्षेत्र कू जाय स्पर्श पोछे माय मूल शरीर में समाहि पीछे
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मरै । सो पहले तहाँ ताँई आत्म प्रदेशन की डोरो पति रूप विस्तारै सो मारणान्तिक समुद्घात है। भावार्थतीन लोक क्षेत्र विषै ऐसा प्रदेश क्षेत्र नाहीं, जहां इस आत्मा ने अनन्त बार मारशान्तिक समुद्घात करि प्रवेश नाहीं स्पर्शा । सर्व आकाश क्षेत्रन में मारणान्तिक समुद्घात करें है। सो पाप के उदय का फल है । इति मारखान्तिक समुद्घात | ३|
ऐसे वेदना कषाय मारणान्तिक इन तीन समुद्घात सहित अशुभ तीन लेश्या सहित जोव वनस्पति में अनन्ते और स्थावर आदि स्थानमैं असंख्याते व मनुष्यन में संख्याते हैं। ऐसे तीन अशुभ लेश्या में समुदघात कला । शुभ तीन लैश्यान में समुद्धात कहिए है। तहां कषाय समुद्घात विषै तथा वेदना समुद्रघात विषै तो ! काप्रमाणे अशुभ या में कहि आए। मूल शरीरतें नवगुणे चौड़े शरीर प्रमाण ऊँचे ताही प्रमाण जानना | मारणान्तिक समुद्र्यात विषै पोत लेश्यावाले भवनत्रिक तथा सौधर्म ईशानवाले देव विहार कर कोई निमित्त पाय तीसरी नारकी पृथ्वी पर्यन्त जांय अरु तहाँ हो आयु अन्त होय मरण करें, सो जीव आठमी मोक्षशिला में बादर पृथ्वी काय में उपजैं। सो अपने अशुभ भावन की उपार्जना तैं सो जीव नव राजू क्षेत्र पर्यन्त आत्म प्रदेशको बधाय अपने उपजने का क्षेत्र स्पर्शे है। ऐसा जानना और तेजस समुद्घात में आत्म प्रदेश बारह योजन लम्बे, नव योजन चौड़े और सूच्यांगुल के संख्याते भाग ऊँचे विस्तरें हैं। तहाँ कोई देश में बड़ी वेदना प्रजाक होय तथा कोई देश में महा दुःख इति भोति करि भरचा होय । अरु ताकूं देखि कदाचित ऋद्धिधारी मुनि करुणा उपजै, तौ मुनीश्वर के दाहिने स्कन्धर्ते शुभ तेजस पुतला निकसे सौ बारह योजन चौड़े क्षेत्र ताई के जीवन की सर्व वेदना तत्क्षण मैटि, सर्व प्रजाको सुखी करे है। कदाचित् प्रजा ( देश जोवन ) कैं पाप का उदय श्रावै तौ ऋद्धिधारी मुनिकों को उपजै तौ वा में स्कन्धर्ते अशुभ तैजस निकसै, सो अपने विषय योग्य क्षेत्र भस्म करै । पीछे मुनि के आत्म प्रदेश निकस कोपतें अग्निमयी होय पृथ्वी को क्षय करि, पोछे मुनि के तन में प्रवेश करें, सो मुनि का तन भी भस्म होय । ऐसे तैजस दोय प्रकार है। सो तेजस समुद्घात जानना । इति तेजस समुद्यात ५। आगे आहारक समुद्घात का स्वरूप कहें हैं। तहां आहारक समुद्घात विषै एक जीव अपेक्षा कोई योगीश्वर को तत्वज्ञान विचार में संशय उपजै, तो ऋद्धिधारी मुनिकों ऋद्धियोगर्ते आहारक
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पुतला निकसे सो संख्यात योजन अढ़ाई द्वीप प्रमाण क्षेत्र लम्बे आत्म प्रदेश होय। अरु सूच्यांगुल के संख्यात भाग चौड़े ऊँचे विस्तार धरे हैं। शुक्रलेश्या बिना इन लेश्यान में केवल समुद्घात होता नाहीं। इति आहारक समुद्घात । आगे केवल समुद्रात विशेष कहिय है। शुक्रलेश्या मैं और समुद्रात तो पूर्ववत जानना। केवल समुद्घात का विशेष है। सो कहिये है-तहाँ केवल समुद्घात के च्यारि भेद हैं । दण्ड कपाट प्रतर लोकपूर्ण । तही दण्ड के दोय भेद हैं—एक स्थितिदण्ड एक उपविष्टदण्ड और प्रतर व लोकपूर्ण इनका एक-एक ही भेद है। तहाँ पनासन सहित दण्ड समुद्घात होय सो स्थिति दण्ड समुद्धात है। कायोत्सर्ग आसन सहित दण्ड होय सो उपविष्टदण्ड है। तहाँ स्थितिदण्ड समुद्रात में एक जीव अपेक्षा प्रदेशन का विस्तार--बातबलय बिना लोक की ऊँचाईं प्रमाण है। सो किंचिद् घाटि चौदह राजू प्रमाण तौ लांब होय है। बारह अंगुल प्रमाण चौड़ा गोलाकार प्रदेश हो है। उपविष्ट दण्ड समुद्रात विर्षे लम्बाई तौ पूर्ववत् हो है। चौड़ाई स्थिति दण्डत तिगुशी छत्तीस अंगुल प्रमाण गोलाकार दण्ड हो है। ऐसा तो समुद्घात कह्या। आगे कपाट समुद्घात के च्यारि भेद हैं। पूर्वाभिमुख स्थिति कपाट, उत्तराभिमुख स्थितिकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट. तहाँ उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट पूर्वदिशामुख सहित केवली पद्मासन होघ कपाट करें, सो पूर्वाभिमुख स्थिति कपाट, कहिए। तहाँ इस कपाट मैं आत्मा के प्रदेश वातवलय बिना लोक प्रमाण कछू घाटि चौदह राजू तो लम्बे हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा विष लोक की चौड़ाई प्रमाण सात राज चौड़े हैं। पूर्व-पश्चिम दिशा विष बारह अंगुल मोटाई लिये ऊंचे हैं। ऐसे पूर्वाभिमुख स्थिति कपाट समुद्रात जानना। पूर्वदिशा मुख किरा केवलज्ञानो कायोत्सर्ग जासन सहित कपाट समुद्धात करें, सो पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट समुद्रात कहिए। तहाँ एक जीव अपेक्षा प्रदेशन की लम्बाई कघाटि चौदह राज़ हैं। चौड़ाई सात राज और छत्तीस अंगुल मोटाई प्रमाण प्रदेश ऊँचे हैं। ऐसे पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट समुदुधात है तथा उत्तराभिमुख स्थिति कपाट समुद्घात ताकौ कहिर है, जहाँ उत्तर दिशा मुख किए केवली पद्मासन सहित कपाट समुद्घात करें सो कछूघाटि चौदह राजू लम्बे आत्म प्रदेश होय हैं। पूर्व-पश्चिम दिशा विर्षे अधोलोक नीचे सात राजू आत्म प्रदेश चौड़े होय हैं, अरु ऊपरि क्रमत घटते-बधते मध्यलोक में एक राज मोटे पीछे ऊपरि क्रमतें बढ़ते-बढ़ते ब्रह्म स्वर्ग पर्यन्त पाँच राज, उपरि क्रमत
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घटते-घटते लोक शिखर पैरक राज हैं। ऐसे पूर्व-पश्चिम दिशा में लोक प्रमाण प्रतर होय हैं। उत्तर-दाक्षण दिशा विष बारा अंगुल प्रदेश मोटे जानना। ऐसे उत्तराभिमुख स्थिति कपाट कह्या। आगे उत्तर दिशा को मुख करि कायोत्सर्ग आसन सहित केवलज्ञानी कपाटकरें, सो उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट कहिए। तहाँ आत्म प्रदेशन की लम्बाई तो किंचित् न्यून चौदह राजू है। उत्तराभिमुख स्थिति कपाट की मोटाई का प्रमाण बारह अंगुल है। ताते तिगुणे छत्तीस अंगुल मोटाई आत्म प्रदेश जानना । इति क्याट। आगे प्रतर का स्वरूप कहिये है। तहाँ तीन वातवलय बिना सर्व लोक विष आत्म प्रदेशन का फैलना सोए सर्व क्षेत्र प्रतर समदुधात है और वातवलय सहित सर्व लोक चौदह राण पुरुषाकार में सर्व जगह आत्म प्रदेश फैलें सो लोकपूर्ण समुद्धात है। तात ही एक जीव के प्रदेश लोक प्रमाण कहे हैं। सो ही तत्त्वार्थसूत्र" में कहिर है। फाँकी—“असंवैययाः प्रदेशाः धर्माधर्मेकजीवानाम् ।" याका अर्थ-जो धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य और एक जीव इन तीनूं के प्रदेश असंख्याते हैं तथा लोक प्रमाण हैं। इति सामान्य समुद्घात स्वरूप । गैसें समुद्रातन का सामान्य स्वरूप कह्या! विशेष 'श्रीगोम्मटसारजी' से जानना। तहाँ तेरहवें गुरास्थान में केवल समुद्घात करें ताका विशेष का। सोया विधि केवल समुद्यात करि पीछे समुद्रात मैटि मूल शरीर में सर्व आत्म प्रदेश समाहिक तिष्ठे, सो तेरहवा सयोगकेयली गुणस्थान जानना। अन्तर्महुर्त पोछे अयोग-केवलो गुरास्थान होय। तहाँ मन-वचन-काय योग नाहीं। तातें अयोग चौदहमा गुणस्थान है। पीछे इहाँ लघु पंच अक्षर काल प्रमाण स्थिति करि निर्माण हो है। ऐसे सामान्य भाव बौदह गुरास्थान का स्वरूप कहा। इति गुरणस्थान। आगे जोव समास कहिए है। तहाँ एकेन्द्रिय सूक्ष्म बादर एकेन्द्रिय बेन्द्रिय (दोय इन्द्रिय) तेन्द्रिय चौ इन्द्रिय सैनी असैनी ऐसे सात भये। तिनके पर्याप्ति, अपर्याप्तिकरि चौदह भेद जीव समास है। इनहीं के विशेष मेद एक, दोय, तीन, च्यारि आदि एक-एक बढ़ती उगनीस (उनीस) भेद हो हैं। अड़तीस सन्तावन चारिसौषट भेद भी हैं सो आगे कहेंगे। सो भी इन
चौदह हो में गर्मित हैं। इति जीव समास। आगे पर्याप्ति का स्वरूप कहिये है। तहाँ शरीरादि यथायोग्य १९।। इन्द्रियन का पुद्गलीक आकार होना सो पर्याप्त है। तहाँ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक-इन तीन शरीर
जाति की पुद्गल परमार को ग्रहण करि इन तीन शरीररूप परमाणु परिणमाय केतीक अस्थि चॉम नशा
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मांसादि कठिन अवयव करना सो इनका नाम खलरूप है और केतक परमागूनकौं श्रोणित वोर्यादिक रसभाग शम ताले बवात पाणन बोले नगलन गरिरामाय रस रूप करै। ऐसे अन्तर्महुर्त काल यथायोग्य ताई क्रिया करै, सो आहार पर्याप्ति कहिर है। इन ग्रहे पुद्गल स्कन्धनकौ आत्मा आकर्षण करि शरीररूप कर सो शरीर पर्याग्नि है। इहाँ प्रम-जो तुमने कहा कि आहार पर्याप्ति करते पुद्गल हाड़ मांसादिरूप करै है. सो वैकियिक बाहारक शरीरन मैं हाड़ माँस कैसे सम्भवै ? ताका समाधान—जो पुद्गल तीन शरीर रूप होने योग्य होय ताको आत्मा भाकर्षण करके खलरूप रसरूप करे है। सोसलरूप करै तिनकै तो कठोर अवयव अपने शरीर योग्य बनावै है अरु रसरूप भई तिनके बह चलें ऐसे रसरूप यतले अवयव बने हैं। पोछे अपने-अपने शरीरन के अङ्गोपाङ्गरूप परणमै हैं। तहाँ आहारक वैक्रियिक शरीरनके तौ उन प्रमाण अङ्गोपाङ्ग बने हैं। औदारिक शरीर के औदारिक शरीर प्रमाण अङ्गोपाङ्ग बने हैं। ऐसे अपने-अपने शरीर पदस्थ योग्य घुद्धगल स्कन्धन का परिशमन है। सो सहज ही परणमै हैं। असहाय, बिना यतन परिणामन जानना। ऐसे पाहार पर्याप्ति करि पीछे तिन ग्रहे परमाणु कठोर तथा नरम अव्यवरूप पुटुगलन का शरीररूप बन्धान करना सो शरीर पर्याप्ति है। किया जो शरीर ताके यथायोग्य इन्द्रियन के आकार स्थान के स्थान होना, सो इन्द्रिय पर्याप्ति है। जा शरीर में श्वासोच्छवास लेने के स्थानक होना, सो तिनत पवनको अङ्गीकार करि बाहिरत भीतर लेना पीछे बाहिर काढ़ना। ऐसे पुद्गलीक आकार शरीर में होना, सो श्वासोच्छवास पर्याप्ति है। ऐसे पीछे पिन स्थाननते वचन बोल्या जाय, ऐसे पुद्गलीक आकार शरीर में होना, सो भाषा पर्याप्ति है । हिरदै विर्षे विकल्प करने का आकार तातें शुभाशुभ विचार कीजिए, ऐसा अष्ट पांखड़ी का कमलाकार द्रव्यमन पगलीक स्कन्ध का परिणमन सो मनः पर्याप्ति है। इति पर्याप्ति। आगे प्राणन का संक्षेप स्वरूप कहिरा है। तहां शरीरादि यथायोग्य इन्द्रियन में अपने-अपने विषय ग्रहण की शक्तिरूप परिखमान, सोस कहिए । तहाँ पंचेन्द्रिय अपने विषय में रंजायमान करे, सो जैसे-स्पर्श इन्द्रिय अपने योग्य अष्ट विषय तिनका ! निमित्त मिले सुख-दुख करने की शक्ति सो स्पर्श इन्द्रिय प्राण है। जहां रसना इन्द्रिय अपने योग्य पंच विषय तिनमें रंजायमान करे, सो रसना इन्द्रिय प्राण है। घ्राण इन्द्रिय अपने योग्य दोय विषयन में रंजायमान
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करै, सो घ्राण इन्द्रिय प्राण है और तहाँ चक्षु इन्द्रिय अपने योग्य पंच विषयत में रंजायमान करे, सो चक्षु इन्द्रिय ।। प्रारा है और जहां श्रोत्र इन्द्रिय अपने योग्य विषय में रंजायमान करें, सो श्रोत्र इन्द्रिय प्राण है । ऐसे तौ पंचेन्द्रिय ॥१. प्राण हैं और जहाँ मन विर्षे शुभाशुभ संकल्प-विकल्प करि हर्ष-विषाद उपजावने की शक्ति, सो मनः प्राण है
और वचन बोलने की शक्ति सो वचन प्रारण है और जहाँ काय विर्षे हलन-चलन रूप गमनागमन की शक्ति सो | काय प्राण है और जहाँ शरीर विषं श्वासोच्छवास लेने की शक्ति सो श्वासोच्छवास प्रारा है और जहां अनेक दुख-सवन में माता हारीत शिन्न नहीं होय, सो आयु प्राण है। ऐसे सामान्य दश प्रारण जानना। इति प्राण स्वरूप ।
आगे संज्ञा का स्वरूप सामान्यपने लिलिए है जहाँ वस्तु की इच्छा का क्षयोपशम होय, सो संज्ञा है । जहाँ आहार की इच्छारूप निमित्त सहित क्षयोपशम, सो आहार संज्ञा है और जहां भय का निमित्त मिले भय की इच्छा का क्षयोपशम सो मय संज्ञा है और जहाँ मैथुन की सामग्री सहित इच्छा का क्षयोपशम, सो मैथुन संज्ञा है जौर परिग्रह का निमित्त मिले परिग्रह को इच्छा सहित क्षयोपशम, सो परिग्रह संज्ञा है। ऐसे सामान्य संज्ञा कही। इति संज्ञा। आगे चौदह मार्गणा, तिनका स्वरूप ऊपर कहा है नाममात्र यहां कहिए है। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक, सैनी, आहार-एचौदह मार्गणा हैं। इति मार्गणा : भागे उपयोग-तहां ज्ञानोपयोग आठ प्रकार दर्शनोपयोग च्यारि प्रकार ए दोऊ दर्शनज्ञान-मिलि उपयोगके भेद बारह जानना। इति उपयोग। रोसे सामान्य गुणस्थान मार्गणानि का स्वरूप का। आगे इनहीं गुरुस्थान में मार्गणा लिखने रूप अलाप कहिए है। सो प्रथम हो गुणस्थान में मार्गणादि चौबीस ठाम (स्थान) लगाईये है। तहाँ चौथे गुणस्थान ताई तो गति च्यारि ही हैं। पंचम गुणस्थान में मनुष्य वा तिर्यंचगति है । छठेतें ऊपरिलै गुणस्थानन में एक मनुष्यगति हो जानना। इन्द्रिय मार्गणा-सो प्रथम गुणस्थान तो पंच ही इन्द्रिय धारक जीवन होय है। दूसरेतें लगाय चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त र सर्व स्थान पंचेन्द्रिय सैनीकें होय हैं। कोई आचार्य राकेन्द्रियादि असैनी पर्वन्त जीवनकै सासादन कहैं हैं। ताकी मुख्यता नाहीं जानना । यथायोग्य समझि लैना बहुरि कायमार्गशा--सो प्रथम गुणस्थान तौ षट्काय जोवनक ही जानना। दूसरेतें लगाय चौदहवें ताई र
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स्थान सजीव काय के होंय हैं। जागे योग मार्ग सा-तहाँ प्रथम गुणस्थान में आहारकद्विक बिना योग तैरह हैं और सासादन में भी रा ही तेरह योग हैं और मिश्र में मन के व्यारि, वचन के व्यारि, काय के दोध ऐसे दश योग हैं। असंयत चौथे में आहारकद्विक बिना तेरह योग हैं। पांचवें में नव, छठे में आहारकद्विक सहित ग्यारह योग हैं। सातवें ते लगाय बारहवें पर्यन्त नव योग हैं। तेरहवें में सात योग हैं। चौदहवें में योग नाहीं। आगे वेद - सो प्रथम लगाय नववें गुणस्थान के सवेद भाग पर्यन्त तीनों वेद हैं। आगे वेद नाहीं। आगे कषाय-श्री प्रथम दूसरे कोई पीस हैं। तीसरे चौथे में कषाय इक्कीस हैं। पांचवें में कषाय सत्तरह है। छठे अपूर्वकरण पर्यन्त तैरह कषाय हैं। नववें में सात हैं। दशवें में एक सूक्ष्म लोभ है। जागे कषाय नाहीं । बहुरि अब ज्ञान कहिए हैं। सो प्रथम-दूसरे में तौ तीन कुज्ञान हैं। तीसरे में मिश्र ज्ञान है और चौथे-पांचवें मैं तीन सुज्ञान हैं और प्रमत्त तैं लगाय बारहवें पर्यन्त ज्ञान व्यारि हैं। तेरहवें चौदहवें में एक केवलज्ञान है। आगे संयम कहिए हैं— सो मिध्यात्व तैं असंयत पर्यन्त तो असंयम है और पांचवें में देश संयम एक है। प्रमत्तअप्रमत्त इन दोऊन में सामाधिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि- - तीनि संयम हैं। आठवें नववे में सामाधिक, छेदोपस्थापना ए दोय संयम हैं और दशवें में सूक्ष्म साम्पराय संयम है और ऊपरे एक यथाख्यात ही संयम है। आगे दर्शन कहिए हैं— सो प्रथम तैं तीजे पर्यन्त तौ दोय दर्शन हैं। चौथे तैं लगाय बारहवें पर्यन्त तीन दर्शन हैं : तेरहवें चौदहवें में एक केवलदर्शन है। आगे लेश्या कहिए है— सो चौथे गुणस्थान पर्यन्त तौ षट् लैश्या हैं। पांचवें तें लगा सप्तम पर्यन्त तीन शुभलैश्या हैं। अष्टमतें लगाय तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त एक शुक्कलैश्था है । चौदहवें में लेश्या नाहीं । आगे भव्य कहिय है वहां मोक्ष कबहुँ नहीं जाय, सो अभव्य हैं। मोक्ष जाने योग्य होय सोताको भव्य कहिए सो प्रथम गुणस्थान में तौ भव्य अभव्य दोय हैं और ऊपरले सर्व गुणस्थान भव्य को होय हैं। आगे सम्यत्तव कहिए है। सी मिथ्यात में मिथ्यात सम्यत्तत्र है। सासादन में सासादन सम्यतय है। मिश्र में मिश्र है और असंयततै लगाय अप्रमत्तलौ उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक सम्यत्तत्व है। आठवें तें लगाय ग्यारहवें लूं उपशम और क्षायिक दोय सभ्यत्तव हैं। बारहवें तैं लैय सिद्धन पर्यन्त यक क्षाधिक सम्यक्त्व है। आगे संज्ञो कहें हैं। सो प्रथम गुणस्थान में सैनी असैनी दोऊ । दूसरे तैं लेब बारहवें ला सैनी
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। ही हैं। तेरहवें चौदहवें में दोऊ नाहीं। आगे आहार मार्गणा कहिये हैं। तहां प्रथम दूसरे चौथे इनमें आहारक
अनाहारक दोऊ हैं। मिश्र तीजे में व पांच में एक आहारक है। छडे में आहारक अनाहारक दोऊ हैं। अप्रमत्तते लगाय बारहवें पर्यन्त आहारक है। तेरहवें मैं दोऊ हैं। चौदहवें में अनाहारक है । इति प्रथममार्गाप्ररूपर।
आगे गुणस्थान प्ररूपण-तहां गुणस्थान का स्वरूप अपने-अपने गुणस्थान में स्वकीय गुणस्थान चौदह ही सामान्यवतु जानना। आगे जीव समास गुणस्थान पै लगाइए है। तहां प्रथम गुणस्थान मैं चौदह ही जीवसमास हैं। सासादन, असंयत, प्रमत्त, सयोगकेवली-इन च्यारि गुणस्थानन में पंचेन्द्रिय की पर्याप्ति, अाप्ति ए दोऊ ही जीव समास हैं। बाकी के सर्व गुणस्थानों में एक पंचेन्द्रिय पर्याप्ति जीव समास है। आगे पर्याप्ति कहिए हैं—सो प्रथम गुणस्थानते लगाय चौदहवें पर्यन्त छहाँ पर्याप्तियाँ हैं । आगे प्रारण कहिये हैं सो मिथ्यारव तें लगाय बारहवें गुणस्थान पर्यन्त तौ दश प्राण हैं और तेरहवें के अपर्याप्ति में तो आयु, काय दो प्राण हैं । पर्याप्ति में च्यारि हैं। अयोग में राक आयु प्रारा है। आगे संज्ञा कहैं हैं-तहां संज्ञा च्यारि हैं। सो तहाँ प्रथम तें लगाय प्रमत्त छठे ताई संज्ञा चारौं हैं। सातवें-आठवें गुणस्थान में आहार बिना तीन संज्ञा हैं। नववें में मैथुन परिग्रह दोय संज्ञा हैं। दशवें में एक परिग्रह संज्ञा है। आगे कषायन के अभावते संज्ञा का भी अभाव है। रा संज्ञा हैं, सो कषायन के योगत होय हैं। सो अप्रमत्तमैं ध्यान अवस्थात आहार विहारादि प्रमाद के अभाव ते आहार संज्ञा का अभाव है। भय कषाय के निमित्त त भय संज्ञा उपज है। वेद कषाय त मैथुन संज्ञा होय है। लोभ कषाय के निमित्त पाय परिग्रह संज्ञा होय है। जहां कषाय नाही, तहाँ संज्ञा भी नाहीं। ऐसे संज्ञा जानना। आगे उपयोग बारह हैं-तहाँ मिथ्यात्व, सासादन इन दोऊ गुणस्थानन में दर्शन दोय, कुज्ञान तीन ए पांच उपयोग हैं। मिश्र गुणस्थान में मिश्र ज्ञान तीन, दर्शन दोय ए पांच उपयोग हैं। कोई आचार्य यहां तीन दर्शन भी कहैं हैं। ता अपेत्ता छः उपयोग हैं। चौथे पांचवें में सुज्ञान तीन, दर्शन तीन ए षट उपयोग हैं। छठे ते लगाय बारहवें गुणस्थान पर्यन्त ज्ञानि च्यारि, दर्शन तीन श सात उपयोग हैं। तेरहवें-चौदहवें में केवलझान, केवलदर्शन ए ! दोय उपयोग हैं। ऐसे सामान्य बीस प्ररूपण का स्वरूप कहा। इति बोस प्ररूपणा। आगे ध्यान आसव जाति कुल रा चारि गुणस्थान प्रति लगाईए है
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गाथा -मानावेव महलोड या एक माहानगरः गणिया, कमेण चौबीस ठाणाणी ॥ १३ ॥
अर्थ-ध्यान सोलह. आसव सत्तावन (कषाय २५, योग १५, अव्रत १२, मिथ्यात्व ५-ए सर्व सत्तावन ।। जानना ) सो ध्यान अरु आसवन का स्वरूप आगे कहा है। तातै यहाँ नहीं कह्या वहाँ तें जानना । राकेन्द्रिय | जाति में पृथ्वी, अप, तेज, वायु–साधारण वनस्पति के इतरनिगोद, नित्यनिगोद करि दोय भेद हैं। श षट् स्थावरस को सात-सात लाख जाति हैं। प्रत्येक वनस्पति को दश लाख जाति हैं। बेन्द्रिय (दो इन्द्रिय) तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय-इन तीन की दोय-दोय लाख जाति हैं । देव, तिर्यंच, नारकी-इन तीनन की च्यारि-च्यारि लाख जाति हैं। मनुष्य की चौदह लाख जाति हैं। रा सर्व मिल चौरासी लाख जाति जानना। इति जाति । आगे कुल कहिए हैं। सो पृथ्वी काय के बाईस लाख कोड़ि कुल हैं। अप, वायु इन दोऊ के सात-सात लाख कोडि कुल हैं। तेजस काय के तीन लाख कोड़ि कुल हैं । वनस्पति के प्राइस लाख कोड़ि कुल हैं। बेन्द्रिय के सात लास कोड़ि कुल हैं। तेन्द्रिय के आठ लाख कोड़ि कुल हैं। चौइन्द्रिय के नव लाख कोड़ि कुल हैं । पंचेन्द्रिय के तही जलचर जीय जे जल ही में रहैं तिनके साढ़े बारह लाख कोडि कुल हैं। थलचर जो पृथ्वी पर विचरनेहारे दुपद, चौपद ऐसे जो थलचर हैं, सो इनके बारह लाख कोडि कुल हैं। नम में उड़नेहारे पक्षी सो नभवर हैं, तिनके दहा लाख कोड़ि कुल हैं । जे छाती होते चलें ऐसे सादि जीव, तिनके नव लाख कोड़ि कुल हैं। मनुष्यत के बारह लाख कोड़ि कुल हैं । देवन के छब्बीस लाख कोड़ि कुल हैं। नारकीन के पच्चीस लाख कोड़ि कुल हैं। रा सर्व मिलि एकसौ साढ़े सित्यानबै लाख कोड़ि कुल जानना। ऐसे इस गाथा का सामान्य स्वरूप कहा। अब इन ध्यान पासव, जाति कुल च्यारनको गुणस्थानन पै लगईश हैं। तहाँ प्रथम ध्यानकू कहिर हैं। सो प्रथम-दुसरे गुणस्थान में आर्त-रौद्रध्यान के आठ भेद हैं। तीसरे मिश्र में आर्त-रौद्र के आठ धर्म्यध्यान के एक
आज्ञाधिचय रानव ध्यान हैं। असंयत में पार्त-रौद्र के आठ भेद अरु आज्ञा, अपायविचय श दोय धध्यान के | ऐसे दश भेद हैं और पांचवें में आर्त-रौद्र के आठ स्थानविचय बिना धर्म्यध्यान के तीन सर्व मिल ग्यारह ध्यान है। प्रमत्त में धमध्यान च्यारि आर्तध्यान निदान बन्ध बिना तीन र सात ध्यान हैं। अप्रमत्त में धर्माध्यान के च्यारि भेद हैं। आठ में ते लगाय ग्यारहवें पर्यन्त एक पृथक्त्ववितर्क वीचार नाम शुक्लध्यान है। बारहवें
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गुणस्थान में एकत्ववितर्कवीचार नामा शुसन्ध्यान है और तेरहवें में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नाम शुक्रध्यान है और । चौदहवें में व्युपरतिक्रिया निवति नाम शुक्लध्यान है। इति ध्यान। आगे गुणस्थान प्रति जासव कहिये हैं, पासव
सन्ताक्न हैं तहां मिथ्यात्व में आहारकद्रिक योग बिना पचवन आसव हैं और साखादन में पंच मिथ्यात्व व पाहारकादिक बिना पचास पासव हैं। मिश्र में कषाय इकोस, योग दश, अव्रत बारह सर्व मिलि तियालीस आसव है। जागे चौधे में अव्रत बारह. कषाय इक्कीस, योग तेरह सर्व मिलि छयालीस जासब हैं। पंचम में कषाय महरा, योग नव, अव्रत ग्यारह र सर्व मिलि सैंतीस आसव हैं। प्रमत्त मैं कषाय तैरह, योग ग्यारह रा सर्व मिलि चौबीस आसव हैं। सातवें-आठवें में कषाय तैरह, योग नव मिलि करि बाईस आसव हैं। कषाय सात, योग नव मिलि पासब सोलह नवमें गुणस्थान में हैं। कषाय एक, योग मिलि दश आसव सूक्ष्म साम्पराय मैं हैं । ग्यारहवें-बारहवें में नव योग आसव है। तेरहवं में सात योग आसव हैं और चौदहवें में जासव नाहीं। इति भासव। आगे जाति गुणस्थानधै कहिए हैं। तहां जाति चौरासी लाख हैं, सो प्रथम गुणस्थान मैं तो सर्व जाति हैं। सासादन, मिश्र, असंयत इन तीन में देव, नरक, पंचेन्द्रिय, तिर्यंच, मनुष्य इनकी छब्बीस लाख जाति हैं। पांचवें में मनुष्य तिर्यच सम्बन्धी अठारह लाख जाति हैं। इति जाति। आगे गुणस्थान पै कुल लगाइये हैं। कुल एकसौ साढ़े सत्यागबै लाख कोहि कुल हैं। तहाँ मिथ्यात्व में सर्व कुल हैं। सासादन, मिश्र, असंयत इनमें एकेन्द्रिय बिकलेन्द्रिय सम्बन्धी घटाय एकसौ साढ़े छ लाख कोडि कुल हैं । पंचम गुणस्थान में पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य सम्बन्धी साढ़े पचपन लाख कोडि कुल हैं। प्रमत्त तें लगाय चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त मनुष्य सम्बन्धी बारह लाख कोडि कुल हैं। इति कुल। ऐसे सामान्य गुणस्थानन 4 चौबीस ठाखौं लगाया अब कहे जो रा जीव तिनमैं स्थावरन के पंच भेदन में वनस्पति है। सो वनस्पति जीवन की उत्पत्ति के कारण बीज सो सात प्रकार हैं। सो हो कहिर हैं
गाथा-पाठय मूल पन्चो, कर खन्दोग वीय समुच्छो । यो सत्त पयारो, इक अखो बणप्फदी बीयो ॥१४॥
अर्थ-पल्लव, मूल, पर्व, कन्द, स्कन्ध, बोज, सम्मूचन-श सात भेद वनस्पति उपजने कू बीज समान है। जाकी कोंपल ऊपरित तोडि लगाय लोग, ऐसे हजारी गेंदा की बादि देय केतोक बमस्पति हैं जिनका पल्लव
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लगावै तौ लगे। सो पल्लव बीज कहिरा तथा अप्रबोज कहिए। कैतीक वनस्पति ऐसी हैं। तिनका मूल कहिये
जड़ सो ताकी जड़ को लगाये लागे, ऐसे कदली आदि अनेक वनस्पति ऐसी हैं तिनका मूल ही बीज हैं। मूलतें । हो उपजै, तातें मूल बीज कहिए। केतीक वनस्पति रोसी हैं, तिनकी पोरी ही तै उत्पत्ति है। ताको पोरो लगाय लागै ऐसे साठे [ ईख ] आदि सो इनका बीज पोरी ही है तातें इनक पर्व बीज कहिरा है और केतीक वनस्पति रोसी हैं। तिनका कन्द हो लगाय लागै। सो कन्द ताकौं कहिए है जो भमि हो विर्षे जाकी वृद्धि होय ऐसे आदा, सूरण, जमीकन्द, सकरकन्द, रतालु, पिंडाल आदि इनकी कन्द हो तं उत्पत्ति है। तातें इनको कन्दबीज कहिए है। केतीक वनस्पति रोसी हैं तिनका स्कन्ध जो शाखा सो तिनको छोटी-मोटी शाखा तोड़ि लगाईए तो लागें। ऐसे गुलाब, चमेलो, बमरवैलि आदि वनस्पति सो स्कन्ध बीज हैं। केतीक वनस्पति ऐसी हैं जिनकी उत्पत्ति को कारण बोज हो है, बिना बोज नाहीं होय, ऐसे गेहूँ, तन्दुलादि अन्न र बोज ही तैं उपजे हैं इनका बीज अन्नादि है केतीक वनस्पति ऐसी हैं जिनको उत्पत्तिकों कछु कारन नाही बिना बीज सहज ही उत्पत्ति होय ऐसे घास, डाभ, जड़ो, बूटी आदि सो इनको उत्पत्तिक बीजादि नाहीं, सो सम्मूर्छनयना ही बीज है। ऐसे सात भेदरूप वनस्पति की उत्पत्ति कही। इति सुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्थमध्ये जोवतत्व वर्शन विर्षे चौबीस प्ररूपणा सामान्य गुणस्थान में समुद्घात के लक्षण तथा सात भेद वनस्पति उत्पत्ति इत्यादि कथन वर्शनो नाम षष्ठ यवं सम्पूखम्। आगे गुणस्थान सम्बन्धी जीवन को संख्या कहिए है। तहाँ प्रथम ही मिध्यात्वी जीवन की संख्या कहिये हैगाथा--भावरमिन्छ अरणम्तो, विकलतीय पंचखा सम्बविणसंखा देव असंखाणारय मिच्छण रसं स्वभासयं देव ॥ १५ ॥ ___ अर्थ—अब कहिए है जो स्थावर राकेन्द्रिय मिथ्यात्विन की राशि अनन्त हैं और विकलत्रय मिथ्यादृष्टि राशि असंख्यात हैं। मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात हैं। नारक मिथ्यादृष्टि असंख्यात हैं। मनुष्य मिथ्यादृष्टि संख्यात हैं। ऐसे च्यारिगति सम्बन्धी मिध्यादृष्टिन का प्रमाण कह्या 1 भावार्थ-पांच स्थावर हैं। तिनमें सर्व से थोड़े प्रमागधारी अग्निकायिक जीव जानना। सो भी ऐसे-ऐसे असंख्यात लोकन के जेते प्रदेश होय, तेते अनिकाय जीव हैं। अग्निकायतें असंख्यात अधिक पृथ्वीकायिक जीव हैं। पृथ्वीकायतें. असंख्यात अधिक अपकाय के
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जीव हैं। अपते असंख्यात अधिक वायुकाय के जीवन का प्रमाण है। अग्निकाय के असंख्यातवें भाग घटते ।।
वेन्द्रिय जीव हैं। वेन्द्रियतें असंख्यात घाटि तेन्द्रिय हैं। तेन्द्रिय से असंख्यात घाटि चौइन्द्रिय हैं चौइन्द्रियतें । असंख्यात घाटि पंचेन्द्रिय हैं। ऐसे सर्व से थोड़े पंचेन्द्रिय हैं। तिनमें भी मिथ्यात्वो बहुत हैं पंच हो स्थावर में । सर्व कहे स्थावर तिनतें अनन्त गुरो जीव वनस्पति का प्रमाण जानना। इन पंच स्थावरन में सूक्ष्म जीवराशि
बहुत हैं, बादर थोड़े हैं। काहेतें सो बताइये है कि सूक्ष्म जीवन का क्षेत्र तौ लोक है। सर्व लोक सक्ष्म पंच स्थावरनतें जल घटवत् भर या है। बादर, सहायतै होय है। सो सहाय का क्षेत्र अल्प है। तात सक्ष्म राशि विशेष, बादर राशि थोड़ी रोसा जानना। सो र स्थावर विकलत्रय राशि, रातो सर्व मिथ्यात्व-समुद्र में मगन हो हैं और च्यारि गति सम्बन्धी पंचेन्द्रियन में भी मिथ्यात्व राशि तो बहुत है, अरु सम्यग्दृष्टि थोड़े हैं। सो अगली गाथा में सम्माधि धार गति सम्बनी सासादन मिश्र गुणस्थान अविरत तथा पंचम षष्टम से लगाय चौदहमा गुणस्थानवर्ती जीवन का प्रमाण कहिरा हैं
गाषा-वावण इकसय चउक्को, सत्ताय तिदसय कोडौए । सासा मिस्सा संजय, देस संजाय होयरगर भष्वा ॥ १६॥ . अर्थ—मध्यराशि मनुष्यन में—सासादन गुणस्थानवों मनुष्य बावन कोडि हैं और मिश्र गुणस्थानवर्ती मनुष्य एकसौ च्यारि कोड़ि हैं और असंयत चौथे गुणस्थानवी मनुष्य सात कोड़ि हैं और पंचम गुरास्थानवर्ती मनुष्य तेरह कोड़ि हैं। ऐसे सासादन लगाय पंचम गुणस्थानवर्ती कहे। सो उत्कृष्टपने कहे। इन अधिक नहीं होंय, रोसा जानना। इति मनुष्यन में गुरास्थानवी जीवन का प्रमाण कहा। आगे देव, नारकी, तिर्यंचमैं सासादन, मिश्र, असंयत तिनका प्रमाण, अरु पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंच और छठे गुणस्थान तें लगाय चौदहवें गुणस्थानवर्तो मनुष्यन का प्रमाण कहिए हैगाया-सुरय सुणारय गतयो, सासामिस्सो असंजविण संखा । असंख पसु अणुवरती, पमतादो जो कोहि ति उड़ोय ॥१७॥
अर्थ-देव, नारक, तिर्यच यह असंयत सम्यग्दृष्टि, मिश्र सासादन और तिर्यंच देश संयमी र सर्व प्रत्येक असंख्यात जानना और प्रमत्त ते लगाय अयोगि पर्यन्त जीवन का प्रमाण तीनि घाटि नव कोड़ि जानना। भावार्थ-तीन गति सम्बन्धी सासादन, मिश्र, असंयमो देश संयमी तिनके प्रमाण की अधिक हीनता बताइए है।
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सो सर्व ते बहुत सम्यम्दष्टि देवन में है। सोही दिखाइये हैं। यहां प्रथम युगल में सम्यग्दृष्टि सर्व ते अधिक है। सो असंख्याते हैं । ते सर्व पल्प के असंख्यातवें माम जानना । याही युगल के सम्यग्दृष्टित असंन्यास भाग ह्यांक मिश्र गुसस्थानी है और इन मिश्रनसे संख्यातवें भाग प्रथम युगल के सासादनी है और प्रथम युगल के सासादनी । से दूसरे युगल के सम्यग्दृष्टि असंख्यातवें भाग हैं। दुजे युगल के सम्मादृष्टित असंख्यात माग यहाही के पिख || गुणस्थानी हैं। इन मिश्रनत संख्यातवें भाग इसही दूसरे युगल के सासादनी हैं। दूसरे युगल के सासादनीनतें ।।। असंख्यात भाग तीसरे युगल के सम्यम्दृष्टिन का प्रमाण है। इन सम्यादृष्टिनतें असंख्यात भाग यहों के मित्र हैं। इन मिश्रन संख्यातवें भाग तीसरे युगल के सासादनी है। तीसरे युगल के सासादनीम के असंख्यातवें । भाग बौथे युगल के सम्यग्दृष्टि हैं। इनत असंख्यातवें भाग मिश्र गुणस्थानी है। मिश्रनत संख्यातवें भाग सासादनी हैं। चौथे युगल के सासादनी ते असंख्यात भाग पंचम युगल के सम्पम्दृष्टि हैं। इन सम्यक्त्वोनतें असंख्यातवें भाग ह्यां ही के मिश्र हैं। इन मिश्रन ते संध्यातवें भाग पंचम युगल के सासादनी है । पंचम युगल के सासादनीन ते छठे भाल के सभ्यष्टि असंख्यात गुने धादि हैं। इन सम्यग्दृष्टिनतें असंख्यातवें भाग मिश्र गुणस्थानी हैं । मिश्रनत संस्थातवें भाग ह्या ही के सासादनी हैं और छठे युगल के सासादनीत असंख्यातवें भाग ज्योतिष देवन के सम्यग्दृष्टि हैं । तिनतें असंख्यात भाग मिश्र गुणस्थानी हैं । मिश्रनत संख्यातवें भाग ज्योतिषीन के सासादनी है। ज्योतिषीन के सासादनीनतें असंख्यातवें व्यन्तरन में साम्यग्दृष्टि हैं । खाके सम्यम्दृष्टिनत ! असंख्यात भाग मित्र है। व्यन्तर मिश्रनसे संझ्यात भाग सासादनी व्यन्तर हैं। आगे सासादनी व्यन्तरनते असंख्यातवें भाग भवनवासीनके सम्यग्दृष्टि है । सम्यक्त्वीनतें असंख्यात भाग मिश्र है । मिश्रन संख्यातवें भाग भवनवासी सासादनी हैं । आगे सासादनी भवनवासोन" असंख्यातवें भाग तिर्यजनके सम्यग्दृष्टि है सम्यग्दृष्टिनते असंख्यात भाग मिश्रगुणस्थानी तिर्यंच हैं। मिश्रत सध्यातर्फे भाग सासादनी तिर्यच हैं और सासाचनी नियंचमतें
असंख्यातवें भाग देश-संयमी तिच है और जेते देश-संयमी तिथंच हैं । तितने ही प्रथम नरक में सम्यग्दृष्टि हैं। गि १०८ | इनते असंख्यासवें भाग मिश्रसम्यक्त्वी हैं। इन मिश्रनत संख्यात भाग प्रथम नरक के नारको सासादनीनत
पसंख्यातवें भाग दुसरे नरक के सम्यम्दष्टि है। इनत असंख्यातवें भाग मिश्रसम्यक्त्वी हैं । इन मिसनत
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संख्यातवें भाग दूसरे नरक के सासादनी जीवन का प्रमाण है और दूजी पृथ्वी के सासादनीवते असंख्यातवें भाग तीसरे नरक में सम्यग्दृष्टि हैं। इन सम्यक्त्वोनतें असंख्घारा भाग मिश्र हैं। मिश्रनतें तीसरे नरक के सासादनी संख्या भाग हैं। तीसरे नरक के सासादनीमतें असंख्यातवें भाग चौथे नरक के सम्यग्दृष्टि हैं। इन सम्यक्श्वीमतें असंख्यातवें भाग यहां यहां ही के मिश्र हैं। इन मिश्रन संख्यातवें भाग चौथे नरक के सासादनी । चौथे नरक के सासादनीन के असंख्यातवें भाग पंचम नरक के सम्यग्दृष्टि हैं। इन असंख्यातवें भाग पंचम नरक के मिश्र सम्यक्त्वो हैं। मिश्रन संख्यातवें भाग पंचम नरकके सासादनी हैं। पंचम नरक के सासादनीम जकात भाग छठे नरक के सम्यग्दृष्टि हैं। इनतें ह्याही के मिश्र असंस्थातवें भाग हैं। इन संख्यातवें भा छठे नरक के सासादनी हैं। इन छठे नरक के सासादनीनतें सातवें नरक के सम्पादृष्टि संपात भाग हैं। इन सम्यक्वीन असंख्यातवें भाग ह्यां के मिश्र सम्यक्त्वी हैं। इन सातवें नरक के सासादनी हैं। इहाँ साई षट् युगल भवनत्रिक में, पंचेन्द्रिय तिर्थच मैं सात ही नारकीन मैं सम्यग्दृष्टिनतें असंख्यातवें भाग मिश्र बरु मिश्र संख्या भाग सासादनी, ऐसा अनुक्रम कह्या आगे सातवें युगलतें संख्यात भाग को अनुक्रम लिये जानना। आगे सातवें नरक के सासादनीतें संख्प्रातवें भाग सातवें युगल के सम्यग्दृष्टि देव हैं। सातवें युगल के सम्यक्त्वोनतै संख्यातर्वै भाग ह्यां हो के मिश्र हैं। इन मिश्रन संख्यातवें भाग हैं सातवें युगल के देव सासादनी हैं। सातवें युगल के सासादनीनतें संख्यातवें भाग आठवें युगल में सासादनीन आठवें युगल के सासादनीनतें संख्यातवें भाग प्रथम ग्रैवेयक में सम्यग्दृष्टि हैं। इन संख्यातवें भाग इहां के मिश्र हैं। इन मिश्रन संख्यातवें भाग प्रथम ग्रैवेयक के सासादनी हैं। इन प्रथम प्रवेयक के सासादनीनतें संख्यातवें भाग दूसरे ग्रैवेयक में सम्यष्टि हैं। इन सम्यक्त्वोन संख्यातवें भाग इहां के मिश्र हैं। इन मिश्रन संख्यातवें भाग दूसरी ग्रैवेयक के सासादनी हैं। इन दूसरी ग्रैवेयक के सासादनीनतें संख्यातवें भाग तीसरी ग्रैवेयक के सम्यग्दृष्टिन का प्रमारा है। इन सम्यक्त्वीन के संख्यातवें भाग इहां के मिश्र जीव हैं। इन मिश्रन संख्यातवें भाग तीसरी ग्रैवेयक के सासादनी हैं। इन तीसरी ग्रैवेयक के सासादनीनत संख्यातवें भाग चौथो ग्रैवेयक के सम्पष्टि हैं। इन संख्यातवें भाग इहां के मिश्र सम्यक्त्वी हैं। मिश्रन संख्यातवें भाग चौथो ग्रैवेयक के सासादनी हैं। इन चौबे प्रवेशक के
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सासादनीनतै संस्थातवें भाग पंचम युवेयक के सम्यग्दृष्टि हैं। इनत संख्यातवें भाग इहां के मिश्र सम्यकधारी हैं। मिश्रन” संख्यातवें भाग पंचम वेयक के सासादनी हैं। अरु पंचम |वेधक के सासादनीत छठी ग्रैवैयक के | सम्यग्दृष्टि हैं। सो संख्यातवें भाग हैं। इन सम्यक्त्वीनत संख्यातर्फे माग इहां के मित्र हैं। इन मिश्रनतें
सांस्यशत भाग छठी वैयक के सासादनी हैं। इन छी धेयक में सांसादनात सातवा वेधक के सम्यग्दृष्टि संख्यातर्फे भाग हैं। इनतें संख्यातवें भाग यहां के मित्र हैं । इन मिश्रनत संख्यात भाग सातवों ग्रैवेयक के सासादनी हैं और सातवों ग्रैवेयक के सासादनीत संख्यातवें भाग आठवीं ग्रैवेयक के सम्यग्दृष्टि हैं। इनसे | संख्यात भाग यहां के मित्र हैं। मिश्रनत संख्यातवें भाग आठवीं ग्रैवेयक के सासादनी हैं और आठवीं | ग्रैवेयक के सासादनीनतें संख्यातवें भाग नव वेयक के सम्यग्दृष्टि हैं। इनसे संख्यात भाग यहाँ के मिश्र । मिश्रनत संख्यात भाग नववें ग्रैवेधक के सासादनी हैं। ऐसे प्रथम युगलत लगाय नव ग्रैवेयक पर्यन्त अनुक्रमतें असंख्यात भाग कही। संख्यात भाग घटे। परन्तु अन्त ग्रैवेधक मैं जे सम्यग्दृष्टि हैं । ते मी असंख्यात जानता और इन अन्त ग्रैवेयकतें अल्प सम्यग्दृष्टि देव ऊपरले नव अनुत्तरमैं हैं । इहां सर्व सम्यग्दृष्टि ही हैं। नव ग्रैवेयक ऊपरि मिथ्यात्वी नाही, सर्व सम्यग्दृष्टि हो हैं। अनुत्तरों तें थोड़े विजय, बैजयन्त, जयन्त; अपराजित-इन च्यारि विमान में सम्यग्दृष्टि हैं। इन च्यारि विमाननत असंख्यातवें भाग जीव सर्वार्थसिद्धि विमानमैं हैं। सो सर्व संख्याते जानना । सो केते हैं ? सो ही कहिश हैं। अढ़ाई द्वीपवासो मनुष्यन का जो प्रमाण है। तिनत नवगुणे सर्वार्थसिद्धि के देवन का प्रमाण जानना । रोसे च्यारि गति सम्बन्धी सम्यग्दृष्टि, मिश्र, सासादन, देशसंघमी, इनका सामान्य प्रमाण कया। आगे कहे गाथा विषं सकल संयमीन का प्रमारा तीन घाटि नव कोड़ि जीव, नव गुणस्थान सम्बन्धी तिनकौं गुरास्थान प्रति कहिए हैं। सो प्रथमते छठे गुणस्थानवर्ती यतीन का प्रमाण पांच कोड़ि तिरारावै लाख अठ्यारावै हजार दोयसै छ, ५६३६८२०६ जानना। अप्रमत्त सात गुणस्थानवर्ती मुनीन का प्रमाण दो कोडि छयानवै लाख निन्यानवै हजार एकसौ तीन २६६६६१०३ गते जानना और च्यारि उपशम श्रेणि के मुणस्थानवाले जीव ग्यारहसौ छयानवै १९६६ जानना, तेईससौ बारावै २३१२ और तेरहवें सजोग गुणस्थानवों जीवन का प्रमाण आठ लाख अठ्यारण
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हजार पाच
५०२ जना
स्थान सम्बन्ध जीवन का प्रमाण पांचसौ अठ्यारा जानना । ऐसे प्रमत्ततैं लगाय अयोग पर्यन्त आठ कोड़ि निन्यानवे लाख निन्यानवें हजार नवसौ सित्यासवे, ८६६६६६६७ सर्व जानना । यह नाना जीव नाना काल अपेक्षा उत्कृष्टपने कथन हैं। इनतें अधिक प्रमाण नहीं होय, निश्चय कर ऐसा जानना । छः महीना आठ समय मैं "छः सौ आठ" जीव मोक्ष जाय हैं। ऐसी परिपाटी अनादि चली आई है। अधिक-हीन, नाहीं जांघ । केई अनन्तकाल गए कदाचित विरह काल पड़े तौ षट् मास मोक्ष बन्द होय। कोई जीव मोक्ष नहीं जाय, तौ अन्त के आठ समय मैं सौ आठ' जीव मोक्ष होय हैं। ऐसा जानना और कदाचित उपशम श्रेणि का भी विरह पड़े तो छे महीना कोई जोव उपशम श्रेशि नहीं चढ़ें और अन्त के आठ समयनमें 'तोनसौ च्यारि' जोव उपशम श्रेणि मोडें, ताकी विधि – जो प्रथम समय मैं सोलह, दूसरे समय मैं चौबीस तीसरे समय मैं तोस, चौथे समय मैं छत्तीस, पंचम समय मैं विद्या+ लोस, छठे समय मैं अड़तालीस, सातवें समय मैं चौवन, आठवें समय मैं चौवन ऐसे इन आठ समय मैं तोनसौं चारि जीव निरन्तर उपशम श्रेणि मॉड और कदाचित् क्षाधिक श्रेणि का उत्कृष्ट अन्तर पड़े तो षट्मास होय, तौ अन्त के आठ समय में 'छः सौ आठ' जीव निरन्तर मौड़- सो प्रथम समयमैं ३२, दूसरे समय में ४८, तीसरे समय में ६०, चौथे समय में ७२, पंचम समय में ८४, छठे समय में ६६, सातवें मैं १०८६, आठवें मैं २०५ ऐसे आठ समय में निरन्तर श्रेणि चढ़ें हैं कदाचित् एक समय युगपत क्षाधिक श्रेणि मॉड तौ च्यारिसौ बत्तीस, जीव एकै काल माँर्डे ताकी विधि- जो इनमें कौन-कौन जीव श्रेणी चढ़ें सो कहिए हैं। हाँ बुद्धिबोधित ऋद्धि के धारी २०८, जीव और पुरुषवेद सहित श्रेणी चढ़ें ऐसे जीव १०८ और सुरगनत चय मनुष्य होय महाव्रत धरि क्षपकश्रेणि माँडै ऐसे जोव १०८ और प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि के धारी क्षपक श्रेणी चढ़े जोव २० और तीर्थङ्कर प्रकृति के उदद्य सहित तीर्थङ्कर पदवीधारी क्षायिक श्रेणी जीव स्त्री वेद सहित जीव श्रेणी चढ़े ऐसे २० और नपुंसक वेद सहित श्रेणी चड़े ऐसे जीव २० मनः पर्ययज्ञान सहित श्रेणी मोडें ऐसे जीव २० और अवधिज्ञान सहित श्रेणी चढ़े ऐसे जीव २८ उत्कृष्ट अवगाहना के धारी मोक्ष होने योग्य शरीर सहित क्षायिक श्रेणी चढ़ें ऐसे जीव दोय, मोक्ष होने योग्य जघन्य अवगाहना के धारी ऐसे
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जीव मध्यम अपनाना के धारीखी चढ़े ऐसे जीव ८ऐसे ए कहे जोय युगपत एक समय ४३२ जीव वाधिक श्रेसि चढ़े हैं सो जानना । युगपत एक समय उपशम श्रेणी चढ़नेवाले क्षायिकतें जाधे इनही पदस्थवाले जीव २१६ जानना । कदाचित् केवलज्ञान का विरह काल पड़े तौ षट् महीना ताँई कोई जीवकू केवलज्ञान नहीं उपजै । अढ़ाई द्रोप मैं तो अन्त के आठ समय मैं 'बाईस जीवनक' केवलज्ञान होय । ताकी विधि---आदि के षट समयन मैं तीन-तीन जीव एक-एक समय मैं केवली होंय और अन्त के दो समय में दोय-दोय जीव केवली होंय, ऐसे अन्त के आठ समय मैं बाईस कहे । केई आचार्य, अन्त के आठ समयमै चवालीस केवली कहें हैं। सो आदि के षट समय मैं षट-षट, अन्त के दोय समय मैं च्यारि-च्यारि जीव केवली होय। कई आचार्य अठ्यासो केवली कहैं हैं। तहो आदि के षट समयन मैं बारह-बारह और जन्त के दोय समय मैं आठ-आठ ऐसे अन्त के समय में केवली होय हैं केई आचार्य अन्त के आठ समय मैं 'एकसौ छिहत्तरि' केवलो कहैं हैं। सो आदि के षट् समयन मैं चौबीस-चौबीस और अन्त के दोय समय मैं सोलह-सोलह- केवली होंय हैं। ऐसा विशेष जानना । र उत्कृष्ट कहैं हैं। इनसे अधिक नाहीं हो हैं, ऐसा जानना। ऐसा सामान्यपने चौदह गुणस्थान सम्बन्धी जीवन की संख्या कही। विशेष श्रीगोम्मटसारजी के "जीवकाण्ड" तें जानना । यहाँ राह पावने के निमित्त तथा यादि राखने-सीखने निमित्त कथन किया है। सो धर्मात्मा जीव इस समान्य कथन को जानि महाग्रन्थन मैं प्रवेश करो, तातै मोह मन्द होय, सम्यक श्रुत का प्रकाश होय । रोसा जानि आत्म-कल्याणी जीवनकौं इन ग्रन्यन में प्रवेश करना योग्य है। विशेष यह जो ऊपर कह सम्यग्दृष्टि तिन विर्षे क्षायिक सम्यग्दृष्टि बहुत है और तिन" असंख्यातवें भाय भयौपक्षम सम्यग्दृष्टि हैं। इन” असंख्यातवें भाग उपशम सम्यग्दृष्टि हैं। उपशमते असंख्यातवें भाग मित्र सम्यक धारी हैं। मित्रत संख्यातवें भाग सासादनी हैं तहां विशेष यता जो सर्व ते सम्यम्दृष्टि देवलोक में बहुत है। तिनमैं भी तीन गति के सम्यग्दृष्टिनते तथा चारौं गति के सम्यग्दृष्टिनतें प्रथम युगलमैं असंख्यात गुने बहुत हैं। ऐसे ध्यासें गति संसार मैं तिष्ठे सो जीवन की संख्या, अरु अपनी-अपनी गति सम्बन्धी गुणस्थानवी जीवन की संख्या कही। सो इन संख्या मैं संसारी जीव तन धरता, मरता, शुमभावन का फल भोगता, जमादि का समय करे है।
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तिन मैं विरले मव्यात्मा सत्संग के निमित्त करि, जिन देव के वचन की प्रतीति करि, सम्यग्दर्शनादि मोक्षमारग योग्य सामग्री पाय, कर्म नाश करि शुद्ध होय, आगे मोक्ष पायें। इति सामान्य जीव तत्त्व कथन ।
आगे धर्म-द्रव्य वर्णन अब अजीव तत्त्वन मैं धर्म-द्रव्य है, सो ताका गुरा 'चलन सहाई' है। तीन लोक में तिष्ठते जे जीव, पुद्गल तिनहूँ गमन करते धर्म-द्रव्य सहाय करें है। जैसे— जलचर जीव, मच्छी जादि तिनके चलने जल सहाई है, प्रेरक होय गमन नहीं करावे है। जो मच्छादि जीव जल मैं चलें, तौ उदासीन वृत्ति सहित सहज ही सहाय होय है। तैसे यह धर्म-द्रव्य प्रेरक होय जीवादि पदार्थनको गमन नहीं करावे है। जो जीव पुद्गल अपनी शक्ति तैं गमन करें, तौ उदासीन वृत्ति तैं गमन मैं सहाय होय है। ऐसा अनादि-निधन इस द्रव्य का स्वभाव है। ऐरो चलन हा गुण सहित धर्म-द्रव्य की अनादि स्थिति लोक मैं जानना और इस धर्म-द्रव्य की पर्याय दोय प्रकार हैं । एक अर्थ पर्याय, सो तो द्रव्य का परिणमन है। सो तो व्यञ्जन पर्याय द्रव्य का आकार है। सो धर्म-द्रव्य की व्यञ्जन पर्याय, तीन लोक प्रमाण है। एक पटल रूप है, खण्ड नाहीं । अरु पुद्गल परमाणु के गर्तें नापि ती असंख्यात प्रदेशी होय । ऐसे इसका स्वरूप है। सौ धर्म तौ द्रव्य है गुण चलन सहाय है। पर्याय तीन लोक है ता सामानि है । इति धर्म-द्रव्य ।
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आगे अधर्म-द्रव्य । अब अधर्म-द्रव्य है अरु ताका गुण 'स्थितीकरण' है। तीन लोक मैं तिष्ठते जेते जीव पुद्गल तिनक स्थिति करने में सहाय है। प्रेरक होय स्थिति नाहीं करावें है। जो जीव पुद्गल अपनी शक्तितें स्थिति करें तो यह अधर्म-द्रव्य उदासीन वृत्ति घरे स्थिति करतें सहकारी है। जैसे—राहके चलनहारे पंधीकू ग्रीष्म ऋतु में वृक्ष को छाया स्थितिकूं करते सहाय होय है। वृक्ष बुलायक पंथीकूं अपनी छाया में बैठारि, सहाय नाहीं करै है। पंथी अपनी ही इच्छा तैं ताप मेटवेक वृत्त नीचे तिष्ठे, तौ उदासीन वृत्ति सहित पंथी कूं स्थितिमैं कारण है। ऐसे ही अधर्म-द्रव्य का गुण स्थित करना जानना और अधर्म-द्रव्य की पर्याय भी अर्थ पर्याय, व्यञ्जन पर्याय करि दोष प्रकार हैं। सो अर्थ पर्याय तौ रतन लहरिवत् द्रव्य परिणमन है और व्यजन पर्याय धर्म-द्रव्य प्रमाण लोक के आकार है। ऐसे अधर्म- द्रव्य के गुण पर्याय कहे। इति अधर्म - द्रव्य ।
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आगे काल-द्रव्य । आगे काल तौ द्रव्य है। गुरु ताका वर्तना लक्षण है। पर्याय दोय प्रकार हैं। सो अर्थ
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पर्याय तौ रतन लहरिवत् द्रव्य का परिणमन है। अरु व्यञ्जन पर्याय द्रव्य का प्राकार है। जैसे-नदी तो द्रव्य, अस नदी के दोऊ तटन की समुद्र पर्यन्त लम्बाई का आकार, सो नदी को व्यञ्जन पर्याय है । ता नदीमैं निरन्तर जल का प्रवाह चलना, रात-दिन पानी का बहना सो नदी का गुण है और नदी के जल में अनेक प्रकार तरंगनि का उपजना अरु ताही मैं विनशना, सो नदी की अर्थ पाय है। तैसे हो काल-द्रव्य का नदी को नाई निरन्तर वर्तना लक्षण गुण है। कालाणु-द्रव्य का मन्द गमन पल्टा खाना, एक आकाश प्रदेश 4 तिष्ठती जो कालाषु सो पलटि. दुसरे लगरी प्रदेश पावन सोन्ग हैसीयाका नाम समय है । सो यह समय काल की व्यवहार पर्याय है। इस समयतै, काल का सूक्ष्म अंश और नाहों। ऐसे-ऐसे समय असंख्यात होय, तब एक आवली नामा काल की पर्याय का भेद होय। रोषो-ऐसी हजारों आवलो व्यतीत होय, तब एक श्वासोच्छवास काल का प्रमाण है। सात श्वासोच्छवास काल का एक स्तोक नामा काल को पर्याय होय है और सात स्तौक का एक लव मात्र काल पर्याय होय है। साढ़े अड़तीस लव को एक नाली होय है इस नाली ही का नाम घड़ी है। दोय घड़ी का नाम एक मुहूर्त है। एक समय घाटि दोय घड़ी का नाम अन्तर्मुहुर्त है। तोस मुहूर्त का एक अहोरात्रि है। पन्द्रह अहोरात्रि का पक्ष होय है। दोय पक्ष का एक मास होय है। दोय मास की एक ऋतु होय है। तीन ऋतु का राक अयन होय है। दोय अयन का एक वर्ष होय है। सतरि लाख करोड़ि वर्ष अरु छप्पन हजार करोड़ि वर्ष इन सबनि को मिलाय एक पुरख काल होय है । ऐसे असंख्यात पूरब काल का एक पल्य होय है। दश कोड़ाकोडि चल्य का एक सागर होय है। अरु बीस कोड़ाकोडि सागर का एक काल-चक्र होय है।। ऐसे-ऐसे अनन्तानन्त काल-चक्र व्यतीत होय, तब एक काल का परावर्तन होय है। ऐसे काल की व्यवहार पर्याय का स्वरूप जानना। रोसे काल तौ द्रव्य, गुणवर्तना लक्षण और कालाणु से निपज्या जो समय, घड़ी, दिन, मास, वर्ष, पल्य, सागर, सो पर्याय हैं। गेसे काल-द्रव्य का लक्षण कह्या।
आगे आकाश-द्रव्य । आगे आकाश तौ द्रव्य है। ताका अवगाहन देना गुण है। पर्याय लोकालोक प्रमारा है। ता आकाश में दोय भेद हैं। एक अलोक है, सो अनन्त प्रदेशो है तहाँ और द्रव्य नाही, शून्यता लिए है। । शुद्ध एक आकाश ही है। एक लोकाकाश है। तहां बट द्रव्य रचना सहित च्यारि गतिरूप संसारक धरे है।
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अरु कम-रहित शुद्ध जीव तिन सहित यह असंख्यात प्रदेशी, सो सर्व रचना जामैं पाईए, सोरोसा लोकाकाश ।। है। यामैं षट् द्रव्य तिष्ठ हैं। इति आकाश-द्रव्य । ऐसे ए षट् ही द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्याय सहित, अपने
अपने स्वभावमैं हैं एक क्षेत्र में सर्व की स्थिति है, परन्तु कोई काहूत मिलते नाहीं। ऐसा कोई अनादि व्यवहार है जो कोई द्रव्य काहू द्रव्य तें मिलता नाहीं। किसी के गुणते कोई का गुण नहीं मिलै किसी पर्यायतें पर्याय नहीं मिले। ऐसी रदासीन वृत्ति है। जैसे एक गुफा मैं षट मुनि बहुत काल रहे। परन्तु कोई काहूत मोहित नाहीं। उदासीनता सहित एक क्षेत्र में रहैं है । तैसे ही षट द्रव्य एक लोक क्षेत्र में जानना। तिनमैं पञ्च अजीवद्रव्य हैं। तिन पञ्च अजीव-द्रव्यन के गुण मी अजीव हैं। पर्याय भी अजीव है। एक चेतन-द्रव्य है। ताके द्रव्य, गुण और पर्याय भी चेतना हैं। तातै भो भव्यात्मा ! तू देखि यह जीव ज्ञानरूप देखने-जानने रूप है । सो अनादि पर-द्रव्यन के मोहते, परमैं ममत्व भाव धरकै. आपा भलि, पर-द्रव्यको अपना इष्ट जानि पररूप-सा होय गया। आप अमूर्तिक है । सो भलित आपकं मूर्तिक जड़ भावरूप मानने लागा, परन्तु जड़ नहीं होय गया। बाप अपने चेतना के व्यवहार को नहीं तजै है। जैसे—कोई नट मनुष्य लोभ के वशीभूत होय अपने तन नाहर की खालि नावि, सिंह का स्यांग धरि आया, नाना चेष्टा, कंदना, धडूकनादि भी करै है। ताक् देखि अजान भोरे जीव याको सिंह जानि भयभीत होय हैं। परन्तु यह सिंह नाहीं है। लोभ के वशीभूत होय इस नटने अपना रूप पशु का बनाया, आपकू पशु मानि विचरै है। परन्तु पशु नाही, नर ही है। तैसे ही यह संसारी जीव अपनी जनादि भलित जागति मैं गया, ताही गतिरूप होय रह्या । च्यारि गति के शरीर पुद्गलोक अनेक धारि, आपकौं देव नारकादि आकार मान्या, मैं देव हो, मैं नारकी हौ. मैं पशु हौ. मैं मनुष्य ही, मैं सुखी हौं मैं दुखी हाँ, यह धनधान्यादि कुटुम्बी मेरे हैं। मैं बड़े तन का धारी हौं। ऐसे आपकौं कर्म निमित्ततें जड़ समान पुद्गलीक तन मैं तिष्ठता, अचेतन को चेष्टा बतावता भया। परन्तु अपना विशेष देखना-जानना रूप बैतन्यरूप भाव सो नहीं |
घुटता भया। आप जीव ही है। जैसे नट. सिंह की खालि नाखि दुरि भया, तब सबका भरम गया। सर्व याकं ११५ र मानते भये। यह भी नर हो रह्या और आगे भी नर ही था । भरमतें सिंह भया था। तैसे तनरूपो खालि तजि,
तब शुद्ध आत्मा भया। ऐसे जीव अजीव का स्वरूप है। सो हे भव्य! तु निश्चय करि जानि। जैसे जीव,
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जावो इत्यादिक
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अजीव का स्वरूप कह्या तैसे ही सम्यक होते ये विचार सहज ही होय उपजे हैं। पर-वस्तुनते ममत्त्व टि भरम || मिटि शुद्ध श्रद्धात होय है। सो अमर्तिक शुद्धात्मा सिद्ध भगवान ताका स्वरूप सम्यग्दृष्टि अपने अनुभवन मैं | ऐसा विचार है। चौदहवें गुणस्थान जा शरीर मैं तिष्ठता आत्मा, अपनी शुद्ध परिणति के जोगते जा शरीर मैं
धा, ताके हाड़, मांस, चांम नशादि जो पुद्गलीक आकार स्कन्ध सो तिनको छोड़िकता शरीरके आकार आप । चेतनरूप सिद्ध देव होय तिष्ठ। तैसे ही सम्यग्दृष्टि विचार है, जो मैं भी दिव्य दृष्टित निश्चय करि देखौं तो
अपना चैतन्य भाव इस पुद्गलीक शरीरतें, ऐसे भिन्न विचारों हौं। कि जो मैं वर्तमान में ए शरीर क्षेत्र में तिष्ठौं हौं । सो या तन मैं देखन-जाननहारा गुण तो मेरा है यह तन जड़ है। सो आयु अन्त खिरे है तथा सिद्ध होते खिरे है। सौ तैसे ही मैं ती या क्षेत्र मैं सिटीही हौं। जर या तन के चांभ. हाड़, मांस, नश, पुद्गलीक आकाररूप मर्तिक हैं, सो मेरा अङ्ग नाही, मैं तौ चेतन्य हौँ । ए चाम तन के खिर जावो, मांस स्कन्ध खिर जावो, हाड़ सिर जायो इत्यादिक पुद्गलीक स्कन्ध खिरे हैं तो खिरौ। मैं देखने-जाननेहारा, मेरे स्थान मैं तिष्ठौ हौं। सर्व पुद्गलीक मर्तिक मेरे प्रदेशनत एक क्षेत्र हैं, सो सर्व खिर गये। मैं हो एक, जमर्तिक देखने-जाननेहारा, सिद्ध समानि आत्मा रहजा हौं । सम्यक होते आया-पद का विचार ऐसे भी होय है। ऐसा विचार होतें सम्यग्दृष्टिनक शरीरादि पर-वस्तुनतें ममत्व छूटे हैं पर-वस्तुनः ममत्व छूटनेते निराकुलता सहज ही प्रगट होय है। निराकुलता प्रगट चारित्र की बधवारी (बढ़वारी) होय है और चारित्र की वृद्धित विशुद्धता की विशेष वृद्धि होय है। विशुद्धता वधे (बढ़े) केवलज्ञान की प्राप्ति होय है और केवलज्ञान भए संसार भ्रमरा मिटि सकल शुद्ध सिद्ध पद पाय सर्व सखी होय है। पीछे सिद्ध स्थान विराजि अकलक निर्दोष सिद्ध होय हैं। जगतपूज्य पदधार अविनाशी सुखरूप होय है। ऐसे सिद्ध पदको हमारा नमस्कार होऊ। इनकी मक्ति के प्रसाद मौकी इन-सा पद होऊ। ऐसे भी सम्यग्दृष्टि भावनामाय, अतिशय सहित पुण्यबन्ध का संचय करे है। इहाँ प्रत्र-जो सम्यादृष्टिको पुरय की इच्छा काहे को चाहिए ? और तुमने कहा जो अतिशय सहित पुण्य का बन्ध सम्यग्दृष्टि हो कर है, सो औरन के क्यों नहीं होय ? अरु अतिशय सहित पुण्य काहेकौं कहिए ? ताका समाधान। भो भव्य ! जो पुण्य के बन्ध भये पीछे वह पुण्य घटने नहीं पावै। दश पांच-मव जैते लेना होय, तेते
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हैं, सो सर्व खिर गये।
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सा विचार होते सम्यग्दृष्टि
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ऊँच लेय, पीछे ताक मौत हो होय हैं। ताकों अतिशय सहित पुश्य कहिए और कबहूँ शुभभावतं पुण्य का बन्ध होय । कबहूं अशुभ भावनतैं पाप-बन्ध होय । पुराय-बन्ध होता रहि जाय। ता फल कबहूं देव कबहूं पशु होय 1 ऐसे पुयक अतिशय रहित कहिए। ए पुण्ध, संसार का हो कारण है। ऐसा जानना और सुनि भो भव्य ! सम्यग्दृष्टि तौ पुण्य-बन्ध की इच्छा नाहीं । परन्तु सम्यक भए पीछे दोष-तीन भव लेने होंय, तौ तेते काल संसार मैं रहे। पुण्य फल सम्यग्दृष्टिन के बन्ध भए पोछे टूटता नाहीं । सो संसार मैं रहें जेते देव, इन्द्र, चक्री, महान राजा, सुखी होय पीछे परम्पराय मोक्ष ही होय । तातें सम्यग्दृष्टिकै ऐसा अतिशय सहित पुण्य-बन्ध ही होय है। ऐसा यह सहज ही भाव जानना। ऐसे तेरा उत्तर जानहु ऐसा जोव अजीव तत्त्वन का स्वरूप जिनदेवनें दिव्य ध्वनि करि कह्या । तैसे ही गणधर देव ने प्ररुण्या तैसे परम्पराय आचार्य प्ररूपते आए । तिनके भेद पाय-पाय अनेक भव्य प्राणी अनादि मिध्यात्व बन्धन तोड़ि सम्यग्दृष्टि भए । ताही का अनुसार लेय इहां भी सामान्य तत्व भेद का है। ताका रहस्य जानि अब भी भव्य तत्त्व ज्ञानी होऊ । इति जिनभाषित अनुसार सामान्य कथन ऐसे आदिम भूले मोरी टाके धरनहारे. अतत्त्व श्रद्धानी जीव कुगुरुन के उपदेशरूपी फांसी मैं परे, धर्मवासना-रहित, संसार भोग के अभिलाषी, समता-रस बिना उत्पत्ति भई हैं तृष्णा रूपी तप जिनकें, ऐसे ज्ञान चक्षु रहित अन्धसम, बालक सम लीला करनहारे, भोरे प्राणी, तिनको सोमबुद्धि धर्मार्थी जानिके, दयाभाव करि तिनके समझाव के अर्थ कुषादीन के प्ररूपे जे अनेक कर्तृत्व मत, तिन विषै भिन्न-भिन्न स्वइच्छा बुद्धि कल्पना करि, तत्त्व भेद कहे थे। तिन वादीनकं प्रगट असत् करि जिनभाषित जीवअजीव तत्य. द्रव्य गुण पर्याय सहित भिन्न-भिन्न नय करि बताए । सो यह सर्वज्ञ-भाषित तत्त्व मेद सत्य है । काहू वादी करके खंड्या नहीं जाय। ऐसे तत्व भेद है, सो प्रमाण है। राजीव- अजीव तत्त्व सत्य हैं। इति श्रो सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ मध्ये, अतत्त्व श्रद्धान अन्य मतन सम्बन्धी जीव-अजीव तत्व विपरीत कथन प्ररूपहारे कुवादी तिनका भरम मेटि, जिनभाषित तत्त्वज्ञान वर्णनो नाम, सप्तम् पर्व समाप्तम्
इन शुद्ध तत्त्व का जिस विषै भले प्रकार कथन पाइए, सो शुद्ध आगम है और आगम है सो काहू का उपदेश्या नाहीं । जो ऐसे शुद्ध आगम का करता है, सो ही सर्वज्ञ भगवान वीतराग शुद्ध जाप्त है। आप्त नाम
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भगवान का है। सो उस शुद्ध भगवानको जान्या चाहिये। सो कैसे जानिए ? तौ विवेकी ऐसा विचार जो वस्तु जानिये है, सो गुणत जानिरा है। तात प्रथम ही भगवान के गुण जानें, तो शुद्ध भगवान जान्या जाय । तातें भगवान के गुण कहिय है। सो एक तौ जिन भगवान वीतरागो होय, वीतराग भाव बिना सरागी जीवन पे यथावत् उपदेश होता नाही. अपना भगत होय ताकी प्रशंसा करै रक्षा करें। अपना भक्त नहीं होय तौ ताकी निन्दा करे, ताका बुरा चाहै। तो ऐसे देव का वचन प्रमाण नाहीं। तातें यथावद उपदेश, वीतरागी बिना होता नाहीं। तातें देव वीतरागी चाहिये और सर्वज्ञ चाहिए। सर्वज्ञ बिना लोकालोक को नहीं जानें। जीवन के अन्तरंग घट-घट को नहीं जाने, रोसे तुच्छ ज्ञानीन का वचन प्रमाण नाहों। तातें भगवान सर्वज्ञ चाहिये और वीतराग सर्वज्ञता है। किन्तु तारक नाहीं, तो किस काम का भगवान् ? काहू का तो भला करता नाहीं। तात् भगवान् तारक चाहिये। जाका नाम लिए, ध्यान किए, पूजे, भगतन का भला होय इहाँ प्रश्न—जो भगवान वीतराग है तामैं तारकपना कैसे संभवै? तारकपना तौ सरागी को होय है। अरू वोतरागी कं भगत के तारने की इच्छा मरा, वीतराग भाव कैसे रहै? अरु बिना इच्छा भगत का भला कैसे होय, सो कहो 1 ताका समाधान। जैसे—सूर्य के रौसी इच्छा नहीं, जो मैं अपना उदय करौं, जिससे कमल प्रफुल्लित होय। परन्तु सूर्य का उदय होते सहज भाव हो कमल प्रफुल्लित होय हैं, सूर्य में कोई ऐसा गुण सहज हो पाईए। तैसे ही भगवान के तो ऐसी इच्छा नाही, जो भगतन का भला करौं । परन्तु भगवान् मैं कोई तारण गुण सहज ही ऐसा पाईए है। जो ताकरि भगत का भला होय ही होय और जो सूर्य की तरफ़ कड़ी नजरि ( दृष्टि) करि देखे, तौ ताके नेनन आगे अन्धकार-सा फैलि जाय, नेत्रन की ज्योति मन्द होय, सो सूर्यके तौ गैसी इच्छा नाहों जो मेरा तरफ कर देख्या, तातें अन्धा करौं । परन्तु सूर्य के तेज मैं कोई सहज ही ऐसा अतिशय है। सो सूर्य की तरफ सफत दृष्टि करि देखे, तौ नेत्र की ज्योति मन्द होय। तैसे ही भगवान को तौ सेलो इच्छा नाही जो इस निन्दक मन बुरा करों। परन्तु कोई ऐसा ही अतिशय है। जो भगवान की निन्दा किरा नरकादि दुःख सहज ही होय । तातें भगवान् मैं वीतरागता. सर्वज्ञता, तारकपना—रा तीन गुण तो मुख्य हैं। अरु और अनन्त गुण हैं, तिनमैं केतक बाह्य, अभ्यन्तर गुण अतिशय कहिए हैं। तिनके जानें भगवान् को पहचानिए। सो हो कहिर है
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गाथा दोह अठारह रहियो, गुरासद् चालीस होय संजुत्तो सवग्गी बौबरायो, सदेवो भव्वतार पण मामी ॥ १८ ॥
अर्थ- दोह जठारह कहिये, अष्टादशदोष रहित होय गुण सड चालीस होय, संजुत्तो कहिए, छचालीस गुणसहित होय । सवग्गो कहिए, सर्वज्ञ होय । वीयरायो कहिए, वीतरागी होय । सदेवो कहिए, सो देव । भव्वतार कहिए, भव्यन का तारक होय । प्रणमामी कहिए, ताक नमस्कार करों हौं। भावार्थ- जाके रागद्वेष नहीं, सो वीतरागी है। केवलज्ञान सहित होय सो सर्वज्ञ कहिए । जाका नाम लिए पाप का नाश होय ऐसे अतिशय का धारी होय और क्षुधादिक अठारह दोष रहित होय और छचालीस गुण सहित होय, सो देव जानना । तहाँ प्रथम अठारह दोषन का स्वरूप कहिए है। सो प्रथम क्षुधा जगत् के जीवनकौं महादुःख करनहारा, ताके यो बिना मरण होय थे शुधा बड़ा रोग है को जाके रोहीत्रा होय, सो देव नाहीं । जाके बूते (किये), अपनी क्षुधा महाव्याधि हो नहीं मिटी. तो भक्तन को क्षुधा कैसे मेटे ? तातें भगवान् के क्षुधा रोग नाहीं । २ । बहुरि तृषा समान तीव्ररोग दुखदाई नाहीं, जो जलनामा औषध नहीं मिलें, तो प्राण जाय। ऐसो तृषारूपी व्याधि जाकै होय, सो देव नाहीं । भगवान् तृषारोग नहीं। अपनी तृषा-तपन जाकैं नहीं मिटी, तौ भगतन की तृषा-तपन कैसे मेटे ? तातैं प्रभु तृषा नाहीं । २ । बहुरि जहाँ राग भाव होय, सो भगवान् नाहीं, भगवानजी के राग-भाव नाहीं ? ३ । जाकै द्वेष भाव हो, सो पर का बुरा करें। तातें जाकैं राग-द्वेष होय, सो भगवान् नाहीं । अरु भगवान् कैं द्वेष भाव नाहीं । ४ । जो माता के गर्भ में आवै, गर्भ के महा दुःख, मल-मूत्र विषै नव मास अधोशीश ऊर्ध्व पाँव महासंकट मैं अवतार लेय, सो भगवान् नाहीं । अरु भगवान्क अवतार नाहीं । ५ । जरा जो बुढ़ापा जाकरि सर्व अङ्ग शिथिल होय, दीनता पायें, ऐसी जरा जार्के होय. सौ भगवान् नहीं। भगवान् के जरा नाहीं ॥ ६॥ जाका मरण होय, सो भगवान् नाहीं। जो अपना ही मरण नहीं मैटै तौ भगत का मरण कैसे मेटै ? तातें भगवान् कैं मरण नाहीं । जार्के रोग होय, सी देव नाहीं. भी अपना रोग हीं नहीं हरै, सो भगत कूं कैसे सुखो करें ? ताते भगवान् के रोग नाहीं । जार्के इष्ट वस्तु का वियोग होर्तें शोक होय, सो देव नाहीं। जो अपना ही शोकदुःख नहीं टारि सके, सो देव, भगत का शोक कैसे टारि सकें है ? तातै जाऊँ झोक होय, सो देव नाहीं । भगवान के लोक नाहीं । ६ । जाकें शत्रु, रोग, मरसादि दुःखन का भय होय, सो भगवान् नाहीं। जो अपना ही
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भय नाहीं टारे, सो भगतन को कैसे सुखी करें ? तातैं सर्वज्ञ देवकै भय नाहीं । २० । जाकैं विस्मय होय। जो यह कहा गया तथा बड़ा आश्चर्य भया, ऐसा विद्या रहित अज्ञानोनकें होय, याका नाम विस्मय है। सो जाके विस्मय होय, सो भगवान् नाहीं । केवलज्ञानीकें कछू विस्मय नाहीं । २२ । निद्रा के जोरतें प्राणी सर्व सुध-बुध भूलि जाय। महाप्रभाट की करनहारी, मृतक समान करनहारी, ऐसी निद्रा जाकै होय, सो भगवान् नाहीं । भगवान् सदेव चैतन्यमूर्तिक, जागृत दशारूप, सर्व प्रमाद रहित, जगत् गुरुकैं निद्रा नाहीं । १२ । और जाके खेद होय, सो देव नाहीं । जो अपना ही खेद नाहीं मेट सकें, सो भगतकों निर्खेद कैसे करें ? तातैं भगवान् सर्व सुखोकं खेद नाहीं । १३ । शरीरमैं पसेव होय, सो होन पराक्रमते होय है । तातें जाकेँ पसेव होय, सो भगवान् नाहीं । अनन्तवली भगवान् कैं पसेव नाहीं | १४ | मद है सो मान कर्म के उदय तैं, मानी संसारी अनेक क्रोधादि कषायन के पात्र तिनकैं होथ है। सो जाकैं मद होय, सो भगवान् नाहीं । भगवान् के मद नाहीं | १५ | पर वस्तु कूं देखि अरति होय है । जो जरति के उद्यतै होय, सो अरति है । जाके कर्म उदय अरति होय, सो भगवान् नाहीं, वीतराग भगवान् के अरति नाहीं । २६ । महादुख का मूल, संसार को बोज, संसार भ्रमण करावनहारा ऐसा मोह जार्के होय, सो भगवान् नाहीं । जगत् उदासी भगवान के मोह नाहीं । १७। और जाकें रति कर्म के उदय, अनेक वस्तुनमै हर्ष माने-रंजावें, ऐसा रति-कर्म का जोरि जाकैं होय, सो देव नाहीं । भगवान् वीतरा देव कैं रति नाहीं । १८ । ऐसे कहे अठारह दोष जाके पाईं, सो भगवान् नाहीं । भगवान्कें र अठारह दोष, सब प्रकार नाहीं, ऐसे जानना और भगवान्कै छ चालीस गुण होय हैं, तिनका कथन कहिए है
अतिशय चौतीस तहां प्रथम हो भगवान् अन्त का शरीर धरें हैं। जब गर्भ अवतार होय, तब ए दश अतिशय होय हैं-सी तहाँ पसेब ( पसीना ) नाहीं समचतुरस्त्र संस्थान है, वज्रवृषभनाराचसंहनन, तनमैं मल नाहीं शरीर महासुगन्ध, अनन्त महासुन्दररूप होय है, शरीर में अनेक भले लक्षण होय हैं, तन मैं श्वेत रुधिर होय, वचन महासुन्दर मधुर होय और तिनके तनमें अनन्त बल होय ऐसे दृश अतिशय तो जन्मते ही होंय, सो भगवान् (जानना । दश अतिशय केवलज्ञान भये पीछे होय हैं। तिनके नाम-तहां समोशरण मैं चतुर्मुख दीखें। भगवान् का समोशरण जहाँ होय, तहांतें चौतरफ सौ योजन दुर्भिक्ष नहीं होय। आकाश निर्मल होय। सर्व जीवनकें
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दया-माव होय । गमन करते कोई जीवकों बाधा न होय, कवलाहार नाहीं। इहाँ प्रश्न—कवलाहार के षट् भेद हैं सो यहाँ कवलाहार मने किया, सो केवलझान में पंच आहार तो होते ही हैं। ताका समाधान भो भव्य ! तुं षट ही प्रकार आहार का स्वरूप सुनि, ज्यौं नेरा सन्देह जाय। प्रथम नाम-कर्म आहार, नो-कर्म माहार, | ओज आहार, मानसिक आहार, कवलाहार, लेप आहार षट् हैं। अब इनका सामान्य अर्थ कहिर है-तहाँ झानावरणी जादि कर्म वर्गणा का ग्रहरा करना, सो कर्म आहार है। सो केवली के और कर्म का बन्ध नाही, सो बन्ध के अभावतें कर्म का आहार नाहीं। एक सातावेदनीय का बन्ध है, सो भी नाममात्र उपचार बन्ध है। सो स्थिति अनुभाग रहित है। परन्तु उपचार से कर्म आहार इहां कहिए है। औदारिक, शरीर जाति के नो-कर्म परमाणु का ग्रहण तेरहवें गुणस्थान तक है। तातें नो-कर्म आहार केवली के पाइये है, परन्तु यहां कवलाहार की मुख्यता है, तात याका विचार नाहीं किया। ओज आहार ताका नाम है। जैसे—चिड़िया अण्डेनकू छाती नीचे दाबै तिष्ठी रहै. ताकरि अण्डा में उपजनहारेन का पोस्ख है। सो ओज आहार कहिये सो ये आहार अण्डज जीवन के होय है और के नाहीं । तातें केवली के ओज आहार नाहीं भोजन मन चलै हो तृप्ति होय,सो मानसिक आहार कहिए। यह आहार देवन के होय है और कै नाहीं तातें जिनदेव कै मनसा आहार भी नाहीं । शरीर में लगै तृप्तिता होय, सो लेप आहार है। यह एकेन्द्रियनकै होय है औरन के नाहीं। तातें भगवान केवली के लेप आहार भी नाहीं । अन्न, मेवा, जल इन आदि आहार मनुष्य तिर्यंचन के है, सो कवलाहार है। यह जिह्वा इन्द्रिय द्वारा ग्रहण होय है। सो यह कवलाहार भी, निर्दोष जिन भगवान के नाही। अरु यहाँ मुख्यता कवलाहार के कथन की है। तातै भगवानकै कोई आहार नाहीं जानना। ऐसे भगवानकै केवलज्ञान भए कवलाहर नाही, केवलज्ञान भए पीछे जगत्बन्धु के उपसर्ग नाहीं होय, केवलो के शरीरकै छाया नहीं होय, सर्व विद्या के नाथ हैं. नस्ल केश नहीं बढ़े, केवलज्ञान उपजत जेते थे तेते ही रहैं अनन्तबली की भौंह दिमक नाही, एकाग्र रहैं ऐसे भगवान केवलज्ञान होय पीछे, र दश अतिशय प्रगट होय हैं। ऐसे केवलज्ञान भए के अतिशय कहे। आगे देवनकृत चौदह अतिशय कहिए हैं
जब भगवान् केवली की समोशरणमैं वाणी खिर, ताकू सुनि सर्व प्राणी अपनी-अपनी भाषा मैं सममि लेय
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है। ऐसा ही अतिशय है। जहां भगवान तिण्डे, तहां तिष्ठते--सर्प, मोर, सिंह-गाय इत्यादि जाति विरोधी जीव, द्वेष तषि मित्रता भनें। तहा की भूमि बारसी समान निर्मल होय, भगवान विराजता वन में, षट् ऋतु के फल-फूल होंय और समोशरण के चारों तरफ मन्द-सुगन्ध-पवन चाल तातें सुसमयी रहैं सर्व जीव सुखी होंय और जहाँ भगवान् विराज, तहाँ के प्राणी सदैव-सहज ही सर्व भूमि कंटक रहित होय महासुगन्ध जल की वर्षा होय। भगवान्जी विहार कर्म करें, तब पद-पद पै देव कमल रचते जाय, भगवान जहां पांव धेरै तहाँ देव पन्द्रह-पन्द्रह फूलन की पन्द्रह-पन्द्रह पंक्ति करि दो सौ पच्चीस कमलन का चौकोर समूह धरते जाय हैं। आकाश निर्मलताकं धरें। रज वलादि नाहीं होय। दशौं दिशा महाशोभायमान निर्मल भार्से। विहार समय देव अपने शीश पै धर्मचक्र कौं आगे लिए चलें अष्ट द्रव्य-पंखा, चमर-छत्र, कलश, मारी, दर्पण ( एना), ध्वजा, ठौनों-रा मंगल द्रव्य एक-एक जाति के एक सौ आठ होय, सो आठसौ चौसांठ भए। तिनको एक-एक देव, एक-एक मंगल द्रव्य, विनय सहित भगति [ भक्ति त विहार समय लिए चलें। आकाश मैं असंख्यात देव जय-जय शब्द करते चले जाय। ४। ऐसे चौदह अतिशय देव कृत हैं । सो अतिशय का माहात्म्य तो भगवान का है, निमित्त मात्र देवन की भक्ति का सहाय है। र सर्व मिलि चौतीस अतिशय भए । प्रागे वसु [आठ ] प्रातिहार्य कहिये हैंगावा-तरु असोय सविठी, दिव्यधुणि चमर सीहपीठाया। भामण्डल दुन्दुभि अपणो, पातपहर पातहाज वसुभेयो ॥१९॥
अर्ध-अशोकवृक्ष, महासुगन्धित फूलों की वर्षा, दिव्य-ध्वनि, चमर, सिंहासन, प्रभामण्डल, दुन्दुभी बाजे और पत्र-ए अष्ट प्रातिहार्य हैं। भावार्थ-भगवान के विराजवे को गन्धकुटी ताके ऊपरि अशोक नाम रतनमयी वृक्ष है । तामै रोसा अतिशय पाइए है, जो ताकौं देखें महातीव्र शोक होय, सो मी जाता रहै और सुखी होय ।२।जहाँ भगवान विराज, तहाँ कल्प वृक्षन के रतनमयी, महासुगन्धित, कोमल अनेक वरश के फूलों को वर्षा होय।२। भगवान की वाणी बिन अक्षरी, मेघ को गर्जना समान, होटतें होट नहीं लगे, सर्व जीवनकों हितदाई,
अनेक संशय नाशनी, भगवान की दिव्य-ध्वनि खिरे है। सो एक दिन मैं तीन बार प्रभात, मध्याह्न और साँझ | खिरै। कोऊ शास्वन मैं अर्धरात्रिक खिरे, रौसी कही है। ताकी अपेक्षा एक दिन मैं च्यारि बार पाणी खिरे है।
सौ एक-एक वाणी की ध्वनि छै- घड़ी पर्यन्त काल समय होय। सो दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य कहिए है 1३।
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चौंसठ चमर इन्द्रन के हस्तते दुरें हैं । ४ । अति रमणीक, महामनोज्ञ, अनेक शोभा सहित रतनमयो, मेरु समान उत्तुंग को धरै, सिंहासन है। ताके चारों पायन की जगह, च्यारि बैठे सिंहन के आकार रतनमयी महासौम्य मूर्तिक, सर्व अङ्ग सुन्दर, नेत्र, कर्रा, मुख, जिल्हा, केशावली आदि सर्व नख, मानो साक्षात् कोई धर्मात्मा श्रावक व्रत के धारी सिंह ही भक्ति के भरे सिंहासन धेरै तिष्टें हैं। ऐसा सिंहासन प्रतिहार्य है । ५ । भगवान् के शरीर की प्रभा का चौतरफ मण्डलाकार होना, सौ प्रभा-मण्डल है। तामें देखें जीवन कूं परभव केई (बहुत) दो हैं । ६ । अनेक जाति के वादिन ( बाजे) मधुर शब्द सहित एक रंग होय बाजना, सो दुन्दुभी प्रातिहार्य है । ७ । भगवान के मस्तक पर तीन छत्र फिरैं सो मानो तीन लोक की प्रभुताई बतावें है, सो छत्र प्रातिहार्य है । ८। ऐसे
प्रातिहार्य कहे। अनन्त पदार्थन देखने-जानने रूप प्रवर्तें, सो अनन्तज्ञान व अनन्तदर्शन कहिए । अनन्त पदार्थन के देखने-जानने से अनन्त ही प्रतीन्द्रिय सुख है। अन्तराय-कर्म के नाशतें अनन्त पदार्थ जानने की प्रगटी जो शक्ति सो अनन्तवीर्य है। ऐसे ए अनन्तचतुष्टय हैं इन सर्वकौं मिलाए जन्म के दश. केवलज्ञान के दश, देवकृत चौदह, प्रातिहार्य आठ, जनन्तचतुष्टय चार, सर्व मिल छयालीस गुण हैं। सीय गुण । 'जामैं पाइए सो तरणतारण, शुद्ध भगवान सम्यग्दृष्टिन करि पूष्यवे योग्य जानना । ऐसा भगवान् उपादेय हैं। इति सुदेव • लक्षस जागे कुदेव का लक्षण कहैं हैं
जहां ऐसे लक्षण होय सौ कुदेव । जो सरागी होय भक्त कूं देखि राजी होय अपना अविनयवान् को देखि कोप करें। ऐसा राग-द्वेषी होय, तिनकू लोक विषै भी और कोई-कोई जीव ऐसा कहे हैं जो यह देव रो तौ राज-सम्पदा देय सुखी करे है। ए देव कदाचित कोप करें तो दुखी करै रोग करें पीड़ा देय धन रहित करें मरण करे और कल्पवासी, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी ए च्यारि जाति के देव हैं, सो योनिभूत देव हैं। जन्म-मरण सहित है। अपने किये पुण्य के फल ताहि भोगवे हैं। ए सौम्यदृष्टि, तिनकूं देखें सुख होय है । रा काकूं दुखी करते नाहीं और केतेक मोरे प्राणीनतें अपनी बुद्धि कल्पना करि देवनाम देव, स्थापन किए, सो सौकीक देव हैं। सोरा लोकनको आश्चर्यकारी हैं। सो ऐसा कहैं हैं । जो हमकों पूजौ तृपति करौ अनेक भोग योग्य वस्तु हमको चढ़ावो, तो हम तुमतें प्रसन्न होय हैं। ऐसी सुनि भोरे जीव, केतेक तो ऐसा कहैं हैं ।
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जो याको तेल चढ़ाय प्रसन्न होय है। केई कहै, या देव को सिन्दूर चढ़ाय राजी होय है। केई कहै, याकौं बड़ा रोट चढ़ाय सन्तुष्ट होय है। कोई कहैं याकू पीर्ण वस्त्र चढ़ानू यह नये देव है। कोई कहैं, या देव को गुड़ चढ़े है। कोई कहैं याकों मोदक (सष्ट बढ़ाई है। कोई कई पाको पाल, काल, पत्र, दोभ चढ़ाये प्रसन्न होय है। कोई कहे याकौं मद की धारा चढ़ावो। कोई कहै याकौ जीव का भक्षण चढ़े है। इत्यादिक अनेक लौकिक देव है। सो इनको चेष्टा राग-द्वेषलप जानि, सम्यग्दृष्टि जीवनकै सहज ही हेय भावरूप हैं। त्याग योग्य हैं। इनकी सेवा-भक्ति सुख देने योग्य नाहीं। रा संसारी देव हैं,ऐसा जानना । इति कुदेव कथन । जागे गुरु परीक्षा मैं शेय, हेय, उपादेय बताइए है--
गाथा-कोहाबीय कसायो, गन्धो गह तन्तमन्त च कत्ताए। पर बंचण पासंडो, पूजा सत्तार च्छाई कुगुरी॥
अर्थ-क्रोधादि कषाय सहित होय। ग्रन्ध जो परिग्रह ताका धारी होय। तन्त्र, मन्त्र, नाड़ा वैद्यक का करता होय । परको ठगनेहारे होय, पाखण्डी होय पूजा-मान बड़ाईकौ बाप चाहता होय ताकू कुगुरु जानहु । मावार्थ-जे अपना मान भए राजी होंय, अपना अपमान भरा क्रोधी होय, पापकों कोई आय नमस्कार करे स्तुति करे तासों खुशी हॉय, व मला भोजन दिये राजी हॉय, परको धनवान जानि ताकी विशेष शुश्रूषा पाव भादर करें। कोई धन अपनी नजरि लाय करै तोकौं भला सेवक माने, इत्यादि लतरा ते कुगुरु जानहु और परिग्रह धारिक आपकू गुरुपद मानता होय राग-द्वेष भाव सहित होय तथा बड़े धन का धनी होय और धन मिलायवे की इच्छा होय बहुत खेद खाय द्रव्य इकट्ठी करने को महा लोभी होय और अपने गुरुपद मनायवेकौं अनेक जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, वैद्यक, ज्योतिष इन आदि अनेक चमत्कार प्रकट करि, भोरे जीवनकौ विस्मय उपजाय मोहित करै, सो कुगुरु है और परके ठगवेकौं महाप्रवीण होय अपने चित्त की बात महागढ़ राखिक अपनी बुद्धि के बलते भोरे जीवन का धन हरवेको आप महा समता भाव धरै अनेक मिष्ट वचन बोले। आये भक्त का भले प्रकार सरकार करै। परको सन्तोष विश्वास उपजाय तितत पुजावना तिन भोरे जीवनकों अपने प्रति नमावना, सो कुगुरु है। जापकू गुरुपद मान हिंसा रूप प्रवर्तना अरु हिंसा का उपदेश देना। आप क्रियाहीन होय वाद्यप्रदाय के विचार रहित होय, उपसर्ग आये दीन होय, साता मये प्रफुल्लित होय। चाम, घास, बक्कल इत्यादिक
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पटकाधारी होय। याचना जो रंकवृत्ति ता याचना का धारी होय, सो कुगुरु हैं। आपका अपमान भए तथा आपकौं मनवांछित दान नहीं दिये परको सराप देवेकौं महाक्रोधो होय। आपकं गुरु संज्ञा मानि अवधि होय पर पीड़ा करवेकौं निरदई होय । अरु पराए आश्रयकं वांछता होय और मिष्ट सुर कार गावना-बजावना
आदि क्रिया करि अन्य गृहस्थीनकौं राजी करने का ज्याई होय। रसायन रसकूप धातु मारवं की प्रवीणता ! बताय, काले वशीभता की इच्छा होय.एस.तृषा शीत उष्णादि परीषह बाये महाकायर होय। काम विकार रोकवेकौं असमर्थ होय। स्त्री सहित होय तथा मन इन्द्रिय के जीतवेकौं दीन होय तथा इन्द्रिय फाडि तामैं लोह सांकल तथा कड़ी नाथे होय तथा संसारी गृहस्थीन की नाई नाता पालता होय । होली, दिवाली, त्योहार आए बहिन बेटीनकों मेंट देता होय, सो कुगुरु है। ध्यान-अध्ययन विर्षे प्रमादी होय । शरीर के धोवने. पौंछने, खुजावने, पिघावने, लिटावने, उठावने आदि काय शुश्रूषा में प्रवीरा होय । प्राचार्यन की परम्पराय परिपाटो मर्यादा का लोपनेहारा होय । रात्रिविर्षे अन्न-जल का ग्रहण करता होय । अज्ञान तपस्या करता होय और महल, मन्दिर, अटारी बनाय स्थिति करता होय । कूप, बावड़ी, तालाब, बाग बनवायके अपना नाम चलायबे की इच्छा होय । इत्यादिक अनेक भेष बनाय अपनी-अपनी परगति लिए जगत् मैं आपकू गुरुपद माने है। सो र कुगुरुन के लक्षण हेय जानना। इति कुगुरु वर्सन। आगे सुगुरु तरण-तारण, संसार सागरको नौका समान तिनका स्वरूप कहिए हैगाषा-अरिमित जोतव मरणं, तिणघण मुहदुह सफल समभावो । यो गुरु भवदधिणावो पिराई णगणणाणमय जोई ॥२०॥
अर्थ-वैरी अरु मित्र में समभाव होय। जोतब्ध-मरण मैं समभाव होय। तिनका पर कंचन में समान भाव होय। सुख-दुख मैं समभाव होय और जो गुरु मवधि कू नाव समान होय। वीतरागी होय, नग्न होय, ज्ञान-मति होय, सो यतीश्वर हमारे गुरु हैं।
भावार्थ-जिन यतोश्वरन के अपनी निन्दा करनहारा कर स्वभावी, अविनयी बना द्वेषी अरु अपनी सेवा का करनहारा विनयवान शिष्य तथा अपना भित्र इन दोऊन मैं समभाव होय, सो गुरु पूज्य हैं। बहुत काल शरीरमैं रहना, सो जोवना 1 अरु अल्पकालमैं तन का तजमा, सो मरण । इस जीवन-मरण दौऊमैं जिनके
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समभाव होय, सो जगत् गुरु हैं । तिनके पुष्ट करनहार नाना प्रकार भाजन । नाना प्रकार तननिरोगताद अनेक सुख तथा अनेक परीषहन का खेद। तन-रोगादिक अनेक सुख-दुखमैं समताभाव पार्क होय, सो सुगुरु हैं। । १२६ जीर्थ घास के तिनका मैं अरु नाना प्रकार रतनादि स्वर्ग इनमैं समता होय इत्यादिक वीतरागता सहित गुरा जामैं होंय ते गुरु भव समुद्र के तारवेकौं नौका समान हैं। कैसे हैं उन गुरु का काहतें राग-द्वेष नाही, वीतरागो हैं और अन्तरङ्ग तो कषाय कोच रहित महानिर्मल । अरु बाहिर सर्व प्रकार परिग्रह रहित मातृजात नगन हैं। मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्थय इन आदि महाअतिशयकारी ज्ञान के धारी हैं। ऐसे योगीश्वर सो सुगुरु हैं। इन्द्र देवादि चक्रवादि सम्यग्दृष्टि जीवन करि पूजने योग्य हैं। आगे सुगुरु ही का स्वरूप कहिरा है
गाथा-मणइन्दी जय सूरा, बीरा संकट सहण दो बीसा । तणः खीणा मण सुखिया, सो होई गुरु तरण ताराए । २९ । । अर्थ-पंच-इन्द्रिय अरु मन का रा महाबलवान हैं। इनके वश इन्द्र, चक्रो आदि तीन लोक के राजा होय रहे हैं। जैसे मन-इन्द्रिय चलावै है तैसे इन्द्रियादिक चाले हैं। तातै संसारमैं ए मन-इन्द्रिय ही महायोधा है। तिनके जीतनेकौं यतीश्वर ही महासुरमा है और कैसे हैं गुरु बाईस संकट जो परीषह तिनके देखें ही बड़े-बड़े साहसीन का साहस भयखाय जाता रहै। ऐसे दुर्धर परीषह तिनके जोतवेकौं ये ही योगीश्वर महाधीरवीर हैं। सो इन परिवहन का स्वरूप आगे कहँगे तातै यहाँ नाहों कह्या । फेरि गुरु कैसे हैं ? नाना प्रकार तपररूप अगनि मैं जल्या शरीर सो तन तपते महाक्षीण भया है। बाकी नसें, चाम, हाड़न का जाल रह गया है। तातें तनके तौ शोण हैं अरु मन विष समताभाव करि अनुपम अमृतपानतें महासुखी हैं। सो ही गुरु तरण-तारण हैं। ये ही सम्यग्दृष्टिन करि पूजने योग्य उपादेय हैं। आगे और भी सुगुरु का स्वरूप कहिए हैगाथा-पंच महावय सहियो, समवोपन अलगयन्द बशीकरई । आवसि षट् सेसो जो सस अहवीस मूलगुण साहू ॥ २२ ॥
अर्थ-पंच महाव्रत सहित होय, पंच समिति के रक्षक होय, पंच इन्द्रियरूपी हस्ती कू वशीकरनहारे होय, | २६ । षट् पावश्यकन मैं सावधान होय और जो सात शेष गुण के धारक होय। ऐसे अठाईस मूल गुण जा मुनि के
नोय, सो शुद्ध गुरु हैं। भावार्थ-जे योगीश्वर ध्यान-अध्ययन विर्षे प्रवीण, जगत गुरु, अठाईस मल गुरा पालवे मैं प्रमाद रहित होय प्रवत हैं। सोही मूलगुण यतीश्वर का धर्म है। सो मलगुण बताइए हैं। महावत पाँच,
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श्री
। समिति पांच, पंच इन्द्रिय वशीकरण, आवश्यकषट्, मभिशयन, मंजनतजन, वसनत्याग, कचलोच, एक बार। । भोजन, आसनस्थिति, दन्तधोने का त्याग-रा सर्व मिलि अठाईस भए। अब इनका सामान्य स्वरूप कहिय है। प्रथम ही महावत का सामान्य लक्षण-तहाँ सर्वत्र स्थावर जीवन पै समतामावधरि, जगत् का पीर हर, परमदयालु, कोमल चित्त का धारी, जगत् जीव सर्व आप समानि बानि सर्व जीव को रक्षा करनी, सर्व प्रकार हिंसा
का त्याग, सो अहिंसा महानत है। थाही का नाम अभयदान है। कई भारं जीव जन्मते गौ-पुत्र के मुखमैं मोती |सुवर्ण धरि दान देना। ताकौ अभयदान कहैं हैं। सो यह उपदेश लोभ के माहात्म्यतै भोरे जीवनक लोभी गुरु
ने बताया है। अभय नामतौ वाकौं कहिए जो ताक सर्व भयतै रहित करै। मरणते रातै, ताका नाम अभयदान है। सौ र अभयदान वाकों होय जो हिंसा रहित व्रत का धारी होय ।३। सर्व प्रकार जसत्य का त्यागी होय, जिन आज्ञा प्रमाण बोलना, सो सत्यमहाव्रत है । और सर्व प्रकार अदत्ता-दान जो बिना दिया पदार्थ नहीं लेना, राह पड़ी वस्तु मन-वचन-काय करि नाही लेय, इत्यादिक चोरो का त्याग, सो अचौर्य महाव्रत है।३। सर्व प्रकार स्त्री के विषयन का मन-वचन-काय, कृत कारित अनुमोदना करि देव-स्त्री, पशु-स्वी, मनुष्य-स्त्री, काष्ठ पाषाण को अचेतन-स्त्री-इन च्यारि प्रकार स्त्रीन के भोग स्पर्शनादि विषय का त्याग, सो ब्रह्मचर्य महाव्रत है। इहा प्रश्न-जो चेतन-स्त्री का त्याग सो शील है। अरु अचेतन-स्त्री का भोग त्याग को शोल कह्या, सो ब्रह्मचर्य महावत हैं। सो अचेतन मैं भोग काहे का है ? ताका समाधान मो भव्य ! भोग हैं सो यथायोग्य मनकरि, वचन करि, काय करि तीन प्रकार हैं। चैतन्य-स्त्री भोगतो तीनों प्रकार करि होय है। सो तुम मले प्रकार जानौ हो हो और अचेतन-स्त्री ते काय-वचन का भोग तो नाहीं बने है और मन के भोगकों अचेतन-स्त्री कारण है। अचेतन-स्त्री कं देखि हर्ष का होना कि जो यह चित्राम काष्ठ पाषाण की स्त्री महासुन्दर है याका रूप देवांगना समान है। इत्यादिक अचेतन-स्त्रोक देखि चैतन-स्त्री का समरनि करि हर्ष का होना, सोमन सम्बन्धी तथा कोई प्रकार वचन सम्बन्धी भोग जानना। तातें ब्रह्मचर्य व्रत का धारी अचेतन और चेतन-स्त्री का त्यागी जानना। यह ब्रह्मवर्य महावत है।४। कषाय नव, मिथ्यात्व एक, संज्वलन की चौकड़ी चार—ये चौदह प्रकार अन्तरङ्ग परिग्रह का त्याग और धन, धान्य, दासी, दासादि, दस प्रकार बाह्य परिग्रह-श चौबीस प्रकार
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परिग्रह का त्याग, सो नगन यतीकै परिग्रह त्याग नामा महाव्रत है। ५ इति महाव्रत। आगे पंच समिति का
.१२८ | स्वरूप कहिए है-तहां योगीश्वर दया के भण्डार जब पृथ्वी विर्षे विहार करै तब चलते च्यारि हाथ धरती
देखते चले हैं। सर्व जीवन प्रति महा कोमल चित्त का धरनहारा करुणानिधान, धरती देखें कि कोई जीव हमारे तनतें पीड़या नहीं जाय। जैसे—काह का रतन भमि वि पड़ गया. सो रतन शोषवे निमित्त नीची दृष्टि किरा, धरती देखता चालें। तैसे ही जगत् का पीर हर, जीवरुपी आप समानि रतन, ताके बचावने के निमित्त देखता चलै, सो ईर्या-समिति है। ३ । यतोश्वर वचन बोलें, तब महाहित वचा बोलें। ताक सुनि अन्य जीव सुखी होय,
पुण्य का बन्ध करें। ऐसा पाप रहित जिन-आज्ञा सहित मिष्ट वचन बोलें, सो भाषा-समिति है ।२। भोजन समय | यती भोजन करें तब मन-वचन-काय एकाग्र करि मोजन विर्षे दृष्टि राखें सो निर्दोष चालीस दोष टारि
[बत्तीस अन्तराय, चौदह मलदोष टारि भोजन करें। सो भी यति, जगत भोगनते उदासीन तन ममत्व रहित, निस्पृहता लिए भोजन करें। सो मुनि का भोजन पंच प्रकार है। सो ही कहिये है। प्रथम नाम-गोचरी, भ्रमरी, गरतपूरन, दाह शमन, ओंगरण। इनका अर्थ-जैसे गैया वनमैं चरै सो घास रूखड़ी वृत्त चरै, सो मलतें नहों उपारे। ऊपरि-ऊपरि ते चरै। तैसे ही मुनि गृहस्थकं नहीं सतावै, सहज भ्रमण करि मोजन लेय। सो गोचरी भैद है। ।। जैसे भ्रमर फलकं नहीं सतावै दुरत बास लेय, तैसे मुनि गृहस्थकू नहीं सतावै. गृहस्थक घरते द्वरि अन्तर गमन करे, यह पड़गाहै तब भोजन लेय। सो भ्रमरो भेद है। २ । जैसे कोई खाड़ा (गड़ढा) पूरे तब घास, लकड़ी, पत्थर, राख, मिट्टी, धल जो हाथ आवै, तातै खाड़ा पुरै। तैसे हो यतिनाथ क्षुधारूपी खाड़ा पूरैं। सो चाहे तो भोजन रस सहित होय तथा रस रहित होय। मुनि, योग्य भोजन आचार सहित लेय। पीछे कैसा होय, इनके स्वाद नै काम नाहीं। क्षुधारूपी खाड़ा जैसे-तैसे भरें, सो गत पुरण है।३। जैसे घर कू अग्नि लगे तब राखि धूलि पानी से जैसे बने तैसे बुझावें। तैसे हो मुनिकों नीरस तथा रस सहित चाहै जैसा भोजन || मिलो, क्षुधा अनि बुझावनी। सो याका नाम दाह शमन है।४। गाडी नहीं चले तब तिल तेल प्रतते ओंग के चलाय जैसे-तैसे मंजिल (रास्ता) काटि घर पहुँचें। तैसे ही मुनि मोक्ष घर जाते तनरूपी गाड़ी चलें है। सो रुखा-सूखा शीत-उष्ण चाहै जैसा होहु, शुद्ध आहार चाहिये सो जब क्षुधा का निमित्त जाने तब भोजन का
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। ओंगन देय मोक्ष घर पहुँचे, सो ओंगण भेद है। ५। ऐसे यति भोजन करें, सो दोष रहित करें, दोष कसे, | सो कहिर हैंगाषा-दोह छियाली रहियो, अन्ताय तीस दो शुद्धो । दह पर मल दोह होणो, मुणि भोयण होइ णिदोसो ॥ २३ ॥
अर्थ छयालीस दोष, बत्तीस अन्तराय, चौदह मल दोष, जहाँ एते दोष टलैं, तब मुनीश्वर का भोजन शुद्ध होय है। भावार्थ-यति का भोजन निर्दोष होय, तौ लय हैं। कदाचित् दोष लगै तौ अन्तराय करें। सो दोष कसे, सो कहिए हैं। प्रथम छयालीस दोष के नाम--अर्थ कहिए है। तहां प्रथम उद्गम दोष सोलह, सो दाता
के आधीन हैं। इनकी रक्षा दातार के आधीन हैं। इनकी सावधानी दातार करै, नहीं तो दातारको दोष लागै। | तिन सोला के नाम-तहाँ मुनि के निमित्त भोजन करें तौ दाताको दोष लागे। याका नाम उद्दिष्ट-दोष है।। |तहां आगे भोजन किया होय अरु मुनिकों आये जानि, उस भोजनको अत्य जानि तामैं और अन्नादि मिलाय मुनिकौं भोजन देय तौ दाताको दोष लागै। याका नाम साधिक (अध्यधि)दोष है। २। मुनीश्वरको अप्रासुक जो सचित्त भोजन देय तौ दाताकौं दोष लागै याका नाम पूर्ति-कर्म-दोष है । ३। केई असंयमी की भाँति मुनिको भोजन देय तौ दाताको दोष लागै याका नाम मिश्र-दोष है। 81 जिस पात्र मैं भोजन किया (बनाया) था तातै काढ़ि और पात्रनि मैं धरि मुनिको भोजन देय तौ दाताको दोष लागें । याका नाम स्योपिमन्यस्त-दोष है । कोई ध्यन्तरादिक देवनके निमित्त भोजन किया होय तामैं मुनिकों दान देय तौ दाताको दोष लागे। याका नाम बलि-दोष है।६। काल की हीनता अधिकता तथा भोजन का समय चूकि पड़गाहना तथा काल जो दुर्भिक्ष ताके योग करि जो सस्ता धान होय, सो उसका मुनिकों भोजन देय तथा आपकू आकुलता जानि शीघ्र-शीघ्र भोजन देय तथा धीरे-धीरे भोजन देय। ऐसे काल की हीनता-अधिकताकरि यथायोग्य भोजन नहीं देय, तो दाताको दोष लागें। थाका नाम प्राभृतक-दोष है। ७। मुनि महाराज के घर आने पर, भाजनों का अन्य स्थान से अन्य स्थान पर ले जाना, बर्तनों का भस्मसे मांजना, जलसे धोवना तथा मण्डप का उघाड़ना, दीपक का उद्योत करना, सो प्रादुष्कर नामा दोष है।८। मुनीश्वरकौं भोजन के निमित्त आए जानि, तत्काल ही अपना सचित्त-द्रव्य व अचित्त-द्रव्य देय करके आहारकों मोलि ल्याय साधुको आहार देखें वा मन्त्र-तन्त्र विद्या परकं देय भोजन बनवायके मुनिकों
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दान देय तौ दाताको दोष लागे। याका नाम क्रीत-दोष है। ह। अपनी शक्ति तौ नाहीं परन्तु पराया कर्ज लेय मुनिकों भोजन देव तौ तादाकू दोष लागे, याका नाम प्रामित्य-दोष है। १०। अपने घर में होन अन्न था जो जवारि कोद, सो तिन बदलाय तन्दुल गेहूं लाय मुनिकों दान देय, तौ दाताकौं दोष लागै, याका नाम परिवतित [परावर्त] दोष है। १२ । अन्य गृह, अन्य ग्राम, स्वदेश व अन्य देश से आये हुए भोजन को, दाता मुनि को पड़गाह करके देय. तो दोष लागे। ताका नाम अभिवट (अमिहत) दोष है और यतिको पड़गाह लाये, कोई वस्तु किसी पात्रमैं थो ताका मुख बंधा था ताका मुख खोलि, मुनिकों दान देय, तौ दाताकौं दोष लागे। याका नाम उद्धिन-दोष है। १३ । और मुनि आए पीछे कोई वस्तु ऊपरले खण्ड है ताकू, लाय मुनिकों भोजन देय तौ दाताको दोष लागै, याका नाम मालारोहरण-दोष है। ३४। और श्रावक कू तो मुनि-दान देव की वोच्छा नाही. परिणामन मैं भक्ति नाहीं। परन्तु राजा, पंच, नगर के लोक धर्मात्मा है, सो राजपंच के भय करि लोक दिखावने कं मुनिको दान देय, तौ दाताको दोष लागै। याका नाम आच्छेद-दोष है।१५। अनिसृष्ट (निषिद्ध) दोष दो प्रकार है। एक ईश्वर दुसरा अनिश्वर । तहाँ घर का मालिक तो होय परन्तु मन्त्री आदि के | आधीन होय, सो सारक्ष ईश्वर है और जो मन्त्री आदि के आधीन न हो सो असारक्ष ईश्वर है और जो मन्त्री
आदि के अधीन न होकर उनसे सलाह लेकर कार्य करता है, सो सारसासारक्ष ईश्वर है। इस प्रकार के ईश्वर | से प्रतिषिद्ध आहार को देना, सो ईश्वर-निषिद्ध-दोष है। जाका घर-धनी तौ नाहीं और ही आय दान देय, तौ
दाताको दोष लागै। याका नाम अनीश्वर-निषिद्ध-दोष है ।१६। इनका जतन दाता करे। यह उद्गम दोष कहे। भागे सोलह उत्पादन दोष हैं । सो पात्र के आधीन हैं। सोही कहिये हैं। तर्हा मुनीश्वर दाता के घर भोजनकों जाय ताके बालकन कंधाय की नाई रमा। सिंगारादि करावें। तौ यतिको दोष लागै। याका नाम धात्री-दोष है।। यतीश्वर भोजनकौं दाता के घर जायकै ताको सम्बन्धी व दूरदेश के समाचार कहे तो पात्रकों दोष लागै। याका नाम दूत-दोष है। २। मुनीश्वर दाताकू निमित्तज्ञानादि अतिशय बताय भोजन करें तो यतीश्वर कों दोष लागे, याका नाम निमित्त-दोष है।३। मुनीश्वर दाता के घर जाय आजीविका की बात कहैं जो आज काल भोजन का निमित्त अल्प है इत्यादिक कहि भोजन करें तो मुनीश्वरकों दोष लागे। याका नाम जाणीव
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दोष है।४। यतीश्वर दाता के सुहावनी बात कह भोजन लेंथ तो मुनिको दोष लागें। याका नाम विनयक-दोष है।५। मुनि दाता के घर भोजनका जाय नाड़ी वैद्यकादि औषधि बताय भोजन करें तो मुनिकों दोष लागै। याका नाम चिकित्सा-दोष है।६। जहां मुनीश्वर भोजन समय कोई कोप करि भोजन करें तो यतिको दोष । १३१ लागे। याका नाम क्रोध-दोष है। ७। मुनि आपकू उत्तम राजवंश का जानि दाता के घर मान सहित भोजन करें तौ यतिकौ दोष लागै, याका नाम मान-दोष है।ायतीश्वर अपने चित्त की गूढ वार्ता कोईको नहीं जानावता भोजन करै तौ यतिकौ दोष लागै, याका नाम माया-दोष है। यति मले भोजनकौं रुचि सहित करें तो मुनिकों दोष लागै, याका नाम लोभ-दोष है। २०1 मुनिराज दाता के घर जाय भोजन किये पहले दाता की स्तुति करें। तो यतिको दोष लागे। याका नाम पूर्व स्तुति-दोष है । १२ । यतीश्वर भोजन लिये पीछे दाता को स्तुति करै तौ मुनिको दोष लागे, याका नाम पश्चात्-स्तुति-दोष हैं। १२॥ यतीश्वर श्रावकनकौं पढ़ाय भोजन करें तो यतिकौं दोष लागै, याका नाम विद्या-दोष है ।२३। यति मन्त्र, तन्त्र, जन्त्र, टोना, जादू इन आदि अनेक अतिशय अपने-अपने श्रावकनको वताय तिनके भोजन कर तो मुनिको दोष लागै, याका नाम मन्त्र-दोष है। १४ । मुनीश्वर गृहस्थत नेत्र का प्रक्षन पेट रोगकू चूरन बताय भोजन करें तो यतिको दोष लागै, याका नाम मूल-कर्म (वश्य-कम)दोष है। २६। यह षोड़श दोषों की यति सावधानी राखे नाहीं तो मुनिकों दोष लागे, यति का पद कलङ्क पावै। ऐसे सोलह उत्पादन दोष हैं। आगे एषणा दोष दश कहिये हैं। भोजन करते ऐसा सन्देह उपजे जो यह भोजन शुद्ध है अथवा अशुद्ध है ऐसा सन्देह होते भोजन करे तो यतीश्वरको दोष लागै, याका नाम शंकित-दोष है। । यति दाता के हाथ चीकनै देखें तथा बासन चिकने देखें तो भोजन नहों लेंय अरु लेय तो यति कों दोष लागै, याका नाम मृक्षित-दोष है। २ । सचित्त वस्तु ते व भारी अचित्त वस्तुतें भी ढोकी जो भोजन वस्तु सो यति नहीं खाँय तो मुनिको दोष लागै, याका नाम पिहित-दोष है। ३। सचित्त पृथिवी जल. अग्नि, वनस्पति, बीज तथा वस जीव के ऊपर घरचा हुआ आहार मुनि नाहीं ग्रहण करें यदि करें तो याका नाम नितिप्त-दोष है। 81 सूतक के घर, रोगी के हाथ का, वृद्ध बालक नपुंसक गर्म सहित स्त्री इनके करते || भोजन नहीं लेंथ और जलती अग्निकौ बुझावती देखें तथा स्त्रीकों बालक चुखाती, बालकको आँचल से छुटावती
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| देखें, तो भोजन नाहीं करें। करै तौ दोष लागे याका नाम दायक-दोष है। जो भोजन पृथ्वी, जल, हरितकाय पत्र पुष्प, फल, बीज इत्यादिक करि मिल्या होय. सो मिश्र-दोष सहित है ।६। भय से अधवा आदर से वस्त्रादिक
१३२ कोयनाचार पस्तिशीन कामो मुनीसारको हाहार देना. सो व्यवण (साधारण) दोष है । जा वस्तु का वर्ग नहीं फिरथा होय, अधकसी वस्तु होय, सो यतीश्वर नहीं लेंय याकूलेय तौ दोष लागे,याका नाम अपरिणतदोष है। डायति भोजन समय दाता के हाथ व तौला, भरत्याई, हांडी तथा और पात्र, खिचड़ी तथा व्यान तिरकारी तें लिपटे देखें तो गुरुनाथ भोजन नहीं करें। करें तौ दोष लागै, याका नाम लिप्त-दोष है।६। जो हाथ की चञ्चलता कर छाछ, घृत, दुग्धादि का मरना अथवा छिद्र सहित हस्तनिकर बहुत भोजन तो गिर जाय अर अल्प ग्रहण में आवे अथवा हस्तपुट को पृथक करके भोजन करना, सो त्यक्त-दोष है। ३०। र दश एषणा समिति के दोष हैं।
आगे च्यारि खैरीजि ( फुटकर ) दोष अथवा भुक्ति-दोष कहिए हैं। जहाँ शीत उष्ण वस्तु मिलारा सुख निमित्त स्थापना, ताका नाम संयोग-दोष है। ।। भोजन का प्रमाण तथा काल का प्रमाण ताकौ उलंधिक भोजन कर, तो यतिको दोष लागै, याका नाम प्रमाण दोष है। २ । भला भोजन, षट्रस सहित मिष्ट भोजनकौ, रति सहित स्वाय खुशी होय दाता की शुश्रूषा करतौ मुनीश्वरको दोष लामें, याका नाम अङ्गार-दोष है ।३। यतिको रूखा-सखा, रस रहित, प्रकृति विरुद्ध भोजन मिले तो अरुचि सौ नाय तो यतिकौं दोष लागै, याका नाम धूम-दोष है।४।र च्यारि खैरीज हैं। ऐसे उद्गम सोलह, उत्पादन सोलह, एषणा दश, खेरीज च्यारि। सब मिलि छयालीस दोष भय । इन टले शुद्ध भोजन हो है। इति छयालीस दोष। आगे बत्तीस अन्तराय कहिए हैं। जहाँ मुनि भोजन करतें कोई काकादिक जीव बीट करता दे, तो भोजन त । याका नाम काक-अन्तराय । है। गमन करते साधु के पग में अमेध्य जो मल लग जाय, तो भोजन नाहीं करें, याका नाम अमध्य-अन्तराय है।२। मुनि के भोजन करते वमन होय जाय तौ, भोजन तजै, याका नाम छर्दि-अन्तराय है।३1 मुनीश्वर को भोजन के लिये गमन करते समय कोई रोक देवे, तौ भोजन तजें, याका नाम रोधन-अन्तराय है।४। भोजन | समय पनि आपर्क तथा परके लोड चार अंगल या अधिक वारसा मैं तो भोज
ह चार अंगुल या अधिक बहता देखें,तो भोजन तर्ज, याका नाम रुधिर-अन्तराय
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है ।श साधु दुःख शोकादिकतें आपके अश्रुपात देखें अरु समीपवर्ती जनन का मरणादि कर अति रोदनविलाप श्रवण करें तौ भोजन तर्ज, याका नाम अश्रुपात अन्तराय है । ६ । भोजन करते दातार तथा पात्र कोई प्रगासाथ, जंया ना तो सोहर गर्जे, याका नाम जावन्धः-परामर्श-दोष है ।७। भानु प्रमाण तिर्यग निक्षिप्त काष्ठादि का उल्लंघन करना, सी जानुहतिक्रम-अन्तराय है।८। यति भोजन करते कोई मनुष्यों नामि नीचें मस्तकको नवायनिकलता देखें, तो यति भोजन तजे, याका नाम नाभ्यधोनिर्गमनअन्तराय है । और मुनि भोजन समय तजी वस्तु का ग्रहण करें, तो भोजन तर्जे, याका नाम प्रत्याख्यातसेवन अन्तराय है ।२०। भोजन करते यति सामने दूसरे से कोई जीव मरा देखें तो भोजन तज, याका नाम जन्तुवध-अन्तराय है । २२ । भोजन करतें काकादिक जीव ग्रास ले जाय, तौ यति भोजन तजें, याका नाम काकादि-पिण्डग्रहण-अन्तराय है । १२ । भोजन करत पात्र के हाथत ग्रासपिण्ड ममि में पड़े तो यति भोजन तजें, याका नाम पिण्डपतन-अन्तराय है । १३ । और साधु के हाथ में जीव स्वयं भाकर मर जाय तो भोजन तजै, याका नाम पाणिजन्तुबंध-अन्तराय है ॥२४॥ भोजन समय यति आमिष (मांस) मुर्दा देखें तो भोजन तणे, याका नाम मांसादि-दर्शन-अन्तराय है ।श भोजन समय कोई उपसर्ग होय तौ यति भोजन तर्जे, याका नाम उपसर्ग-अन्तराय है ।२६। भोजन करते समय यति के दोनों पांव के बीच में होय पंचेन्द्रिय जीव कोई गमन करता मुनि जानैं तो भोजन तजै, याका नाम पंचेन्द्रिय-जीव-गमन-अन्तराय है ।१७। भोजन करते दाता के हाथतें भूमिमैं पात्र पड़े, तो भोजन यति नहीं करें, याका नाम भाजन-सन्ताप-अन्यराय है । १८ । भोजन करतें मुनीश्वर अपना मल खिरया जान तो भोजन नहीं लेय, याका नाम उच्चार-अन्तराय है । २६ । भोजन करतें यति आपके मुत्र खिरचा जाने तो अन्तराय होय, याका नाम प्रसवण-अन्तराय है ।२०। भोजन समय मुनि प्रमाद वशाय भलमैं, शुद्र के घर में प्रवेश कर जोय, तौ अन्तराय करें, याका नाम अमोज्य-गृह-प्रवेशअन्तराय है 1२। यति का मर्धा कर पतन हो जाय, तौ अन्तराय करें, याका नाम पतन-अन्तराय है ।२२। भोजन समय कर्म करि, मलिक तथा प्रमाद तैं तथा तन की हीन शक्ति तें कबहूँ मुनि बेठि जाय, तौ अन्तराय होय, याका नाम उपवेशन-अन्तराय है ।२३। भोजन करते कोईको कुत्ता, बिल्ली काटिता देसितें भोजन तर्ज,
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याका नाम सदंश-दृष्ट- अन्तराय है । २४ । भोजन पहले सिद्ध भक्ति के पश्चात् करतें भूमि स्पशैं तौ अन्तराय है, का नाम भूमि- स्पर्श - अन्तराय है । २५ । भोजन करतं मुनीश्वर स्वतः कफादिक का निष्ठीवन करें, तो भोजन तजें, याका नाम निष्ठीवन अन्तराय है । २६ । भोजन समय मुनि अपने उदरतें कृमि खिरी जानें. तौ अन्तराय करें, याका नाम कृमि गमन- अन्तराय है । २७ । भोजन समय दाता के बिना ही दिए प्रमाद योगतें कोई भोजन यति अङ्गीकार करें, तो भोजन तजैं, याका नाम प्रदत्त - ग्रहण - दोष है सो अन्तराय है। २८ । खड़गादित ककरते साधु का कोई घात करै वा अन्य का घात करें, तो अन्तराय होय, याका नाम शस्त्रप्रहार अन्तराय है । २६ । भोजन समय मुनिनाथ ने नगरमैं जाते, नगर में अग्नि लागी देखी तो भोजन तजैं,
का नाम ग्रामदाह - अन्तराय है । ३० । भोजनकों नगरमैं जाते कोई पड़ी वस्तु पावतें ग्रहण करें तो भोजन त, याका नाम पादग्रहण- अन्तराय है । ३१ । भोजनकों नगर मैं प्रमाद वशाय कोई राह पड़ी वस्तु हायते छोंवें तौ भोजन तजैं, बाका नाम कर ग्रहण- अन्तराय है । इस ऐसे जगत् का गुरु शरीरतें मोह का तजनहारा, संसारीक सुख उदास इन्द्रिय जनित आनन्द निस्पृह र बत्तीस अन्तराय भोजन समय टालें, तब शुद्ध भोजन होय है। चौदह मल-दोष और टालेँ, तिनके नाम कहिए है--नख, रोम, मृतक जीव, हाड़ गेहूँ जब अभ्यन्तर अवयव, पक्व, रुधिर, तिलादिक के सूक्ष्म अवयव, चाम, रुधिर, आमिष, ऊँगने योग्य बोज, फल, जाति, आदादि, कन्द ( अदरक आदि ) मूलादि मूल ऐसे चौदह मल-दोष हैं सो मुनि के भोजन मैं आवें तौ तथा केईक देखें तो वे भोजन तजैं। ऐसे छचालीस दोष बत्तीस अन्तराय और चौदह मलदोष टालें । तब वीतरागी गुरु का शुद्ध भोजन होय है । याका नाम तीसरी राबणा-समिति है । ३ | आदान तौ नाम लेने का है, अरु निक्षेपण नाम घरवै का है। सो पुस्तक पीछी कमण्डलु शरोर इनकूं जहां धरै सो निर्जीव जगह देखि धरै । इनको उठावें तब जतन तें उठावें । सो आदान-निक्षेपण समिति है ।४। और यति तन के मल-मूत्र सो निर्जीव भूमि देखि नाखँ ( डालें ) सो प्रस्थानी ( व्युत्सर्ग) समिति है । ५ ए पांच समिति कहीं। आगे पंचेन्द्रिय वशीकरण कहे हैं। सो तहां स्पर्श के आठ विषय हैं। तिन आठ का निमित्त मिलें राग-द्वेष नहीं करै सो स्पर्शन इन्द्रिय विजयी साधु कहिए । २ । रसना इन्द्रिय के पांच विषय हैं। सो इन
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पांच का निमित्त मिलै तहाँ राग-द्वेष नहीं करें, सो रसना इन्द्रिय साधु कहिए । २ । घ्राण इन्द्रिय के विषय दोय हैं । तिनका निमित्त मिलें. रागो-द्वेषो नहीं होय, सो घ्राण इन्द्रिय विजयी साधु कहिरा ।३। चक्षु इन्द्रिय || के पंच विषय हैं। तिनका निमित्त मिले रागी-द्वेषी नहीं होय, सो चक्ष इन्द्रिय विजयी साधु कहिय।४। श्रौत्र इन्द्रिय के तीन विषय हैं। तिनका निमित्त मिले रागी-देषी नहीं होय, सो श्रोत्र इन्द्रिय वशीकरण (विजयी साधु) कहिर है । ऐसे पंच इन्द्रियन के विषय का निमित्त मिल रागी-द्वेषी नहीं होय, सो पंचेन्द्रिय विजयी साधु हैं । बहुरि आवश्यक षट् का स्वरूप कहिए है। सो प्रथम ही सामायिक आवश्यक कहिये है
गाथा—णाम समापण दबो खेत्ते कालेष भाव सम्मायो । एसड भेय मुणिन्दो, अह णिस धारणेय आवसियो।
ऐसे सामायिक के षट भेद हैं। नाम-सामायिक, स्थापना-सामायिक, द्रव्य-सामायिक, क्षेत्र-सामायिक, काल-सामायिक और भाव-सामायिक । अब इनका अर्थ सामान्य करि बताइश है। तहां इष्ट, पदार्थ, राग, रंग, गीत, नृत्य, रूप, रतन, कंचन, सपूत पुत्र, माई, माता-पिता, राजा इन आदिक वस्तु के नाम सुनि राग नहीं करना, सो नाम-सामायिक है तथा शत्रु, अविनयी, दुराचारी इत्यादि खोटे नाम सुनि द्वेष नहीं करना, सो नाम-सामायिक है तथा ऐसा विचारना कि जा में सामायिक करी हौं, इत्यादिक भावना, सो नामसामायिक है और मनुष्य, पशु तथा मिट्टो काष्ठ पाषाण के मनुष्य पशन के नाना प्रकार आकार देखि ऐसा नहीं विचारना कि र मला है ए मला नाही तथा बावड़ी, कूप, सरोवर, मन्दिर आदि देखि राग-द्वेष भलेबुरे नहों कल्पना, सो स्थापना-सामायिक है और चेतन-अचेतन द्रव्य-पदार्थ देखि राग-द्वेष नहीं करें तथा कोई भव्यात्मा द्रव्य सामाधिक के सर्व पाठ जाननेवाला सन्ध्या समय सामायिक करवे को पद्मासन तथा कायोत्सर्ग तन की मुद्रा किरा तिष्ठे है । ताका चित्त वशीभूत नाही, सो अनेक जगह भ्रमस कर है। अरु पाठ शुद्ध पढ़ता तिष्ठे है सो जीव तथा शरीर सामायिक रूप है, ताक् द्रव्य-सामायिक कहिये और स्वर्ग, नरक, पाताल, मध्यलोक के अनेक द्वोप-समुद्र. पढ़ाई की. तिडते आर्य-प्लेच्छ क्षेत्र, वन, बाग, पर्वत इत्यादिक जो सुख-दुख रूप शुभाशुभ देश, ग्राम, क्षेत्र तिनमैं राग-द्वेष नहीं करना सो क्षेत्र-सामायिक है।। वसन्तादि षट् ऋतु तथा शीत-उष्ण, वर्षाकाल तथा शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष तथा दिन, रात्रि तथा वार, नक्षत्रादि
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रा शुभाशुभ देखि इनमें राग-द्वेष नहीं करना तथा उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी तथा प्रथम, दूजा, तीजा. चौथा, ! पंचमा, छठा काल इन सब कालन की प्रवृत्ति विर्षे शुभाशुभ नाहीं होना राग-द्वेष नाहीं करना सो कालसापाविक है। सामायिक करते जोव-अजीवादि तत्वन मैं तौ उपयोग की प्रवृत्ति शरीर की एकाग्रतानिश्चलता और मिथ्यात्व प्रमाद के अभावते शुद्ध समता रस भोजते भाव और सामायिक करते वचन, मन, काय इनकी एकता सहित सामायिक ही विष भावन की प्रवृत्ति, सर्व जीवन” स्नेह-भाव सर्व की रक्षान्माव वा संथम को बढ़वारो रुप परिणाम धर्म शक्तध्यानमयो भाव चेष्टा सो माव-सामायिक है । सो इन षट् भद । रूप सामायिक का धरनहारा शुद्ध भावन सहित जगत गुरु मुनीश्वर षट काय का पीर हर सो सदैव सर्वकाल सर्व संयम का धारी गुरु के सामायिक आवश्यक है।श यतीश्वरकै अरहन्त-सिद्धि की बारम्बार स्तुति सो स्तवन आवश्यक है। 21 अरहन्त सिद्ध की बारम्बार नमस्कार रूप मन-वचन-काय सो वन्दना आवश्यक है।३। कोई प्रमादवशाय संयमकों दोष लागा होय तो ताकी यादि करि ताके दूर करवेकों क्रिया करनी सो प्रतिक्रमण आवश्यक है। है। और पाप क्रिया का त्याग सो प्रत्याख्यान आवश्यक है। ५। और तहां शरीर तें मोह रहित होय प्रवर्तना ध्यान रूप होना, तन त्याग रूप उदास भावना कायोत्सर्ग आसन करि तिष्ठना सो कायोत्सर्ग जावश्यक है। ऐसे महावत, समिति पंचेन्द्रिय वशीमत करण षट आवश्यक, सात खेरीज गुण ऐसे अष्टाविंशति मूल गुण की रक्षा रूप सदैव प्रवर्तना, गुरु बन्दने योग्य है। इति श्री सुदृष्टितरङ्गिणीनामग्रन्थमध्ये अशाईस मूल गुणन में एषणा-समिति में छयालीस दोष, बत्तीस अन्तराय, चौदह
मल-दोष-रहित शुद्ध एषणा-समिति सहित गुण वर्णनो नाम अष्टमपर्ष सम्पूर्णम् ॥८॥ आगे भी मुनि-धर्म की प्रवृत्ति है । तरो तेरह प्रकार चारित्र-उत्तम-धर्म सो पंच महाव्रत पंच समिति इनका स्वरूप तौ ऊपरि कहि आए हैं। तीन मुनि तिनका स्वरूप कहिए है। जहां मन का चिन्तवन होय, सो जिनआज्ञा अनुसार होय। सर्व जीवन सुखरूप प्रमाद रहित मन का विचार अपने अभिप्राय बिना और रूप नहीं होय, सो मन वशी जानना । याही का नाम मन-गुप्ति है 1 जहां वचन का बोलना सो स्वपर-हितकारी जिन-प्राज्ञा समानि बोलना आत्मा के अभिप्राय बिना प्रमाद वचन नहीं बोलना सो प्रमाद रहित सत्य जिन-आज्ञा अनुसार
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कहना सो वचन वशी जानना याही का नाम वचन गुप्ति है। जहाँ कायतै चालना सो समिति सहित चालना अपने
अनोपाङ्ग चश्चल करना सी जिन-आझा अनुसार करना महादया भावन सहित शान्ति मुद्रा कर रहना प्रशुभ भीतन की शुश्रूषा रूप नहीं रहना अपनी काय करि कोई प्रासी भय नहीं करे, सो मुद्रा बनाय तिष्ठकै रहै। आत्मा
| १३७ के अभिप्राय बिना कायक्रिया प्रमाद तें नहीं करना, सो काय का वशीकरना है। याही का नाम काय-गुप्ति है। ऐसे तैरह प्रकार चारित्र माना। इस चारित्र सहित जे मुनि होय सी गुरु सत्य जानना। ये हो गुरु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र इन नत्रय सहित हैं। सो सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र का स्वरूप तौ ऊपरि कहि आए है । बरु सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहिए है । सो सम्यम्ञान पांच प्रकार का है। जिन-आज्ञा अनुसार स्वपर पदार्थन का स्वभाव जानना, सो सम्यमान है। इनका स्वरूप आगे कहेंगे, तहां तें जानना । ऐसे शुद्ध रतनत्रय का धारी योगीश्वर सम्यग्दृष्टिन का गुरु है पूजवे योग्य है। ये ही गुरु महाधीर कर्मशत्रु के जोतवैकू महासामन्त तन ममत्त्व के त्यागी जगत गुरु कम-शत्रुन के किरा महाघोर परीषह तिनके सहवेक साहसी हैं। ते परोषहन के भेद बाईस हैं। सोही कहिए हैंगाथा-छुद तिस सीतय उसणऊ, ईसा णगणाय भरतितीय चज्जाए । आसण सयण कुश्वर्ण, बघबंधा आपमालाभो ॥२४॥
गद तण कासय मल्लयो, सबकारो पुरुसकार पण्णाय 1 अण्णाणोय अदसणं, सधे वाबीस मुण सहधीरा ॥ २५॥
युग्मार्थ-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नगन, अरति, स्त्री, चर्या, आसन, अयन, दुर्वचन, बधबन्धन याच नाही. अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन-ए बाईस उपद्रव हैं। अब इनका अर्थ कहिए है। तहां मुनीश्वर नाना उपवास के पारणे को भोजन समय नगर मैं जाँय जरु तहां अन्तराय होय, तो यति व्रत का लोभी, पीछा वनकुंजाय। क्षुधातें तन महाक्षीण होय परन्तु जगतगुरु, परिणति खेद रूप । नहीं करें। अन्न के सहाय बिना तनने अपनी सत्ता छोड़ दई, परन्तु यति ने अपना मन का पुरुषार्थ नहीं तजा, सो शिथिल भया शरीर ताकू अपने पुरुषत्व करि यथावत् उचित क्रिया चलावते भए । जैसे—कोई दीपान्तर का जानेहारा सेठजी कर्णरथ पे चदया गमन करे है, सो कहीं-कहीं पर्वतन की घाटी विकट पत्थरन सहित पावै। तहाँ रथकू जीर्ण जानि जतनतें साधि, दीपान्तर पहुँचे। तैसे यति मोक्ष द्वीप का चलनेहारा, तन रूपी रथ चढ़ि
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श्री सु
के जाय है। सो कहीं क्षुधा परिषह रूपी घाटी आवे है तहां महाउदासीन व्रत का धारी अपनी साहस वृत्ति कर क्षुधा परोषहक जीते सो क्षुधा परिषह विजयी साधु कहिए श तह! जे गुरु नाना तप, उपवास, दुर्धर करते ज्येष्ठ मास के दीर्घघामनि का निमित्त पाय भई जो तन विर्षे तपन को ज्वाला, अरु रोसी ऋतु मैं भोजनकौं नगर मैं गए, तहाँ प्रकृति विरोधी दाहकारी भोजन का निमित्त मिल्या तथा मासोपवासोको नगर में अन्तस्य भई। ताके निमित्त ते बधी (बढ़ी) जो तन मैं तृषा को वेदना, ताके निमित्त पाय सर्व शरीर अग्निवत् तपि चला, नेत्रनके आगे तमारे आवनें लगे, तारागन-सी (चिनगारी-सी) नेत्र पै टूटने लगी, लोचन फिरने लगे इत्यादिक मई जो तृषा की बाधा, ताकी सहते धीर साधु वीतरागो मुनि खेद भाव नाहीं करें। ताकू तृषा परीषह विजयी साधु कहिए।२। तहां राज अवस्था में शीत की बाधा मेटवेंकी अनेक उपाय करते अग्नि, रुई, रोम शाल-दुशाले, रजाई कोमल स्त्री के तन का उठण स्पर्श अनेक गर्म मैवा भोजन और औषधादिक रस भोगना और अनेक महलन के गर्भनके अन्दर सोना इत्यादि गृहस्थ अवस्था मैं तन के जतन करते सो अब यतिपद विर्षे नदीतट, चौपट वन इत्यादिक शीत के स्थान तिनमैं तिष्ठतें योगीश्वर समता रस पीवते, ध्यान अग्नि की महिमा विौं तपते, शीत की बाधा नहीं गिने, सो शीत परीषह विजयी साधु कहिये । बहुरि समता रस अमृत के स्वादो यतीश्वर, तप कर भया है जो तन शोरा ताकरि तन की शोभा अरु ज्ञान शोभा प्रगट करी ऐसे तपज्ञान भण्डार यति, चैत्र, वैशास्त्र, ज्येष्ठ इन मासन के धामनि करि सुखि गए हैं नदी सरोवर के नीर, अरु वन के वृक्षन के पत्ता अरु कूप बावड़ीन के जल नीचे बैठि गए और पृथ्वी, पर्वत, अग्निवत् तप चले। वन बाग शोभा रहित होय गये। ऐसे दुर्धर (घोर) || धामन मैं जनेक वनचर जीव अपने-अपने स्थानन में गमन तजि तिष्ठ रहे। केईक पश वृक्षन की छाया में तिष्ठ रहे हैं। मार्ग चलनहारे पंधीजन मनुष्य, सो भी मार्ग तजि बैठि रहे हैं। ऐसे घामन विर्षे योगीश्वर, पर्वतन के शिखरन , शिलान 4 समता सुधारस पोषने हारे। सुखत अडोलशरीर करि तिष्ठते, नहीं है परिगति मैं खेद जिनके ऐसे यतीश्वर सी उष्ण परीषह विजयी साधु कहिए। ४ । वर्षाकाल वि वर्षा का निमित्त पाय, वृक्षन ! के नीचे डांस, मशक, बिच्छु, कानखजूरे आदिक दुःख के उपजावनहारे जीव, मुनि के तनकू उपद्रव करें है। | तिन यतीन कै तनकौ काटे हैं। तनकें लिपटें हैं। तिन बाधा के आगे, जगत् का पीर हर दया भण्डार तनकों
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नहां हिलावै हैं। ऐसा विचार है जो मेरा तन चञ्चल भया तौ र होन शक्ति के धारी दोन जीव भय पावैगे तथा ।। दीन जीवन की घात होय तौ हिंसा का दोष उपजेगा, ऐसा जानि तिन दीन जीवन की रक्षा कधीर-वीर अपनी काय निश्चल करि बाधा सहता कायर भाव नहीं करें, सो दंशमशक परीषह विजयी साधु कहिए । जे गृहस्थ अवस्था मैं बाप चक्री, कामदेव मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वरादि बड़े पदधारी राज-सम्पदा मैं, तन में अनेक श्रृङ्गार करते तनक भी शरीर उघड़ता तौ लखाको धरते अपने तन की शोभा आपही देखि-देखि देवन का रूप अल्प मानते महाभोगी शरीर के अङ्ग-उपाङ्ग उघाड़ते शंका करते सोही अब संसार की दशा विनाशोक जानि सर्व राज-सम्पदा चपला-सी चपल जानि तातै ममत्व छोड़ि नग्न अवस्था धारि निशक निर्विकार पद धरि जगत् शंकाकू छोड़ि नन पद धारते भए । सो नगन परीषह विजयी साधु काहिरा।६। और जे वीतरागी इन्द्रियनकों अनेक अनिष्ट सामग्री मिले भी चित्त अरति रूपी नहीं करें, सो अरति परीषह विजयी साधु कहिये। ७1 जो निर्विकार यति. देवाङ्गना, मनुष्यनी, तिर्यचनी, काष्ठ-पाषाण-चित्राम की सुन्दर पुत्तलिकायें र चेतन-अचेतन च्यारि प्रकार की स्त्रीन का निमित मिले राग-द्वेष नहीं करें। तहां कोई देवांगना तथा विद्याधरी आय यति अनेक हाव-भाव विनय मन्दहास्य नेत्रनतें सरागता बताय यतिको विकार उपजावे तो भी यह ज्ञान-सम्पदा का धारी समति रूपी सखी करि जान्या है मोक्ष स्त्री का स्वरूप अरु सुख तिन सो यती मोक्ष स्त्री अनुरागी इन च्यारि जाति स्त्रीन के शुभाशुभ देखि राग-द्वेष नहीं करें सो स्त्री परीषह विजयी साधु कहिये। ८। और राज अवस्था मैं जे स्थ, पालकी घोटकादि की सवारी करते पांवन कबहूं नहीं चलते सो अब वही सुकुमाल सत्संग के निमित्त पाय सर्व सम्पदा विनाशिक जानि सर्व बाहन को सवारी तजि नगन अवस्था धरि एकाएक वनविर्षे पगप्यादे फिरें हैं सो विहार करते कोमल पावन मैं कंटक तिनका पाषाण खण्ड कठिन धरती चुभती मई। ताकरि पावन में रुधिर धारा चलती भई। ताकरि भी यति समता रस का भस्मा धीर वीर साहसी संयम का | लोभी खेद नहीं लेता भया । सो चर्या परीषह विजयी साधु कहिये।। और मुनि गुफा मशान मण्डप वृक्ष के कोटर वनादिक मैं तिष्ठं आसन करें वहां आगे पीछे विचार जो यहाँ गुफादि में सिंहादिक जीवन के खोजि बिल मालम। होय है। तो इस स्थान में तो नाहीं रहे? यह स्थान आगे काहू जीव करि रोक्या गयो तो नाही? कदाचित
३९. वनादिम
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कोऊ देवादिका के क्रीड़ा का स्थान न हय और काऊ स्थान में कार का ममत्व भाव होय ऐसे स्थानन मैं यति । नहीं रहे ऐसे अनेक विचार सहित निर्दोष स्थान तामैं काहू का ममत्व नाहीं ऐसे स्थान में स्थिति करि तिष्ठं || बरु तिष्ठं पाछे कोई देव विद्याधर सिंहादिक दुष्ट जीव उपद्रव करि स्थान” यति कौं चलाया चाहें तो यति महाधीरज का धारी शर-वीर साहसी समता रस का स्वादी सकल परोषह सहै परन्तु आसन नहीं तजै सो जगत् गुरु आसन परीषह विजयी कहिये।३०। और मुनिनाथ निशि दिन ध्यान अध्ययन में बिता प्रमादवशी नहीं होय । कदाचित् प्रमाद वसाय निद्रा-कर्म का उदय होय हो तो पिछली रैनि (रात्रि) तुच्छ निद्रा करि प्रमाद खो। सो भी सोवै तो महाविकटासन सोवें। तिन प्रासन के नाम बताइये हैं। गौदहन आसन, वीरासन, धनुष्कासन, वज्रासन, मडासन इन आदि अनेक आसन हैं। अब इनका अर्थ कहिये है। तहां जैसे—गया के । दुहनको ग्वाल बैठे। ऐसे प्रमाद खोवनेकू तिष्ठं सो गो-दहन आसन है और तहां जैसे-लौकिक मैं भोरे जीवन नैं हनुमान का स्थापन किया है, सो वीरासन है। जैसे-शर-वीर लड़वेकं ठाडो होय यति प्रमाद शत्रते लड़वेक वीरासन करै तथा जैसे लौकिक मैं धनुष बांका होय है तैसे यतीश्वर तनकू बांका भमि मैं डारि शयन करं, सो घनुष्कासन है और जैसे बज्र दण्ड भूमि डारिये तब सरल सूदा पड़ा रहै। तैसे यति सरल तन करि अंगोपांग सोवं, सो बज्रासन है तथा जैसे मसान भूमिमैं डरचा मर्दा का तन चेतना रहित अडोल पड़ा होय । तैसे यति मसान भम्यादिमैं सर्व श्वासोच्छास मैंटि शरीरक काम गुप्ति के योगत लम्बा कर तिष्ठे, सो मडासन है। इन आदि क्रियादि करि प्रमाद को खोय ध्यान अध्ययन में स्थिर रहै, सो शयनासन परीषह विजयी कहिये।।
और जे दुष्ट नर योगीश्वर कौं देखि दुर्वचन कहैं हैं कोई कहे चोर है, कोई कह ठग है, कोऊ कहैं पाखण्डी है। कोऊ कहैं दीन है, को कहैं रंक है। कोऊ कहैं कमाऊ है और केई कहैं राज लक्षण नाहीं ताते राज तषि उदर भरवेकू मुनि मया है। इत्यादिक दुष्ट अज्ञानी जीव वचन रूपी बाणन करि मुनिकुं पीड़ा का निमित्त मिलाते हैं तो भी योगीश्वर समता रस का भर या भली मावना भावनेहारा वीतरागी कोई के वचन रूपो वाण । अपनी समता रूपी ढाल करि अपने लागने नहीं देय और परिणाम निर्दोष राखे, सो दुर्वचन परीषह विजयी साधु कहिए । १२ । और कोई पापीजन निर्दोष वीतराग मनिक मारे हैं। बांधैं हैं केई अग्नित जलावें हैं। इत्यादिक
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उपद्रव करें हैं। तो मी करुणाभावी समता सागर जगत् का पौर हर कोई तं द्वेष भाव नहीं करै । जो कोई निर्दयी पुरुष मुनिकों लात मुक्कातें मारैं तब योगीश्वर ऐसा विचारें जो मो याका कछु अपराध बना है तातें यह मारे है । यह कोई दयावान है । तातें मोकूं लकड़ी तैं तो नहीं मारे है। तनतें ही देय है। कोऊ कठोर चित्तधारी मुनि लाठी लकड़ी तं मारे तो ऐस विचारें जो कोई शस्त्र तौ नहीं मारे है और कोऊ पापात्मा शस्त्र ही मारै तौ यति ऐसा विचारें जी मैं चेतना अमूर्तिक मेरा तो घात है नहीं। मैं इस तन बन्धन बन्दीगृह में रुका हौं । सो यह उपकारी मोकूं करुणा करि तन बन्दी गृह तैं छुड़ायें है ऐसा विचार समता रस का धारी आप मैं दोष जाने पर तैं द्वेष-भाव नहीं करै सो बधबन्धन परीषह विजयी साधु कहिये । १३ । जो मुनीश्वर तप भण्डार अनेक उपवासन के पारणे नगर मैं भोजनकों जांय तहां अन्तराय होय तौ पीछे वनकौं जांय ध्यान अध्ययन करें। दूसरे दिन फिर जाय तब अन्तराय होय ऐसे अनेक उपवासन के पारणे मुनिक ऊपरा ऊपर अन्तराय होय तो भी ज्ञानामृतपानपुष्ट यति तनतै निस्पृह क्षुधा के योग याचना नहीं करें। ध्यानमूर्तिक चारित्रमण्डार अपनी संयम प्रतिज्ञा का लोभी अपनी अयाची वृत्ति मलिन नहीं करै सो अयाचना परीषह विजयी साधु कहिए | १४ | मुनीश्वर के भोजनकों नगर मैं भ्रमतें अन्तराय होय तथा काहूनें पड़गाहा नाहीं ऐसे बहुत दिन भए हॉय भोजन का लाभ नहीं होय तौ परम योगी तन का त्यागी। सन्यासी गुरुको खेद नाही होय तो यतीश्वर पुद्गलीक तनकं जुदा जानि उपचार नाहीं करें सो रोग परीषह साधु कहिए । १५ । राज अवस्था में गलीचा गदैलादिक ( गदादि ) अनेक कोमल बिछौना में पांव धरै सो ही जीव जग का विभव विनाशिक जानि सब विषय सामग्री विषवत् जानि करि जगत् पूज्य यतिपदकौं धारि एकाकी कठिन धरतो पै चलै सो कोमल पॉवन लगे जो तीक्ष्ण कांटे, पाषाण खण्ड, काष्ठ खण्ड, तिनकादिक तिनकरि पांव फटि गए सो पावन श्रोणित की धारा चलो तौ भी यति ईर्ष्या-समिति धारक वित्त विषै कायर नाहीं होय, सो तृणस्पर्श परिषह विजयो साधु कहिए । १६ । जे राज अवस्था मैं अनेक सुगन्ध लैप, चन्दन अरगजा अतर खुशबू केशर कस्तूरी आदि अनेक सुगन्ध लेप करि गमन होते, सो ही अब सर्व दशा संसारिक की विनाशिक जानि तन ममत्व भाव छोड़, डारी है तन की शोभा जिनने तिनका सर्व तन मांस सूख गया। नशा जाल रह गया। थावज्जीवन स्नान का त्यागी, तप करें तनपे
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मैलि पुञ्ज जमिचल्या। सो बाह्य मैलि करि शरीरनै वास चलने लगी है। तो भी नासिका इन्द्रिय का वशीभत करनेहारा ग्लानिचित्त नाहीं करै। ताको मल परिषह विजय कहिए।१७। यहां मल के दोय भेद हैं। एक द्रव्यमल एक भाव-मल । तहाँ द्रव्य-मल के भेद दोय हैं। एक बाह्य-द्रव्य-मल । एक अन्तरङ्ग-द्रव्य-मल । सो कोच, कांदो पसेवतै रज का जमना रा तो बाह्य-द्रव्य-रल है। ज्ञानावर सादिक द्रव्य कर्म का बात्माक लेप सो अन्तरङ्ग-द्रव्य-मल है और राग-द्वेष भाव पाप परिणति र भाव मल है । ऐसे कहे जो मल तिनमैं भाव-मल का त्यागी, अन्तरङ्ग पवित्र है जात्मा तिनकी, सो अति महानिर्मल है और द्रव्य-मलतें समभावो यति सो मल परीषह विजयी साधु कहिए।१८। राज अवस्था मैं आप चक्री थे तथा कामदेव तथा विद्याधर मण्डलेश्वर महामण्डलेश्वर इन आदि बड़े वंश के राजा थे, सो मान के अर्थ अनेक युद्ध करते। अनादर भए दण्ड देते अपना बमल (हुक्म) सर्व पर चलावते। सो ही अब संसार दशा चश्चल जानि, राजमार तजि नगन होय, वनवासी भए। सो जब वैराग्य के बल करि कषाय जोती, सो ऐसे जगत्गुरु वीतरागी को कोई मन्दभागी अज्ञानी आव-बादर नहीं करें नमस्कार वन्दना नहीं करें ताजोम नहीं करें तौ वीतरागी सर्व का बन्धु काहू तें रोष भाव नहीं करे सो सत्कार पुरस्कार परीषह विजयो साधु कहिए । २६ । जे जगत् गुरु नाना प्रकार तप भण्डार अनेक चारित्र गुण के धारी वीतरागीकों, कोई ज्ञानावरसी-कर्म के क्षयोपशमत तथा उदयतें ज्ञान की बढ़वारी नहीं होय तो यतिनाथ और मुनीश्वरकों अनेक शास्त्रन के पाठी विशेष ज्ञानी देखि ऐसे नहीं विद्याएँ । जो मैं बड़ा तपसी बड़ी उम्र काहूं भले पद का धारी, सो मेरी विशेष बुद्धि नाही मोकौं कोई कहा कहेगा? ऐसा विचार नहीं करै, सो प्रज्ञा परोषह विजयी साधु कहिय । २० । यतिकौं तपस्या करते. चारित्र पालते, बहुत दिन भरा होय, अरु कर्म योग" कोई अवधि मनःपर्यय केवलज्ञान नहीं भया होय तो योगीश्वर अपना चित्त धर्मत तथा चारित्र त अरुचिभाव नहीं करें हैं। सो साधु अज्ञान परीषह विजयी कहिए । २३ । मुनिकौं तप करते चारित्र पालते बहुत दिन होय अरु तप बलते कोई ऋद्धि नहीं उपजी होय तथा कोई निमित्त ज्ञानादिक अतिशय नहीं देखा होय, तो ऐसा नहीं विचारे जो आगे शास्त्र मैं ऐसी सुनी थी जो तप के बलते अनेक ऋद्धि होय हैं। सो हमको कछु प्रगट नहीं भयो। सो न जाने शास्त्र भाषित सत्य है तथा असत्य है। ऐसा सन्देह रूप मिथ्यामयी विकल्प नहीं
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कर, सो अदर्शन परीषह विजयी साधु कहिए ।२२। ऐसे बाईस परोषह सहनेकौं धीर सो ही जगत् का गुरु है। सो ही गुरु सम्यग्दृष्टिन करि पूण्य है । सी हो गुरु जानना । सो ऐसे मुनीश्वरन के भेद दश है । सोही कहिएगाश-सूरोप वग्माम तपस्रो, सिसिंगलांणगण कुलय संजातो। साहू मगोगय दहदा, जोई भेयाण जिणसुते भासई ॥ २६ ॥
अर्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपसी. शिक्ष्य, ग्लान, गरा, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ। ए मुनि जाति के दश भेद हैं। तहाँ प्रथम आचार्य का स्वरूप कहिये है। || गाथा—यहधम्मो तप बारह आकसि सड़ पण्णाचार तीए गुत्ती । इण छतीस गुण जुत्तो, सूरो जगपूज्ज होई मुणणाहो ॥ २७॥
अर्ध-धर्म दश भेद, बारह भेद तप, षट् भेद आवश्यक, पंचभेद आचार, गुप्ति भेद तीन-ऐसे ए सर्व छत्तीस गुण आचार्यजी के हैं। तहाँ प्रथम ही दशधर्म भेद कहिये हैगाथा-सार खमः हो, आज सोम पर सताको हाचो, बंभवजाय धम्म दह भेवो ॥ २८॥ !
अर्थ— उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तय, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य-ए दश प्रकार धर्म हैं। तहां प्रथम ही उत्तमक्षमा का लक्षण कहिए है। तहाँ आप समान पद के धारी जीवन का शुभाशुभ चारित्र देखि क्षमा करनी सो क्षमा है। आपके पदते हीन शशि के धारी तथा चौइन्द्रिय, तेन्द्रिय, बेन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि ए महा हीन शक्ति के धारो तिन समता भाव क्रोध नहीं करना सो उत्तम तमा है। इहां प्रश्न, जो पंचेन्द्रिय आदि आप समान पदधारी तौ कोपादि कषाय करें हैं सो इन त द्वेष-भाव नहीं करना सो तौ क्षमा जानिए है और एकेन्द्रिय जीवन पर्यन्त जीवन के तो कोई के कोप करने की शक्ति नाहीं इन क्षमा कैसे करें ? इनतें क्षमा करनी सो उत्तम क्षमा कैसे कहो, सो कहौ । ताका समाधान । भो भव्य ! तू चित्त देव सुनि । जो आप समान पदस्थधारी जीवन ते तो कोय का कारण, इनकी हिंसा का निमित्त तो अल्प समय पाय पर है। अरु एकेन्द्रिय विकलत्रय की हिंसा का निमित्त बारबार बहुत मिले है। ताही ते श्रावककै स्थावर हिंसा नहीं बचे है। इनकी हिंसा महाव्रती यति से बचे है। सो तू सुनि वनस्पति तोड़ना, तुड़ावना, खावना, मसलना, चालते खंदना, सुखावना, छोलना, छोलवाना, संधना इत्यादिक मिटै तब वनस्पति एकेन्द्रिय को हिंसा नहीं लागे और कच्चे जल का छीवना, ऊलातपावना, स्नान करना, धोवना, धुवावना, पीना और कौं घावना इत्यादि जल का कार्य छुटे. तब जल काय
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स्थावरन की हिंसा घटै और अग्नि का बारना, कहिके जलवाना, छोवना, दावना, प्रगट करना, दीपक करना, करावना, याकी प्रभा मैं तिष्ठना इत्यादिक अग्रि के आरम्भ छटै है और पवन पंखेलेना, कपड़ा हलावना, कूदना, हाथन से तारी बजावना, फूकें देना, वस्तु पटकना इत्यादि पवन घात के कार्य छूटे तब पवन कायकन की हिंसा छूटै और पृथ्वी का खुदावना, खोदना, झाड़ना, छोवना, फोड़ना, फड़ावना इत्यादिक पृथ्वी काय के कार्य छुटैं। तब पृथ्वी एकेन्द्रिय की हिंसा छुटे है। इत्यादि पंच स्थावरन की हिंसा कही। विकलत्रय की हिंसा तब टरै। जब जतनत चलै, जतनत बैठे, जतन सोवे, जतातें बोलें, जतनतै खाय, जतनतें वस्तु धरती पै धरै. जतनतें उठावै, खाजि चलै तौ नहीं सुजावै, अन्न मेवा जे वस्तु खावे योग्य होय सो खाय जयोग्य नहीं खाय । अन्न, तेल, घी मेवादिक किरानादिक वस्तु नहीं बैचे, नहीं लेय इत्यादिक जे कार्य एकेन्द्रिय के बारम्भ घात निमित्त बहुत हैं। तातें जो इनकी रक्षा रूप वर्तना सो उत्तम क्षमा जानना। सीए कहे जेते कार्य सी सर्व ही सर्व प्रकार यति महाव्रती के पाले हैं । गृहस्थ के नाही तात याका नाम उत्तम क्षमा कह्या है ।श और अष्ट प्रकार मद का त्याग सो मार्दव-धर्म है। २ । और भावन मैं दगावाजी का त्याग और बाह्याभ्यन्तर एक-सी मन काय को क्रिया सरल भाव कुटिलता रहित परिणाम सो जार्जव-धर्म है।३। और मन-वचन-कायकर असत्य का त्याग जिन-अाझा प्रमाण हित-मित बोलना सौ सत्य-धर्म है। ता सत्य वचन के दश भेद हैं सी कहिर है
गाथा—जणवद संवदिठवणा, णाम सत्तोय सो पत्तोतो। ववहारण संभावण, भावउपमाए सत्यदह मेवो ॥ २९ ॥ अर्थ-जनपद-सत्य, संवृत्ति-सत्य, स्थापना-सत्य, नाम-सत्य, रूप-सत्य, प्रतीत-सत्य, व्यवहार-सत्य, संभावनासत्य, भाव-सत्य, उपमा-सत्य-पदश। इनका अर्थ-तहां जिस देश विर्षे जिस वस्तु का जो नाम होय ताको तैसेही कहना जैसे—कर्नाटक देश में उड़दन का नाम भूतिया कहै हैं । सो वह देश प्रमाण है । याका नाम जनपदसत्य कहिय।शबहुरि जाको वहु जीव मानें ताकौ तैसा हो कहिए । जैसे—काह निर्धन पुरुष का नाम लक्ष्मीधर हैं। ताकी सर्व देश नगर के लोक लक्ष्मीधर ही कहैं हैं। याका नाम संवृत्ति-सत्य है । २ । और जहां काहू राजा की छवि काहने काष्ठ पाषाण चित्राम की करी है। सो वा छवि के राजा कहना जो यह फलाने राजा की छवि है ऐसा कहना याका नाम स्थापना-सत्य है।३। जिसका नाम लोक में प्रसिद्ध होय तिस वस्तुक ताही नाम
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लिए सब जानै। जैसे—काह देश के पुरुष का नाम बाबा है। तिसकं सर्व देश नगर बाबा ही कहे। सो याका नाम ठाम (स्थान) पूछिए तो बाबा के नामतें मिले तातै बाबा कहना याका नाम सत्य है।४। और शरीर के वर्ष की अपेक्षा करि कहना जो यह काला है. लाल है इत्यादिक कहना सो रूप-सत्य है। ५ । और वर्तमान काल में वस्तुकौं छोटी बड़ी कहना जो बड़ी की अपेक्षा ये छोटी है। छोटी की अपेक्षा यह वस्तु बड़ी है। ऐसा कहना सो प्रतीति-सत्य है।६। और नैगमनय करि वचन बोलिए सो व्यवहार-सत्य है। जैसे-कोई कमर बांध घरतै बिदा होय परदेशकं गया। अरु वाके घर कोऊ तब ही पूछे, जो फलाना कहाँ है तब वाके घरवाले कहैं, वह तौ फलाना देश गया। सो तुरन्त तौ ग्राम बाहिर भी निकस्या नहीं होयगा देश गया कैसे कह हैं। तौ इन घरवालों की तरफतें गया हो कहिए, सो व्यवहार-सत्य है । ७ । इन्द्र विषै ऐसा बल है जो चाहे तो पृथ्वीकी उठाय लेय। सो पृथ्वी तौ अनादि ध्रुव है। काहूनै उठाई नाही; परन्तु इन्द्र में ऐसी शक्ति जाननी। सो शक्ति अपेक्षा कहिए, सो सम्भावना-सत्य है। पानि शास्त्र के अनुसार नियमार्थन का सम्मान। जैसे-धर्म-अधर्म द्रव्य लोक प्रमाण हैं तथा जल की बूंद में असंख्याते जीव हैं। परन्तु प्रत्यत्त नाहीं। जिन प्रमाण हैं, सो सत्य है। थाका नाम भाव-सत्य है।।। कोई वस्तु की कोई वस्तुकं अपेक्षा देनी। जैसे—यह राजा कल्पवृक्ष सो वृक्ष नाहीं मनुष्य ही है; परन्तु वांच्छित दान देय है। ताकी अपेक्षा लेय कल्प वृक्ष कह्या याका नाम उपमा-सत्य है । २०। ऐसे कहे जो सत्य के दश भेद सो नय प्रमाण श दश ही सत्य हैं। तातें जो इन दश भेद वचननकों बोले सो सत्य है। ।। पर वस्तु का सर्व प्रकार त्याग सो शौच-धर्म है। २। पंचेन्द्रिय और मन का वश करना सो इन्द्रिय-संयम है और षटु कायक जीवन की दया रूप प्रवर्तना सो प्राण-संयम है। ऐसे दोय मैद रूप संयम-धर्म है।३। बाह्य आभ्यन्तर करि तप भेद बारह हैं। सो तप करना सो तप-धर्म है। 81 मन-वच-कायतें पर वस्तु के ममत्व भाव का त्याग, सो तथा तन, धन, कुटुम्बादि का त्याग सो त्याग-धर्म है।श बाह्य आभ्यन्तर दोय प्रकार परिग्रह का त्याग सो आकिंचन्य-धर्म है।६। चेतन अचेतन स्त्री का भोग अभिलाष
का त्याग सो ब्रह्मचर्य-धम है। सो आगे या ब्रह्मचर्य के दश अतीचार हैं सो कहिए हैं। शील व्रत का धारी । शरीरको श्रृङ्गार सुगन्ध लेपन नहीं करे। धोवना, पोंछना, सानादि तन को शुश्रुषा नहीं करनी। इत्यादि कहे |
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कार्य ती व्रतकौं दोष लाग। २। और पेट भर भोजन करै, गरिष्ठ भोजन करें, वेश्यादिक के गोतनाद नृत्य सुनै शीलवान पुरुष स्त्री का निमित्त करै। शीलवान स्त्री पुरुष का निमित्त मिलावै, गृहस्थ अवस्था के इन्द्रिय जनित भोग सुखरूप जानि तिनकौं विचार, आपने तथा स्त्री के अङ्गोपाङ्ग निरन राग-द्वेष करे स्त्रीन के आव आदर शुश्रूषा सत्कार बहुत करता सो शील को दोष है पूरख भोगे जो सख इन्द्रिय जनित तिनको बार-बार विचारे स्त्री के मिलापकों बार-बार आरति करना चाहना वीर रज के खेरवे का जैसे-तैसे उपाय करना ये दश अतीचार शील के सो शील-धर्म को मलिन करे हैं। तातें ब्रह्मचर्य व्रत का धारी र दश दोष नहीं लगाय के अपना ब्रह्मचर्य व्रत निर्दोष राखे हैं। याका नाम ब्रह्मचर्य-धर्म है। इति दश धर्म। तप बारह इनका स्वरूप जागे कहेंगे। आवश्यक षट् और गुप्ति तीन इनका स्वरूप आगे कह आये। पंचाचार का स्वरूप आचार सारजी से जानना ऐसे धर्म दश. तप बारह, आवश्यक षट पंचाचार ५, गुनि तीन इन छत्तीस गुण सहित प्राचार्य मुनि के भेद हैं। इति श्री सुदृष्टितरंगिणी नाम ग्रन्थ मध्ये अष्टाविशति पति का धर्म तेरह प्रकार चारिच रसत्रय वाधीश परीषह कथन
दशभेद सत्य अतोचार शील के दश छत्तीस गुण आचार्य वर्णनो नाम पर्व पूर्णम् ॥ ९ ॥ आगे पच्चीस गुण सहित उपाध्याय का स्वरूप कहिये है। गाथा-अन एकादह जुतो चउदह पुर्वाय जाण संजुत्तो सो जबझाओ अप्पा, गुणनीसाय पण सहिलो ॥ ३०॥
अर्थ-यारह अङ्ग चौदहपूर्व उपाध्यायजी के ए पच्चीस गुण हैं। सो ही संक्षेप मात्र कहिये हैं। आचारांग, सूत्रांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञाप्तयांग, ज्ञातृकथांग, उपसकाध्ययनांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपाददशांग, प्रश्रव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग—ए ग्यारह अङ्ग है। अब इनका अर्थ सी जिस-जिस अङ्ग में जो कथन है ताकी मुख्यता लेयक सामान्य भाव इहाँ कहिये हैं। तहां प्रथम ही गणधर देव ने प्रश्न किये। जो हे प्रभो! कैसे खाईए? कैसे बोलिये ? कैसे चालिये ? कैसे बैठिये इत्यादिक क्रिया तौ कीजै अरु पाप नहीं लागे सो मार्ग बताइये जिस करि जोवन का कल्याण होय। ऐसा प्रश्न होतें जिन देव ऐसा उत्तर करते भए । जो यतनत खाईय। यतनत चालिए, यतनतें बोलिय, यतनतें बेठिये। इत्यादिक जो क्रिया करिए सो यत्नतें करिये तो पाप नहीं लागे। यति के प्राचार का कथन जहां चले सो आचारांग नाम अंग है। इसके अठारह हजार पद हैं।।
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आगे जहां देव धर्म गुरु का विनय ऐसे कीजिए। ऐसे विनयतें देव की पूजा कीजै । विनयतें शास्त्रन का वांचना, सुनना, धरना, राखना, गुरुकों वन्दना करनी, पूजा करनी, सो विनयतें करनी। ऐसे विनय का कथन तथा अपना मत पर के मतन की क्रिया स्वभाव प्रवृत्ति आदि कथन होय सो दूसरा सूत्रांग कहिए या छत्तीस हजार पद हैं। २ । आगे जीवस्थान के एक मेदकों आदि एक-एक जीव समास बधावते ( बढ़ायते ) च्यारि सौ षट् स्थान आदि जीव के स्थान का कथन होय है। थाके बियालीस हजार पद हैं । ३ । आगे जहां द्रव्य क्षेत्र काल भाव करि सम ही सम का जामैं कथन होय । जैसे -- धर्म, अधर्म द्रव्य लोकाकाश सम हैं तथा सब सिद्ध राशि सम है । इत्यादिक तौ द्रव्य सम हैं क्षेत्रकरि प्रथम नारक का प्रथम पाथरे का प्रथम इन्द्रकविल पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है और अढ़ाई द्वीप पैंतालिस लाख योजन है और प्रथम स्वर्ग का प्रथम इन्द्रक रुचिक नाम सो पैंतालीस लाख योजन है और मोक्ष शिला पैंतालीस लाख योजन है और सिद्धन के विराजिवे का सिद्धक्षेत्र पैंतालीस लाख योजन है। ये पंच पैताले हैं सो क्षेत्रसम हैं तथा जम्बूद्वीप सर्वार्थसिद्धि विमान सातमें नरक का इन्द्रक विल नन्दीश्वर द्वीप की वापिका ये चार एक लाख योजन क्षेत्र प्रमाण हैं। तातें क्षेत्र सम कहिये इत्यादिक क्षेत्र समान जानना। आगे समयतें समय सम है उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी दोऊ का दस-दस कोड़ाकोड़ी सागर काल है, तातें सम हैं। इत्यादिक काल सम के भेद हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन रा दोऊ भाव सम हैं। इत्यादिक भाव सम हैं। ऐसे सम हो सम का व्याख्यान जामैं होय सो समवायांग है । याके एक लाख चौंसठ हजार ( २६४००० ) पद हैं । ४ । आगे जहां गणधर देव ने प्रश्न किए भो भगवान् ! ये वस्तु अस्ति हैं अथवा नास्ति हैं ? अरु जीव एक है या अनेक हैं। जीव सादि है कि अनादि है ? इत्यादि साठ हजार प्रश्न किए। तहाँ उत्तर कि वस्तु द्रव्य की अपेक्षा सदैव अस्ति है, द्रव्य वस्तु का नाश कबहूं होता नाहीं और वस्तु पर्याय की अपेक्षा नास्ति है। जितनी पर्यायें उपजें हैं सो निश्चय करि नाश हो हैं सो जीव अनन्त है और नाम अपेक्षा तो एक है कि यह जोव द्रव्य है। जैसे—बहुत रतन की राशि है सो नय अपेक्षा तौ रतन राशि एक । अरु पर्याय गुण सत्ता की अपेक्षा रतन भिन्न-भिन्न अपनी कीमत लिए हैं। केई रतन उत्कृष्ट
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|| हैं, केई मध्यम हैं, केई हीन हैं, झूठे हैं। तैसे ही जीव भी पर्याय सत गुगत जुदे भिन्न-भिन्न हैं, केई सिद्ध हैं, केई संसारी हैं। तामें भी कई भव्य हैं, केई अभव्य हैं। ऐसे अपने कर्म उपार्जन प्रमाण फलरूप हैं
१४८ और जीव द्रव्य अपेक्षा अनादि है। पर्याय अपेक्षा सादि हैं । इत्यादि अनेक उत्तर करते भए। ऐसा कथन जामें चले सो व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है। याके २,२८,००० पद हैं जहां समोशरण कथन तथा दिव्य-ध्वनि खिरवे का कथन तथा तीर्थङ्करन के अतिशयन का कथन इत्यादिक कथन जामैं होय सो ज्ञातृ-कथा छठा || अंग है 1 याके पांच लाख छप्पन हजार पद हैं। ६ । आगे श्रावक आचार ग्यारह प्रतिमादि जामैं श्रावकको
धर्म कर्म रूप कैसे प्रवर्तना इत्यादिक कथन जामैं होय सो उपासकाध्ययन सातवां अंग है । याके १२ लाख सत्तर हजार पद हैं ।७४ एक-एक तीर्थङ्कर के समय में दश-दश मुनीश्वरों ने आयु के जन्त समय केवलज्ञान पाया तिनकू अन्तकृत केवली कहिए। तिनका कथन जहां चले सो अन्तकृत दशांग है थाके २३,२८००० पद है।दा एक-एक तय कर के समय में दश-दश मुनीश्वर पति उपसर्ग सहकै महमिन्द्र भए। तिनका कधन जहाँ चलें सो अनुत्तरोपपाददशांग है। याके १२,४४००० पद हैं। जहां होनहार त्रिकाल सम्बन्धी होय सो बतावें । मुठी वस्तु राखि पूछे तो बतायें। इत्यादिक जो प्रश्न करे सो ही बतावै याका नाम प्रश्रव्याकरण अंग है । याके १२.२६,००० पद हैं ।२०। जहां कर्म का उदय भया तब शुभाशुभ रस जिस-जिस ! तरह जीव ने उपार्जे अरु वे जिस-जिस तरह उदय होय । ऐसा कथन जामैं होय सो विषाकसूत्र नामा अंग है। याके १८४,००००० पद हैं ।३। रोसै ग्यारह अंग का ज्ञान उपाध्यायजीकू होय और चौदह पूर्व का स्वरुप नाम लिखिये है। तहाँ उत्पाद पूर्व, अग्रायणी पूर्व, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्ति, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणप्रवाद, प्राणवाद, क्रियाविशालपूर्व, त्रिलोक-त बिन्दुपूर्व–रा चौदह पूर्व के नाम हैं । अब इनका अर्थ-ताका रहस्य लेय सामान्य अर्थ दिखाईए है । तहां । व्यय ध्रुव उत्पाद का लक्षणकौं लिए षट् द्रव्यादि वस्तुन का परिणमत है। जहां इन व्यय ध्रुव उत्पाद का लक्षण होय, सो उत्पाद पूर्व है। याके एक कोड़ि पद हैं। जहां वस्तु कहा, पदार्थ कहा. द्रव्य कहा. सुनय कहा, कुनय कहा इत्यादिक व्याख्यान जामैं होय सो आग्रायसी पूर्व है। याके छयानवै लाख पद हैं। जामैं वीर्य का
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कथन जो आत्म-वीर्य कहा, भाव-वीर्य कहा इत्यादि वीर्य का कथन जहां होय तहां सामान्य भाष जो चेतनाशक्ति सहित अनन्त पदार्थन मैं प्रवर्तते खेद नहीं होय सो ही अनन्त-वीर्यरूप आत्मा का परिणमन सो काल-वीर्य १४ जानना और अनन्त पदार्थ जीव अजीवनको अवगाहना देने की शक्ति सो क्षेत्र का वीर्य है और इस लोक मैं || तिष्ठते द्रव्य जीवाजीवरूप षटु द्रव्य तिनका तीन काल सम्बन्धी शुभाशुभ परिणमन जानने रूप केवलज्ञान सो भाव-वीर्य है। इत्यादिक वीर्य का ही व्याख्यान जामैं होय सो वीर्यानुवाद-पूर्व है। याके सत्तरि लाख पद हैं || जौर जीव-अजीवादि द्रव्ध के स्वभाव अस्तिनास्ति रूप काल क्षण आदि जामैं कथन होय सो अस्तिनास्ति-पूर्व है। याके साठि लान पद है और जहां आठ ज्ञान का लक्षण कहा ज्ञान का फल कहा 1 शान का विषय कहा । इत्यादिक कथन जामैं होय सो ज्ञानप्रवाद-पूर्व है। याक एक घाटि एक कोड़ि पद हैं और जहां नाना प्रकार वचन बोलने के भेद । ए वचन सत्य हैं। र असत्य हैं। ऐसे निधार करता नथ प्रमारा लिए कथन जामैं होय सो सत्यप्रवाद नाम पूर्व है। याके राक कोड़ि षट पद हैं। जहां प्रात्मा की स्तुति बनायवे का तथा निश्चय व्यवहार रूप नयन करि आत्म-स्वभाव का साधना सो आत्मवाद-पूर्व है। याके छत्तीस कोड़ पद हैं और सहाँ बाठ मूल-कम के उत्तर मैद एकसौ अड़तालीस तिनका स्वरूप बन्धरूप जो आत्मा अमूर्तिक ए कर्म कसे बांधे सो बंधे पीछे जेते काल जावाधा पूरण न होय उदय नहीं आवै सो सत्त्व है। आवाधा पुरण भरा उदय होय सो अपना रस कर्म प्रगट करि जीवक सुखी-दुखी करें सो उदय, ऐसे बन्ध उदय सत्तारूप का परिणमना सौ कर्म-प्रवाद नाम पूर्व है। याके एक कोड़ अस्सी लाख पद हैं। जहां व्रत विधि व्रत का फल चारि निक्षेपणान का विस्तार इत्यादि जहाँ कथन होय सो प्रत्यास्थान-पूर्व है। थाके चौरासी लाख पद हैं। जहां अनेक विद्या साधने का विधान, विधानको कैसे साधिए सो विधान, विधान के सिद्ध होने योग्य तप जान जो मन्त्रतें जो विद्या सिद्ध होय ऐसे मन्त्र से फलानी विद्या सिद्ध भई तथा ऐसा फल कर या विद्या की इतनी सामर्थ्य है। अष्ट निमित्त-ज्ञान के भेद इत्यादिक कान विद्यानुवाद पूर्व में होय है। तहो निमित्तज्ञान के आठ भेद बताइये है। गाथा-अन्तरिक्वं भौमाए, मङ्ग सुर मिमित णाण विजणायो । लक्षण सुपणय छिष्ण घसु णिमित शाण भेदार ॥ १॥
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अर्थ- अन्तरिक्ष-निमित्त, भौम-निमित्त, अंग-निमित्त, स्वर-निमित्त, व्यञ्जन-निमित्त, लक्षण-निमित्त, स्वप- | निमित्त, चित्र-निमित्त । अब इनका सामान्य अर्थ-जहां सूर्य-चिह्न, शशि-चिह्न, तारानझत्र-चिह्न, बादल-चिह्न, ।। सन्ध्या समय बाकाश के वर्णादिक-चिह्न इत्यादिक आकाश में शुभाशुभ उल्का (बिजुली) पातादि देखि शुभाशुभ कहैं । सो अन्तरिक्ष-निमित्त-ज्ञान है। १ । भूमि में रतन, सुवर्स, चाँदी, पाषाणदिक भूमि के चिह्न जानि शुभाशुभ बतावै सो भूमि-निमित्त-ज्ञान है । २ । मनुष्य तिर्यंचन के रस, रुधिर, प्रकृति इत्यादि चिह्न देखि शुभाशुभ कहै सो अङ्ग-निमित्त-ज्ञान है । ३। जहां मनुष्य तिर्यचन के शब्द सुनि शुभाशुभ होनहार कहै सो स्वर-निमित्त-ज्ञान है। ४ । जहाँ शरीर के तिल, मसा, करमैं, पांवमैं, उरमैं, मुखपे इत्यादि अङ्ग उपाङ्ग में तिल, मसा देखि शुभाशुभ होनहार बतावै सो व्यजन-निमित्त-ज्ञान है। ५। जहां शरीर में श्रीवत्स लक्षण, स्वस्तिक भृङ्गार, कलश, वज्र मत्स्यादिक चिह्न देखि शुभाशुम बतावै सो लक्षण-निमित्त-ज्ञान है।६। कोई वस्तु वस्त्रादि मूसादिक पशुनै काटी होय । ताकौ देखि शुभाशुभ चिह्न बतावै सो छित्र-निमित्त-ज्ञान कहिए । ७ । जहां नाना प्रकार के स्वप्न तिनक जानि तिनके शुभाशुभ लक्षण कहै सो स्वाप-निमित-ज्ञान है। ८। ऐसे श बाठ प्रकार ज्ञानकों आदि अनेक ज्ञान का शुभाशुभ बतावै सो विद्यानुवाद नामा पूर्व है । याके एक कोड़ी दश लाख पद हैं और जहाँ तीर्थङ्कर के पञ्च कल्याणक तथा और चरम शरीरन के एक दोय कल्याणन का कधन तथा ज्योतिष देवन का गमन किया होय सो कल्धारावाद-पूर्व है। याके छब्बीस करोड़ पद हैं
और जहां वैद्यक कथन, व्यन्तरादिक वशीभत करवे के विधान, विष उतारने के मन्त्रादिक इत्यादिक विधान जहाँ होय सो प्राणवाद-पूर्व है। याके तैरह करोड़ पद है और जहां सङ्गीत-कला, छन्द-कला, अलङ्कार-कला, चित्राम-कला, शिल्प-कला, गर्भाधान शोधवे की कला तथा स्त्रोन की चतुराई हाव-भावरूप । चौंसठि कला इत्यादिक कथन जहां होय सो क्रियाविशाल-पूर्व है । याके नब्बे कोड़ि पद हैं। जहां त्रिलोक विन्दु मैं तीन लोक ऊर्व, मध्य, पाताल तथा पाताल लोक विर्षे प्रथम पृथ्वी रतनप्रभा ताके तीन भेद हैं। खरभाग, पङ्कभाग, अब्बहुलभाग । तहाँ खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है ताकू हजार-हजार योजन के मोटे सोलह भेद हैं। तिनके नाम-चित्रापृथ्वी, वज्रापृथ्वी, वैडूर्या, लोहिता, मसास्कल्या, गोमेधा, प्रयाला.
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| ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमलिका, अंकापृथ्वी, स्फाटिका, चन्दना, सर्वार्थका, वकुला. शैला-ऐसे सोलह भाग हैं। पंक भाग चौरासी हजार योजन है। इन दोऊ भागन में तौ व्यन्तर भवनवासी देव बसे हैं और अस्सी हजार । योजन का जाड़ायरा (मोटा) लिये अब्बल माग है। तहां प्रथम नरक है। तहाँ पाथड़े तेरह हैं और सर्व बिल || तीस लाख हैं। तो आयु उत्कृष्ट राक सागर है। काय की ऊँचाई सवा इकतीस हाथ है। ऐसे प्रथम नरकाश आगे दूसरा शर्करा नामा नरक तहां पाथड़े ग्यारह । काय साढ़े बासठि हाथ आयु तीन सागर और बिल पच्चीस लाख, मोटाई पृथ्वी की बत्तीस हजार योजन है । २ । बालुका नरक में पाथरे नव, बिल पन्द्रह लाख, आयु सात सागर, पृथ्वी को मोटाई अठाईस हजार योजन और काय एक सौ पच्चीस हाथ। इति तोजी नारक।३। चौथी पृथ्वी पंकप्रभा में पाथड़े सात आयु सागर दश की काय दोय सै पचास हाथ है। भूमि की मोटाई चौबीस हजार योजन है और बिलन का प्रमाण दश लाख है। रीसे चौथी नारक। ४। आगे धूम प्रभा पाँचवों नारक। तहां पाथड़े पांच काय हाथ पांचसै आयु सतरह सागर बिलन का प्रमाण तीन लाख पृथ्वी की मोटाई बोस हजार योजन । इति पांचवीं नारक।श आगे छठी पृथ्वी तमनामा तहां पाथड़े तीन है। काय एक हजार हाथ है। बिलन का प्रमाण पोच घाटि एक लाख है। भूमि की मोटाई सोलह हजार योजन है। इति घट्ठी पृथ्वी।६। आगे सातवीं पृथ्वी महातम। तहाँ पाधड़ा एक है। बिल पोच हैं। काय दोय हजार हाथ (पांच से धनुष) है। आयु तैतीस सागर है। भमि की मोटाई आठ हजार योजन की है। इति सातवीं पृथ्वी। ७। ऐसे अधोलोक का सामान्य कथन कह्या ।।
आगे मध्यलोक एक राज विस्तार सहित है। तहा असंख्याते द्वोप असंख्याते समुद्र हैं। तहां असंख्यात द्वीप तौ तिर्यक-लोक है। तिनके मध्य मैं अढाई द्वीप पैंतालीस लाख योजन क्षेत्र मनुष्य-लोक है। इससे मागे मनुष्य का गमन नाहीं। तहां प्रथम लास्त्र योजन विस्तार सहित जम्बूद्वीप है। तहां दोय चन्द्रमा, दोय सूर्य हैं
और लवण समुद्र मैं चन्द्रमा चार है। सूर्य चार हैं। सो सागर दोय लाख योजन विस्तार धरै है। जम्बूद्वीप | ते दुना जानना। तहां आगे च्यारि लाख योजन विस्तार सहित लवणोदधितै दुना बड़ा धातकीखण्ड द्वीप है। तहा चन्द्रमा बारह और सूर्य बारह हैं और धातकोखण्डत द्वना विस्तार सहित आठ लाच घोजन विस्तार धरै
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कालोदधि समुद्र है। तहाँ चन्द्रमा बियालीस हैं, सूर्य बियालीस हैं। यार्के आगे यातें दूना विस्तार सहित पुष्कर ||
दोष है। ताके अर्द्ध मध्य भाग में मानुषोत्तर पर्वत के बाहर के आधे पुष्कर द्वीप में चन्द्रमा बहत्तरि हैं और , || सूर्य बहत्तरि हैं। ऐसे ए सर्व मिल अढाई द्वीप विष चन्द्रमा एक सौ बत्तीस और सूर्य एक सौ बत्तीस जानना । गतहा एक चन्द्रमा का परिवार पहिय है। तहा चन्द्रमा एक सय एक, ग्रह अध्यासी, नक्षत्र अट्ठाईस, छयासठि हजार नव सौ पिचहत्तरि कोडाकोड़ि तारे हैं। यह एक चन्द्रमा ज्योतिषी देवन का इन्द्र, ताका सर्व परिवार जानना । सो जम्बूद्वीप विष चन्द्रमा दोय, सूर्य दोय, ग्रह एक सौ छिहत्तरि, नक्षत्र छप्पन और तारे एक लास तैतीस हजार नव सौ पचास कोड़ाकोड़ि हैं। सो जम्बूद्वीप के भाग भरत क्षेत्र समान करिए, ता एक सौ नब्बे होय। सो भरत से लगाय विदेह पर्यन्त क्षेत्र पर्वत दुगुने-दुगुने विस्तारवाले हैं और विदेह क्षेत्र ते उत्तर दिशाकों क्षेत्र पर्वत हैं। सो ऐरावत क्षेत्र पर्यन्त अर्ध-अ हैं। ऐसे जम्बूद्वीप की शलाका भरत क्षेत्र समान एक सौ नब्बे कही १,२,४.८,२६.३२,६४,३२,२६.८.४.२.२.-ए सर्व एक सौ नब्बे हैं, सो राक-एक शलाका प केते तारे आर सो ही कहिए हैं। तहाँ भरतक्षेत्र पै सात सौ पांच कोड़ाकोड़ि तारे हैं और हिमवत पर्वत पै चौदह सौ दश कोडाकोड़ो तारे हैं और हैमवत क्षेत्र पै अद्वाइस सौ बीस कोड़ाकोड़ी तारे हैं और महाहिमवत पर्वत वै छप्पन सौ चालीस कोड़ाकोड़ी तारे हैं और हरिक्षेत्र पे ग्यारह हजार दोय सौ अस्सी कोड़ाकोड़ी तारे हैं और निषध पर्वत पै बाईस हजार पांच सौ साठि कोड़ाकोड़ी तारे हैं और विदेह क्षेत्र पै पैंतालीस हजार एक सौ बोस कोडाकोड़ी तारे हैं और नील पर्वत पै बाईस हजार पांच सौ साठि कोडाकोड़ी तारे हैं और रम्यक क्षेत्र मैं ग्यारह हजार दोय सौ अस्सी कोड़ाकोड़ी तारे हैं और रुक्मि पर्वत 4 छप्पन सौ चालीस कोडाकोड़ी तारे हैं ||
और हिरण्यवत क्षेत्र 4 अट्ठाईस सौ बोस कोड़ाकोड़ी तारे हैं और शिखरी पर्वत पै चौदह सौ दश कौड़ाकोड़ी तारे हैं और शेरावत क्षेत्र सात सौ पांच कोड़ाकोड़ो तारे हैं। ऐसे जम्बूद्वीप के एक सौ नब्बे भागन पै तारान का प्रमाण कया। ऐसे जढ़ाई द्रोप सम्बन्धी चन्द्रमा सूर्यन का प्रमाण परिवार सहित कह्या। आगे मध्यलोक मैं असंख्यात द्वीप हैं। तिन मैं जादि के सोलह द्वीपन के नाम कहिए है। जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्कर-दीप, वारुणी-द्वीप, क्षोखर-द्रोप, घृतवर-द्वीप, क्षुद्रवर-द्रोप, नन्दीश्वर-द्रोप, अरुशवर-द्वीप, अरु सभासवर
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द्वीप, कुण्डलवर-द्वीप, संखवर-द्वीप, रुचिकवर-द्वीप, भुजङ्गवर-द्वीप, कुसङ्गवर-द्वीप, क्रौंचवर-द्वीपशबादि के सोलह द्वीप कहे। आगे असंख्याते द्वीपन के अन्त के सोलह द्वीपन के नाम बताईए है। मशिला-द्वीप, हरतालटोडा. सिन्दूरवर-
जोगामवर द्वीप वर-द्वीप, हिंगुलवर-द्वीप, रूपवर-द्वीप, सुवर्णवर-दीप, वप्रवर-द्वीप, बैंडूर्यवर-द्वीप, नागवर-द्वीप, मूतवर-द्रीप, पक्षवर-द्वीप, देववर-द्वीप. अहमिन्द्रवर-द्वीप और स्वयम्भूरमस-दीप ए अन्त के द्वीप कहे और विशेष रता जो आदि दोय ससुद्र-द्वीपन का नाम तो और-और है। बाकी असंख्याते द्वीप समुद्र हैं तिनका समुद्र का नाम सो ही द्वीप का नाम जानना ऐसे सामान्य मध्यलोक का कथन कहा। सो एक राजू तो मध्यलोक चौड़ा है। लास्त्र योजन मैरु प्रमाण मध्यलोक की ऊँचाई है। तामैं ही ज्योतिष-सोक जानना और ज्योतिषी देवन का प्रमाण अढ़ाई द्वीप सम्बन्धी सामान्य कहिये है। तिनमैं ध्रुवतारान का प्रमास कहिए है। तहाँ जम्बूद्वीप सम्बन्धी ध्रुवतारे छत्तीस हैं । ३६ । लवरा समुद्र मैं १३६ ध्रुवतारे हैं धातकोखस्ड विर्षे एक हजार दश हैं। कालोदधि समुद्र विध्र वतारे ४२१२० हैं। आधे पुष्कर द्वीपमैं मनुष्य-सोक की तरफ ५३२३० ध्रुवतारे हैं ऐसे सर्व मिलि अढ़ाई द्वीप के विर्षे ६५,५३५ ध्रुवतारे हैं। अब मध्यलोक सम्बन्धी अकृत्रिम जिन चैत्यालय जहाँ-जहाँ हैं, सो ही बताइए है। तहां एक मेरु सम्बन्धी च्यारि वन हैं। एक-एक वन में च्यारि-च्यारि जिन मन्दिर हैं। सो च्यारि वन के सोलह जिन मन्दिर मये और एक मेरु सम्बन्धी च्यारि गजदन्त हैं। तिन पे च्यारि मन्दिर हैं। षट कुलाचलन पै षट। जम्ब शालमली दोय वृक्षन में दोय मन्दिर है। विजया चौतीस पै चौतीस जिन-मन्दिर हैं। बक्षार सोलह 4 सोलह ही मन्दिर हैं। ऐसे एक मेर सम्बन्धी अठहत्तरि भय, सो पांचन के मिलार तीन सौ नब्बे होय। इष्वाकार च्यारिन पै च्यारि जिन-मन्दिर हैं। मानुषोत्तर की चारों दिशा सम्बन्धी च्यारि जिन-गह हैं। नन्दीश्वर के च्यारि दिशा सम्बन्धी बावन जिन-मन्दिर हैं भार ग्यारहवाँ कुण्डलगिरि-द्वीप के मध्य भाग कुण्डलगिरि है ताकी चारों दिशा च्यारि जिन-मन्दिर हैं और तेरहवाँ रुचक गिरि-द्वीप ताके मध्य भाग में रुचिकगिरि पर्वत है। ताके चारों दिशा च्यारि मन्दिर हैं। ऐसे सब । मिलाईए तो च्यारि सौ अठावन भए, तिनकं बारम्बार नमस्कार होहु । ऐसे यहां सामान्य मध्यलोक का कथन पुर्ण किया। प्रागे ऊर्ध्व-लोक रचना सामान्य कहिये। तहां स्वर्ग-लोक के दोय भेद हैं। एक कल्पवासी,
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एक कल्पातीत । तहां कल्पवासीन के स्वर्ग सोलह हैं। तिनके नाम-सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट. शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहसार, जानत, प्राणत, आरस, अच्युत-ए सोलह हैं। || १५४ तिनके जाठ युगल जानना। तहाँ युगल-युगल प्रति उत्कृष्ट अायु-कर्म कहिए है। तहां प्रथम युगल में दोय सागर कुछ अधिक उत्कृष्ट प्रायु है। दूसरे युगल में उत्कृष्ट आयु सात सागर कुछ अधिक है। तीसरे युगल में दश सागर कुछ अधिक उत्कृष्ट आयु है। चौथे युगल विर्षे चौदह सागर कुछ अधिक आयु है। पांचवें युगल में सोलह सागर कुछ अधिक आयु है और छठे युगल में अठारह सागर कुछ अधिक आयु है। सातवें युगल में बीस सागर आयु है। आठवें युगल में आयु बाईस सागर है। ऊपरि नव ग्रैवेयक है, तहां प्रथम प्रैवेयक में तेईस सागर आयु है। दूसरे ग्रेवेधक में चौबीस सागर है। तीजे ग्रैवेयक में पच्चीस सागर है। चौथे ग्रेवैयक मैं छब्बीस सागर है। पाँचवीं ग्रैवेयक में सत्ताइस सागर है। छठी प्रैवेयक में अठाईस सागर है। सातवीं ग्रेवेयक में गुगतीस (उनतीस) सागर है। आठवों ग्रेवेयक में तीस सागर है। नववों ग्रेवेयक में इकतीस सागर उत्कृष्ट आयु है। ऐसे अच्युत स्वर्गर्त एक-राक सागर अधिक ग्रैवेयक पर्यन्त बधाय ( बढ़ाय) लेनी और नव अनुदिश में बत्तीस सागर है। पञ्च पञ्चोत्तर में तैतीस सागर आयु है। इति आयु । जागे युगल प्रति काय का प्रमाण कहिये है। युगल प्रति शरीरन की ऊँचाई। तहां प्रथम युगल के देवन की काय हाथ सात है। दुजे युगल के देवन की काय हाथ षट् है। तीसरे युगल के देवन की काय हाथ पांच है। चौथे युगल के देवन की काय हाथ पांच है। पञ्चम युगल के देवन की काय हाथ च्यारि है और छठे युगल के देवन की काय हाथ चार है और सातवें युगल के देवन की काय हाथ साढ़े तीन है और आठवें युगल के देवन की काय हाथ तीन है। नव ग्रेवेयकमैं प्रथम त्रिक के देवन की काय हाथ अढ़ाई है। दूसरे त्रिक देवन की काय हाथ दोय हैं। तीसरे त्रिक देवन और नव अनुदिश की काय हाथ डेढ़ हैं। प्रागै पञ्च पश्चोत्तरन के देवन की काय हाथ एक है। इति काय। आगे स्वर्गन के पटल कहिये हैं। तहो प्रथम युगल के पटल इकतीस हैं और दूजे युगल के पटल सात हैं और तीसरे युगल के पटल च्यारि हैं। चौथे युगल के पटल दोय हैं। पंचम युगल का पटल एक है। छठे युगल का पटल एक है। सातवें युगल के पटल तीन हैं। आठवें युगल के पटल तीन हैं। नव ग्रैवेयक के पटल नव हैं। नव अनुत्तरन का पटल
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एक है, पश्वपञ्चोत्तरन का पटल एक है, ऐसे स्वर्ग स्वर्गन के पटल सठि हैं। इति पटल । अागे स्वर्ग प्रति इन्द्र
कहिये है। तहां प्रथम युगल के इन्द्र दोय हैं। दूसरे युगल विर्षे इन्द्र दोय हैं। तीसरे युगल में इन्द्र राक है। | चौथे युगल में इन्द्र एक है । पाँचवें युगल में एक इन्द्र है। छठे युगल में इन्द्र एक है। सातवें युगल में इन्द्र दोय
हैं। आठवें युगल में इन्द्र दोय हैं और अहमिन्द्रन में इन्द्र नाहीं। वह सर्व ही भाप-आप इन्द्रसम है। इति इन्द्र संख्या। आगे स्वर्ग प्रति विमान की संख्या कहिये है। तहाँ प्रथम स्वर्ग के विमान बत्तीस लाख हैं और दूसरे स्वर्ग के अठाईस लाख विमान हैं। ऐसे सर्व मिलि प्रथम युगल के साठि लाख विमान हैं। तीसरे सनत्कुमार स्वर्ग के बारह लाख विमान हैं और चौथे महेन्द्र स्वर्ग के आठ लाख विमान हैं-श सर्व मिलि दूसरे युगल के बीस लाख विमान हैं । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर के मिलि च्यारि लाख विमान हैं। चौथे युगल के पचास हजार विमान हैं। पाँचवें युगल के चालीस हजार विमान हैं। छठे युगल के षट् हजार विमान हैं और सातवें युगल के पर पाठवं युगल के मिलिकै सात सौ विमान हैं और नव ग्रैवैयक के तीन त्रिक हैं। तहां प्रथम त्रिक के ११३ विमान है, दूसरे त्रिक के १०७ विमान हैं, तीसरे त्रिक के () विमान हैं। ऐसे सर्व मिलि नव ग्रैवेयक के ३०६ विमान हैं। नव अनुत्तरों के विमान हैं । पञ्च पश्चोत्तरों के पाँच विमान हैं। ऐसे सर्व कल्पातीतन के ३२३ विमान हैं। ऊर्ध्व-लोक के स्वर्गवासी देवन के विमान मिलाईए तो ५४.६७,०२३ विमान हैं। सो इन सर्व विमाननमैं एकएक जिन-मन्दिर है। तिनको हमारा बारम्बार नमस्कार होह। इति विमान संख्या। आगे धरतीत स्वर्ग की ऊँचाई कहिये। तहां पृथ्वीतें लगाय लाख योजन ऊँचा तो प्रथम युगल का प्रथम इन्द्रक है और पृथ्वीते डेढ़ राजू ऊँचा प्रथम युगल के इकतीसा पटल का इन्द्रक है। पृथ्वीते तीन राजू अरु अन्त पटल के अन्त पटलते डेढ़ राजू ऊँचा दूसरे युगल का अमल है। दूसरे युगलत आधा राजू ऊर्ध्वको तीसरे युगल का अमल है। तीसरे युगलते आधा राजू ताई ऊपर चौथे युगल का अमल है। चौथे युगलसे आधा राजू ऊपर ताई पाँचवें युगल का अमल है । पाँचवें युगल तें आधा राजू ऊँचे तांई छठा युगल का अमल है। छठे युगल ते सातवाँ युगल आधा राजू ऊँचा है। सातवें युगलते आठवाँ युगल आधा राजू ऊँचा हैं। ऐसे षट् राजू मैं तौ सोलह स्वर्ग के आठ युगल हैं। ऊपरि राजू के आदि नव ग्रैवेयक हैं राजू के मध्य भाग विर्षे नव अनुत्तर है। राजू के अन्त सर्वार्थ
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सिद्धि है। ताके ऊपर संख्यात योजन सिद्धशिला है। ताके ऊपरि तनुवातवलय मैं सिद्ध चक्र चैतन्य अमूर्तिक सिद्ध भगवान विराजे हैं। तिनको बारम्बार नमस्कार होह और जिस क्षेत्रमैं सिद्धदेव विराजे सो पैंतालीस लाख योजन सिद्ध क्षेत्र है। तिस उत्कृष्ट तीर्थक्षेत्र कं नमस्कार होहु । इति स्वर्गन की ऊँचाई। ___ आगे विमानन के वर्ग कहिये है। आगे प्रभा गुगल के विमानन के चली गई हैं। दूसरे गुगल ले विमान कृष्ण बिना च्यारि वर्ग के हैं। तीसरे युगल के विमान नोल, कृष्ण बिना तीन वर्ग के हैं। चौधे युगल के विमान तीन कृष्ण जिना तीन वर्ण के हैं। पाँचवें युगल के विमान पीत श्वेत दोय वर्ग के हैं। छठे युगल के विमान पीत श्वेत वर्ण के हैं और सातवें युगल, आठवें युगल तथा अहमिन्द्रन के विमान-सर्व एक शुक्र वर्ण के ही हैं। इति विमान वर्णन ! आगे स्वर्गन के आधार कहिये हैं। तहां प्रथम युगल तो जल के आधार है। दूरसा युगल पवन के आधार है। तीसरा युगल पवन के आधार है। चौथा, पाँचों, छठा-ए तीन युगल जल पवन के
आधार हैं। सातवाँ, आठवा युगल तथा अहमिन्द्रन के विमान सर्व आकाश के आधार हैं। इति आधार। आगे स्वर्ग प्रति देवन के काम सेवन कैसे है, सो बतावै हैं। प्रथम युगल मैं देवनको काम सेवन मनुष्य पशुवत् है। दूसरे युगल मैं तनतें तन स्पर्श कर तृप्ति होय है। तीसरे युगल मैं देव देवीनकों परस्पर राग दृष्टि करि रूप देखि ही भोगन की तृप्ति होय है। चौथे युगल में भी रुप देखि तृमि होय है। पाँचवें, छठे युगल में देव देवीन का परस्पर राग का भरचा शब्द सुनि भोगवान् तृप्ति होय है और सातवें, बाठवें युगलन के देव देवीन के मन में भोग अभिलाषा भई अरु तृप्ति होय है। अरु ऊपरि लै अहमिन्द्रनकौं काम सेवन की इच्छा नाहों। इति काम सेवन । आगे देवन के अवधि क्षेत्र कहैं। तहाँ प्रथम युगल के देवन को अवधि का विषय प्रथम नरक पर्यन्त जानें। इतनी ही विक्रिया होय, अधिक नाहों और दूसरे नरक पर्यन्त दूसरे युगल के देवन की अवधि, विक्रिया है और तीसरे युगल के देवन की अवधि विक्रिया तीसरे नरक पर्यन्त हैं। चौथे युगल के देवन की अवधि तीसरे नरक पर्यन्त शुभाशुभ जानने । इतनो हो विक्रिया होय। पाँचवें, छठे युगल के देवन की अवधि, विक्रिया चौथे नरक पर्यन्त जानना और सातवें, आठवें युगल के देवन की अवधि, विक्रिया पाँचवें नरक ताई होय। नव ग्रैवेयक के देवन की अवधि, विक्रिया छठे नरक पर्यन्त होय है। नव अनुदिश पंच पंचोत्तरन के देवन की अवधि, विक्रिया
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| सातवें नरक पर्यन्त होय हैं। विशेष एता. ऊपरले देवन की विक्रिया विविक्तपने तौ तीसरे नरक पर्यन्त ही है।।
आगे नाहीं। अरु शक्ति रूप सातवें ताई कही है और अवधिन्नान अपने-अपने विषय योग्य क्षेत्र के शुभाशुभ भाव सर्व जान हैं। इति जवधि, विक्रिया। जागे देव चर पीछे केोक काल पीछे देव तहाँ उपजै ताका स्वर्ग पर्यन्त अन्तर कहिए है। तहा प्रथम युगल विर्षे अन्तर उत्कृष्ट सात दिन का है। पीछे कोऊ उपजे ही उपजे। दूसरे युगल मैं पन्द्रह दिन का अन्तर है। तीसरे युगल में अन्तर एक मास का है। चौथे युगलमैं अन्तर एक मास का है। पाँचवें, छठे युगल मैं अन्तर उत्कृष्ट दोय मास है और सातवें, आठवें युगल मैं च्यारि मास का है। ऊपर अहमिन्द्रन मैं उत्कृष्ट अन्तर षट्र मास का है। ऐसे उत्कृष्ट अन्तर षट् मास है। पीछे अपने अन्तर उपरान्त कोई पुण्याधिकारी जीव उपजै ही उपजै। स्थान खाली रहै तौ इतना रहै। मध्य के अनेक भेद हैं । इति उत्पत्ति अन्तर। भागे देवन के मनसा भोजन केतक काल में होय सो कहिये है। तहाँ देवन की जितने सागर की आयु होय तेते हजार वर्ष गये भोजन पैमन होय है। पोछे तृप्ति होय है और जहाँ जितने सागर की आयु होय तेते पक्ष गये श्वासोच्छवास होय है। इति भोजन श्वासोच्छवास। आगे स्वर्ग प्रति देवन के मुकुट के चिह्न कहिये हैं। सूर, हिरण, महिष, मछली, कछुवा, मैंडक, घोटक (घोड़ा), हस्ती, चन्द्रमा, सूर्य, खड्गी, बकरी, बैल, कल्पवृक्ष इत्यादिक चिह्न देवन के मुकुटन में होय हैं। इति मुकुट चिह्न। आगे देवन के विमान की मोटाई स्वर्ग प्रति कहिये है। तहाँ प्रथम युगल के विमानन को मोटाई ११२५ योजन जानना। दूसरे युगल के विमानन की मोटाई २०२२ योजन जानना। तीसरे युगल के विमानन की मोटाई १२३ योजन जानना। चौथे युगल के विमानन की मोटाई ८२८ योजन जानना। पाँचवें युगल के विमानन की मोटाई :७२५ योजन जानना। छठे युगल के विमानन की मोटाई ६२६ योजन जानना। सातवें युगल के विमानन की मोटाई ५२७ योजन जानना। आठवें युगल के विमानन की मोटाई ४२८ योजन जाना। नव ग्रैवेयक के विमानन की मोटाई ३२६ योजन जानना। नव अनुत्तर विमानन की मोटाई २३० योजन जानना। पंच अनुत्तरन के विमानन की मोटाई १३३ - योजन जानना। ऐसे स्वर्ग प्रति विमानन की मोटाई कही। इति विमानन की मोटाई। आगे स्वर्गप्रति देवन के लेश्या कहिये है। तहां प्रथम युगल में लेश्या पीत है। दूसरे साल में पीत पद दोय लेश्या हैं। तीसरे युगल में
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पद्मश्या है। चौथे युगल में लेश्या पद्म है। पाँचवें युगल में लैश्या पद्म है। छड़े युगल में पद्म शुक्ल दोय लेश्या हैं। सातवें, आठवें युगल तथा अहमिन्द्रन में लेश्या एक शुक्ल है । इति लेखा । जागे स्वर्ग प्रति देवांगना को उत्कृष्ट बाबु कहिये है। तहां सौधर्म प्रथम स्वर्ग के देवीन की आयु पाँच पल्ध है। ऐसान स्वर्ग के देवन की देवी की आयु सात पल्य की है। आगे तीसरे स्वर्गत लगाय बारहवें पर्यन्त दोय-यथ बथती (बढ़ती ) जानना । फेल्थ--- २,७,६,११,३०२१,३७,१६,२२,२३.२५, २७ अनुक्रम तैं जानना और तेरहवें स्वर्ग की देवीन की आयु चौंतीस पल्य की है और चौदहवें स्वर्ग की देवीन की आयु इकतालीस पल्य को है और पन्द्रहवें स्वर्ग की देवी की आयु अड़तालीस पल्य की है और सोलहवें स्वर्ग की देवोन की आबु पचपन पल्ध की है । ऐसे स्वर्ग प्रति देवीन की आयु कही। इति देवीन की आयु । ऐसे सामान्य दैव-लोक का कथन कह्या । ऐसे अधो-लोक, मध्य-लोक, ऊर्ध्व लोक का व्याशन जामैं होय सो त्रिलोकविन्दु नामा चौदहवाँ पूर्व जानना । ऐसे ग्यारह अङ्ग चौदह पूर्व ज्ञान के धारी होय सो उपाध्याय मुनि हैं। ये गुरु नगन वीतराग पूजवे योग्य हैं और जिनकी तप करने को बड़ी शक्ति होय, नाना प्रकार तप करते शरीर मन वचन शिथिल नहीं होंय सो तपसी जाति के मुनि कहिये। ऐसे दुर्धर तपनकौं तपसी करे तिनका संक्षेप कथन कहिये है। प्रथम जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति नाम तप कहिये है । या तप के उपवास तिरेसठ तिनकी विधि सोलह कारण भावना का पड़िया सोलह और पंचकल्याणक की पांचें पांच प्रातिहार्य की आठ आठ, चौंतोस अतिशय की दशैँ बोस और चौदसि चौदह, ऐसे एक-एक तिथि का एक-एक उपवास करे ताके सर्व मिल उपवास त्रेसठ करें। सो यतीश्वर निर्ममत्व इस तपर्क करें हैं। याका नाम जिनगुणसम्पत्ति तप है। आगे श्रुतज्ञान तप कहिये है । याके उपवास एकसौ अठावन । तिनकी विधि, मतिज्ञान के उपवास अठाईस और ग्यारह अङ्ग के उपवास ग्यारह उपक्रम के उपवास दोय । अरु सूत्र के पद अठ्यासी लाख ताके उपवास अठ्यासी । प्रथमानुयोग का उपवास एक और चौदह पूर्व के उपवास चौदह और पांच चूलिका के उपवास पाँच अवधिज्ञान के उपवास षट्। मनःपर्यय के उपवास दोय । केवलज्ञान का उपवास एक ऐसे एक सौ अठावन उपवास, जो यति तनतें निस्पृह होय सौ इस तप को करें है। ऐसा श्रुतिज्ञान तप जानना श्रागे कर्मक्षय तप कहिये है। अष्टकर्म नाश करने के निमित्त तपसो जाति के
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मुनि कर्मक्षय तप करें। याके उपवास एकसौ अड़तालीस हैं। तिनको विधि–चौथि के उपवास सात । सातें के उपवास तीन । नवमी के उपवास छत्तीस । दशमी का उपास एक । बारसि के उपवास सोलह। चौदश के उपवास पच्यासी। ऐसे एक सौ अड़तालीस उपवास सहित तप करे। आगे सिंह निष्कीड़ित तप कहिये है। यह तप एक सौ सतहत्तरि दिन का है । तिनमैं उपवास तो एकसौ पैंतालीस । अरु पारणा बत्तीस तिनको विधि कहिर है। उपवास २,पारणा। उपवास २. पारणा । उपवास २. पारसा । उपवास ३, पारणाश। उपवास २, पारणा। उपवास ४,पारणा । उपवास ३. पारणा 1 उपवास ५, पारखा। उपवास, पारणा । उपवास ६, पारणा। उपवास ५, पारणा । उपवास ७, पारणा। उपवास ६, पारणा उपवास..पारगा। उपवास ७, पारणा 21 उपवास, पारणा २। उपवास ८.पारणा । उपवास ७, पारगा। उपवास८.पारणा। उपवास ६,पारगा। उपवास ७, पारशा उपवास ५, पारणा । उपतास ४, पारखा २। उपवास ५. पारणा । उपवास ३, पारणा २। उपवास ४, पारणा । उपवास २, पारणा उपवास ३, पारणा । उपवास २.पारसा ।। उपवास २,पारणा । उपवास १, पारणा २१ ऐसे २४५ उपवास और ३२ पारणा करि व्रत करें हैं।४। आगे सर्वतोभद्र तय कहिये हैन्याके उपवास ७५, पारणा २५। सर्व एक सौ दिन का तप है। ताकी विधि-उपवास १, पारणा 1 उपवास २, पारणा। उपवास ३.पारगा। उपवास ४. पारगा। उपवास ५, पारणा 21 उपवास ३, पारणा। उपवास २, पारणा । उपवास २, पारणा ११ उपवास ५. पारणा । उपवास ४,पारगा। उपवास ३, पारखा। उपवास २, पारणा । उपवास ३, पारणा । उपवास ४, पारणा। उपवास ५,पारणा । उपवास, पारसा । उपवास ४. पारणा । उपवास ३, पारणा । उपवास २, पारणा । उपवास १, पारणा । उपवास ५, पारणा । उपवास ४. पारणा । उपवास ५, पारणा । उपवास १, पारणा । उपवास २, पारणा। ऐसे यह व्रत गुरुनाथ निशंक होय करें हैं। आगे महासर्वतोभद्र तप की विधि-उपवास १, पारणा। उपवास २, पारणा। उपवास ३, पारगा। उपवास ४, पारणा१1 उपवास ५, पारसा । उपचास ६,पारणा । उपवास ७. पारगा। उपवास १, पारणा । उपवास २. पारणा । उपवास ३,
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पारणा । उपवास ४. पारणा ११ उपवास ५, पारणा। उपवास ६, पारणा । उपवास ७, पारसा। उपवास, पारणाश उपवास २,पारणा । उपवास ३, पारणा १। उपवास, पारणा ।। उपवास ५, पारणा ।। उपवास ६,पारगा। उपवास ७,पारसा । उपवास,पारगा। उपवास २,पारसा ।। | उपवास ३, पारगा। उपवास४.पारणा है। उपवास ५.पारखा। उपवास६.पारगा। उपवास पारगा। उपवास,पारणा । उपवास २,पारगा। उपवास २,पारणा । उपवास,पारगा। उपवास ५, पारण।१। उपवास,पारणा १। उपवास ७, पारणा१1 उपवास १,पारखा १। उपवास २. पारण। 1 उपवास३, पारणा 1 उपवास ४, पारणा १। उपवास ५, पारणा 1 उपवास ६,पारगा। उपवास ७, पारणा १। उपवास १, पारणा १ । उपवास २. पारणा ।। उपवास ३, पारणा १ । उपवास ४. पारणा १। उपवास ५, पारणा ।। उपवास ६, पारणा १। उपवास ७, पारणा १। या भौति उपवास १६६ हैं
और पारणा गुणचास हैं। र सर्व मिलि दोयसौ पैंतालीस दिन का तप है। या तपकौं तपसी पाति के गुरु करें। इति महासर्वतोभद्र तप ।६। आगे लघु सिंह निष्क्रीड़ित तप कहिये है। इस लघु सिंह निष्क्रीड़ित तपकौं यति करें। ताकी विधि कहिए है -उपवास १, पारगा। उपवास २, पारणा १। उपवास, पारा । उपवास ३, पारणा १ । उपवास १ पारणा ।। उपवास ४, पारणा । उपवास ४, पारणा उपवास ५, पारणा । उपवास, पारणा । उपवास ५, पारणा । उपवास ५, पारगा। उपवास ४, पारणा एक । उपवास ५. पारणा एक । उपवास ३, पारणा एक । उपवास ४. पारणा एक। उपवास २,पारखा एक । उपवास एक, पारणा रक। ऐसे यह लघु सिंह निष्क्रीड़ित तप के उपवास ६० और पारणा २० सर्व मिलि ९० दिन का सप है। ताहि तपसी गुरु करें। इति लघु सिंह निश्क्रीड़ित तप ७. आगे मुक्तावली तप कहिये है-उपवास राक, पारणा राक । उपवास २, पारखा एक । उपवास ३, पारसा एक। उपकास ४, पारणा एक । उपवास ५, पारणा एक । उपवास ४, पारखा एक । उपवास ३. पारणा एक । उपवास २, पारणा एक । उपवास एक, पारणा एक। ऐसे या तप के उपवास पच्चीस और पारणा नव सर्व दिन चौतीस का तप है। याकौ मुक्तावली तप कहिये। याकौं करें सो यति तपसी गुरु कहिये।
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इति मुक्तावली तप। ८। आगे रत्नावली तय कहिये है। रत्नावली तप को विधि-उपवास २, पारणा ।।। उपवास २. पारणा उपवास ३. पारगा। उपवास ४, पारणा। उपवास ५, पारणाश उपवास ५, पारगा। उपवास, पारणा। उपवास ३, पारणा। उपवास २, पारणा। उपवास २, पारणा । ऐसे या रत्नावली तप के उपवास तीस और पारणा दश सर्व चालीस दिन का तय है । ताकी तपसी गुरु कर है। इति रत्नावली तपा। आगे कनकावली तप कहिए है। कनकावली तप को विधि— शुक्ल पक्ष की पड़िवा पांचें और दर्श र तीन तौ शुक्ल पक्ष की और कृष्ण पक्ष की दोज, छठि और बारसि ऐसे एक महीना के उपवास षट होय । एक वर्ष के बहत्तरि उपवास करै। ऐसा कनकावली तपकौं तपसी करैं हैं। इति कनकावली तप।२०।आगे आचारवर्धन तप कहिये है। आचारवर्धन तप की विधि---उपवास २, पारणा । उपवास २. पारणा । उपवास ३, पारणा १ । उपवास ४, पारणा १। उपवास ५, पारणा । उपवास ६, पारणा । उपवास ७. पारणा । उपवास ८, पारणा । उपवास इ. पारणा । उपवास २०, पारणा । उपवासह, पारणा । उपवास . पारणा । उपवास ७, पारणा उपवास ६, पारणा । उपवास ५. पारणा। उपवास 8. पारणा । उपवास ३, पारणा उपवास २, पारणाउपवास, पाराशरोसे या व्रत के उपवास सौ और पारणा उन्नीस सर्व मिलि एकसौ उन्नीस दिन का तप है। ताहि वीतराग तपसी करें हैं। इति आचारवर्धन तप।१२। आगे सुदर्शन तप कहिये है। या तप की विधि---तहां उपशम सम्यक, क्षयोपशम सम्यक और क्षायिक सम्यक—ये तीन सम्यक हैं। तिन एक-एक सम्यक के शङ्का कांक्षादि आठ-आठ दोष हैं। सो तीनों सम्यक के चौबीस मल दोष भये। तिन चौबीस दोष के चौबीस उपवास एकान्तर करें। या तप के सर्व अड़तालीस दिन भये। २२ । इत्यादिक तप तपसी गुरु करें। इनकौं आदि लय अनेक दुर्द्धर तप तीन काल के करें। अपनी परणति महाधर्म शुक्लध्यानमय राखि समता की वृद्धि करैं सो तपसी जाति के मुनि हैं। जे यति आचार्य के पास शास्त्र अभ्यास कर तिनकं शिष्य जाति के मुनि कहिये। जैसे—लौकिक मैं जेते जाका पिता जीवें ताकौ कुमार कहैं हैं। तैसे जेते काल जिनके आचार्य गुरु विराजै होंय उन गुरुन शास्त्राभ्यास करें, सो शिष्य जाति के मुनि कहिये।। अनेक रोगन सहित शरीर के धारी मुनीश्वर, वीतरागी, तन भोगनतें
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उदास आत्म रसराते, शान्त चित्त के धारी, सो ग्लानि जाति के मुनि हैं। ५ । बड़े-बड़े यतीन का संघ, सो गए जाति के मुनि हैं। सो बड़े-बड़े यतीन के तीन भेद हैं। वय करि बड़े तथा गुण-ज्ञानादि करिके बड़े तथा दीक्षा करि बड़े, यतिन का समूह, सोमण जाति के मुनि हैं। ६ । श्रावक, श्राविका, मुनि, अजिंका-इन चारौं प्रकार के संघमै रहँ, सो संघ जाति के मुनीश्वर हैं। ७. जे मुनि शिष्यन की आम्नाय जाने, दीक्षा देने की विधि जानें इत्यादिक मुनि-धर्म की क्रिया मैं प्रवीण होय, सो कुल जाति के मुनीश्वर हैं। जे बहुत काल के दीक्षित होय, सो साधु जाति के मुनीश्वर हैं।६।जे बाह्य परिग्रह का त्याग करि नगन होय, गुरु चरणारविन्दन के पास मुनिपद धरवे कू सन्मुख भया, मुनि होयबै की क्रिया नेग-चार करावता होय, सो मनोज्ञ जाति के मुनि हैं।२०। ऐसे दश जाति के मुनिपद पूज्य हैं। आगे ऐसे गुरु के विचारने योग्य समाचार दश हैं। महामुनि इनका विचार कैसे करें, कहां करें, लोकानिये हैं: मोदाथ हो आजारर र" श अनुसार कहिये हैं। इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार इच्छा व्रत आशीष निधि का अप्रच्छिन्न प्रति प्रछिन्न आन मन्त्र संप्रय अब इनका सामान्य अर्थ कहिये है। पुस्तक, आतापन, योगादि अनेक शुभ क्रिया अपने हित निमित्त सीसी जाय, विनय सहित आचार्य पं याचे, सो इच्छाकार है। बिना उपदेश, आप अपनी इच्छात अपने हितकारी परभव सुखकारी पुण्यकारी वस्तु विचारि करि गुरुन पै याचना करै, सो इच्छाकार समाचार है। 21 जे यति महाधम मूरती उदास ! वृत्ति का धारक च्यारि गति के जन्म-मरण करि खाया है, भय जानैं सो मुनि रौसा विचार जो मैंने अपनी अज्ञान | अवस्था मैं अनेक पाप किये तिनका फल अब समझा सो पाप का फल अनिष्ट जानि महाभयभीत होय या कहैं
जो मेरे एकीएक अगले पाप मिथ्या होह । अब मैं पाप नहीं करूँगा। ऐसे पापतै भय खाय निःशल्य होय सो मिथ्याकार कहिये । २। जहां तत्त्व पदार्थनकी श्रद्धे, सो सत्य जिन-आज्ञा प्रमाण श्रद्धा है तथा जिन अङ्ग-पूर्व शास्त्रत का गुरु मुखत श्रवण करना सो विनय सहित करना तथा आप सभाजनक हित का करनहारा उपदेशक है सो जिन-आज्ञा प्रमाण कहै । अरु कदाचित् अपनी इच्छाकरि (मनमाना) उपदेश करै तौ महान् पापी होय । तातै जीवनकौं दयापूर्वक कहै। जिन-प्राज्ञा सहित सत्य कहै। अपनी बुद्धि बनाय नहीं कहै तथा आप जिन। आशा प्रमास श्रद्धान राखे। औरको धर्म-राह बतावें सो जिन-आज्ञा प्रमाण कहे, सो तथाकार समाचार कहिये।३।।
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और आगे किये जो गुरु के निकट आतापन योग तथा उपवासादि तप धर्मोपकरण पीछी कमण्डलु पुस्तकादिक तथा महाव्रतादि जो मोक्षमार्ग की साधक क्रिया तिनमें स्वेच्छारूप नहीं प्रवर्ते सारी मुनि-धर्म की साधन हारी जी प्रवृत्ति सो तामैं प्रमाद छोड़ि साहसी होय पापतें भय खाय व्रत का लोभी धर्मात्मा शिष्य गुरु की आज्ञा प्रमाण प्रवर्ते सो इच्छाव्रत समाचार कहिये । ४ । शिष्य गुरु के पासि ताथांदि जानको सीख मांगें तब ऐसे विनय सौं कहै । भो प्रभो ! अब तोई आपके पद-कमल के शरण रहा संयम निधि पाई। अब मेरा मन सिद्ध क्षेत्रादि यात्रा है। सो मोपै दया भाव करि आज्ञा देउ। ऐसे भक्ति सहित विनयपूर्वक विनति करि मौनि करि गुरु के निकट हस्त जोड़ि खड़ा होय रहे । यथायोग्य अन्तरतै तिष्ठे । तब ऐसे वचन आचार्य शिश्य के सुनि दयाभाव शिष्य वै धारि शिष्य के चारित्र को बधवारी ( बढ़नेवारी) की वाच्छातें आचार्य मंगलीक वचन कहैं । भी वत्स 1 है आर्य तेरे व्यन्तरादि उपसर्गत रहित संयम की प्रति पालना होऊ। ऐसे आचार्य शिष्यको मोक्षरूप लक्ष्मी की प्राप्ति व आशीष देय, सो आशीष नामा समाचार है। ५। जे मुनीश्वर जहां जाय तिष्ठ ता जगह ऋषि, देव, मनुष्यादि होय तिनक यतीश्वर ऐसा वचन कहैं। जो हम इहाँ तिहारी आज्ञा सहित तिष्ठे हैं। ऐसा कहिकै विश्राम करें। सो निषधि का समाचार है सो निषधि का तौ मुनि जा स्थानपै गुफा मसान वृक्ष की कोटर मण्डप वसतिका इत्यादिक स्थानकन के देव मनुष्यादिक की आज्ञा सहित तिष्ठ, सो निषधि का समाचार जानना |६| ऊपर कहा जो आशीष समाचार कहां करें, सो कहिये है — मुनीश्वर जहां तिष्ठे थे तो स्थानक तण अन्य स्थान जाय तब जातें यतीश्वर तहां के रक्षक देवादिक कूं ऐसे हित-मित वचन कहैं। जो हम तिहारे स्थान रहे, सो अब हम चलें हैं। ऐसे प्रिय वचन कहि गमन करें, सो आशीष कहिये और अपृच्छनी समाचार साताका अर्थ मूल ग्रन्थ आचारसारजी तैं जानना । ७ । यति को अपना लौंच करना होय तथा नवीन ग्रन्थ जोड़ विषै प्रारम्भ करना होय तथा कोई अपूर्व ग्रन्थ वोचना होय तथा नगर मैं भोजनकों जाना होय तथा इन कोक महान कार्य करना होय, तो आचार्यपं आय विनय सहित हस्त जोड़, मस्तक नमाय, गुरुपै आज्ञा याचे । सो जैसी गुरु का आज्ञा होय, ताही प्रमाण करें। सो प्रति प्रच्छिन्न समाचार कहिये। ८। और जब काहू मुनि पुस्तक चाहै, सो अपने गुरु पास होय तौ गुरु की आज्ञा सहित सेथ तथा अपने गुरुपै नाहीं होय
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और संघ में आचार्य के पास होय और शिष्य को क्यावना हो तो गुरु की जाता था। अपनी इच्छा नहीं करें, सो आन मन्त्र समाचार कहिये है | १| आगे संश्रय। सो संश्रय के पांच भेद हैं। सो कहिये - विनय-संश्रय, क्षेत्र-संश्रय, मार्ग-संश्रय, सूत्र-संश्रय और सुख-दुख -संश्रय- ऐसे ये पश्च भेद हैं। अब इनका सामान्य अर्थ कहिये हैं। तहां कोई मुनीश्वर अन्य देशान्तर तैं आयें तो जिस संघ में आये तिस संघ के यति आचार्य महाहर्ष सहित प्रमाद रहित होय आये मुनि के सत्कार को ताजीम ( स्वागत ) देय ताके अर्थ सात पैंड़ सन्मुख जाय यथायोग्य नमस्कार करें। पीछे आये मुनि के मार्ग खेद निवारण कूं यथायोग्य तिष्ठवैकौं स्थान देवें। पीछे मुनि के चारित्र को कुशल पूछें। या कहें है प्रभो । तिहारे रतनत्रय कुशल हैं ? याका भावार्थ - यह जो तुम्हारे मोक्ष-मार्ग निरतिचार रह्या ऐसे आये मुनिकों महा विनय सहित वचन कहि अपना धर्मानुराग प्रगट करते मनवचन - काय की क्रिया करि तिनकूं साता उपजावैं, सो विनय-संश्रय इति विनय-संश्रय कहिये । २ । आगे क्षेत्रसंश्रय । तहां जिस क्षेत्र का राजा पापी होय, अन्याई होय, अनाचारी होय तिस क्षेत्रमै यति नहीं रहें तथा जिस देश का कोऊ रक्षक नहीं होय राजा रहित क्षेत्र होय तो उस देशमैं मुनि नहीं रहैं और जिस देश -नगर जीवहिंसा विशेष होय, तहां यति नहीं रहें तथा जिस देशमैं पापी निर्दयी जीवन की बधवारी ( बढ़वारी ) की प्रवृत्ति होय । जहाँ धर्म रहित विपरीत जीवन का अधिकार होय ऐसे क्षेत्रमै यतीश्वर नहीं रहें तथा जो देश दीक्षा योग्य नहीं होय तथा जहां के जीव महाकसाई होंय, भोग-रत होंय, अनाचारी शुभ आचार रहित होंय, दोना योग्य नहीं हॉय, तिस क्षेत्र विषै जगत् गुरु नहीं रहें और जिस देश में अकाल पड़ गया होय, अन्न की वेदना करि अनेक
दुखिया हो रहे होय इत्यादिक उपद्रव सहित क्षेत्र मैं मुनि का धर्म सधै नाहीं । तातैं दया भण्डार संयम का लोभी ऐसे क्षेत्रन मैं नहीं रहे। अरु कदाचित् रहे तो संयम नष्ट होय । तातैं ऐसे कहे कुत्तेत्रन में योगीश्वर नहीं रहें और कैसे क्षेत्रन मैं रहें, सो कहिये हैं। जहां कोई जाति का उपद्रव नहीं होय जिस क्षेत्र का राजा धर्मो होय, देश की प्रजा धर्मात्मा होय. दयावान होय, दीक्षा योग्य जोव होंय, संयमी जीवन की प्रवृत्ति शुभाचारी होंय इत्यादिक शुभ क्षेत्र का विचार करि अपने संयम की रक्षा योग्य क्षेत्र मैं रहें। सो क्षेत्र-संश्रय कहिए । इति क्षेत्रसंश्रय । २ । आगे मार्ग संश्रय कहिये है— जहां कोऊ मुनि देशान्तर तीर्थ विहार करतें बहुत दिनतें मिले होंय
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तथा अपूर्व मिला होय । तब यतीश्वर परस्पर आपस मैं सुख-दुख परोषहादिक मैं चारित्र की कुशल पूछें। सो मार्ग-संश्रय है। इतिमार्ग- पं सुख-दु-संश्रय जहां कोई महामुनिकों देव मनुष्य पशुकृत महाघोर उपसर्ग हुआ ताकर पीड़ित मुनिकों देखि तिनको साता के निमित्त ओषधि आहार रहने को स्थानादिक देय साता उपजावै, साता भये पै ऐसे वचन कहें विनय सहित धर्म अमृत की धारा बढ़ावते वचन बोले। जो हे यतिनाथ ! हम दुख-सुख मैं तिहारे हैं। इत्यादिक हित-मित वचन का कहना, सो सुख-दुख संश्रय है। 81 आगे सूत्र - संश्रय कहिये है। तहाँ शिष्य ने कीऊ आचार्य के पास अनेक शास्त्रन का अभ्यास किया । श्रुत समुद्र का पारगामी होय बहुत काल पर्यन्त पठन-पाठन किया अनेक शास्त्र गुरु के मुखतें सुनें तिनका रहस्य पाय सुखी भया । पोछे कोऊ और आचार्यन के ज्ञान की महिमा सुनि तिनके शास्त्र सुनिने की इच्छा होय तथा अन्य मत के अनेक षट् मतन सम्बन्धी शास्त्र का रहस्य जानने की इच्छा होय तथा कोई तीर्थ विहार कर की इच्छा होय इत्यादिक अपने उर का रहस्य गुरु के पास कहै। पीछे आचार्य की आज्ञा सहित एक मुनि साथ तथा दोय मुनि साथ तथा अनेक मुनि संघ सहित विहार करें सो सूत्र-संश्रय है । इति सूत्र-संश्रय । ५ । ऐसे दश समाचार मुनीश्वर के विचारवे योग्य हैं, सो कहे ऐसे कहे जी गुरु दश भेद सो यह गुरु जब भगवान के मन्दिर विषै दर्शनको प्रवेश करें, सो कैसे जांय ? सो कहिये हैं। उक्त च "आचारसारणी ।"
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लोक सर्वव्यासंग निर्मुक्तः, सशुद्धकरणत्रय 1 धोतहस्तपदद्वन्दः परमानन्दमन्दिरम् ॥ १ ॥ चेत्य चैत्यालयादीनां सवनादौ कृतोद्यमः । भवेदनन्तसंसारसन्तानोच्छित्तये यतिः ॥ २ ॥
अर्थ- सर्व संग रहित होए मन-वचन-काय शुद्ध करि दोऊ हाथ, पाँव धोय महाहर्ष सहित चैत्यालय विषै जाय प्रतिमाजी की स्तुति करै सो यति अनन्तभव संसार का छेदन करे है। भावार्थ — जब महामुनि श्री भगवान् के दर्शन चैत्यालय में प्रवेश करें। तब कमण्डलु, पोछी, पुस्तकादि परिग्रह होय सो तिनकों बाह्य स्थान पै, एकान्त उच्च स्थान पै धरिकै आप निःपरिग्रह होय मन-वचन-काय शुद्ध कर अपने दोय हस्त, पांव प्रासुक धो हर्ष सहित परमानन्दित होय ईर्ष्या समिति करि जिन मन्दिर में प्रवेश करें। पीछे भगवान् की स्तुति करिवे का उद्यम करें। विनयतें अनेक स्तवन करें। कैसी है भगवान् की स्तुति अनन्त संसार भवन की मृत्यु
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उत्पत्ति की पंक्ती ताकी छेदनहारी है। कैसी स्तुति करें ? सो कहिये है---
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अर्थ- आप भक्ति रस करि भींजते मुनीश्वर भगवान् की स्तुति करें। भी भगवन् ! तुम अष्ट कर्म रहित वीतरागी हो आपके राग-द्वेष भाव नाश हो गये हैं। सो हैं भगवान्! तुम तौ भक्तनकौं स्वर्ग-मोक्ष नहीं करौ हौ । परन्तु हे भगवन् ! हमसे भक्तजन हैं तिनके भावन की प्रवृत्ति आपके चरण-कमलन मैं भक्ति रूप भई । सो वह भाव भक्ति हो भक्तन कूं स्वर्ग-मीत की दाता है। आपतौ वीतराग हो ही परन्तु भक्ति की महिमा अपार है । तातें इस बात निश्चय भई जो आप वीतरागी ही हो।
श्लोक - घोरसंसारगम्भीरे, वारिराशीनिमज्जताम् । दत्तहस्तावलम्बस्य जिनस्येक्षणार्थमागमेन् ॥ ४ ॥
अर्थ - हे भगवन् ! यह संसार-सागर दुख-जलि करि भरया । तिस विषै डूबते हमसे संसारी जीव तिनकों हस्तावलम्बन कर आप काढ़ौ हो । सो तिहारे देखवेकों भक्तजन आ हैं। भावार्थ-जिनदेव की स्तुति मुनिजन करें हैं। हे नाथ ! यह संसार-सागर महागम्मीर जाका छोर नाहीं । तामैं पड़ते ( गिरते ) हमसे संसारी जीव तिनकूं आप अपनी वाणीरूपी हस्तावलम्बन का सहाय देय दया भाव करि भव जल मैं डूबते बचावें । तातें है प्रभु ! तुम परम उपकारी जानि आपके दर्शनकूं हम आये हैं तथा संसार जल में डूबते भव्य जीव तिन दया भाव करि जाय अनेक जीव डूबते बचाव हैं। सो तिहारा जगत् यश सुनि जे भव्य हैं सो तिहारे देखवे आये हैं । तिन भव्यन का भी यही मनोरथ हैं। जो हे भगवन् ! हमकूं भी संसार समुद्र मैं ते डूबने ते राखौ । इत्यादिक वीतरागी मुनि भी जिनदेव की स्तुति ऐसे करें हैं। विनय तें हस्त, पाँव धोय हर्ष आनन्द सहित धरती देखते ईर्ष्या करते जिनदेव के मन्दिरन मैं जोये हैं। तातें अब भी जो भव्य जीव हैं जिनकी भक्ति का फल लैना होय, सो भव्य जीव धर्मात्मा मन-वचन-काय की क्रिया शुद्ध करि हर्ष सहित जिन-दर्शन कूं करना, सो ईर्ष्या सहित करना योग्य है। आगे कहे हैं जो यह मुनि अपनी प्रमाद अवस्थातें मन-वचन-कायतें, कोई क्रिया मैं सूक्ष्म अतीचार लगे तो ताके मेटवेकौं कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग उसका नाम है जो अपनी भूलि की आलोचना, निन्दा, गह करे सो कायोत्सर्ग कहिए । सो केतेक काल तांई कायोत्सर्ग करे ?
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इली- तथादादणवचास्त रागद्वेष प्रवृत्तयः । भक्ति: भयनुसारेण, स्वर्गमोक्षफलप्रदा ॥ ३ ॥
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ताके काल का प्रमाण बताईरा है। कौन-कौन प्रपाद कार्य भये कायोत्सर्ग करें, सो स्थान बताइये है
श्लोक -प्रन्धारम्भे समाप्ते घ, स्वाध्यायेस्तवनादिपु । समविशतिरुच्वास, कायोत्सर्गा मसा इह ॥xu ___ अर्थ-मुनीधर इतनी जगह कायोत्सर्ग करें। एक तौ कोई नूतन ग्रन्थ जोड़ने का प्रारम्भ करें, तब प्रथम कायोत्सर्ग करें। जब शास्त्र की पूर्णता हो चुके, तब कायोत्सर्ग करें। शास्त्र का स्वाध्याय करें, तब कायोत्सर्ग करें, महन्त सिद्धजी के गुणों का स्तवन करें, तब कायोत्सर्ग करें। इन जगह योगीश्वर | कायोत्सर्ग करें। ताके काल का प्रमाण सत्ताईस श्वासोच्छास है। भावार्थ-इतनी जगह धर्म क्रियान मैं प्रमाद वशाय अतीचार लागा होय, तौ ताके मेटवेकौं यति कायोत्सर्ग करें, सो एक-एक कायोत्सर्ग का काल सत्ताईस-सत्ताईस श्वासोच्छास है।
श्लोक---अष्टाविंशति मूलेषु, दिनस्य मल शुद्धये। अष्टाप्रशस्त मुच्छवासाः, निशायामपि तद्दलम् ॥ ६॥
अर्थ-यतीश्वर अपने अठाईस मूलगुशनकों तथा और व्रतकों, कोई प्रमादवाय जातीचार लागा जाने, तौ ताके शुद्ध करवेकौं कायोत्सर्ग करें । सो च्यारि प्रहर दिन मैं कोई अतीचार लागा होय, तौ ताकी यादि | करि ताके मेटवेकौं कायोत्सर्ग करें। ताका काल एकसौ आठ श्वासोच्छवास है। कोई च्यारि प्रहर रात्रिमैं | दोष लागा होय, तो ताके मेटवेकौ चौवन श्वासोच्छवास काल ताई कायोत्सर्ग करें।
श्लोक-पाक्षिके त्रिशतं जेयं, चतुर्मास समुद्भवे । चतुः शतं शतं पंच, सांवत्सरे यभागमम् ॥ ७ ॥ अर्थ-और जहाँ यतीश्वर अपने व्रत मैं पन्द्रह दिन विर्षे प्रतीचार लामा जाने । तौ ताके मैटवेकौं तीनसौ श्वासोच्छ्वास काल ताई कायोत्सर्ग करें और च्यारि महीना मैं अपने संयम • दोष लागा यादि आवें तौ ताके दुर करवेकौं च्यारि सौ श्वासोच्छवास काल तोई कायोत्सर्ग करें। आपकौं वर्ष दिन मैं कोई दोष ।। लागा यादि होय, तिसके मेटवेकौ पाँचसौ श्वासोच्छवास काल ताई कायोत्सर्ग करें।
लोक-पंचविंशति रुच्छ्वासा गोचरे जिन वन्दना । गते मले निषद्यायां, पुरीषाधि विसर्जने ॥८॥ अर्थ-जो यतीश्वर गोचरी जो नगर मैं भोजनकी जायकै आवै, तब राह मैं प्रमादयश दोष लागा होय तौ ।। ताके दूर करखेकौं पच्चीस श्वासोच्छवास काल ताई कायोत्सर्ग करें। कहीं जिन वन्दनाकौं गये होय, तौ राह मैं
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प्रमादवशाय हिंसा भई ताके मेटवेकौं पच्चीस श्वासोच्छवास काल तांई कायोत्सर्ग करें। आपत गुण अधिक प्राचार्यादिक मुनीश्वरों की वन्दनाकौं गये होंय अरु गमन करते दोष लागा ताके मेटवेकौं कायोत्सर्ग करें। ताका काल पच्चीस श्वासोच्छ्वास जानना। यति कोई स्थान तजि कोई और ही स्थान जाय तिष्ठे। तो पच्चीस श्वासोच्छवास काल ताई कायोत्सर्ग करें। तनका मल क्षेपवे जांघ, तब आय के कायोत्सर्ग करें। मूत्र क्षे तब कायोत्सर्ग करें। नाक का, मुख का श्लेष्मा क्षेप तब कायोत्सर्ग करें। सो पच्चीस-पच्चीस श्वासोच्छवास काल तांई कायोत्सर्ग करें। ऐसे कहे जे ऊपरि अपने संथम के अतीचार के स्थान तिनके मेटवेको यथायोग्य काल ताई कायोत्सर्ग करि शुद्ध होय, सो गुरु वन्दवे योग्य हैं। कैसे हैं गुरु संसार दशा तैं उदास हैं। तनतें निष्पृह हैं पंचन्द्रिय भोगनते विमुख हैं। आत्मिक रस कर रांचे. धर्म मति, जगत वल्लम, जगत् पूज्य पाप-कर्म ते भयभीत दयानिधान मुनि अपने दोष मेटवेकौं रोसे कायोत्सर्ग करि शुद्ध हो हैं। ऐसे कहे भेद सहित यतीश्वर अनेक गुण सागर पूजवे योग्य हैं। ये ही गुरु उपादेय हैं। पहले कहे कुशुरुन के लक्षण तिन सहित होंय ते कुगुरु हेय हैं । जे गुरु होय शिष्य ते छल करि शिष्य का धन हरै वाकौ अपने पांवन नमाथ मान करै सो कपटी गुरु पाषाण की नाव समान शिष्य के परभव सुधरवै-बिगड़वे का जाकै सोच नाही सो गुरु लोभी आप संसार-सागर डूबँ।
और शिष्यनको डोवें। ऐसे गुरु विवेकीन करि तजिवे योग्य हैं। इति गुरु परीक्षा मैं हेय-उपादेय कही। | इति श्रीसुदृष्टितरंगिणी नाम अन्य मध्ये गुरु परीक्षाम आचार्यादि दवा भेद मुनि अरु मुनि योग्य समाचार दश आचारसारजो
ग्रन्थानुसार कायोत्सर्ग करने के स्थान तथा कायोत्सर्ग का काल वर्णनो नाम दशमोऽध्यायः समामः ॥ १०॥ आगे धर्म विर्षे हेय-उपादेय कहिये है। तहां प्रथम ही कुधर्म के लक्षण कहिये हैंगाया -फेवलणाणय रहियो कल्याण जीव परघादो। माण जांण धण हर्यो एवं कुधम्मभासियो देवं ॥ ३२॥
अर्थ-जो धर्म केवलज्ञान रहित होय, दया-भाव रहित होय, पर जीव का घातक होय, मान-ज्ञान-धन का हरणेवाला होय, ऐसा होय, सो कुधर्म है। रोसा जिनदेव ने कहा है। भावार्थ----जो केवलज्ञानी के वचन रहित होय, होन ज्ञानी के वचन करि प्ररुप्या होय, दया-भाव रहित हिंसा करवे का जामैं उपदेश होघ । जीव हिंसामैं बड़ा पुण्य बन्ध बताया होय। पराये मान हरवे का छल-बल करि पर अपने पांव नमाव का कथन होय, सो
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कुशास्त्र है तथा जिनको सुनि, भोले जीव बान बढ़ावे की इच्छा तजे, सो ये परारा ज्ञान हरनहार कु-शास्त्र कहिये पराया धन पापमैं लागै रोसा उपदेशदाता शास्त्र सो कु-शास्त्र है। भोले जीवनकौं बहकाय पाप पंथ लगाय नरक मन्दिर का हिंसा द्वार तामैं घालि नरक मन्दिर पहुँचावै, सो कु-धर्म है और जा विर्षे अनेक मायाचार सहित पाखण्डिन करि भोले जीवनके ठगने का कथन होय, सो कु-धर्म है। जामें अनेक विषय कषाय पोषने का कथन होय, सो कु-धर्म है । जिनका उपदेश सुनै स्त्रीन के भोग की इच्छा होय, धन बढ़ावे की इच्छा होय, राज की इच्छा होय, तिनको सुनि युद्ध की इच्छा होय, सो कु-शास्त्र हैं और अपनी महन्तता प्रगट करवे के निमित्त कोई व्यन्तरादिक देवन का सहाय पाय बनाए होय, सो कु-शास्त्र हैं और जहां बनेक अभक्ष्य वस्तु का भोजन काह्या होय तथा जामैं आचार जो मली क्रिया ताका निषेध करि हर कछु का भोजन बताथा होय रोसा अनाचार सहित होय, सो कु-शास्त्र है। जहां मद्य-मांस-भक्षण मैं पाप नहीं कह्या होय, सो कु-शास्त्र है और जिनमें तीर, गोलो, बन्दूक, पिंजरा, फन्दा, फांसी, धनुष, वाण, तोप की नालि, रामचंगी. दारू, रंजक, छुरी, कटारी, बरछी, गुप्ती इत्यादि हिंसा के कारण रा सर्व शस्त्र तिनके बनायवे की कलाचतुराई कही होय, सो कु-शास्त्र हैं। नाना प्रकार चित्राम-कला, शिल्प-कला इत्यादिक चतुराई जहां कही होय, सो कु-शास्त्र हैं और जहां कु-दान जो स्त्री का दान, रति-दान, दासी-दान, दास-दान-ए विषयी जीवन के प्रतापे, पर-स्त्रीन के भौगन की इच्छावाले पण्डित, तिनके कहे है। जिनमैं ऐसा कथन चले, सो का-शास्त्र हैं। जिनमैं कु-तप हिंसाकारी, कु-तीर्थन की महन्तता का कथन हो, सो कु-शास्त्र हैं । जिनमैं विषय पोषने के कारण राग-रङ्ग, नृत्य-गान बजावने की कला प्ररुपी होय, सो कु-शास्त्र हैं। जहाँ मन्त्र, जन्त्र, | तन्त्र, ठान, टोना इत्यादिक पर के वशीकरणादि का कथन होय, सो कु-शास्त्र हैं। जिनके सुनैं हिंसा, मोह, क्रोध, मान, लोभ बढै, सो कु-शास्त्र हैं। जिनके सुनें काम की उत्पत्ति होय, जिनमैं चार कलाका व्याख्यान होय, कन्दमल सहित भोजन, रताल, पिण्डाल, जमीकन्द, गूलर, बड़फल, पीपरफल इत्यादिकन का भक्षण 'कर पाप नहीं कह्या होय, सो कु-शास्त्र हैं। जिनमैं भत-प्रेतादि, व्यन्तर-देव तथा अपनी मति कल्पना करि | माने येसे शीतलादिक देवन का चमत्कार, जिनकी पूजा करवे की विधि, तिनके प्रसन्न होने की विधि
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अरु प्रसन्न भये प्रगट होय पुत्रादिक की प्राप्ति यह फल, इत्यादिक जहाँ कथन-उपदेश होय, सो कु-शास्त्र है । अनेक शास्त्र जो परमार्थ कथा रहित, पाप-बन्ध के करनेहारे, हीन ज्ञानी कु-कविन के प्ररूपै स्वेच्छा करि रचे जो रसिक प्रिय सुन्दर श्रङ्गारादि विषयों कर पूर्ण हैं, कु-शास्त्र हैं। क्योंकि ये मोक्ष-मार्ग रहित संसार दशा के बढ़ावनहारे ही हैं। देश जानना ' ने पोसा है। इन ही शरमन की आज्ञा प्रमाण जीव का श्रद्धान सो ही कु-धर्म है। इनका फल अनिष्ट जानि सम्यग्दृष्टिन की दृष्टि मैं सहज ही हेय भार है। इति कु-धर्म कथन । आगे स-धर्म का कथन संक्षेप कहिए है। __गाया-अपरा पर अविरुद्धो णवणय भंगाय सत्तस्याज्जुत्तो। पण पमाण असण्डो सधम्मो जिण भासयो सुदं ॥ ३३ ॥
अर्थ-अपरापर जो आगे-पीछे अन्त साई शुद्ध कथन होय । नव नय, सप्तमङ्ग "स्यात" पद सहित होय पचे प्रमाण करि अखण्डित होय, सो धर्म जिन भाषित शद्ध धर्म है। भावार्थ भगवान की वाणी में जो वस्तु निषेध करी ताका ग्रहण कोई भी जिन-शास्त्र में नाहीं। जैसे-कोई शास्त्रन मैं प्रथम हो सप्त व्यसन का निषेध किया ताका ग्रहण आदितै अन्त ताई कहूँ नाही तथा और क्रोधादि कषाय पाप के अर्थ अभक्ष्यादि अनाचार हिंसादिक पापन का निषेध किया तिनका ग्रहण कोई भी शास्त्रन मैं नाहीं। ताका नाम-आदिअन्त अविरुद्ध कहिये और जो जिस वस्तुकं कहीं तौ निषेधी कहीं ग्रहण करी । सो कथन विरुद्ध रूप है। तातें सत्य-धर्म आदि अन्त शुद्ध है और नव नय के नाम नैगम संग्रह व्यवहार असून शब्द समभिरुढ़ एवं भूत द्रव्यार्थिक और पर्यायाधिक इनका सामान्य अर्थ-जिस वस्तु का प्रारम्भ किए ही ताकौं भई कहिये । सो नैगमनय है । जैसे-कोई पुरुष घर तजि अन्य देशकं गया। सो दस-बीस दिन गये पहुँचेगा। तुरन्त ही वाकै घर बारों को पूछिए जो फलाना कहां है ? तब वह घरबारे कहैं, फलाना देश गया। सो तुरन्त तौ अपने नगर मैं ते ही निकसा नहीं है। परदेश गया काहे के कहे हैं। परन्तु इनकी तरफ तें गया सबसे मिलि बिदा मामि गया तातै इनकी तरफ ते गया कहिए। यह नैगमनय हैं। ऐसे ही अनेक जगह लगाय लेना ।। एक वचन में बहुत का नाम ग्रहण होय, सो संग्रह-नय है । जैसे—काहूने कही वह बाग है । सो बागकछु वस्तु नाही, किसी वृक्ष का नाम बाग नाहों। जुदे-जुदे वृक्ष देखिये, तौ बाग कडू वस्तु नाहीं। परन्तु बहुत वृक्षन का
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समूह होय, सो बाग कहिये। याका नाम संग्रह -नय है तथा बहुत मनुष्य के समूहको यात्रा कहिये तथा हाट कहिये तथा गुदरी कहिये तथा बारात कहिये। ए सर्व यथायोग्य कारण पाय संग्रह नय के शब्द हैं । २ । जातें लौकिक सधैं, सो व्यवहार नय है। जैसे- हुण्डी विषै लाख रुपये सौ योजन दूर क्षेत्र वै दिशावर, तहां कूं लिख दिए । वह सा कागज का दिया । सो वाने परतीत करो, रुपये दिए, हुण्डी लाई । पीछे दूसरी दिसावर ये हुण्डी के लाखों रुपये पावना, सो व्यवहार नय है तथा ऐसा कहना जो यह हमारा पुत्र है. ए पिता है, ए माता है, ए स्त्री है, ए अरि (शः ) है रा मित्र है इत्यादिक ए सर्व वचन व्यवहार-नय करि प्रमाण हैं। निश्चय नय करि आत्मा काहू का पिता पुत्र नाहीं । संसार भ्रमण करते ऐसे अनन्ते नाते भरा | परन्तु लौकिक-नय करि सत्य भी हैं। तातें यह व्यवहार नय है । ३ । और " तक्काले तम्मं ये परगती" याका अर्थजिस काल में द्रव्यं जैसा है, तैसा ही कहिए। जैसे- कोई कच्चा आम है ताक तब खट्टा हो कहिए। तिस ही
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कपाल मैं दे पाय लाल-पीत करिए तब हो उस आमको मिष्ट कहिए । जब कच्चा था, तब खट्टा 'था अरु अब पका, तब मिष्ट ही है तथा कोई पुरुष काहू तैं युद्ध करें है तब ताकूं क्रोधो कहिए। जिस समय वही जीव पूजा -दान करता होय तब धर्मो कहिए। जिस समय जैसा होय तैसा हो कहिए, सो ऋजुसूत्र नय है । ४ । और शुद्ध शब्द का मानना, सो शब्द- नय है। जैसे काहू ने कही राजा । तब शब्द-नय बारा कहै। राजा कहना अशुद्ध शब्द है । तातें ऐसा कहौ नरेन्द्र यह शुद्ध शब्द है । इत्यादिक शब्द के शुद्ध अशुद्ध भाव की अपेक्षा बोलिये, सो शब्द - नय है 1५। जिस वस्तु मैं गुण तो और अरु नाम और सो समभिरूद्-नय है। जैसे-चलतोकं गाड़ी कहिए तथा गाड़ी कं उखली कहिए तथा बलहीनकौं जौरावर नाम कहना तथा धन हीन को लक्ष्मीधर कहिए। ए सर्व वचन समभिरू नय हैं सत्य हैं । ६ । जा वस्तुकों जैसी की तैसी ही कहिए। जैसे— काहूक राज करते राजा कहिए. सो एवं भूत-नय है। ७१ और वस्तु का कबहूं अभाव नाहीं । जैसे—- जीव का कबहूं अभाव नाहीं। ऐसा कहना द्रव्यार्थिक नथ है। जैसे—कहिए जीव चेतना रूप अविनाशी है, अजर है, अमर है, शुद्ध है, अमूर्तिक है इत्यादिक कहिए सो निश्चय (द्रव्यार्थिक) नय है तथा ऐसे कहिये जो एक ही जीव व्यारि गति में भ्रमण करे है, यह निश्चय नय है । ऐसा कहिये जो यह देव जीव, ये मनुष्य जीव, ये पशु जीव,
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ये नारकी जीव इत्यादिक कहना, सो पर्यायाथिक-नय हैं तथा ऐसे काहिरा जो ये जीव अनन्तकाल का जन्ममररा करे है। रा सर्व पर्यायार्थिक-नय हैं। इनका सामान्य भाव कह्या। विशेष नव ही नयन का नय चक्र आदि ग्रन्थन तें जानना। इनही नव नयन करि अनेक वस्तुन का स्वभाव साधिये है। आगे कहिये है सप्तमङ्ग सो भी इनही नय करि सिद्ध होय हैं। तिनके नाम-स्थात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् । अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्य- समभङ्ग हैं। अब इनका अर्थ एक ही वस्तु पै नय प्रमाण सप्तम साधिरा है । जैसे—कोई नथ कही हमारा तन स्वद्रव्य, क्षेत्र काल, भाव स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति है। तब जैनी ने कह्या स्यात् कोई नय करि।। तब काह ने रतन अशी पारी और की किरतना पर-ट्रक मायनास्ति और मेरो अशर्को अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव ।। करि स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति है। तब जैनीनै कह्या स्यात् कोई नय करि । २अपने चतुष्टय की अपेक्षा रतन अस्ति है। पर अशर्फी के चतुश्य को अपेक्षा रतन नास्ति है। अरु अशर्फी के चतुष्टय की अपेक्षा अशर्फी अस्ति है। रतन के चतुष्टय को अपेक्षा अशर्फी नास्ति है। रोसे एक बार हो एक वस्तुमैं अस्ति नास्तिपना दोऊ सधै है। तातें अस्ति नास्ति। तब जैनी ने कह्या स्यात् कोई नय करि। ३। जो रतन कं अस्ति कहिये, तौ अशर्फी अपने चतुष्टयकों लिए है। सो ताकौं नास्ति कैसे कहिए ? अरु रतनक नास्ति करि अशफो अस्ति कहिए तौ रतन अपने चतुष्टय ते अस्ति है ताकौ नास्ति कैसे कहिए ? अरु एक ही बार अस्तिनास्ति कही जाती नहीं। तातै अवक्तव्य कहैं । तब जैनो नै कह्या स्यात् कोई नय करि। 81 अरु हे भाई! रतन नौ अस्ति है अपने चतुष्टय करि और रतन के चतुष्टय करि अशर्फी नास्ति भी है। परन्तु कही नाहीं जाय ! क्योंकि अपने चतुष्टय तें जशर्फी अस्ति है तातें स्यात् अस्ति वक्तव्य है। ५१ असो के चतुष्टय करि रतन नास्ति है। परन्तु कह्या नहीं जाय क्योंकि रतन प्रत्यक्ष है। तातै स्यात् नास्ति वक्तव्य कहैं । ६ । रतन अपने चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति है । अरु पर चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति है । परन्तु दोऊ एक ही बार कहे जाते नाहीं। अरु अशर्फी अपने चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति अरु पर के चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति है, यस्तु कहा नहीं जाय। तातै स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्य कहैं।७।ऐसे सप्तमग अनेक पदार्थन पै द्रव्य क्षेत्र काल भाव करि साधिये। ऐसे सप्तमगन
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सहित जिनवाणी मैं कथन है। बहुरि कैसा है जिन-धर्म जो पञ्च प्रमाणन करि खण्ड्या नाहीं जाय हैं। सो पश्च प्रमाण कौन से ? सो कहिए हैं। लौकिक प्रमाण, परम्पराय प्रमाण, अनुमान प्रमाण, शास्त्र - प्रमाण और प्रत्यक्ष प्रमाण - ये पश्च प्रमाण हैं। सी इन करि जो धर्म खण्ड्या जाय सो धर्म झूठा है। इन पांच प्रमाण का सामान्य भेद करि निर्धार करिए है । जो वस्तु लौकिक विषै निषेधी होय सर्व करि निन्दवे योग्य होय जाके किये राजपथ का दिया दण्ड पावें ऐसी क्रिया जाके देव-गुरु करते होंथ, सो ताके देव-गुरु झूठे हैं। तिनके करवे का जिनके शास्त्रन मैं कथन होय, तिनका धर्म झूठा अयोग्य है। तजिवे योग्य है। सो ही कहिये है। जैसेलौकिक मैं सप्त-व्यसन निन्द्य हैं। सो जिनके देव- गुरु द्यूत-व्यसन रमते होंय, सो हीन हैं। लौकिक मैं द्यूत मैं ताकूं लुच्चा कहैं हैं । तिस जुवारी की कोई प्रतीत नहीं करें। ऐसा जुवा जाके देव-गुरु रमते होंय, सो धर्म जियोग्य है पर जीवन का मास काहीवर कोई बता नाहीं अरु कदाचित् छोवै हो तौ महाग्लानि उपजे I जब स्नान करें सर्व वस्त्र उतारै तब शुद्ध होवे । जाके देखें ही घृणा आवै दीखते महाअशुभ महादुर्गन्ध जाकौं स्वनादिक ( कुत्ते आदिक) भी नहीं ग्रह ऐसा अशुचि का समूह आमिष है। ऐसे मांसक जाके देव गुरु खावते होय जिनके शास्त्रन मैं मनुष्यनकूं मांस का भोजन लेने योग्य कह्या होय । सो धर्म पापाचारी तजवे योग्य है। यह धर्म लौकिक के निषेधवे योग्य है और मदिरा के पीये बुद्धि नष्ट होय। माता, पुत्री, स्त्री, भगिनी इत्यादिक भेद ताक नहीं भाय सर्व एक-सी जाने पग-पग पै मूर्छा खाथ पड़े है। लोकन मैं हाँ सि होय अनेक लोक ताकी अज्ञान चेष्टा देखि कौतुक देखवेको इकट्ठे होंय ताकी सर्वजन निन्दा करें। ऐसी मदिरा जगत्-निन्द्य ताक जाके शास्त्र मैं लेने योग्य कहो होय ऐसी मदिरा जाके देव-गुरु-भक्त लेते होंय, सो धर्म निन्द्य होन | तजिव योग्य है। ये भी लौकिक के निन्दवे योग्य है जिस वेश्या का तन सदैव सूतवत् है । जाकी जाति-कुल की खबर नांहीं। सर्व ऊँच-नीच कुल के मनुष्यन की भौगनहारी। निर्लज्जता की हद्द जाके घर मार्ग को राह विवेकी भूल हू नहीं जाय । ऐसी कुशील मन्दिर या वेश्या जाके घर गमन किए लोक निन्दा पावै । पञ्च सुनै तौ पोति तैं निकास। ऐसी वैश्या- कंचनी का सेवन जाके देव-गुरु-भक्त करते होय, सो धर्म भी असत्य पापमयी, झूठा है। यह भी लौकिक तैं निन्द्य है। कोई जीव काहू जीव का घात करें, तौ लोक कहैं, याने पंचेन्द्रिय मनुष्य या पशु
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जीव मारचा, सबनै देख्या। सो यह महापापी है। हत्यारा है। तब पञ्च ती याकी जीव-हत्या लागी जानि, न्यातित निषेधै और राजा याकौं पापो जानि, बिना प्रयोजन दीन-पशु का घाती देख, घर लटि ले, ताका हाथ, || १७४ नांक छ । ऐसा प्रत्यक्ष लौकिक मैं जीव घात करना जाके शास्त्र में पुण्य कहा होय और जाके देव-गुरु-मक्त जीव घात मैं मगन होय, जीव घात करते होय। सो धर्म, दया रहित, जीव घातक, तजिवे योग्य है। ये भी धर्म
लौकिक ते निन्ध है। क्यों, जो लौकिक है तौ दया करि जीवन की रक्षाकौं सदावत देय हैं। पशनकों घास मिप्यालेन झुगल दे हैं: ए को वस्त्र देय है। रोगीको भेषज देय है। इत्यादिक जैसे-तैसे जीवन
की रक्षा करे है । जाके धर्म मैं जीव घात मैं पुण्य कहा होय, जोवन की हिंसा कही होय, सो धर्म दया रहित, असत्य है। यह धर्म भी लौकिक करि खण्ड्या जाय है। जे पराथा चेतन-अचेतन परिग्रह, छल-बलि करि हरै, ताकौ चोर कहिए। सो जीव राज, पञ्च करि दण्डवे योग्य है। लोक निन्ध है। सो रोसी चोरी जाके देव-गुरु करते होय। अपने भक्तको छलत फुसलाय वाका धन ठगे, पराई स्त्री, पुत्री शुभ देख, ले जाय, सो चौर। ऐसे कथन जाके धर्म मैं होय । जाके देव-गुरु ने पराया धन, स्त्री, पुत्री हरना कहा होय, सो धर्म असत्य है। यह मी चोर-धर्म लौकिक ते निन्ध है तातें हेय है। पर-स्त्री के सेवन के योग्य ते पञ्च तौ जाति से निकास हैं। इस कुशीली पुरुष का राजा घर लूटे है अङ्ग उपाङ्ग छदें है, मारे है ! सररौपणादि (गधे पर सवारो) अपमानादिक अनेक दुख देय है। ऐसी प्रवार लौकिक विष प्रत्यक्ष देखे हैं। अरु जाके धर्म मैं पर-स्त्री का सेवन, जो परस्त्री जाका भरतार जीवता होय तथा भार रहित विधवा होय तया बिना ब्याही कुमारी होय तथा दासी होय इत्यादिक पर-स्त्री हैं। तिनके सेवन का दोष, जिनके धर्म विर्षे नहीं कहा होय । जाके देव-गुरु पर-स्त्री हर ले जाय तथा उनके सेवन करते दोष नहीं कह्या होय। जाके देव-गुरु पर-स्त्रीनतें हाँ सि-कौतुक करते होय, पर-स्त्री सेवते होय, सो धर्म मी कामी देव-गुरुन का उपदेश्या असत्य है । यह भी लौकिक करि खण्डिये है। कुशील है सो तौ महापाप, लोक मैं प्रगट कहा। अरु शील है सो उतम-धर्म है। तातें यह भी धर्म, लोकापवाद सहित तजिवे योग्य है। ऐसे सात व्यसन लौकिक मैं दण्डवे योग्य कहे हैं सो ऐसे व्यसनों का प्रवेश जाके धर्म मैं पाईए, जो धर्म लौकिक-नय प्रमाण ते स्वराड्या जाय, सो असत्य है। जो क्रोधी होय, ताको
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लोक कहैं यह महा क्रोधी है। पापी, बात कहै हो लई है। मारै है। याका सहज-स्वभाव सर्प समान है। जो कोई मानी होय, ताकी लोक कहैं यह बडा मानी है, सो कहों मारचा जावेगा, बहुत-मान योग्य नाहीं। मायावीकों लोक कहैं, यह बड़ा दगाबाज है। याके चित्त को कोई नहीं जाने। यह महापापी है। कोई ।। १७१ लोभी होय, तो ताकौं लोक कहैं, यह बड़ा लोभी है। याकै चित्त पास बड़ा धन है। यह वा धन क नहीं खाय है। नहीं काहकों खवावे है। नहीं धर्म मैं लगावै है और भी धन जोड़वे का उपाय करें है। ऐसे यह क्रोध-मान-माया-लोभ सहित जीव होय, जो पर कू मारने कूशस्त्र धारते होय रोसो कषाय जाके धर्म मैं करनी कही होय, जाके देव-गुरु-भक्त महाकषायो होय, सो भयानीक-धर्म तजवे योग्य है । तात धर्म कषाय रहित है 1 लौकिक विर्षे बड़ा परिग्रह-प्रारम्भ होय, ताकू बड़ा गृहस्थ कहिए 1 पुत्र-स्त्री आदि कुटुम्ब होय, काहत स्नेह, काइते देष करनहारा होय, रागी-द्वेषी होय, ते गृहस्थ हैं । सो जाके धर्म मैं परिग्रह-आरम्भकुटम्ब सहित, रागी-देषी देव-गुरु, कहे होंय । सो धर्म संसार विर्षे भ्रमण करावनहारा है। क्यों? देखो, लोक विष तो त्याग पूज्य है। अब भी जो घर कुंतजि, वन मैं रहैं । नगन रहैं तथा लंगोट मात्र होय, तिनकं बड़े-बड़े परिग्रह धारी राजादि, पूजते देखिए हैं। तातै परिग्रह सहित जे देव-गुरु हैं, सो लौकिक ते निषेधिये है। तातें धर्म सोही सत्य है जाके देव-गुरु, राग-द्वेष-परिग्रह रहित होय। इत्यादिक लौकिक प्रमाण तें जो धर्म स्वरड्या जाय, तो और प्रमाण ते तो स्वरडै ही खण्डै। ऐसे जे-जे दोष लौकिक निन्द्य हैं, तिन सहित कोई धर्म होय सो असत्य है। कोई लौकिक मैं भगवान की पूजा करें, दान देय, तप संयम करें, समता भाव सहित रहै, शोलवान होय, जाके क्रोध-मान माया-लोम दीर्घ नाहों होय इत्यादिक गुण हैं, तिनको सर्व लोक पूर्ज हैं। अच्छे जानि प्रशंसा करे हैं। कोई जीव प्रभु की पूजा स्तुति करें, तो ताकौं देखि लोक कहैं, यह धन्य है, भलाभक्त है। थाके सदेव प्रभु की भक्ति-पूजा-समरश हो रहै है। ऐसा जानि सर्व पूज। कोई धर्मात्मा कूदान देता देखें, ता लोक कहैं। यह धन्य है। महादयावान है। बहुत दीनन कं दान देय, तिनकी रक्षा कर है। कोई तपसी नाना उपवास सहित अनेक तप-संयम करता होय, तौ लोक याको अवस्था देखि, हर्ष पाय कहैं। यह तपसी महासंघमी है, पूज्य है। सर्व याको ऊँच जानि पूर्जे। कोई समताभावी क, दुष्ट
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जीव दुर्वचन कहै, मारे, बन्धन देय । अरु वह तपसी काहु कं कछू नहीं कहै । कोई ते द्वेष नहीं करै, समता माव !" राखे, तो उस तपसी कं लोक कहैं, यह धन्य है। बड़े धीर समता परिणामी हैं। ऐसा जानि सकल लोक पूजे हैं। कोई मान नहीं करै, तो लोक कहैं यह बड़ा मनुष्य है। याक मान नाहीं। कोई दगाबाज नाही होय तौ लोक कहैं, यह बड़ा शुद्ध जोव, सरल परिणामी है। याके कुटिलताई नाहों, यह धन्य है। रोसा जानि स्तुति करें, याकौं पूर्जे। कोई परिग्रह पुन, स्त्री, घर, धन तजि वन में रहै तौ लोक कहैं यह धन्य है। सर्व घर-धनभोग तजि समता परि योग धरचा है। ऐसा जानि सर्व लोक पूजै और कोई नगन रहता होय । मिले तो खाय नहां भूखा रहै। काहू पै जांच नाहीं। तौ लोक याकी पूजा करें। ऐसे कहे लौकिक करि पूजने योग्य जे जगत् गुण सो जिस धर्म मैं इन गुणन का कथन होय सो धर्म पूजने योग्य सत्य धर्म है। ऐसे तो लौकिक प्रमाण करि धर्म की परीक्षा करिये। सो यह जिन-धर्म लौकिक करि पृज्य है। ऊपर कहे जे गुण यह तिन सहित है। ताते लौकिक प्रमाण करि खरड्या नहीं जाय है। ऐसे लौकिक प्रमाण करि अखण्ड जिन-धर्म जानना। इति लौकिक प्रमाण । ।
आगे परम्पराय कहिये है। बहुरि परम्पराय ताकौं कहिए। जो वस्तु आगे तें होती आई होय। अरु काल-दोष ते वर्तमान काल कबहूँ नहीं होय, तो परम्पराध त जानि लेनो। जैसे-अपने पितामह (पिता के पितादिक) कुल विर्षे आगे बड़े थे अवार वर्तमान काल मैं नाही सर्व परलोक गए। परन्तु तिनको बड़ाई धन की प्रचूरता हुक्म शुम क्रियादि और के मुख से सुनि जानिए है जो हमारे बड़े ऐसे थे। तिनकी ऐसी धर्म-कर्म रूप व्यवहार-चलन क्रिया थी। ऐसी प्रतीति भई तथा कागज-पत्रन ते देखिये जो अपने बड़ों के लाखों रुपये औरन से लैने हैं और लाखों ही बडौं के शिर के देने हैं। सो सर्व रोजनामचा-खातात तें जानिये। परम्पराय प्रमाण करिके हो लेनेवालों तें लीजिये हैं और देनेवालोंकों दीजिए है। सो आप तौ लेने-देने ते वाकिफ-हाल नाहीं। परन्तु रोजनामचा-खातान तै खत-पत्रन ते देना-लेना सत्य होय है। सो यह परम्पराय प्रमाण है। तैसे हो तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, प्रतिनारायण, कामदेव, नारद, रुद्र, मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, अर्धमण्डलेश्वर इत्यादि पदस्थधारी पुरुष मागे भये थे। अब काल-दोष तें इन पदस्थधारी नाही; परन्तु
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तिनके नाम लौकिक मैं सुनिए हैं। सौ तिन पदवीधारीन पुरुषन के कुल तिनके माता-पितान की परिपाटी
आदिक कथा तथा तिनको उत्पत्ति नाम राज्य-सम्पदा भोग सुख पुरुषार्थ शूरपणा पराक्रम सैन्य दल इत्यादिक वार्ता है, सो परम्पराय प्रमाण है। सो ऐसा परम्पराय शास्त्रन ते जानिए अरु लौकिक ते जानिए है ऐसा ही श्रद्धान करिय है। सो जिनके धर्म-शास्त्रन मैं रोसे पुरुषन को उत्पत्ति कुल राज्य-सम्पदा भोग सुख वैराग्य भरा दीक्षा ग्रहण मुनिपद का पालना मुनि-प्रायकन का आचार प्रवृत्ति इत्यादिक कथन जहाँ पाइए, सो धर्म सत्य है। सो ऐसे परम्पराय करि मिलता होय सो धर्म सत्य है और नग्न गुरु जिनका निर्दोष भोजन आरम्भ रहित वीतराग अनेक गुण सम्पदा सहित देव-इन्द्रन करि वन्दनीक मुनीश्वर आगे थे अब कालदोष ते नाही, परन्तु शास्त्रनत सुनिये हैं कि ऐसे गुरु होंघ सो आगे थे तोरसे गुरनका कथन मैं होय परम्पराय प्रमाण है तथा नवनिधि चौदह रतन कल्पवृक्ष पारस चिन्तामणि, ए उत्तम वस्तु हैं। सो इनका नाम तो सुनिय है और अवार काल-दोष ते दीखता नाहीं। आगे थे सो तिनके नाम गुरा आकार और ए कौन-कौन के होंय सो ऐसा कथन जिस धर्म विषै होय सो धर्म परम्पराय प्रमाण करि शुद्ध सत्य है । या नय तें भी अखण्ड है। ऐसा जिन-धर्म अखण्ड जानना। इति परम्पराय प्रमाण । २। आगे अनुमान प्रमाण कहिये है। बहुरि अनुमान ताकौं कहिए जो अपनी बुद्धि के प्रभाव करि वस्तुको यथावत् विचारकै श्रद्धान कीजिये। जैसे-- लौकिक में तथा परम्पराय धर्म दया सहित कहें हैं। अरु कोई अल्पज्ञानी बैटक (शिकारी) व्यसन रञ्जित धर्म हिंसा मैं बतावै तौ विवेकी अनुमान से ऐसा विचारै। जो हिंसा मैं धर्म होय, तौ दीन जीवनकौँ तो सब मारें। रङ्कन कूदान कोई भी नाहीं देय। जहाँ रङ्क जाय सो धर्म होनेक हर कोई ही मारे। सर्वणीव धर्म के लोभी परस्पर वह वाकौ मारै वह वाकौ। धर्म के वास्ते सर्व परस्पर युद्ध करि मरें। सो तौ अनुमान मैं तुलती नाही
और लौकिक मैं भी दीखती नाहीं और लोक मैं भी धर्म के निमित्त केई तो सदावर्त देते दीखें हैं। कई धर्म निमित्त प्यासे कं जल पिया है। केई दया करि शीत मैं दीननकं वस्त्र देय हैं। इत्यादिक तौ लौकिक में दोसैं हैं। सो ऐसा भास है कि धर्म दयामय ही है और हिंसा मैं धर्म सम्भवता नाहीं ऐसा विचार बुद्धि ही ते अनुमान करि धर्म का श्रद्धान दयामयी करे। इनको आदि अनेक नयन करि, वस्तुको अनुमान ते विचारना।
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सो अनुमान प्रमाण सत्य है। ऐसे जिस धर्म मैं अनुमान का कथन होय, सो सत्य-धर्म जानना। सो जिन-धर्म अनेक नय युक्ति और अनुमान का समुद्र है। सो यह अनुमान नय ते अखण्ड जानना । इति अनुमान प्रमाण ।३।
आगे शास्त्र प्रमाण कहिर हैं। केतक वस्तु पदार्थ ऐसे हैं, जो शास्त्रन प्रमाण कोजिय है। द्रव्य-पदार्थ | अपने श्रद्धानपूर्वक तथा प्रत्यक्षपूर्वक भासे हैं। सो तो निसन्देह हैं ही और केई पदार्थ ऐसे हैं। जिनकौं निर्धारि करने को बुद्धि, समर्थ नाहीं। तिन वस्तुन का निर्धार शास्त्रन ते करिए है। जैसे—लौकिक मैं किसी के लेने-देने मैं सन्देह होय तो सर्व कहैं तुम अपने कागज-रोजनामचा-खाते लावो। जो कागजन मैं निकसैं सो सत्य है। तैसे ही केतेक वस्तु मति-श्रुत-ज्ञानतें प्रत्यक्ष गोचर नाहीं। जैसे--स्वर्ग-नरक को कहा रचना है ? तीन लोक की रचना कैसे हैं? जीव, देव, मनुष्य, पशु, नारक मैं कैसे भ्रमैं ? सिद्ध पद कैसे होय ? इत्यादिक तथा मेरु पर्वत कुलाचल महान नदी असंख्यात द्वीप समुद्र इत्यादिक नाम तो सुनिए हैं, परन्तु प्रत्यक्ष नाहीं । सो शास्त्रन तें जानिए हैं सो जिन शास्त्रन मैं इन स्वर्ग नरक की रचना काय काय दुख-सुख का कथन होय तथा मेरु कुलाचलादि अगोचर वस्तुन का कथन जिस धर्म मैं होय, सो धर्म सत्य है। अनेक शास्त्रन में प्रमाण करि भी यह जिन-धर्म ही अखण्ड्या जानना । इति शास्त्र प्रमाण 18। आगे प्रत्यक्ष प्रमारा कहिए है। बहुरि जो वस्तु इन्द्रिय-गोचर तथा श्रद्धान-गोचर दृढ़ होय सन्देह रहित होय, सो प्रत्यक्ष कहिर है । जैसे—कोई पुरुष अपने गले विर्षे रतनन का हार परम उत्तम पहरे तिष्ठ है। ताकी शोभा देखि-देखि आनन्दित होय है। सो हार वा पुरुष के प्रत्यक्ष है। कोई आय तिस पुरुष के कहै, जो यह हार नाहीं है और ही कडू है, तो वह पुरुष कैसे मानै ? कहनेवाले कही मन्दज्ञानी जाने। वाक तो प्रत्यक्ष है। ताकै सुख कं भोग है। तैसे ही जीवकै सम्यग्दर्शनादिक गुणमयी रतनन का हार धरनेहारा भव्य कै आप पात्म-देखने जाननेवाला जो आत्मा सो प्रत्यक्ष है। इहां कोऊ प्रश्न करै। जो आत्मा तौ अमर्तिक है। सो समर्तिक द्रव्य अव्रत सम्यग्दृष्टिकै प्रत्यक्ष केसे होय ? ताका समाधान । जो प्रदेशन की अपेक्षा तौ आत्मा प्रत्यक्ष नाही, परन्तु गुरा अपेक्षा प्रत्यक्ष है। चेतन्य गुण सम्यग्दृष्टि के प्रत्यक्ष अनुभव मैं आवे है। तातै प्रत्यक्ष-सी प्रतीति कं लिये है। जैसे-तहखाने मैं तिष्ठता कोई पुरुष राग करै है। सो पुरुष तौ दृष्टि-गोचर नाहीं। परन्तु रागको सुनें तें ऐसी दृढ़ प्रतीत होय है, जो यह
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राग है, ताकों कोई पुरुष कर हैं या चेष्टा का करनेहारा आत्मा है, सो मैं ही प्रत्यक्ष होते कोई देव भी करें जो तूं
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सन्देह नाहीं । तैसे ही इस जड़ तन विषै देखने-जानने रूप क्रिया. अनेक हों। मैं ही देखूं जानूं हौं। सुख-दुख मैं ही वे हूँ और नाहीं। ऐसा नाहीं देखने कोई और हो है। तो सम्यग्दृष्टिनको वा देव को हो मिथ्या बुद्धि भारौं। परन्तु आप आत्मा है तामैं सन्देह नाहीं । ऐसी दृढ प्रतीत सहित प्रत्यक्ष भाव भास है। अब प्रत्यक्ष देखने-जाननेहारा आत्मा तो मैं हौं सो नाहीं, यह कैसे कह्या जाय ? जो सन्देह सहित होय तौ तामै 'हां' 'ना' भी कही जाय। निसन्देह विषै परोक्ष-सा सन्देह कैसे का जाय ? ऐसे दृढ़ जानि सम्यग्दृष्टिनकें आत्म स्वभाव को प्रत्यक्षता कही है। ऐसे अनेक वस्तु निसन्देह होय सौ प्रत्यक्ष प्रमारा कहिए है। ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण वस्तु का स्वरूप जिन-धर्म मैं बहुत है। तातें और के प्रत्यक्ष प्रमाण तें अखण्डित जिनधर्म, सत्य है । ऐसे लौकिक विषै धर्म दयामयी है और परम्पराय भी धर्म दयामयी, अनुमान मैं भो धर्म दयामयी और शास्त्र मैं भी धर्म दयामयी और प्रत्यक्ष भी धर्म दयामयी। ऐसे पञ्च प्रमाण जिन धर्म में मिलें हैं। तातै काहू के भी पञ्च प्रमाण करि अखण्डित, जिन-धर्म है, सो सत्य है। ऐसे अनेक नयन करि धर्म की परीक्षा करी सो जिन धर्म पूज्य है । इति प्रत्यक्ष प्रमाण । ५ ।
इति श्री सुदृष्टितरंगिणी नाम ग्रन्थ मध्ये शुद्ध धर्म परीक्षा, सप्तभंग नवनय, पंच प्रमाणादि कथन सुधर्म-कुधर्म में शेय-हैम-उपादेय वर्णनो नाम एकादश पर्व सम्पूर्णम् ॥ ११ ॥
आगे किस प्रकार को संगति करनी । सो तामैं ज्ञेय हैय उपादेय कहिए है
गाथा - सुहद्रुहदादि जहियो, सो उपादेयों संग हिंद करदो । हेय हेय विभावो, सुद्दिट्टी सो होय मादाय || ३४ ॥
अर्थ---जो दुखदायक जगत् निन्ध संग होय, सो तजिए और हितकारी संग होय सो उपादेय है। इस तरह योग्य-अयोग्य विचारि संग करै, सो आत्मा सम्यग्दृष्टि जानना । भावार्थ- सम्यग्दृष्टिन के ऐसा विचार सहज ही होय है विवेकी जो संगति करें, तामैं तीन भाव हो हैं। शुभाशुभ भाव संग का समुच्चय विचारना सी तो ज्ञेय संग है। ताही ज्ञेय कै दोय भेद हैं । एक तजन योग्य एक ग्रहण योग्य तहां ऐसा विचारै जी जिस संगति हैं आपको दोष लागे तथा अपयश होय, तथा आपकूं निन्दा आवती होय तथा पाप का बन्ध होता होय,
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सो संगति नहीं करनी तथा जिस संगतें अपना यश होय, लोकन मैं सत्कार होय, भली वस्तु का लाभ होय, शुभ-कर्म का बन्ध होय इत्यादिक सुबुद्धि प्रगटै, कुबुद्धि नाश होय, जो अपने भले की संगति होय, सो करें। पोछे ऐसा विचारै जो इतने तो कुसंग हैं-चोरी के करनहारे निशदिन चोरी की चतुराई की नाना कला करनहारे चोर तथा पराये द्रव्य हरवेकौं अनेक छल-छिद्रम करें, विचार, ते चोर हैं। अरु माया करि नाना प्रकार भेष धरि परकौं ठगैं, सो चोर हैं तथा पराये ठगवेकौं अनेक असत्य वचन भाखनेहारे, इत्यादिक लतरान सहित होंय, सो चोर हैं। तिनका संग हेय है। मोजे तति सूत्र रेशम वस्त्र की फांसी बनाय पर जीवन का घात करि पराया द्रव्य ह.सो फांसिया चोर है तथा स्त्री का स्वांग मांगता वैरागी जोगी व्यापारी अनेक भेष धरि परकू छलते मारि द्रव्य हरें, सो ठग जाति के चोर हैं। राह के मारनेहारे जे जबरदस्ती धन खोसें नहीं देय तौ माएँ। ऐसे निरास करनेहारे भोल, मीशा. मौढ़, मैर इत्यादिक ए चोर हैं। जैसे-लौकिक मैं चोर-चकार कहैं हैं जो पराये घर फोड़े छल-छिद्र करि पराया धन हरै। सो तो चोर कहिये। जै जबरीत पराया माल खोसें आपको जोरावर मान तुरङ्गन के असबारादि तिनतं दोन जन डरें। बहुत धन के धरनहारे गिरासियादिक ए चकार है। ऐसे चोर अरु चकार ए चोर के दोय भेद हैं। इनकौ आदि और भी लकड़ी, घास, भाजी के चोर अरु इन चोरन के मित्र तथा चोरन की विनय करनहारे, चौरन के पास बैठनहारे ए सब चोर समान जानि विवेकी पुरुष इनका संग तजें हैं और द्यूतकार जो चौपरि, गंजफा, नरद, मुठि, होड़ादिक । जुवा के खेलने मैं प्रवीण द्युत व्यसन के प्रसिद्ध व्यसनी तिनकू सब जानैं जो ए प्रसिद्ध जुवारी हैं। ऐसे चूतन का कुसंग तजना योग्य है। जे अभक्ष्य के भस्खनेहारे मलिन प्राणी मांसाहारी अशुचि के भोगी तिनका संग तजने योग्य है। जे मद्यपायो मदोन्मत्त स्वफ्त दिवाने समान बेसुधि जिनके वचनन की प्रतीति नांहों ऐसे मद्यपी जीवन का संग तजिवे योग्य है और वेश्या व्यसनी निर्लज्ज विनय रहित वेश्यान के संगम के तथा गाने के नृत्य के लोभी कौतकी तिनका संग तजवे योग्य हैं और जे महाहिंसक जीवन के घाती महापापी, निर्दयी, भील, चण्डाल, मोघिया, कसाई, खटीक-इन आदिक जे करुणा रहित नाशकारी ज्ञान अन्ध दुराचारी इन आदिक हिंसक जीवन का संग तजवे योग्य है और जे पर-स्त्रीन का रूप देखि भोग अभिलाषी कुशील के
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प्यारे दुर्बुद्धि तिनका संग तजवे योग्य है। ऐसे कहे ये सप्त व्यसनी जीव पापी, पाखण्डी, तीव्र, क्रोधी, मानो, मायावी, लोभी, हाँसि, कौतुक-मद, मत्सर के धारी, तिनका संग तजवे योग्य है। इत्यादिक कहे कुसंगन का ॥१ त्याग, सो सम्यग्ज्ञान सत्य है । इति हेय संग। आगे उपादेय संग एते संग सुखकारी हैं। तीर्थङ्कर केवली मुनीश्वर व्रती श्रावक सम्यग्दृष्टि शान्त स्वभावी दानी, तपसी, जपी, संयमो, धर्म-ध्यानी, धर्म-चरचा, करनेहारे ऊँचकुली, दयावान, विद्यावन्त इत्यादिक गुणवान पुरुषन को संगति पूज्य है। ये पुरुष प्रगटपने जगत् में पूज्य पदधारी हैं। इनका यश सब लोग कहैं हैं । ये शुभाचारी हैं। ऐसे ऊँच पुरुषन का संग करना उपादेय है। ऐसे सम्यग्दृष्टिन की बुद्धि सहज हो शुभ संग चाहती व अशुभ संगत उदासीन होय है। इति संगति में हेय, शेय, उपादेय, अधिकार । आगे विचार मैं हेय-ज्ञेय-उपादेय कहिये हैं। गाथा-गुहारो हेस, गोमग तिने मन मुहाबो, गेहेआदेय हेयणे माए ॥ ३५ ॥
अर्थ-तहां सम्यग्दृष्टि जो विचार करे सो सहज ही झेय-हेय-उपादेय करि तीन प्रकार होय जाय है। तहाँ भले-बुरे विचार का समुच्चय विचार करना, सो तौ ज्ञेय है। ताही के भेद दोय हैं। एक विचार तौ हेय हैं एक उपादेय हैं। सो प्रथम हेय जो त्याग योग्य सर्व विचार ताका स्वरूप कहिये है । विचार नाम ध्यान का है। सो अशुभ-ध्यान के दोय भेद हैं। एक मार्त विचार है. एक रौद्र विचार है। जहां पर-वस्तु की चाहि, सो आर्त है। जहां पर-जीवन का बुरा चिन्तना, सो रौद्र विचार है। सो आर्त के चार भेद हैं। एक तो भली वस्तु का वियोग होय तब रोसा विचार उपजे जो ये भली वस्तु थी। मोकू इष्ट थो। याके निमित्त पाय मोकौं विशेष सुम्स था। अब मेरा सुख गया। ऐसे पुत्र, भाई. मात, तात, धन, हस्ति, घोटिक, राज, मित्र, शरीरादिक का वियोग होते मोह के वशी होय शोक करै। सो इष्ट वियोग सूप विचार है। यह विचार विवेकौन कौं त्यागने योग्य है। याका नाम इष्ट वियोगज आर्त-ध्यान कह्या है। दूसरा मेद अनिष्ट संयोगज आर्त-ध्यान है। ऐसे विचार जहां आपकं नाहों चाहिये, ऐसे जो खोटे निमित्त का मिलाप होना 1 गैसे खोटे मिलाप त ऐसा विचार होय, जो मौकों मिल्या, सो मोहि खेदकारी है। मैं याकौं नहीं चाहै था! या निमित्त ते मोकों अरति उपजे है। ऐसे बैरी तथा जाका बहुत धन देना होय तथा राह जातै चोर नाहर इत्यादिक का मिलाप होते, इनके भय दूर करखे का
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निमित्त पाय, परिसति खेद रूप होय विचार करना, सो अनिष्ट संयोगज आर्त-विचार है । और तीसरा आर्त| विचार ताको कहिय। जो अपने तन मैं पाप-कर्म उदय होते भरा जो नाना रोगन की उत्पत्ति. तिनकै तीव्र दक्ष
देख ऐसी अरति कर लो रोप तोता है, कौट जय तें जाय तथा का जायगा? ताके मेटवेक अनेक सोच, चिन्ता, मन्त्र, जन्त्र, तन्त्र, औषधादि करना तथा अन्यक तोव रोग देख के जाप डस्ना, जो ऐसा रोग मोको नहीं होय तो भला है। ऐसे रोग पीड़ा का निमित्त पाय बारम्बार विचार करता. सो पीड़ा चिन्तन आर्त-ध्यान है।३। चौथा विचार जो कोई धर्म-क्रम का कार्य करते पहले ऐसा विचार करें जो मोकू याका ऐसा फल होहु । याका नाम निदान बन्धा आर्त-विचार है।४। आगे र आर्त प्रगट होनेक चिह्न कहिर है। प्रथम तौ अन्तरङ्ग चिह जो अन्तरङ्ग में परिग्रह की तीव्र वांछा होय, जो मैं बहुत धन कैसे पाऊँ।२। कुशील की इच्छा को मौकी स्त्री का निमित्त कब मिलेगा। ऐसी चिन्ता होय । २ । माया कुटिलताई रूप परिणति, अपने चित्त के छल कुटिलता औरन को न जनावना, सो आर्त का लक्षण है। ३। अन्तरज-कौ दाह ऐसी रहै जो कोई कौं साता नहीं चाह और कौं सुखी देखि आप वाके दुखी करने का उपाय विचारना। 8। अति लोभ परिगति, जो राज्य व लक्ष रुपये होते तृप्ति नहीं होय ।। अपने भावन का कृतघ्रीपना, जो और अपने ऊपर उपकार करे, काहू का उपकार होय तौ ताकं भलिकै उल्टा तात द्वेष भाव करना ।६. चित्त महाचञ्चल करना । पंचेन्द्रिय विषयन की बारम्बार चाहना करना।८। सदैव शोक रूप परिणति राखना। । । श नव चिह्न तौ अन्तरङ्ग आर्त होते प्रगटें हैं । बाह्य चिह मार्त के तहां दिन-दिन प्रति खान-पान अल्प होता जाय, तन क्षोण होय सो तन-सोखन है। शरीर का वर्णमारे चिन्ता के फिर जाय, सो विवर्ण-चिह्न है। २। कपोल हाथ धरि बैठना, सो पार्त-चिह्न है।३। तीव्र चिन्ता त बार-बार नेत्रन ते अश्रुपात का चलना।।। ए च्यारि चिह्न बाह्य प्रगट होय हैं। ऐसे चिह्न संहनन सहित बार्त-ध्यान के जानना । सो रौसा विचार तिर्यञ्च गति का दाता जानना। ऐसा आर्त-भाव सम्यक भये
सहज ही हेय होय है। सम्यग्दृष्टि के त्याग भाव हो रहे है। इति आर्त-विचार। आगे रौद्र-विचार कहिय है। १५२
रौद्र-विचार ताकौं कहिए। जहां पर जीवनको आप मारि हर्ष मानें तथा और को बादेश देय जीव घात कराय, हर्ष मानें तथा और कोई काहू जीवकू मारता आप देखै तब हर्ष मानें तथा काहू कू युद्ध करते देखि हर्ष माने
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तथा अपनी चतुराई करि औरन कौ परस्पर युद्ध कराय के हर्ष मानं । कोई अन्य जीव के, हाथ-काननाकादिक अङ्ग-उपाङ्ग छेदकै आनन्द मानें तथा और कोई, काहू के अङ्ग-उपाङ्ग छेदता होय ताकों देख । आप हर्ष मानें तथा और का घर-धन लुटता देख आप आनन्द मानें। इत्यादिक जीवन कं दुखो देखि आप | हर्ष पाच, सो हिंसानन्द-रौद्र-विचार है ।। जहां अपनी चतुराई करि असत्य बोलि हर्ष मानें तथा औरनको | मठ बोलते देखि हर्ष मानें, जाकों झूठ प्रिय होय इत्यादिक मूठ मैं आनन्द माने, सो मृषानन्द-रौद्र-ध्यान है। २। आप चोरी कार आनन्द माने और को आदेश देय चोरी कराय आनन्द मानें, कोई के चोरी भई सनि आनन्द माने, चोर ताकौं अति प्यारे लागें। इत्यादिक चोरी के कार्य कारणनकौं देखि आनन्द माने,
सो चौर्यानन्द-रौद्र-ध्यान-विचार है ।३। जहाँ बहुत परिग्रह इकट्ठ करि आनन्द माने, और आय गैया, मैं सि, , बैल, घोड़ा, हाथो, गाड़ा. गाड़ी, रथ, सैनादिक परिग्रह तथा महल, बाग, कूप, बावड़ी, तलाब इनकों आदि बह आरम्म करि आनन्द माने तथा और कौ ऐसे आरम्भ करावते देखि आनन्द मान इत्यादिक बहुत परिग्रह मैं बहु प्रारम्भन मैं आनन्द का मानना, सो परिग्रहानन्द-रौद्र-ध्यान है ।8। ऐसे च्यारि भेद रौद्र-विचार हैं । सो नरक गति के दाता जानना । ऐसे रौद्र-ध्यान च्यारि भेद रुप है। आर्त-विचार सम्यग्दृष्टिकै सहज ही हेय हैं। ए आर्त-विचार, रौद्र-विचार र दोऊ ही अशुभ फल के दाता हेय हैं। ऐसी जानि इन कुविचारन कं तजे हेय करें है। इति कुविचार । आगे सुविचार कहिये है। तहां धर्मात्मा जीवनकै निरन्तर सहज ही ऐसा विचार रहै है। जीवाजीव पदार्थ केई प्रगट हैं, केई अप्रगट हैं, केई भार्स हैं, केई ज्ञान की मन्दता करि नाही भासें हैं। परन्तु जैसे-जिनदेव ने केवलज्ञान करि कहा है, सो प्रमाण है। मेरी मन्द बद्धि करि मोकं नाहों भासं, तौ मति भासौ । परन्तु केवली के कहे मैं मेरे संशय नाहीं। जिनदेव का काया प्रमाण है। ऐसी हद प्रतीत रूप विचार करना, सो आशा-विचय-धर्म्य-ध्यान है। ३। और जहां निरन्तर ऐसा विचार रहै जो मेरा धर्म निर्दोष कैसे रहै ? मेरे आयु पर्यन्त-धर्म का साधन कैसे रहै ? और मेरे तत्त्वज्ञान कैसे बढ़े? और धधध्यान मैं चित्त को एकता कैसे होय? मेरे क्रोध, मान, माया, लोम कयायन की घटवारी कैसे होय ? समता-भाव कैसे बढ़े। मैं शान्तिरस अमृत का पान कब करूँगा? मेरे संयम
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भाव कब प्रकट होयगे? इत्यादिक समता सहित धर्म्य-ध्यान बढ़ावे रूप धर्म-रक्षा रूप बारम्बार विचार का होना, सौ अपाय-विचय-धर्म्यध्यान है। पूर्व पुण्यके उदय करि प्रगटी जो अनेक सम्पदा. अनेक पंचेन्द्रिय जनित भोग सुख, तिनक पाय धर्मात्मा हर्ष नहीं करें, मगन नहीं होय और ऐसा विचारें, जो मैं या संसार मैं भ्रमण करते अनेक बार नरकादिक, तिथंचादि, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि के महादुःख मैंने अनेक बार भोगे, अनेक बार पश होय, मनुष्य होय घर-घर बिक्यौ । मुख सही। अनेक बार वनस्पति में राति कटि के परन्ताराम होय विवौइत्यादिक अनेक आपदा का भोगनहारा मैं संसारी जीव, सा कोई किचित पुण्य के उदय देव, इन्द्र, चक्री, विद्याधर, मण्डलेश्वर इत्यादिक विभूति, पंचेन्द्रिय सुम्स मोकूआय मिले हैं। सो यह सुख-सम्पदा कर्म की करी है। सो सर्व चपल है। अपना अल्पकाल उदय करि जाते रहेंगे। ऐसा जानिकै सम्यक धन-धारी, भोगरक्त चित्त नहीं करै। मगन नहीं होय, सो विपाकविचय-धHध्यान है तथा अपने कोई पाप के उदय ते अनेक दुख, संकट, आपदा, वेदना, शरीर आई होय । तो ज्ञाता पुरुष असाता नहीं करै दुख नहीं मानें। ऐसा विचारै, जो मैं पूर्व भव मैं देव राजादिक के अनेक पंचेन्द्रिय सुख भोगे, कामदेव समान शरीर सम्पदा भोगी है। अब कोई किंचित् पाप-कर्म के उदय मोकों तन पीड़ा वेदना भई है। सो आप हो जपना रस देय, खिर जायगी। इत्यादिक शुभ विचार करि खेद नहीं करे। ऐसे ही साता के उदय सुख नाहीं मान। असाता के उदय दुखी नहीं होय । ऐसे विचार का नाम विपाक-विचयधार्य ध्यान कहिये ।३। स्थान, जो तीनों लोक के आकार का विचार । जो ए तीन लोक पुरुषाकार है। अनादिनिधन है । षट् द्रव्यनते भरथा, च्यारि गति जोवन का स्थान तहां संसारो प्राणी शुमाशुभ भावन का फल भोगता तन धरता. तजता, अनन्तकाल का भ्रमण करता सुख-दुख भाव करे है। ताही के फल फिर जन्म-मरण बढ़ावै है। राग-द्वेष भाव तजि कर्म नाश मोक्ष होवे, सो लोक के सोश सिद्ध होय विराजे हैं। वे सिद्ध भगवान् जगत् दुखते रहित हैं। जन्म-मररा संसार भ्रमण र सर्व दोष धांड़ि, सूखी होय हैं। ते सिद्ध दो प्रकार है। जो च्यारि घातिया-कर्म रहित, केवलज्ञान सहित, अनन्त सुखी, समोशरण सहित, अनेक लक्षणों से मण्डित, परम औदारिक के धारक सो तौ सकल सिद्ध हैं और ज्ञानावरणादि अष्ट-कर्म रहित, अमर्ति, चेतन, शुद्धात्मा सो अकल सिद्ध हैं।
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गोपादारिक शरीर व नामापात है। शरीर रहित जकल हैं। इन दोय गुण सहित जी सिद्ध है सो सर्व लोक के ।
मस्तक, मुकुट समान विराज हैं। ऐसे लोकालोक का विशेष विचार चिन्तन-ध्यान करना, सो संस्थान-विचयधर्म्यध्यान है। ४ । रोसे कहे जे च्यारि प्रकार धर्म्यध्यान, सौ धर्मात्मा जीवन के सहज ही होय हैं। यह विचार का फल स्वर्गादि उत्तम गति है, परम्पराय मोक्ष होय है। ताते ए विचार धर्मात्मा जीवन करि, उपादेय करने योग्य हैं। इति धर्म्य-ध्यान। आगे शुक्ल-ध्यान-जहां आत्म स्वभाव का अरु पुदगल स्वभाव का भिन्न-भित्र विचार करना.सो पृथक्त्ववितर्क विचार शुक्ल-ध्यान है।। मनकौं एकाग्र-भाव करि एक ही अर्थ के विचार करतें केवलज्ञान होय, सो एकत्ववितर्क विचार शुक्ल-ध्यान है। २ । जहाँ मन-वचन-काय योग के अंश सूक्ष्म करने रूप आत्म परिणति, सो सक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नाम शुक्ल-ध्यान है। यहां मन प्राण के अभाव होते विचार का भी कथन नाहीं। एक आत्म-भाव ही शुद्ध रूप है र तीसरा शुक्ल-ध्यान है। ३। जहाँ पुटुगलीक तन क्रिया का सम्बन्ध छोडि निर्बन्ध-भाव होना, सो व्युपरीत क्रिया निवृत्ति शुक्ल-ध्यान है। ४ । इत्यादिक शुद्ध विचार सो ! उपादेय हैं । ऐसे विचार निकट संसारो जीवन होय हैं तथा कर्म रहित जीवन के होय हैं। संसारी, धर्म रहित, भोरे, परभव में विपरीत दुख-फल के उपजावनहारे जीवन कूरोसा विचार महादुर्लम है। दीर्घ संसारी, भव भ्रमणहारे, अशुभ भावना के धारी जीवनको तौ, शुभ विचार होना महाकठिन है। ऐसे शुभाशुभ विचार मैं सम्यग्दृष्टि जीवन की हेय-उपादेय करना महाउत्तम है । सो शुद्ध दृष्टि के होते, हेय-उपादेय भाव सहज ही प्रगट होय हैं। इति विचार विष ज्ञेय-हेय-उपादेय भावाधिकार समाप्त भया।
आगे आचार जो क्रिया, तामैं शेय-हेय-उपादेय कहिए है। तहो समुच्चय शुभाशुभ क्रिया के विचार, सो तो झेय हैं। अरु ताही त्रेय के दोय भैद हैं। सो एक तो शुभाचार है. सो तौ उपादेय है। एक अशुभाचार है, सो हेय है सो जहाँ दया सहित चलना, भूमि विषं जीव देखि, बचाय चलना, सो शुभाचार है। बोलना सो सर्व क सरकारी वचन, दया सहित, हित-मित, सत्य, पुण्यकारी वचन बोलना, सोशम किया है और मान करना,
गाले जल करना, सरोवर नदी वापीन मैं प्रवेश करि नहीं सपरना आपके शरीर को भाताप ते बहुत जल १५५
जीवन का घात होय है तात यह कार्य तजना भला है और कदाचित् ऐसा ही निमित्त मिले, तो जलाशय मैं ते जल
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मालि, दुर जाय स्रान करना, यह शुभाचार है। चौका देना बहारी देना, तौ भमि शुद्ध देखि, जीव बचाव करना र शुभाचार है । अग्नि प्रजालना सो ईंधन भूमि शोधि, शुद्ध देखि जलाना, यह शुभाचार क्रिया है और पीसना सो अन्न, चक्की शोधि, दिन को, उद्योत स्थान मैं, दृष्टिगोचर देख पीसना, सो शुभाचार है। धोवना सो गाले जल से वस्त्रादि धोवना । कचारना, सो दिन छित उद्योत स्थान मैं कचारना। रोंधना भोजन करना सो सब दिन में करना, सो शुभाचार है । इत्यादिक क्रिया करनी, सो सर्व विचारि देखि दया भावनते करनी, सो शुभ क्रिया हैं और आभषण-वस्त्र पहिरना, सो शुभाचार है और अपनी वय प्रमाण पहराव बन्देज राखें, सो शुभाचार है। जाकरि लौकिक निन्दा नहीं पावै। जैसे-ऊँच कुल मैं वस्त्र-आभूषण पहनते आये ता प्रमाण पहरे 1 जो राज करनहारे होय तथा सेठ व्यापारी होय तथा निर्धन होय तथा धनवान होय । सो सर्व अपने-अपने पदस्थ माफिक राखे। इत्यादिक शुभाचार की प्रवृत्ति, सो शुम किया है। ऐसी क्रिया-आचार विवेकीन करि उपादेय है । इति शुभाचार । आगे 'प्रशुभाचार कहिये है। बिना देखें शीघ्र-शीघ्र चलना बैमर्याद बिना विचार राज विरुद्ध लोक विरुद्ध वचन बोलना, सो कु-क्रिया है और अनेक माचार ऊपरि कहे तिनसे विपरीत स्रोटें प्राचार पर-पीड़ाकारी दया रहित बोलना, नदी सरोवर विर्षे कूदना बड़े द्रह अनगाले जल के समूह तिन मैं बैठना तैरना कौतुक सहित सपरना, सो कु-क्रिया हैं तथा वस्त्रादि धोवना
और कुल निन्द्य इत्यादिक बमर्याद आभूषण-वस्त्र का पहरना, सो कु-आचार है। सो ए क्रिया तणवे योग्य हैं । र घरन सम्बन्धी केतीक किया हैं । सो स्त्रीन के आधीन हैं । तिन स्त्रीन के दोय भेद हैं। एक स्त्री तौ पाचार-क्रिया रहित धर्म भावना से विमुख विषय-कषाय मैं रायमान क्रोध-मान माया-लोभ सहित क्रूर स्वभाव धरनहारी कुटिल चित्त की धरनहारी अपने शील-गुरा की रक्षा का नहीं है लोभ बाके वशुभ भावना हीनाचरणी इत्यादिक कुलक्षण सहित खोटी स्त्री होय हैं। एक स्त्री है सो शुभाचरणी धर्म परिणतिको धरै पवित्र चित्त को धरनहारी शील-गुरा सहित होय । गुरुजन जो सास, श्वसुर, माता-पिता की आम्नाय प्रमाण विनय सहित प्रवर्तनहारी, सौभाग्य गुण की धरनहारी यशवन्ती, भले गुण सहित स्त्री होय हैं। यह दोय जाति, शुभाशुभ स्त्री की जाननी। सो इनकी कखि वि भी जो बालक अवतार लेय, सो शुभ स्त्री के गर्भ से शुभ सन्तान की
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। उत्पत्ति होय भार अशुभ स्त्री की कूत्र तैं अशुभ जीव अवतार लेय है। जैसे—पृथ्वी वि दोय खान निकसै,
सो एक खान मैं तौ उतम रतनादिक निकसे हैं। कोऊ शान मैं लोहा निपजे है। तसे ही स्त्रीन की शुभ-अशुभ फूख जानना। सो तिन शुभ-अशुभ सन्तान होवे के कारण बताइर हैगाथा-पुत्रवती जुगवासर, सेवत सन्ताण होय धिण सीलो । विसगाणी अपलायो, धम्म रहीयो अनि विगवारो ॥३६॥
अर्थ-तही पुष्पवती स्त्री धर्म सहित नारी होय, ताकौ कोई कु-बुद्धि पुरुष पहले दिन तथा दूसरे दिन, तातें संगम करें। अरु ताकौं सन्तान उपजै तो वह शील रहित, पर-स्त्री वेश्यादिकवि महाकाम लम्पटी होय, सप्तव्यसनी होय, अपलक्षशी होय, धरहित होय, अज्ञानी होय, अनाचारी होय । भावार्थ जो स्त्री स्त्री-धर्म-ऋतुवती होय ताके करबे योग्य क्रिया कहिए है। जो खोटी स्त्री हैं ते तौ स्त्री-धर्म भरा सर्व पुरुष स्त्री बालकनकों होते हैं। घर का सकल धन्धा काम करे हैं। घर के घटपटादि सर्व छीव हैं। तन अङ्गार करें हैं। ताम्बल साय, गरिष्ट पेट भर भोजन करें; गीत नृत्यादि रति क्रिया कर। हाँसिकौनकादिक कीड़ा करें। अपना तन, मन्य जीवन के तन” स्पर्श करावैं। इत्यादिक क्रिया कही, सो र अनाचार रूप किया हैं। सो इस रूप रहने से खोटी स्त्री जानना। हे भव्य ! यह अतुवती-स्त्री, अस्पर्श शद्र समान है। छोवे योग्य नाहीं। याके खान-पान का बासन अस्पर्श शद्र के बासन समान है। तातें जो स्त्री, स्त्री-धर्म क्रिया में शिथिल है। सो महाअशुभ, पाप क्रिया कर्मक उपजाय प्रमाद योग ते अपना पाया मनुष्य भव बिगाडि परभवकं दुख करें है। तातें ऊपर कही जो स्त्री-धर्म भरा पीछे अशम निया सो नहीं करना योग्य है, खोटी स्त्री ऐसी क्रिया करे हैं। अब शुभ स्त्रीन की क्रिया कहिए है, सो जे शीलवान स्त्री हैं ते ऋतुवन्ती भये पीछे अपने मलिन वस्त्र उतारके अप्रच्छन धोवे कोई देखे नाहीं। आप मान कर के उज्ज्वल और वस्त्र पहिरकै एकान्त स्थान में तिमा-घास-डाम का बिछौना बिछाय तिष्ठे। अपना मुख काहु को नहीं दिखावै। नहीं काहू का मुस्ख आप देखें। भोजन करें सो रस रहित-नीरस
भोजन करें। सो हु उदर भर नहीं खाय दिन मैं निद्रा नहीं करें और तन श्रृङ्गार नहीं करें। तांबलादिक नहीं १७ | खांय गीत-नृत्य हाँ सि-कौतुक आदि नाहीं करें । सुगन्धादिक तन लेपन नाहीं करें । अजन सुरमादि नेत्रन में अञ्जन
नहीं करें। हाथ-पांव के नख नाहीं सुधारें। अपना अङ्गछिपाय तीन दिन अप्रच्छन्न रहैं। सौ राम्रि में कातुवन्ती
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भई होय दिन नाहीं गिनै । जो सूर्य के उद्योत ऋतुवन्ती भई होय तौ दिन गिने । ऐसे तीन दिन एकान्त में रहें । भोजन पातल में खाय तथा कड़ाही में खाय । जल पीवकों मिट्टी का बासन राखे तातें जल पीयें। शुद्ध भए मिट्टी के बासरा डार देय तथा फोरि डारें, चौथे दिन शुद्ध होय स्नान कर अपने पति का मुख देखें तथा पाँचवें दिन सु पति का मुख देखे पोछे सास, ननद का मुख देखे ऐसी उत्तम स्त्रीकें जास रहे। पति संगमतें सन्तान होय । सो पवित्र बुद्धि का धारक पिता समान रूप-गुण-लक्षण-काय का धारी होय । शुभाचारी दयावन्त, धर्मवन्त, शीलवन्त इत्यादिक गुण सहित शुभ पुत्र होय । अब कु-स्त्री का स्वरूप कहिये है। जो कु-स्त्री तथा खोटी स्त्री है सो ऋतुवन्ती भरा पीछे पहले दिन तथा दूसरे दिन विषै ही कुशील सेवन करें है । जे महाअभागी मोरे कामलम्पटी दुर्बुद्धि हैं तिनके वीर्य तैं जो पुत्र-पुत्री होय, सो कु-शीलवान होय द्यूतादिक सप्त-व्यसनी होय, मांस भक्षी होय, सुरापायी होय, वेश्यागमनी होय, जीव घाती निर्दयी होय, चोर-कला मैं प्रवीण होय, पर-स्त्री का इच्छुक होय. मका भोगी अभक्ष्य मक्षणहारा होय, शुभ-अशुभ विचार रहित महामूर्ख अज्ञानी अन्ध समान होय। खाद्य-अखाद्य के विचार में वंश समान अनाचारी होय, महाक्रांधी होय, मानी होय, महादगाबाज होय, लोभी होय, अविनयी होय इत्यादिक अपलक्षणी होय । परभव के सुख का कारण जो धर्म तातैं रहित अधर्मी होय। माता-पितान कौं दुखदाई अविनयी होय । विशेष ज्ञान कला- चतुराई लौकिक-कलातें रहित मूढ़ होय । कुरूप होय, दीन होय, दरिद्री होय, बाल अवस्था ही तैं। कौप का धारी होय । महामानी होय, क्रूर दृष्टि होय । अपना मान भङ्ग भमरन विचार देशान्तर निकस जाना विचारै महामूढ़ चित्त का धारी अपने चित्त का जभिप्राय काहू कौ नहीं जनावै । महालोभी तन देय धन नहीं देय। आप भूख स अपयशादि तैं नाहीं डरे जैसे-तैसे धन जोरे ऐसा लोभी होय । इत्यादिक अनेक औगुणी होय। ऐसे पुत्र तैं कुल-कलङ्क चढ़ें है । तातैं तिन उत्तम कुल के स्त्रीपुरुषनकूं ऋतु समय की क्रिया मैं प्रमाद तज शुभ रूप प्रवर्तना योग्य है और जे उत्तम स्त्री हैं सो ऊपर कहि खारा शुभ स्त्रीन के शुभ लक्षण स्त्री-धर्म की मर्यादा, सो ताही प्रमाण प्रमाद रहित पालें हैं। उत्तम धर्मात्मा स्त्री, मन्द हैं भोग अभिलाषा जाकै ऐसी शुभ स्त्री महासती कैं, चौथे दिन स्नान करि पति संग तैं गर्भ रहे तथा पञ्चम दिन तथा षष्टम दिन तथा सप्तम दिन भर्तार तैं संगम तैं गर्भ रहे है। ता गर्भ विषै शुभात्मा पुरय बन्ध करनेहारा
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अन्य गति तैं च करि, ताके गर्म विषै अवतार लेय। सो चौथे दिन का गर्भ रह्या जीव मन्द कषायो, धर्म रुचि सहित, संघम- सम्पदा सहित, सम्यग्दर्शन रतन का धारी होय है और पञ्चम हिन का गर्भ रह्या होय, तहां महाउत्तम जीव प्राय अवतार लेय, सो पुण्याधिकारी अनेक राज भोग का भोक्ता होय. पीछे अणुव्रत तथा महाव्रत काधारी हो। षष्टम दिन का गर्भ रह्या, सो जो दया रस का धारी, देशव्रत धारी शुभ गति जाय तथा महाव्रती होय और सप्तम दिन का गर्भ रह्या जीव निकट संसारीमा पंचेन्द्रिय
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भोगि तीर्थङ्कर, चक्री, कामदेवादिक, महान राज-सम्पदा भोगे पोछे संघम पाथ सिद्ध पद पावे ऐसा पुत्र होय । ऐसे शुभ स्त्रीन की शुभ क्रिया कही। इस तरह शुभाशुभ क्रियाचार का सो विवेक्रीन को समि अपने भले योग्य होय, सो करना योग्य है । इति आचार क्रिया मैं ज्ञेय हेय-उपादेय कही। आगे कहैं हैं जो उत्तम श्रवकन के धर्म- जाभूत्रण कर्म - आभूषण क्या सौ कहिए है। सो आभूषण भेद दोय हैं। एक तो धर्मआभूषण, एक कर्म- आभूषण। इन दोय आभूषण सहित होय तेही महासुन्दर हैं। तेई बड़ भागी हैं। ते हो सराहवे योग्य हैं। सो दोय भेद आभूषण का, विशेष कहिए है। जो कर्म अपेक्षा हाथ आभूषण चूरा अंगूठी आदिक जिन तैं कर शो सो कर आभूषण हैं। धर्मात्मा जीवनकें जिन हाथन तैं देव-गुरु-धर्म को पूजा करते, नमस्कार कर कर दौड़ कमलाकार होंय । सो ही हाथन का पावना सुफल है। जिन हाथन तें देव पूजादि शुभ कार्य करना, सो हो कर आभूषण है । । भुजबन्ध बाजूबन्यादि जातें भुज शोमै सो भुजा भूषरा है। सो ये कई सम्बन्धी भुज आभूषण हैं और धर्मात्मा जीव जिन भुजन पर जीवन की रक्षा करें तिनकू देखि कोई दुष्ट जन दीन जीवन नहीं पीड़ित कर सकै। साधुनको रक्षा तिन भुजन तैं दुष्ट जीवन पोड़ा-दण्ड देने की शक्ति दीन जीवन की रक्षा कूं योधा, शरण आयके रक्षक, इत्यादिक पुरुषार्थ तिन करि जाकी भुजा शोभायमान है, सो ही भुज आभूषण हैं। या धर्मात्मा पुरुषन के भुज शोभा पावें । २। कंडी, माला, हार इन आदिक आभूषण जितें उर शोभा पाव है। सो उर आभूषण हैं। ए कर्म सम्बन्धी हैं । जा उर मैं सदैव अरहन्तादि पञ्चपरमेष्ठी के गुणन का सुमरण वैराग्य चिन्तन बारह भावना तथा सोलह कारण भावना का चिन्तन करना, सो धर्मात्मा जीवनकै उर आभूषण हैं । ३ । पांवन के आभूषण जातें पद शोमा पावै, सौ कर्म सम्बन्धी पद आभूषण हैं।
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धर्मात्मा जीवन के जिन पावन तैं सिद्ध क्षेत्रादिक यात्रा करिर सो पद पार का फल है, सो पद आभूषण है।४। आगे मुकुट, तुररा.शिरपंचादि इनत शिर को शोभा होय, सो शिर आभूषण कर्म सम्बन्धी हैं। जा शिरतें देवगुरु-धर्मकं नमस्कार कीजिये, सो सिर सफल है। धर्मो-जीवन के ये शिर आभूषण।५। और कर्म अपेक्षा मुखमण्डल के तिलकादि आभूषण हैं तथा ताम्बूलादिक पान का खावनादिक सर्व मुख के आभूषण हैं । इनसे मुख भला शोमैं है, धर्मात्मा जीवनकजा मुखत सर्व हितकारी मिष्ट हित-मित वचन का बोलना सो मुख आभूषस है तथा अन्य जीवन के रक्षक दयामयो वचन जा मुख त बोलना तथा सम्यक प्रकार सत्य मन वचन की एकता सहित जिस मुखत पच परमेष्ठी की स्तुति करना तथा जा मुखः इन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, कामदेवादि महान पुरुषन की कथा करिश सो मुख का श्रृङ्गार है तथा मूनि गराधरन के वचन सुनिक पोचे अपने मुखते वही वचन औरन 4 प्रकाशित करना सो मुख सफल है तथा यथायोग्य विनयकारी करना पर के श्रवरानक हितकारी वचन जा मुखतें बोलना सोही धर्मकारी जीवनकै मुख आमूषण है। ६ । कर्म अपेक्षा नेत्र-अञ्जन जारि नेन भले लागै सो अअनादि नेत्र के आभूषण हैं। धर्मात्मा जीवन के जिन नेत्रनतें जिनदेव का दर्शन करिके हर्ष मानिए सो हो नेत्र आभूषण हैं तथा जिन नेत्रनतें अनेक जिन शासन के शास्त्रनकों परमार्थ-दृष्टि करि देखिये, सो नेत्र सफल हैं तथा पर-वस्तु जै सुन्दर स्त्री, देवांगनादिक का रूप जे परम पदार्थ तिनकं निर्विकार करता रहित होय देखना सो नेत्रनकौ आभषण हैं। तिन करि नेत्र सफल हैं । ७। कर्म अपेक्षा कर्ण मण्डन जो कुण्डलादिक जिनतें कान भलै शोमैं सो कर्ण आभूषण हैं और धर्मात्मा जीवनकै जिन काननते जिन-गुण श्रवरा करना तथा तीर्थङ्कर, केवली, गणधरादिक महामुनीन के गुण श्रवण करना तथा जिन भाषित दयामयी धर्म का जिन काननते सुनना सो कान कं आभूषण हैं। कान पाए का फल है। ८1 और कर्म सम्बन्धी तन-मण्डन वस्त्रादि अनेक तन जाभूषण हैं। इनत तन मला शोमें है और धर्म सम्बन्धी जा तनर्ते महाव्रत-अणुव्रत पालना पञ्च समिति, तीनि गुप्ति र गुण रतन करि तन शोभायमान करना सो तन पार की शोभा है तथा जा तनत कोई जीवनकं नहीं पीड़ना अन्य की रक्षा करनी तन का भयानीक आकार बनाय भोरे जीवनकं भय नहीं उपजावना जा शरीर से शभाचार करि शान्ति मुद्रा सहित रहना अपनी मूर्ती देखि औरको विश्वास उपजावना सो हो तन आभूषस है।
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रोसा तन सफल है। ६ । कर्म अपेक्षा घर मण्डन धन की वृद्धि सहित सपूत पुत्र का होना। आज्ञाकारिणी, सुलक्षणी, शीलवान, विनयवान, रूपादिगुण सहित मली स्त्री का होना सो तथा माता-पिता, भाई,पुत्रादि सकल कुटुम्ब विर्षे परस्पर स्नेह, इत्यादिक निमित्तन का मिलना, सो यातै घर भला दोखे। सो कर्म अपेक्षा र घर | आभूषण हैं। धर्म अपेक्षा जा घर वि शुभाचारी दयावान धर्मी जीव होंय तथा जा घर मैं मुनि श्रावकादि धर्मात्म जीवन का सदैव प्रवेश होय । सो घर की शोभाकारक घर आभूषण है। यातं घर सफल है। १०। कर्म अपेक्षा धन मण्डन चित्त की उदारतापने सहित अपने अनेक जीव-कुटुम्बादिक तिन सब मैं बाँट खावना। पंचेन्द्रिय सुख में लगावना रतन कनकादिक के अनेक मनोन मन्दिर बनाय तिनमैं अनेक चित्रामांदि शोभा कराय रहना। अनेक जाति के जननकू यश के निमित्त दान देना और पुत्र, पुत्रो आदिक की शादीन मैं द्रव्य लगावना तथा पुत्रादिक की उत्पत्ति के उत्सवन मैं धन खर्चना तथा भाई, बन्धु, मित्रन मैं धन देना तथा बहिन-भांजीक धन देना इत्यादिक स्थानकन मैं उदारता सहित हित-मित करि धन लगावना सो धन का आभूषण है। या धन शोभायमान होथ है और धर्म की अपेक्षा अपना धन उदारता सहित धर्मानुराग करि नवधा-भक्ति सहित मुनिकं दान देना तहां धन लगावना।२। तथा सूवर्ण चाँदी के अक्षरन सहित स्पष्ट भारी पत्रन वि शास्त्र लिखाना। तिनमें अनेक भारी मोल के मनोज्ञ वस्त्रन के पुठे बन्धन कराध लगावना । २ । तथा जिन-पूजा विर्षे मोतीन के अक्षत, सुवर्ण चाँदी के फूल, रतनन के दीपकादि उत्तम अष्ट द्रव्य मिलाय प्रभु की पूजा में लगावना तथा भारी पूजा-विधान तीन लोक के जिन-मन्दिर को पूजा तथा तेरह द्वीप की पूजा तथा नन्दीश्वर-विधान पूजा तथा अढाई द्वीप का विधान तथा जम्बूद्वीप-विधान, कर्मदहन-विधान, पञ्चपरमेष्ठी-विधान, पञ्चकल्याणकादि अनेक विधान कराय जिन-पूजा मैं धन लगावता । ३। महादोघं उत्तुङ्ग विस्तार सहित, जिन-मन्दिर कराय तिन विर्षे अनेक चाँदी-सुवर्ण का चित्राम तथा शुभ रङ्ग का चित्राम करावना तामैं धन लगावना तथा अनेक परदा चाँदनी.
गलीचा, शतरआदि अनेक बिछावना तथा नौबत, निशान, घण्टा. छत्र, सिंहासन, चमर, ध्वजा इत्यादि करावना १९.तथा पूजा के उपकररा थाल, रकेबी, झारी, प्यालादि अनेक चाँदी-सुवर्ण के करावना इत्यादिक शोभा सहित !
जिन-मन्दिर बनाय तामैं धन लगावना। ४। जिन-बिम्बन की विधि सहित, जिन-बिम्ब करावना। सो ताका
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संक्षेप विधान कहिए हैं। सो जिन-बिम्ब करनेकौं प्रथम तो पाषाण कूं खानि देखे, सो उत्तम रतन समान पाषाण की खानि देखें। गले दिन मानि-शोधन-क्रिया करें। पीछे तहाँ अनेक वादित्र सहित शिल्प शास्त्र का वेता शिल्पी सो अपना तन शुद्ध करि, उज्ज्वल वस्त्र धारि, उस खानि को शास्त्रोक्त पूजा करे। पीछे पाषाण काटै, सो शुद्ध पाषाण होय तो लावें । रेखा जो जनेऊ तामैं नहीं होय, बोधा नाहीं होय, गल्या नाहीं होय, ऐसे अनेक दोष सौं रहित शुद्ध पाषाण लावै। पीछे एकान्त स्थान पै प्रतिबिम्ब का निर्मापस करै । तहाँ शिल्पी अरु करावनहारा धर्मो श्रावक दोऊ शील सहित रहें। जेते काल काम करें तेते काल प्रमाद रहित शिल्पी रहै । प्रमाद भये विनय करि उठ खड़ा रहै, काम नहीं करें। ऐसे जेते दिन प्रतिबिम्बन का निर्माण करे तेते ब्रह्मचर्य सहित रहै। दीन-दुखीनकूं सदैव दान भया करै। शिल्पी एक बार भोजन करै, सो भी अल्प करें। तन मैं विकार नहीं होय । इत्यादिक अनेक शुद्धता सहित जिन-बिम्ब कराय धन लगाये। सो धन सफल है |५| पोछे जिन-बिम्बन की प्रतिष्ठा करावै। तहां देश-देश के धर्मो श्रावक विनयतें पत्रन न्योते देयकें बुलावें, पीछे सर्व की आये में शुश्रूषा करै वांच्छित दान दुखित भुखितकूं अन्न, वस्त्र दे और याचिकनिकं प्रभावना के हेतु वांच्छित पट आभूषण घोटिक दान देव इत्यादिक उत्सवन मैं धन खर्चे । सो धन सफल है । ६ । सिद्ध क्षेत्रादिक की यात्रा के निर्मित अनेक साधन आप जैसे धर्मात्मा जीवनक संघले यात्रा करें, सो मन्द गमन करें। जामें मुनि श्रावक व्रतोन का निर्वाह होय, ऐसे तो चलें। राह मैं, वन मैं, नगर मैं, तहां जे-जे जिन-मन्दिर खावें, तहां-वहां सर्व जगह भगवान की पूजा उत्सव करते चलें । दीन-दुख तन को दान देता, संघ की समाधानी करता, निराकुलभाव सहित यात्रा करि धन खर्चे । सो धन सफल है । ७ ऐसे मुनि-दान, शास्त्र लिखवाना, जिन-पूजा, जिन-बिम्ब करावना, जिन-मन्दिर करावना. जिन-प्रतिष्ठा करावना, सिद्धक्षेत्र - यात्रा, इन सप्त क्षेत्रनमैं धन लागे। सी धनको आभूषण है | २२| कर्म अपेक्षा पुत्र मण्डन जाकौं कहिए, गुरुजन जो माता-पितादिक बड़े होंय तिनकूं सुखदायक होय और यथायोग्य सर्व के विनय-साधन मैं प्रवीण होय। माता-पितादिकनिक वह आप हो सपूत कहाय, अपने गुणनतें मातापितानिको साता उपजावै। लोकन मैं अपनी सज्जनता, विनय-गुण, उदारतादि गुण प्रगट करि, सर्व सपूत
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कहावे सो श पुत्र को प्राभषण हैं । धर्म अपेक्षा चल्या जाया जो अनादिकाल का श्रावकन का धर्म, ताकौ उत्तम ।
जानि संपत प्रारती रादि उत्पा , लकी परम्पराल लिये देव-धर्म-गुरु की विनय सहित, च्यारि प्रकार | संघ की सेवा कू लिये, शुभाचार रूप, देव-धर्म-गुरु की श्रद्धा सहित, धर्मको दृढ़ करि, अशुद्ध क्रिया आचारकू टालिक, अपने कुल-मर्याद जो श्रावक-धर्म की परिपाटी, बड़े चले आए ता प्रमाण माता-पिता के आप चाल, कुल-धर्मत छुटै नाहीं। आप माता-पितान की धर्म-मर्यादा नहीं तजै, सो पुत्रको आभषश है ।श लौकिक अपेक्षा स्त्री मण्डन दोऊ पत्त की मर्यादाक पवित्र करती। गुरुजन जो सास-स्वसुर-भर्तारादि तथा माता-पिता तिन दोऊ पक्ष में विनय सहित चलन होय, सो स्त्रो को आभषण हैं। या करि लोकन तें प्रशंसा पावै, भली दीखै है । धर्म आभूषण ये हैं जो शुभाचार सहित होय, शोल-श्रृङ्गार जाके उर में होय, पति आशा में तत्पर होय, देव-धर्म-गुरु को परिपाटी की जाननहारी, दृढ़ श्रद्धान सहित होय सी स्त्री, धर्मात्मा, लजा के भार करि नम्रोभत दृष्टि धरै, संसार भोगन ते उदास, भर्तार आज्ञा भङ्ग नहीं करवेकं भोगनक भोगते है। ऐसे गुण सहित जा स्त्री के आभूषण होय, सो स्त्री महासुन्दर जानना । यह कहे जै गुस, सो स्त्रोन के आभूषण हैं । १३ । रोसे कहे जे कर्म-मण्डन आभूषण और धर्म-मण्डन आभूषण, सो विवेको ऊँचकुली धर्मात्मा पुरुषन कौं, दोऊ जाति के आभूषण पहरना योग्य है। कम-मण्डन ते तन भला दी है, इहाँ शोभा पावै
और धर्म-मण्डन ते या भव, पर-भव दोय ही भव, शोभा होय है । तातें ऐसा जानि, रोसे दोऊ भव यश-सस्त्र निमित्त, दोऊ आभूषण उर विषै धारणा योग्य है। ऐसे दोऊ भव सुधारने का निमित्त योग्य काय, कोई दीर्घ-पुण्य तें मिले है। तातै भव-भव मैं सुख यश जिनको चाहिए, सो भव्यात्मा धर्म का शरण लेह । ऐसे शुभ खान-पान तथा अशुभ खान-पान तथा स्वी-धम के भेद तथा धर्म-कर्म आभूषण इत्यादिक कथन ऊपर कहि आए सो विवेकी जीवन • इन विषं ज्ञेय-हेय-उपादेय करना योग्य है। अशुभ आचार का त्याग व शुभ का ग्रहण कार्यकारी है। इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ मध्ये, शुभाशुभ आचार, स्त्री-धर्म वर्णन, धर्म-कर्म आभूषण कथन
वर्णनो नाम द्वादश पर्व सम्पूर्णम् ॥ १२ ॥
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आगे खान-पान विषै ज्ञेय हेय उपादेय कहिए है। तहां खान-पान क्रिया है, सो क्षेत्र काल भाव करि विचार देखि करना योग्य है। सोई द्रव्य विषै तौ शुभाशुभ जीवन कूं विचारना। क्षेत्र में शुभाशुभ क्षेत्र का विचारना और काल मैं शुभाशुभ काल का विचारना। भावन मैं शुभाशुभ भाव विचारना ऐसे विधि विचारिए, जो यह खान-पान किस जीव में किया है ? सो करनेहारा आचरण धर्मो है अथवा मूर्ख है, पापाचारी मलीन है ? सो तौ द्रव्य विचारि है। यह खान-पान किस क्षेत्र का किया है ? सो क्षेत्र योग्य है वा अयोग्य है ? ऐसे क्षेत्र विचारिए। ए खान-पान किया, सो कौन काल में किया है ? सो काल योग्य है वा अयोग्य है ? ए खान-पान किया, सो कैसे भावन तें किया ? सी वाके भाव शुभ है अथवा अशुभ हैं ? ऐसे मावन का विचार करै। ऐसे विचार कै. विवेकी खान-पान मैं ज्ञेय हेय उपादेय करें। सो कैसे करै सो कहिए है। तहां क्षेत्र ऐसा होय जो हाड़ नहीं दीखे, मांस पिण्ड नहीं दीखें, जहां रुधिर नहीं दीखै, जहां मदिरा नहीं दीखे, तजो वस्तु अपने भोजन मैं नहीं आये, श्रपने भोजन मैं जीव पतन नहीं होय, जहां पंचेन्द्रिय का मल नहीं दीखें - ए सात कारण रहित शुद्ध क्षेत्र होय । जहाँ अन्धकार नहीं होय, बहु मनुष्य पशून का गमन नहीं होय, एकान्त होय, सो भोजन-पान शुद्ध है और भलो क्रियावान भोजन करनेहारा होय। भोजन करनेहारे का शरीर शुद्ध होय, करनहारा दयावान होय, करनेहारा पाप तैं डरता होय, खासी श्वास रोग नहीं होय, करनेहारे के तन में जुकाम नहीं होय, कफ नहीं होय, वमन नहीं होय, अतीसार नहीं होय, तन में फोड़ा - दुखना नहीं होय, राजरोग कुष्टादि नहीं होय, खुजली नहीं होय इत्यादिक रोग-दुखन करि रहित, शुद्ध भोजन करनहारा होय, विकलता रहित होय, सो द्रव्य शुद्ध है तथा भोजन मैं आयें ऐसे अन्न, जल, घृत, दुग्धादि तथा तन्दुल, गेहूँ, चना, मूंगादि अन्न बींधे गये, जीव सहित नहीं हों तथा घृत-जल, चर्मादिक का नहीं होय । इत्यादि वे भी द्रव्य शुद्ध जानना । काल शुद्ध जो रात्रि का किया आरम्भ नहीं होय, बड़ी बार जो भोजन की मर्यादा का काल उलघन नहीं भया होय तथा रात्रि साया वासी नहीं होय । इत्यादिक काल शुद्ध होय, सो काल शुद्ध जानना । भाव शुद्धता, जो करनेहारा भोजन का, सो विकल परिणामी नहीं होय भोजन का स्वाद लम्पटी नहीं होय, भोजन की तीव्र क्षुधा सहित परिणामी नहीं होय । योग्य-अयोग्य भोजन मैं समझनेहारा होय । इत्यादिक धर्मवान विवेक सहित जाके भाव
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हॉय, सो भाव शुद्ध जानना । क्रोधी नहीं होय, जो भोजन करते लड़ता जाय, कोपवचन कहता जाय । इत्यादिक । शुद्ध होय, सो भाव शुद्ध है। ऐसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव करि खान-पान शुद्ध होय, सो शुद्ध है। धर्मात्मा जीवन करि उपादेय है। इति शुद्ध खान-पान । आगे अशुद्ध खान-पान बताइश है। जहां भोजन करनेहारा क्रोश, || १९५ भोजन करता ही परतें शुद्ध करता जाय वे मर्याद बोलता जाय सो खान-पान अशुद्ध है विकल परिणामी होय, भोजन का भूखा लोलुपी होय सो भोजन करता कडू कालू खावता जाय सो भोजन अशुद्ध है। इत्यादिक भाव ! अशुद्ध हैं। रात्रि का पीसा-पकाया-आरम्भा होय, बहत काल का मर्यादा रहित होय गया होय तथा रात्रि का किया बासी होय । इत्यादिक काल-अशुद्ध है।२। अन्धकार क्षेत्र में किया, जहाँ छोटे-बड़े जीव पतनादिक की ठीक ना होय, जहाँ बहत जीवन का गमन होय, चौपट स्थान होय, जहाँ बहुत जीवन की उत्यत्ति होय, मच्छर-चौंटी-मक्खो बहुत होय इत्यादि क्षेत्र अशुद्ध है।३। करनेहारे का तन, रोग पीड़ित होय । खांसी, श्वास, खुजरी, जुखामादि रोग सहित होय । तन मैं फोड़ा दुखना बहुत होय, निद्रा जाके तन मैं बहुत होय, इत्यादिक दोष सहित करनेवारा होय, सो द्रव्य अशुद्ध है तथा वीधा अन्न न होय, जल अनगाला होय, घृत चर्म का होय, बाटा रात्रि का पीसा होय, इत्यादिक द्रव्य अशुद्ध है। ४। सो रोसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि अशुद्ध होय सो खान-पान अशुद्ध है धर्मात्मा जीवन करि हेय है और राह चलते खाते-पीते जाना। चौड़े बैंठि स्वावना । पांति विरोधी के संग बैठि स्वावना। कौतुक सहित खावना । बाजार में बिकता, सीधा तैयार भोजन मोल लेय स्वावना। इत्यादिक खान-पान अशुद्ध हेय है। ऐसे जानि विवेकी हैं तिन कं शुम भोजन ग्रहण और अशुभ भोजन तजन योग्य है। इति खान-पान मैं शेय-हेय-उपादेय कही। आगे वचन मैं हेय-झेय-उपादेय कहिए है। तहां शुभाशुम समुच्चय वचन का जानना सो ज्ञेय है। ता ज्ञेय के हो दोय भेद हैं। एक उपादेय है और एक तजवे योग्य है । सो जहां जो अन्य जीव कू सुखदाई होय दया सहित होय क्रोध, मान, कुटि- | लता, लोभ-इन च्यारि कषाय रहित होय धर्म-बुद्धि सहित होय। दान, पूजा, शील, संयम, तप, व्रतादिगि महान पुरुषन की चर्या सहित होय तथा धर्म उत्सव वचन शान्ति भाव सहित हित वचन सौम्यता सहित प्रिय वचन इत्यादिक जिन-आना सहित सत्य हित-मित वचन है सो उपादेय है। इति उपादेय वचन । श्रागे
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हेय वचन कहिए है। तहाँ क्रोध वचन मा-माया-लोभ वचन सप्तव्यसन रूप वचन पाय पोषण झूठ वचन सो या झूठि के च्यारि भेद हैं सो ही कहिश है । एक तो छती वस्तुको अवती कहना सो असत्य है।। अछतीकौं छतो कहना सो भी मूठ है। 21 वस्तु थी तौ कछु और ही अरु वाक कहना कछ और ही सो भी मूठ है । ३। जिन-आझा हित परमार्थ ते शून्य ऐसा वचन सो मुठ है। ४। योग्य अयोग्य वचन भेद हैं सो कहिए हैं। गाथा-बयणो हेयादेयो, सत्तोपादेय वयण जिण धुणि सो । हेयो चयण अनत्तो, णिदो कुगइदेय सुत रहियों ॥ ३७॥
अर्थ-वचन हेय उपादेय रूप है। सो सत्य तो उपादेय है। सो वचन जिन-आज्ञा प्रमारा है, ग्रहवे योग्य है। अतत्व वचन है सो हेय है निन्द्य है कुगति का दाता है और जिन-आज्ञा के विरुद्ध है। भावार्थ सत्य जिन वचन सो तो उपादेय है और अतत्त्व असत्य वचन हेय है । ता असत्य के भेद ग्यारह हैं। सोही कहिए है। प्रथम नाम-अभ्याख्यान कलह वचन, पशुन्य वचन, असम्बद्ध प्रलाप वचन, रति वचन, अरति वचन, उपाधि वचन, निकृष्ट वचन, अपरिणति वचन, मौखर्य वचन और मिथ्या वचन । अब इनका अर्थ-तहाँ ऐसा वचन बोलना कि देखो याने बहुत बुराई करी, याने बहुत बुरा वचन कह्या, याका नाम अभ्याख्यान वचन है। तहां ऐसा कहना जातें परस्पर युद्ध होय सो कलह वचन है। ऐसा वचन कहना सो जाकरि पराया छिपा दोष प्रगट होय सो पैशुन्य वचन है। जहाँ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनके सम्बन्ध त रहित बोलना सो असम्बद्ध प्रलाप वचन है। इन्द्रियनकौं सुखदाई जाकं सुनि रति उपजै ऐसा वचन बोलना सी रति वचन है। जाक सुनि इन्द्रिय मन कुं अरति उपजै अनिष्ट लागै सो अरति वचन है। जहाँ अति परिग्रह की आसक्तता रूप लोभ की वृद्धि लिए वचन का बोलना सो उपाधि वचन है। जहाँ व्यवहार विष ठगवे कू जुगत रूप वचन का बोलना सो निकृष्ट वचन है। जहां देव, गुरु, धर्म, व्रतादिक पूज्य स्थान तिनका अविनय रूप वचन कहना सो अपरिणति वचर है। जहां चोरन की चतुराई कला की शुश्रषा रूप वचन सो मौखर्य वचन है। जहां धर्म घातक या रहित अव्रत पोषित वचन सो मिथ्या वचन है। इनकू आदि जे अशुभ वचन सो सम्यग्दृष्टिक सहज ही हेय हैं। जो बिना प्रयोजन परस्पर बात करना सो विकथा वचन है। ता विकथा के भेद पत्रीस हैं। सी ही कहिए हैं। प्रथम नाम स्वी
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| कथा, धन कथा, भोजन कथा, राज कथा, चोर कथा, बैर कथा, पर पाखण्ड कथा, देश कथा, भाषा कथा, | गुणबन्ध कथा, देवी कथा, निष्ठर कथा, पर पैशुन्य कथा, कदप कथा, देश कालानुचित कया, भण्ड कथा, । मूर्ख कथा, आत्म-प्रशंसा कथा, पर परिवाद कया, पर जुगुप्ता कथा, पर पोड़ा कथा, कलह कथा, परिग्रह कथा, | कृष्यारम्भ कथा, सङ्गीत कथा-ए पच्चीस हैं। इनका अर्थ-जहां धारि पुरुष परस्पर बतलावना ताका नाम कथा है । सो शुभकारी वचन बतलावना, सो तो शुभ कया है। हम बिना प्रयोजन बतलाग राप बन्धकरि.काल गमावना, सो विकथा है। ताके यह पच्चीस भेद हैं। सो जहाँ परस्पर स्त्रीन के स्वरूप की, चाल की, यौवन की-इन आदिक स्त्रीन को परस्पर कथा करि, काल गमाय, पाप का बन्ध करि परमव बिगाड़े, सो स्त्री विकथा है। जहां परस्पर धन की वार्ता करना, जो धनवान धन्य हैं। धन बिना जीवन कहाँ है ? धनवान की। सब सेवा करें हैं। जगत् मैं धन हो बड़ा है। ये धन कैसे पैदा करिए ? पारस ते धन होय, रसायन तेधन होय, चिन्तामणि मिले भला धन होय है। गिरा पावै, गल्या पावै, कोऊ देवादि मिलै तौ धन जांचें। फलाने राजा के धन बहुत है। केई कहैं उस सेड के बड़ा धन है । इत्यादिक परस्पर धन की कथा करना. सो धन विकथा है। जहां परस्पर भोजन की बात करना । जो कोई कहै यह भोजन भला है वह भोजन मला है, वह व्यञ्जन मला है, वह मोजन भला बनावै है, इत्यादिक भोजन की कथा है। जहां राजान मैं काहू को बड़ाई, काहू को निन्दा। राजान के न्याय-अन्याय की बात तथा फौज की दीर्घता को तथा लघुता को कथा। ऐसे कोई राजा की निन्दा, कोई को स्तुति करि, परस्पर काल खोय बात करना, सो राज विकथा है। जहां अनेक चोरन की चतुराई की कथा। कोई चोर के पुरुषार्थ की कथा। चोरन क ऐसो दण्ड देना। वे चोर जोरावर हैं। इत्यादिक परस्पर चोरन की बात करना, सो चोर कथा है और जहां कोऊ कहै। मेरे-वाकै बैर भाव है। केई कहैं वाके-वाके
द्वेष है। याके केई वैरी हैं। कोऊ कहै. हम वाकै क्या सारे हैं ? इत्यादिक परस्पर कथा करनो, सो वैर कथा | है और जहां पराया छिपा दोष प्रगट करना। वह कहै तुं महापाखण्डो है। कोई कहै तेरे दोष मैं सब जानू हूँ
वह कहै, तोसे दुराचारी संसार मैं नाहीं। इत्यादिक परस्पर बात करना सो पर-पाखण्ड विकथा है। जहां | देशन की निन्दा-स्तुति करनी। कोई कहै यह देश मला है, वह देश भला नाहीं। उस देश में शोत-गर्मो बहुत वा
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देश मैं अन्न नाहीं होय वा देश मैं जल थोरा इत्यादिक देशन की बात करना सो देश विकथा है। जहां कु-कविन किये अनेक छन्द, कवित्त, गीत, दोहा, पहेलो, साखी, कहानी, किस्सा-इन आदि अनेक वचनबन्धान परमार्थ | रहित जिनकी कथा जो वाने रस-क्रवित्त बनाये हैं। वाने वा राजा के मले-यशरूप कवित्त किए हैं। वह बहुत किस्सा-कहानी जाने है। इत्यादिक कथा करनी सी भाषा कधा है तथा पशन के वचन जो वह सूवा भला बोले है वाकी मैना अच्छी बोले है वाकी तूती अच्छी बोले है। तीतुर, लाल, कबूतर, काक, कोयल, गर्दभ, स्वानादि अनेक पशून की भाषा-शुभाशुभ की कथा करनी सो भाषा कथा है और पसर गुण मेटने रूप उपाय राज पञ्चसमा मैं ऐसा कहै जो वाक् कहा गुण है ? वैसे तुम कुं बहुत बतावैगे। याही तें बहुत गुणी हमने देखे हैं। कई कहैं हमनें बातें भी घने गुणी देखें हैं । केई कहैं यह कहा है वामैं बड़े गुण हैं । इत्यादिक परस्पर कथा करना सो गुण बन्ध-कथा है। जहां कुदेवन का अतिशय-करामात की कथा जो केई कहूँ शीतला जागती ज्योति हैं । केई कहैं वह भैंरी प्रत्यक्ष कोई कहै वह देवो प्रत्यक्ष हैं। बेटा, धन देय है। इत्यादिक परस्पर कथा करनी सो देवी कथा है। जहां कोई कहै त महादुष्ट है। यह महापापी है। याकी मूर्खता जगत् जाने है। ऐसे परस्पर कठोर वचन बतलावना सो निष्ठुर वचन कथा है। जहां पराया बुरा करवे की बात पराई निन्दा की बात परकौं पीड़ाकारी वचन इत्यादि परस्पर कथा करनी सो पर-बैशुन्य विकथा है। जहां नाना प्रकार की श्रृङ्गार कथा जाके सुनें चित्त विकार रूप होय ऐसी कथा परस्पर करना सो श्रृङ्गार कथा है और जहां इस देश मैं यह रीति भली है यह रोति भली नाहों। वा देश मैं फलानी वस्तु अच्छी नाहों वह वस्तु अच्छी है । इत्यादिक परस्पर बतलावना सो देश कालानुचित विकथा है और जहाँ कौतूहल हांसी रूप परस्पर हर्ष-हर्ष गाली बोलना विपरीत बोलना सो भएड कथा है और जहां अविवेकी वार्ता करना सो मूर्ख विकथा है और जहां परस्पर अपने गुसन को कथा। जहां कोई कहै, अहो ! हममैं ऐसे गुण हैं । केई हैं परोपकार हमनैं कई करे हैं केई कहैं, हम बड़े मनुष्य हैं, हमसे बड़ा कोई नाही। इत्यादिक अपने-अपने गुरा की सर्व कथा करें सो आत्ल-प्रशंसा नाम कथा है। परस्पर औरन की निन्दाकारी कथा करनी सो पर-परिवाद कथा है और जहां अन्य का शरीर तथा वस्त्र मलिन देख तथा रोग-मलिन देख, ग्लानि रुप कथा करे सो दुर्गन्ध
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विकथा हैं और पर को दुखी करने की, पर के घर लटने की इन आदि औरन के आकुलताकारी कथा करना । सो पर-पीड़ा कथा है और जहां परस्पर युद्ध करने की लड़ने की कथा करनी सो कलह विकथा है। परिग्रह बधावै ( बढ़ावै ) की वार्ता परस्पर करनी सो परिग्रह कथा है और परस्पर खेती निपजने की कथा है। जो १९९ अब के मेघ मला हैं धरती हमनें बहुत जोती है। वान छोड़ दई धरती थोरी उठाई इत्यादि खेती को कथा सो कृष्यारम्भ विकथा है। जहां नाना प्रकार राग, नृत्य, गीतादिक की कथा सो सङ्गीत विकथा है। ऐसे ए पच्चीस विकथा रूप वचन हैं। सो सर्व पापकारो तजवे योग्य जानना। ऐसे शुभाशुभ वचन मैं हेय-ज्ञेय-उपादेय कया। इति वचन मैं ज्ञेय-हेय-उपादेय कथन। आगे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का स्वरूप लिखिये है
गाथा-दब्बो खेतो कालय, भायो पत्तादि भेय जिण उत्तं । गेयोपादेय हेओ सम्मोदिट्टी सोवि णादयो ॥ ३८ ॥
अर्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव-ए चारि भेद जिन दव ने कहे हैं । तिनमैं है य-वेष-उपादेय करे, सौ आत्मा सम्यग्दृष्टि जानना। भावार्थ--द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव करि वस्तुन का धारत होय है। तहां प्रथम हो दृष्य विर्षे ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिए है। समुच्चय जीव का जानना, सो ज्ञेय है। ताही ज्ञेय के दीय भेद हैं। एक हेय एक उपादेय । सो तामैं जाकू पर-द्रव्य जानिये सो हैय है। जैसे-युद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश, काल और आप आत्म तत्व भेद ज्ञान का विचारनहारा अनुभवी हेय-ज्ञेय-उपादेय का करनहारा आत्म द्रग्ध है। ता एक जात्मा के सिवाय अनन्ते जीव द्रव्य और ऐसे ही षट् ही द्रव्य हैं। सो पर-ज्ञेय जानि हेय हैं, तजवे योग्य हैं । र सर्व अपने आत्म स्वभाव से मित्र हैं तातें तजवे योग्य हैं। इनके गुण-अर्याय भी जड़ हैं, अज्ञान हैं, मूर्ति हैं, अमुर्ति हैं, तातें हेय हैं। इहा प्रश्न-जो मूर्ति तौ तजवे योग्य हैं यह हमने भो जानो। परन्तु अमूर्ति चेतना गुण सहित इनक हेय क्यों कह्या ? ताका समाधान---भो भव्य ! जो तेरे मन मैं पुद्गल द्रव्य पर है रोसी आई है तो ये भी आजाय है। तू चित्त देय सुनि। देखि पुद्गल तौ अमूर्तिक है। सो पर है हो, सो से जानी ही है। धर्म-अधर्मादि च्यारि द्रव्य अमूर्तिक तौ हैं। परन्तु चेतना रहित जड़ हैं। तात तजवे योग्य हैं तातें हेय हैं और आप स्वभाव ते अन्य जीवन के प्रदेश सत्व गुण पर्याय भित्र हैं। उनके किये राग-द्वेष भाव का फल आपकौं नहीं लागै। अपने किये राम-द्वेष का फल उन पर-जीवन कू नहों लागे । अन्य कुं सुख भर आपकू सुख नाहीं। परकुं दुख भए भापकू
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दुख नाहीं । अन्य जीवकूं मोक्ष भए आपकूं मोक्ष नाहीं तातें संसार विषै अनन्ते जीव हैं सो सर्व भिन्न-भिन्न हैं। अपने-अपने परिणाम के भोगता हैं और संसारी भोरे जीव भी ऐसी कहें हैं कि जो करेगा सो पावैगा ऐसी सर्व जगत् मैं बात प्रगट है । तातें अनेक नयन करि भी विचार देखि कि आप तैं भिन्न और अनन्ते जीव हैं । सो भी परद्रव्य जानि तजवे योग्य है । तातें हैय किये है। ऐसा समाधान जानना और भी सम्यग्दृष्टि समता रस प्रगट भरा वैराग्य बढ़ावे कूं जगत् का स्वरूप विचारें । सो द्रव्यन मैं अल्प बहुत तो ऐसे विचारें जो जीव द्रव्यन तीन गति के जीव तो बहुत हैं और मनुष्य गति के जीव द्रव्य बहुत ही धोरं हैं। तहां देव व्यारि प्रकार हैं। सो जुदे- जुदे असंख्याते हैं और नारकी सात हैं। तहां भी एक-एक मैं जीव असंख्यात हैं और तिर्यञ्च गति विर्षे जोव तथा पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजकायिक, वायुकाधिक इन सर्व में असंते असंख्याते जीव हैं । तिन सर्व तैं थोरी जीव राशि अग्रिकायिक है। सो भो असंख्यात लोकन के जेते प्रदेश होंय तेते जानना । सोई बताइए है। एक सूच्यांगुल क्षेत्र प्रमाश एक प्रदेश सूची में केते प्रदेश हैं सो सुनौं । असंख्यात सागर के जेते समय होंय ते प्रदेश जानना। एक अंगुल के क्षेत्र के ऐते प्रदेश होंय तो हाथ भर के केते प्रदेश होंय ? एक कोस के केते होय ? तौ सर्व लोक के केते होंय ? सो ऐसे-ऐसे असंख्यात लोक के जेते प्रदेश हैं तेते तेजकायिक जीव जानना । सर्व तैं थोरे हैं और इन तेजतें असंख्यात अधिक पृथ्वोकाधिक हैं। पृथ्वी तैं असंख्यात बढ़ते अपकाधिक हैं। अधिक वायुकायिक हैं वायुकायिकर्ते असंख्यात अधिक प्रत्येक वनस्पति के जीव हैं। प्रत्येकतें तथा सर्व जीव राशि अनन्तगुणे साधारण वनस्पति जीव हैं। इनही पञ्च स्थावरन मैं सूक्ष्म और बादर दोय भेद हैं। तहां आश्रय बिना उपजैं आयु अन्त बिना मरें नाहीं काहूतें रुक न सकै सो सूक्ष्म हैं। परकों रोकें परतें आप रुकें शास्त्रादिकर्ते घात पावैं सहायतें उपजैं सो बादर हैं। सो बादर चार स्थावरन मैं असंख्यात हैं। बादर असंख्यातगुणे सूक्ष्म हैं साधारण मैं बादर अनन्त हैं। तातें अनन्तगुणे सूक्ष्म साधारण हैं। वेन्द्रिय तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व तिर्यञ्चराशि असंख्यात असंख्यात है और कर्मभूमि के मनुष्य सर्व संख्यात हैं। ऐसे जीवद्रव्य अपेक्षा कथन ह्या इति द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव का स्वरू। आगे षट्कायिक जीवन के शरीरन के जाकार कहिए हैं। तहां पृथ्वीकायिक का आकार मसूर के समान है और अपकायिक का आकार जलबिन्दु
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जमान है। तोगका....... हुत सूजी के समूह समान है और पवनकायिक का शरीर प्राकार ध्वजा समान है। वनस्पति के तन का आकार अनेक प्रकार है वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवन के शरीर के आकार अनेक प्रकार हैं। इति षटकाधिक शरीराकार। आगे षटुकाधिक का आयु-कम कहिए है। तहाँ पृथ्वी के भेद दोय। एक नरम और एक कठोर। पीली मिट्टी, खड़ी मिट्टी, गेरू मिट्टो आदि ए नरम पृथ्वीकायिक हैं। याकी उत्कृष्ट आयु बारह हजार वर्ष प्रमाण है। कठोर पृथ्वी जो हीरा रतनादि पाषाण ताकी उत्कृष्ट आयु बाइस हजार वर्ष है । जल कायिक उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्ष है। अग्निकायिक को उत्कृष्ट प्रायु तीन दिन है। पवनकायिक की उत्कृष्ट आधु तीन हजार वर्ष है। वनस्पतिकायिक को उत्कृष्ट आयु दश हजार वर्ष को है। जल की जोंक, गिंडोला, लट, नारुवादि वेन्द्रिय जीवन की उत्कृष्ट प्राथु बारह वर्ष हैं। चींटी, खटमल, कुन्थुवादि तेन्द्रिय की उनचास दिन की है। चौन्द्रिय मक्खी, मौरा, टोड़ी आदि को उत्कृष्ट आयु षट मास की है और असेंनी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट आधु कोड़ पूर्व वर्ष प्रमाण सैनी पंचेन्द्रिय वि देव नारकीन की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर की है। उत्कृष्ट भोग भमियां मनुष्य तिर्यश्चन की तीन पल्य की है। कर्म भूमियों ।। मनुष्य-पशु की उत्कृष्ट आयु कोडि पूर्व वर्ष प्रमाण है। देव नारकी की जघन्य आयु दश हजार वर्ष की है। मनुष्य तिर्यञ्चन की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। इति षट्कायिक आयु। आगे षट्कायिक जीव उत्कृष्ट कर्मस्थिति केतो करें, सो कहिए है। तहाँ पञ्च स्थावर एकेन्द्रियन को उत्कृष्ट कर्म-स्थिति एक सागर जानना
और सर्व अष्ट कर्मन मैं उत्कृष्ट स्थिति दर्शनमोहनीय की जानना। वेन्द्रिय उत्कृष्ट कर्म-स्थिति बधैि तौ पचास सागर जानना और तेन्द्रिय उत्कृष्ट कर्म-स्थिति बांधै तो पचास सागर जानना और चौन्द्रिय उत्कृष्ट कर्म-स्थिति बांधै तौ सौ सागर जानना व असेनी उत्कृष्ट स्थिति हजार सागर की बांध है। संज्ञी पंचेन्द्रिय उत्कृष्ट सत्तरि । कोडाकोडि सागर कम-स्थिति बांध है। इति कर्म-स्थिति। आगे षटकायन को पंचेन्द्रिय हैं तिनके आकार कहिए है। तहां स्पर्शन इन्द्रिय शरीर है, सो शरीरन के आकार जनेक प्रकार तैसे ही स्पर्शन इन्द्रियन के भी आकार जानना और रसना इन्द्रिय का आकार गौ के खुर के समान है और नासिका इन्द्रिय का आकार तिल-फूल के आकार है और नेन इन्द्रिय का आकार मसूर की दाल समान है। श्रोत्र इन्द्रिय का आकार जव
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को नाली के आकार है। इति आकार। आगे पंचेन्द्रियन का विषय केता-केता है । सो बताइए है। तहां संझी पंचेन्द्रिय स्पर्शन, रसना, प्राण-इन तीन इन्द्रियन तै उत्कृष्ट नव-नव योजन की जानैं और नेत्र इन्द्रिय उत्कृष्ट सैतालीस हजार दोय सौ तिरेसठ योजन जाने हैं और श्रोत्र इन्द्रिय उत्कृष्ट बारह सौ पाठ योजन की जाने । इति सेनी। आगे असैनी विष-तहाँ असैनी पंचेन्द्रिय स्पर्शन इन्द्रिय तें उत्कृष्ट चौसठि सौ धनुष की जाने और रसना इन्द्रियतै उत्कृष्ट पांच सौ बारह धनुष को जानें। नासिका इन्द्रिय तें च्यारि सौ धनुष की जान और चक्षु इन्द्रिय तें गुणठि (उनसठि) योजन की जाने और श्रोत्र इन्द्रिय ते आठ हजार धनुष की जानैं। इति असैनी । प्रागे चौन्द्रिय का विषय-तहां चौन्द्रिय स्पर्शन इन्द्रिय तें बत्तीस सौ धनुष को जान और रसना इन्द्रियतें दोयसौ छप्पन धनुष की जानें। घ्राण इन्द्रिय ते दोय सौ धनुष की जाने और चक्षु इन्द्रियतें गुगतीस सौ चौवन योजन जानें। इति चौन्द्रिय । आगे तेन्द्रिय का विषय तहों तेन्द्रिय, स्पर्शन इन्द्रिय तें सोलह सौ धनुष की जान । रसना इन्द्रियतें एक सौ अठाईस धनुष की जान है। प्राण इन्द्रिय ते सौ धनुष की जानैं है। इति तेन्द्रिय । आगे वेन्द्रिय का विषय-और वेन्द्रिय स्पर्श ते पाठ सौ धनुष की जानैं और रसना इन्द्रिय तैं चौंसठि धनुष की जानैं। इति वैन्द्रिय । आगे एकेन्द्रिय का विषय-तहां एकेन्द्रिय स्पर्शन इन्द्रिय तँ च्यारि सौ धनुष की जाने । इति राकेन्द्रिय विषय। पंचेन्द्रिय का विषय कह्या। आगे एकेन्द्रिय के भेदन मैं निगोदि। सो निगोदि पञ्चस्थान हैं, ताको भोरे जीव पञ्च गोलक कहैं हैं। सो कहिए हैं। उक्त च सिद्धान्त गोम्मटसार
गाथा-अंदीवं भरहो, कोसल सादतग्घराई वा । खंघरअवासा, पुलवि सरीराणि दिट्टन्ता ॥ ३९ ॥ अर्थ-जैसे जम्बद्वीप, तामै भरतक्षेत्र, भरतमैं कौशल देश देशमैं साकेत नगर, नगर में घर । तैसे ही निगोद के पश्चगोलक हैं। स्कन्ध, अण्डर, जावास, पुलवी और शरीर-ए पश्च गोलक हैं। इनका सामान्य स्वरूप कहिर है। तहां एक सूजी की अणी ( नोंक) साधारण वनस्पति के जैते स्कन्ध आवै। तेते स्कन्ध कूले केवलज्ञानी सर्वज्ञ क पूछिए। भो प्रभो! इन विर्षे जीव संध्या कहौ। तब ज्ञानी कहैं । इस सूजी के ऊपर निगोद हैं। तामैं असंख्यात लोग प्रमाण स्कन्ध हैं। तिस एक-एक स्कन्ध में असंख्यात-असंख्यात लोक प्रमाण अण्डर हैं। एक-एक अण्डरमैं असंख्यात-असंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं। एक-एक आवास में असंख्यात
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असंख्यात लोक प्रमाण पुलवी हैं। एक-एक पुलवी मैं असंख्यात-असंख्यात लोक प्रमारा शरीर हैं। एक-एक शरीर में जातजनन्त जीव है। एक-एक शरीर मैं जाव घड़ी-घड़ी मैं अनन्त-अनन्त निकसि मोक्ष जाया करें सो ऐसे अनन्तकाल तांई मोक्ष जाया करें, तो भी एक शरीर खाली नहीं होय । तात वाका नाम अक्षय अनन्त है। ऐसे सूजी के असी प्रमाण साधारण निगोद के जीवन की दीर्घता है। रोसो निगोद तें तीन लोक भरचा है। कोई भोरे जीव ऐसा माने हैं। जो सातवें नरक के नीचे पांच गोलक हैं, तह निगोदियान का स्थान है। सो है भव्य ! हो, ऐसा नाही है। र भ्रम है। पञ्च गोलक तौ राक स्कन्ध मैं ऊपर कही, तैसे हैं। या सर्व लोक मैं || निगोदि राशि जल के घटवत् भरी है । ता निगोद के दीय भेद हैं। एक तो नित्य-निगोदि एक इतर-निगोदि है। सो अनन्तकाल से जानै व्यवहार राशि स्पर्शी हो नाहीं सो तौ नित्य-निगोद कहिरा और जै जीव निगोदि तें निकसि व्यवहार राशि च्यारि गति पाय फेरि कर्म से निगोदि मैं गया सो इतर-निगोदिया कहिए । ऐसे निगोदि
आदि पंचेन्द्रिय पर्यन्त जे जीव हैं सौ इन षट्रकायिक का उत्कृष्ट मायु तौ ऊपर कहि ही आए हैं और जघन्यमैं विशेष यता जो बहुत ही अल्प आयु कर्म षटकाय का होय तो एक श्वास के अठारहवें भाग होय। एक अन्तर्मुहत मैं उत्कृष्ट भव धरै तौ छ चासठि हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्मे और रते ही बार मरै है। सो हो विधिवार कहिए है। तहां पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पति के भेद प्रत्येक साधारण करि दोय हैं। सो एक शरीर का एक जीव स्वामी होय सो तो प्रत्येक वनस्पति है। जहां एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी होय सो साधारण वनस्पति है। तहां प्रत्येक वनस्पति का राक शरीर नाश भये एक जीव का ही घात होय । साधारण वनस्पति का एक शरीर घात होते अनन्त जीवन का घात होय है। तातें धर्मात्मा जीवनकं साधारण वनस्पति का विशेष यतन करना योग्य है। ऐसे साधारण प्रत्येक वनस्पति तिनमैं तें प्रत्येक वनस्पति लीजें । ऐसे पञ्च स्थावर के सूक्ष्म बादर करि दश भेद हैं। एक प्रत्येक वनस्पति रा सर्व ग्यारह भेद एकेन्द्रिय के भये। तिनमैं जुदे-जुदै छ हजार बारह छ हजार बारह जन्म-मरण करें तौ ग्यारह स्थान के मिलि छयाठि हजार एक सौ बत्तीस जन्म-मरण भये सो तो एकेन्द्रिय के जानना। वैन्द्रिय के अस्सो, तेन्द्रिय के साठ, चौन्द्रिय के चालीस, पंचेन्द्रिय के चौबीस तिनमैं आठ भव सैनी आठ भव असैनी के
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और पाठ मव मनुष्य के ए चौबीस पंचेन्द्रिय के। सर्व मिलि छयासठि हजार तीन सौ छत्तीस जन्म-मरण षटकायिक जीवन के होय हैं। सो सर्व जीवन मैं मनुष्य राशि अल्प है। क्षेत्र विर्षे देव नारकीन का क्षेत्र असंख्यात योजन का है और तिर्यश्च का एकेन्द्रिय अपेक्षा सर्व लोक त्रस अपेक्षा भी असंख्यात थोजन क्षेत्र है। सर्व ते अल्प क्षेत्र मनुष्य का है सो पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है। काल अपेक्षा भी देव नारकीन का आयुकाल तो असंख्यात वर्ष प्रमाण है। मनुष्य का काल थोरा है। या मैं जीवन अल्प है। भाव अपेक्षा देव, नारकी, पशु उपजने के भाव बहुत हैं। अल्प से पुण्यरूप भाव होते देव होय है और अल्प से पापन ते नरक के दुख का भोगता होय है आर आर्त-भाव ते तिर्यच होय है। सो आरति जीवक सदैव ही लगी रहै है। परन्तु मनुष्य होवे के भाव महाकठिन हैं। कोई दीर्घ पुण्य भाव नाहीं पाप भाव कोई नाहीं। मध्य भाव सरल भाव मन्द कषाय भाव व्रत सम्यक रहित भोरे सरल कोमल भाव रोसे महाकहिन भाव ते मनुष्य हो । सो ऐसे मनुष्य होने के भाव थोरे काल करि मनुष्य थोरा काल जीवे । क्षेत्र करि मनुष्य का क्षेत्र थोरा है। भाव भी मनुष्य होने के थोरे है। सो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव करि मनुष्य थोरे हैं। याका निमित्त मिलना कठिन है। तात रोसी मनुष्य पर्याय द्रव्य में झेय-हेय-उपादेय करना योग्य है। इति द्रव्यमैं ज्ञेय-हेय-उपादेय कथन। आगे क्षेत्रमैं शेय-हेय-उपादेय कहिये है। तहां शुभाशुभ क्षेत्र का जानना सो तो झेय है। ताके दोय भेद हैं एक हेय एक उपादेय। सो जिस क्षेत्र में चोर रहते होय, हिंसाधारी मद्यपायी रहते होय, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहां महाक्रोधी, मानी, मायावी, महालोभी रहते होंय सो क्षेत्र हेय है। जहाँ धर्म रहित, दुराचारी, पापी जोव रहते होय, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहां कामी-जीवन की क्रीड़ा का अप्रच्छन स्थान होय, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहां मोड़, बालक निर्लज पुरुष कौतुक करते होय इत्यादिक नेत्र जहां आपकौं पाप लाग, निन्दा आवै, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहाँ धर्मात्मा तिष्ठते हॉय, धर्म-चर्चा होतो होय तथा जिन-मन्दिर होय तथा वन, मसान, गुफा विर्षे वीतरागी मुनि विराजते होय सो क्षेत्र, तीर्थ समान उपादेय है। इत्यादिक शुभ क्षेत्र, व्यवहार नय करि उपादेय हैं और निश्चय नयत पर-द्रव्य क्षेत्र हेय हैं । अरु स्वद्रव्य क्षेत्र जो असंख्यात प्रदेशरूप, आत्माकार, ज्ञानमयी, अमतिक, पुरुषाकार आत्मा करि रोक्या जो तेत्र, सो उपादेय है। इति क्षेत्र विर्षे शेय-हेय-उपादेय। आगे काल में ज्ञेय-हेय-उपादेय बताइये है।
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तहां शुभाशुभ समुच्चय काल का जानना सो ज्ञेय है। ताके दोय भेद हैं। एक हेय है, एक उपादेय है। तहां ।। | तीर्थङ्कर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण-रा पञ्च कल्याएकन के काल हैं, सो उपादेय हैं। रा शुभ काल || २०५ हैं तथा अष्टालिका आदि बड़ी प्रभावना उत्सव के काल तथा भादवांजो आदि संधम के दिन, संवर सहित रहने के दिन तथा आठ चौदश पर्व के दिन तथा जिस दिन उपवास, एक अन्तर, बेला. तेलादि तप दिन सो यह सब काल उपादेय हैं तथा जिस समय अपनी परिणति भलो होय, शुम धर्यध्यानरूप, शास्त्र अभ्यासरूप, तपरूप, संथम शीलरूप, समता भावरूप इत्यादिक अपने मावन की विशद्धता रूप काल सो शुभकाल उपादेय है। तजवै योग्य जो खोटे पर्व होय। हिंसा का काल होय तथा जिस समय क्रोध, मान, माया, लोभ की तीव्रता होय। तीन वेदन मैं कोई वैद का दीड पट्य होय. सोसमा कालमेघ तथा कलमकारी पर्व होय, जिस पर्व का निमित्त पाय भले जीव विपरीत बुद्धि होंय। ऐसा मानें, जो आज वर्ष दिन के त्योहार का समय है। या मैं ऐसी खोटी चेष्टा होय। ऐसे पर्वकाल हेय हैं और जिस काल में कोई दया रहित कठोर परिणामो ऐसा विचारै जो अाज का बडा दिन है। यामैं जीव घात किये बडा पुण्य होय है। आगे बड़े करते आये है। ऐसी जानि तिस दिन पापरू परिणमैं, सो काल हेय है। कोई ज्ञान धन रहित भोरे जीव ऐसा मान, जो आज का दिन-मास मला है। इन दिनों में नदी, सरोवर, वायीन मैं जाय, जनगाले जल मैं सान करै तो बड़ा पुरघ है तथा वृक्षन मैं लाय जल डारिए तौ पुण्य होय, ऐसी क्रिया करना जिन दिनों में कही होय, सो पर्व हेय है। कई मिथ्या रस भीजे जीव ऐसा समझे हैं। जो या पर्व मैं वनस्पति काटिये. छेदिये, पता-फूल तोड़ि देवादिक कौ चढ़ाईये, तो बड़ा पुण्य होय। रोसे पर्व काल भी हेय हैं केतक भोरे जीव ऐसा माने हैं, जो आज दिन र पर्व ऐसा है, इन दिनों मैं अपने घर का भोजन नहीं खाईये । घर के वस्त्र नहीं पहरिथे। परतें भीख मांग के खाइये व वस्त्र पहरिये, तौ भला फल होय, रोसे पर्व-काल भी हेय है तथा जगत, अज्ञान दुख करि भरचा ऐसा मानें हैं। जो कोई व्यन्तरादि देवता तथा कोऊ कुगुरु आदिक के चमत्कार का दिन जानि कहैं, जो फलाने की तीर्थ-यात्रा का । काल है । इत्यादिक काल सम्यग्दृष्टि तें सहज ही हेय है तथा पाँचौं-छठा काल की प्रवृत्ति हेय है। इत्यादिक पापकारी धर्म-रहित दिन-पर्व-काल सो हेय है, तजवे योग्य हैं। इति काल विबै क्षेध-हेय-उपादेय कथन । आगे
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भाव विर्षे ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिये है। तहाँ शुभाशम भावना का समुच्चय जानना, सो नेश भाव है। ताही झंय के दोय भेद हैं। काभ-गह गक अशुभ-भाव । तहां क्रोच-भाव, मान-भाव, माया-भाव, लोम-भाव, || २०६ सनव्यसन-भाव, धूत-भाव, अमक्ष्य-भक्षण-भाव, सुरापान-भाव, वेश्यागमन-भाव, पापार्घ जो जीव हिंसा-भाव, पर-द्रव्यादि हरण जो-चौर-भाव पर-स्त्रीनसंग-कुशील-भाव, धर्म-घातक-भाव इत्यादिक कु-भाव तजवे योग्य हेय हैं। व्रत भजन-भाव, तप-शील-संघम दया-मार्ग के मान-भाव, पाखण्ड-भाव इत्यादिक दुराचारभाव हैं, सो विवेको जीवन करि तजवे योग्य हैं। इति हेय-भाव। आगे उपादेय भाव-तहां ऊपरि कहै जो कु-भाव तिनतँ विपरीत माव जो तप-भाव, दान-भाव, शील-भाव, पूजा-माव पर-वस्तु त्याग रूप जेसन्तोष-भाव, वीतराग-भाव, शुद्धोपयोग-भाव, तीर्थ-वन्दनारूप-भाव, करुणा-भाव, सर्वहित-भाव, सर्व जीवतें मैत्री-भाव, गुणीते प्रमोद-भाव, माध्यस्थ-भाव सो जहां दुखित दीन जीव, दरिद्री रोगी इत्यादिक कू देखि कोमल-भाव रावना, सो करुणा-भाव है और सर्व जीवन कं आप समान जानि सर्व की रक्षा करनी सो मैत्री-भाव है और भापत गुणाधिक क देखि हर्ष उपजना, सो प्रमोद-भाव है और पापी, पाखण्डी. दुराचारी, धर्म-द्रोही, अन्याई, कृतघ्री, स्वामी-द्रोही. मित्र-द्रोही, विश्वासवाती इत्यादि दुष्ट जीवकू देखि, राग-भावद्वेष-भाव नहीं करना, सो माध्यस्थ-भाव है। विनय-भाव, प्रभावना देखि प्रभावना करवं रूप भाव इत्यादिक शुभ-भाव हैं । सो विवेकी पुरुष की उपादेय हैं तथा सम्यग्दृष्टिन के सहज ही उपादेय हैं । इति भाव । ऐसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव करि, भेदन मैं हेय-उपादेय कथन। आगे तप विष ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिर है। ___ गाथा-पणमग्गि आदि कुतव द्वादश तवोय कम्म पगवज्जो । चउ गई हेउ कुतको सुह तयजीव स्वखु पादेओ ॥ ४०॥
अर्थ-तहां पञ्चाग्नि आदि संसार कारण, कु-तप हैं और अनशनादि बारह तय सु-तप हैं, सो कर्म | पर्वतन कौं वज्र समान हैं । तारौं जे हिंसा सहित, जीव घातक तप हैं, सो तजवे योग्य हैं और दया सहित, जीव रक्षाकारी सु-तप उपादेय हैं। भावार्थ-1प मैदन मैं समुच्चय तर का जानना सो तो ज्ञेय है। ताही के दोय मेद हैं। एक हेय तप और एक उपादेय तप । तहां पंचाग्नि वतन के नख केश बढ़ावना तप सो कु-तप हेय है। ऊर्व मुख तप भूमि गड़ना तप, तरु झलना तप, भोजन सहित उपवास मानना तप, दिन को अन्न
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तजि रात्रि-भोजन सहित तय, रा कु-तय हैं, सो हेय हैं कु-देवन के साधनक कु-तप सो हेय हैं तथा पुत्र, धन, स्त्री इन आदिक अभिलाषा सहित तथा शत्रु के नाश के अर्थ तय ये कु-तय हैं हेय हैं जोवतही अग्नि में प्रवेश । करि जल मरण तप अन्न तजि वनस्पति फल, फूल, पत्ता, दूध, दही, मठा'इत्यादि का भक्षण तप इन्द्रिय का छेदन करि तामैं लोह की कड़ी-सांकल नाथना तप नोचा शिर ऊर्च पांव करि तपना शोश पै अग्नि धारण तप, शीशपै तथा हस्त शिला धारण तप, र सर्व कु-तप हैं शस्त्रधारा त मरना जलधारा में प्रवेश करि मरण तप तथा चाम टाट घास रोम के वस्त्र रख राक्षस तप करना इत्यादिक र सर्व कु-तप हेय हैं। । इति कु-तप । आगे सु-तप कहैं हैं। जिस तप के करते स्वर्ग-मोक्ष होय, सो शुभ तप है। ताके बारह भेद | हैं। तिनमैं षट् बाह्य व षट अभ्यन्तर के हैं। सो तहां अनशन, अबमोदर्य, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, | विविक्तशय्यासन, कायक्लेश-र पट बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वेयानन, स्वाध्याय, व्युतसर्ग और ध्यान- पटना पह। अब सबर्बान का सामान्य अर्थ कहिये है-तहां वर्ष षट् मास, चौमास. पक्ष, पञ्च दिन,दो दिन, एक दिन इत्यादिक उपवास करना, सो अनशन-तप है।श भखत प्राधा चौथाई तथा कछु घाटि खाना, सो अवमोदर्थ-तप है। २। रोज के रोज षटरसन मैं तें कोई राक-दो, च्यारि रसन का त्याग, सो रसपरित्याग-तप है ।३। जो रोजि के रोजि खान-पान का प्रमाण तथा और मोग-उपभोग योग्य जे सर्व वस्तु तिनका प्रमाण करना, सो वन-परिसंख्यान-नाम-तय है। ४। और जहां तिष्ठे, तहां स्थान की शुद्धता करि तिष्ठं शून्यएकान्त ऐसे स्थान को देखें जहां संयम की विराधना न हो, सो विविक्त-शय्यासन-तप है । ५। अन्तरङ्गको विशुद्धता बढ़वेकं बाह्य तनकौं जैसे कष्ट होय सी ही निमित्त मिलावना, सो कायक्लेश-तय है ।६। र षट् तपकौं । बाह्य कहैं। इनकं करें तब औरकौं जान्या परै जो याके तप है तातें बाह्य तप कहिये और जहां अपने तप-चारित्रकू तथा षट् आवश्यककौं तथा मूलगुणन इत्यादिक अपने मुनि-धर्म कौ कोई अतीचार लागा जान । तो गुरु के पास
अपने अन्तरङ्ग का दोष जाकू और कोई नहीं जानें ऐसा छिपा दोष ताकौं धर्म का लोभी गुरुन प्रकाशै। पीछे २०७। गुरु का दिया दण्ड लेय लगे दोषको शुद्ध करै, सो प्रायश्चित्त-तप है। ता प्रायश्चित्त के दश भैद हैं, सो कहिये
हैं। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, धुतसर्ग,तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान-ए दश भेद हैं । अब
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इनका विशेष—जहां प्रमादवशाय अपने मुनि-पदकं दोष लाग्या जानि उर विष आलोचना कर तथा गुरु के पास जाय प्रकाशे पापते भय स्वाय जैसे आपको दोष लागा होय तैसे ही मन-वचन-काय की सरलता सहित जिस
जिस विधित दोष लागा होय तिस विधि से आप गुरुन के पास कहै । तब सहज ही लाग्या पाप नाश होय । इनके टि परिखामन की सरलता तें निर्दोष संयम होय, दोष नाशै सो आलोचना प्रायश्चित्त है। केतक पाप ऐसे हैं जिनका
दण्ड पालोचना ही है। आलोचना हो ते दोष मिटै। जैसे-लौकिक मैं काह का बिगाड़ किसी से भया होय । तौ, जाय धनी तें कहै जो मेरे प्रमाद तैं भलिकर आपका विगाड मोत भया। अब आपकी इच्छा सो करौं। मोत भूलि भई आप बड़े हो नीकी जानौ सो करौ। रोसे कहे तो धनी याक सरल जानि यात द्वेष नाहीं करै दिलासा दे सोख देय । दोष दूर होय तैसे बालोचना शुद्रभाव नै रिका दोष जा हैं!जहां अपने चरित्र को दोष लाग्या जानि आप मन में बहुत पछतावै। अपनी निन्दा-गर्दा कर तो दोष दूर होय। जैसे—लौकिक मैं काहूर्त पंचन को चूक मई होय तो वह जाय पंचन पै सरल-दीन होय कहै। जो मोर्चे चूक भई आगे से मैं ऐसी कबहूं । नहीं करूँ। अब पंचन की आज्ञा होय सो मोकौ कवल है। रोसे कहते पंच याकं सरल जानि दोष माफ करें।
तेसे ही केतक दोष ऐसे हैं जो निन्दा-गर्दा किये जांय हैं। सो प्रतिक्रमण आलोचना है ।२। जहां अपने चरित्रकों है कोई दोष लागा जानैं तो गुरु के पास भी कहै अरु बारम्बार आलोचना अपनी निन्दा-गर्दा भी करें तो दोष मिट्ट। केतक दोष ऐसे हैं जो लौकिक मैं काह का बिनाड रूप काहतें भल होय गयो होय तौ धनी पे जाय कहै जो मैं आपके पास आया हो आपका कार्य मोते का बिगड्या है मैं महामूर्ख मेरे कर्तव्य का निमित्त देखो। आप बड़े हो। जैसे-भला होय सो करो। मैं तो मल्या हौं। ऐसे कहै तौ धनी याक निश्शल्य जानि-भला मनुष्य जानि दोष क्षमा करें। तैसे हो केक दोष रोसे हैं। सो तिनके मेटवे को गुरु पास भी अपना दोष प्रकाशै अरु , अपनी निन्दा-गर्दा भी करें। याका नाम तदुमय प्रायश्चित है ।३। जहाँ आप कोई वस्तुकरि दोष लाग्या होय पीछे ताकी यादि भरा वाके दुर करवे को जा वस्तु ते दोष लागा था ता वस्तु ही का त्याग करें, तब दोष दूर होय । जैसे—लौकिक मैं कोई भलिक किसी मार्ग राजगृह मैं जाय पड्या तहां पकड्या। कही चोर है, मारो। । तब यानें कही मुलिक इस राह आया हौं, चोर नाहीं। अब कचहुँ इस राह नहीं आऊँगा, मोहि तजौ। तब राजा
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के सेवकों ने याकी शद्ध जानि तज्या। अरु कही अबके बच्या है। अब इस राह आये मारचा जायगा।।
या कहिकै छोड़या दोष मिट्या तथा कोई रोगोकं घृत मर्ने था सो वान लोभकरि घृत खाया तब रोग दीर्घ । मया । तब वैद्यनै कही ते घृत खाघा तातै रोग बया । तेरे घृततें राग बहुत तातै रोग मिटता नाहीं । तब रोगी
२०९ | आप घृतत महादुख होना जानिके जीवन लौ घृत का ही त्याग किया तब वैद्यनैं याकं सुखी किया। तैसे
केतेक दोष ऐसे हैं जो जिस वस्तु के मोहर्ते दोष लागे, ता वस्तु का ही त्याग करे तब दोष मिट है, यह विवेक-प्रायश्चित्त है। जहां मुनीश्वर अपनें चारित्रको दोष लागा जानें, तौ ताके दुर करवेकौं कायोत्सर्ग | करें। तहां पंचपरमेष्ठी की स्तुति व अपनी आलोचनादि करें, तब दोष मिटै। जैसे-लौकिक मैं कोऊ आप मैं दोष लागा होय, ताहि जानि पश्चन मैं खड़ा होय हाथ जोड़ि कहै मोतें भूल भई, तुम बड़े हो रोसे पंचन को स्तुति अपनी दीनता करी। तब पंच याकौं सरल जानि चूक माफ करि शुद्ध करें। तैसे केतक दोष ऐसे हैं, जो कायोत्सर्ग करें तथा आलोचना किए नाश जाय सो व्युत्सर्ग-प्रायश्चित्त कहिये । ५। जहां यति अनेक उपवास धुरन्धर तप करनहारा वीतरागी तप करतें कोई प्रमादवशाय अपने तप कौं दोष लागा जानि याद करि आचार्यन चै कहै। तब गुरु याकौं कोई यथायोग्य प्रायश्चित्त देंय, सो यह मुनीश्वर का दिया प्रायश्चित्त ताहि महाविनय सहित लेय, तब दोष दूर होय । जैसे—लौकिकमैं काहमैं कोई चूक परे । तब थोरा-बहुत द्रव्य लगाय चेत कराय शुद्ध करें। तातें केतेक दोष ऐसे हैं, जिनमें आचार्य प्रायश्चित्त तय बतावै हैं । ताही प्रमाण तप धारण करै तब शुद्ध होय । सो याका नाम तप-प्रायश्चित्त है।६। जहाँ कोई बहुत । दिन के दीतित बड़े तपसी तिनकू प्रमादवशाय कोई दोष लागै, तब याद करि आचार्यकू कहैं। तब गुरु ।। इनकी दोक्षा मैं केतैक दिन छेद ना । दीक्षा के दिन घटाय शुद्ध करें। जैसे-लौकिक मैं काहू मैं चूक पड़े, तब पंच वाकै पासतें केतेक दिन की कमाई का धन खर्चाय, वाके घरतें धन घटाय निर्धन करें। जागे ते रोसा काम फेरि नाही करै । तैसे ही कैतेक दोष ऐसे हैं जिनके प्रायश्चित्त में दीक्षा दिन घटावें। जैसे-|| पांच सौ वर्ष तप करया होय तो दोय सौ पचास वर्ष यथायोग्य घटावे, तब शुद्ध होय याका नाम घेद-|| प्रायश्चित्त है। ७। कोई मुनिकौं मान के योगतै दोष लागा होय तथा कोई मुनि धर्मकं तजि खोटा मार्ग
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सेवन करथा होय इत्यादिक बड़ा पाप किया होय पीछे आप गुरूप कहै तौ आचार्य याकी सर्व दीक्षा छर्दै। नये सिरेते दीक्षा देय तब शुद्ध होय । जैसे-लौकिक मैं कोईको भारी दोष लागै तौ ताकौ सर्व घर-मालधन लटै रङ्ग समान करि डारै तब शद्ध होय अब नये सिरेते कमावो तब खायो-इकद्रा करो। तैसे केतेक दोष ऐसे हैं जो आचार्य याका दीक्षा धन सर्व छदै गृहस्थ समान असंयमी कर नये सिरतें दीक्षा देंय तब निर्दोष शुद्ध होय । याका नाम मूल-प्रायश्चित्त है ।८। और नवाँ परिहार प्रायश्चित्त है। ताके दोष भेद हैं। एक तो अनुपस्थापन एक पारंचिक। तहां अनुपस्थापन के भेद दो। एक निज गरास्थापन एक परगणस्थापन । तहां शिष्यमैं प्रायश्चित्त मये आचार्य शिष्यकौं अपने ही संघमैं राखै सो निजगणस्थापन प्रायश्चित्त है और शिष्य मैं चुक भए संघरौं काहि देंय. पर संघ मैं राखें। जैसे-लौकिक मैं भी काहू मैं कोऊ चूक भए राज-पंच अपने नगर निकासि देय पराए देश मैं राखें। शुद्ध भए बुलावें। तैसे संघ काढ़ि परगण में राखि शुद्ध करें। ऐसे केतक दोष हैं आचार्य जिनमें यह दण्ड देय शद्ध करें हैं सो परगणस्थापन प्रायश्चित्त है। इनमैं निजगणस्थापन उत्तम है और परगणस्थापन बहुत मानभङ्गका कारण है। तातें महासखत है। सो यह उत्कृष्ट दण्ड कौन-सा है और कौन गुनाह पै कौन मुनिक होय सो कहिए है। उक्त च आचार सार ग्रन्थे--
श्लोक-द्वादशाब्देषु षण्मास, पामासानसनंमतम् जघन्ये पञ्च पञ्चोपवास, मध्यात्तु मन्यमम् ॥ १॥ ____ अर्थ-जहां कोई शिष्यपै उत्कृष्ट दण्ड देय, तो षट-षट मासके उपवास उससे बारह वर्ष पर्यन्त करवावें
और जघन्य दण्ड देय, तौ पंच-पंच उपवास बारह वर्ष लौं करावें। मध्यम दण्ड देय तो उत्कृष्ट और जघन्य के मध्य में यथायोग्य उपवास करवावें और जिनको ऐसे भारी दराड होंय सो संघ मैं कैसे रहैं ? सो कहिये है। ऐसा दण्ड होय तिस शिष्यकों आचार्य को रोसो आज्ञा होय जो संघत बत्तीस धनुष अन्तर तें तौ रहो। सर्व संघको नमस्कार करो। संघ के मुनि ताकी पिछान नमस्कार नहीं करें। ताका दोष जगत् मैं प्रगट करवैकों ऐसी आज्ञा होय, जो पीछी उल्टी राखौ। मौनते रहो, कोई मुनि श्रावकतें बोले नाहीं। कदाचित् बोले हो, तौ
संघनाथ-आचार्य-अपना गुरु तातें बोलें, नहीं तो मोनि रहै। ऐसा दण्ड रीसी चूक भरा होय, जो काहू मुनिने ! कोई मुनि का शिष्य फुसलाय हर ले गया होय तथा कोई मुनि की पीछी, कमण्डल, पुस्तकादि हर या होय तथा
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कोई श्रावक का पुत्र रतन, स्त्री, सुवर्णादिक हरे होंय तथा कोई मुनि श्रावक का चेतन-अचेतन परिग्रह हरया | होय तथा याक आदि और अन्याय कार्य, मुनि-धर्म का भअक- असंघम सेवन करचा होय, तिस मुनिको । ऊपरि कहे दण्ड होय है। ऐसे दण्ड कौन-सी शक्ति वारं कूं हाय, सो कहिये हैं । जे मुनि महाज्ञानी, दस पूर्व के पाठी होय, हीन ज्ञानीन तैं दीर्घ दण्ड की सामर्थ्य नाहीं । जैसे—बहुत कटुक भेषज स्थानै पुरुष हो पीवैं और बालक ज्ञान नहीं पाई जाय, यह कड़वी औषधि के गुण नाहीं जानें। तैसे अज्ञानी शिष्य, गुरु के दिये तैं दीर्घ काम ना जानें। तातें महान् ज्ञानोकौं होय है। वज्र-वृषभ-नाराच संहनन आदि तीन संहनन का धारी होय, हीन-शक्तिकों नाहीं होय, दीर्घ शक्तिमानक होय। क्योंकि जो आचार्य महादयालु, जगत्-त्रल्लभ सर्व के मात-पिता, सर्व के हित वांधिक हैं। सो जैसे— शिष्य का भला होता जानें, सो ही प्रायश्चित्त देय। कोई शिष्य द्वेष भाव नाहीं । अपनी मान-बड़ाई नाहीं । जैसे- शिष्यन का पाप क्षय होय, निरतिचार संयम तैं स्वर्गमोहोय, सो ही करें हैं। जैसे—कोई परोपकारी वैद्य, अनेक रोगोनकों कोई कारण खान-पान मनें करें है, काहू कूं लंघन करावे है, काहू कूं कटुक भेषण देय है। सो रोगीन तैं द्वेष नाहीं, उनके सुख हेतु बतावें है। तैसे आचार्यन का दण्ड जानना । वह धर्मात्मा शिष्य गुरु का दिया दण्ड महाविनय तैं आदर करि लेय, सो निजगण-स्थापन प्रायश्चित है। पर-गण-स्थापन ताक होय, जो आचार्य का दिया दण्ड महामद सहित अङ्गीकार करें। ताक आचार्य संघ तैं काढ़ि दें। जैसे— लौकिक मांहि जो कोई राजा का आज्ञा नहीं मानें, तौ राजा ताक अपने देश नगर तैं निकासे तैसे आज्ञा प्रतिकूल शिष्य कूं संघ निकासि देंख तथा मानी शिष्यकं और संघमैं खिदाय, शुद्ध करें। जैसे- लौकिक मैं अपना पुत्र घर की दुकान सोखे नाहीं तो ताक पर की दूकानपै राखि, गुणवान करि शुद्ध करें। तैसे हो शिष्य का भला जैसे होता जाने, तैसे हो भला करें। ए पर गए स्थापन प्रायश्चित्त कहिये तथा कोई शिष्य गुरुपै मद सहित प्रायश्चित्त याचे, तौ आचार्य शिष्यक मद सहित प्रायश्चित्त याचता देखि, ऐसा कहैं। तुम फलाने आचार्य पै जावो वह तुमकों प्रायश्चित्त देंगे। तब शिष्य गुरु की आज्ञा पाय और आचार्य के पास जाय प्रायश्चित्त याचै। तब वह आचार्य शिष्यक मद दोष सहित जानि ऐसी कहैं तुम अपने ही गुरु पै याचो । तब शिष्य अनादर जानि पोछा अपने गुरु में आवै । प्रायश्चित्त याचै। तब गुरु और
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भाचार्य के पास फिराव तब वह भी दण्ड नहीं देय फिर अपने ही गुरु आवै। ऐसे सात संघमैं सात आचार्शन के पास खिदावै। कोई भी यानी शिष्यकों दण्ड नहीं देंय तब यो अपने गुरु पास आय मान तजि सरल होय कह मौका प्रायश्चित दहा रायगुरुपाकी विनय सहित देखि निःशल्य प्रायश्चित्त याचता देखि प्रायश्चित्त देय शुद्ध करें। इत्यादिक र अनुपस्थान के भेद जानना। आगे पारंचिक प्रायश्चित्त का स्वरूप कहिर है। जानै मुनि, अणिका, श्रावक, श्राविका–इन च्यारि संघ कं उपद्रव किया होय तथा कोई पृथ्वी के राजात द्वेष-भाव किया होय तथा जात काहू स्त्री तें कुशील सेवनादि अन्याय मार्ग का दोष लागा होय। तिस मुनि कं बड़े दण्ड होय। जैसे-ऊपर उत्कृष्ट दण्ड कहै सो होय । पीछे धर्म रहित क्षेत्रन मैं राख और सर्व लोकनको ऐसा जनार्दै जो ए मुनि महापाय के करनहारे हैं। बड़े पापी हैं तात आचार्यनै संघते इनकों काढि दिये हैं। संघ बाहिर किया है। ऐसा दीर्घ दण्ड अपमान का कारण लोकनिन्द्य ता दण्ड कू पायकै यह धर्मात्मा शिष्य हर्ष सहित परिणति राखि गुरु की आज्ञा प्रमाण प्रवर्ते है । कैसा है शिष्य महावैराग्य करि सर्व अङ्ग भरया है ? बड़ी शक्ति का धारी ज्ञान का भण्डार गुरु के दिए प्रायश्चित्त कं पाय बढ्या है बहु हर्ष जाकै, सो रोसा आचार्य का दिया दण्ड पाय रोसा विचारे, जो आज का दिन धन्य है। जो आचार्या हमकौं प्रायश्चित्त देय, शुद्ध कर हैं। हमारे पाप दूर करवै का इलाज बताया है। सो अब हम गुरु के प्रसाद तैं पापक मैटि. मोक्ष चलेंगे। रा गुरु धन्य हैं। ऐसा हर्ष सहित प्रायश्चित्त लेय। ऐसे शिष्यन कं रोसे दण्ड होय हैं। ऐसे पारंचिक प्रायश्चित्त जानना। जैसेलौकिक मैं राजा दीर्घ दण्डवारे को लोक के जनावैको, सर्व नगर मैं फेरैं। सर्वकं रोसा कहैं जो यह राजा का गुनहगार है। याने ऐसा निन्द्य कार्य किया था, सो ऐसा दण्ड पाया है। तैसे हो केतक पाप ऐसे हैं जो रौसा दोध दण्ड भए हो शुद्ध होय है, याका नाम परिहार प्रायश्चित्त है। कोई शिष्य ने जिन-आज्ञा लोप, मिथ्यामार्ग, सेया होय, तो गुरु ता शिष्य की सर्व दीक्षा घेद नवीन दीक्षा देंय, तब शुद्ध होय । जैसे—लौकिक मैं काहू मैं अपना कुल-कर्म तजि, कोई नीच-कर्म किया होय । तौ राज-पंच दाका घर लटि लेंय। सो केतक दोष रोसे हैं, सो सर्व दीक्षा घेद, नवीन दीक्षा देय, छेदोपस्थापन करावे तब शुद्ध होय। याका नाम उपस्थापन प्रायश्चित्त है। ऐसे प्रायश्चित्त के दश भेद कहे। अपना लाग्या दोष कं याद करि प्रायश्चित्त लेय शुद्ध होय, सो प्रायश्चित्त-तप
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है।७। और आपतें गुणाधिक का विनय, सो विनय च्यारि भेद है। सो ही कहिए है। प्रथम नाम-ज्ञान-विनय, ।। दर्शन-विनय, चारित्र-विनय और उपचार-विनय। इनका सामान्य अर्थ---तहां विनय शास्त्र वाचना, विनयते । । शास्त्र का सुनना और पद, विनतो, पाठ, स्तुति पढ़ना, सो विनय तें तथा शास्त्र लिखना-लिखवाना, सो विनय ते ।। तथा शास्त्र के मनोज्ञानना कति हर्ष माला, पालिका शान-विनष्ट है ' अपने दृढ़ श्रद्धानकू भलीभांति पालना, ता सम्यक कं पच्चीस दोष नहीं लागवे देय। राजा पश्च कुटुम्बादि व्यतिरादि देवन की शङ्का छोड़ि निःश होय अपने जिन-भाषित-तत्त्वनि का श्रद्धान दृढ़ रखना, सो दर्शन-विनय है।२। जहाँ पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति---इन तेरह प्रकार चारिन कू विनय सहित पालना तथा इन चारित्रों के धारक मुनोन का विनय सो चारित्र का विनय है तथा चारित्र की तथा चारित्र के धारक की बारम्बार प्रशंसा-स्तुति करना, सो चारित्र-विनय है। ३। जहां यथायोग्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव देख सर्व का विनय करना, सो उपचार-विनय है । तहां उपचार विनय के दोय भेद हैं। एक धर्म सम्बन्धी विनय, एक कम सम्बन्धी विनय । जहाँ देव, धर्म, गुरु, तीर्थ, चारित्र, तप और व्रत को पूजा-स्तुति-प्रशंसा करना, सो धर्म-उपचार-विनय है तथा पञ्चपरमेष्ठी सम्मेदशिखरजी आदि सिद्ध क्षेत्र अष्टाहिका आदि शुभकाल सर्व जीव के हितभाव धर्म-शुक्लभाव र सर्व धर्म सम्बन्धी
द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव हैं । सो इनकी अष्ट द्रव्य से पूजा-स्तुति करनी सो धर्म सम्बन्धी विनय है। राज पंच माता| पिता व्यवहार गुरु जाते लाभ भया होय तथा उम्र करि बड़े तिनका यथायोग्य विनय सो उपचार-विनय है।। मुनि, अणिका, श्रावक, श्राविका—इन च्यारि प्रकार संघ के धर्मात्मा जीवन कुं तनमैं खेद देख तिनके पांव
दावना, यतन करना, शुश्रूषा करना, सो वैधावृत्य-तप है।६। स्वाध्याय जो शास्त्र वांचना, प्रश्न करना औरनक || जिन-धर्म का उपदेश करना और बारम्बार तस्वन का विवार सून्या जो गुरु मुखतें उपदेश ताका बारम्बार
चिन्तन तथा जिन-आज्ञा प्रमाण श्रद्धानरूप मावन की प्रवृत्ति र पञ्च भेद स्वाध्याय हैं। जहां आत्महित क निराकुल चिन्तन करवे कूतावन का ज्ञान बढ़ाव के कषायन का बल तोरवे क शान्तिरस पीववेक भेद-ज्ञान विचारवे कू स्व-स्वभाव विष मगन होवे क शास्त्राभ्यास करना, सो स्वाध्याय-तय है तथा तत्वन मैं कोई प्रकार सन्देह हो तो ताके मेटवे कं प्रश्न करना तथा अनेकनय का ज्ञान बढ़ावे कौ अनेक युक्ति सहित तत्त्व
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भेदन का प्रश्न विशेष ज्ञानीनत करना, 'सो स्वाध्याय है। जहां जिन भाषित तत्त्वन की प्रतीति करना कि जो li जिनदेव ने कहा है सो प्रमाण है। वही पिन-अज्ञा-प्रभास श्रद्धान का करना। ताही आगम प्रमाण आप रहना ।
सो आम्नाय भेद स्वाध्याय है। जहां भव्य जीतनकं मोक्षमार्ग होवे क परभव सुधारवे कू संसार दुख मेटवे कू तत्त्वज्ञान बढ़ावे कं आत्मिक ज्ञान की प्राप्ति होवे कू परोपकार परिणति करि और जीवन क धर्म का उपदेश देना, सो धर्मोपदेश स्वाध्याय है। अङ्गीकार किया उपदेश ताकौ चलते-बैठते-सोवते सदैव चिन्तन करि सांसारिक पदार्थन का यथावत् चिन्तन करना। संसार दशा कू अथिर विचारना तथा इस जोव कं मरण समय कोई शरण नाहीं। माता-पिता, मन्त्र-मन्त्र-जन्त्र, देव, इन्द्र, व्यन्तरादिक कोई याकों शरण नाहीं। याके शरण याके सहाथ कोई नहीं है। ऐसे अनेक नयन करि वस्तु कू अशरण जानि चिन्तन करना, सो अशरण चिन्तन है। संसार षट इन्धन करि भर या ता विर्षे जीव पर-वस्तु • मोहभाव कर अपनी मानता ता.वि. रति भाव मानता, सो संसार भाव चिन्तन है। संसार मैं र जीव अनादिकाल का च्यारि गति मैं भ्रमण करता सुख-दुख का भोगता होय है । सो राकला आत्मा ही है। कोई नाहीं। जब जीव अपने शुभ भाव करि देव होय तब नाना सुख का भौगता एकला ही होय है। जब अपने पाप भाव करि जीव नरक जाय है। तब दुख भी एकला ही भोगवै है। तिर्यंच-मनुष्य विौं भी प्रसिद्ध दीखे ही है। जब इस प्राणीको पाप उदयतें तीव्र दुक्ख होय है। तो सर्व कुटाब-जन देखा ही करें हैं। ये ही पड़या विलाप करें है। कोऊ बटाबता नाहों। च्यारि गति के दुख-सुख एकला आत्मा ही भोगवे है ऐसा चित्त मैं विचारै, सो एकत्व-भाव चिन्तन है। संसार मैं जेते पदार्थ हैं तेते कोई काहूतें मिलता नाहीं। सर्व अपने-अपने स्वभाव करि अन्य-अन्य हैं । ऐसा विचार होय सो अन्यत्व-भाव-चिन्तन है। शरीर अशुचि पुद्गल पिण्डमग्री अपावन सप्तधातु का मन्दिर ग्लानि का स्थान ता विर्ष निर्मल आत्मा अमूर्तिक ज्ञानमयी कर्मवश तें एक-मेक दीसे है; परन्तु अपने चैतन्ध भावकं नहीं तजै । यहाँ प्रश्न—जा शरीरको ऐसा ग्लानि का स्थान बताय कथन किया सो यामैं ज्ञान की कहा महत्वता भई ? अरु शरीर कू ऐसा ग्लानि रूप श्रद्धान करे तो श्रोतान के कषायन की क्या समानता भई ? यामैं तो एक दुरगच्छा नाम कर्म और बन्ध्या। दुरगंच्छा प्रगट भये सम्यग्दर्शन कं मलिनता मावेगी। तातै शरीर त ग्लानि मैं तो कुछ नफा नहीं भास है? ताका
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समाधान भी भव्य ! जैसे -कोई मनुष्य शीतांग में डूबि रहा होय ताक कोई ओषधि लगता नाहीं जानि मला वंद्य होय सी तिस रोगीक ज्वर को आताप बढ़ावे का उपाय करे। सो रीसा विचारै जो या रोगी का आयु-कर्म । है अरु रोग जानेवाला है तौ उवर बढ़ेगा। मरन होना है तो शीतांग मिटैगा नाहों मेरी ओषधि वृथा जायगी। । २१५ तैसे यह संसारी जीव अनादि मिथ्यात शीतांग मैं डूनि रह्या है। सो कोई उपाय नाहीं। तातें हमने दुरगच्छाररूपी ज्वर की आताप बढ़ावे की यह उपाय किया है। सो हे भव्य ! जो तेरे तन” अनादि एकता के मोह तें अपनपा मानि शरीर मैं मगनता भई ताके पोषवेक तं अनेक मिध्यात्त्व कार्य करें है। अरु जब तेरे शरीरतें मोह बुद्धि टूटि या सप्तधातुमयी फासै तौ चेतन भाव तै प्रोति आवै सम्यक होय। तात हमने शरीरनै दुरगंच्छा उपजावेत अशुचि भावना का कथन किया है। सो जब शरीर से दुरगंच्छा होय तौ हमारा उपाय सिद्ध होय । तनर्ते भिन्न जानतें अनादि मिथ्यात्व शोतांग मिटै मोक्ष होवे की आशा बढ़े। तातै श कथन जानना। रोसा तेरे प्रश्न का उत्तर है। तात अशुचि भावना का चिन्तन है और जीव राग-द्वेष भाव करि मिथ्यात्त्व अविरत योग कषाय इनके निमित्तकौं पाप-कर्म आस्रव कर है। सो रोसे विचार का करना, सो जासवानुचिन्तन है। जहां आसव भाव रोकिरा, सो सम्वर है। सो मिथ्यात्व आस्रव रोककै तौ सम्यक होय। अव्रत-भाव रोकके व्रत-भाव होय और योगिन की अशुभता मेटि शुभता होय कषाय मेटि वीतराग भाव होय। ऐसे करि मोह मन्द करि राग-द्वेष भाव निवारना भासत्र रोकि संवर करना, सो संवरानुचिन्तन है और विशुद्ध भावना करि सत्ता कर्मन • खेरि असाव रुप करना, सो निर्जरा है। सो निर्जरा के दोय भेद हैं। एक सविपाक एक अविपाक । तहां अपनी पूरण तिथि करि कर्म का खिरना सो सविपाक मिर्जरा है। जो तप संयम के योग से यथा परिणामन की विशुद्धतातें कर्म का खिरना, सो अविपाक निर्जरा है। ऐसे विचार का नाम निर्जरानुचिन्तन है। जहां तीन लोक-संस्थान जो आकार ताका विचार भेद-भाव करना, सो लोकानुचिन्तन है। जीवाजीव जादि वस्तु अपने स्वभाव कू न त स्वभाव रूप रहै परभावलप नहीं होय सो ऐसे विचार का नाम धर्मानुचिन्तन कहिरा । अपने स्वभाव में रहना सो तौ सुलभ है पर-स्वभावरूप होय सो दुर्लभ में । जैसे-जीव कू चैतन्य भाव रहना ज्ञानमयी रहना, धर्म भावना होना इत्यादिक जीव के गुणमयो जीवकू रहना सो सुलभ है। इन
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मयी रहतें कछू उपाय-खेद नहीं करना है होना मूर्तिक होना महादुर्लभ है। अनेक कष्ट खाए भी जड़त्व - मूर्तिक नहीं भया जाय है । इत्यादिक चिन्तन सो दुर्लभानुचिन्तन है। ऐसे अनेक प्रकार जिन भाषित तत्त्वनि का चिन्तन सो अनुप्रेना नाम स्वाध्याय भेद है। ऐसे पञ्च भेद स्वाध्याय कह्या । तन ममता भाव रहित होय एकासन खड़ा ध्यान करना सौ कायोत्सर्ग तप है। जहाँ मन-वचन की एकता रूप धर्म्य ध्यानरूप भावना की धिरता और कषायन की मन्दता सहित आपा-पर के निर्धाररूप ध्यान करना सो ध्यान नाम तप है। ऐसे बारह प्रकार तप हैं। सो सु-तप उपादेय हैं। इति तप विष
- हेय उपादेय कथा आगे व्रत विषै ज्ञेय हेय उपादेय कहिये हैं । जहाँ सुव्रत व कु व्रत का समुच्चय जानना सो तो ज्ञेय है । ताही के दो भेद हैं। एक सुव्रत और एक कु-व्रत । जहां भोरे जीवन के प्ररूपे परमार्थ शून्य अपनी अज्ञान चेष्टा करि जो व्रत करें सो कुन्त्रत है। केतेक तौ क्रोध पोखवे के व्रत हैं। केतैक मान पोखवे के हैं । केतेक माया पोखवे के व्रत हैं। केतक लोभ पोखवे के व्रत हैं। ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभ पोखवे कौं जो व्रत हैं सो सम्यग्दृष्टि मैं है हैं। जहां पर जीवन के मारवे शत्रु आदि के दुख देवेकों इत्यादिक विचार सहित व्रत करना यथा- जो मेरा फलाना शत्रु है, सो क्षय होहु । ताके निमित्त एक बार खाना, बहुत धन दान देना, पूजा- उपवास करना, रस रहित खाना, भूमि सोवना, नांगे पांव फिरना, एक अत्र ही खाना, एक रस ही खाना इत्यादिक विधि सहित उपवास व्रत करना, सो क्रोध सहित व्रत कहिए। अपनी आज्ञा कोई नहीं मानता होय, वश नहीं होता होय। ताके वश करवे कूं अपने बल को समर्थता तौ नाहीं, अरु मान पोखा चाहै। ताके निमित्त कोई देवव्धन्तर के साधनकं व्रत करना, पराया मान खण्डन कूं व्रत करना, सो मान पोखि व्रत है । जो व्रत आप छल सहित करै। परिणाम तौ दुराचार रूप और लोकन के दिखावेकूं, आप धर्मो बाजकू व्रत का करना, सो माया पोखि व्रत है। अन्य जीवन के धन हरवेकूं, हाथी-घोड़ा हरवेकू मन्दिर हरवेकू, नाना युक्ति के व्रत करना। तहां ऐसा विचारना जो मोकौं राज मिलें, पुत्र मिले, कुटुम्ब की वृद्धि होय या व्रत तैं धन मिले इत्यादि व्रत हैं । सो लोभ पोषित व्रत हैं। तिन व्रतन की लौकिक मैं भोरे जीवन मैं ऐसी प्रवृत्ति है कि जो यह व्रत करें तो शत्रु नाश होय । कोई तन का फल ऐसा कह्या है जो याके किए वैरी वश
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होय, आप हो आय नमैं। केई व्रतन का फल रोसा प्ररुप्या है जो याके किये राज-सभा मैं आदर पावै, सभा ।। यशि होय । केतक व्रतन का फल ऐसा कह्या, जो इनकी करै तौ लोकमान्य होय, जगत् मैं पूजा पावै। या व्रतते । धन होय और स्त्री करै तौ बहुत दिन लौ ताका सुहाग रहै, मार मरै नाही, पुत्र होय, सास-श्वसुर सर्व ताको ।। २१७ जाम्राय मान, यश पावे, भतार वश होय। इत्यादिक व्रत हैं सो क्रोधी, मानी, मायावी. दगाबाज, लोभी, पाखण्डी जीवन के प्ररूपं हैं। जो भोरे जीवन को तनिक कौटिल्य ताका लोभ बताय, अपनी महन्तता-धर्मात्मापना बताय लोकन का धन हरि लेय जाते रहें। ऐसे दुरात्मा जो ऊपरी ते शान्ति मुद्रा भेषि बनाय, भोरे जीवनकू विश्वास देय, ठग लेय। ऐसे जीव धर्म भावना रहित, तिन मैं रा कु-व्रत प्ररूपे हैं। सो सम्यग्दृष्टि करि सहज हो हैय हैं और जे व्रत हिंसा करि सहित होय, जिन व्रतन में अनगाले अलमैं नित्य सपरना कह्या होय तथा जिन व्रतन मैं नाना प्रकार जम्नादिक वनस्पति का उगावना कह्या होय, सो व्रत हेय हैं तथा जिन व्रतन मैं ऐसा कह्या हो, कि जो पशूनकों भोजन दिए अपने देवादि तृप्त होय, सो व्रत हेय हैं और जिन व्रतनमैं दिन-भोजन छोड़ि, रात्रि-भोजन कह्या है। सो व्रत हेय हैं। जिन व्रतन में ऐसा कह्या, जो बाम मोटा-बानोट सापान: है सेहत देश हैं। कोई व्रत ऐसा जिसमैं लड्डू खावना कहा है, ऐसा व्रत हेय है। कई व्रतन मैं ऐसा कहा है जो आजि सूत व रेशम के तागा बनाय ताकौ राती गांठि दीजिये पीछे भुज-बन्ध करना काह्या, सो व्रत हेय हैं तथा इस व्रत के दिन । पशनको पूजिरा, घास पूजिये तथा पंचेन्द्रिय पशन का मल-मूत्र पूजिये तथा इस व्रतमैं तिल-तेल ही खाईए है तथा इस व्रत के दिन गुड़-भोजन शुम कह्या इत्यादिक इन्द्रियन के पोषनेहारे कामो-लोभी जीवन के प्ररूपे तन । पुष्ट कारी व्रत सो हेय हैं तथा इस व्रतमै दुध-दही खाईए है तथा दुध ही डारिए है तथा इस व्रत मैं जीवनकौ। मारिए इत्यादिक कु-वत भोरे जीवन के करवे योग्य हैं। इन्हें मानी ज्ञान-धन-हीन जीव ही करे हैं। ऐसे ही 1 मोही जीवन के प्रलये हैं। सोर व्रत मोक्ष-मार्ग के ज्ञाता सम्यग्दृष्टि के धारी जीवन कं सहज ही हेय हैं। इति ।। कु-व्रत । आगे सुव्रत कथन-भो भव्य ! सुव्रत तिनका नाम है जिनके किरा अपने अगले पापन का नाश होय । जिन व्रतन का नाम लिए पुरय बन्ध होय। जिन व्रतन के आगेदाता का निशान प्रगट चलता होय सो दयासागर शुभ-व्रत हैं। जिनमैं पापारम्भ का त्याग होय शुभाचार सहित जिनमैं क्रिया कही होय। सप्त-व्यसनादिक पाप।
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तिनकी प्रवृत्ति नहीं होय। जहां व्रत दिन चूत खेलना मने किया होय । व्रतमैं मांस भक्षण नहीं कहा होय। जिन व्रतन, मदिरापान नहीं होय। जिन व्रतनमें वेश्यादिक कुट्टनी का सेवना नृत्यादि देखना नहीं होय, सो शुभ व्रत || २१८ हैं जिन व्रतनमैं दोन जीवन की हिंसा तजि, दया कही होय तथा जिनमैं मनुष्य-घात, भैंसा-यात, बकरी-घातादिक खेटक क्रिया नहीं होय, सो शुभ व्रत हैं। जिन व्रतनमैं पराई वस्तु को चोरी नहीं कही होय। जिनमैं पर-स्त्रीन का सेवन, पर-स्वीनकों रति दानादिक कुशील क्रिया जामैं नहीं होय, सो सुव्रत हैं। जिन वतन मैं तन धोवना, सपरना अभक्ष्य खावना, कुशब्द बोलना, नहीं कहा होय सो शुभ वत हैं। जिन वतनमैं शस्त्र चलावना नाहीं कह्या होय, सो शुभ वत हैं। जिन वतन में शस्त्र चलावना नाहों का होय तथा पाषाण चलाधना मिट्टी राखबगरावना नहीं होय सो सुवत हैं पाखण्ड रहित होय क्रोध, मान, माया, लोम इत्यादिक दोष रहित होय सो शद्ध वत हैं। जावत के किए परिणाम समता सहित सोसवत हैं। जिसवतमस्कैन्द्रिय दिवस-श्यावर जीवन की दया रूप क्रिया होय सो शुभ वृत हैं और दान, पूजा, शील, संयम, तप इन सहित होंय सो सुव्रत हैं। तिन वतन के भेद बारह हैं। तिनके नाम पञ्च अणुवत हैं। तहां अहिंसायुक्त, सत्यायुक्त, अचौर्याणुवत, ब्रह्मचर्याणवत और परिग्रहत्यागाणुवत। र पञ्च अणुक्त हैं। जहां राकोदेश हिंसा का त्याग तहां स हिंसा का तो सर्व प्रकार त्याग होय और स्थावर हिंसा के आरम्भ मैं दया भाव सहित प्रवर्तना सो अहिंसाणवत है जहाँ भूठ बोले राजा दण्ड दे पञ्च मं. ऐसी तोव झूठ का त्याग सो सत्यागवत है ।। जाके किए राज दण्डै पञ्चलोक मंडै ऐसी तीव झूठ का त्याग सो अचौर्याणवत है।३। बड़ी-पर-स्त्री माता सम बरोबर भनी सम लघु पुत्री सम चिन्तन करि तजै तिनमैं विकार भाव का त्याग घर को-परणी स्त्री के संभोग मैं तीव तृष्णा का त्याग सो ब्रह्मचर्याणवत है । ४। वर्तमान समय अपने पुण्य प्रमाण परिग्रह मैं तं कछु घटायक ताका त्याग सो परिग्रह त्यागारावत है। ऐसे पञ्च अणवत हैं। आगे च्यारि शिक्षावत कहिरा हैं। सामायिक, प्रोषथोपवास, भोगीपभोग परिमारा और अतिथिसंविभाग। आगे इनका अर्थ-इन वतों की समानरूप क्रिया है, तातं इनका नाम शिक्षावत है। तहां तीन काल सामायिक की विधि की साधना सो सामायिक शिक्षावत है। आठे चौदश के दिन सोलह प्रहर का पापारम्भ का त्यागरूप एक स्थानमैं धर्म ध्यान सहित प्रतिज्ञा का साधन सो प्रोषधोपवास
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शिक्षावृत है |२| आगे अपने पुण्य प्रमाणमैं तें घटाय भोग-उपभोग का राखना, सो भोगोपभोग परिमाण शिक्षावृत है । ३ । जहां अपने निमित्त किया भोजन तामैं तैं मुनि त्यागी श्रावकादिककूं दान का देना सो अतिथिकरण शिक्षावृत है । ४ । ए च्यारि शिक्षावत आगे तीन गुणवत के नाम --- दिग्वत, देशदूत और अनर्थदण्ड का त्याग । अब इनका सामान्य अर्थ -- जहां दशों दिशा विषै पापारम्भ निमित्त गमनागमन का सो दिखत है । २ । दिग्यूत मैं तैं घटाय रोज व्रत नियम करना सी देशयत है । २ । जहां बिना प्रयोजन पापारम्भ का त्याग सो अनर्थदण्ड का त्याग सो अनर्थदण्ड गुणव्रत है । ३ । ऐसे पचासुक्त, च्यारि शिक्षावृत, तीन गुणवूत सर्व मिलि बारह व्रत हैं सो ए त पाप नाशक पुण्य वृद्धि करनहारे सुबूत जानना । इन वूतन के किये तें जग यश होय पाप नाश होय । समता भाव होय बुद्धि उज्ज्वल होय दयामयी भाव होंय कु-बुद्धि का नाश होय, सु-बुद्धि का प्रकाश होय। ऐसे अनेक पाप-दुरुनिटिया गुरु प्रगत होष है। जैसे पुरुषकूं तीव्र क्षुधा लागी तब वह बिना भोजन शिथिल होय नेत्रन आगे तमारे आवें, चल्या नाहीं जाय । भागा नहीं जाय । बुद्धि मैं युक्ति नाहीं उपजै । पुरुषार्थ जाता रहै। दोन होय, पराधीन होय इत्यादिक अनेक रोग व दुख प्रगट होंय और जब पेट भर भोजन मिलै तब सर्व रोग-दुख एक समयमैं जाता रहे हैं। तैसे हो विवेको कौं भला ज्ञान होतें सुव्रत रूपी भोजन मिलतें ही कु-भावरूपी अनेक दुख-खोटे व्रतरूपी जो वेदना थो सो सर्व नाशकं प्राप्त भई । तब अनेक शुभदायक भाव होय हैं अनेक युक्ति उपजने लगी ताकरि तत्वन का भेदाभेद विचारि अपना कल्याण करें हैं। ऐसा जानि विवेकीनको अनेक विधि विचारि करि सुख का लोभी धर्म का इच्छुक अनेक मतन का रहस्य देखि जहाँ शुभ दया भावनकू लिये उज्ज्वल आचार सहित व्रत होंय सो करना योग्य है। जा व्रत के किरा तैं पापनाश होय सो व्रत उत्तम है और जिस व्रत के किए पाप उपजै सो हैय करना योग्य है। विवेकी जोवनकू अपने विवेक तैं भले-बुरे व्रत की परीक्षा कर लेनी । कोई कहे हमारा वूत भला है। तो काहू के कहे तैं ही नहीं लेना। अपनीअपनी सब ही भलो कहैं हैं यह जगत् की रीति ही है। परन्तु विवेकी परीक्षा करि जो अङ्गीकार करै सो वत पक्का है। जैसे—गुदरी मैं अनेक प्रकार रतनादि बिके हैं। तहाँ केई तौ सांचे रतन लिए खड़े हैं। केई झूठे रतन लिए खड़े हैं सो ग्राहक कू सर्व अपना-अपना रतन सांचा ही कहे हैं। सौ बेचनेवाला तो कहे हो कहै। परन्तु
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लेनेवालों को अपनी चौकस कर लेना योग्य है। काहू के कहने मैं नहीं जाय। तैसे ही धर्म दुकान अनेक हैं। अपने-अपने घृतकौ सर्व उत्तम मान हैं। परन्तु धर्मालग नीम पनी बुद्धि के मा वारिीक्षा कारे लाल रख
२२० दया सहित व्रत होय, सो करना। तिनका स्वरूप उपरि कहि आये हैं। अनेक शुभ व्रत हैं व अनेक अशुभ वत हैं। इनकी परीक्षा निमित्त अनेक वतन का लक्षण कया है। तात परख करना। इनका विशेष आगे वत प्रतिमा मैं कथन करेंगे तहां त जानना। इति व्रत विष ज्ञय-हेय-उपादेय कथन। आगे दान विषं ज्ञेय-हेयउपादेय कहिये है। तहां समुच्चय शुभाशुभ दान का जानना सो तौ ज्ञेय है। ताही ज्ञेय के दोय भेद हैं। एक सु-दान ज्ञेय तौ उपादेय है। दुसरा कु-दान ज्ञेय सो हेय है। सो प्रथम दान का लक्षण कहिये है । सो जाके देते चित्त महाभक्तिरूप होय सो दान हैं तथा दान को देते चित्त दयामयी होय सो दान है और जाके देते मनमैं नहीं तौ भक्ति-भाव होय नहीं दया-भाव होय सो दान देना रोसा है। जैसा राजा को दण्ड देना । रा दान दण्ड समान है सो कु-दान जानना। जैसे काहू के तन पंपोड़ा आई होय तब लोभी पुरुष रोगो कू भोला जानि या कहै। जो हाथी का दान देय तथा घोड़े का दान देय तोड़ागाथ-रथ का दान देय। इसी प्रकार विषय-सेवन के स्थान घर सो मन्दिर दान, सुवर्ण-चाँदी दान, विषय-सेवन को दासी-दास दान, स्त्री का दान, कन्या दान, धरतो दान, तिल दान, उड़द दान, श्यामवस्त्र दान, तेल दान इत्यादिक दान जो हैं, सो लोभी जीवन के तौ प्ररूपे हैं।' अरु भोले जीवन कौं अज्ञान जानि कहैं हैं। सो कु-दान हैं। सो विवेकीन कौ तजना योग्य है। इति कु-दान। आगे सु-दान-तहां सु-दान के च्यारि भेद हैं। भोजन दान, औषधि दान, शास्त्र दान और अभय दान । अब इनका अर्थ-तहां अपने निमित्त भोजन किया तामैं ते पहले मुनिकों तथा त्यागी-श्रावक कौँ तथा अर्जिका कौं यथायोग्य महाहर्ष धारि विनय सहित दान देना, सो भोजन दान है तथा कोई यति श्रावकादिक का निमित्त नहीं ||त होय तो दोन बूढ़ा, बालक, रक भूखा, अशक्त, अन्धा, लूला-इन आदिक कौं असहाय देखि इनके तन की !
रक्षाकौं करुणा भाव सहित अत्र दान देना, सो याका नाम भोजन दान है । याके फलसे सदा सुखी होय अत्र-धन २२० ।। बहुत होय अन्न बहुतन कौं देय खानवारा उदार चित्त का धारी होय। २१ जहाँ मुनि, आणिका, श्रावक, त्यागी
पी इनके तन पीड़ा देखि इन योग्य प्रासुक औषधि देना तथा कोई गरीब, रत, भूखा, दुखिया, बालक, वृद्धादि
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असहाई निर्धन होय ऐसे जीवन कौं रोग वेदना देखि धर्मात्मा पुरुष अपना चित करुणा रूप करि औषधि करना जतन करना सो औषधि दान है। याके फल ते शरीर निरोग होय।२१ जहाँ मुनि अजिका श्रावकादिक। धर्मात्मा पुरुषन के पठन-पाठन कौं शास्त्र देना, सो शास्त्र दान है सो लिखाय देना तथा आप लिख देना तथा अन्य भव्य जीवन को धर्मोपदेश देय धर्म विर्षे सन्मुख करना पड़ावना भले बतावना सो शास्त्र दान है। थाके फलतें अतिशय ज्ञान का धारी होय जहां अन्य जीवन का दुख मैटि सुखी करना कोई दुष्ट दीन-जीव पशुमनुष्यादिक को मारता होय तो अपनी शक्ति प्रमाण ज्ञान, धन, बल, हुक्मादिक करि मारते कं बचावना। आप कोई जीवन की नहीं सतावना सर्व कू सुखी करना। सर्व जीवन ते मैत्री-भाव रखि सर्वको सुखी चाहना सो समय-दान है। गाके पान ने भाग अग्य पद जो मोक्ष पद ताहि पावै तथा कोई भव धरना होय तौ देव इन्द्रादि पद पावै तथा मनुष्य होय तौ चक्रो, त्रिखण्डी, भटादि महायोधा दोघ आयु का धारी होय। ऐसा फल अभयदान का जानना। यह अभय-दान है।४। ए च्यारि प्रकार दान हैं सो शुभ दान हैं। एदान सम्यग्दृष्टिन करि उपादेय हैं। इति दान मैं ज्ञेय-हेय-उपादेय कथन। आगे पात्र विर्षे ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिर है। तहां समुच्चय सु-पात्र-कु-पात्र के भेद का जानना सो तौ नेथ है । ताही ज्ञेय के दीय भेद हैं। एक स-पात्र है एक अशुभ-पात्र है। तहां अशुभ के भेद दोय हैं। एक अ-मात्र एक कु-पात्र । तहां कु-पात्र के तीन भेद हैं। जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट । तहाँ वाह्य अट्ठाईस मूलगुण धारी होय और अन्तरङ्ग सम्यक रहित होय सो उत्कृष्ट कु-पात्र है। बाह्य श्रावक व्रत का धारी ग्यारह प्रतिमा विर्षे प्रवर्तता शुभाचारी, धर्मध्यानी, जिन-आझा प्रमाण श्रावक क्रिया सहित किन्तु सम्यक रहित सो मध्यम कु-पात्र है। व्यवहार सम्धक देव-गुरु-धर्म की दृढ़ प्रतीति सहित होय, किन्तु भेद-ज्ञान रहित, अनन्तानुबन्धी की चार और दर्शनमोह की तीन रोसी सब सात प्रकृति के क्षयोपशम रहित निश्चय सम्यक जाकै नाही, सो जघन्य कु-पात्र है। यह आप षद्रव्य, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय के नाम और कौं कहै । धर्म वांच्छा सहित, पाप क्रिया विमुख. निश्चय-भाव भेद-ज्ञान करि आपा-पर के गुण भेद से विमुख, सम्यक रहित, अविरत गृहस्थ, सी जघन्य कु-पात्र है। र तीन भेद कु-पात्र हैं। सो औरत कं मोक्ष-राह बतावै. किन्तु आप मोक्ष-सह नहीं लागे हैं। इन्हें मोक्ष-मार्ग का सुख नाहीं। जैसे-राजा का रसोइया अनेक प्रकार
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सुन्दर व्यजन रसोई करि, राजाको जिमा, राजी करै। किन्तु आव वाके किए भोजन का स्वाद नहीं जाने मी तथा जैसे- अनेक व्यञ्जन भोजन महामिष्ट स्वाद रूप हैं जिनमें सर्व जगह हँडिया में धातु का चमत्रा फिरै, परन्तु सुव्यवन भोजन के स्वाद कूं नहीं पावें । तैसे ही अनेक तरवन का रहस्य मुखतें बतावै, मोक्ष होने के उपाय बताय औरनकं तत्त्व रस का स्वाद कराय, मोक्ष-मार्ग बताय, सुखी करै । परन्तु आप तत्त्वरस स्वाद नहीं पावै, सो fr कु- पात्र है । तातैं कु पात्र तजवे योग्य है है । इति कु-पात्र भेद तीन आगे अ-पात्र भेद तीन कहे हैं। जे जिनआज्ञा रहित लिङ्ग के धारी, परिग्रह सहित, आपकूं यतिपद-गुरु संज्ञा माने हैं। नाना प्रकार तप संयम ध्यान करै हैं। राग-द्वेष पीड़ित उसके धारी; क्रोध, मान, माया, लोभ करि मण्डित मन्त्र तन्त्र, जन्त्र, औषधि, रसायन, धातुमारसा, ज्योतिष, वैद्यक, नाड़ी इत्यादिक चेष्टा करि आजीविका करनेहारे होंय, अनेक मेष-स्वांग के धारी, सो उत्कृष्ट अपात्र हैं। सो औरन कू तौ रा कु मार्ग उपदेश हैं, अरु आप शुभ- मार्ग रहित हैं। जैसे—कोई ठग, राजा का मेष धरि, औरन पै अमल चलाव, अरु कहै जो मैं राजा हौं । जो मेरी सेवा करेगा, सो अनेक ऋद्धि पाय, सुखी होयगा। तब ऐसा जानि, भोरे गरीब जीव उगकौं राजा जानि, ताकी सेवा करें हैं। सो रा भोले जीव हो ठगावै है । क्यों, जो ए ऊपरि तैं राजा भया है । अरु अन्तरङ्ग मैं भांड है। सो उल्टा कछू भोख मांगेगा, देवक समर्थ नाहीं । यामैं राजा का एक भी चिह्न नाहीं । आप हो भूखा है। औरन कू सुखी करवेंकू' असमर्थ है। तैसे हो रा अ-पात्र, आप धर्म-वासना रहित है तथा और कूं धर्म-फल बतायवे कूं असमर्थ है। सोरी उत्कृष्ट अ-पात्र हैं। तातें तजवे योग्य हेय हैं । जे गृहस्थ, कुटुम्बादि सहित जिन आज्ञा रहित, हिंसामयी तप-संयम के धारक कन्दमूल के भड़क कू आचार्य, सत्य धर्म दयामयी तातैं रहित, कुधर्महिंसा मार्गी, आपकू व्रती, तपी, जपी, संयमी, धर्मात्मा माननेहारे, सो मध्यम अ-पात्र हैं और जिन आज्ञा रहित गृहस्थाचार के धारी, नाम-पूजा- दानादि - अङ्गी आपको जाननहारे, अक्षय के खानेहारे, हिंसा-धर्म के लोमो, दया रहित गृहस्थी, आपकू धर्मो जानें, सो जघन्य अपात्र हैं। ए अ-पात्र के तीन भेद हैं। इति अ-पात्र । आगे सु- पात्र नव भेद हैं हैं । तहां सुपात्र के प्रथम तीन भेद हैं। उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य तहां उत्कृष्ट पात्र के तीन भेद हैं। उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य । तहां तीर्थङ्कर राज अवस्था तजि दिगम्बर भये, जबतें केवलज्ञान नहीं
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होय, तब लौ छद्मस्थ दशा में हैं। तैते इनकौं आहार देना. सो ये उत्कष्ट के उत्कट पान धारी यतीश्वर, सो । उत्कृष्ट के मध्यम पात्र हैं। अष्टविंशति मलाणा, रह प्रकार चारित्र का प्रतिपालक, वीतराग सम्यक्त्व सूर्य || के धारी यतीश्वर, सो उत्कृष्ट पात्र के जघन्य पात्र हैं। ए तीन भेद उत्कृष्ट पात्र के कहै। इति उत्कृष्ट । पात्र भेद तीन । आगे मध्यम पात्र के तीन भैद कहिए हैं। तहां ग्यारहवों दशवी प्रतिमा का धारी त्यागी श्रावक सो मध्यम सुपात्र का उत्कृष्ट भैद है। पञ्चमी, छठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमो प्रतिमा के धारी श्रावक सो मध्यम सूपात्र के मध्यम पात्र हैं। प्रथम तें लगाय चौथी प्रतिमा पर्यन्त सम्यग्दृष्टि श्रावक सो मध्यम सुपात्र के जघन्य पात्र जानना । ये मध्यम पात्र के तीन भेद कहे। इति मध्यम सूपात्र भेद तीन । बागे सुपात्र जघन्य पात्र के तीन भेद कहिए हैं। तहाँ क्षायिक सम्यक्त्व सहित अव्रत गृहस्थ सो जघन्य सुपात्र का उत्कृष्ट पात्र है। उपशम सम्यग्दृष्टि का धारी व्रत रहित असंयमी गृहस्थ सो जघन्य सूघात्र का मध्यम पात्र भेद है। क्षयोपशम सम्यक्त्व सहित अवती गृहस्थ सौ जघन्य सुपात्र का जघन्य भेद है। ए तीन भेद जघन्य सुपात्र के हैं। ऐसे नव भेद सुपात्र कहे। आगे कहे जो ऊपरि तीन भेद अपात्र के तिनक उत्कृष्ट पात्र जानि विनय-भक्ति करि गुरु जानि दान देना तो अपात्र दान है। याका फल ऐसा है । जैसे—जल के स्थान के मेवे के पेड़, गुलाब के पेड़ विष जल और डारिश तो उस पेड़ का नाश फल व शोभा का नाश और जल डारचा सो वृथा गया, क्योंकि आगे धरती जलते पूर्ण थी ही तामैं और जल डारचा सो पेड़ गलि गया। सर्व करी मिहनत वृथा गई। ऐसा ही अपात्र-दान है। दिया धन नाश, फल नाश, सुख नाश । ताकै योगत निगोद नरकादिक दुख प्रगट फल होय है । तातै अपात्र का दान हेय है। कुपात्रकं गुरु जानि भक्ति सहित दान का फल कुभोग भूमि का मनुष्य होय । इहां प्रभ—'जो कुपात्र दान का फल हीन कह्या सो हलकौं सुपात्र का भेद कैसे मिले ? देनेवाला तो बाह्य चारित्र की तथा मूल गुणन की शुद्धता देखि दान दिया चाहै 1 लारनौं हजारौं मुनियों में सम्यक्त्व धारी यतिनाथ तौ थोरे अरु सम्यक्त्तव रहित शुद्ध मूल गुण धारी गुरु बहुत सो दैनेवारा शुद्ध मूलगुण देखि पीछे ऐसा विचार जो रा कुपात्र हैं वा सुपात्र है? तौ अविनय होय पाप लागे । ताते के वली के जानने योग्य बात श्रावक कैसे जानें ? सुपात्र-कुपात्र की बात तो
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केवलज्ञानगम्य है। सो या दान देनेवारे के नफा नहीं भार्से है। कोई से दाताकैं भला फल होय तौ होय, नहीं तो दान का जमाव होगा यह सन्देह है। तांका समाधान भो भव्य ! यह बात तूने कही सो सत्य है; परन्तु है भव्यात्मा । जैसे— काहू राजा का राज्य वैरी ने छीन लिया है सो वह बाहरे जाय फौज बाजे है। युद्ध कर बन्दी करि, युद्ध करै । राज का तखत ताके हाथ नाहीं, परन्तु राज्य भ्रष्ट भी राजा रह्या है। सो वैरीको जीत कभी राज पावैहोगा, तासू राजा ही कहिए हैं। तैसे जे मुनि सम्यक्तव सहित चारिन के धारक थे से कोई कर्म को जीरावरी तैं मोह की प्रबलता करि सम्यक्त्व राजपद छूटि गया होय, तौ भी वह ति अपनी चरित्र सैन्या जोड़ि कैं मोह राजा तैं युद्ध कर रहे हैं । सो कबहूं मोहको जोति सम्यक्त्व राज्य लेंगे। तातें ऐसे मुनि जिनकों सम्यक्त्व कम होय कभू जाय ऐसे निमित्त जिनके बनि रह्या होय तिन्हें कुपात्र ही जानना । कोई जीव कर्म योगतें चारित्र मोह की मन्दता तैं चारित्र तौ धारचा होय। अरु के तौ अभव्य होय तथा दूरानदूर भव्य होय, अभव्य राशि-सा होय । ऐसे मिथ्यादृष्टि के धारी मुनि सो कुपात्रन मैं जानना । सो ऐसे मुनि करोड़ों में भी एक-दीय नहीं होय हैं कठिन हैं होंय । सो ए कुपात्र हैं तथा जे मुनीश्वर चारित्रमूलगुण धारें हैं। परन्तु अन्तरङ्ग कषायन के योगर्ते तिनके मूलगुण दूषित हैं। सो मुनि अपनी मायाचारी करि अपने दोष बाह्य प्रगट नहीं करें हैं। बाह्य, शुद्ध मूल गुण से दीखें हैं। अन्तरङ्ग - ज्ञानी के जानने में दोष सहित हैं। ऐसे कषाय भार करि सहित मूलगुण के धारी सो मुनि कुपात्रन मैं हैं । सो ऐसे भी मायावी मुनीश्वर बहुत थोड़े ही हैं। कोई करोड़ों-अरबों में एक होय तौ होय। नाहीं हौय तौ नाहीं । ए मुनि कुपात्र हैं । सो कोई दाता के अशुभ कर्म तैं ऐसे मुनि के दान का निमित्त मिले, तौ कुभोग भूमि का फल होय । नहीं मुनि-दान का फल भोले मिथ्यादृष्टि जीवन के तथा पशून, सुभोग भूमि का फल होय है और सम्यग्दृष्टि हैं, तिनकूं दान का फल स्वर्ग -मोक्ष ही जानना । ऐसा तेरे का प्रश्न उत्तर जानि । सुवान के दान देने को बुद्धि सदैव राखना, अनु मोदना करनी । सर्व उत्तम फल दाता जानना । कुपात्र का निमित कदाचित् अशुभ उदय तैं बने तौ बने, नहीं तो सदैव सुपात्रन का निमित्त जानना । जैसे - देशान्तर के फिरनहारे व्यापारी, द्रोपान्तर जाय अनेक कष्ट खाय बहुत धन कमाय ल्याय, सुखी होने हारे ताका निमित्त तो बहुत है। देशान्तर मैं लुट जाहारे, जहाज
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डूबनहारे ऐसा निमित्त कबहूँ कुकर्म त होता है। कमा लानेवाले बहुत हैं। तैसे कुपात्रन का निमित्त अल्प है। सुपात्र के निमित्त को दीर्घता है। ऐसे राह लुटने की नाई कदाचित कपात्र-दान का निमित्त मिले तो कभोग भूमि का फल जानना। तहां कुभोग भूमि में आकार शरीर का नीचे तो मनुष्य का सा होय है. और मुख तिनके पशुजन के आकार हैं। सो कोई का मुख सिंह कैसा है। किसी का हस्ती-सा मुख है। कोई का सूअर कैसा मुख है। कोई के मुख घोड़े कैसे हैं । केई का मुख मोर-सा है । केहन के कान लम्बे हैं । केइन के ऊँट समान मुख हैं । इत्यादिक आकार जानना । धरती रंधन जो बिल तिनमैं रहैं हैं। कई वृत्तन के स्थल...नसान मैं हैं और ताशी ति की मिट गहत समान, तिसका भोजन है। एक पल्य की आयु अरु एक कोस का शरीर होय है। ऐसा कुपात्र-दान का फल है। सुपात्र-दान का फल स्वर्ग-मोक्ष है तथा तीन पल्य, दोय पल्य, एक पल्य, आयु के धारी, भोग भूमियाँ होय हैं। ऐसे कहे अपात्र-कुपात्र तो विवेकीन कों हेय। कहे नव प्रकार सुपात्र भेद, सो उपादेय हैं यथायोग्य पुजिवे प्रशंसवे योग्य हैं। इति पात्र मैं झय-हेय-उपादेय कथन । आगे पूजा विर्षे ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिए है। तहाँ सुपूजा-पूजा का समुघय जानना, सो तो ज्ञेय है। ताके दौय भेद हैं। एक सुज्ञेय है, एक कुज्ञेय है। तहां वीतराग होय, जाके अपने सेवकन तें राग नाहा, कि जो यह मेरा भक्तिमन्त है, निश दिन-मोकी आराधै है, सो यातें प्रसन्न होय, याकं सखी करौं । ऐसे विचार का नाम तो राग-भाव है। जो आपको नहीं पूज, अपना विनय नहीं करै निन्दा करें आपकी प्रशंसा नहीं करै तौ ता द्वेष-भाव करै ताके मारने की ताकौं रोग करे, इत्यादिक दुख देने का उपाय करे सो द्वेषभाव जानना। ऐसे राग-द्वेष जाकै नाही होय सो वीतराग समता सुख-समुद्र का वासी परम पवित्र देव, ताकी सेवा पूजा-वन्दना है, सो सुपूजा है। लोक-अलोक को जाननेहारा, इस तीन लोक में जेते जीव-अजीव पदार्थ समय-समय जैसे-जैसे परिणमैं हैं, आगे अनन्तकाल में से परिणामेंगे अतीतकाल में ऐसे परिरामे आये ऐसे तीन-काल तीन-लोक के विर्षे अनन्ते जीव जेसे भाव विकल्प रूप परिणमैं हैं। सबके घट-घट की जाने। ऐसा अन्तर्यामी सर्वज्ञ भगवान् अनन्त गुण भण्डार ताकी पूजा है, सो सपजा है। ऐसे वीतराग सर्वज्ञ कौ बारम्बार नमस्कार होऊ। इति सुदेव पूजा। आगे सुधर्म-पूजा कहिए है। तहां सर्व-वीतराग का वचन सोई शुभ
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धर्म है। सर्वज्ञपने ते कछू छिपा नाहीं। वीतराग भावन तँ जैसा भासै जैसा का तैसा कहै । और की और नाहीं काह । सो ऐसे भगवान के य: प्रनाम हैं। इनके नास वचन ही का नाम शुद्ध मार्गखूप भला धर्म है। सो हो। २२६ धर्म यथार्थ सत्य है। या धर्म मैं कहे जो पदार्थ सो प्रमाण हैं। ये ही धर्म पूजने योग्य उपादेय है। इस ही धर्म प्रमाण जो दीक्षा के धरनहारे दिगम्बर वीतराग इन्द्रियन सुखनत विमुख आत्मरस के स्वादी तपसी नगन तन धारी षटकाय के रक्षक बिन कारण जगत् बन्धु मोन अभिलाषी और के हित वांछक सो ऐसे गुरु पूज्य हैं उपादेय हैं । रोसे कहे जे देव-धर्म-गुरु इनकी पूजा है सो सुपूजा है। सम्यग्दृष्टिन करि उपादेय है । इति सुपूजा।
आगे कुपुजा कहिये है। तहां ऊपरि कहिं आये देव-धर्म-गुरु का स्वरूप तिसत विपरीत जो अपनी सेवा पूजा प्रशंसा करै जासूसन्तुष्ट होय ताकं कहे तोकं धन हौं। जो आपको सेवा चाकरी शुश्रूषा नहीं करै तौ अपनी भक्ति से विमुख, आपका निन्दक जानै ताकी डरावै। कहे-याकौं रोगी करौं, याका धन-पुत्र हरौं, याकौं बहुत दुखी करूँगा। ऐसे किसी ते राग, किसी ते द्वेष करनहारा देव, सो सरागी संसारी है, हेय है। इनकी पूजा सो कपूजा है। देव तौ कहावे, अरु गई वस्तु कू खोजता फिरें, नहीं मिले तो शोक कर, ऐसे अज्ञानी देव, मोही देवन की पूजा है, सो कपूजा है तथा और के मारने निमित्त अवधि धारि, विकराल रूप बनाय, सुमट-सा दी। जाको छवि देखि, जीवन कौं भय होय। ऐते भयानक देव की पूजा है, सो कपूजा है। जिन सरागी देवों की छवि देखे, भगत जगत् के जीव, तिनकू कामचेष्टा होय, सरागता बढ़े। स्त्री संगम आदि जनेक इन्द्रिय भोग याद बावै। ऐसे विकारी देवन की पूजा है, सो कुपूजा है। इन्हीं कुदेव सरागौन के उपदेशे शास्त्र, चमत्कार रूप फाँसी कुंधरे, हिंसा आरम्भ के प्ररूपणहारे शास्त्र, तिनकं सुने इन्द्रिय मोग की अभिलाषा रूपी अग्नि प्रगट होय। श्रोतानि का चित्त स्त्रोन के भोग रूप होय, ऐसे विकार भाव का उपजावनहारा कथन जिन शास्त्रन मैं होय, तिन शास्त्रन की पूजा सो कुपूजा हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ सहित परिग्रही, गृहस्थ समान पापारम्भ कुशील-असंयम के धारी अपनी महिमा बढ़ाई-सत्कार-पूजा के वच्छिक अनेक भैष धरनहारे, जन्नतन्त्र का चमत्कार भोले जीवनकं बताय अपना गुरुपद मनावतें होय तथा ज्योतिष-वैद्यकादि विद्याकरि राजानकं रिझाये की अभिलाषाधारी, याचना व्रतको लिए विषयाभिलाषी, मोही घर तजे पीछे भी लौकिक गृहस्थन की
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नाई नाता - सगाई को बुद्धि राखते होय, इत्यादि कुप्रचार सहित जो होंय और आपको गुरु मनाय पुजावें, सो ऐसे गुरु की पूजा करनी, सो कुपूजा है और एकेन्द्रिय घास- वृक्षन की पूजा करनी, सो कुपूजा है। भूमि-पूजा, अग्रि पूजा, जल का पूजन, अन्न की पूजा कुपूजा जानना । इहाँ प्रश्न – जो इनका पूजन क्यों निषेधा ? इनमें तौ देवत्व-भाव प्रगटपने दोखें है। देखो अन्न अरु जल है, सो तो पर्व जगत्-जीवन की रक्षा का आधार
इन बिना प्राण रहें नाहीं । तातें सर्व का रक्षक दैव जानि पूजना योग्य दोखे है और अग्नि है सो याका तेज प्रताप प्रत्यक्ष दोखे है । इस अग्नि करि अनेक कार्य की सिद्धि होय है। अन्नादिक का पंचावना इसही तैं होय है और अनेक अलौकिक कार्य अनि तैं होते दोखें हैं। तातें या मैं भी देवत्व-भाव भासे है। वनस्पति है सो वृक्षादिक तौ सर्व जीवन को रत्ता सुखको छाया करें हैं और धरती है सो प्रत्यक्ष धीरजता लिए सर्व जगत् का भार सह है । कोई तो धरती को खोदें हैं। कोई यावे अग्नि प्रजालें हैं। कोई घायें कूड़ा डारे हैं। केई मलमूत्रादि डारें हैं इत्यादिक जगत्-जीव उपद्रव करें हैं। परन्तु धरती काहूतें द्वेष नहीं करे है। ऐसी वीतराग दशा धरै है । तातैं प्रत्यक्ष देवता है। ऐसा जानि पूजिये है। ताका समाधान भो भोले ! सरल परिणामी सुनि ! हे भव्य ! चित्त देय के धारन करना। जो पदार्थ जगत् मैं पूज्य है, बड़ा है, श्रेष्ठ है। ताका अविनय कोई करें भी, तो कदाचित् भी नहीं होय है। या लौकिक प्रवृत्ति अनादि काल को तीन लोक मैं चली आयें है। जो पूज्य हैं ताका अविनय जो करे, सो ताकूं महापापी कहें हैं। तातें हे भाई! तूं देखि अन्न अरु वनस्पति का तौ सर्व भक्षण करें हैं और जलकौं पीवे हैं, डाले हैं, हाथ-पांवन तैं मर्दन करें हैं। कोई अन्न पोसे है। कोई वनस्पति छेदन करें हैं। इत्यादिक क्रिया होतें, विनय सधता नाहीं । तौ पूज्यपद कैसे सम्भवे ? अग्रिक जलाइए, बुझाइए, पीटिए, दाबिरा, हाथ-पांव के नीचे मसलिए, इत्यादिक अविनय होय है और सबतें होन मनुष्य होय, सौ भी इनका अविनयरूप परिणमैं है । तातें इनमें देवत्व भाव नाहीं ये कर्म योगर्तें एकेन्द्रिय भये हैं। सी पूर्वला पाप का फल भोग हैं। महाअविनय अनादर के स्थान भरा हैं। तातैं भव्य ऐसा जानि । अविनय का स्थान जो वस्तु होय सो पूज्य नाहीं । तांतें इनकी पूजा है, सो कुपूजा है । इत्यादिक ऊपर कहै जे स्थान सो सम्यक्त्व भाव मैं हेय कहे हैं। इति कुपूजा ऐसे सुप्रजा कुपूजा मैं ज्ञेय-य-उपादेय कथन ।
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इति श्री सुष्टि तरंगिणी नाम के अन्य मध्य में अत, दान, पात्र, पूजा, धर्म- अंगन में शेय हेय-उपादेय का वर्णन करनेवाला चतुर्दश पर्व सम्पूर्ण हुकार ॥ १४ ॥
आगे तीथ विषै ज्ञेय-हय-उपादेय कहिए है। तह सुतीर्थ कुतीर्थ का समुच्चय जानना सौ तो ज्ञेय हैं। ताके दोय भेद हैं। एक सुतीर्थ है। तहां अढ़ाई द्वीप प्रमाण पैंतालीस लाख योजन क्षेत्र-लोक के शिखर, सिद्ध-लोक सी शुद्ध तीर्थ है तथा सिद्ध आत्मा के असंख्यात प्रदेशन करि रोक्या हुआ सिद्ध क्षेत्र, सो पूजने योग्य है। सो ही शुद्ध तीर्थ है तथा जहां तैं यतोश्वर शुद्धोपयोग करि अष्टकर्म का क्षय करि सिद्ध बद पाया सो सुतीर्थ है। जैसे— सम्मेद शिखरजी, गिरनारजी आदि बीस तीर्थङ्करनकों आदि अनेक मुनि जहांतें सिद्ध भये तातैं सम्मेद - शिखर सिद्धक्षेत्र तीर्थ है नेमिनाथजो तीर्थङ्कर आदि बहत्तर कोड़ि सात सौ यति कर्मनाश जहां तैं सिद्ध भये तातें गिरिनारजी सिद्धक्षेत्र तीर्थ हैं। शत्रुञ्जयजी तहां तें तीन पांडव आदि आठ कोड़ि यतोश्वर मोक्ष गये, तातै तीर्थ है । अष्टापद जो कैलाश पर्वत जहाँ तें आदि देव वृषभनाथ आदि लेथकें अनेक ऋषिनाथ निर्वाण गये, तातैं कैलाश तीर्थ स्थान है । चम्पापुरी तें वासुपूज्य बारहवें तीर्थङ्कर आदि अनेक तपनाथ कर्म हनि मोक्ष गये, तातें उत्तम तीर्थ है। पावापुरी तैं अन्तिम तीर्थङ्कर वर्द्धमान स्वामी आदि अनेक योगीश्वर मोक्ष गये, तातें शुभ तीर्थ है और तारवरणी तैं साढ़े तीन कोड़ि यति बैकुण्ठकूं गये, तातें भला तीर्थ है तथा पावागिरि तैं रामचन्द्र के पुत्रादि पश्ञ्च कोड़ि तपसी जनम-मरण तैं रहित भये, तातैं शुद्ध तीर्थ है। गजपंथाजी हैं बलभद्र आदि आठ कोड़ि गुरु ने अमूर्तिक पद पाया, तातै गजपंथाजी उत्कृष्ट तीर्थ है। तुङ्गीगिरिजी हैं रामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव आदि निन्यानवें कोड़ि ऋषिराज भव समुद्र पार गये, तातें तुङ्गीगिरि उत्तम तोर्थ है तथा श्री सोनागिरिजी तैं साढ़े पांच कोड़ि गुरु सिद्ध भये, तातैं पूज्य तीर्थ है और रेवा नदी के तटन तैं रावण के पुत्र आदि साढ़े पांच कोड़ि यति निर्वाण गये, तातें जगत् पूज्य तीर्थ है तथा रेवा नन्दी के तट, सिद्धवरकूट नाम पर्वत है। ताको पश्चिम दिशा तैं दोय चक्री, दश कामदेव आदि साढ़े तीन कोड़ि मुनि सिद्ध लोक गये, तातैं उज्ज्वल तीर्थ है और बड़वानी नगर की दक्षिण दिशा में चूलगिरि नाम पर्वत है। तहां तैं इन्द्रजीत रावण का पुत्र, कुम्भकर्ण रावण ये तार्ते असा तीर्थ और अचलापुर की ईमान दिला विषै मेदिगिरि
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नाम पर्वत है। तहां तें साढ़े तीन कोड़ि मुनि निरंजन भये, तात यह मांगलिक तीर्थ पूज्य है तथा कोटिशिला बोत पांच सौ कलिंग देश के राजा अरु दशरथजी के कैतेक पुत्रनकों आदि दे एक कोड़ि मुनि सिद्ध भए । २२९
मु ताते उत्तम तीर्थ है तथा पञ्चमेरु ते अनेक चारण मुनि सिद्ध भये तात तीर्थ है तथा इस ही अढ़ाई द्वीप मैं र अनेक अतिशय तीर्थ हैं तथा नन्दीश्वर द्वीप आदि अनेक तीन लोक क्षेत्र विय, अकृत्रिम जिन मन्दिर हैं, सो "|| तीर्थ हैं तथा और तप-ज्ञान निर्वाण-कल्याणादि अनेक स्थान हैं। जो सर्व पूजने योग्य हैं. शुद्ध तीर्थ हैं ऐसे
कहे जे सकल तीर्थ सो सम्यग्दृष्टिन करि पूजन योग्य तीर्थ हैं तथा राग-द्वेष क्रोधादि कषाय रहित शुद्ध पद दयामयी भाव, निर्मल भाव सो उत्कृष्ट निकट तीर्थ हैं। इन तीर्थन की वीतरागी मुनीश्वर भी वन्दना हेतु यात्रा करें, तो सरामी सम्यग्दृष्टि गृहस्थो हैं। सो उन्हें ऐसे तीर्थन की वन्दना करि अपने लाग्या जो अनादि पाप-मैल, ताकी तीर्थ-जल करि धोय, शुद्ध-पवित्र होना, योग्य ही है। र कहे तीर्थ जिनके किए पाप नाश होय, कषाय मन्द होय, सुबुद्धि प्रकाश होय । तातै ए कहे तीर्थ सो यति-श्रावकन करि पूजने योग्य हैं। तातें उपादेय हैं। इति सुतीर्थ । आगे कुतोर्थ का लक्षण कहिए हैं । तहां केतक भोले-प्राणी जे पुण्य-उदय रहित हैं ते औरन• अनेक राज-भोग भोगते देख, लोभाचारी विषय पोखने वांच्छित सुखक उद्यम करता, काहू अज्ञान गुरु की पूछया। वान या मूर्ख जानि बहकाया । जो तू नहादीर्घ जल के समूह में प्रवेश करि, जल पातन (मरन) करे, तो यह बड़ा तीर्थ है। केतेक भोले प्राणी धन, राज, स्त्री, तन सम्बन्धी अनेक वांच्छित भोग के अमिलाषी होय । काहू कौतुको पुरुषक पूछया, जो वांच्छिन सुख र कैसे मिले ? तब तिस निर्दयीनै कौतुक हेतु, याकौं मूर्ख जानिक कहीं । जो जलती अग्निमैं निःशङ्क होय प्रवेश करै, अपना तन भस्म करें, तो या उत्तम तीर्थ के फलत तोक वांच्छित भोग मिल। सो तू अग्नि-तीर्थ भला जानि। रोसा जान, बाल बुद्धि, लोमो, अग्नि हो मैं प्रवेश करि, तीर्थ मानते भये । सो हे सुबुद्धि ! अग्नि प्रवेश तीर्थ सुबुद्धोन के करने का नहीं है। सो कुतीर्थ हेय जानना और केई भोले जीव ज्ञान-धन रहित सुन्दर खीन के भोग की इच्छावाले ने काहू कू पूछी। जो सुन्दर स्त्री-भोग कैसे मिले ? तब याकू ज्ञान हीन जानि काहू निर्दयी : कौतुक निमित्त करि बहका दिया। कही हे भाई! जो शस्त्रधारा तीर्थ बड़ा है। सो तूं शस्त्र के मुख निशङ्क होय मरण करे तो तोकू
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जोगणो देवी है सो अपना भरतार करै। तहां देवांगना के भोग भोगना मनुष्यन को कहा बात है। तात तूं शस्त्र धारा तीर्थ ते मरि। सो यह भोगार्थी भोला जीव ऐसी ही मानि धारा तीर्थ स्वीकार किया। सो हे भव्य ! यह धारा तीर्थ हास्थ वचन त चल्या है ताते हेध है। यह शस्त्र तैं आप मरै सो महासंक्लेश भाव होय और कं आप रणमैं मार सो महारौद्र भाव होय। सो परघात करनेहारे पापभार सू' देव लोक कैसे होय ? परन्तु जैसेअज्ञान पतंग दीप कू महासुन्दर जानि शिषय-भोग के लोभ नैं दीपक मैं पड़ि भस्म होय है। क्योंकि र पतंग ज्ञान रहित है। तातें अपना पुण्य तो नहीं समझ है। अरु बड़े भोग चाह है। तात मरणका पाय हीन ही गतिमैं उपज है । तैसे ही र भोगामिलाषी शस्त्र के मरणकू तीर्थ को कल्पना करि शस्त्र धारारूपी दीपक मैं पतंग की नाई भस्म होय हैं । सो रौद्र-भावन त मरि अशुभ गति जाय हैं। देव सुख तौ शोल पालना तप, जप, संथम करना दान देना, प्रभु सेवा पूजा करना, दया-भाव राखना. समता पालनो इत्यादिक पुण्य भावनत होय । तात हे सुबुद्धि ए तीर्थ नाहीं। शस्त्रधारा कुतीर्थ है। तातै विवेकः तजने योग्य है। हे भाई! जो शस्त्रधारा का मररा तीर्थ होता। तो जगत् जीव शस्त्र ते डरते नाही सब ही शस्त्र तैं मरते। यह तौ महासुगम है। निकट ही है। कछु धन लागता नाहीं। परन्तु तू विचार। जो लोग खेद खाघ लाखौं धन खरचि, हजारों कोस तीर्थन कू जाय हैं, अरु शस्त्र त डरे हैं। तातै ए कुतीर्थ जानना और यहां कोई कुबुद्धि कहै जो यह धारा तीर्थ हर जगह के करने नाहीं। महासूरमा के करने का है। तो भो भव्य सुनि। बड़े-बड़े महान वंश के उपजे सूरमा राजा, आगे राज सम्पदा छोड़ि युद्ध-शस्त्रघात छोडि समता धारि तप लेय वन मैं तिष्ठ समता भाव धर नाना प्रकार तप करते, शुभ मान्या । मलो देवादि गति गर, सुखी भए। जो शस्त्र-धारा ते भला होता तौ महासामन्त कुल के, तप काहे को लेते ? तातें धारा-तीर्था तजने योग्य हेय है। अरु केई भोले जीव नदीन के जल तैं पाप उतरता माने हैं। जो उन नदी के जल मैं मान कर पाय-मल धुवै है। सो यह कहनेवाला भोला है। शिथिल श्रद्धानी है। धर्म-गांठ रहित है। इस ही बात पैहद खड़ा नहीं रहै है। याहीको कहिए हैं। जो इस शूद्र से मिट्टी का कलश लैय के इस
नदी के जलमैं दश-पांच बार अच्छो रोति से धोय लेय। जिससे वे शूद्र का मिट्टी का कलश, पवित्र होय । ता पीडीए सौगात मपो मानकरी। तो यह कर ये का बर्तन मिनी
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यातें जल कैसे पीवें ? कैसे सपरें ? यह मलिन है। याही भ्रम बुद्धि को ग्लानि नहीं जाय तो याक कहिए । हे विवेकी ! तू देखि | यह मिट्टी का बासन हैं। ताक अग्नि मैं जाल्या है। ऐसे शुद्ध कलश ताकं नदीमैं दश-पांच बेर धोय शुद्ध किया। ताकूं तूं पवित्र मानता नाहीं । तौ हे सुबुद्धि ! देखि । ए शरीर महामलिन सात धातु रूप अपवित्र अरु पाप मैल तैं मलिन आत्मा सो इस नदी के जल ते सपरै (खान करें) तो कैसे पवित्र होय है ? तू हो तौ इस जल तैं धोये पीछे वासन की धिन नहीं तर्ज है। तो और कोई विवेकी परभव सुख का लोभी आत्मा शुद्ध होता कैसे मार्ने ? तातें तेरे ही एकान्त बुद्धि का हठ है। भो भव्य ! जिनकी हृदय कठिन दया भाव रहित है ते अनगाले जल का समूह नदी का स्नान तीर्थ कहे हैं। नदी है सो तन का मैलि दूर करने योग्य है । अरु आत्माकै पाप मैल लाग्या है ताके मेटने को समर्थ नाहीं । तातें ऐसा जानना जो पाप मैल दूर करनेकूं दान पूजा भगवान का सुमरणादि धर्म अङ्ग र उत्तम तीर्थ समता-भाव के कारण समर्थ हैं। नदी तीर्थ हेय है और ज्ञान चक्षु रहित प्राणी समुद्रकों तीर्थ कहैं हैं । ऐसा उपदेश करें हैं अरु आप श्रद्धे हैं। जो जेती नदी तीर्थ रूप हैं सो सर्व या आय मिली हैं बहुत जल का समूह है। हार्ट ए बड़ा दीर्थगमुद्र है। या विषै स्नान किए पाप कटते मानें हैं । सो आचार्य कहैं हैं । हमकूं बड़ा आश्चर्य यह है। जो जाके जल तैं स्पर्श भरा तन फाटै जाके योग तैं केतैक तो जल मैं पैठते ( घुसते ) डरें हैं। उसे केतेक भोले आत्माराम तीर्थ मानें हैं। सो जाका जल तन के लगते खेद करें तो स्नान किए सुख कैसे होय ? तातें हेय है और केतेक सामान्य बुद्धि के पात्र ऐसा समझें हैं तथा औरनको उपदेश करें हैं कि धरती माता बड़ी धैर्य को धरनहारी है। यार्कों जगत् के जीव अनेक प्रकार खोदें फोड़े हैं। यापै कोई धूरा डा हैं। तो भी धरती खेद नाहीं मानें है और इस धरतीत उपज्या अरु इसही धरती मैं मिलना है । तातें जीवत हो धरती मैं गड़ना शरीर सहित धरतो मैं प्रवेश करना सो धरा तीर्थ है। या समान और तीर्थ नाहीं। ऐसा समझा जीवता हो धरती मैं गड़ि प्राण नारों है और या धारा तीर्थ मानें हैं और यो भोला जीव ऐसा नहीं समझे है जो धरती तीर्थ होती तो यामैं मल-मूत्र कैसे करते ? खोदन जालनादि अविनय भी नहीं करते ? तातैं हे भव्य ! ऐसा जानना जो सर्व धरती तीर्थ नाहीं । सिद्धक्षेत्र की धारा तो तीर्थ है और अन्य धरती - तीर्थ हेय है ।
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इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम अन्य के मध्य में तीर्थ परीक्षा विष ज्ञेय हेय-उपादेय का विचार करनेवाला
पञ्च-दश पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥१५॥ आगे परस्पर काल गमावना रूप जो चर्चा तामें ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिये हैगाथा-पुण्णदा अघखय कारिय, चरचोपादेय परमफलदायी पावमयो शुभहारी, सा चरचा तु हेय जिण मग्गो ॥ ४१।।
अर्थ-जा चर्चा ते पुरष होय पाप का नाश होय, सरपंचों तो उपादेय है जोर जातें पाप-कर्म उपजै और अगले किया पुण्य-कर्म ताका अभाव होय ऐसी चर्चा हेय है। ऐसा जिनदेव ने कहा है। भावार्थ चर्चा नाम परस्पर वार्तालाप (बोलने)का है। सो बतलावना है सो विवेकी जीवनकौं ज्ञेय-हेय-उपादेय करि बतलावना योग्य है। सो हो कहिरा है। शुभाशुभ चर्चा का चमुच्चय मैंद सो तो ज्ञेय है। ताके ही दोय मैद हैं। एक शुभ चर्चा है और एक अशुभ चर्चा है। सो जहाँ तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, कामदेव, देव, इन्द्र इत्यादिक, महान् पुरुषन की उत्पत्ति राज-सम्पदा भोग सुख इनका वैराग्य इनके स्वर्ग मोक्ष होने का कथन सो प्रथमानुयोग ताकी चर्चा परस्पर करना। सो पापको नाशै अरु पुण्यफल देय ऐसी चर्चा धर्मात्मा सम्यग्दृष्टिन को उपादेय है। तोन लोक को रचना जो अधोलोक सात राज़ तहां मवनवासी व्यन्तर देव पुण्य का फल भोगते सुख समुद्र मैं मगन भरा काल गवां हैं। ताके नीचे सात नरक हैं। तहां जीव बड़े पापन का फल भोगते, महादुख समुद्रमैं डूब रहै हैं। विलाप करते, काल व्यतीत करें हैं और मध्य-लोक विर्षे असंख्याते द्रोपसमुद्र हैं। तिनमैं पैंतालीस लाख योजन तो मनुष्य-लोक हैं। बाको के सर्व द्वीपनमैं तिर्थक-लोक है। अढ़ाई द्वीपमैं मेरु कुलाचलादिक की चर्चा सो उपादेय है और ऊर्ध्वलोक विर्षे सोलह स्वर्ग हैं। अहमिन्द्र, सर्वार्थसिद्धि आदि के देव. पुण्य फलसुख भोगते सुखी हैं। तिनके ऊपरि सिद्ध-लोक, तहाँ अनन्ते सिद्ध-भगवन्त विराजे हैं। ऐसे इन तीन लोक की चर्चा परस्पर करनी, सो करणानुयोग चर्चा सम्यग्दृष्टिन करि उपादेव करने योग्य है और जहां मुनि-श्रावक के समिति, गुप्ति आदि ग्यारह प्रतिमादि आचार की चर्वा करना. सो चरणानुयोग की चर्चा उपादेय है। जहां जोव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य, धर्म, अधर्म, काल, आकाश-ए षट द्रव्य हैं । जोव-तत्व, अजीव-तत्त्व, पासव-तत्व, बन्धतरव, संवर-तत्त्व, निर्जरा-तत्व और मोक्ष-तत्व। इनमैं पुण्य और पाप मिलाये नव पदार्था। ऐसे षट् द्रव्य, सप्त
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तस्व, नव पदार्थ आदि की चर्चा परस्पर करना सो उपादेय है। याका नाम द्रव्यानुयोग चर्चा है तथा जीव कम। से कैसे बन्ध्या है ? कैसे छूटै ? इत्यादिक चर्चा उपादेय है तथा अनेक तीर्थों को चर्चा, दान-पूजा, शील, संयम, तप, व्रत, दया-भाव, जीवन की रक्षा इत्यादिक केवलो भाषित चर्चा, सो उत्तम चर्चा है । तातैं पाप का नाश और || | पुण्य-कर्म का संचय होय है। तातै उपादेय है। इति शुभ चर्चा । आगे कु-चर्चा-हैय का स्वरूप कहिए है । जहाँ परस्पर चर्चा त पाप का बन्ध होय, आगे का किया पुण्य सो क्षीण होय, ऐसी चर्चा होय हेय है। भावार्थकु-देव, कु-गुरु और कु-धर्म इनकी पूजा-भक्ति की चर्चा। इन कुदेवादिक के अतिशय-चमत्कार की चर्चा प्रशसा रूप बात, सो हेय है। अपने-पराये जान के युद्ध की बात, हारे-जोते की, निन्दा-प्रशंसा की चर्चा तथा खोर की चतुराई की चर्चा, मन्त्र, जन्त्र, तन्त्र, टोणा, चौमणा, ज्योतिष, वैद्यकादि के चमत्कार को चर्चा, मल्लयुद्ध हस्ति-घोटकादि की लड़ाई की चर्चा, रा कु-चर्चा हेय हैं तथा स्त्रोन के रूपलावण्य की वार्ता करनी तथा स्त्रीन के अनेक शुभाशुभ चरित्र, कला, गीत, गान, गालि, नृत्य, भोग, चेष्टादि की चर्चा, सो हेय है तथा अनेक प्रकार भोजन, व्यअन, रस-पान, भोगोपभोग मैं अच्छे-बुरे की चर्चा, सो हेय है और कंपीड़ा उपजाबने की, पराया धन नाश कराने की, पराए मान खण्डन को परस्पर चर्चा, सो हेय है। अनेक देशन मैं, किसी को भला । किसी को बुरा कहने की चर्चा । परस्पर युद्ध होय, द्वेष बधै ताकी चर्चा तथा स्वचक्र-परचक्रादि सप्न ईति-मोति की चर्चा, सो हेय है और तन रोगादिक उपजने की, क्षय होने की इन आदि अनेक विकथा रूप चर्चा, अशुभ बन्ध को करनहारी, सो हेय हैं। | इति श्रीसुदृष्टितरंगिणी नाम ग्रन्थके मध्य में चर्चा विर्षे ज्ञेय हेय-उपादेय का वर्णन करनेवाला सोलहवां पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥१६॥'
आगे अनुमोदना अधिकार में ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिये है तहां शुभाशुभ कार्यन की अनुमोदना के समय भाव का जानना, सो तो ज्ञेय है। ताही ज्ञेय के दोय भेद हैं। एक शुभ अनुमोदना है, एक अशुभ अनुमोदना है। भावार्थ-जहां लौकिक कार्यन में, पुत्र-पुत्री के शादी-ब्याह में, मन्दिर-महल के आरम्भ में, युद्ध विर्षे, अपने
मन की अनुमोदना हेय है तथा भले रूप में, भले भोजन में, कूप से पानी के कादिवे में, वापी-तालाब के खदावे २३३ || मैं इत्यादिक भमि खोदने के आरम्भ मैं अनुमोदना, पाप-बन्ध करे है. तातें हेय है तथा काहू नै काह पे शस्त्र
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मलाया, लकड़ी का प्रहार किया, यह देखि, अनुमोदना करनी हेय है तथा काह का धन लुटता देखि-सुनि तथा सन पीड़ा देखि तथा काह के हाथ-कान-नाकादि अङ्ग उपाङ्गछेदते देखि, अनुमोदना करना हेय है तथा कोई
| २३४ के कु-तप व कु-ज्ञान को दीर्घता देख, अनुमोदना करनी हेय है और कोई कुदेव-गुरुन के बड़े आरम्भी बड़ा द्रव्य लागत के मन्दिर मठ स्थान देखिल नानुनदना कामा, बागकामा जागिहेरे है और तोर, गोली, नाली, तोप, बन्दुक, कमान, छुरो, कटारी, शमशेर, बरछो इत्यादि अनेक शस्त्र, जीवघात के कारण देखि इनकी अनुमोदना करनी हेय है और कोई भला बाणावणी (धनुर्धारी) अनेक शस्त्र कला मैं प्रवीश तोर गोला-गोली का चलावनेहारा पुरुष की अनुमोदना हेय है तथा नदी सरोवरन की पाली (बांध ) फोड़िक तथा फूटी देखि के तथा नगर वन मैं अग्नि लगी दैखि तथा नगर मुल्क को लटता देखि सनिक अनुमोदना अशुभ फल देनहारी है। तातें हेय है और कु-तीर्थन के स्थान तथा तिनके कर्ता देखि तिनकी अनुमोदना करनी हेय हैं और कृण्यारम्भ पशु संग्रह खेटकादि जीवघात विष हर्ष करना हेय है और अनेक मिथ्यात्व कारगन में तथा बहु पापारम्भ परिग्रह के विकल्पन में हर्ष अनुमोदना ये जानि तजना सो गुणकारी है। इति पाप अनुमोदना हेय है। आगे शुभ अनुमोदना उपादेय कहिश है। जहां मुनीश्वर ध्यानाग्नि त कर्मनाशि निरजन भए तिनकी वन्दना में हर्ष करना उपादेय है तथा कोई भव्य आत्मा गुरु का उपदेश पाय संसार दशा तै उदास होय तप करता होय ताकी अनुमोदना उपादेय है तथा कोई जिन-दीक्षा धारी मनोश्वर शक-ध्यान करि च्यारि घातिया-कर्म नाश के केवलज्ञान पाया, तिनकी वन्दना में हर्ष-अनुमोदना उपादेय है और जिन कालन मैं निर्वाण केवलज्ञान, तपकल्याणक हुए तिन कालन की पूजा-वन्दना विर्षे अनुमोदना उपादेय है और जहाँ कोई भव्यात्मा धर्मो जीवकौं सम्यक प्रकार बारह प्रकार तप करता देखि तथा अनेक तीर्थ सिद्धक्षेत्रन की वन्दना करते देखि तथा अकृत्रिम अरु कृत्रिम जिन चैत्यालयों की वन्दना करता देखि, इन कार्यन मैं भव्यात्मा कू प्रवर्ते देखि, तिनकी अनुमोदना करना उपादेय है तथा तीर्थकर के पञ्च हो कल्यासकन के समय देखि-सुनि हर्ष भाव, उपादेय है तथा अष्टाहिका के दिनों में इन्द्रादि देव नन्दीश्वर द्वीप विष जाय पूजा-उत्सव करें, तिस काल मैं वन्दना करना हर्ष सहित-तामैं अनुमोदना उपादेय है और श्री दशलक्षण पर्व आदि मैं पूजा संयम तप जे भव्य करें तिनकी अनुमोदना उपादेय है।
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तथा जिन मन्दिर कराय तिनकी प्रतिष्ठा का उत्सव करि हर्ष मानना तथा और भव्य ने किया होय तो ताकी उत्तम भावना देखि हर्ष अनुमोदना करना उपादेय है और जहां निरन्तर करि मलिका दान आएकै तथा परकें या जानि अनुमोदना करना उपादेय है तथा कोई भव्यात्माकूं जिनवाणी का अभ्यास करता देखि तथा सुनि हर्ष करना उपादेय है तथा कोई धर्मात्मा कं दीन जीवनकूं दया भाव सहित दान देता देखि हर्ष करना. उपादेय है तथा काहू भव्यात्मा पुरुष की करो जिन मन्दिर की अनेक शोभा-रचना देखि, अनुमोदना करना उपादेय है तथा जिन मन्दिर के उपकरण छत्र, चमर, सिंहासन, मामण्डल, घण्टा, चन्दोवा तथा पूजा के उपकरण थाल, रकेबी, झारी, प्यालादि देखि हर्ष करना उपादेय है तथा उत्कृष्ट अक्षर पत्र. बन्धना पूठा सहित शास्त्र देखि तथा काहू धर्मी नै शास्त्र लिया तथा लिखाया देखि अनुमोदना करनी उपादेय है तथा कोई भव्य का मिध्यात्व नाश सम्यक्ष-भाव भया जानि तथा कोई जीव-धर्म सन्मुख भया देखि इनकी हर्ष अनुमोदना करना उपादेय है और पश्च परमेष्ठी को भक्ति सहित जीवकों देखि तथा तीर्थङ्कर का समवशरण देखि तथा रचना सुनि तथा मुनि, आर्थिक श्रावक श्राविका व्यारि प्रकार संघक देखि हर्ष भाव करना और अपने से गुणाधिक धर्मात्मा जीवक देखि अनुमोदना करना, उपादेय है तथा किसी धर्मात्मा जीवकूं तीर्थ-यात्राकूं उत्सव सहित जाता देखि अनुमोदना करनी तथा कोई धर्मात्मा जीवनको साता देखि तथा धर्मो जीवन के समूह में साता सुनि अनुमोदना करनी उपादेय है। ऐसे कहे जो अनेक पुण्य उपजने के पूज्य स्थान तिन सर्व मैं सम्यग्दृष्टि जीवनको हर्ष अनुमोदना करना उपादेय है ।
इति श्री सुष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में अनुमोदना भेद की परीक्षा विशेष हेय उपादेय का कथन करनेवाला सतरहवीं पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥
आगे मोक्ष विषै ज्ञेय हेय उपादेय कथन कहिए है
गाथा - मोडे गे हे पाये, आवागमणीय मोक्ख हे भणियो । कम्म विमुक्को मोक्लो, पादेयो सुह दिट्टीए ॥ ४२ ॥
अर्थ- मोक्ष विषै ज्ञेय-हैथ उपादेय है। सो जो आवागमन सहित मोक्ष है सो तौ हेय है और कर्म रहित मोक्ष है सो सम्यग्दृष्टि जीवन करि उपादेय है। भावार्थ- समुच्चय मोक्ष का जानना सो तौ ज्ञेय है । ताही ज्ञेय
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के दोय भेद हैं। तहां भोले जीवन का कल्पा जो लौकिक मोक्ष सो ता मोक्षको रौसा मान हैं कि जो आत्मा ।। मोक्षजाय सी तहाँ महासुखी रहै । पीछे शुद्धात्मा की इच्छा होय तो संसार विर्षे पोछे आवै । सो ऐसा मोक्ष । संसार समान है। काहे ते? जो जन्म-मरण तौ संसार का स्वभाव है। अरु मोक्ष विर्षे जन्म-मरण नाही।
२३६ है । तात जे अल्पज्ञानी मोक्ष जीवनकौं जन्म लेना फेरि मानें हैं। सो मोक्ष हेय है। शुद्ध जो मोक्ष है। तहाँ । गया जीव फेरि अवतार लेता नाहीं। जैसे-पृथ्वी की खानि विष ते अग्नि आदि के निमित्त पाय करि ।। यतनपूर्वक कादया जो सुवर्ण, सो मिट्टी से भिन्न भये पीछे मिट्टी में मिलाइये तो मिलता नाहीं। तैसे ही शुद्ध जीव, कर्म मल दुरि कर मोक्ष भरा पीछे तन रूपी मिट्टी में मिलता नाहीं। तातै मोक्ष भर पीछे जिस मोक्षत पीछा जन्म होय सो मोक्ष विवेकीन के तजने योग्य हेय है। अरु केतेक मोले पण्डित हैं ते मोक्ष जीवकों राग-द्वेष सहित मानें हैं ऐसा कहै हैं जो मोक्ष मैं भगवान, सर्व संसारी जीवन . लेखा लेय है। सो जाने अपनी भक्ति नहीं करी तिनक नरक-कुण्ड मैं डार है और ज़ारा अपलात जाने है ताकों अपने पास मोक्ष में राजी होय राखे है । सो भो भव्य ! हो ऐसा राग-भाव अरु द्वेष-भाव मोक्ष में नाहीं। जहां राग-द्वेष होय सो संसार स्थान जानना । तातं राग-द्वेष सहित जो मोक्ष होय सो हेय है और केतक संसारो चतुर नर ऐसा मान हैं। को मोक्ष विष पंचेन्द्रिय महासुख है। या कहै हैं जो मोक्ष विर्षे भगवान्कू इन्द्रियजनित बड़ा सुख है। ऐसा सुख और कहूँ नाही उत्कृष्ट भोजन अमृतमयी भोगने योग्य रस ताळू भोग है और अनेक सुख नासिका इन्द्रिय क सुखदाई ताहि सूघे है और नाना प्रकार के नृत्य-गीत-वादिन भगवान् के मुख आगे मोक्ष मैं अनेक अप्सरा चरित्र सहित करं हैं । तिनको भगवान देखि महासुख भोगवे हैं। इन आदि अनेक अप्सरानकों भोग सहित अनेक इन्द्रियजनित सुखकू भोगवे है । सो हे धर्मात्मा जीव! तूं चित्त देय सुनि । अरु मन में विचारि । जहां इन्द्रिय सुख है । सो मोक्ष नाही संसार ही जानना और मोक्ष है तहा इन्द्रियजनित सुख नाहीं। मोक्ष सुख तो इन्द्रियन अतीत है। अतीन्द्रिय सुख का भोगता शुद्धात्मा है! इन्द्रिय सुख आकुलतारूप है और मोक्ष आकुलता | रहित है। तातें जिस मोक्ष मैं इन्द्रिय सुख होय सो मोक्ष हेय है और केतेक ज्ञान-चक्षु-हीन ऐसा कहे हैं। जो मोक्ष वि भगवान् सदैव बैठे पुस्तक के पत्र देखा करै हैं। तहां संसारी जीवन के आयुष का प्रमाण लिया है।।
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। सो जाका आयुष्य के दिन पूरण होय तब भगवान् के सेवक सदैव पास ही रह्या करें हैं तिन यमन (सेवकन) । कंखिदाय ( भेज) ताका जीव भगवान् अपने पास मंगाय लेंय । पीछे सुख-दुख देय हैं। या जीव का लेखा लेय
हैं । जो त संसार मैं जायकै कहा किया, सो वाकौ पंछे हैं। सो वानै पाप किए होंय तो तहां भगवान के लोक मैं नरक-कुण्ड है तहाँ नाखि दुखी करें हैं और वान पुण्य किए होंय तो भगवान् के लोक मैं नाना प्रकार रतनमयी महल हैं सो ताकों धन-धान्य तें भरे महल-मन्दिर देय सुखी करैं हैं। जैसा जाका शुभाशुभ कर्तव्य होय तैसाही सुख-दुख भगवान् देय हैं। ऐसे रात्रि-दिन भगवान निरन्तर लेखा-देखा करें हैं। ऐसा विकल्प सदैव मोक्ष मैं भगवान् कौं बता हैं केले पण्डित विवेकी भोले ऐसा कहें हैं। तिनकौं कहिए है। भो मोक्षामिलापो ! हो मोक्ष वि ऐसा विकल्प नाहों जहां विकल्प है ते संसारी स्थान जानना। मोक्ष तौ निर्विकल्प है, निराकुल है। तातै जाकै मोक्ष विर्षे इतना विकल्प होय सो मोत हेय है और केतक जीव ऐसे ही शरीर सहित मोक्ष में हैं। ऐसी कहैं हैं कि जायै भगवान् कृपा करि राजी होय । ता मनुष्य कू अपना भक्त जान यह सप्त धातु के भरे शरीर सहित हो, अपने पास मोक्ष मैं बुलाय सुखी कर है। जो कोई नगर भर के लोक भगवान की भक्ति करें तो भागवान् सन्तुष्ट होय सर्व नगर के लोकनकी ही अपने पास मोक्ष में बुलाय लेय हैं। केतेक जीव ऐसा मानें हैं तिनकौं कहिर है । भो सुज्ञानी जीव ! तूं सममि । यह अपवित्र शरीर महामलिन सप्तधातु व मल-मूत्र का मरया, मूर्तिक जड़ शरीर, सो तो मोक्ष में जाता नाहीं। अरु जहां इस मूर्तिक शरीर का आना-जाना होय सो संसार अवस्था हो है। मोक्ष विर्षे मूर्तिक शरीर है नाहों मोक्ष मैं अमूर्तिक शरीर है। तातें जाको मोक्ष में मूर्तिक शरीर जाना हो सो मोक्ष हैय है । अरु केतेक ज्ञान-दरिद्री मोक्ष मैं शून्य भाव मान हैं । जीव ऐसा कहैं हैं। जो जेते सुख हैं। सो तो सर्व संसार मैं हैं। रबी सम्बन्धी भोग सख, नाना प्रकार षट रस मेवादि मोदकादि जिहा इन्द्रिय के सुख तथा नाना प्रकार सुगन्ध नासिका इन्द्रिय के सुख और नाना प्रकार रतन-कनक के आभूषण वस्त्र
स्त्रोन के रूप नृत्य-शोभादि अनेक चक्षु इन्द्रिय के सुख और अनेक प्रकार मिष्ट-स्वर सहित अनेक सङ्गीतादि २३७
राग को वीणा, बांसुरी, पखावज, तन्दुरादि अनेक सचित्त-अचित्त मिश्र स्वरन के मनोज्ञ राग शब्द, सो कर्ण इन्द्रिय के सुख । र पञ्च ही इन्द्रिय सम्बन्धी जेते सुख हैं सो संसार में ही हैं। ए सुख मोक्ष में नाही, वहां तौ ।
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शून्य है। नहीं कछु सुख, नहीं कछु दुख। शून्य स्वर है। नहीं बोलना, नहीं चालना, नहीं गावना, नहीं खावना, केवल एक शून्यता। ऐसा मोह केई जीव माने हैं। ताको कहिए है। भो मोक्ष के वांछक ! सुनि। अरु विचार दैनि। मुख रहित मान्यता तौ मुख के होय तथा सौते के होय तथा वायु-सन्निपात रोगवाले के होय तथा सुख रहित शून्यता दीन-दरिद्री के होय तथा जाके इष्ट का वियोग होय, शोक करि भर या होय, अज्ञान-मोह तँ जड़ समान होय गया होय तथा काष्ठ पाषाण की मूर्ति, चेतना भाव रहित के होय इत्यादिक स्थानकन मैं शून्यता होय और परमात्मा. शुद्ध निराकार वेतनमति ज्ञान भरडार के मोक्ष में शन्यता नाहों। महासुख सागर मैं मगन हैं। जैते सुख संसार में है तिनतै अनन्तगुरो सुख मोक्ष में हैं। तातें जाका मोक्ष में शन्यता भाव होय सो मोक्ष हेय है। इति हेय मोक्ष। आगे उपादेय मोक्ष कहिए है। भी सुख के अर्थो! तुं चित्त लगाय सुनि। जो आत्मा जन्म-मरण के महादुख न तैं भय खाय, दिगम्बर पद धारि, नाना तय करि, कर्म बन्धन छेद, मोक्ष को प्राप्त मया, सो अब जन्म-मरण ते रहित होय भव बन्धन तैं छूटा, मोक्ष के ध्रव स्थान विर्षे तिष्ठया, सो आवागमन का महादुख मिटाय सुखी भया और मोक्ष वि राग-द्वेष का अभाव होते महासुख होय है। रा राग-द्वेष हैं सो हो महादुख हैं, सो मोक्ष में रा राग-द्वेष नाहों। मोक्ष जीव अनन्त सुख का धारी है। जे संसारिक इन्द्रियजनित सुन हैं, सो सर्व विनाशिक हैं। क्षणभंगुर व पराधीन हैं। सो इन्द्र, चक्री, कामदेव, नारायण, बलभद्र और अहमिन्द्रादिक-ए सर्व देव मनुष्यन के अनन्तकाल का सुख है। तिस सुख तें भी अनन्तगुणा अतीन्द्रिय सुख मोक्ष का सुख है। तात मोक्ष सुख इन्द्रिय रहित है। तातें ही उपादेय है। अर मोक्ष जीव विकल्प रहित एके काल सर्व जगत के पदार्थन का स्वरुप जान है और विकल्प है सो जो हीन ज्ञानी व हीन शक्ति होय तिनकै होय है। तातै अनन्तज्ञान शक्ति का धारी परमात्मा के विकल्प नाहों और सर्व द्रव्य कर्म परित का नाशि करि तज्या है औदारिकादि पौद्गलिक स्कन्धमयी शरीर जानै सो सिद्ध पद का धारी सिद्ध जीव सो अमूर्तिक है। निरञ्जन दशा धरै सुख का पिण्ड है और केवलज्ञान केवलदर्शन करि सर्व लोकालोक का वैत्ता है। र सर्वज्ञ वीतराग घट-घट के अन्तर्यामी भवसागर के तारक हैं और चैतन्य सदैव आनन्द मूर्ति जड़त्व भाव जो शून्यता दशा तातै रहित हैं। ऐसे जन्म-मरण रहित राग-द्वेष वर्जित अतीन्द्रिय सुख का भोगी विकल्प रहित निराकार
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पौगलिक शरीर रहित सर्वज्ञ पद धारी ज्ञान मूर्ति चेतन चमत्कार लिए ऐसे गुरु का धारी मोक्ष जीव है, सो ऐसा मोत उपादेय है। इस मोक्ष का नाम लिये, सुमरण किये, पूजा किये श्रद्धान किये, आशा किये महापुराय फल होय । तातें परमव में उत्तम पद पाय परम्पराय मोक्ष का वासी होय । तातैं सम्यग्ज्ञान सम्पदा के धारक भव्यात्मा को ऐसा मोक्ष उपादेय है।
इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में मोक्ष तत्व विशेय-य-उपादेय का वर्णन करनेवाला अठारहवाँ पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥
आगे ज्ञान विषै ज्ञेय- हेय-उपादेय कहिए हैं
गाथा - गेय योदेजी, पाणचय वसु भेय जिणउतं । जाण कुणाणय हेयं, जवादेयं पण सुद्ध जाणन्तु ॥ ४३ ॥ अर्थ- ज्ञेय है- उपादेय करि ज्ञान के आठ भेद है। तीनॐदेय हैं ऐसा जिनदेव ने कह्या । भावार्थ - सु-ज्ञान-कु- ज्ञान का समुच्चय जानना सो तो ज्ञेय हैं और ताही के दो भेद हैं। एक ज्ञान हैय है, एक ज्ञान उपादेय है। तहाँ कु-मति ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान, कु-वधि- ज्ञान - रा हैय ज्ञान हैं, सो ही कहिए हैं । जहाँ हिंसा - ज्ञान की चतुराईं होना। जहाँ जीव पकड़ने कूं जाल बनायव का ज्ञान अरु ता ज्ञान तैं फन्दा करना फाँसी, पींजरा, छूरो, कटारी, बरछी, तलवार, बन्दूक इन आदि अनेक हिंसा के कारण शस्त्र बनावना सो कु-ज्ञान है तथा चित्राम, शिल्प-कला, भण्ड-कला, युद्ध-कला, चौर-कला-इनकूं आदि पर के ठगने की अनेक चतुराई को युक्ति का उपजना सो कु-ज्ञान हैं तथा और जीवनका अनेक दुख देने की कला चोर व कुमारगो जीवनको दण्ड देने की कला - चतुराई जो इसकूं ऐसे मारिए तो बहुत दुखी होय इत्यादि ए कुझान है और कौतुक हाँसी अनेक भाव करि परको खुशी करिए तथा नाना प्रकार के स्वांग धारिलोकनकूं आश्चर्य का उपजावना। चोरों व परदारा सेवन में प्रीति भाव इत्यादि ज्ञान की चेष्टा लौकिक मैं प्रवर्तती है, सो कु-पति-ज्ञान ॥ इति कु-मति-ज्ञान । आागे कुश्रुत ज्ञानक कहिए हैं। तहाँ युद्ध शास्त्र का ज्ञान, नाना प्रकार रसिक प्रिय श्रृङ्गार शास्त्र आदि कामोत्पत्ति के कारण इस शास्त्र, सङ्गीत शास्त्रादिककुश्रुत ज्ञान हैं और हिंसा के कारण जिनमें पर-जीव घांत का उपदेश सो कु-श्रुत हैं तथा
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जिनमें कु-देव कु-गुरुन के पोषक अनेक द्रव्य चढ़ाने का कथन तथा र देव ऐसा भक्ष लेय है, तब तृप्त । होय हे इत्यादिक कथन जिन शास्त्रन मैं होय सो कु-श्रुत है तथा कु-गुरु पोषनेक ऐसा भोजन ऐसे वस्त्र, ।। धन, मन्दिर, देव, गुरु की सेवा कीजै तथा दासी-दास-स्त्री गुरुन की सेवाकों दीजे, तौ अप्सरान का भोगी होय ऐसा फल पावै तथा गज, घोटक, रथ, पालकी गुरुनकू दीजिए तो देव-विमान का फल पावे इत्यादिक कथन जिन शास्त्रन में होय, सो कु-श्रुत है। इन कु-श्रत शास्त्रन का जाकै ज्ञान होय, सो कु-श्रुत-ज्ञान है । सो सुदृष्टिन करि हेय है। इति कु-श्रुत-ज्ञान । आगे विभंग ज्ञान का कथन करिये है। तहां आत्म हितकं कारण सम्यग्दर्शन सो ऐसे सम्यक्तव बिना मिथ्या भाव सहित इस भव-पर-भव की वार्ता जानना तथा दूरवर्ती पदार्थन को जाने, सो विभंग-ज्ञान है तथा याही का नाम कु-अवधि भी है। ऐसे कहे जो सामान्य अर्थ सहित कु-मति, क-श्रुत और कु-अवधि-ए तीन कु-ज्ञान सो सम्यग्दृष्टिन ते हेय हैं। ऐसे तीन कु-ज्ञान कहे। आगे पांच सुज्ञान कहिए हैं। प्रथम नाम-मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मनःपर्यय-ज्ञान और केवल-ज्ञान । तहाँ मति-ज्ञान कहिरा है-सो मति-ज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं सो सुनो । प्रथम भेद चारअवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनका अर्थ-जहां पदार्थ का दुरतें सामान्यावलोकन होय जैसेकाहू नै दूर से एक स्तम्भ देखा, परन्तु भेदाभेद नाहीं किया सामान्य-सा भाव जो कछू है देखा। ऐसे भाव का जानना सो अवग्रह कहिए और उसही देखे स्तम्भ मैं भेदाभेद करना 1 जो यह स्तम्भ है या मनुष्य है ? रोसे विकल्प का नाम ईहा मेद है। पीछे वाही स्तम्भकाँ जान्धा। जो मनुष्य तौ नाहों स्तम्भ है। ऐसे विचार का नाम अवाय कहिर और आगे बहुत दिन पहले स्तम्भ देखे थे। तिनका सुमरण किया। जो आगे स्तम्भ देख्या तैसा ही यह है, सो स्तम्भ है। निश्चयतें ऐसे दृढ़ भाव विचारना, सो धारणा है। ऐसे अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा—इन च्यारि भेदन करि पदार्थ जानिय, सो मति-ज्ञान भेद है। अरु रही च्यारि भेद पंचेन्द्रिय और मन इन षट ते परस्पर लगाय गुणिए तौ चौबीस भेद होय हैं। जैसे-स्पर्श इन्द्रिय से कोई वस्तु-पदार्थ स्पर्या । तब सामान्य-भाव जान्या जो कछु है । विशेष भेद नहीं किया, सो स्पर्श इन्द्रिय ते अवग्रह भधा। फेरि विचारी जो रा पदार्थ पांव ते स्पर्धा सो कहा है ? कठोर-कठोर है गोल है, सो के तो कोई रतन
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है या कंकड़ है। इस विचार का नाम स्पर्श इन्द्रिय का ईहा भेद है। फेरि याही को विचारिये कि जो यह गोल है साफ हैं सो रतन है। इस विचार का नाम स्पर्शन इन्द्रिय का अवाय भेद है और तहाँ आगे कबहं पांव नीचे रतन आया था ताकी यादि करि जानी जो आगे पांव नीचे रतन आया था तैसा हो र भी है सो रतन हो है। ऐसा निश्चय करना सो स्पर्शन इन्द्रिय की धारणा है। ऐसे कहे स्पर्शन इन्द्रिय ते च्यारि भेद। सो ऐसे ही रसना, घ्रारा, चक्षु, श्रोत्र और मन-इन छहों त लगाय चौबीस भेद हैं और इन चौबीस मैं स्पर्शन, रसन, घ्रास । और गोत्र-राज्यानि भेट मिला सहाईस होय । इन अठाईस भेदनकों बहु बहुविध आदि बारह भेदनत गुणिय तौ तीन सौ छत्तीस भेद मति-ज्ञान के होंय । इन मति-ज्ञान के भेदन की पल्टन का एक विधान और तरह है । सो बताएँ हैं। अवग्रहादि च्यारि भेदन कू पंचेन्द्रिय और मनतें गुणे चौबीस भेद होय। इन चौबीसकों बहु आदि बारह भेदन तें गुणें दोय सौ अट्ठासी होय है। सो ए तो जावग्रह के हैं और स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र-इन च्यारि इन्द्रिय ते बहु आदि बारह भेदन कौं गुणें अड़तालीस भेद भए, सो र व्यअनावग्रह के हैं। दोऊ मिल तीन सौ छत्तीस भेद रूप मति-ज्ञान होय हैं। इहां सामान्य भाव कह्या । विशेष श्रीगोम्मटसारजी तें जानना। इति मति-ज्ञान भेद। आगे श्रुत-ज्ञान का सामान्य भेद कहिये है श्रुत-ज्ञान के अनेक भेद हैं। तहां मूल भेद दोय अङ्ग द्वादश अरु प्रकीर्णक भेद चौदह । तहां द्वादशांग के भेद दोय । ग्यारह अङ्ग अरु बारहवें अङ्ग के पञ्च भेद तहां चौदह पूर्व का कथन है। तिनही अङ्ग-पूर्वन मैं गर्मित योग च्यारि प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग-इन योगन मैं कथन जहां तीर्थकर, चक्री, प्रतिचक्री, इन्द्र, देव इत्यादि महान पुरुषन की कथा जामैं होय सो प्रथमानुयोग है और तीन लोक की रचना का जामैं कथन होय सो करणानुयोग है और मुनि श्रावकन के आचार का जामैं कधन सो चरणानुयोग है और षट द्रव्य, नव पदार्थ, सप्त तत्व, पश्चास्तिकाय का कथन जहां होय सो द्रव्यानुयोग है। तहां षट द्रव्य के गुण पर्याय का कथन सो तिन द्रव्यन करि संसार रचना व्यारि गति बनी है ऐसा कथन और द्रव्य में षट गुण हानि वृद्धिरूप परिणमन सो तथा द्रव्य का अपने-अपने व्यय प्रौव्य उत्पाद सहित तीन भेद रूप प्रवर्तना कथन सो स सर्व श्रुत-ज्ञान के भेद हैं। तहां उत्पाद व्यय प्रौव्य का सामान्य कथन कहिर है-जो वस्तु
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विनाशे सो तो व्यय कहिय और नवीन वस्त को पर्याय का उपजना सो उत्पाद है और वस्तु का सदेव शाश्वत रहना सो ध्रुव है। जैसे-कर का कनक का चड़ा तुड़ाय कुण्डल करवाना । सो इसी ही में तीन भेद सधैं सो बताइए हैं। तहाँ द्रव्य भाव तौ सवर्ण सो शाश्वत सो ध्र व कहिये । चूड़ा की पर्याय टूटो सो ताईं व्यय कहिए और कुण्डल बन्या सो ताकी पर्याय नतन उत्पन्न भई ताक उत्पाद कहिए। ऐसे श तीन भेद जानना। तैसे ही आत्मा तौ द्रव्य और मनुष्य पर्याय छोडि देव भया। सो मनुष्य पर्याय का तौ व्यय भया और देव पर्याय का उत्पाद भया। जीवत्व माव दोऊ मैं शाश्वत है, सो ध्रव है। ऐसे नय भेद तें व्यय ध्रुव उत्पाद अनेक पदार्थन मैं साधना। ऐसे अनेक नय का स्वरूप श्रुत-ज्ञान ते जानिए है। तातै श्रुत-ज्ञान उपादेय है और श्रुत-ज्ञान तें और भी ज्ञाता-ज्ञान व ज्ञेय का स्वरूप जानिये हैं । तातै उपादेय है। तहां ज्ञाता तो आत्मा है । ज्ञाता का गुण झान है और ज्ञान के जानपने मैं जाले सो ज्ञेय है। जान सर्व क्षेत्र का जाननहारा है। ऐसा ज्ञाता-ज्ञान व ज्ञेय का स्वरूप श्रुतज्ञान तें जानिए है। तातें उपादेय है और भी श्रुत-ज्ञान के स्वरूप में ध्याता-ध्येय व ध्यान का स्वरूप कहिए है। तहां ध्याता तो आत्मा है और जा वस्तु कंध्यावै सो ध्येय है और ध्यावते ध्याता के भाव का विकल्प सो ध्यान है। जैसे—धर्मो जात्मा तौ ध्याता है। पश्चपरमेष्ठी ध्येय है ताकों ए ध्याता ध्यावे है और पञ्चपरमेष्ठी के गुणन का समरण सो ध्यान है तथा और दृष्टान्त करि कहिए है। जहां कोई पापी आत्मा तौ ध्याता है और पर-स्त्री भलेरूप सहित देखि ताके मिलाप की चाह ध्येय है और उस स्त्री के रूपादिक गुण: ताका विचार सो आतथ्यान है। ऐसे अनेक जगह ध्याता-ध्येय-ध्यान का स्वरूप सधै है। सो ऐसा भाव श्रुतज्ञान से जानिए है । तात उपादेय है और भी कर्ता कर्म क्रिया का स्वरूप श्रुत-ज्ञानतें कहिए है । कर्ता तौ आत्मा है और जो वस्तु याने बनाय तैयार करो, सो कम है। अरु उस वस्तु के करते, भई जो मन-वचन-काय की हल-चल, सो क्रिया है। जैसे—कोई धर्मात्मा जीव अष्ट द्रव्य मिलाय भगवान का पूजन करें है, सो तो कर्ता है और ताके फलत देवगति, देवायु, सुभग, आदेय, सौभाग्य, सातावेदनीय आदि अनेक बन्ध किये जो शुभ-कर्म, सो इसका कम है और पूजा विर्षे भले भाव का राखना, विनय ते काय का राखना, विनयतें वचन का बोलना, ।। विधि सहित हाथ जोरे हर्ष तें खड़ा रहना इत्यादिक भक्ति-भाव रूप प्रवृत्ति सो क्रिया है तथा और तरह कहिए
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हैं। जैसे - कोई जड़िया तौ कर्ता है और नाना प्रकार रतन जड़ि करि तयार किया जो मुकुट तथा हार, सो कर्म है और इनके करते भई जा मन-तन को प्रवृत्ति, सो क्रिया है। ऐसे अनेक पदार्धन पे लगावना । इस विधान सहित नय-प्रमाण कथन श्रुत ज्ञान तें पाईए हैं। तातें उपादेय है और भी श्रुत ज्ञान तैं पल्य-सागर का कथन कहिए है। तहां पल्य मेद तीन --- जघन्य, मध्यम अरु उत्कृष्ट । तहाँ जघन्य का स्वरूप कहिये है — ए जघन्य पल्य ऐसे हैं । जैसे—मानी- मनसा के प्रमाण बांधवे कूं रत्ती होय हैं। रत्ती तैं मासा, मासा तैं रुपया. रुपैया तैं सेर, सेर तैं मनादिक। जैसे रत्ती तैं मनेसा का प्रमाण किया, तैसे जघन्य पल्यतै सागर की उत्पत्ति हाय है । सोही कहिए है- एक बड़ा योजन का प्रमाण सहित गोल गड्ढा कीजिये तेता ही चौड़ा, तेता हो
डा (गहरा ) । मैं भोग भूमि को बकरी का तुरन्त का भया बच्चा ताके रोम का अग्र भाग का बारीक खण्ड लीजिये । तिन रोम खण्डन तैं वह कूप भरिए । दृढ़ कर कूट-कूटि धरतो बरोबर भरिये । ता पीछे सौ वर्ष
तब एक रोम काढिए फेरि सौ वर्ष गये एक रोम काढिए। ऐसे करते सर्व कूप खाली होय । ताकूं जेता काल लागे सो जघन्य व्यवहार पल्य कहिए है और जघन्य पल्य मैं जेता रोम आवे तितने कूप कूं उस हो कूप प्रमाण करि वैसे ही रोमों तैं भरिए दृढ़ करिए। असंख्यात वर्षे जांय तब एक-एक रोम काढ़तें एक कूप दो कूप रितावतें सर्व खाली होंय । सर्व कूपन के रोम खाली होय । ताकौं जेता काल लागै सो मध्य पल्य कहिए और इस मध्य पल्य के जेते रोम भए तेते ही कूप उस ही विस्तार प्रमाण बनाए। वैसे हो रोमन सबको दृढ़ भरिए । पोछें असंख्यात लाख कोटि वर्ष गए एक रोम काढ़िए। फेरि राता ही काल गए एक रोम काढिए । ऐसे करते-करते सर्व कूपन के रोम खाली होय । ताकों जेता काल लागे सो उत्कृष्ट पल्य है। याही उत्कृष्ट पल्य तैं देव नारकी भोग-भूमिन की उत्कृष्ट आयु-कर्म है और मध्यम पल्य तें द्वीप समुद्रन की गिनती होय है । सो पचीस कोड़ाकोड़ी मध्यम पल्य प्रमाश हैं और दश कोड़ाकोड़ी पल्य का एक सागर होय है। मध्य पल्य दश कोड़ाकोड़ी का मध्य सागर होय है। उत्कृष्ट दश कोड़ाकोड़ी पल्थ गये उत्कृष्ट सागर होय । ऐसे सामान्य करि पल्य का कथन किया। विशेष श्री त्रिलोकसारजी आदि ग्रन्थ हैं देखि लेना । ऐसे पल्य सागर का भाव श्रुत ज्ञान तें जानिए है । तातै श्रुत ज्ञान उपादेय है और भी श्रुत ज्ञान कृतनी विश्वास
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घाती का स्वरुप जान्या जाय है। सो कहिय है--जो पराया किया उपकारको भले सो कृतनी है। सो कृतघ्नी के भेद तीन है-घर, पर और धर्म-इन तीन का उपकार अन्य जीव पै होय है। सो जैसे—माता-पिता ने बालक अवस्था में महा यतन किये। शीतकाल में तथा उष्णकाल में अनेक सहाय करि मोह के वशीभत होय अनेक यतन करि पाल रक्षा करी। तरुण किया सो बड़ा मया तब माता-पिता का उपकार भूलि उनत द्वेष-भाव करि जुदा होना, अविनय करना, कटु वचन बोलना, दुख देना, माता-पिता ते ईर्षा करनी, सो र घर कृतघ्री कहिए तथा और अन्य घर में बड़े थे। तिनने भी बालपने में अनेक तरह रक्षा करी। ऐसा विचार करें जो ए बड़ा होय तब हमारी आज्ञा मानेगा, हमारी सेवा करेगा, हमको बड़ा मानेगा। रोसो जाशा करि कुटुम्ब के लोगन नै प्रति पालना करी थी। सो बड़ा भए उल्टा कुटुम्बकौं दुखी करना, सो घर कृतघ्री है। ऐसा जानना और कोई जो परजन बड़े मनुष्य वस्ती के और जाति के तिननें कोई भूखा देखि अन्न दिया, नागा देखि वस्त्र दिया, बैराजगार देखि रुकगार लगाय दिया, निर्धन देखि धन दिया, स्थान रहित देखि रहवेको मन्दिर स्थान दिया इत्यादिक दुखन मैं सहाय किया और रोगीकों पीड़ावान देखि अनेक ओषधि देय अच्छा किया। ऐसे अनेक दुःख मैं सहाय करि सुखी किया। अरु पोछे कर्म योग तैं आप शक्तिमान भया तब उन उपकारी का उपकार भूलि द्वेष करें। सो पर-कृतम्रो कहिए और जादू महासज्ञान में प्रवर्तता देखि पाप करता देखि पर-भव नरक पड़ता देखि कोई धर्मात्मा दया-भाव करि अज्ञानता छुड़ाय ज्ञान करावता भया और पाप-मार्ग से बचाय धर्म का । पंथ बतावता भया नरकादि खोटी गति ते बचाय शुभगति बतावता भया, लोकनिन्ध-अनाचार छुड़ाय सुआचार बतावता मया। जानी यह जीव सुखी होय तो भला है, ताके निमित्त शुभ पंथ लगाया। अरु पीछे आपके कछु सामान्य भाव-भान भया, शास्त्र रहस्य पाया । तब उसके उपकारको भूलि. द्वेष-भाव करना, सो धर्म कृती है। रोसे तीन भेद कृतघ्नी के कहे हैं। सो महापाप के स्थान हैं। तातं हेय हैं। मागे विश्वासघाती का स्वरूप कहिये है। तहां परकौं विश्वास उपजावना! कहना जो मैं तेरी सहाय करूंगा। धन द्योगा। तेरा दुख-दारिद्रहरूँगा। तू कळू उपाय मति करें। ऐसे अनेक मिष्ट वचन बोलि, विश्वास उपजाय पीले काम पड़े नट जाय । दगा दे जाय। कह मोतें तौ अवार नहीं होय। ऐसे कहि ताके कार्य का घात करे। ऐसी कहै सो विश्वासघाती कहिए।
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जैसे-यहाँ एक कल्पना करि लौकिक दृष्टान्त बनाय, विश्वासघात का लक्षण कहिए है। जैसे-एक किसान ने अषाढ़ महीना मैं नाना प्रकार खेद खाय, हल चलाय के खेत शुद्ध कर राखे थे। सो जब मला मेव वर्षे पीछे, सर्व खेती बार घरन तैं बीज को मोटि (गठरी) बांधि वनकौं चाले। तब एक किसानकों देखि एक दुष्ट-अनुष्य की खोपड़ी राह में पड़ी थी सो हँसती भई। तब किसान • आश्चर्य भया । जो र निर्जीव-खोपड़ी हाड़ को क्यों हँसी? तब इस किसान कही-हे सोपड़ी! तूं क्यों हँस है ? तब खोपड़ी ने कड़ी-जोकों देखि हँसौ हौं। मैं देवता हो सो तेरे पै राजी भई, सो अब सेमैं बीज बोवे मति जाय । मैं तेरे खेत में बिना बोया ही बहुत अन्न करूंगी। तब या किसाननै जानी यह देवो है। सोया मौ राजी भई। तब किसान याके वचन का विश्वास कनिगरिमा और अन्य किसान सर में बोन दोर घर आये। पीछे दस बीस दिन गए। अपने-अपने खेत देखनेकौं सब किसान चाले। अत्र उगा देखि, राजी भए । तब यान भी विवारी जो मेरे खेत में भी अन्न मया होय। सो ए भी देखवेकी चल्या। सो राह मैं खोपड़ी फिर हँसी। तब किसान ने कही, क्यों हँस है ? तब कही, सोकौ देखि हँस हूँ। तू कहां जाय है ? तब किसान ने कही। औरन के खेत हरे-भरे शोमा देय हैं। सो मैं अपने खेत की शोभा देखनेकौं जाऊँ हो। तब खोपड़ी की है। रे भाई! मैं तेरे पे तुटी हौं। औरन ते बहुत अन्न तेरे खेत मैं करूँगो, सन्तोष राखि। तब किसान, खोपड़ी के वचन का विश्वास करि घरि गया। जब महीना एक-डेढ़ भया, तब सर्व किसान अपने-अपने क्षेतनतै फल ले-ले अपने-अपने पुत्रन के निमित्त घर जाये। तब किसान के बालक औरत पे अनेक फल देखि, रुदन करते भए। अरु फल मांगते भये। तब किसान में विचारी, जो औरन के फल आये, सो मेरे खेत में भी फल आये हों हैं। ऐसो जानि वन खेत के फल लेने को चाला। तब राह मैं खोपड़ी हँसी। तब किसान ने कही,तु कहा हँस है ? औरन के खेतन में फल भए और सर्व के बालक खाएँ हैं और मेरे बालक फल बिना रुदन करे हैं। तब किसान के वचन सुन कर खोपड़ी हैसकें कहती मई। भो सुबुद्धि! धीरज राति । सोचि मति करें। मेरे वचन का कतौ विश्वास राखि तेरे खेत में गते फल-जन्न होयगा। जो तेरे बुतो गाड़ानित ढोवा भी नहीं जायगा। परन्तु विश्वास राखि, सोचिमति करै । ऐसे कही, तब फिर पीछा घर आया। जानो देव के वचन हैं, सो अन्यथा नहीं हो हैं । येसा विश्वास धरि
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घर तिष्ठया। पोछे महीना दोय-राक भये और लोक अन्न कूट उड़ाय, गाड़े भरि-भरि अपने घर लाये। तब या किसान नैं विचारी, जो मेरा खेत देखौ तौ सही। तब और ही राह होय कैं, किसान खेत पै गया। सो देखै तो ।२४६ । घास ऊँगा है। सोने रिटी के ढीग पड़े हैं। रोर देखि कराल की छाती टूट गई। महादुखी भया।
रुदन करता भया। जो वर्ष दिन की रोटी गई। अब कहा करै? तब खोपड़ी याकौं रोवता देखा हँसो। तब किसान नै कही, कहा हँस है ? मैं तैरे वचन का विश्वास करि खोत मैं बीज नहीं डार था। अब और तो बहुत अन्न लाये, अरु मेरै खोत मैं कछू नहीं। तैंने मुझे विश्वास देय, बुरा किया। तब यह दुष्ट को झोपड़ी महाहास्य करि कहतो भई। भो भाई किसान ! तू सुनि। हमनें जीवतें बहुतन का विश्वास देय बुरा किया था और मुरा पोखे तो एक तेरा ही बुरा किया है। सो जे दुष्ट, सोपड़ो समान विश्वासघाती महापाप मूर्ति जीव सो विश्वासघाती हैं। एकहे जो कृतघी व विश्वासघाती ते बड़े पापी हैं। इनका स्वरूप श्रुत-ज्ञान ते पाईए है। सो श्रुतझान उपादेय है। च्यारि गति के जीवन की आगति-जागति श्रुत-ज्ञानतें जानिए है। सो कहिए है। तहां जिन स्थान तजि,जा स्थान में उपजै, सो जागति कहिये और अन्य स्थान तजि निज स्थान में आवै सो आगति कहिये। तहां प्रथम देवगति में जागति कहिये है। सो राती जायगा के देव गति मैं जाय उपजै सो कहिये है। मिथ्यादृष्टि भौगभूमिया—मनुष्य तियश्च कर्म भूमियां-मनुष्य, तिर्यच, सैनी तथा असैनी ए तो सब भवनत्रिक मैं शुभ-भाव फलते उपजें हैं और सम्यग्दृष्टि भोगभूमियां मनुष्य, तिर्थश्च ए सर्व पहले, दुजे स्वर्ग पर्यन्त उपज हैं और कर्मभमि के मनुष्य, स्त्री. तिर्यच सोलह स्वर्ग पर्यन्त उपजें हैं और सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्या दृष्टि, मुनि लिङ्ग धारि ग्रैवेयक लौ जाय हैं और नव अनुत्तर अरु पञ्चपश्चोत्तर इन चौदह विमानन मैं सम्यग्दृष्टि मुनि ही साथ हैं। इति देवगति मैं बागति। आगे देव की जागति कहिए है-ध्यारि प्रकार के देव मरि कहां जाय उपजै हैं. सो जागति है। यहां भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषो देव, पहले-दुजे स्वर्गवासी देव रा मरि करिपृथ्वी कायिक, अपकायिक, वनस्पति सैनो-पंचेन्द्रिय, तिर्यञ्च और मनुष्य-इन पञ्च जगत् मैं जाय उपजें हैं और तीसरे स्वर्ग ते | लगाय स्वर्ग पर्यन्त के देव चयके, मनुष्य तिर्यश्च सैनी पंचेन्द्रिय में उपजें हैं और तेरह स्वर्ग ते लगाय नववयक पर्यन्त के देव चय करि सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि मनुष्य ही उपजें हैं और नवग्रैवेयक ते ऊपरले देव ।
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चय सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही उपजें हैं। इति देव जागति । भागे नरक की आगति-जागति कहिए है-तहां नारको जोव मरि रोती जगह मैं उपजै सो कहिए है—प्रथम लगाय छठे नरक पर्यन्त के जीव निकस, मनुष्य तिथंच कर्म-भूमि के ही होंय और सातवें नरक का निकस्या पंचेन्द्रिय-सैनो-तिर्यच हो होय है और विशेष यह है ।
२४० जो पहले-जे-तीजे नरक का निकस्या कोई जीव सम्यग्दृष्टि तीर्थङ्कर भी होय है। चौथे नरक का निकस्या तीर्थङ्कर नहीं होय है, चरम शरीरी होय तौ होय और पञ्चम नरक का निकस्या, चरम शरीरो नहीं होय महाव्रत धरै तौ धरै और छठे नरक का निकस्था, संयमी नहीं होय हैं और विशेष रातो जो नारकी, असैनी मैं नहीं उपजे हैं। इति नारकी जागति। आगे नरक मैं श्रागति कहिये है-नरक में एती जगह के जाय हैं, सो कहिये हैंप्रथम नरक मैं तौ सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि मनुष्य तिर्यंच-पंचेन्द्रिय सैनी ए जाय हैं और मनुष्य, पंचेन्द्रिय-सेनी तिर्यच अरु जल का उपज्या सर्प ए दूसरे नरक पर्यन्त जाय हैं। मनुष्य, तिर्यंच, अजगर तथा काला फणधारी सर्प र चौथे नरक पर्यन्त उपजै हैं और मनुष्य, तिर्यच, नाहर र पञ्चम नरक पर्यन्त उपजे हैं और मनुष्य, तिर्यंच, स्त्री छठे नरक पर्यन्त उपज हैं। मनुष्य अस तिर्यक सातवें नरक यति सालों से प्रगति जानना। इति नरक में आगति । आगे मनुष्य गति में आगति कहिये है। मनुष्य गति में रातो जगह के आवै सो कहिये है। तहां सातवें नरक के निकसे और अग्निकाय, वायुक्राय, भोग-भूमि के मनुष्य, तिर्यञ्च इन बिना सर्व जगह के जीव आय मनुष्य गति मैं उपजे हैं। इति मनुष्य मैं आगति। आगे मनुष्य को जागति कहिये है। तहाँ मनुष्य कहाँ-कहाँ जाय उपजैं, सो कहिये हैं। सो मनुष्य भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष सोलह ही स्वर्ग मैं व सर्व अहमिन्द्र देवन मैं उपजें। सातों ही नरकों में उपजें और पृथ्वी, आप, तेज, वायु, वनस्पति, बैन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौहन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, सैनी, असैनी, तिर्यंच-इन सर्व स्थानन में मनुष्य उपजें हैं और भोग-भमिया मनुष्य, तिर्यच कर्म-भूमियो मनुष्य और मोक्ष आदि सर्व स्थानक मैं मनुष्य उपजे हैं। ऐसा तीन लोक मैं अरु च्यारि गति मैं कोई स्थान शुभ-अशुभ रह्या नाहों जहाँ मनुष्य नाही जाय। सो मनुष्य कू सर्व स्थान खागार (घर)है। इति मनुष्य जागति। आगे तिर्यंच की जागति कहिये है। तहाँ एकेन्द्रिय पंचस्थावर विकलत्रय ये
कर देव, नारकी भौग-भूमिया-मनुष्य, तिर्थव इन विषं नाहीं उपजें हैं। इन बिना कर्म भूमि के मनुष्य, ।।
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। तिर्यंच सम्बन्धी सर्व स्थानकन मैं उपजें हैं। विशेष एता जो पंच स्थावरन मैं के अनिकाय-वायुकाय के || | जीव मनष्य मैं नहीं होय। पंचेन्दिय सैनी तिर्यच मर करि मन विकल्प बिना शभ-भावन ते भवनत्रिक मैं | । उपजें हैं। विकल्प बिना अशुम-भाव तें मरि, प्रथम नरक पर्यन्त उपजें हैं। भोग-भमि बिना, कर्म-भूमि के । मनुष्य-तिर्यचन मैं सब स्थानकन में उपजें हैं। सैनी पवेन्द्रिय तिर्यच. भवनत्रिक तें लगाय सोलहवें स्वर्ग पर्यन्त । तो देवमैं उपजें हैं। सातों होगरको : कालिम केनण्य तिर्यच. एकेन्द्रियादि पंच स्थावरन मैं विकलत्रय, सैनी, असैनी वि उपजें हैं तथा भोग-भमि के मनुष्य-तिर्यंच विर्षे उपजें हैं। ऐसी तिर्यंच की जागति कही। इति तिर्यंच की जागति। आगे तिर्यच गति में आगति कहिये है। तहां पंच स्थावर विकलत्रय इनमें सर्व देव व सात ही नरक के और मोग-ममियां बिना कर्म-भमि सम्बन्धी सर्व मनुष्य-तिर्यंच उपजें हैं। विशेष यता जो अग्नि-वायु बिना तीन स्थावरन मैं भवनत्रिक के तथा पहले-दूजे स्वर्ग के देव आय उपज हैं। सेनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में, भवनत्रिकतें लगाय बारहवें स्वर्ग पर्यन्त के देव और भोग-भूमि बिना, सात हो नरक के जीव आय उपजें हैं और कम-भमि के एकेन्द्रिय आदि विकलत्रय पंचेन्द्रिय पर्यन्त सर्व जीव एकेन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच विर्षे आय उपज हैं। इति च्यारि गति सम्बन्धी आगति-जागति कथन । रोसै च्यारि गति दण्डकन का कथन श्रुत-ज्ञान तें जानिये है। तात अत-ज्ञान उपादेय है और इस ही श्रत-ज्ञानते निमित्त-उपादान का स्वरूप जानिये है। सो ही कहिये है। प्रथम नाम-निमित्त और उपादान। अब इनका विशेष कहिये है। जो द्रव्य की शक्ति, द्रव्य ही ते उपजे, सो तो उपादान कहिये। पदार्थ के मिलाप त शक्ति प्राट, सो निमित्त कहिये। जैसे जीव विर्षे, शुभाशुभ रूप होय राग-द्वेष परिणमन की शक्ति, सो तो जीव का "उपादान" है। जिन पदार्थन ।। के निमित्त पाय राग-द्वेष रूप भया, सो वह पर-पदार्थ "निमित्त" है। सो इस निमित्त-उपादान से ही शुभाशुभ रं कर्म-बन्ध आत्मा के होय हैं। सो हो कहिये है। जैसे-जोव का उपादान भी भला होय। पूजा, दान, शोल, । संयम, तप, जिन-शास्त्रन का स्वाध्याय तथा सुनना तथा मुनि श्रावकादि धर्मो जीवन का संग इत्यादिक शुभ ही निमित्त होय, तौ दीर्घ स्थिति लिये शुभ-भाव-कर्म उपचैं। ताके फल, आत्मा भव-भव सुखी होय। जहाँ जात्मा का उपादान सोटा होय। क्रोध, मान, माया, लोभ, चोरी, जुआ, पर-स्त्री, हाँसी, कौतुक, दुराचारी, सुरापायी
जसे जीव
वियही ते उपजे, सोमबम नाम-निमित
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जोवन का सम्बन्ध आदिपाकाशे निमित होयतमा कदा पाप माप-कर्म, बड़ी स्थिति लिये उपजे। ताकरि भव-भव मैं दुखी होय। कहीं उपादान तौ आत्मा का शुम है। अरु निमित्त अशुभ होय, तो पाप-बन्ध
नहीं होय । शुभ उपादान तैं पुण्य का ही बन्ध होय है। जैसे--कोई मुनि तथा श्रावक महाधर्मात्मा, धर्म-ध्यान ।। सहित वनादिक स्थानकन मैं तिष्ठे। तहां आय, कोई पायी उपसर्ग करें। पाण्डवन की तथा वारिषेशजी की नार्ड || निमित्त खोटा होय तथा सेठ सुदर्शन की नाई निमित्त खोटा होय। तौ फल भला ही उपजे है और जहां उपादान | | तो चोटा, अशुभ, दगाबाजी रूप होय, क्रोध-मानादिक कषाय रूप होय ! अरु निमित भला होय। पूजा, दान, शास्त्र सुनना-पढ़ना, तप, संयमादिक अनेक मले निमित्त होंय, तो भी उपादान अशुभ के योग ते पाप-बन्ध ही होय है। जैसे----कोई चोर पराया धन हरने कूधर्मात्मा का स्वांग बनाय अनेक धर्म सेवन पूजा-पाठ, तपादिक करै है। परन्तु अशुभ उपादान के योग तैं पापही का बन्ध करै है। तेसे ही इस जीव के अनेक भावन की प्रवृत्ति होय है। जैसे—कहीं तो जैसा निमित्त, तैसा ही उपादान भाव होय है। तहां तो उत्कृष्ट शुभ-अशुभ का बन्ध और कहीं निमित्त तौ और ही और उपादान और ही, तहां फल उपादान प्रमाण होय है। तातै विवेकी हैं। तिनकों पर-भव सुख के निमित्त तौ भले निमित्त मिलावने । उपादान सदैव मला ही राखना योग्य है। भले निमित्त ते शुभ उपादानवाले जीवन के बड़ा शुभ फल उपजै है और भले निमित्त तै परम्पराय उयादान भी शुभ हो जाय है और खोटे निमित्त ते उपादान भी खोटा ही होय है। सो जगत् मैं प्रसिद्ध देखिये है। भले कुल के जीव खोटे निमित्तन तैं चोर, जुआरी, कुजाचारादि कुलक्षण सहित खोटे होते देखिये है और हीन कुल के उपजी जीव भली संगति ते ऊंचे होय सुखी देखिये है। तातें विवेकी जीवक निमित्त भले राखने का उपाय सदैव राखना योग्य है। निमित्त तें उपादान की शुद्धता होय है। जैसे-अग्नि के निमित्त सुवर्ण के उपादान की शुद्धता होय है। ताम्बा आदि कुधातन के निमित्त तें, सुवर्ण के उपादान की मलिनता होय है। ऐसे जानि, निमित्त भला ही मिलावना योग्य है। जहां-तहां निमित्त की मुख्यता है । सोही दिखाईये है। देखो आदिनाथ स्वामी, उत्कृष्ट भलै उपादान के धारक, तिनके अशुभ निमित्त तें. तियासी लास्स पूर्व, कषायन मैं जाते भए। दीक्षा रूप भाव नहीं भये। तब इन्द्र महाराज ने अवधि ते विचारी, जो तीर्थकर भगवान का सर्व प्रायु-कर्म पंचेन्द्रिय भोगन में व्यतीत भया!
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अरु भगवान् के विरक्ति नहीं भई। सो कोई निमित्त विचारिये तब इन्द्र नै राक नीलाञ्जना नाम अप्सरा का जायु-कम बहुत ही अल्प जानि. इसको आज्ञा करी। सो ये देवी ने इन्द्र की आज्ञा लेय, भगवान के आगे अद्भुत नृत्य-गान आरम्म्या। सो याके नृत्य कौ देखि, सर्व सभा के देव-मनुष्य आश्चर्य क पावते भये। जो ऐसा नृत्य इन्द्रको भी दुर्लभ है। ऐसे नृत्य करते समय उसका आयु पूरण भया। जिससे आत्मा तौ पर-गति गया। अरु शरीर, दर्पण की छाया के प्रतिबिम्बवत् अदृश्य होय गया। सो नृत्य का उत्सव भंग नहीं होने कू, इन्द्र ने तत्तण वैसी ही देवांगना रचि दई, सो नृत्य की ताल-राम चाल भंग नहीं होने पायी। यह चरित्र सर्व सभा के जीव-मनुष्यादि थे, तिन काहूने नहीं जान्या। सब नै जान्या वही देवी नचै है। अरु इस चरित्र को भगवान ने अवधि तैं जान्या, जो वह देवो नृत्य करतो, काय तजि अन्य लोक गई। यह इन्द्रनै नई रचि दई है। अहो, संसार चपल व विनाशिक है । इत्यादिक प्रकार वैराग्य उपाय, दीक्षा धरि, ध्यानानित कर्मनाश, सिद्ध भये । सो यहां भी देखो, निमित्त ही को महन्तता आई। तातें सत्पुरुषन कू अपने कल्याण कं. कुसङ्ग हेय करि, शुभ निमित्त करना सुखकारी है। जैसे बने तैसे ही भला निमित्त गुणकारी है। ऐसे एतौ जीव कू जीव का निमित्त कह्या। अब पुद्गल का पुदगल तें निमित्त उपादान कहिये है। तहां हल्दी तो स्वभाव तें ही पीत है । याकौ घसिक जल में घोलिए, तो भी पोत ही जल होय । सो ऐसे पोत जल मैं साजी डारिए, | तौ साजी के निमित्त तं सर्व जल, लाल होय है। सो लाल होयने की उपादात शक्ति तो हल्दी की हो है। परन्तु निमित्त साजी का मिले लाल होय हैं और स्फटिक मरिण निर्मल है सो ताके नीचे जैसा डांक दीजिये, तैसाही मणि भासै । लाल डाक दिये, मणि लाल भासै । पोत डांक दिये, मरिण पीत होय । श्याम डांक दिये, मणि श्याम होय । सो मरिण, स्वभावतें तौ महानिर्मल-श्वेत है। परन्तु जैसे डांक का निमित्त मिले है, तैसा ही भासै है । सो लाल, पोत, श्याम होने की उपादान शक्ति तौ उस स्फटिक मणि को है । अरु निमित्त नीचले डांक का है । सो यहां भी निमित्त की प्रधानता आई और जैसे लोहा धातु, नीच धातु है। परन्तु
जब ऊँच जो पारस पाषाण का निमित्त मिले, तब कश्चन होय है। सो सुवर्ण होने की उपादान शक्ति तो लोहा ही I में है और धातन में नाहीं। परन्तु जब पारस का निमित्त मिलै तौ सुवर्श होय है । सो हे मव्य ! जीवते, जीवा
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मला ते मान जहा तानिमित्त ही की महन्तता है। तातै विवेकीन कू मला निमित्त मिलावना हो योग्य है। विशेष राता है जो अपने परिणामन की विशुद्धता ते अधिक विशुद्धता का निमित्त होय तो अपना उपादान, | निमित्त प्रमाण करना और अपने भावन की विशुद्धता ते निमित्त सामान्य है, तो अपना उपादान, निमित्त प्रमारा
नहीं करना। इत्यादिक विचार है सो सम्यग्दृष्टिन के अपनी बुद्धि करि विचारना योग्य है। ऐसा श्रुत-ज्ञान से निमित्त-उपादान का स्वरूप जानिये है। तातै श्रुत-ज्ञान उपादेय है। इति निमित्त-उपादान। आगे श्रत-ज्ञान ते और भी सुवाणिज्य-कुवाणिज्य का स्वरूप जानिये है। सो हो कहिये हैगाथा--हिंसावाणिज्ज हेमं, तिल धातु आदि भूमिजलखण्डो । अप्यारम्भो सुह फओ, विणहिसा णित्त मावेओ ॥ ४४ ॥
अर्ध–हिंसाकारी वाणिज्य तजने योग्य है । तिल, लोह कं आदि धातु का व्यापार, तजवे योग्य है और जामैं अल्प प्रारम्भ होय सो शुभ वाणिज्य करना । जामें हिंसा नाहों, ऐसा वाणिज्य उपादेय है। भावार्थजे सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा हैं। सो वाणिज्य करने मैं ऐसे शेय-हेय-उपादेय विचार हैं। सो दिवाईए है। तहां शुभ-अशुभ वाणिज्य का समुच्चय जानना, सो तो ज्ञेय है। ताके दोय भेद हैं। एक शुभ वाणिज्य है, एक अशुभ वाणिज्य है। तहो जो हिंसा, मूठ, चोरी दोष रहित होय, सो शुभ वाणिज्य है। हीरा, मोती इत्यादिक जवाहिरात सीधा लेना और सीधा ही देना। संचय करि बहू दिन नहों राखना, यह निर्दोष वारािज्य, उपादेय है। चाँदी, सुवर्गटके, रुपये, असर्फी लेना, तैसे ही देना तथा जरकस, तास, गोटा मुकेशाद सोधे लेना तैसे ही देना, श निर्दोष वाणिज्य, उपादेय है तथा पराया गहना सखि व्याज का वाणिज्य, सो शुभ वाणिज्य है। ए कहे जो व्यापार सो अग्नि-जल के आरम्भ रहित तौ शुभ वाणिज्य हैं और जिनमैं जल का तथा अग्नि का आरम्भ होय, तो ये आरम्भी हिंसा सहित वाणिज्य हेय हैं और सूजी आजीविका, वचन आजीविका, दृष्टि आजीविका और कष्टी आजीविका । ये च्यारि आजीविका के भैद हैं। तहां चिकन काढ़ना,
कसीदा करना, वस्त्र सीवनादि, दरजी का काम जे सूजी से कमा सो सूजी आजीविका है। सो निर्दोष है, २५१ || उपादेय है और लेने-देनेवाले के बीचि विद्वत होय व्यापार करा देना, अपने वचन ज्ञान के बल करि आजीविका |
पैदा करें। जैसे-लौकिक में दलाली करनेहारे, सो हिंसादि दोष रहित, शुभ वाणिज्य है, सो उपादेय है।
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याका नाम वचन आजीविका है और जे अनेक रतन, अशर्फी, रुपैया परख देना। परखाई लेने की प्रजोविका करनी सो दृष्टि आजीविका है और अपने तनतें कष्ट करि, पराया कार्य कर देना । जैसे— लौकिक में हम्माली आदि शीश गांठ भरि धरि आजीविका करें, सो कष्टी आजीविका है। ए कही जी च्यारि प्रकार आजीविका सो सामान्य पुरा लगा विशेष पुण्य पर्यन्त अरु नीच कुली तैं लगाय ऊँच कुली पर्यन्त, सामान्य ज्ञानी हैं लगाय विशेष ज्ञानी पन्त जे धर्मात्मा जीव नोरी, पूर, हिंसा आरम्भ भयभीति ते सन्तोषी गृहस्थ - इन च्यारि प्रकार शुभ वाणिज्य करि आजीविका करें, सो उपादेय है । इत्यादिक किसब (व्यापार) जल, अग्नि आदिक बड़े आरम्भ रहित हैं। चोरी, झूठ, हिंसा रहित हैं। ताते निर्दोष हैं और यही झूठ, चोरी आदि सहित होंय, तो य ही पाप करता होय, सो हेय होय। जैसे- होरा, मोती, रतन का व्यापार करनहारा, द्रव्य लगाय, लोभ निमित्त धरती खुदाय कढ़ावै । तो पाप बन्ध करता, आरम्भी व्यापार होय । चाँदी सुवर्ण का वाणिज्य करनहारा. बहु आरम्भ- अग्नि तपाधना, जलाना, फूंकना, धोंकनादि आरम्भ सहित होय, तौ अयोग्य है, देय है तथा सुजीवाला पराया वस्त्रादि चोरै, तो सूजी आजीविका भी सदोष होय दलालीवाला बहुत झूठ बोलि लेने-देनेवाले का बहुत मालधन ठिगावै तौ वचन जाजीविका मैं भी दोष लागें, पाप होय। दृष्टि आजीविकावाला अपने लोभ कं भलाबुरा परखे, तौ चोरी के दोष सहित होय और कष्टी आजीविकावारा भी लोमाचारी होय पराये गठिया का माल लेय तौ चोर के दोष सहित होय । तातें दोष सहित तौ सर्व हो हेय हैं। परन्तु दीर्घ तृष्णा रहित, पाप तैं डरनेहारे भव्यन कूं, रतन- सुवर्णादिक, सूजी आजीविका, दृष्टी आजीविका वचन आजीविका, कष्टी आजीविकाए कहे जो किसब सो सुखकारी हैं। आप परकौं हितकारी हैं। तातें धर्मात्मा जीवन करि उपादेय हैं। यह लौकिक व्यापार कहे । जब निश्चय शुभाशुभ व्यापार कहिये है। तहां राग-द्वेष क्रोध, मान, माया, लोभादि कषाय-भाव, मिथ्यात्व-भाव निशदिन आतरौद्र परणति का रहना, शोक चिन्ता-भाव जादि भावन का व्यापार, सो हेय है और सम्यक सहित आत्मिक-भाव, पर-वस्तु के त्याग का भाव, तप-संयमादि भावन की सदैव परगति, सोए शुभ व्यापार हैं, निश्चय उपादेय है। ऐसे विवेकी जीवन कूं अनेक नयन करि, व्यापार भेद जानना योग्य है। कृति शुभ वाणिज्य | आगे अशुभ वाणिज्य कहिये है। जहाँ अग्नि-जल का बहुत आारम्भ
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होय । बहुत अग्नि जलावनी-बुझावनी होय, बहुत जल मथन करना होय, नाखना होय, गाले अनगाले का बिचार रहित होय। जहां मठ, चोरी, दोर्घ माया करना इत्यादिक खोटो वृत्ति का वाणिज्य होय, सो हेय है और बहुत जीवन की उत्पत्ति-मृत्यु का आरम जो कि सन्ज मैं होय, सो अशुभ-हेय है। जहां बहुत अन्न का संग्रह भएडसाल करि बहुत दिन राखना तथा सन, चाम, केश, हाड़ादि इन विर्षे जीवन की उत्पत्ति बहुत होय है । तहां सर्दी का निमित्त पाय हिंसा बधै निर्दयो-भाव होय । ताते हेय है और शहद, विष, फासो | का रस्सा, छुरी-कटारादि, शस्त्र, कुसी, कुदाली, फावड़ा इत्यादिक वाणिज्य हिंसा के कारण हैं। तातें अशुभ हैं। जहां लोहा. ताम्बा, जस्ता, सोना, चाँदी, हीरादिक की खानि खुदावना तथा धरती खोदनासुदावना के किसब, सो अशुभ हैं। खेती जोतना-जुतावना, सो हिंसा सहित तजने योग्य हैं। साजी, फिटकरी, नील, बाल, फूल. कन्द, मूल इत्यादिक र हिंसा के कारण हैं। तातें अयोग्य हैं और भी इनकों
आदि जे पापकारी वाणिज्य होय, सो हेय हैं। जे धर्मात्मा जीव हैं, सो दया के निमित्त ये वाणिज्य नहीं करै है । अपना धर्म निर्दोष राखनेकों सर्व दोष तजें हैं । एते किसब वारन ते वाणिज्य नहीं करै तब दयाधर्म निर्दोष है, सो ही कहिए। तहां चाण्डाल कसाई चमार राह के मारनहारे भोलादिक चोर इनकों कर्ज नहीं देय । अरु देय तौ इनके स्पर्श तें तथा इनके विश्वास से अल्पकाल मैं क्षय होय । तन धनादि विनाश पावै। पर-भवकों पाप-बन्ध होय । तातें इनका वाणिज्य हेय है और धोबी, लुहार, छोपी, कुम्हार, तीर, तुपकादि ( बन्दूक) शस्त्रन के करनहारे इत्यादिक हिंसा के अनुमोदनहारे हैं, सो इनका वाणिज्य हेय कहा है। ऐसे कहे जे किसब तिन सबकं सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा दया-धम पालक जिनाज्ञा प्रतिपालक करुणानिधान उज्ज्वल-धर्म का दास इन किसबन मैं चौगुण होते होंहि तो भी नहीं करें। आप धर्मात्मा पर-भव सुख का लोभी इन लोक निन्दाकों बचाय यश का इन्छुक लोम के वशीभूत होय के कुवाणिज्यन का विश्वास जपने घर मैं नहीं आवने देय है। ऐसा वाणिज्य भेद श्रुत-ज्ञान से जान्या। ताते श्रुत-ज्ञान उपादेय है। इति कु-याखिज्य । ऐसे वाणिज्य में ज्ञेय-हेश-उपादेय कही। आगे इसही श्रुत-ज्ञान का जघन्य मध्यम उत्कृष्ट करि तीन प्रकार स्वरूप कहिये है। तहां सर्व ज्ञान तें छोटा सो तो जघन्य जानना और सर्व द्वादशांग प्रकीर्णादि श्रुत-ज्ञान सी
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उत्कृष्ट जानना और मध्य के अनेक भेद जानना। ऐसे तीन भेद रूप है, सो याका स्वरूप आगे कहेंगे। मूल श्रुत-ज्ञान है ताके दोय भेद हैं। एक तो अक्षरात्मक एक अनारात्मक । तहाँ अक्षर छन्द पद काव्य गाथा फोकी आदि शब्द से उत्पन्न भया सो अक्षरात्मक श्रुत-ज्ञान है और भाव ही ते उपजै अक्षर रूप नाहों, सो अनक्षर श्रुति-शान है। सोरायोन्द्रियादिक पवेन्द्रिय पर्यन्त सर्व ही जीवन के होय । परन्तु इस अनक्षरात्मक ज्ञान तँ कधु व्यवहार प्रवृत्ति नाहीं। जीव के भाव विचार की सो ही जीव जाने तथा केवलो जाने। ताते इसकी मुख्यता नहीं लई और दूसरा अक्षरात्मक-ज्ञान है। तातै कर्म-धर्म कार्यन की प्रवृत्ति होय है । जातें लौकिक मैं लेने-देने रूप खाता रोजनामचादि सर्व व्यवहार कार्य होय हैं और धर्म-शास्त्र का पठन-पाठन प्रवृत्ति सो मी अक्षरात्मकझान तैं होय है। ताकै बीस भेद हैं—सो ही कहिए है। उक्तञ्च श्रीगोम्मटसारजी सिद्धान्त__ गाया-पजायस्वर पदसंघादं पहिवत्ति आणिजोगं च । दुगवार पाहुढंच य पाहुडयं वत्यु पुथ्वं च ॥ ४५ ॥
अर्थ-पर्याय-ज्ञान, अक्षर-ज्ञान, पद-ज्ञान, संघात-ज्ञान, प्रतिपत्तिक-ज्ञान, अनुयोग-ज्ञान, प्राभृतक-प्राभृतकज्ञान प्राभृतक-ज्ञान, वस्तु-ज्ञान और पूर्व-ज्ञान-रा दश भेद भये। सो इन दशन के संग समास लगाय लेना जैसे-पर्याय पर्यायसमास ऐसे सर्व जगह लगाय बीस भेद होय हैं। सो ए बीस भेद अक्षरात्मक श्रुत-शान के जानना। अब श्रुत-ज्ञान काहे कौं कहिये है। ताका स्वरूप कहैं है। सो अक्षर विर्षे जो अर्थ होय ता] जानने रूप जो भाव सो श्रुत-ज्ञान कहिये। ता श्रुत-ज्ञान के ए बीस भेद हैं। तातें इस ज्ञान की घातनहारी वरणी सी भी बीस भेद रूप परिणमि बीस ही मेदरूप श्रुत-ज्ञान कं घाते हैं। तात श्रुत-झानावरणी के भी बीस भेद जानना। अब इन बीसन का सामान्य अर्थ कहिरा है। प्रथम पर्याय-ज्ञान जघन्य भेद है। सो बस्तर के अनन्तवें भाग झान है। इस ज्ञान का आवरण इस ज्ञानकं घात सकता नाही, ऐसा हो अनादि स्वभाव, केवलज्ञान में भास्या है। जो कदाचित् इस ज्ञानकों भी आवरण घाते, तौ ज्ञान का अभाव होय और ज्ञान-गुण के अभाव तें, गुणी र बात्मा का अभाव होय और आत्मा का अभाव भए संसार च्यारि गति का अभाव होय। सो संसार का अभाव तौ कबहूँ होता नाहीं। तातै प्रात्मा के सद्भावतें ज्ञान का सद्भाव है। सो सर्व श्रुत-ज्ञान केवलज्ञानादि सर्व ज्ञान को आवरण घाते। परन्तु इस अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान को नहीं पाते है। ताते यह ज्ञान निरावरण सदैव
ज्ञान का बीसाझान
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रहै है । सो यह जघन्य-शान कौन समय होय है ? सो कहिर है। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के उपजने के पहले समय पर्याय नाम जघन्य-ज्ञान होय है । सो सूक्ष्म निगोदिया अपने योग्य एक अन्तर्महूर्त के बटवारे में छः हजार बारह क्षुद्र-भव तिनमैं जन्मता-मरता अत्यन्त संक्लेशिता रूप भ्रमण करता अन्य के क्षुद्र-भव । २५५ दिने यस्ता लिए जो विमा गति रि जन्म घरचा होय ता वक्र गति के पहले समय में जघन्य-ज्ञान होय है। तिसही जीव ता समय स्पर्शन इन्द्रिय का जघन्य मतिज्ञान है । तिसही जीवकै ता समय जघन्य अचक्षु दर्शन होय है। इहां बहुत क्षुद्र-भव के धरते-धरते बधो जो संक्लेशता तिन दुखरुप परिणामन” निमत्तपाय तीव्र अनुभाग लिए ज्ञानावरणादि कर्मन का उदय होते महादुखरूप क्षुद्र-भवों का अन्त क्षुद्र-भव का प्रथम समय विर्षे पर्याय-ज्ञान के अनन्तवें भाग जघन्य-ज्ञान कह्या है। यह ज्ञान अविनाशो है। याका कबहूं नाश नाहीं। ऐसा नियम जानना । पीछे द्वितीयादि समयन में ज्ञान बधता होय है । सो इस जघन्य-ज्ञान विषं अनन्त भाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, अनन्त गुरा वृद्धि, यह षट् स्थानरूप महान वृद्धि सम्भवें अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद लिए अंश हैं। इहाँ प्रश्र-जो जघन्य-ज्ञान में अनन्त भाग कैसे सम्भवे? ताका समाधान जो अनन्त के अनन्त ही भेद है। तहां चौदहाधारा के कथन में द्विरूपवर्गधारा विष कथन किया है जो अनन्तानन्त वर्गस्थान गए पीछे सर्व जीव राशि का प्रमाण होय है और जीवराशि तें अनन्तगुणी राशि पुद्गल है और पुद्गल राशि तें अनन्त गुणी राशि, तीन काल के समय हैं और सर्व काल समय राशित सर्व आकाश प्रदेश राशि अनन्त गुणी है और सर्व आकाश प्रदेश राशि तें अनन्तानन्त वर्ग राशि गए सूक्ष्म निगोदिधा जोव के जघन्य-ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदन का प्रमाण होय है। ऐसा मागम में कहा है। तात यामैं अनन्तभाग वृद्धि सम्भवै है ऐसा यह पर्याय-ज्ञान प्रथम भेद जाननाश अब यात अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद बधैं तब पर्याय समास का प्रथम भेद होय । तातै अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद बधैं तब पर्याय समास का दूसरा भेद होय। ऐसे हो अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद बधैं । एक-एक स्थान बधैं सो तीन स्थान पांच आदि असंख्यात लोक प्रमाण षट् स्थान पतित वृद्धि होय तब ताई। पर्याय समास के भेद होय हैं। सो वृद्धि का अनुक्रम ऐसा है जो अनन्त का प्रमाण में तौ जीवराशि जानना।
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जसंच्यात के प्रमारा में असंख्यात लोक प्रमाण जानना और संख्यात वृद्धि में उत्कृष्ट संख्यात है। ऐसी अधिकताहीनता करि षट् गुण हानि-वृद्धि जानना। ऐसे घट स्थान पतितन की हानि-वृद्धि होते असंख्यात लोक को अन्त की हानि-वृद्धि पूरी होते एक भेद घाट परन्त सर्वए पर्याय समास ज्ञान के भेद जानना।२। आगे अक्षर-ज्ञान कहिये है । सो वय पर्याय समास के अन्त मैद मैं एक भेद और मिलाईये तब अक्षर-ज्ञान है। सो यह अर्थात्तर नाम ज्ञान है । सो सर्वश्रुत-ज्ञान के संस्थातव भाग यह अक्षर-शान है।३। और याके आगे एक-एक अक्षर-ज्ञान की बधवारी होते एक अक्षर घाटि पद अक्षर पर्यन्त ज्ञान बधै, वहां लौ अक्षर-समास-ज्ञान कहिये। ४। आगे या अक्षर-समास-ज्ञान के अन्त मेद में एक अक्षर और मिलाये पद-ज्ञान होय है। । आगे पद-ज्ञान का प्रमाण कहिये है। सो यह तीन प्रकार है-अर्थ-पद, प्रमाण-पद और मध्यम-पद-ये तीन भेद हैं। तहाँ ऐसा कहना जो "अग्निमानय"। याके पद है, दोय अग्निम और जानय। याका अर्थ ऐसा जो अग्नि आनि देओ। इत्यादिक अर्थ जिन अक्षरन निपज, सो अर्थ पद कहिये और कहिये जो "नमः श्रीवर्द्धमानाय"। याका अर्थ यह जो श्रीवर्द्धमान स्वामी को नमस्कार हो । यह आठ अक्षरन का पद भया। सो याका नाम प्रमाण पद है और सोलासौ चौतीस ! कोड़ि तियासी लाख सात हजार आठसौ अध्यासी अपुनरुक्त बतरन का एक पद होय। सो यह मध्यम पद है। ५। इस पद के ऊपर एक-एक अक्षर ज्ञान बघता-बघता एक पद जितने अक्षर बधैं तब पद झान दुना होय है। थातें एक-एक अत्तर और बढ़चा सो बधते-बधते एक पद अक्षर बधे, तबज्ञान तीन गुणा होय। ऐसे ही अनुक्ररकों लिये एक-एक अक्षर बढ़ते पद होंय तब चौगुणा पद ज्ञान, पंचगुणा, षट् गुणा ऐसे ही संख्यातहजार पद ज्ञान जितने अक्षर में एक अक्षर ज्ञान घटाय तहां ताई पद समास के मेद जानना।६। या राशि विर्षे एक !! अक्षर और मिलाये संघात-ज्ञान होय है। ७1 सो इस ज्ञानत च्यार गति में तं एक गति निरूपण सम्पूर्ण करें, सो संघात नाम श्रुत-ज्ञान है। बहुरि इस संघात-ज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर का अनुक्रम लिये बढ़ते-बढ़ते | पद होंय। अनेक पदन का समूह संघात, याही अनुक्रम करि एक संघात, दीय संघात, तीन, च्यारि आदि संघात, हजार संघात होय। तहां अन्त का संघात विर्षे एक अक्षर घाटि पर्यन्त, संघात समास के भेद हैं। ऐसे संघात समास जानना।८। अब इस उत्कृष्ट संघात समास विर्षे एक अक्षर ज्ञान और बढ़ाइय तब प्रतिपत्तिक
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नाम श्रुत ज्ञान हो है । या प्रतिपत्तिक श्रुत ज्ञान का धारी व्यारि गति का स्वरूप यथावत् व्याख्यान करें, सो प्रतिपत्तिक श्रुत-ज्ञान कहिये । ६ इस प्रतिपत्तिक श्रुत ज्ञानतें एक-एक अक्षर बधता पद होय है । पदतें बघत बघत संख्यात हजार पद बधे संघात होय, संख्यात हजार संघात बघते एक प्रतिपत्तिक श्रुत ज्ञान होय और संख्यात हजार प्रतिपरिश्रुत ज्ञान के जरा भेदक अक्षर होय तहो ताई प्रतिपत्तिक समास नाम श्रुत ज्ञान हो है 120 | आगे इस प्रतिपत्तिक समास के अन्त भेद में एक अक्षर और मिलाइये तब अनुयोगं नाम श्रुत ज्ञान होय है । सो इस तैं चौदह मार्गणा का स्वरूप भले प्रकार कह्या जाय है। यह अनुयोग नाम श्रुत ज्ञान है | १२ | आगे इस अनुयोग के एक-एक अक्षर ज्ञान बधतें पूर्ववत् अनुक्रम पद ज्ञान पदतें संघात प्रतिपत्तिक अनुयोग सो व्यारि आदि अनुयोग विषै अन्त भेद में एक अक्षर घाटि ताई अनुयोग समान श्रुतज्ञान होय है । २२ । ऐसे अनुयोग समास के अन्त मैद विषै एक अक्षर और मिलाये प्राभृतक प्राभृतक ज्ञान होय है । १३ । इस प्राभृतक प्राभृतक के ऊपर एक-एक अक्षर बघत बघतें पूर्ववत् अनुक्रम पद संघात, प्रतिपत्तिक अनुयोग प्राभृतक प्राभृतक ऐसे अनुक्रमतें चोईस प्राभृतक प्राभृतक होय । तहाँ अन्त भेद मैं एक अक्षर घटता रहे यहाँ तांई प्राभृतक प्राभृतक समास ज्ञान होय है । २४ । आगे इस प्राभृतक प्राभृतक समास विषै एक अक्षर और मिलाइये तब प्राभृतक ज्ञान होय है 1२५ भावार्थ - एक प्राभृतक के चौईस प्राभूतकप्राभृतक अधिकार होय हैं और इस प्राभृतक ऊपरि एक-एक अक्षर की बधवारी लिये, पद संघातादि अनुक्रमतें बधवारी लिये चौबोस प्राभृतक होंय । तहां अन्त के भेद में एक अक्षर घटता रहे तहां तांई प्राभृतक समास के भेद जानना | १६ | आगे इस प्राभृतक समास में एक अक्षर ज्ञान और मिलाये वस्तु नाम श्रुत - ज्ञान होय है । २७ आगे इस वस्तु ज्ञान पै एक अक्षर बघत बघते पद संघातादि सर्व अनुक्रम पूर्ववत् करि वृद्धि होते, दश आदि वृद्धि होते अन्त मेद में एक अक्षर घटै, तब तोई वस्तु समास श्रुत ज्ञान है । २८। जागे इस वस्तु समास में एक अक्षर और बधाइए तब पूर्व नाम श्रुत ज्ञान होय है | १६ | इस ही पूर्व में चौदह भेद है तिनका स्वरूप जागे कहि आये हैं। तातैं यहां नहीं कह्या है और पूर्व ज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर ज्ञान बधरों बधतें पूर्व अनुक्रमतें पद संघातादि अनुक्रमतें एक अक्षर घाटि श्रुत-ज्ञान पर्यन्त, पूर्व समास है 1201 ऐसे बीस भेद श्रुत ज्ञान के कहे ।
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विशेष इनका श्री गोम्मटसारजी के श्रुत ज्ञानाधिकारतें जानना। ऐसे यह श्रुत ज्ञान कया। सो यह श्रुत ज्ञान, केवलज्ञान की-सी महिमाको घरै है । केवलज्ञान तो प्रत्यक्ष हैं। अरु श्रुत ज्ञान परोत है। परन्तु केवलज्ञान समान, लोकालोक तीन काल सम्बन्धी सकल-तत्त्व-प्रकाशी है। यहां प्रश्न -- जो केवलज्ञान तो अनन्त है। सो अनन्त पदार्थन में अनन्त अर्थ रूप होय प्रवर्ते है और श्रुत ज्ञान संख्यात अक्षरमयी है। सो केवलज्ञान की बरोबर कैसे सम्भयै ? ताका समाधान — जो है माई ! तेरी बात प्रमाण है । परन्तु तू चित्त देय सुनि या प्रश्न का उत्तर धारण किये सम्यक्त्व हो है । हे भव्य ! केवलज्ञानतें कछू छिपा नाहीं । मूर्ति-अमूर्ति पदार्थ सर्व प्रकाशै । ऐसा केवलज्ञान लोकालोक तीन काल का प्रकाशनहारा है। सो जे जे पदार्थ केवलज्ञान में भागा सो सर्व गृहम् केवली के मुखतेंखिरया, सो ही गणधर देव ने प्रगट करि उपदेश दिया। सो मूर्ति-अमूर्ति द्रव्यन का स्वरूप, तीन लोक तीन काल सम्बन्धी रचना, श्रुत-ज्ञान के द्वारा सर्व कही। ताकौ भव्य सुनिसुनि रहस्य पाय, मोक्ष-मार्ग पावते श्रुत ज्ञान केवलज्ञान समान कह्या और भी देखी, हे भव्य ! हो सुनो। जो केवलज्ञान जाकैं होय, सो केवली कहावै है । जाकेँ सर्व श्रुत ज्ञान हो, तो यतीनाथ श्रुत-केवली कहावें हैं । तातें मी केवलज्ञान समान कह्या । ऐसा जानना ।
इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में सामान्य श्रुतज्ञान वर्णन करनेवाला उगणीसवाँ पर्व सम्पूर्ण भया || १९ ||
आगे अवधिज्ञान का स्वरूप कहिये है
गाथा – देसा पम्म सम्वा तिय भेयावभिणाण जिण भणियं । जाणय मुत्ती दव्बं तोताणागत वत्तमाणाय ॥ ४६ ॥
अर्थ- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि - ए तीन भेद अवधिज्ञान, जिनदेव नैं कला है। सो यह ज्ञान अतीत, अनागत और वर्तमान, तीन काल सम्बन्धी मूर्तिक द्रव्यको जानें है। भावार्थ - अवधिज्ञान मूर्तिक पदार्थों कोजा है। सो प्रतीतकाल मैं मूर्तिक पदार्थ जैसे-जैसे परिणमै स्पर्श के विषय रूप, रसना के विषय रूप, नासिका के विषय रूप, नेत्र के विषय रूप, कर्ण के विषय रूप, स्थूल सूक्ष्म रूप, जे-जे पुद्गल स्कन्ध परिणमै । सो सो अपने-अपने विषय प्रमाण सर्व कूं अवधिज्ञान जाने है और आगामी काल में मूर्तिक पदार्थ जैसे परियागे, सो तिन सबकूं अवधिज्ञान जाने है और वर्तमान काल सम्बन्धी जो पदार्थ, तीन लोक मैं जैसे-जैसे
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परिखमते हैं । तिन सबकू अपने विषय प्रमाण क्षेत्र काल की अवधिज्ञानी जाने हैं। ऐसे अतीत जनागत वर्तमान काल सम्बन्धी द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपने विषय योग्य दुरवर्तो तथा नजदीकवर्ती सर्व पदार्थनक. अवधिज्ञानी जाने । सो अवधिज्ञान तीन प्रकार है। सो ही कहिये है---देशावधि, परमावधि और सविधि । तहाँ देशावधि के षट् मैद हैं। तिनकू कहिये है। अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित बरु अनवस्थित-ए षट्र भेद हैं। अब इनका सलान्य पक्षस वाहिगे है। जो अत्यविशान जिन्स एथि में मया, तामैं आयु पर्यन्त रहे, अर्थ-वारा जोव परगति जाय, तब भी याको संग पर-गति मैं जाय, सो अनुगामी कहिये। शो अवधिनान भले निमित्त पाय, जा पर्याय व जा स्थान में भथा, सो ताही पर्याय व ता स्थान पर्यन्त रहै। परन्तु अन्य गति व अन्य स्थान में संग नहीं जाय, सो अननुगामी कहिये । २। और जा अवधिज्ञान से जबतें शुम निमित्त भया, तबते पर्याय पर्यन्त अपनी स्थिति प्रमाण काल ताई समय-समय विशुद्धता सहित, ज्ञान के अंश वृद्धि ही भया करें, सो वर्तमान अवधिज्ञान जानना । ३। जो अवधिज्ञान, महाविशुद्धता के प्रभावते भला निमित्त पाय जिस जीव जा, समय भया, तबही ते अवधिज्ञान के अंश घटते जांय सो पर्याय पर्यन्त घट्या ही करें। अपने काल स्थिति की मर्यादा मैं घट चुक, सो हीयमान अवधिज्ञान जानना। ४। और जो अवधिज्ञान जबतें मया तबतें जैसा का तैसा रहैं । अपने काल-प्रमाण जेती स्थिति या ज्ञान को रहै, तेते अंश घट-बढ़े नाहीं। जा समय उपजा था, तेते ही अंश रहैं, सो अवस्थित अवधिज्ञान कहिये ।। और जो अवधिज्ञान जबसे भया, तबत कबहूँ तो घटै, कबाहूं बढ़े, ऐसे चपल रह्या करै, सो अनवस्थित अवधिज्ञान कहिये।६। ऐसे इस देशावधि के षट भेद है। तहाँ जनुगामी के तीन मैद हैं। एक स्व-स्थान अनुगामी, एक पर-स्थान अनुगामी, एक उमय अनुगामी। तहां जो अपने क्षेत्र में ही यावज्जीवन अपने साथ जावे अथवा भवान्तर में जावे, उसे स्व-क्षेत्र अनुगामी कहै हैं। जो पर-दोत्र में यावजीवन अथवा भवान्तर में अपने साथ जावे, उसे पर-क्षेत्रानुगामी कहते हैं तथा जो स्व-क्षेत्र व पर-क्षेत्र में यावजीवन व भवान्तर में साथ जावे उसे उभयानुगामी कहते हैं। अननुगामी भी तीन प्रकार है-स्व-क्षेत्राननुगामी, परक्षेत्राननुगामी और उमयाननुगामी। तहां जो स्व-क्षेत्र में भी आयु पर्यन्त अथवा भवान्तर मैं साथ न जावे, उसे स्व-क्षेत्राननुगामी कहते हैं। जो पर-तेत्र में और भवान्तर में साथ न जावे उसे पर-क्षेत्राननुगामी कहते हैं तथा
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॥ २१.
जो स्व-क्षेत्र में आयु पर्यन्त अथवा भवान्तर में और पर-क्षेत्र में साथ न जावे, उसे उभयाननगामी कहते हैं। तीन मैद अननुगामी के कहै। अब आगे क्षेत्र-काल अपेक्षा अवधिज्ञान की अधिकता तथा हीनता रूप कथन करें हैं, सो सुनो। जो जीव अवधि तै क्षेत्र-अपेक्षा जितने क्षेत्र की जाने है, सो काल-अपेक्षा थोरे काल की जाने है। | रीसे और भेद कहिये हैं-तहां जघन्य अवधि का धारी, जो जीव क्षेत्र अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र की जानें, सो ही जीव काल अपेक्षा, प्रावलि के असंख्यात भाग काल की जानें, सो भी असंख्यात समय जानना और जो जीव अंगुल के संख्यातवें भाग क्षेत्र की जान, सोही जीव काल अपेक्षा, जावलि के संख्यातवें भाग काल को जानें। ए प्रथम भेद है। । और दूसरे मेद में जो जीव अंगुल मात्र क्षेत्र की जाने, सो ही जीव काल अपेक्षा. किश्चत् न्युन आवलि मात्र काल की जान । २। और तीसरे मेद में क्षेत्र अपेक्षा, जो जीव सात जाठ अंगुल के क्षेत्र को जानै, सो ही जीव काल अपेक्षा, सात आठ आवली काल की जाने ।३। और चौथे भेद में क्षेत्र अपेक्षा, जो जीव एक हाथ क्षेत्र को जाने, सो ही जीव काल अपेक्षा, अन्तमहत काल की जान है।४। और पञ्चम भेद में क्षेत्र अपेक्षा जो जीव राक कोस क्षेत्र को जाने, सो ही जीव काल अपेक्षा, अन्तर्महर्त काल को पाने । ५।
और छठे भेद में क्षेत्र अपेक्षा जो जीव एक योजन क्षेत्र की जाने, सो ही जीव काल अपेक्षा, किञ्चित् न्युन अन्तम हुर्त काल की जाने।६। और सातवें भेद में क्षेत्र अपेक्षा, जो जीव पच्चीस योजन को जाने, सो ही जीव काल अपेक्षा, किंचित् न्युन राक दिन-काल की जाने । ७। और आठवें भेद में क्षेत्र अपेक्षा, जो जीव भरत क्षेत्र प्रमाण क्षेत्र की जाने, सो ही जीव काल अपेक्षा पंच दिन काल की अगला-पिछली जान है।८। और जे जीव क्षेत्र अपेक्षा, जो जीव जम्बुद्वीप प्रमाण क्षेत्र की जाने, सो ही काल अपेक्षा. किंचित् न्यून एक मास की जाने है ।।
और दश भेद में क्षेत्र अपेक्षा, जो जीव अढ़ाई द्वीप क्षेत्र की जाने, सो ही जीव काल अपेक्षा, एक वर्ष काल की जाने है ।२०। और ग्यारहवें भेद में क्षेत्र अपेक्षा. जो जीव कुण्डलगिरि ग्यारहवें द्वीप पर्यन्त क्षेत्र की जान, सोही जीव काल-अपेक्षा, कछू घाटि आठ सात वर्ष की जानै ।श और बारहवें भेद में क्षेत्र अपेक्षा, जो जीव संख्यात द्वीप समुद्र क्षेत्र की जानें, सो ही जीव संख्यात वर्ष काल की जाने है। १२ और तैरहवें भेद मैं जो जीव क्षेत्र अपेक्षा, असंख्यात गोजन की पान, सो हो जीव काल अपेक्षा असंख्यात वर्ष-काल की मी शिकली पाते |
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और चौदहवें भेद में जो जीव तेरहवें ते असंख्यात गुणी क्षेत्र की जान, सो ही जीव काल अपेक्षा, तेरहवें ते श्री | असंख्यात गुण काल की अगलो-पिछली जान है ।२४। ऐसे चौदहवें तें पन्द्रहवा ।१५। पन्द्रहवें ते सोलहवां ।२६।। २६१
सोलहवं ते सत्तरहवां ।२७। सत्तर अठारहवां । २८। अठारहवे ते उगसोसवा । १६ । ए परस्पर क्षेत्र-काल अपेक्षा असंख्यात-असंख्यात गुणे बधते जानना। ऐसे करते अन्त के भेद में देशावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र लोक प्रमाण है और काल-अपेक्षा एक समय घाटि एक पल्य काल की अगली-पिछली जाने है। ऐसे त्रिकाल सम्बन्धी क्षेत्र काल का विषय प्रमाण जघन्यतें लगाय उत्कृष्ट पर्यन्त देशावधि का विषय का है। सो अपने विषय योग्य क्षेत्र काल में प्रवत्तते पुद्गल स्कन्धन की संसारी जीवन की पर्याय पलटणि रूप क्रिया जाने है। इस तीन सौ तेतालीस राजू लोक क्षेत्र में जोव-अगोव पर्याय जैसे-जैसे मई आगे होयगी और हैं। सो तीन काल सम्बन्धी अपने विषय प्रमाण क्षेत्र-काल की जान, सो देशावधि कहिए । इति देशावधि । आगे परमावधि का संक्षेप कहिये है। परमावधिवाला यति देशावधितै असंख्यात गुणी क्षेत्र काल की जान है सो क्षेत्र-अपेक्षा तौरोसे-ऐसे असंख्याते लोक क्षेत्र की जान है और काल की अपेक्षा सागर की अगली-पिछली जान है । इति परमावधि । आगे सविधि का संक्षेप कथन कहिये है । सो परमावधितै असंख्यात गुरखा क्षेत्र काल की सर्वावधिधारक यति जान । इति सर्वावधि। रोसै अवधिज्ञान के तीन भेद कहे, सो यह अवधि दोय प्रकार है-एक भव-प्रत्यय और एक गुण प्रत्यय । तहां गति स्वभावतें जन्न धरत अवधि होय, सो भव-प्रत्यय कहिये। सो देव, नारकीकै तथा तीर्थङ्करके होय, सो भव-प्रत्यय है और जहां-तहां तप संयम तथा भगवान के दर्शनः स्तुतिः परिणामन की विशुद्धतातै अवधिज्ञान होय, सो गुण-प्रत्यय है। ऐसे सामान्य अवधिज्ञान का स्वरूप जानना। इति अवधिज्ञान संक्षेप सम्पूर्ण। आगे मनःपर्यय-ज्ञान का सामान्य भाव कहिये है
गाथा-मण पजयणाणावण्णी, खयोपसमज्जस्स होइ सो जीयो । मण पज्जयक्यु पामई, दो भेयो होइ उज्जु विउलमयी ॥४७॥ २६१
___ अर्थ मनःपर्यय-ज्ञातावरणीय ताका क्षयोपशम जा जीव के होय, सो मनःपर्यय-ज्ञान पावै। सो ज्ञान | ऋजुमति, विपुलमति भेद करि दोय प्रकार है। भावार्थ-जिस जीवकै मनःपर्यय ज्ञानावरशी का क्षयोपशम होय
है। ताके दोय प्रकार-जुमति और विजुलमति मनःपर्यय ज्ञान होय है। सो इनका विषय कहिये है। तो
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नदी तथा जब मैं
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कुटिलता राहत सरल मन, सरल वचन और सरल काय करि किये जो कार्य नाना प्रकार विकल्प तीन काल सम्बन्धी तिनकूं जाने। सो ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान है। इति ऋजुमति मनःपर्यय। आगे विपुलमति मनः पर्यय का संक्षेप कहिये है। तहां सैनी के मन सरल, वचन सरल, काय सरल किये जो विकल्प तिन सबकौं जाने और मन कुटिल, वचन कुटिल अरु काय कुटिलता करि किये जो विकल्प रूप कार्य, तिन सबकूं जानें, सो विपुलमति मन:पर्ययज्ञान हैं । इति विपुलमति । तहाँ ऋजुमति तौ प्रतिपत्ति है, सो होय भो अरु जाता भी रहे। भये पोछेते जाता रहै, सो प्रतिपत्ति कहिये । भावार्थ - जिस यतीश्वरकै ऋजुमति ज्ञान होय । अरु वह मुनीश्वर पर्याय छोड़ि देवलोक में असंमयी उपजै तौ यह ज्ञान पर पर्याय में नाहीं जाय। उस मुनि को पर्याय ही मैं रह्या । देव भये जाता रहे नाहीं । तातें ऋजुमति प्रतिपत्ति है ओर जा यतीश्वरकै विजुलमति ज्ञान होय, सो जाता नाहीं । इस ज्ञान सहित केवलज्ञान होय, सो ता केवलज्ञान में मिलि जाय है । तातें यह विपुलमति ज्ञान विशुद्ध है। चरमशरीरिन कैं होय। ए ज्ञान भये संसार म नहीं हो है । ऐसा जादा यहाँ मनपा का विषय काल अपेक्षा उत्कृष्ट असंख्यात काल समय की जानें और क्षेत्र अपेक्षा पैंतालीस लाख योजन अढ़ाई द्वीप क्षेत्र की जानें विशेष एता जी मनुष्य लोक तौ गोल है । अरु मनः पर्यय ज्ञान का विषय चौकोर है। तातें मनुष्य लोकवारे व्या कोण्या मैं तिष्ठते देव तथा तिर्यंच तिनके मन विकल्प को भी जानें। ऐसे उत्कृष्ट मनःपर्यय-ज्ञान का विषय का । इति मन:पर्यय - ज्ञान का संक्षेप वर्णान। आगे केवलज्ञान संक्षेप वर्णन
गाथा - तिक्काले तिथलोये, खट दत्वं जहा य पण्णत्ती । जाशय केवलणाणय, जुगपदेककालम्हि विण खेदो || ४८ ॥
अर्थ — तीनकाल और तीन लोक बिषै द्रव्य जैसे-जैसे परिणमैं, तिनको केवलज्ञानी निरखेद रोके काल सबकूं युगपत् जानें है । भावार्थ - सर्व ज्ञानावरण कर्म के क्षयसे उत्पन्न भया जो केवलज्ञान, सो क्षायिक ज्ञान है । सो याके होतें अनन्त अलोकाकाश ताके मध्यभाग तिष्ठता असंख्यात प्रदेशरूप लोककाश ता विषै तीन
लोक रचना षट् द्रव्य करि बनी है। ता विषै त्रस नाड़ी है। ता विषै देवादि च्यारि गति अनन्तकाल की ध्रुव बनी हैं। तिन मैं संसारी जीव, अथिर पर्याय धारी उपजे हैं और यह लोक, षट् द्रव्यन करि भरया है। सौ रा षट् द्रव्य जैसे-जैसे परिणमै, तिन सर्वकं केवलज्ञानी जानें हैं। सो कहिये है। जीव द्रव्य अनन्त हैं । सो अनन्ते
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जीव, समय-समय जसे-जैसे राग-द्वेष भाव कोध मान-माया लोम भाव, हास्य-भय शोकादि कषायनके अंश सहित ज्यों-ज्यों परिशम्या ताकू कंवलज्ञानी युगपत जाने हैं। एक-एक जीवने अनन्तकाल संसार-भ्रमरा करतें, एक-एक पर्याय च्यारि गति सम्बन्धी अनन्त-अनन्त धरी हैं, सो केवलज्ञानी जाने है। इस जीवने देव पर्याय अनन्त बार पाई, सो देवनति मैं नाना भोग भोगते भया जो शुभाशुम भावनका परिणमन ताकं केवली जाने हैं। अनन्तबार इस जीवन पाप भावनतें नरक पर्यायके दुख देने तिनमैं भये जो संक्लेश भाव तिनकं केवलज्ञान जान है। पशु पर्याय एकेन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त अनन्तबार पाई। तिनमें भये जो राग-द्वेष भाव तिनकू केवलज्ञान जान है। संसार भ्रम अनन्तबार भया जो मनुष्य तिन पर्यायनमैं भये जो शुभाशुम भाव, तिन सबक सेशनज्ञानी जाने हैं और ज्यारि गतिमैं ममतपरिणम्या जो पुद्गलस्कंध पर्यायन रुप, अनेक रूप, तिन सबको केवलज्ञान जाने है और अवार वर्तमान कालमैं च्यारि प्रकार देव सर्व मनुष्य पशु और नारकी च्यारि गतिके जीव सुख-दुख रूप प्रवत हैं। तिन सबक केवली जाने हैं और पुद्गल स्कंध जे-जे स्पर्श रस गंध वर्ग होय परिणम्या ते-ते केवली जान हैं और आगामी अनन्तकाल विर्षे एक-एक जीव अनन्त देव पर्याय और धारेगा। ऐसे अनन्ते जीवन सम्बन्धी अनागत अनन्त पर्यायन मैं समय-समय क्रोध, मानादि, कषाय, राग-द्वेष भाव रूप अनन्त जीव ज्यों-ज्यौं परिणमैगें ते केवलज्ञान सर्व पहले ही जाने हैं। अनागत अनन्त पर्यायन मैं अनन्त कालको देवनकी पर्यायरूप पुदगल स्कंध, सो केवलज्ञान पहले हो जानें है। ऐसे अतीत, जनागत और वर्तमान इन काल सम्बन्धी देवनके भाव विकल्प सो अरु इन देव पर्याय रूप परिणम्या जो समय-समय अनन्त पुद्गल परमाणु सर्व क केवलज्ञानी युगपत् एक समय जान हैं और ऐसे ही एक-एक जीव अतीत अनागत काल वि अनन्तानन्त मनुष्य पर्याय नीच-ऊँच कुल तहां नीच कुल भीलादिक का और अनन्ती पर्याय ऊँच कुल क्षत्रिय वैश्यादिक का तिन में भये जो समय-समय इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग पोड़ा-चिन्तन निदानबन्धादि आर्त-भाव तथा च्यारि भेद रौद्र-भाव। इनके निमित्त पाय जो क्रोध-मानादिक राग-द्वेष भावन रूप परिखमन, तिन सर्व कं केवलज्ञानो जानैं हैं और इन अनन्त मनुष्य पर्यायन में परिशम्या जो जा-जा रूप स्पर्श रसगन्धादिक पुद्गल पर्याय स्कन्ध रूप परमाणु का परिणामन तिन सबकों केवलो जाने हैं और वर्तमान में जो सर्व संख्यावे
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पललानी।२६
मनुष्य ऊँच-नीच कुल तिनमें जैसे-जैसे समय-समय क्रोधादिक कषाय राग-द्वेष भाव का पलटन तिन सबकू केवलज्ञानी जानैं हैं और वर्तमान इनही मनुष्य पर्याय रूप परिणम्या जो युद्धगल स्कन्ध तिन सबकू केवलज्ञानी
जाने है और अनन्त अनागत काल वि अनन्ती-अनन्तो मनुष्य पर्याय एक-एक और धारेगा तिनमैं होयंगे । जो-जो रागादि भाव विकल्प ते-ते सर्व केवलज्ञानी जाने हैं और अनागत काल में होयगी जो मनुष्य पर्याय तिन
रूप परिणमैंगे जो पुद्गल स्कन्ध तिन सबक केवलज्ञानी जाने हैं। ऐसे कहे जो अतीत अनागत वर्तमान काल सम्बन्धी मनुष्य पर्यायन में अनेक भावन के परिणमन तिन सबको केवलज्ञानी युगपत् जानै है और ऐसे ही राक-एक जीव अनन्त-अनन्त पर्याय नारकी धरि आया। अबार धरै है आगामी और धारैगा। ऐसे तीन काल सम्बन्धी नारक पर्यायन में भये जो माव विकल्प तिस सर्वको केवलज्ञानी जाने और ऐसे अतीत अनागत वर्तमान काल विर्षे एक-एक जीव अनन्त तिर्यंच पर्याय जो एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पृथ्वो. आप, तेज, वायु, वनस्पति, इतर-निगोद, नित्य-निगोद-इनके सूक्ष्म बादर रूप पर्याय प्रत्येक वनस्पति सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित इत्यादिक तथा अनेक भेदभयो पशु पर्याय और श्वास के अठारहवें भाग आयु के धारी अलब्ध्यपर्याप्त जीव, सैनी-असैनो एक अन्तम हर्त मैं चासठि हजार तीन सौ छत्तीस जन्म-मरण रूप पर्याध तिन सर्व पर्यायनको एक-एक जीव अनन्त-अनन्त बार धरि आया तिनमैं भये जो भाव विकल्प तिन सर्वको केवलज्ञानो जानें हैं और इन पर्याय रूप परिणम्या जो अनन्तकाल तांई पद्धगल स्कन्ध तिनकों केवलज्ञानी जाने हैं। ऐसे च्यारि गति के जीवन के परिणाम और ज्ञानावरणादिक-कर्म रूप भये जो अनन्ते जीवन के भावन का निमित्त पाय पुदगल-कर्म तिनकौं केवलज्ञानी जानैं हैं और पुदगल अनेक रूप भरा हीरा, माशिक, मोती, पत्रा. पारस, मिट्टी. खाक, पाषाण, सप्त धात्वादिक अनेक रूप परिण मैं जो पुटुगल स्कन्ध तिन सबकं केवलज्ञान जाने हैं
और तीन काल सम्बन्धी धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य,काल-द्रव्य, आकाश-द्रव्य-इन अमूर्तिक द्रव्यन का षट् गुणी हानि वृद्धिकौं लिये परिणमन तिन परिणमन अंशन केवलज्ञानी जाने हैं। ऐसे अलोक में तिष्ठता लोक तालोक में तिष्ठते षट् द्रव्य के परिणमन तीन काल सम्बन्धी तिन सर्व • केवलज्ञान जाने हैं। इस केवलज्ञान के होते ही अनन्त | चतुष्टय संग ही प्रगट होय हैं। अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसख अरु अनन्तवीर्य। तहाँ ज्ञानावरशीय-कर्म के
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क्षय तैं अनन्त केवलज्ञान होय सर्व दर्शनावरण का नाश भये केवलदर्शन होय । मोह-कर्म के क्षय होतें क्षायिक सम्यत्तत्व तथा यथाख्यात चारित्र रूप निराकुल भाव रूप अनन्त सुख होय । अन्तराय-कर्म के सर्व अभावतें अनन्तवीर्य होय । तिनमें केवलज्ञान, केवलदर्शन होते तीन लोक व तीन काल सम्बन्धी पदार्थन का जानपना होय और अनन्तवीर्य होते अनन्त पदार्थ देखने की अनन्तशक्ति प्रगट होय है। जो अनन्तशक्ति नहीं होती तो अनन्त पदार्थ के देखनें तें खेद होता और मोह-कर्म का क्षय होता नाहीं पर पदार्थ में राग-द्वेष होता. यथावत् सुखी नहीं होता। तात केवलज्ञान दर्शन तो मूर्ति जमूर्ति पदार्थ जाने और अनन्तवीर्य तें सर्व पदार्थ के देखते खेद नहीं भया । ऐसे अनन्त चतुष्टय सहित केवलज्ञान का धारी सयोग केवली अतीन्द्रिय सुख भोगता तिष्ठ है। ऐसा सुख संसार दशा में जो तीन काल सम्बन्धी अनन्ते अहमिन्द्र देव इन्द्र सामानिक च्यारि प्रकार देव अनन्ते चक्री षट्खण्डी कामदेव अनन्ते नारायण प्रतिनारायण बलभद्र अनन्ते ही मण्डलेश्वर राजादिक अनेक और अतिशय सहित पुण्य के धारी पुरुष विद्याधरादिक इन सबन का इन्द्रिय सुख तीन काल सम्बन्धी इकट्ठा कीजें तौहू केवलज्ञान के अनन्त भाग नहीं होय ऐसा सुख केवलज्ञान भये हो है । संसारी सुख तो ऐसा है । जैसे- कोई पुर का राजा काहूं वैरी को बन्दी पड़या है। सो राज, धन, सम्पदा बहुत है। सो रुका है तौ भी खान-पान, वस्त्र, आभूषण तो वांच्छित पहिरे है और भोजन रस मय करें है। सो इन्द्रिय सुख मैं कमी नाहीं । परन्तु बन्दी मैं पड़ा है। सो महादुखी हो रहे हैं। सो और जो रुके नाहीं स्वेच्छा सुख सूं राज करें हैं, ते महासुखी हैं। तैसे ही देवादिक संसारी जीव मोह राजा की बन्दी मैं हैं । सो शुभ कर्म उदय तैं इन्द्रियजनित सुख तो है । परन्तु निर्बंधन सुख नाहीं और केवलज्ञानी का सुख स्वेच्छाचारी राजा की नाई निर्बंध सुख है । तातैं केवली का सुख जपार है। ऐसे केवलज्ञान सहित भगवान की हमारा नमस्कार होऊ । इति केवलज्ञान का कथन |
इति श्रीहष्टितरङ्गिणी नाम ग्रन्यके मध्य में अवधि मनः पर्येय केवलज्ञानका वर्णन करनेवाला बीसवाँ पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ आगे कहे हैं जो इस मनुष्य आयु के दिन सोई भई मोतिन की माला ताक भोला जीव वृथा खावै है । ताहि दृष्टान्त देय दिखावे हैं
गाया-मुत्तादामं वर्ग कज्जय, भंजय मूवा णाण रद्दिया । इम असफल सुह सुहृदो, मंजय गरो आणु विणे मुल फलं ॥४९॥
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अर्थ — मोतीन की माला धागा के निमित्त कोई मूढ़ अज्ञानी मनुष्य तोड़ि डारै । तैसे हो इन्द्रिय सुख का लोभी मनुष्य आयुरूपी मोतीन को माल तजै है । भावार्थ - जैसे कोई मूर्ख जी गल्या वस्त्र फाटा देखि ताके सीवनेकों तागा ढूंढै था । सो नहीं मिल्या तब मनोहर मोतीन की माला थो। सो ताहि देखि विचारी जो इस वस्त्र सोवनेकों तागा मेरी मोती को माल मैं है । तब तागा निमित्त मूर्ख ने मोतो की माला तोड़ि कैं तागा लेय जीर्ण वस्त्र सीया । सो मोती तागा बिना विखर गये। सो इसकी मूर्खता तो देखो कि जीर्ण वस्त्र के निमित्त मोती को माला वृथा करी । सो यह महामुर्ख जानना । तैसे ही भोले संसारी जीव इन्द्रियन के विनाशिक श्राकुलता सहित सुख रूपी पुराणा वस्त्र तामैं भी जारि जारि फाटि रह्या गल्या जाके राखे लज्जा आवैं। नाख ( फेंक) देने योग्य मलिनता बहुत दिन थिरीभूत राखवे कूं अरु तिसतें अपनी शोभा जानिकेँ आप ज्ञान की मूढ़ता तैं ऐसे ग्लानिकारी इन्द्रिय सुख रूप कपड़ा ताके सीवनेकौं अपने मनुष्य आयुरूपी मोतिन का हार तोड़ि ताके दिन घड़ी रूप तागा काटि विषय सुख कषाय रूप वस्त्र को शाश्वता राखवेकौं सोवता भया । अरु मनुष्यायु रूपो मोतीन का हार शोभा में नहीं समझा। सो आयुष के समय तैई भये मोती तिनकों वृथा खोवता भया । सो इस भूल की कहा कहिये। अब मनुष्य आयु बार-बार कहां है। विषय भोग तौ गति-गति में आये हैं। आगे बहु भोगे हैं। तातें जो मनुष्य आयुरूपी मोतीन का हार तोड़ि तिसके दिन रूपी तागा लेय कैं विषय कषाय रूपी वस्त्र सोंव राखि सुख मानें। ताके ज्ञान को कहां तांई होनता कहिये। जैसे—कोई ज्ञान दरिद्री भोला जीव सुख के निमित्त भ्रमण करते मनुष्य पर्याय रूपो चिन्तामणि मन वांछित सुख का देनेहारा रतन पाया तोकौं अल्पज्ञानी भोला जीव विषय कषायरूपी कोरे चने के लिये बेंचें तथा कोई जीव सुख के निमित्त अनेक देशान्तर भ्रमता-भ्रमता कल्पवृक्ष पावै । ताके पास बाल-बुद्धि हलाहल जहर जांचै। तैसे मनुष्य पर्याय शिव सुख की दाता ताकूं पाय हीन ज्ञानी विषय भोग कालकूट हालाहल जहर जांच हर्ष माने । ऐसे ही मनुष्य आयुरूपी हार तोड़ि-तोड़ि ताका डोरा य विषय कषायमयो वस्त्र का सींवना जानना। आगे अपनी भूल करि आप बन्ध्या है, सो ही दृष्टान्त द्वारा बतायें हैं
गाथा-सुक शालणी कप मुहई, मुकरहि भर्म एत्ति जह साणो । इम वेदण भमभूल, अप्प बंध रायोसावो ॥ ५० ॥
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अर्थ-जैसे नलनी का सूवा ( तोता), कपि को मूठी, कांच के महलमैं दूसरा स्वान नाहों। तैसे ही आत्मा भ्रम भला, राग-द्वेष ते आप ही बन्ध्या है। भावार्थ-नलनो का सूवा (तोता), नलनी पै बठिकें आपही उलट्या है। सो पञ्जन त नलनोको दृढ़ि पकड़े है। सो ऊर्ध्व पांव, अधोकं शरीर होय मूलै। काहू नैं पकरचा नाहीं बानध्या नाहीं। आपही रोसा समझे है जो मैं इस नलनोकौं तजौंगा, तौ मेरे लगेगी तथा उसे भ्रम भया, जो मोकौं काहू नै पकड़ि उल्टा बांधि दिया है। ऐसे भ्रमत आप महादुखो भया बन्ध्या। भ्रम जाय, तौ काहू नै पकरचा नाहीं, सहज ही नलनी तजै नभ में उड़ जाय और सुखी होय। तैसे आप अपनी भूलतें पर-वस्तु मैं राग-द्वेष करि, कौऊको भला मान है, काहूको बुरा मान है, ए मेरी है. र मेरी नाहीं। ऐसे भ्रम करि आपही बन्ध्या है। भ्रम गये, सहज ही सुखी होय है और सुनो, जैसे—बन्दरकौं एकरनेवाले ने एक तुच्छ मुख का कलश वन में धरचा, ताके भीतर चने धरे। सो छोटे मुख के कलश मैं तें चने लेनेकौ बन्दर ने लोभ के मारे दोऊ हाथ डारे। सो दोऊ मठि भर काढ़े था। दोऊ मुद्री छोटे मुख से निकसती नाहीं। तब बन्दर ने जानी, जो हाथ काह नै पकर हैं। ऐसे भ्रम होतें आप वन मैं उस घट मैं सागर पड़ा है। भापको बनाने । सो यौकाह ने पकड़या नहीं, यही भ्रम बुद्धि के प्रसादत चने का लोभी होय, आपही बंधि रह्या है। आप कदाचित मुट्ठी-चने का ममत्व तजिकै, चने नाखे । तौ सहज ही स्वच्छन्द होय, वन में विहार करे, सुखी होय। तैसे ही आत्मा, पर-द्रव्यन ते राग-द्वेष भाव करि, मोह के वशि, विषयभोग रूपी चने के लोमतें, संसार-वन में पड़ा, कर्म-बन्ध का करता होय, महादुख पावै है। विषयभोगरूपी चने से ममत्व भाव तजे, तौ सहण ही सुख-सन्तोष के प्रसाद तें सुखी होय और जैसे—कांच के महल-मन्दिर मैं श्वान जाय पड़ा, सो चारों तरफ श्वान हो श्वान देखि ऐसा भ्रम करता भया। जोय बहुत श्वान मेरे मारवेकौ आए हैं। ऐसा जानि आप उन तें युद्ध करने कू गया। सो यह जैसे बोले तैसे ही कांच के श्वान बोलें। ए युद्ध कर, तैसे ही कांच के श्वान युद्ध करें। सो ए इवान महाभयवन्त भया। जो मैं तौ एकला, अरु यही श्वान बहुत हैं सो मोहि मारंगे। ऐसे भ्रमतें बड़ा दुखी है। सो कांच के मन्दिर मैं कोई दूसरा श्वान नाहीं। एही श्वान अपना प्रतिबिम्ब कांच मैं देखि. भ्रमतें दुःखी होय है। तैसे ही ये आत्मा भी भ्रम-भाव करि, पर-वस्तुकौं देखि राग-द्वेष भाव करि, कर्म-बन्ध का करता होय, दुख उपजावे
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है । ऐसे ये मूढ़ जोव, नलनी का तोता, घटमैं मूठी तैं बन्ध्या चने का लोभी बन्दर और कांच के मन्दिर मैं धस्या श्वान अपनी भूलि तें दुखी होय हैं। काहूकों दोष नाहीं । तैसे हो इनकी नाई मोही - मिथ्या रस भीजत जीव, पर-वस्तुकूं अपनाथ रागो-द्वेषी होय. संसार दुख का भोगी होय है और जे सम्यग्दृष्टि-सांची दृष्टिवाले हैं, तिनकै भ्रम नाहीं । ए तत्वज्ञानी सांची दृढ़ सरधा का धारक है । याके श्रद्धान मैं पर वस्तु मैं ममत्व नाहीं । तातैं अपने पदस्थ योग्य कर्म-बन्ध नाहीं करें है और मिथ्यारस भोंजे ते कर्म-बन्ध करि जन्म-मरण बिधायें हैं। अनेक तन धरि-धरि तजि अशुद्ध भावी जीव दुखी होय हैं और शुद्धोपयोगी भ्रम रहित हैं, ते कर्म-बन्ध रहित हैं, ऐसा जानना। आगे कहे हैं। जो शुद्धात्मा कैं राते दोष नाहीं
गाथा - तसकर पय जिप बहणी, दुमखो लोग पाव गद पंचो। दुठणरपसु यम णिदो, ए तीयदह्नभय रहय सुद्धादा ॥ ५१ ॥ अर्थ-तसकर कहिये चोर, पय कहिये जल, शिप कहिये राजा, वहशी कहिए अग्नि, दुमखो कहिये दुभिक्ष, लोय कहिये लोक, पाव कहिये पाप, गद कहिये रोग, पश्चो कहिये पश्च, दुठरार पशु कहिये दुष्ट नर- पशु, यम कहिये काल, शिन्दो कहिये निन्दा, रातीयदहमय रहयसुद्धादा कहिये - इन तेरह भय करि रहित शुद्धात्मा होय है । भावार्थ- शुद्धात्मा कौं चोर का भय नाहीं । सो चोर के अनेक भेद हैं। एक धर्मचोर एक कर्म चोर, सो ही कहिये हैं जो धर्म स्थान जो देहरे ( देवालय ), तिन देहरेन की वस्तु चोरना, भगवान के छत्र, चमर, प्रतिबिम्ब, सिंहासन, भामण्डल, थारी, रकेवी, मारी, झालर, मजीरा, घण्टा, जाजम, चाँदनी, परदादि उपकरण वस्तुनको चौरे, सो धर्म- चीर कहिये तथा शास्त्र-चोर, सो शास्त्रजी के बन्धन, पूठा का चोरना, सो धर्म-चोर है तथा कपटाई करि छल तैं धर्म सेवन करें, सो धर्म-चोर है। धर्म स्थान हैं कोऊ गृहस्थ को वस्तु चोरना, सो धर्म-चोर है तथा कषाय के वशीभूत प्रमादी होय धर्म-वासना रहित अपना हिरदे करके, पोछे रुचि रहित किंचित् कोई धर्म अङ्ग का साधन लोक के देखनेकों करें है। सो धर्म-चोर है तथा धर्म की सेवा करि धर्म का सेवक बाजि ( कहलाकर ) पुजाया लोकमान्य भया । पीछे कोई पाप-कर्म के योग धर्म रहित होय उल्टा धर्म का द्वेषी होय । सो धर्म- चोर है । एतो धर्म-चोर के भेद कहे और कर्म चीर हैं सो इनके भी अनेक भेद हैं। मुख्य ये हैं - एक तन-चोर, एक धन-चोर और
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वचन चोर तहाँ जे कोई पराए बेटा-बेटी, पर-स्त्री की चोरी कर, पर-स्थान में जाय बेवना तथा हस्त], घोटक, गाय, महिषादिक पशून की चोरी का करना सो तो तन-चोर कहिये और पराये घर विषै ओड़ा ( फोड़कर ) चुराना मन्दिरन पै छल-बल करि चढ़ि चोरना। पराये घरे धनको आप जानि ले आवना, सो ए सर्व भेद धन-चोर के हैं। पराया दिया-धरामाल राखि लेना। जानता हो भोले राखना। इन आदिक अपने छल करि पराया धन चोरै, सो धन-चोर कहिये और पर के छिपे गुप्त वचन होय, ताकी कोई रहसि जानि, ताक प्रगट करना, सो वचन चोर है तथा मुखतें असत्य का बोलना, सो वचन चोर है । इत्यादिक ए कर्म चोर हैं। ऐसे जे धर्म-चोर और कर्म चोर, सो कर्म चोरतें अनन्तगुणा पाप धर्म-चोर का है। ऐसे कहे जो अनेक भेद चोर सो ऐसे चोरन का भय, संसारी परिग्रहोन है और अनन्त गुणों का धारी, अतीन्द्रिय सुख धन के धारी परमात्माकूं, चोर का भय नहीं। २ । और थोरी दीर्घ मेघ को वर्षा का भय तथा नदो, सरोवर, समुद्र, कूप वापी आदि जल का भय, संसारिक तन धारी जीवन होय है और शुद्धात्मा श्रमूर्तिक अनन्त सुख के धनीको, जल का नय भी नहीं। २ और राज भय सो राज का भय चोरनकूं, पर स्त्री लम्पटन कूं होय और अन्याय मार्गोनकू, असत्य वचनीकूं इन आदिक पाखण्डीनकूं राज का भय होय है और निर्जरण, कर्म रहित, परमेश्वर, शुद्धात्माकूं, राज भय नाहीं । ३ । और अग्नि का भय है सो काठ, वस्त्र, तृण, सुवर्ण, चाँदी, रतनादि मनुष्य पशुन के पौद्गलिक शरीर इन आदिक धन-धान्यादिक सर्व वस्तु पुद्गल स्कन्ध है । तिनकूं अग्नि का भय है तथा इन पुद्गल स्कन्धन में जिस जीव का ममत्व भाव होय, तिस रागी कूं अग्नि का भय है और अमूर्तिक, ज्ञानपिशड, शुद्धात्माको अग्नि का भय नाहीं । ४ । और अन्न ही है सहकारी जाका, ऐसा जो पुद्गल शरीर का धारी, परिग्रही, बहु कुटुम्बा, मोही, संसारी जीव, दुर्भिक्ष होते कुटुम्ब रक्षा तथा अपने तन की रक्षा करनहारा, ताकूं काल का भय होय है। क्यों ? यह मोही परिग्रही तन धारो, सो याक दुर्भिक्ष का भय होय है और पुद्गल शरीर रहित और कुटुम्बादि जन रहित, वीतराग, मोह रहित, शुद्धात्माक दुर्भिक्ष का भय नाहीं । ५। और लौकिक का भय है। सो जे तस्कर होय, द्यूत के रमणहारे होंय, पल (मांस ) भट्टी होय, मदिरा पायी होय, वैश्या घर गमनी होय, पर- जीवन
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का घाती होय तथा पर-स्त्री भोगनहारेको इन सप्तव्यसन सहित, पापाचारी, अयोग्य पन्थ के चलनहारे जीवनक लौकिक का भय होय तथा क्रोधी, मानी, दगाबाज, महालोमाचारी, पाखण्डी, ठग, अनाचारी, विश्वासघाती, स्वामी-द्रोही, मित्रद्रोही – इन आदि अनेक कुमार्गीनकू, लोक का भय होय है और जगत् पूज्य, सर्व बल्लभक, लोकालोक ज्ञाता सर्वज्ञकों, वीतराग, अमूर्तिक देवक, लोक का भय नाहीं । ६ । और सरागी, बहु कुटुम्बी, बहु आरम्भी, संसारी, राग-द्वेष सहित, पापाचारीकूं पाप का भय है तिनकू पाप दुखी करे है और वीतरागी, जगत् का पीर हर, पाप-पुण्य संसार मार्ग तातैं रहित कर्म कालिमा वर्जित शुद्धात्मा कूं. पाप का भय नाहीं । इनकूं पाप भघ नाहीं उपजावै है [७] रोग भय ताकों होय जो शरीर आसरे रहनहारे संसारी जीव मोही तन स्थिति सदैव चाहनेंहारा पुद्गल धनधारी जीव तिनकौं रोग का भय होय । पौगलिक काय रहित श्रमूर्ति शुद्ध जीवकौं रोग भय नाहीं । पश्च भय है सो अन्याय पंथवारी पञ्च मर्यादा लोपनहारेको पञ्चन का भय होय है और जगत्नाथ लोक पूज्य पदधारी कूं जगत् मर्यादा का बतावनहारा तथा लोक मर्यादा का चलावनहारा भगवान् कूं पञ्च भय नाहीं || और दुष्ट मनुष्य का भय है। सो पर जीवनतें कोई जीवद्वेष राखे ताका दुष्ट जीव का भय होय और जगत्नाथ निर्दोष, वीतराग, जगत् पूज्य, शुद्धात्मा कौं, दुष्ट मनुष्यन का भय नाहीं । १०। दुष्ट पशून का भय है, सो इन दुष्ट जीव पशु, हस्ती, सिंह, चीता, सुअर, श्वान, मार्जार, बन्दर, सर्प, बिच्छू आादिक दुष्ट जीव है, सो हस्ती आदि तो दन्ती हैं। सिंहादिक नखी. विषी जो सर्पादिक, ए दन्ती, नस्ती विषी इन सर्व दुष्ट पशुन का भय संसारी, सरागी, पुद्गल तन के धारी जीवनको पाप उदय तैं होय है और संसारी दुख रहित, षट् काय का पोर हर अमूर्ति भगवान् कूं दुष्ट पशून का भय नाहीं । इस भगवान् के नाम लेते ही सुमरण करते हो, दुष्ट-पशु आदि के अनेक विघ्र नाश होय। ऐसा जानना । ११ । और यम भय है। सो देव, मनुष्य, नारक, पशु, पुद्गल तन के धारी, संसारी, कर्म-बन्ध सहित, तिन जीवन कौ यम का भय है और अष्ट-कर्म-शरीर रहित, अमूर्ति, जन्म-मरण रहित, शुद्धात्मा कूं यम का भय नाहीं । ३२ । निन्दा भय है सो कुमार्गी, निर्लज्ज, अनेक दोष भरे, अमार्गी जीव, तिनकों जगत् निन्दा का दुख होय और जगत्पूज्य, स्तुति योग्य, जाके गुण गाये कल्याण होय, निर्दोष, शुद्ध परमात्मार्क, निन्दा भय नाहीं । १३। ऐसे कहे जो
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। तेरह प्रकार भय, सो संसार विष ही हैं. शुद्धात्मा विर्षे नाहीं। ऐसे भय रहित भगवान् कुं, बारम्बार नमस्कार होहु । ऐसे सामान्य शुद्धात्मा का भाव जानना। आगे कहे हैं जो धर्म के प्रसाद, अचेतन आकाश द्रव्य भी भक्ति
है। तो इन्न, वो बाकि त भक्ति करे तो क्या आश्चर्य है ? ऐसा कथन कहिये हैगाथा-आदा धम्म पसायो, पण अचेय णगधार क्रय भत्ती । तो सुरणर खग पूजय, को विसमय धम्म सेय सिव कज्जे ॥५२॥ | अर्थ-प्रादा धम्म पसायो कहिये, भो जात्मा! धर्म के प्रसाद तें। राम अचेय कहिये, आकाश अचेतन है सो भी गधार कय मत्ती कहिये, रतन की धारा भक्ति करि करे। तो सुर-गर-खग पूजय कहिये; देव, मनुष्य, विद्याधर पूजै ताको विसमय कहिये, कहा विस्मय है। धम्म सैथ सिव कज्जे कहिये, मोक्ष-अर्थ धर्म । सेवन करि। भावार्थ-भगवान की भक्ति जादि धर्म का फल ऐसा--जो ताके प्रसाद त अवेतन आकाश से भी रतन की धारा की वर्षा होय के, धर्मात्मा जीवन की महिमा प्रगट करै है। सो मान धर्मात्मा जीवन की सेवा ही कर है। इहा प्रश्न आकाश तो जड़ है। सो भक्ति कैसे करे ? रतनधारि तो देव करें हैं। सो यहाँ आकाश की भक्ति कैसे मई १ साका समाधान सो आकाश जड़ तो है। याक भक्ति-भाव कैसे होय, या बात तो प्रमाण है। सर्व जानैं है, चेतना नाहीं। परन्तु धर्म का माहात्म्य रौसा है जो बाकाशमैं तिष्ठते पुद्गल-द्रव्य-स्कन्ध, सो रतनादिक रुप परिणमिकेताकी वर्षा होने लगे है। तात हे भव्य ! जीवन क अतिशय बताने के निमित्त ऐसा कहा है। जो आकाश भी धर्म-प्रसाद ते रतन-धारा वर्षाय, धर्मात्मा जीवन की सेवा करें, तौ चेतन द्रव्य जो देव, चक्री खग, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, कामदेव, महामण्डलेश्वरादि राजा रा और भवनपति, ज्योतिषपति, व्यन्तर देव, कल्पवासी, कल्पातीतादि देव र चेतन पदार्थ धर्मप्रसाद तै, धर्मात्मा जीवन की तथा धर्म की सेवा करें, तो अचरज कहा है । करै हो करें। ऐसा जानि भव्य जीवन कौं, धर्म की तथा धर्मो पुरुषन की सेवा
भक्ति करना योग्य है। इति । आगे कहै हैं जो ऐसे-ऐसे पुण्याधिकारी, पदस्थवान, पुरुषन के भोग इन्द्रिय सुख ।। हैं सो विनाशिक है। ऐसा दिखाते हैंगाषा-रायपरा महरायो, अधमण्डयमण्डेयमहामण्डो । अघचक्की महचक्की , खगसुर देवाण सपल मुह अथिरो ॥ ५३॥
बर्ध-राजा, महाराजा, अर्ध-मण्डलेश्वर, मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, अर्ध-चक्री, सकल-चनी, सगेश्वर,
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दैव, इन्द्र-इन सर्व के सुख अथिर हैं। भावार्थ जाके घर मैं कोटि ग्राम होय, सो राजा है । सो इस राजा
| २७२ के वांच्छित भोग।श और जाको ऐसे-ऐसे पांच सौ राजा सेवा कर-चाकर होय, सो अधिराज कहिये। ताके सुख देखते ही विनशै हैं ।२। और एक हजार राजा जाकी चाकरी करें, सो महाराजा है। ताकी विभूति । ३। अरु दोय हजार राजा जाको आज्ञा माने, सो अर्ध-मण्डलेश्वर कहिये। तिनको सम्पदाठा और चार हजार राजा जाके चरण-कमल की सेवा करें, सो मण्डलेश्वरनाथ कहिये। इनके भोग ।५। आठ हजार राजा जाको आज्ञा माने, सो महामण्डलेश्वर कहिये। ताकी सम्पदा । ६ । और जाकी सोलह हजार आर्यखण्ड के राजा सेवा करें सो तीन खण्ड का अधिपति कहिये। ताके भोग।७। और बत्तीस हजार देश आर्यखण्ड के, तिनके बत्तीस हजार, राणा जिसकी सेवा करें, सो चक्रवती-पट्खण्डनाथ है। ताके पुण्य का माहात्म्य कछु कहने में नहीं आते। छयानवे हजार तौ देवांगना समाति, महासुन्दर, विनयवती रानी हैं। नवनिधि व चौदह रतन, इनके दिये अनेक वांच्छित भोग । जाकी हजारों देव आज्ञा माने। चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ इत्यादिक नाथ, मनुष्यन का इन्द्र। ताकी ए ऋद्धि।८। और महामान शिखर चढ़या, महाअतिशय सहित पुण्य का धारी इत्यादिक पदस्थ का धारी पुरुष, अपनी सम्पदा कू स्थिरी भूत जानि, सदैव सुखसागर में मगन रह्या चाहै था, सो इनकी सम्पदा देखते-देखते नाश कं प्राप्त होय गई। जैसे—बिजली अल्प उद्योग करि नाशकं प्राप्त होय है, तैसे ही महा-चपल सम्पदा विनश गई तथा और विद्याधर महाअतिशयवान् पुरय के धारी, देवन समानि निवासी वांच्छित भोगन के निवासी और च्यारि प्रकार के देव, अद्भुत रस के भोगी महापराक्रमी तथा देवन का नाथ जो इन्द्र, जाको मन अगोचर लक्ष्मी। असंख्यात देवोनि की सराग चेष्टा करि मोहित होय रह्या है चित्त जाका। अनेक मन, वचन, काय के चाहे इन्द्रिय भोग तिनका भोगी देवेन्द्र। रोसै कहे जो देव मनुष्यन को सर्वोत्कृष्ट सुख | सम्पदा सो सर्व विनाशिक स्वासम भ्रम उपजावनहारी जानना। भो भव्य हो! देखो। ऐसी महान् सुख सम्पदा तौ थिर रही नाही, तो तेरी तुच्छ पुण्य करि उपार्जी, अल्प सम्पदा पराधीन सोए कैसे स्थिर रहेगी? तातें ऐसी जानि के तुच्छ स्थिति धारी चपला-विनाशिक सम्पदा तें ममत्व छोड़ि कर मोक्ष के सुख अविनाशिक तिनके निमित्त धर्म का सेवन करना योग्य है। इति। मांगे ऐसा बतादें हैं। जो माता-पितादि सर्व जन अपने-अपने
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स्वार्थ के बन्धन बन्धे हैं.
गाथा - जगक पितामह जणणी, तिथ सुत मित्रादि बन्ध पुतीए । सामी भिखिक दासी ए सहु णिज्जकाज बंध बंधाणी ॥५४॥ अर्थ -- जक कहिये, पिता । पितामह कहिये, पिता का पिता । जराशी कहिये, माता । तिय कहिये, स्त्री सुत कहिये, पुत्र । मित्तादि कहिये, मित्र । बन्धु कहिये, भाई। पुत्तीरा कहिये, पुत्री स्वामी कहिये, सरदार । भिक्खिक कहिये, मँगता । दासो कहिये, चाकर । ए सहु कहिये, ये सर्व हो। जि काज बन्ध बन्धाशी कहिये अपने-अपने कार्यरूपी बन्धन करि बंधे हैं। भावार्थ जातें आप उपज्या, सो अपना पिता है। सो पिता पुत्र की बालापने में सेवा करें है। नाना प्रकार खान-पान शीत-उष्यात रक्षा करें है। सो ऐसा विचार है जो ए मेरा पुत्र है। यातें मेरा नाम चलेगा। मेरी वृद्धयने में सेवा करेगा। इत्यादि स्वार्थ के बन्धन में बन्ध्या मोह वस होय, नेह उपजाय पुत्र की रक्षा करें है और पीछे पुत्र कुप्त होय, अविनयवान् होय तौ तातें स्वार्थ नहीं सधता जानि मोह तजें । घर निकास देय, मारि डालै जुदा करें। बटाऊ ( साझीदार ) हूतैं बुरा लागे और पिता का पिता मोतेर्ते मोह करें है । यह जान कर कि ए हमारे पुत्र का पुत्र है। सो मेरा नाती है। यह बड़ा होयगा तब मेरी वृद्ध अवस्था में सेवा करेगा। ऐसा स्वार्थ के बन्धन में बन्ध्या, नाती जानि बाबा रक्षा करें और माता ने नव मांस उदर में रक्षा करी जनम भये पोछे मोह के वश ये पुत्र की रक्षा करें है । सो भरी राति में शीतकाल समय मल-मूत्र करें तथ आप तो शीत आगे (गोले ) में रहे अरु पुत्र को सूखे में राख है। सो ऐसा विचार है जो बड़ा ! होय कमाय मोकूं खुवाय सुखी करेगा। मेरो आज्ञा मानेगा। ऐसे स्वार्थ के बन्धन तैं बंधी माता पुत्र की रक्षा करें है और पति नाना कष्ट पाय द्रव्य पैदा करें, सो लायक स्त्री कूं देय । नाना प्रकार पंचेन्द्रिय जनित भोग सामग्री मिलाय स्त्री सुखो करें है । तातें स्त्री ऐसा जानें है। सो मेरे मन वांच्छित भोग का देनेहारा एक भर्तार है। ऐसे स्वार्थ तैं थोत्रो भर्तार को सेवा करें है और कदाचित् भर्तार मन्द कुमाऊ होय होन भागी होय दरिद्री होय अपने सुख का कारण नाहां होय तो अपने स्वार्थ रहित भर्तारको तर्फे है और पुत्र अपने योग्य खान-पान असवारी वस्त्र के दाग़ माता-पिता गानिक, पुत्र माता-पिता की सेवा करें है और ऐसा जाने है । ये माता-पिता हमारा जतन कर हैं। ऐसे स्वार्थ तैं बन्ध्या पुत्र माता-पिता की सेवा करें है, आज्ञा माने है।
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कदाचित अपना स्वार्थ सधता न जाने तो माता-पिताकत है और मित्र है। सो स्नेह करें है और ऐसा विचार करें है। जो ये धनवान है। हुकुमवान् है। राज पञ्चन में इसका बड़ा चलन है। तात यात द्रव्य का सहाय काम पड़े होय है तथा खान-पान भली वस्तु वस्त्रादि मिले है तथा प्रयोजन पड़े कष्ट में सहाय करे है। ऐसे स्वार्थ के बन्धनते बन्ध्या मित्र स्नेह कर है कदाचित् अपना पुण्य घटै. हुक्म मिट, धन घटै तौ मित्र अपना प्रयोजन सधता न जानि मित्रता तजै है। तात मित्र भी स्वार्थ के बन्धनतें बन्ध्या स्नेह करै है और बन्धु जो भाई हैं, सो अपना मनोरथ सधै तबलौ सनेह रूप हैं। प्रयोजन सधता नहीं जानि जुदा होय। पुत्री है सो अपना प्रयोजन सधै तबलूं माता-पितान की सेवा करै, उपकार मान और स्वामी की आज्ञा प्रमाण सेवक चले। जबलौं अनेक कारज घर के सुधरे, तबलं स्वामी कहै मेरा भला सेक्क है और जब आज्ञा न माने, तौ दूर करें चाकरी से छुड़ाय देय। तात स्वामी भी अपने स्वार्थ के बन्धनते बन्ध्या सेवा करावे है और भिक्षुक जो जाचक मँगता, ताकी याचना भंग न होय जबलौं अन्न, वस्त्र, धन पावै तबलौं यश गावै। याचना भंग भये यश न गाव निन्दा करें। तात याचक भी स्वार्थ के बन्धनतें बन्ध्या है और सेवक है सो स्वामी के घरत अनेक अत्र, धन, ग्राम, हस्ती, घोटकादि सुख सामग्री पावै है। तेते काल सेवक भलीभांति स्वामी की सेवा कर है और अपना प्रयोजन जब नहीं सधै तब सेवा चाकरी तजै तातै सेवक भी अपने स्वार्थ के बन्धन ते बन्ध्या है। इत्यादि कहे जे नाते ते सब अपने-अपने स्वार्थ के जानना। बिना स्वार्थ संसार प्रयोजनवाले, जीव ते स्नेह करते नाहीं। ऐसा हो अनादि स्वभाव जगत का जानना और धर्म-रस के पीवनहारे त्यागी ज्ञानी जगते उदासीन समता भावी दया-भण्डार परमार्थ-मार्ग के वेत्ता धर्म-स्नेही ये जीव जात स्नेह करें, जाकी रक्षा कर सो स्वार्थ रहित। तातें धर्मी पुरुषनकौं कोई इन्द्रिय जनित स्वार्थ नचाहिये। इनका स्वार्थ परमार्थ निमित्त है। ऐसा संसार का स्वभाव हो स्वार्थमयी जानि, विवेकी हैं तिनकों अपने स्वार्थ साधवै की परमार्थ-मार्ग चलना योग्य है जाते परम्पराय मोक्ष होय है। आगे जिन-जिन पदार्थन का चपलता रूप सहज ही स्वभाव है, सो मिटता नाही ऐसा बतावे हैंगाथा-स्वांचा एक अति सामगोरु शितो सहल व मनायो । पीपल पल करि कण्णो सह मण बस एह प्राइवर भावो।।
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याका अर्थ-स्वांण पुच्छ कहिये, कुत्ते की पूंछ। अहि गणो कहिये, साप की चाल । दुठ चित्तो कहिये, दुष्ट जीव का चित । सहल यक कहिये, सहज ही वांक का है। राहपायो कहिये, इनके मिटावे का उपाय नाहीं। पोपल दल कहिये, पीपल का पात (पत्ता)। करि करणो कहिये, हाथी का कान । सठ मरण कहिये, मूर्ख का मन । || अख सुह कहिये, इन्द्रियों के सुख। शाह ध्रुव भावो कहिथे, ए ध्रुव भाव नाहीं। भावार्थ-कुते की पूंछ, सहज । हो बांको होय। ताके सीधी करवकों, कोऊ उपाय नाहीं। याका सहज ही स्वभाव वैसा है और सर्प की चाल स्वभाव ही की है। या भी होर उपार गीली होगी नाहीं तैसे ही दुष्ट-जीव पापाचारोन का चित्त भी, सहज ही बांका-कुटिल है। दगाबाजी कर भरचा है। याका भी सहज-स्वभाव है। या दुष्ट की बहुत सेवा कसे तथा याका विनय करौ, याते नमो तथा याकौं बहुत धन देऊ, इत्यादिक अनेक उपाय करौ, परन्तु कोई भी उपाय ते इस अनाचारी का चित्त सीधा नाहीं होय। यातें भो भव्य ! तु सर्व जगह प्रमाद रुप रहियो। परन्तु दुष्ट-जीव के संग होते, गाफिल-प्रमादरूप मत होईयो! भो भव्य [ काले सर्प ते क्रीड़ा करते प्रमादरूप रहे. तो मरण पावे। सी एक ही भव दुखी होय। परन्तु तूं या दुष्ट के स्नेह-संग पाय, गाफिल रहेगा, प्रमाद के वशीभूत होयगा, तो तेरा भव-भव बिगड़ जायगा। महादुर्गति में पड़ेगा। यहां प्रश्न-जो तुमने कह्या, दुष्ट के स्नेह तें भव-भव दुख उपजै, सो संग किये ही दुष्ट कैसे भव बिगाड़ेगा ? ताका समाधान—जो है भव्य तु सुनि । याका उत्तर समम श्रद्धान कोजे, तेरा बहुत भला होयगा और ज्ञान बधवारी होयगी। भले-बुरे जीवन की परीक्षा का ज्ञान प्रगटैगा। तातै भो धर्मी! चित्त लगाय के सुनना। आप काहू ते द्वेष करें, तो दूसरा भी आपते द्वेष करै।
सो यह सब संसारी जीवन की रीति हैं। परन्तु भो भ्रात! दुष्ट ताका नाम है, जो बिना-दोष परतें द्वेष करें। | याही परीक्षा करि तू दुष्ट कुं जान लेना। आपतौ कोई प्रकार से द्वेष-भाव नाहीं करें और जे दुष्ट हैं ते पराया धन, हुकुम, वस्त्र, आभूषण, हस्ती, घोटक, रथ, पालकी आदि असवारी देख, बिना प्रयोजन सहज ही द्वेष-भाव करें।
में काह का बड़ा यश. गुणी जीवन के मुख ते सनि, यह पापी वृथा ही द्वेष करें तथा कोई को सुमार्गी २७५ | लगता देखि, धर्म सेवन करता देखि, द्वेष करै। कहै,रा बड़ा धर्मात्मा भया। हमारे आगे याके बड़े अनेक पाय
| करते देखे थे। इत्यादिक परकौं सुखी देख, आप निरन्तर दुख करे। परको रोग, शोक, चोट लागी देख,
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परकं दुखी दरिद्री देखि, आप राजी होय। सो दुष्ट जानना! सो या दुष्ट, जगत निन्ध के संगत भला जीव निन्ध || होय, अपयश पावै, अनादर होय । ता अनादर तें, आत्मा दुखी होय है। तातै दुष्ट का संग मने किया है और जो
।२७१ ।तु कही पर-भव में दुष्ट दुखदायी कैसे होय? सो भी त चित्त देश सति। जिन दहा जनतें पीति होय। तब वह पापाचारो, पाप कार्यन में रआयमान करा है। यह बिना कारण सहज स्वभाव, धर्म ते द्वेष-भाव करनहारा दुराचारी, धर्म भावना रहित, अनेक भक्ष्यादि भोजन करनहारा, याकौ कोई धर्म नाम भला लगता नाहीं। सो पुण्य तैं छुटाय, पाप पंथ का प्रेरक होय है। जैसे बने तैसे, अनेक जुगति देय के हाँ सि कौतुकनमैं, इन्द्रिय नित भोगन मैं लगाय, धर्म ते भृष्ट करि, पाप कार्यन में तन, मन, धन, वचन ते अनेक प्रकार सहायक होय है। पाप करावै स्नेहो कं दुई द्धि करि पाप-बन्ध कराय, पर-भव बिगाड़ें। तात अनेक दुख ए जीव पावे। ऐसा जानना। तातें भी भव्य ! तं याका संग स्नेह, नरक पशून के दुख का दाता ही जानना । ताते या दुष्ट जीव का निमित्त सब प्रकार दुखदायी जानि, तजना सुखदायी है और कदाचित् भो धर्मात्मा! तू सरल बुद्धि है सो दया-भाव करि कमी रोसा विचारैगा, जो मैं कोई नय दृष्टान्त करि, याकों धर्म विष लगाय, याका भला करूँगा। सो परोपकारी | भव्य ! तूरोसा भ्रम तज देय । याका सुलटना महाजसाध्य नहीं होने जैसी वार्ता जानि। जो कुत्ते की पंछ की कुटिलाई मिटै सूधी होय, तो इस दुष्ट की दुष्टता छुटि धर्म रूप होय तथा सर्प की चाल वक्रता तजि, सरल होय, तो इस कुबुद्धि को धर्म रुचि होय । तात जैसे-नाग की चाल अरु श्वान की पूंछ, इनकी वक्रता अनादि की, ॥ कोई उपाय ते नहीं मिटै। तैसे ही दुष्ट स्वभाव, सहज हो अनाचार रूप होय है। याके धर्म कदाचित् भी नहीं होय। तातें ऐसा जानि. दुष्ट का संग स्नेह तजना योग्य है और तन धनादि सामनो विनाशिक है। सो इनसे । ममत्व भाव तजना योग्य है। जैसे पीपल का पत्ता, चञ्चल है तथा गजकर्ण, चपल है तथा मुर्ख का मन चपल है।।। तैसे ही हे भव्य ! ये जगत् के इन्द्रियजनित सुख चञ्चल जानना। ए पीपल पात गज कर्ण मूर्ख का मन सहज
ही चपल है । तेसे हो इन्द्रियजनित सुखन • सहज ही विनाशिक जानि इन त ममत्व भाव तजि धर्म विर्षे लगना २७६ | योग्य है। तू विवेकी धर्मार्थी है तातै तोकं धर्म का उपदेश कहैं हैं। सो तू सुनि। जो धर्मार्थी हैं तिनका चित
। तो धर्म के उपदेश सतिने में लगे है और सर्व धर्म वासना रहित पासी है, तिनका चित्त धर्मोपदेश ते चचल होय ।
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। स्थिरो-नह रहतानाही। यह अनाना काक स्वर में समझना नाहीं। इस दुरात्मा का उपयोग, विकया। श्रीलड़ाई, राज-कथा, धन-कथा. पर को निन्दा करना इत्यादि पाप स्थानकन मैं तो निःप्रमाद होय भले प्रकार मु मन-वचन-काय को एकता सहित या कुबुद्धि का चित्त लाग है और धर्म-पन्थ-विसरे जीव कौं धर्मोपदेश
दीजिये। तब धर्म-दरिद्री और विकल्प विचार धर्मोपदेश नाहों धार तथा धर्म सुनतें निद्रा आवै सो शयन करें| ऊँधै और कदाचित् जागै तो दूसरे मनुष्यनतें जो पासि तिष्ट्या होय तातै वार्ता करने लगे। सो आप तो पापी है
हो। परन्तु समीप तिष्ट्या पो जीव ताकौं बातों लगाय वाका धर्म घाति करि वाका परभव बिगा.। तो ऐसे जीव-धर्म सन्मुख कैसे होंय ? तातै कुटिलचित्त धारो मायाचारो दुष्ट-जीवन कं धर्मोपदेश लागता नाहीं। तात जे जीव विवेको हैं तिनकों धर्मोपदेश में प्रमाद करि चित्त चञ्चल राखना योग्य नाहीं। आगे जिन-आज्ञा रहित जे अतत्व-श्रद्धानी महापण्डित भी होंथ तो ताक मुख का उपदेश सुनना योग्य नाहीं। ऐसा कहै हैंगाघा-अहिसिरणग उक्कट्टो, गो पाणान्त होय जेमाये । इव मिछि मुह उबदेसो, सधा कुगय देय भवमयर्ण ॥ ५६ ॥
याका अर्थ-'अहिसिरणग' कहिये, सर्प के शोस मणि रत्न है सो। 'उक्टो कहिये, उत्कृष्ट है। गये पाणान्तहोय' कहिये, ता रतन को ग्रहे प्राणन का नाश होय है। शोमारा' कहिये, निश्चय तें। 'इवमिछिमुह उवदेशो' कहिये, तसे ही मिथ्यादृष्टि जीवन के मुख का उपदेश जानना। 'सधा कुाय देय भवमय कहिये, इनका श्रद्धान किए कुगति के अनेक जनम-मरण देय है। भावार्थ-नाग के मस्तक पर मरिण है, सो महाउत्कृष्ट है। अनेक गुण सहित है। सो ताका लोभ क्रिये, कोई उस रतन को लीया वाहै। तो लोभ भी नहीं सधै, अरु मरण को पावें। क्यों, जो स्तन ती अच्छा है; परन्तु महाविष-हलाहल मर चा, चपल-बुद्धि,महाक्रोध कषाय का धारी भुजङ्ग, कालरूप, ताके पासि है। सो विष का भर या सर्प ताकै शिर ते मणि-रतन का लेना, सो ही मरण का
कारण जान । सो हे भव्य ! तेसे कुदैव, कुगुरु, कुधर्म ताका सेवनहारा, जिन-भाषित-धर्म त विमुख, महाक्रोध|| मानादि कषायरूपी जहर से भरचा निध्यादृष्टि, सो ही भया सर्प, ताके पास भली-विद्या रतन है। परन्तु कदाचित् याक मुख ते उपदेशरूपी रतन को ग्रह्या चाहै तथा मला जानि श्रद्धान करे तो कुगति जे नरक-पशु गति, सो तिनके जनम-मरण के तीव्र दुख कं प्राप्त होय है। यहां प्रश्न जो तुमने कहा सो सत्य, इसकी मियादृष्टि तो
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हम भी जानें हैं। परन्तु हम शास्त्र वोचने का ज्ञान नाही । अरु जिनवाणी सुनवे की बड़ी अभिलाषा है। तार्ते यद्यपि इस मिथ्यादृष्टिकं शास्त्र का विशेष ज्ञान नाहीं है। परन्तु अनेक संस्कृत, प्राकृत, छन्द, गाथा की वाचनकला में प्रवीण है । वाचन-कला भली है, अच्छे स्वर तें कहै है । अर्थ मी सर्व खोल देय है। करउ अच्छा है। सो हम याके पास जिन आम्राय के शास्त्र वचाय, तार्के अर्थ का ग्रहण करि, धर्म-ध्यान में काल गमाय पुण्य का संचय करेंगे। यामैं कहा दोष है ? जो है धर्मानुरागी ! तू मी सुनिं। ए मिथ्यात्व मूर्ति, क्रोध,
मान, माया, लोभ का पोषणहारा, दश वचन जिन वचन अनुसारि कहेगा तो तिनमें भी दोय वचन मिथ्यात्व पोषक कह जायगा । सो तुमकूं विशेष ज्ञान तो है नाहीं। जो ताका निर्धार करोगे। सो सामान्य ज्ञान के जोगतें तुम मिथ्या कूं भला जानि श्रद्धान करोगे। अरु मिथ्या वचन श्रद्धान भये तुम्हारा धर्म रतन शुद्ध श्रद्धान ताका अभाव होगा। संसार भ्रमण होयगा। व्थारि गति के दुख जनम-मरण के भोगवोगे। तातें मिथ्यात्वी के मुख का उपदेश योग्य नाहीं और जो जिन भाषित तत्त्वन का वेत्ता होय। सुदेव वीतराग गुरु-नगन वीतराग धर्मदयामयो ऐसे देव-गुरु-धर्म का दृढ़ श्रद्धान होय । अरु जाकों वाचन कला अल्प होय तथा ज्ञान जार्के सामान्य भी हो तो ताकै मुख का धर्मोपदेश तो सुखदाई है। परन्तु मिध्यादृष्टि अतर श्रद्धानी का धर्मोपदेश भला नाहीं । जैसे कोई दोय पुरुष परदेश-प्रामान्तर गये। सो तिनमें एक तो शुभाचारी है व एक कुआचारी भोला है। सो दोऊ ही रसोई नहीं बना जानें। जब भोजन की भूख लागी। तब परस्पर बतलावते भये। जो है भाई ! भूख लागी कहा कीजिये ? पैसे तो बहुत हैं पर रसोई करना नाहीं आवे। तब वह भोला जीव जो आचार में नहीं समझे था। सो बोल्या - हे भाई! भूख लागी है तो इस मठियारी के घर तुरन्त का किया मनवांच्छित स्वाद का देनेहारा भोजन ताजा है। सो था माँगे दाम देव भोजन करो। तब दूसरे आचारी ने कह्या भो भाई ! त मठियारी के घर का भोजन मला है अनेक रसमय स्वाद सहित है तो कहा भया। परन्तु आचार रहित है । तातें अयोग्य है और जाति के सुनैं तो जाति तैं निषेधें । पांति तैं उठाय दें। अभक्ष्य के योग पर भव में नरकादि दुख होय । तातें हम तो अपने हाथ तैं अथवा अपना जाति भाई होयता ताके हाथ की कवी-पक्की नोरस खाय चारि दिन परदेश के काटि नाखेंगे और मरण कबूल है, परन्तु पडियारी का रोटी नहीं खायेंगे। ऐसा भठियारी
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का मला भोजन तजि अपने जाति भाई की करी कच्ची-पक्की रूखी-सूखी अङ्गीकार करि अपना धर्म राख्या और जे अज्ञानी आचार रहित होंय भूख मेटवे कूं स्वाद लम्पटी होंय ते भठियारी की रोटी खाथ हैं परन्तु आगे कूं जाति में गये यात्रा अनाचार सुन्या जायगा, तब जाति से निकास्या जायगा। पर-भव दुर्गति में पड़ेगा। तैसे ही भठियारी के भोजन सदृश मिथ्यात्वी का उपदेश जानि सम्यग्दृष्टि दृढ़ श्रद्धानोकुं तजना योग्य है और कोई भोले ऐसा कहूँ जो शास्त्र तो जिन आम्राय के हैं। सो कोई ही होऊ, बचवाय के अर्थ समझ लेयंगे। ते भोले श्रद्धान रहित शिथिल परिणामी, अवार भठियारी को-सी रोटी खाय सुखी हुए हैं। परन्तु पर-भव में तौ जिन-आना प्रमाण दृढ़ श्रद्धान का फल होय है। तूं धर्म-फल का लोभी है अरु मोक्ष मार्ग का अभिलाषी है तो मिथ्यादृष्टि के मुख का उपदेश तोकूं श्रोत्र द्वारे भला सुर व भला कण्ठ के जोग अच्छा भी लगता होय तो भी सर्प की मणिवत् भठियारी के भोजनवत् तजना योग्य है। ऐसा जानना और केतेक भोले संसारी चतुर जीव ऐसा श्रद्धान करें हैं, जो मिथ्यात्व है तो वह है, अपने कूं कहा ? अपनेकूं तो बचवाय लेना और एक दीय वचन कोई मिथ्यात्व रूप खोटे कह गया होय, तो वह जाने। वह बलवान् है। सो जिन भाषित अनेक वचनों में कोई दोघ वचन अतत्वरूप सरधे गये तो कहा होय है ? ताका समाधान- जो हे भव्य ! ऐसा विचार तौ महादुखदांयी जानना । जैसे- मला षटूस सहित पुष्टि करशहारा भोजन बनाया और कदाचित् ऐसे उत्कृष्ट भोजन में थोड़ा-साहलाहल विष डाल दिया होय तो उस हो भोजनकों खाए मरण होय । तैंसे ही जिन वचन स्वर्ग मोक्ष फल के दाता हैं। तिनके सुनै जीव का कल्याण होय समभाव बँधे । ऐसे वचनक उपदेश में कोई पापी आत्मा, कषाथरूपी हलाहल जहर नाखिकैं कथन करें। तो श्रीतानकों दुखदाता होय। ऐसा जानि मिथ्यात्वो बहुत ज्ञानी होय और आप भोला होय तो अपने मुख पञ्च परमेष्ठी के नाम का जाप करना, परन्तु मिध्यात्वी के मुख उपदेश नहीं धारना। आगे सर्प हू तैं दुष्ट जीवनकों विशेष बतावै हैंगाथा - खल अहि कर सुहावो, तिनमहि खल अति क्रूरता होई । अहिमन्तर उवचारो कुठ उवचारोयलोपतिय दुलही ॥५७॥ याका अर्थ - खल कहिये, दुष्ट | अहि कहिये, सर्प । कूरसुहावो कहिये, इनका क्रूर स्वभाव है। तिरामहि खल अति करता होई कहिये. तिनमें खल की क्रूरता बड़ी है। हिमन्दर उवचारो कहिये, सर्प का उपचार तो
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। मन्त्र है । दुठ उवचारोयलोयतियदुलहो कहिये, दुष्ट का उपचार तीन-लोक में दुर्लभ है। भावार्थ-जो दुष्ट हैं सो || || पर कौ धर्म-कर्म कार्यन में निराकुल-सुखी देख बिना प्रयोजन दुखी होय हैं। रोसा जो दुष्ट सो पर कौ दुखी । देखि आप हर्ष मानता होय। सो एक तो यह और दूसरा सर्परा दोऊ महाकर स्वभावी हैं। परन्तु इनमें
दुष्ट-जन की करता विशेष जानना। काहे तसो कहिये हैं—जो महाविष का परचा काल-रूप सर्प ताके खाये नाहीं बचे। कर्म जोग तं बचे नाही तो मरै ही है। ऐसे मयानक सर्व को पंख पाँव लागै तो यह सर्प काटे। सो याका विष दूर करने का अनेक मन्त्रादिक इलाज है। परन्तु बिना हो कारण द्वेष रूपी विष का भरया दुष्टात्मा याकी क्रूरता मैटै कौं कोई तीन लोक विर्षे उपाय दोखता नाहीं। तातै भो भव्य ! सर्प को क्रूरता तें इस दुष्ट को करता अधिक जानना। सारी अपने विवादलत युएम को रसइनके संगरौं बचना बहुत सुखकारी है। जो कुसंगति से बचि सत्संग मिलाय अपना भला करना है सो मनुष्य पर्याय के विवेक का घे ही उत्तम फल है। आगे सजन-दुर्जन का स्वभाव बताइये हैगाथा-मक्षक जीक पणंगा, दुठादि चतुक होय दुखदायो। ईख दण्ड फणक सुअगरा सयणादि चतुक होब सुहगेयो ॥ ५८ ॥
याका अर्थ-मक्षक कहिये, माख। जौंक कहिये, जल-जोंक। पखंगा कहिये, सर्प। दुठादि चतुक होय दुखदायो कहिये, दुष्टजन को आदि लेश च्या दुखदाई हैं 1 ईख दण्ड कहिये, सांटा (गन्ना)। करणक कहिये, सोना। सुआगरा कहिये, शुभ अगर-नन्दन 1 सयणादि चतुक होय सुहगेयो कहिये, सज्जन पुरुष को आदि च्यारों सूखदाई जानना । भावार्थ-माती, जोंक, सर्प अरु दुष्ट-नर-रा च्यारि पर-जीवनकौं दुखदाई कहे सोही कहिये हैं-जो गाखी, पराये भोजन-जल में पतन होय मरण करि पीछे अन्न-जल लेनेवाले कू दुखी करे।। सो देखो, इस माखो को दुष्टता। जो पहिले तो आप मरि, पीछे और कं दुखी करै और जल को जौंक का रोसा
हो सहज स्वभाव है। जो दूध का भरा आँचल पर लगाव तो दूध कं तजि, लोहू कू अङ्गीकार करें है। सर्पका २८. रोप्ला स्वभाव है जो ताकौ दुग्ध विवाइये, तो जहर होय । सो प्यावनेवाला बहुत दिन पर्यन्त सर्प को दुग्ध प्याय
पुष्ट करै। परन्तु कदाचित् प्यावनेहारा गाफिल रहेगा, तो ताही कू खायगा और ऐसे ही दुष्ट-प्रासी 4 अनेक उपकार करि, ताकी रक्षा करि, पालि पुष्ट करौ। परन्तु यह दुष्ट-जन, सर्व उपकार भूलि के उल्टा उपकार
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करता ते द्वेष-भाव ही करें है। यह अपने स्वभाव ताको न तज। जसे—माखी आप मर कर, परको खेद । । उपजावै। ऐसे ही दुष्ट-जन आप मर कर, औरको दुख उपजावै। सो ही कहिये है-जैसे कोऊ दुष्ट-जज्ञानी, ।
काहू ते कषाय-भाव करि विचारता भया, जो याके घर में धन बहुत है। सो मैं याके शिर कूप-बावड़ी नदी विष, इबिमरौं तथा विष-खाय मरौं तथा छुरी-कटारो खाय मरौं, तौ राज्य याका सर्व-धन खौसि लय लटि लेय। । पञ्च याको, जाति नै निकासें । तब याका जगत में मानभंग होय महादुखी होय। सो देखो, माखी-समान दुष्ट का ज्ञान, जो श्राप मर करके परकौं दुखी किया चाहै। सो दुष्ट तो माखो समान जानि और कोई दुष्ट जोंक के समानि चित्त के धारी होय हैं। जैसे—जौक, गुण जो दुग्ध ताहि तजि, औगुण जो लोह, ताक ग्रहै है। तैसे कोई दुष्टन पै चाहै जैता उपकार करौ। वह सर्वकू भूलि, पीछे औगुण हो ग्रहण करि, उल्टा द्वेष-भाव ही स्वीकार करै है। जैस-स्थान कूकोई चाहे जैसा उपकार करी। भोजन देय, अनेक आभूषण पहिरावो तथा पालको में बैठावो। चाहै-जैसा लाड़ करौ। परन्तु यह अज्ञानी श्वान जब हाथ से छूटेगा तब घरे में ही जाय और कुत्तेन में जाय तिष्ठेगा और भले आभूषण, पालकी के गुण नाहों विचारै है। तैसे दुष्ट भी कभी किए उपकार रूपी
आमषरा, तिन सबको भूलि आप सरीखे दुष्ट-नीच पुरुषन का संग करि, दुख ही उपजावेगा तथा सर्व कुं बहत काल ताई दुध प्याय, पुष्ट करि, अनेक प्रकार प्रतिपालना करौ। परन्तु इस सर्प की रक्षा करनहारा कदाचित प्रमाद सहित होय, सर्पकू अपना पाल्या जानि, वातै गाफिल रहेगा, तो यह पापी विष का भरचा सर्प, याकों खायगा। पालनहारे का मारनहारा होयगा। याकै ऐसा विचार नाहों जो याने तो मोहि दुग्ध प्याय पाल्या है। यह पी अपना स्वभाव नाही तजै। तैसे ही दुष्ट जीव पर अनेक उपकार करौ। परन्तु जाका नाम दुष्ट है, सो अपना स्वभाव नाहों तजेगा। यह उपकारी का द्वेषो ही होयगा। ऐसे कहे जो माखी, जौक, सर्प,दुष्ट-जनये चारों सब कू दुखदाई जानना और सांठे (गन्ने) के जेता पेलोगे, ज्यों-ज्यों चिमिटोगे, तो भी त्यों-त्यों मिष्टता ही देयगा और कनक कूजेता अग्नि तपाओगे-जारोगे तेता ही नरम होय, निर्मल-निर्दोष होयगा। तैसे भला शिष्य-विद्यार्थी लौकिक गुरु जो विद्या पढाय वैवाला ताकी मार खाय उपकार मानै। ऐसा विचार जो यह शिक्षादायक गुरु मोपे ऐसा उपकार कर है। जो अपने परिणाम संक्लेश करि मोकों उत्तम धन जो विद्या देय है।
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तातै यह धन्य है। ऐसा जानि लौकिक गुरु ते मला-शिष्य प्रसन्न ही होय है। सो ये शिष्य कनक समानि जानना और अगर-चन्दन ताफौं जेता छेदी तेती ही सुगन्ध देध है। जेता घिसो, तोड़ो, जालो पर चन्दन उत्तम है. सो || २८२ त्यों-त्यों भली सुगन्धित देय है। तैसे ही सज्जन पुरुषनकों भी कोई पापी दुर्वचनादि से उपद्रव करै दुख देय तो धर्मात्मा-पुरुष द्वेष नाही करें। जैसे-राजा श्रेशिक का पत्र-वारिषेण महाधर्मात्मा सजन-स्वभावी सो र राज पुत्र पर्व के दिन उपवास करि रात्रि-समय मसान-ममि मैं सर्व जीवनत क्षमा-भाव किए कायोत्सर्ग-मेरु की नाई धीर-चित्त किरा धर्मध्यान रूप तिष्ठे था । सो चोर नै मयतें चोरी का हार इनके पासि डारि गया । सो चोर तो भाग गया। अरु पीछे कुतताल लाया । सोहार देख्या राजपत्र देकर सो थाने जानी ये ही चोर है। सो बिना समझे, कुतवाल ने राजा त कही। हे नाथ! वारिषेष ने चोरी करो। तब राजा श्रेशिक भी न्याय-मार्ग के वश, कछु न विचारता भया। राजा ने मारने की आज्ञा दई। तब कुतवाल मसान में जाय वारिषेण 4 मारिवे कू खड़ग चलाश। तब कुमार के पुण्य प्रभाव ते शस्त्र था, सो फूल माला भई। देवों ने आय सहाय किया। जब ये अतिशय ऐसा हुआ। तब सुनिक राजा श्रेणिक, पुत्र 4 गया। क्षमा कराय। कही पुत्र घर चालो। तब वारिषेश ने कही हमारा सबसे क्षमा-भाव है। हमारे प्रतिज्ञा था कि उपद्रव मिटे दीक्षा का शरण है। सो अब उपसर्ग गया तब दीक्षा लई। कोई राजा तें व कुतवाल तें सुबुद्धि कुमार ने द्वेष-भाव नाहीं किया। सो सज्जन पुरुषन का सहज ही ऐसा स्वभाव है जो पर को अज्ञान चेष्टा नहीं देखें अपने सज्जन-भाव ही की रक्षा करें। तातें ईस-दण्ड, कनक, अगर-चन्दन और सज्जन-पुरुष ये च्यार पदार्थ सब जीवन कं सुखदाई हैं। ऐसा जानना । तात जे विवेकी हैं तिनकं करता तजि, सजनता अङ्गीकार करना योग्य है। इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम मन्य के मध्य में ज्ञेय-हेय-उपादेय स्वरूप वर्णन करनेवाला इकईसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥२१॥
जागे ऐसा कहैं हैं जो मुर्ख को धर्मोपदेश कार्यकारी नाहीगाया-अनवदीपणकज्जो, वरोरायस्स हीजतियसंगो। पतिगतनारिसिंगारो, जोसठयासेयधम्म विणकजा ॥ ५९॥ अर्थ-अन्धे पै दीपक है, सो कार्यकारी नाहों । बहरे पर राग (गाना) कार्य-कारी नाहीं । अरु हीजरे
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(नपुंसक) कौं स्त्री का संग वृथा है। पति रहित स्त्रीक, श्रङ्गार कार्यकारी नाहीं। तैसे ही मखनक धर्म की || कथा कार्यकारी नहीं। भावार्थ-अन्ध पें पञ्चवरन रतन के प्रकाश कार्यकारी नाही तथा अनेक रङ्ग-विरङ्ग
स्वर्ण व रतनन के चित्राम शुभाकार अन्धे वृथा हैं तथा अनेक दीपकन की माला जो दीप माला सो भी प्रकाश अन्धे व वृथा है। तैसे ही अज्ञानी मूर्ख नै धर्मोपदेश धर्म कथा वृथा है और बहरै पै अनेक सुस्वर कराठ सहित मधुर स्वर को लिए अनेक राग का गावना। सुन्दर बीणा, बांसुरी, बाजादि अनेक वादिवन के सुर। ये सब गाना बजावना बहरे पे वृथा है। तैसे ही मूर्ख के पासि धर्म कथा वृथा है और नपुंसक के पास सुन्दर स्त्री का मिलाप वृथा है । तैसे मूर्ख पै धर्म-कथा करना वृथा है और पति बिना जो विधवा स्त्री सो अडार करि कौन कौं दिखावे ? भार तो है नाहीं और पर-पुरुष को अपना प्रभार दिखाये तो कुशील का दोष लागे। तातं स्त्री क श्रृङ्गार मार के आश्रय हो, उसे शोभायमान करै है। भतार बिना विधवा स्त्री का जनेक श्रृङ्गार वृथा है। तैसे हो मूर्ख पासि धर्म-कथा वृथा है। कैसा है मूर्ख ? जो ज्ञान नेत्र रहित अन्ध समान है। ये जिन वचन पर-भव सुख देनेहारे, तिनके सुननेक वधरै समानि, कु-कथा का अभिलाषी, क्रोधाग्नि करि भस्म भया है हृदय जाका, अरु तूने प्रश्न किया, सो प्रमाण है। जो उपदेश है सो भोलेकू ही है। परन्तु मुर्ख भोले दीय प्रकार हैं-एक स्वभाव ही ते उपज्या तब तैं का समझता नाहों। ऐसा भोला, पुण्य-पाप में समझता नाहीं। काहू के धर्म भावत द्वेष नाहों। आगे कबहू धर्म का उपदेश मिल्या नाहीं। ऐसे भोले जोवन कृ तो क्रोध-मानादि कषाय भी दीर्घ अंश सहित नाहीं। अनादि सहज ( स्वभाव ) को मूर्खता लिए है। ऐसे भोले जीव सरल भाव सहित कौं तो जिन-आज्ञा में धर्मोपदेश कह्या है। ऐसा भोला उपदेश योग्य है और ये जीव धर्मोपदेश स्वीकार करि अपना अपना मला भी करें हैं। तातें ये उपदेश-योग्य हैं और एक मूर्ख जानता-पूछता ही क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत होय; धर्म का भला उपदेश नाही अङ्गीकार कर है। ऐसे कू धर्मोपदेश नाहीं। काहे ते सो कहिये है। जो कोई धर्मी जीवतें प्रथम तो स्नेह था। सो वाके निमित्त पाय धर्म का सेवन विर्षे लगा रह्या-धर्म सेवन किया
और जब उस धर्मात्मा से कोई कारण पाय स्नेह टूटि गया तब याने उस धर्मात्मात द्वेष-भाव के योगते, व्यसना' सक्त होय धर्म सेवन तजि दिया और मूर्ख का संग पाय, कुमार्गी भया। अब याकू धर्मोपदेश कठिन होय गया।
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अब याके कठोर हृदय विर्षे कोमल वचन पर नाहीं। तब और कोई पापी जन कोई धर्मात्मा का द्वेषो था, सो था जाय अनेक सेवा चाकरी खुसामद करि ताकौं मित्र समानि करि पोछ वात कही। जो ये धर्मात्मा है सो हमारा द्वेषी है। तातै तुम हमारे हितू हो, कृपा करौ हो सो या धर्मों से स्नेह-सत्कार तजौ। हम तो आपके सेवक । हैं। मान-कषाय के योग” औरक नाहीं देखे है और कदाचित् देखे तो तुच्छ देखे है । जैसे—महाअन्ध तो कोई पदार्थ देखता नाहीं और अल्प अन्ध होय है सो पर के बड़े पदार्थन को छोटे देखे। तेसे मूर्ख जानना तथा महामायावी, बांस की जड़ की लाठो समानि है गांठ-गठीला कुल हृदय जाका तथा हिरण समानि चञ्चल वकचित्त का धारी तथा नाग-गमन समानि हृदय का धारी, दुराचारी, मूर्खता सहित ऐसा मायावी, दगाबाज होय तथा महालोभी मार्जार (बिल्ली) समानि आमिष ( मांस) भक्षी तथा विषभरे (छिपकली) समानि आमिष लोभ धारक तथा मधुमाखी समानि लोभ का धारी शेसे क्रोधी-मानी-मायावी व लोभी, शान्ति रस भाव जो समता भाव ताकरि रहित सप्तव्यसनी और अनेक दोषन सहित ताका निवास इत्यादि औगुणन का धारी, भले गुण रहित सत् पुरुषन को निन्दा करनहास सत्संगोन की सभा में अनादर योग्य ऐसा महामूर्ख, ताके पासि धर्म-कथा करना वृथा है। तातें महापण्डित विवेकी जन जौ सम्यादृष्टि के धारी हैं सो मखन कं धर्म का उपदेश नाहीं देय हैं। यहां प्रश्नजो तुमने यहां कहा कि मूर्खन कू उपदेश देना योग्य नाहीं। सो संसार में पण्डित तो थोड़े दीखें हैं और भोले मूर्ख जीव बहुत देखिर है। सो उपदेश बिना मर्च का भला कैसे होय? और समझे को कहा उपदेश है? यह तो सब जाने। अरु उपदेश तो असमभ-मुख-मोले ही कू है। सो योग्य है। यहां भोले • उपदेश मनै कैसे किया? ताका समाधान भो भव्य ! जो इत्यादिक कपट वचन कहे। तब वा मुर्ख नै मूख के कहे तें, शुद्धधर्मात्मा ते द्वेष-भाव करि, जाप भो हठो भया । अरु कुमार्ग सेवन करता भया। जब उस धर्मात्मा को देखे, तब हो द्वेष-भाव रूप भाव हो जाय। सो इनका सत्संग छूटि गश तथा जो संग भया ताकरि हृदय कठोर भया। अनाचार मला लागने लागा। तातें यह भी जानता-पूंछता पापी-मूर्ख के कहै तें, शुद्ध-धर्म छोड़ कुमार्ग में लागा। उल्टा धर्म तें तथा धर्मो-जीवन त द्वेष-भाव करि, पापरूप प्रवर्या । ऐसी कहने लगा, जो हमारा होना है सो होय है। ऐसी जाति का भोला-मुर्ख होय सो अपने हिताहित में तो नाहीं समझे और कषाय तीव्र होय रीसेक धर्मोपदेश
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नाहों है। वाही को काल-स्थिति पकि जाय, संसार निकट रहि जाय, तब सहज ही कषाय मन्द होय जाय । सत्संग में आय, अपनी मलि मानि, अपनी अज्ञानता को निन्द्य, प्रायश्चित्त लेय, शुद्ध होय, धर्म सेवन करै तौ ।। २८५ करै। बाको ऐसा मूर्ख, उपदेश तें नाहीं सुलट है। ताते ऐसे क्रोधी कौ धर्मोपदेश मने किया है और आप मानो है, सो धर्म स्थान है जाय के देव-गुरु-धर्म को नमस्कार करता, चित्त मैं लज्जा उपजावै और कोऊ धर्मात्मा, समता भाव सहित, ताकौं देखि, ता सामान्य जानि, विनय-भाव नाहीं करें। तो आप को विशेष पुण्यात्मा जानि, धर्मात्मा जीवन के अविनय रूप प्रवर्त। ऐसे दीर्घ मानी-मूळ कं, धर्मोपदेश नहीं होय तथा आप के तो काहू से मान-भाव नाहीं। आप तौ सुजीव है । परन्तु कोई महापापी मान का निमित्त पाय के सुधर्म तैं तथा धर्मो-जीवन तें, द्वेष-भाव करै। पर के कहैं, धर्म का तथा धर्मो-जीवन का अविनय करें। ऐसे भोल-मूर्खान • धर्मोपदेश नाहीं । कोई मायावी-दगाबाजी, जीव, जो जानते हो भोले जीवन को बहकावे
कौं तथा ठगवै कौं, देव-धर्म-गुरु का स्वरूप और ही रूप कहै है । नय-जुगति देय के, कुदेव-कगुरु-कुधर्म Liका अतिशय प्रन्यावती, सोमा व ड । २ नाघावी तथा अनेक उपाय करि अपना महन्तपना दिखाय, तिन भोले जीवन के अपने पायन नमावै। कोई जुगति तें, उनका धर्म लिया चाहे । ऐसे दगाबाज प्राणी को धर्मोपदेश नाहीं और केई महालीभी, मायाचारी, मनोवांच्छित इन्द्रिय-जनित सुख की इच्छा के धारनेहारे, गज-घोटक-पालकी-रथादि की असवारी के वांच्छनहारे, जिनका पुण्य तौ कम-हीन पुरयी, कमाव-बैदा करवं की तो जिन्हें शक्ति नाहों और भोगोपभोग की दीर्घ तृष्णा सो अपने ज्ञान के बल तैं भोले जीवन के अपने बढ़त्व-भाव का चमत्कार बताय, अपना त्यागी-निष्पृहयना बताय, परारा घोटक-रथादि असवारी का लोभी। पराये धन का इच्छुक लोभी, इन कौं सुधर्म का उपदेश नाहों। क्योंकि ऐसे भोगी, पाखण्डी, माया के जोगते इन्द्रिय-भोग के भोगनहारे इनकों धर्म रुचै नाहीं और सुधर्म रुचै, तो याके भोगभाव, लोभादि सर्व ही अवश्य ही छुटि जाय । सो यो महाकषायी, भोगी, मानी, इन्द्रिय सुख भोग्या चाहे।
सो ऐसे जानते-पूछते धर्म-रहित मूळ कौ धर्मोपदेश मनै है और भोले सरल मानकौं धर्मोपदेश लागे। रौसा ! जानना ये तेरे प्रश्न का उत्तर है। या भांति मर्श दीय भेद कहे। जैसे-रोगो जीव दोय प्रकार है। सो
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महारोगी और असाध्य वेदना के धारी। एक देशान्तरी वैद्य आया सो वाने दोऊ रोगी देखौ । सो उनकी नाड़ी परीक्षा करि, सब शुभाशुभ जानि कही—ये रोगी तो इलाज योग्य है । अरु ये रोगी असाध्य है, याका इलाज नाहीं । तब काहू ने कह्या. जो बाका इलाज काहे तें नाहीं ? तब वैद्य ने कही - एक रोगो का आ-कर्म बड़ा है और एक का आयु-कर्म अल्प है, सो मरेगा । याका जतन नाहीं । याके ऊपर जितने जतन करौ, सब वृथा जांथ, जतन लागें नाहीं । तैसे हो जाका पर-भत्र भला होय, ऐसे सहज का भोलामूर्छा तो उपदेश के योग्य है। याकौं धर्मोपदेश लागे भी है और जिसको पर-भव में बुरी-गति होय, वह जानता भी कषाय- योग्य तैं सुधर्म तें विमुख होय । ऐसे जीवन कूं धर्म का उपदेश, सुहावता नाहीं । तातैं धर्मोपदेश लागता नाहीं । यहाँ बहुरि प्रश्न जो तुमने कहा कि धर्म का उपदेश कोई कौं तो है, कोई कूं नाहीं। सी भगवान का उपदेश तौ सर्व कूं चाहिये और कोऊ यूं होय, कोऊ कूं नाहीं, तो इसमें वीतरागता कह रही ? सरागता आवेगी । ताका समाधान- जो हे म ! तू कही सो सत्य है। परन्तु अब तूं चित्त देय सुनि । जैसे— जगत् विषै वैद्य दो प्रकार होय हैं। एक तौ भोला अरु नानी वैद्य होय है। एक परमार्थी, सरल परिणामी अरु विशेष ज्ञानी । ये दोय जाति के वैद्य हैं। सो कोई भोला- वैद्य शास्त्र ज्ञानतें रहित, नाड़ी परीक्षा, दृष्टि-परीक्षा, मूत्र - परीक्षा, पसेव- परीक्षा, शकुन परीक्षा- इन आदि जे वैद्य के गुण, तिन रहित मूर्ख वैद्य होय । सो तो लोभ के वश तथा मान बड़ाई के अर्थ अपनी महन्ता भोले जोन को बतायवे कौं, अज्ञान वैद्य ओषधि देय जतन करै । सो केक रोगी दीर्घायु के धारी, सो तो कोई अपने पुत्र तें बचे है। रोग कुछ दिन दुख देय, आखिर जाता रहे । सो वह भोले- रोगी ने जानो, या वैश्च नै नोहि मला किया है। सो इस वैद्य का यश किया, धन दिया और जो अल्प आयु का धारी रोगी था, सो जनन करते वि देव तैं ही मर गया। सो इस रोगी के घरवाले इस वैद्य को बहुत निन्दा करें। जगह-जगह में वैद्य को निन्दा करते भये । सो जोवना भरना तो कर्म के आधीन है। वैद्य का कछू सहारा नाहीं । परन्तु या वैद्य की इतनी प्रज्ञाता है। जो बिना विचार परीक्षा- रहित इलाज कर है। ता वृथा जगत् में निन्दा करावे । सो तो ये मूर्ख वैद्य कहां हैं और जे विवेकी वैद्य हैं। सो अनेक वैद्यक शास्त्रों के ज्ञान सहित नाड़ी परीक्षा, मूत्र परीक्षा, दृष्टि परीक्षा, पसेव-परोक्षा, शकुन परीक्षा के ज्ञान सहित
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होय । सो नाड़ी परीक्षा तो हस्त की, पांव की, शोश की खाली की नसें देख शुभाशुभ रोग का कहना सो नाड़ी परीक्षा और मूत्र की वर्ण, स्पर्श, गन्ध, छोंटादि लक्षण देख शरीर के रोगन का शुभाशुभ जानना सो मूत्र परीक्षा है और रोगी के नेत्र व शरीर को दशा देखि दृष्टि ही तैं रोगी का शुभाशुभ जानना सो दृष्टिपरीक्षा कहिए और रोगी के शरीर के पसीना को गन्ध संधि करि रोग कूं जाने सो पसेव परीक्षा है और कोई रोगी के समाचार लेथ वैद्य वै आवें ताके मुख सूं समाचार सुनि तथा वाके मुख की सूरत देखि, रोगी का शुभाशुभ जाने, सो शकुन-परीक्षा कहिये तथा दूत परीक्षा कहिये। ऐसे वैद्य के गुण सहित, मला वैद्य होय । सो इतने गुण हैं, रोगी के शुभाशुभ जाने सो सुत्रैध, जब रोगो का जोवना जानें, ताका आयु-कर्म बड़ा जानें, तो जतन करें और भला होता न जानें आयु अल् जानें। तो इलाज करै नाहीं। मान बड़ाई की इच्छा है नाहीं, को धन लेय नाहीं । परमार्थ कौं, जतन बताय रोग खोवे, ताका यश ही होय । सर्वं लोक पूजे- प्रशंशैं । ऐसे गुण का धारी सबका उपकार करै । अरु काहू तें कछू चाहे नाहीं । सो यह वैद्य धन्य है। ऐसा निस्पृह गुणी होय, तो पूजा पावै है । तैसे हो भोला, तुच्छ-ज्ञानी, ज्ञानरहित, सरागी, हस्ती-घोटक आदि प्रसवारी के इच्छुक, अपनी महन्तता प्रगट करने की इच्छा जिनकें, ऐसे रागी-द्वेषी देव · तौ सर्व कूं खोटा - अतत्त्व उपदेश देय, अपना पूज्यपद तौ कराय दें। पीछे सुननेहारा नरक जावो, चाहे स्वर्ग जावो । चाहे वह जीव अदेश योग्य होऊ, चाहे मति होऊ । सर्वकूं एक-सा उपदेश देय। शिष्य का बुरा-भला नाहीं विचारें । सो तो भोला देव गुरु कहिए और अन्तर्यामी, सर्व-लोक को जाननहारा, केवलज्ञानधारी प्रभु शुद्ध देव वीतराग का उपदेश ताहीक है, जाक उपदेश लागे अरु जाकौंन लागें ताकूं उपदेश मन है । वृथा उपदेश देते नाहीं । देने योग्य कूं देय हैं। जैसे- पारस पाषाण है, सो कुधातु जो लाहा ताक अपने स्पर्श तैं कञ्चन करे है। कांसा, पीतल, तांवादि अनेक धातु हैं। ते धातु पारस लगाय कञ्चन न होंय हैं । जे होने योग्य होय, सो होय हैं। तैसे हो सर्वज्ञ भगवान का उपदेश, भव्य होय, निकट संसारी होय, तिनक तो होय है। ऐसे भव्य निकट संसारी, मोले-मूर्खा कूं, धर्म रुदै भो है। ताका लाभ भी होय है। तांतें ऐसे भोले कूं उपदेश है और जे अमप्र तथा अभव्य समान जे इरानदूर भव्य जीव तिनकूं कभी भी सुधर्म का लाभ नहीं
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होय । तिनकू केवली का उपदेश नाहीं। ऐसे तैरे प्रश्न का उत्तर जानना । तात जे भन्य जीव विते की हैं। सो जो । वस्तु शुद्ध होती जाते, तौ ताका इलाज भी करें हैं और जो वस्तु शुद्ध नहीं होती होय, ताका इलाज वृथा है। तात जे हठग्राहो क्रोधाधि कषाय मैल करि लिप्त, जानते पूछते ही धर्म से विमुख प्रवत तिनकौं उपदेश नाहों का। जब इनका होतव्य मला होगा तब स्वमेव ही धर्म सन्मुख होयगे। ऐसा जानना आगे कहैं हैं जो ये सर्व किसब (व्यापार) दया रहित हैंगाया-पसु रक्खो किन खेटय णिए बंदो छीन रजक रभवाहो । वणरवषो पल भक्लो, एसह किप्पाय वजयो आदा ॥६॥
अर्थ—पसु रक्खी कहिये, तिर्यश्च का पालनहारा। किस्स कहिये, खेती करनेहारा । खेटय कहिये, शिकारी। सिप कहिये, राजा। वेदो कहिये, वैद्य। छोय कहिये, छोया। रणक कहिये, धोबी। रथवाहो कहिये, रथगाड़ी होकनेहारा वरणरक्लो कहिये, माली। पलभक्खो कहिये, मांस खानेहारा–रा सहु किप्पाय वज्जयो आदा कहिये। ये सब दया रहित आत्मा जानना। भावार्थ-नाहर, सुअर, रोज, सांभर, चीता, रीछ, सीगोस, खरगोश, श्वान, मार्जार, मगर, निळून, तोतर, बाज, बुलबुल, विसम्भरादिक तथा गैया, मैं सा, मैंसी, बकरी, भेड़, बैल, हस्ती, घोटकादि-इन पशूनकों पालनहारे जीवन का हृदय दयारहित सहज ही कठोर होय है तथा सर्प,न्यौला, गोहरा, चूहे, तोतादिक जीवन के रक्षक कठोर होय हैं। इनकों पर जीवन 4 लाठी, पथरा, लात, मुंकी मारते तथा जीव रहित कार्य करते दया नाही होय। ये पशुपालक सहज हो दया भाव रहित हैं। तात जनो दया-भाव का धारी षट् काय जीवन का रक्षक पशन का संग्रह नाहीं करें। यहां प्रश्न-जो तुमने कहा कि पशनकों नाहीं पालिये सी जगह-जगह जैनो धर्नाना है सो अनेक पशु-जीवन की रक्षा करते देखिये है । कोई तौ धन खर्च घास अन्न लेग पशून कं खुवावते देखिये हैं। बन्दी मैं पड़े जे पशु ते महादुस्खी देखि केई धर्मात्मा धन देय छुड़ाय के
सुखी करें। कोई स्वानको मुख देखि रोटो डारते देखिये है । इत्यादिक विधितै पशून की रक्षा करें हैं। जा पशु २६८।। ते चाल्या नार्हो जाय, टाकूठाम ही पै तृण-जल देय पौस हैं । कोई पशु का पांव टूटि गया होय सो ताकौं तृण।। जल करि पोखि ताकी रक्षा करिये है । सो क्या उनकौं योग्य नाही? ताका समाधान-जोव पालन दोय प्रकार
है। एक तो शिकारदिक-पाप निमित्त पालिए । सो तो धर्मात्मा कुयोग्य नाहों । याते पाप उपमें है और एक
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पालन दया सहित है। सो लला पशु, अन्धा बढ़ा, दुर्बल रोगी इत्यादिक पशून कू निष्प्रयोजन करुणा हेतु
तिनकी रक्षा करें यथायोग्य उन माफिक प्रासुक घास रोटो गाल्या जल देय निबन्ध राखि सब जीवन पर दयाश्री।। भाव करि सबही की रक्षा करना योग्य है और जे कसाई हैं सो अपने प्रयोजन पोखने कू असवारीक केऊ दुध ।
पोवे कं, केऊ भार लादवे कू, केई लड़ाई देखवे कू इत्यादिक अपना विषय पोषने निमित्त स्वार्थकों पशु पाल रक्षा करें। बन्धन मैं राजें। सो ऐसा पालना तो पापकारो है योग्य नाही है जिनका निर्बन्ध राखि स्वच्छन्द उनकी इच्छा प्रमाण दया भावन करि रास तिनकदीन असहाय दुखी जानि रक्षा करें। सो या बात धर्मात्मा को योग्य हो है। भलै प्रकार दया-धर्म अङ्गका पालक तो एक जैनी ही है। औरन कं दया उपजती नाहीं। तातै दया निमित्त यथायोग्य सर्व पशून की रत्ता में पुरुष ही है, दोष नाहीं। ऐसा जानना तथा खेती के करते धरती फाड़ प्रत्यक्ष पचन्द्रिय आदिजीवन को हिंसा होती जयने नेत्रन से देखिये है। परन्तु खेती वारी पावतें दाबि चल्या जाय ताकी करुणा भाव नाहीं होय । तात जेनी दयावान खेती करना योभ्य नाहीं। खेती में दया नाहों
और खेटक करनहार शिकारी जीव सो प्रत्यक्ष निर्दयी है । जे दोन, पशु महाभयवान् है सदैव हृदय जिनका वन के विर्षे कोई के पावन का तनिक भी खटका सुनै हैं तो चौंकि उठे हैं। महाभयवन्तः होम इत-उत देखने लागैं हैं और कोई जीव आवता देखी तो भयवान् होय वन में भागि जांय हैं। मारे भय के बस्ती मैं कबहूँ नाहीं आवै हैं । सदैव उद्यान में ही रहैं हैं । सूख तृण वाय, अपने तन को तथा अपने कुटुम्ब की रक्षा करें हैं। भय के मारे काह के खोत में नाहीं घुसें हैं। दूर तें वस्त्रादिक का खेत में विजुकादि देखि, नर बैठा जानि, भागि जांय, ऐसे अज्ञानी हैं। भोले हैं। वन-तृण का भोग करि, नदी-तालावन का जल पो हैं। महाभय तें, महाकठिन हैं जीवें । है। तिनका काहू ते द्वेष नाहीं। काहू का बिगाड़ करें नाहीं। ऐसे बिचारे असहाय-दीन पशु, तिनकू जे प्राशी हते हैं। ऐसे पाप करते जिनका हृदय नाही कप है 1 ते प्राणी पाणचारी, महाकठोर, वज्र समान चित्त के धारी हैं। ऐसे दया रहित जीव, कैसे दुख सागर में जाय मगन होयगे, सो हम नहीं जानें, सर्वज्ञ-भगवान् जाने। ये खोटक-किसब दया रहित है, सो दयावान् जीव के तजवे योग्य है तथा जे राजा हैं तिनका चित्त भी बहुत कठिन होय है। राज्य के निमित्त ते अनेक युद्ध करना। नर हनन, ग्रामादि दाह के पाप कर उन्हें दया नाही होय है।
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तातें राजा पे भी दया नहीं पलें और वैद्य हैं सो ओषधि के निमित्त अनेक वनस्पति कटावै। अनेक की छाल उपड़ावें। अनेक वनस्पति को जड़ खुदवावै। अनेक कन्दमूल-साधारण वनस्पति का रस कढ़ावना, पिसवाना ॥ २९० इत्यादिक बड़ी हिंसा करते भी ताका चित्त दया-भाव रूप नहीं होय है तथा आली (गोली) वनस्पति को लकड़ी जलाय, बहुत दिन अग्नि का आरम्भ करते भी, चित्त में दया-भाव नाही होय है। तात वैद्य का किसब, दयावान नाहीं करें और छीपा ताके अनगाले जल से धोवना, बिलोवना, उकालना. बड़ी अग्नि का आरम्भ करना इत्यादिक आरम्भ मैं याके भाव, दया रूप नाही होय। तातं छीपा 3भी दया नाहों पलै। धोबी के किसब में भी अनेक अनगाले जल का मधन, नई दिन अनगाले जल का दिलोवा, बनेट विंग का समूह, छोपा को नाई आरम्भ का किसब है सो दया रहित है। तातें यह भी किसब, दयावान् नाहीं करें और रथवाहक जो गाड़ी-रथ के हांकनेहारे क,बैल मारते, दया नहीं आवे। तातें यह किसब में दया नाहीं वन रक्षक जो माली, बाग की रक्षा का करनहारा, सदैव कौतोहार को नाई हिंसा-प्रारम्भ रूप है तातें माली के किसबवारे पैं भी दया नाहीं पले और मांस-भक्षी जो आमिष का खानेहारा, महाग्लानि उपजावनहारा, ऐसे मांसाहारी पैदया नाहीं पलें। रोसे कहे जे सर्व किसब के करनेहारे, इन करुणा नाही पलै । इनसे, सहज ही रोसा कठोर स्वभावी जीव होय है। सातै दयावान है तिनकौं कहे जो दया रहित किसब तिनमें फंसना योग्य नाहों। तिन किसबवारे में भी वाणिज्य के निमित्त, लोभ करि फँसना योग्य नाही, ऐसा जानना । आगे ऐसा कह हैं कि कृपणादिक का धन ये कृपण नहीं मोग हैगाथा--समय पिपील धाणो, मासिक सञ्चय मधुमुखलक्ष्यो। किप्पण सञ्चय लच्छी, एण भुजय अएणभुञ्जयती ॥ ६ ॥
अर्थ संचय पिपोल धाणो कहिये, चोंटी का धान्य संचयना । माखिक संचय मधु मुख लक्ष्यो कहिये, माखी अपनी लार जो शहद ताकू संचे है। किप्पण संचय लच्छो कहिये, सूम का जोड़ या धन । राण भुजय, अरुण मुअयती कहिये ताकौ ये नाहों भोग है और ही भोगें हैं। भावार्थ-वन की रहनेहारो चोंटो का समूह है। सो तिननै बड़ा खेद खाय-खाय राक-एक अत्र का मुख में वन ते ल्याय-ल्याय इकट्ठा कर-या। सो बापकौं तो भोगने की शक्ति नाही सो भोग सकी नाही पर तथा मोह के मारे, लोभ करि, मन का संग्रह करन्या । सो बहुत दिन इकट्ठा
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करते पाँच-च्यारि सेर इकदा भया। तब कोई पापी, अन्यायी निर्दयी अन्न के भने, लोभी, निर्धन, भोलादिक । ने पाय चींटीन का घर जानि, तिन बिल की धरा खोदि, अन्न लिया। सो है भव्य ! हो देखो। इन चोंटीन का
लोभ-स्वभाव जगत में प्रगट, सब जाने थे। जो चीटो अन्न जोड़ि इकट्ठा करे हैं। ता संचय के निमित्त से कोई दुष्ट प्राणी, पराये माल के खानेहार नं, घरको फोड़या। सो घर कामाश भया आर घर के क्षय तें, चोटीन के तन का नाश भया, अन्न गया। सो ये प्रगट देखो। एते दुख, अन्न संचयतें भये। जो आप खाय लेतो, तो दुख नाहीं होता। तात जे विवेकी हैं तिनकौं अपने कमाये धन कौं, अपने हाथ ते भोग लेना योग्य है और मानीन का समूह वनस्पति का रस अपने मुख में ल्याय उदर मैं खाया पीछे अज्ञानता करि, मोह के मारे, लोभ धार मुख को राह होय उदर का खाया रस हुलक करि पीछे काढ़या आप भूखी रह उसे संचय किया। सो चोरन के भय ते आकाश विर्षे जाय, एकान्त जगह छत्ता बान्धा। अपने ज्ञान प्रमाण, बहू यत्र से बड़ा विषम स्थान देखि, छत्ता करि तामैं जुदा घर बनाय, सर्व माखीन ने अपना-अपना रस. भेला किया। जब बहुत दिनन में सर्व के घर, रस तं भरि गये। इकट्ठा बहुत भया । तब कोई पापीजन-लोभी के नजर छत्ता आया। याने जानी, यामैं बहुत मधु है। सो लेने का उपाय किया। सो जायगा महाविषम, उत्तंग देखि, दाव नहीं देख्या। तब लोभी ने नीचे आग जलाई। बहुत धूम करी। सो धुम के निमित्त पाय, दुखी होय, सब माखी उड़ गई। तब धाने छत्ता बांस से तोड़ि लिया। माखी थान प्रष्ट भई। दुखी होय, दशों दिशा में भ्रमती भई। सो देखो, इन लोभ करि भतीही रह के, पेट का उगला काढ़ि इकट्ठा करि जोड्या था, ताके योग से दुखी भयो। जोड्या रस गया। जो खाय लेतीं, तो खेद नहीं होता। सो देखो, माखी ने तो लोभ किया जो उलाक को सच्या। परन्तु जग में ऐसे-ऐसे लोभी-दरिद्री पड़े हैं। सोमास्त्री का उलाक भी नहीं देखि सकें। सर्व लिया। तो ऐसा लोभी, मनुष्यन का उलाक कैसे छोड़े? ऐसे लोभी-बुद्धिको धिकार होऊ। तातें जो लोभी धन पायके धर्म में लगाय, नाही भोगवेगा, सो
मासीन की नाई दुख पावैगा जो सूम जन हैं सो भी चोटी नाई माल जोडि-जोडि खेद खाय तो इकट्ठा किया। २९। सो मूर्खन नाहीं तो जाप खाया, नाहीं और कू दिया, नाहीं धर्म में लगाया. नाही कुटुम्बकू खुवाथा ! आप भूखा
रह, सुच्छ खाय मोटा वस्त्र पहिरदीन वृत्ति धारि माल जड़या। बहुत भय भये धरती में धरचा। जब आप मुवा
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तो धरती का धरती में रखा तथा जीवित रह्या तो याकौं धनवान जानि राजा ने कोई दोष लगाय लूटि लिया या लोभी ने पूर्व पुण्य तें पाया था। सो याने धर्म का फल कछू नाहीं पाया। ता भो भव्य हो । पापी का | धन धर्म में नाहीं लागै वृथा ही जाय। सो ये चींटी मारखी सूम इनका पैदा किया धन र नाहां भोग हैं।
और हो भोग हैं। तातै विवेकी हैं तिनकौं पाया धन तें धर्म उपार्जना योग्य है। जब राते जीव दया-रहित ।। हैं सो ही कहिये हैं
गाया--सवर खटी चियालो, मदवेचा मधपाणकर घतो। तस सट कुलहीणो, दुधितो यरय करणाये ॥ १२ ॥
अर्थ—सवर कहिये, मोल। चियालो कहिय, चाण्डाल । खर्टी कहिये, काटीका मदवेधा काहये, कलाल । मदपाणकर कहिये, मद पीनेवाला। द्यूतो कहिये जुवारी । तसयर कहिये, चोर । सठ कहिये, अज्ञान। कुलहीसो कहिये, कुलहीन। दुठचित्तोय कहिये, दुष्ट परिणामी। रहय करणाये केहिये, ये सर्व दया करि रहित हैं। भावार्थ-वनचर-वन का रहनेहारा पशु, ता समानि अज्ञान, नाहर समानि हिंसक, रोसा जो भील का हृदय, सो सहज हो दयारहित-कठोर होय है। यातें दया नहीं बने तथा मृत पशन का चरम उतारै.. घर ल्यावै, धोवे पकावै, रंग, बेचै सो खाटीक । याका भी चित्त महा अनाचार रूप, वन परिणामी, यात दया नाहीं पलै और जाके सदेव जोवन की हिंसा करि, जीवन का मांस बेचवे का किसब है, सो चाण्डाल है। सो ये भी महानिर्दयी है। यातें भी दया-भाव नहीं पले और मद बेचा कहिये कलाल, दाल का बेचनहारा। अनेक जीवन की घाति करि, मद करे। अनेक कृमि, पानी में बिलबिला उठे। उनकौं उछलती देखे, तब उस जल कं यन्त्र में डालि, दारू । करते, ताकौं दया नहीं होय। तात ये भी दया नहीं पाले और मद का पीवनहारा, बेसुध-दया रहित है और चोर, जे पर धन का हरनहारा, महानिर्दयी, तातें भी दया नाही बगै और शुभाशुभ विचार रहित, जन्म का अज्ञानी, काद्य-अकाद्य के ज्ञान रहित, पुण्य-पाप भावना रहित, भोले जीव, यातें भी दया नहीं पल। काहे ते जो
दया तो, पुण्य-पाप में समझ.. ज्ञानवान होय, तातै सधै है। सो ये ज्ञान रहित है, यात दया नाहीं बने और कुल- | गि २९२ हीन होय, तातें भी दया नाहीं बने। जो ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय--इन तीन कुल के उपजे, ऊँच-कुली हैं, इनते
दया बने है और आगे कह ारा भीलचाण्डालादिक नोच-कुल के जीव, तिनत दया-भाव नहीं बने और जाका
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चित्त नरम होय, सज्जन-स्वभावी होय, सर्व के भले का वांच्छुक होथ इत्यादि उत्तम गुण जाके होंय । तातै दया
भाव पलें है और जे दुष्ट परिणामी, वहुत का बुरावांच्नु नै हारे जीवन से दया नहीं पलें। ताते ऊपर के कहे। सु। किसब तिन सबतें दया-भाव नहीं बने। ते मनुष्य दक्षः रहित हैं। सो विकासको, इनका सा करना योग्य
नाही तथा दया रहित हैं, तिनके साथ लेन-देन, विश्वास भी योग्य नाहीं। इनके संग तें, वणिज तें, विश्वास से, कुबुद्धि होय। अपने परिणाम निर्दयो होय। हिसा कै-सा दोष लाग। वाते नरकादिक दुख होय। यहाँ प्रश्नजो तुमनें कहो कि ऊँच-कुलीन से दया होय, नीच-कुलीन नहीं सधै। सो संसार में तो देखिये है जो घने ऊँचकुलीन हिंसक, जीव घातक, अनाचार रूप भावादि सहित, निर्दयो हैं और केई नीच-कुलो, अपने योग्य ज्ञानप्रमारा सुमार्गी-दयावान दीखें हैं। यहाँ नियम तो नाही भया । ताका सनाधान-हे भव्य ! तैने कही सो प्रमाण है। परन्तु जैसे—कोई रतन की खानि है। तामैं रतन निकसैं हैं। ताके संग अनेक अन्य पाषाण भी निकसैं हैं। परन्तु खानि रतन की ही कहिये और कोई होन पुरुष तैं पाषाणादि निक, तो निकसौ। नियम नाहीं है। तैसे ही ऊँच-कुलीन में दयावान् ही उपज हैं और कोई पूर्व जाका बिगड़ना होय, रोसे पापावारी जीव ऊँच-कुल में हीन-पुण्यो निर्दयी होय, तो नियम नाहीं। रतन खानि में पाषाणवत् जानना और जैसे-पाषाण को खानि में खोदते, कोई रतन निकसै तो निकसौ; परन्तु बहुलता करि खान.पाषाण की है । तैसे नीच-कुलीन मैं पूर्व-पुण्य के जोग तै कोई धर्मात्मा-दयावान् होय, तो नियम नाहीं । जैसे—पाषाण खानित रतन उपजना जानना। किन्तु बहुलता, हीन-कुलन में दया रहित को ही है, रोपा जानना । तातें नीच-कुलन में दयावान् भी होय हैं और ऊँच-कुल में निर्दयी भी होय हैं। यामें नियम नाहों। संसार की अनेक दशा हैं। तातै विवेकीन क, दया-रहित जीवन का निमित्त छोड़ि, दधा-भाव रहना योग्य है। आगे कहैं हैं जो सन्तोषो आत्मा, अपने निर्धनपने तथा दरिद्र पाए मैं, ऐसी भावना मावै है। सो कहिये है| गापा–दालय तवरपसायो, मम सिद्धो भवय अमुत सहु लोप । मम सह लोय पसन्ती, लोए आदाय पाहि मम जोई ॥३३॥
अर्थ-दालय तपय पसायो कहिये, दारिद्रय तेरे प्रसाद तै। मम सिद्धी भवय अमुत्त सहु लोय कहिये, मैं सिद्ध समानि सर्व लोक में अमति समाया। मम सह लोय पसन्ती कहिये, मैं तो सर्व लोक क देखू हूं। लोए
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आदाय शाहि मम जोई कहिये, लोक के आत्मा मोक्रौं कोई भी नहीं देखे हैं । भावार्थ-जे धर्मात्मा समता-रस के पोवनहारे सो दारिद्रय के उदयतें ऐसा विचार करि खेद मिटाय सुखी होय हैं। भो दारिद्रय ! तूने बड़ा उपकार किया। जो तेरे प्रसादतै मैं सिद्ध समानि अमूर्ति भया संसार में रहों हो। सो मैं तो सर्व जगत्-जीवन को शुभाशुभ चरित्र करते निरखेद देखू हौं। मौकौं जगत् के जाव कोऊ नहीं देखें हैं। जैसे—अमूर्ति सिद्ध तो सर्व होममीवरको देश र लांक केजी सिखन कोऊ ही नहीं देखें । सो रोसी दशा सिद्ध समानि हमारी भी भई। सो ये तेरा उपकार है। अब मैं सन्तोष के सहाय तें, निराकुल-सुखी भया तिष्ठ है। ऐसे दारिद्रय को आशीष वचन कहैं हैं, सो जानना । ६३।।
आगे ऐसा कहैं हैं जो धर्म सेवतें जीवन की अभिलाषा चार प्रकार हैगापा–धम्मो चतुपयारो चातुरता लोय रञ्ज लोभाये । पम्मग्यो सिम मग्गो सेसा संसार सायणो मगणो ॥ ६४ ॥
अर्थ-धम्मो चतुपयारो कहिये, धर्म सेवन च्यार प्रकार का है। चातुरता कहिये, चतुरताई कुं। लोय रक्ष कहिये, लोक के राजी करवे कौं। लोभाए कहिये, लोभकं । पम्मथ्यो सिवमग्गो कहिये, परन्तु परमार्थिक धर्म मोक्ष मार्ग है। सैसा संसार सायणो मगणो कहिये, बाकी जो धर्म हैं सो संसार सागर में डुबोनेवाले हैं। भावार्थ-धर्म सेवन जगत जीव करें हैं तिनके अभिप्राय च्यारि प्रकार जुदै-जुदे हैं। कोई जीव तौ चतुराई के अभिलाषी हैं। जो लोक हमको ऐसा कहैं कि ये काव्य छन्द गाथा पाठ पद विनती जाने हैं। भला चतुर है। यह जैसी सभा में जाय तैसी ही बात कर जाने है। धर्म को भी भली-भलो बात, कथा, चर्चा, पद, विनतो, पाठ जाने है। हमकं लोक धर्मों कहें, चतुर विवेकी कहें रोसी अभिलाषा सहित धर्म का साधन करना । सो चतुरता के हेतु धर्म का सेवन कर है। इनकौं मोक्ष वांच्छा नाहीं और केतक जीव पर के रायवे कौ धर्मात्मा कहायवे कृधर्म का साधन करें हैं । जैसैं और जीव राजी होय तैसे करें । सो पर के रायवेकौं भले स्वर तैं मधुर कण्ठ ते काव्य, गाथा, कवित्त, पद, विनति, महाराग धरि तालबन्ध गाय औरकों खुसी करवेकौं नाना गान पाठादि करें। जो ये सर्व सभाजन राजी होय हमको भले कहैं। ऐसा जीव लोक रायवे का अभिलाषी है। सो ऐसा जीव घेते तप, संयम, ध्यान.पठन कर है सो सर्व लोकन के रखायवेक कर है। केतक जीवन का ऐसा अभिप्राय
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है और आत्मा के कल्याण का स्थान जो मोक्ष सो ये मोक्ष भावना रहित हैं। केतेक संसार में धर्म क्रिया करनेहारे मनुष्य ऐसे भी जानना और कोई लोभ अभिलाषी धर्म का साधन लोभकूं करें हैं। पंचेन्द्रिय सुख की सामग्री धर्म सेवन के जोगतें मिलती जानि धर्म सेवन करें हैं सो लोभी वारोक वस्त्र तथा दुशाला रेशमी रोमो आदि अनेक भारी वस्त्र के स्पर्श की है इच्छा जिसकैं सो स्पर्शन इन्द्रिय पोषवेकूं धर्म का सेवन करि भोले जीवनकूं अपना धर्मोपना बताय उनका धन खरचाथ बड़े भारी मील के वस्त्र अपने तन पै राखे । दश दिन पहिर करि पीछे अपना जश करावने कूं याचकन कूं दे डारै । अपना यश अपने आगे कान तैं सुनि राजी होय । ऐसा भोरा प्राणी जो पराया धन खरचाय अपना जरा गावैं। अपने चतुराई के जोगते लोकन का भारी धन खरचाय भारी वस्त्र पहिर लेना सो स्पर्शन इन्द्रिय पोषने के निमित्त धर्म का साधन करें है और केतेक रसना इन्द्रिय पोषनेक धर्म सेवन करें जानें हम भला तप करेंगे तो भक्तजन मला भोजन । सो और अपना धर्मात्मापना बताय कौं धर्म का अंग जप, तप आदिक प्रगट करि नाना प्रकार षट् रस भोजन के लोभ को धर्म का सेवन करें हैं। सो केतेक जीव ऐसे रसना इन्द्रिय पोषने कूं धर्म सेवनेहारे हैं और केतेक नाना सुगन्ध की इच्छा के लोभी केशन में तेल, फुलेल, इतरादि सुगन्ध मंगाय लगावना । तन पै व वस्त्र में लगाय खुशी रहना । सो सुगन्ध ( घाण ) इन्द्रिय के पोषने कौं धर्म सेवन करें हैं । केई प्राणी ऐसे ही हैं और चक्षु इन्द्रिथ के लोभी चक्षु के विषय पोषने कौं नृत्य करें हैं तथा औरन पै नृत्य कराय देखने के इच्छुक भले रूपवान् पुरुष स्त्रोन का रूप देखवै कौं धर्म का सेवन करें हैं तथा अन्य मोले जीवनकूं ठगि तिनका धन लगाय अनेक चित्रामादि रचना कोच के मन्दिर करवाय तिनमें रह केदेखि देखि हर्ष - सहित तिष्ठवे की है अभिलाषा जिनको सो केई ऐसे चक्षु इन्द्रिय के भोग कूं धर्म का सेवन करें हैं और केईक श्रोत्र इन्द्रिय के भोगी; अनेक राग आप करि जानें है तथा और के मुखतें अनेक रागवादि सुनने की है इच्छा जिनके इत्यादिक कान इन्द्रिय पोषने धर्म का सेवन करें हैं। ऐसे स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र- इन पांच इन्द्रिय पोषनेकौं धर्म सेवन करें हैं और केतेक धन इकट्ठा करवेकूं धन के लोभी धर्म-सेवन करें हैं; बने जैसे धन पैदा करना । सो आप तो अनेक उपवास करें। तपस्वी का
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रूप धरि औरन पै द्रव्य की आज्ञा करि तिनका धन लेय आय सञ्चय करें। नाना प्रकार बड़े विधानादि पूजा करनी । करने हारे पै धन लेना। ऐसा ही उपदेश देना जातें भोले जीवन के घर का धन अपने घर में आवें और लोभ के पोषक धनवान का आदर करना। अरु निर्धन धर्मात्मा पुरुष का निरादर । इत्यादिक लोभ के अनेक भेद हैं। सो केतेक जीव ऐसे हैं जो लोभ के निमित धर्म का सेवन करें हैं और केतेक धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि जगत् उदासी परमार्थ जो मोक्ष सो ऐसे परम अर्थ के निमित्त धर्म सेवन करें हैं। सो अनेक नय विचार समता वधावना धर्मात्मा जीवन करना हितकर इत्यादि कार्य करें हैं। यहां प्रश्न – जो यहां कह्या कि वांच्छारहित तप करें। सो वांच्छारहित तप कैसे होय ? तप करें हैं सो सुख की वांच्छाकूं करें हैं। वच्छा बिना तो फलरहित तप भया । याको महिना कहा भगी ? ताका समाधान – जो धर्मात्मा दृढ सम्यत्तव के धारी हैं ते इन्द्रियजनित सुख के निमित्त तब नाहीं करें हैं। मोक्षा मिलान के तप है सो मोझ निमित्त हैं सो स्वर्गादिक इन्द्रियजनित सुख तो सहज हो होय है। जो तप मोक्ष करें स्वर्ग तो बिना वांच्छा के होय। जैसे- खेती का करनहारा धरती में अन्न बोवे है सी दाका अभिप्राय ऐसा नाहीं जो मेरे खेत में घास होऊ। वाका मन तो अन्न वांछे है। परन्तु जाने अन्न बोया ताके घास तो बिना वांच्छा के होय तातें जाने तपरूपो अन्न का बीज धर्म-धरा मैं बीया है। सो मोक्ष की अभिलाषा के निमित्त है। सो स्वर्गादि घास की नांई सहज हो होय। यहां फेरि प्रश्नजो मोत की वांच्छा तैं तप किया सो भी वांछा भई । निर्वाच्छापना तो नहीं था। यामें भी वांच्छामई। ताका समाधान - जसे कोई पुरुष धन कुमाये । सो एक पुरुष तो ऐसा विचार करें। जो धन बहुत कुमाइये तो व्यह कर्जे घर बड़े बेटा-बेटी होय गृहस्थपना भला लागे । बिना स्त्री घर बढ़ता नाहीं। ऐसा जानि धन कुमावे है अरु कोई पुरुष धनकुमावे है सो ऐसा विचार है। जो बहुत सा धन होय तो वेश्याकूं दे वांच्छित भोग भोगये । जो व्याह कर चाह है तो गृहस्थपने का घर बांध सुखी भया चाहे है। सो यो विचार तो दोष रहित है। क्यों ? जो गृहस्थी ताका ही नाम है। जो घर बांधि स्त्री परणि बेटी-बेटा आदि कुटुम्ब तैं सदैव सुखी होय और दूसरा वेश्यावारे का विचार अज्ञानता सहित है। जो धन का धन खोवना, अरु वैश्या के किंचित् सुख भोग पाप कमाना । सोए जीव भोला है। तैसे जो जीव तर करि मोक्ष चाहे है। सो तो ध्रुव (नित्य) सुका का
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अभिलाषी मोल-खो परांण सिद्ध पदधर बाँधि अनन्तकाल सुखी भया थाहै है । सो ऐसे तो योग्य ही है। याको वांच्छा नहीं कहिये। ये घर बांधि ध्रव रहना है और जे तपरूपी धनतें वैश्या समानि चञ्चल देवादिक के सुख चाहें ते विवेकी नाहीं ऐसा जानना। तामैं भी ये विशेष कि जो पर-भव के इन्द्रियजनित वांछित सुख के निमित्त धर्म सेवें सो धर्मों और इसी मव सम्बन्धो धन, पुत्र, स्त्री, रोग, नाशादिक कू धर्म से सो पापी हैं। ऐसा जानना। ताः सम्यग्दृष्टि का तप इन्द्रिय सुरु अपेक्षा निर्वाछित हैं और जिन-आज्ञा प्रमाण देव-धर्म का सेवना मोक्ष-मार्ग के निमित्त धर्म का सेवना दयापूर्वक यत्रतें तप, संयम, पूजा, दानादिक धर्म के बङ्गन का सेवना सो । पारमार्थिक धर्म-सेवन है। ऐसे च्यारि हो प्रकार मिन्न-भिन्न धर्म सेवनेवाले जीवन का अभिप्राय जानना। तिनमें पारमार्थिक धर्म-सेवन है सो तो मोक्ष-मार्ग है और बाकी के धर्म-सेवन के भाव है सो अल्प सुख देयकै संसार समुद्र में नाखें (डाले)हैं। तातें रोसे भले-बुरे धर्म की परीक्षा करि धर्म-सेवन करना सो कषाय सहित इन्द्रियसुखा को वांच्छा करनेहारे ऐसे कुगतिदायी कुधर्म-भाव तजि पारमार्थिक धर्म-सेवन करना योग्य है। आगे शास्त्र, छन्द, काव्य, गीत के जोड़नेहारे कवीश्वरन का जो अभिप्राय है सो ही कहिये हैमाधा-धम्मौ धम्म फाट हेतव, जाचिक उदराय अधम्म लोभादी । परजणाय भण्डम, णलजय हासि, जोड बफताए ॥६५॥
अर्थ-धर्मी तो धर्म-फल हेतु, जाचक उदर भरने के हेतु, अधर्मो लोम के हेतु, भांड़ पर के रायवे के हेतु, निर्लज्ज हांसी-कौतुक के हेतु. जोड़ के वक्ता होय है। भावार्थ-जोड़-कला का ज्ञान अनेक जीवन के होथ । श्रुतज्ञानावरणीय के क्षयोपशम करि अनेक भले-भले परिडत होय हैं सो अनेक शास्त्र जोड़ें हैं। कोई | अनेक छन्द, काव्य, गाथा जोड़ें हैं। कोई पद-विनती जोड़ें हैं। कई गीत, किस्सा, कहानी जो हैं। इत्यादिक अनेक जोड़-कला के ज्ञान सहित प्राणी पाइये हैं। परन्तु इन जोड़-कला करने में परिणतिअभिलाषा जुदी-जुदी हैं । अरु जुदी-जुदी अभिलाषा होते तिन जोड़-कला के ज्ञान का फल भी जुदा-जुदा । पावें हैं । जोड़-कला करते अन्तरङ्ग जैसी अभिलाषा होय है तैसा ही फल होय है । सोही कहिये है। कोई धर्मात्मा जोवनकों तो श्रुतज्ञान की अभिलाषा है। सो तो शास्त्र के छन्द, गाथा, काव्य, पद विनती जोड़ें। ।। सो धर्म के फल की इच्छाकं लिये पर-भव स्वर्ग-मोक्षादि सुख की वच्छिा सहित हैं। अन्तरङ्ग के श्रद्धानकों
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|| लिये जोड़-कला करैं हैं। सो इस ज्ञान का फल धर्म मोंक ही उपजौ ऐसी वाच्छा लिये शास्त्रादि जोड़ें हैं।।
कोई तो ऐसे हैं सो इन्हें धर्मात्मा जानना और केई जाचक-जीवन के श्रतज्ञान की विशेष बढ़ती है। सो र जाचक छन्द, काव्य, गीत इनकी जोड़-कला करें। सो इनका अन्तरङ्ग उदर भरने का है। जो हम कोई राजादि बड़े पुरुष का यश करें तो ग्राम, गज, धोटिक धन मिले। ताकरि सर्व कुटुम्ब की प्रतिपालना होय । फलाना राजा यश का लोभी यश चाहै है । अरु वित्त का उदार है। ऐसे पुरुष का यश करे तो बहुत दिन की आजीविका मिले। सो जाचक उस राणा के राजी करने कौं अनेक छन्द, गीत, कवित्त, काव्य, श्लोक बनावे। सो अपनी बुद्धि के जोगते जोड़-कला करै। तामैं दीरघ छन्द महासरल अक्षर, महाललित व्यजनों का सुन्दर मिलाप इत्यादिक अन्तरङ्ग अभिप्राय सहित ज्ञान से जोड़-कला करै। सो जाचक जानना। अर केई जीव भला ज्ञान पाय, बुद्धि का प्रकाश पाय, जोड़-कवित्त करें। धन्द व गीत बनावें। सो जोड़-कला करते उनकै ऐसे अन्तरङ्गका अभिप्राय होघ । जो हममें बड़ा ज्ञान है सो कोई ग्रन्थादि काव्य, छन्द बनाइये तो जग में पण्डितपना प्रगट होय यश होय। ऐसा जानि केई तो यश के लोभकौं जोड़-कला करें। केई अज्ञानी इन्द्रिय सुख भोगनेकों जोड़-कला करें हैं ते पापो जानना और केई भाड़न में तीक्ष्ण श्रुतज्ञान होय है। सो मांड़ भी जोड़-कला करै हैं । सो ऐसी अनोखी नकलें जोड़ें। रौसी वात बनाय ठाढ़ी करें। कि ताकी जोड़-कला देखी अनेक मनुष्य राजी होय हंसें प्रसन्न होंय । मोड़ की तारीफ करें। ऐसी नकलें अपनी बुद्धित ज्ञान के जोगतै जोड़ि के औरनकों प्रसन्न करें। सो पर के रायवे कौं गीत, काव्य, गाथा, छन्द, कथादिक जोड़ें सो भांड़ कहिये। भौड़ का अभिप्राय जोड़-कला करते पर के रायवे रूप होय है और केई निर्लजी जीवनकौं भी ज्ञान की बढ़वारी होय है । सो र निर्लज पुरुष जोड़-माला करें। सो याकी जोड़-कला हांसी-कौतुक के निमित्त है । जैसे- काहु जीवन तें होरी के भंडउवा जोड़े तथा का निर्लज्ज स्त्री ने बड़ा ज्ञान पाय पापनी मैं गावे के निमित्त गाली-गीत बनाये,
ताका गावना । सो श्रोता ताको जोड़ि-कला सुनि के विकारी-जीव लज्जा रहित हाँसि-कौतुक रूप प्रवृत।। २९८ ।
| ऐसी जोड़-कला के ज्ञान-धारी जीव होंय, सो निर्लज्ज कहिए। ऐसे पञ्च प्रकार जोड़-कला करने के मुखिया हैं। तिनमें जे सुबुद्ध पुरुष है सो बुद्धि पाय, धर्म-फल के इच्छुक होय, धर्ममयी, दया सहित, पुण्यदायक जोड़-कसा
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करें हैं। सो तो धर्म-मूर्ती सत्-पुरुषन के प्रशंसने योग्य हैं और बाको के च्यारि जाति के कवीश्वर है सो पापबन्ध करनहारे हैं। ऐसे श्रुत-ज्ञान सहित खोटे कवीश्वर होंथ हैं सो तजिवे योग्य हैं। आचार्य कहैं हैं कि संसार । भ्रमत अनन्त-भव अज्ञानता के होय हैं। तब एक भव विशेष श्रुत-ज्ञान सहित विवेक चतुराई सहित ज्ञान का मिले है। सोरोसा उत्तम ज्ञान कों पायकें यह जीव कुकाव्य करि वृथा खोवे हैं। ये सर्व जाति जोड़-कला है। सो तो हीन ज्ञानोन तें नहीं हाथ है। 'जं जीव विशष ज्ञानी हाय, महाचतुर हाय, अनेक नय-विवेक के ज्ञाता होय, तीक्ष्ण ज्ञानधारी होय, तिनतँ जोड़ि-कला होय। सो ऐसे तीक्ष्ण ज्ञान का धारी उत्तम बुद्धि भले तो यह बड़ा आश्चर्य है। अहो भव्य ! तुच्छ-सा इन्द्रिय सुख अरु अज्ञानी-जीवन के मुख की प्रशंसा के निमित्त, ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान, वृथा कर है। सोहम कहा उलाहिना देहि ? तैंने वैसी करी, जैसे—कोई बन्दरकू रतन-कश्चन के आभूषण यहराय, मोती की माला ताके उर में डारि, मस्तक पै रतन-जडित मुकुट धारि, अनेक वस्त्र पहराहि, शोभायमान किया और अनेक मेवा ल्याय, ताक आगे खायवे कंधर। ऐसे में कोई वन का बन्दर ने, नीम की निघोरी दिखाई। कही ये वन का भोजन लेऊ । अरु सैन तैं, कहता भया। जो हे मित्र, आप बन्दी में कहाँ बैठे हो? ऐसे यह बन्दर, अज्ञानी बन्दर के स्नेहते अरु निवोरी के लोभ तें, अपने शिरका रतन-मुकुट फैकि, मोतीन की माला व वस्त्र डारि, उत्तम भोजन-मेवा तजि कैं, वन में जाय। सो इस बन्दर की भूल कहां ताई कहिये ? तैसे, बन्दर की नाई मलै जो पण्डित, ताकों कहां कहिये। ये विनाशिक-भोग के अर्थि तथा लोक-प्रशंसा कुंअपना भला ज्ञान, मलिन करें हैं। ये जोड़ि-कला करने का उत्तम ज्ञान पाय, ताके मैद को नहीं जानता, पापको उपावै। सो इस बात का बड़ा आश्चर्य है। इस भूल की कहा कहिये ? जैसे-एक कटईया. लकड़ी काट कौ वन में गया। वानै एक चिन्तामणि रतन याया। ताक याने उठाय लिया। ताकों देखि विचारा, कि कोंऊ रगदार पाषाण की गोली है। अच्छी दीखें है। याकं घर ले चल । यातें लड़का खेला करेगा। रोसी जानि या मुरखने परख्या बिना, चिन्तामणि रत्र को लेय के अपनी लँगोटी ताकी गांठि बांध्या। फेरि वन में लकड़ी काटने लगा। सो काठ के भार को बाँधि, अपने शीश पै धरि, वन कौं तजि, घर को आवे है। सिर 4 भार है। सो धिक्कार इस अज्ञानता कौं। जो चिन्तामरिण तो पंछली तें बन्ध्या है, सो तो पासि है और शीश पै काठ-भार है। ऐसे ही
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सर्व भार तैं राह दुखी भया, घर आया। शाम को गुदरी में काठ-भार बैंचने गया। सौ मस्खा हो, दरिद्री भया खड़ा है। चिन्तामणि पास है, परन्तु भेद पाये बिना, दुखी होय रह्या है। पीछे दोई पैसा को भार देंच, घर | आया। तब पैसा स्वी के हाथ दये। कही—इनका अन्न ल्याव। जाठ कोंडी का तेल ल्याव । ताके उद्योत में
रोटो करि देना । सो पहर मर रात्रि गई तक, सब घर के मनुष्य भखे मरे, अरु चिन्तामरिण पासि है। परन्तु धि नेद पाडे, सुमनाही ना काउ बेचनहारा कहो--सिताब (शीघ्र ) रोटी करि पीछे तूंधली तें चिन्तामणि खोलि, रवी क दिया। अरु कहो—ये गोली अच्छी है। आज वन में पाई। सो लड़केकौं खेलने कौं दीज्यौ । पैसे कह के पूंछलो तें चिन्तामणि खोलि, स्त्री के हाथि दिया। सो खोल ते ही अन्धेरे घर में प्रकाश होय गया। ता प्रकाशि को देखि, अभागे-अज्ञान ने कही---भो स्त्री ! यह पथरा मला। याके प्रकाश ते रोटी किया करि । आठ कौड़ी के तेल को किफायत भई । सो शक जाले में चिन्तामणि धरि दिया। जब याके उद्योत ते, रोजि के रोजि रोटी किया करें। सो देखो, कर्म चरित्र । जो चिन्तामणि तो घर में है, . अरु दुख-दरिद्र नहीं गया ! ताका भेद नहीं पाया। याका भेद पाये बिना, बहुत दिन ल काठ का भार बह्या, दुख पाया। अरु रोसा सुख मान, जो इस पथरा को गोली ते आठ कौड़ी का रोजि तेल आवै था, सो बच्या । याके प्रकाश आगे, तैल नहीं चाहिये। तैसे ही ये कुकवि, चिन्तामणि रतन समानि उत्तम जोड़िकला का श्रुत-ज्ञान, ताक् कठेरे के आठ कौड़ी के तेलि समानि, विषय-सुरु के निमित्त वृथा कठेरे के रतन की नाई होवें हैं। तातें इन कु-कवियों का ज्ञानरूपी चिन्तामणि रतन है सो इसका भेद पाये बिना, पथरा को गोली समानि जानता। इन कु-कवीन में इस ज्ञान का भेद नहीं पाया। कैसा है यह ज्ञान ? मनोवांच्छित सुरक्षा का देनेहारा है। ताकौ पायके, ज्ञान को मन्दता दें, इन्द्रियजनित सुखा, चञ्चल, विनाशिक, तिनके निमित्त और अज्ञान जीवन का किया तुच्छ लौकिक यश ताके वास्ते भला-ज्ञान खोवें। सो ये कु-कवीश्वरन का स्वरुप जानना। तातें तिस ज्ञान कूपाय धर्मात्मा तो धर्म सम्बन्धी जोड़-कला करि पुण्य-बन्ध करें। अरु मूर्ख कवि हैं सो ज्ञान पाय खोटी जोड़ि-कला करि पाप-बन्ध करैं हैं। ऐसा जुदा-जुदा सर्व जोड़कलावारे जोवन का भाव जानना। अब उस कठेरे ने रतन पाया था, तो ताके घर में है। ताकी कथा
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कहियै है-सो ऐसे काठ बेक्तें कठेरे को बहुत दिन भये, सो एक दिन रात्रि समय उस ही राह एक जौहरी की | आय निकस्या। सो इस कठ्या के घर में सूर्य समानि प्रकाश देख्या। तब जौहरी ने विचारी जो दीपक का।
प्रकाश तो ऐसा होता नाहों। तब जौहरी इस कठेरे के घर में देखता भया। सो देखें तो चिन्तामणि रतन है। तब उस जौहरी ने कठेरे कं बुलाय चिन्तामणि का भेद बताय कही–रे मूर्ख! तेरे घर में मनोवांच्छित सुस्व का देनेहारा चिन्तामणि है। अरु त अज्ञानता रौं काठ का भार बहै है, अरु दरिद्री होय रखा है। अब या जांचि। तुं जांचैगा, सोही मिलेगा। तब कठेरा ने जांची। मो चिन्तामणि रत्न! मोकू स्वोर भोजन देह, तबही खीर मिली। तब कही मोकू धोती देय, तब धोतो मिली। तब था कठेरे ने घर, धन, आभूषण, वस्त्र: जो-जो जांचे, सो सर्व मिले । तब कठेरा आप सेठ के पांव पड़चा उपकार मान्या । तब सेठ या राजी भया। सेठ उपकार करि अपने घर गया पीछे कठेरा अपनी अज्ञानता जानि पछताया! जा देखो मेरे घर में वांछित सुख का दाता रतन अरु मैं दरिद्री रह्या। सो ये सेठ धन्य है जो इस चिन्तामणि का भेद बताया। अब मैं सुखी भया दरिद्र-दुख गया। पोछे रात्रि व्यतीत भई । प्रभाति, राणा केसी विभूति प्रगट करि लोक-पूज्य होता भया। चिन्तामसि के प्रभावते काठ ढोना गया। परम सुखी भया। तैसे ही इस आत्मा का ज्ञान या ही है। परन्तु मैद पाये बिना अज्ञानी भया फिरै है कठेरे की नाईं दरिद्री होय रह्या है। जब गुरु प्रसाद ते ज्ञान चिन्तामणि का भेद पावै, तो जगतदुस्ख जाय सुखो होय पूज्य पद पावै उपकारी की सेवा करै। तातें विवेकी है ते भला ज्ञान पाय धर्म में लगाय धर्म-सेवन पुजा-भक्ति, जीवाजीव तत्व विचारादि करि भली जोडि-कला करह। । इति श्रीसुदृष्टितरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में काच्य-परीक्षा का वर्णन करनेवाला बाईसा अधिकार सम्पूर्ण भया ॥ २२ ॥
आगे पश्चम काल की महिमा कहिये हैगाया-जहि पति अरि हितदूरउ तीषयाणेम रजम विणवेदो । रञ्जय तहां न सुसंगो ए कलुबल गेयता समभावो ॥ ६६ ॥
अर्थ-जहि थति अरि कहिये, जहाँ रहिये है तहां बैरी पाईये है। हित दुरउ कहिये, हित हैं सो दर हैं। तीयथारोय कहिये, तीर्थ-स्थान। रजय विखेदो कहिये, जय बिना खेद है। अब तहान सुसंगो कहिये, रखत हैं तहाँ सुसंग नाही है। एकलुबल कहिये, ए कलयुग का बल है। गेयतज्ञ समभावो कहिये, पण्डित हैं
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ते यह देख समता-भाव राखें हैं। भावार्थ-जे तत्वज्ञानी धर्मात्मा हैं सो जगत की बिडम्बना देझिा ऐसा विचार हैं। जो देखो पञ्चमकाल की महिमा। कि जहां सदैव रहिये, जा क्षेत्र में बहुत दिन का वास ऐसे क्षेत्र में तो अदेवा-बैरोजन बहुत हैं। सो कोई धर्म कर्म शान-पान देख सकता नाहीं और अपने स्नेही हैं सर्व प्रकार सुखा के कारण हैं.तिन तें बड़ा अन्तर है। वह सज्जन हैं सो दुर ही देश में बसें हैं और जो तीरथ समान उत्तम स्थान है जहा रहैं सदैव पुण्य का बन्ध कोजे। सत्संगी जोव पूजा, शास्त्र, ध्यान, चरचा का सदैव निमित्त सो जहां रहने कं सदा मन चाहै। ऐसे उज्ज्वल स्थान क्रुजगार की ठोकता नाहीं। सो खान-पान की थिरता बिना रखा जाता नाहीं और जहां मला रुजगार है। खान-पान की चिन्ता नाहीं। रोसे क्षेत्र में सत्संग नाहीं। जहाँ अपना पर-भव सुधारिये सो पुण्य के निमित्त ध्यानाध्ययन पूजादिक निमित्त नाहीं। ये पञ्चमकाल की जोरावरी है। ऐसे खोटे काल में भली वस्तु का मिलाप थोरा है। पापकारी, कुलाचारी जशुभ वस्तुन का निमित्त बहुत है सो इसका यह सहज स्वभाव है। शुभ निमित्त अल्प अशुभ का निमित्त बहुत रोसी इस काल की सहज प्रवृत्ति है। ताके मेटवे क कोई उपाय नाही होनहार कोई मेटता नाही। जा-जा समय सुखा-दुक्षा होवना है सो हो है। ऐसा जानि धर्मात्मा विवेको तिनकौं समता-भाव राति धर्म-ध्यान का आश्रय लेना योग्य है । ६६।
आगे कहै हैं कि शुभ-भावना बिना करनो का फल शुभ नाहीं। ताकौ दृष्टान्त देय बतावे हैंगाथा-सुक पठती बक्र फाणो, खर भसमी पसु पगण तरु कट्टो । उरण सिरकच मुड़ई, भावो सुधी विणा ण सीझन्ती॥६७||
अर्थ–सुक पठती कहिये, तोते का पढ़ना। बक झालो कहिये, बक का ध्यान। झार भसमी कहिये गधे । का राखा लगावना। पशु सगरण कहिये, पशु का नगन रहना। तरु कट्ठी कहिये, वृक्षन का कष्ट सहना । उरण सिर कच मुड़ई कहिये, भेड़ के बाल का मूड़ना। भावो सुधी विणा ण सीझन्ती कहिये, ए सब शुभ भाव बिना मोक्ष न होय। भावार्थ--जीव का भला तथा बुरा, इस हो के परिणामन ते होय है। तातें शुद्ध-भाव बिना. जीव चाह जैसा कष्ट करौ, मला होता नाहीं। जैसे-तोता रानि-दिन राम-राम किया करें है। परन्तु या राम-नाम तें कछु प्रीति नाहीं। ऐसा बिचार नाही, जो राम-नाम ल्यौं हो त्यों मेरा कल्याण होयगा तथा ये राम-नाम उत्कृष्ट है। याका नाम जो लेय सो सुखी होय है। ऐसा भेद-भाव नहीं। जैसे-पढ़ावनहारा पढ़ा है, उसी ही प्रकार
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पढ़े है। यात याकै मावन की शुद्धता नाहों। अरु शुद्धता बिना, सूर्य का पढ़ना-पढ़ावना वृथा हो जानना, फलदाता नहीं। बाला, पानी दि एक-चित्त करि, काय को ध्यानाकार ऐसी मुद्रा बनाये है। जैसे—भला तपस्वी । ध्यान करै। ऐसी हो नासा दृष्टि करि, बगुला भी ध्यान कर है। परन्तु परिणाम तो भले नाहीं। मच्छीन के || २० घात-रूप हैं । सो भाव प्रमाण खोटा ही फल मिलेगा। ध्यान के आकार, भली-मुद्रासहित, काया करी है सो भाव शुद्ध बिना भला-फल होता नाहीं । तातें शुद्ध भाव बिना, बगुले का ध्यान वृथा है। अर विभूति जो राख लगायै भला होय तो गर्दभ सदैव ही विभूति विषै, लोट्या हो करै । परन्तु गर्दभ के ऐसा विचार नाहीं। जो रास लगाये, मेरा भला होयगा। यह सहज ही, ज्ञान रहित है। तातें राख तनके लिपेटे पुण्य होता नाहीं। अपने भोलेपन तें, तन की शोभा मिटाना है। यानी शुद्ध-मा बिना, राक्षसगारा मोज होती हों। जो भाव-शुद्ध बिना मोक्ष होय, तो गर्दभ कौं भी होय। नगन-जन ते मोश होय, तो सर्व पशु नगन ही रहैं हैं तातै शुद्ध-भाव बिना नगन रहना, पशु के कष्ट समान है। बड़ा कष्ट पाये मोक्ष होय, तो वृतनकों होय । वृक्ष, शीत-काल में तो च्यारि महीना, शीत सह हैं। उष्ण-काल मैं, च्यारि महोना, सूर्य को प्राताप सहैं हैं। अर चारि महीना वर्षा-काल में, सर्व पानी तनपैं सहैं हैं। ऐसे तीनों ऋतु के बड़े कष्ट. शुद्ध-भाव बिना तरु सहैं हैं। परन्तु कष्ट के खाये शुद्ध-भाव बिना भला होय, तो इन वृक्षन का होता, ऐसा जानना। शुद्ध-भाव बिन्ध, मूड़ मुड़ाये भला होय, तो भेड़ का होय । भेड़ कू बरस-दिन में कई बार मडिय। सो भाव-शुद्ध बिना, मूड़-मुड़ावना कहिथे। केश-लोंचन करना, मैड़ के मुडने समानि है, ऐसा जानना। सो भावन को शुद्धता बिना, शास्त्रादि का पढ़ना सूर्य समानि है। शुद्ध-भाव बिना ध्यान, बगुले समानि है। शुद्ध-माव बिना जिभूति लगावना, गर्दम समानि है। शुद्ध-भाव बिना नगन रहना, पश समानि है । शुद्ध-भाव बिना तीनों ऋतु के तन पै कष्ट सहना. वृक्ष समानि है। शुद्ध-भाव बिना शीश मुडावना, भैड समानि है। तात है भव्य ! मोक्ष का कारण एक शुद्ध-भाव है। सो जे विवेकी हैं, ते राग-द्वेष मिटाय अपने हितकौं, पर-भव सुधारने कौं, भावन की शुद्धता करौं। यहां प्रश्न—जो तुमने कहा कि शुद्ध-भाव बिना, तप, संयम, पठन-पाठनादि धर्म का फल अल्प होय है तथा नहीं होय है। शुद्ध-भाव बिना जो स्वाध्याय-शास्त्रोपदेश करना, शास्त्र सुनना, ध्यान करना, सामायिक करना इत्यादिक धर्म के अङ्ग के सेवनहारे हैं। सो धर्म-सेवन
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| करते, शुद्ध-भाव सहित तो कोई दोसता नाहीं। प्रात, रौद्र-ध्यान बहुत के होय है। शुभ-भाववाले, अल्प हैं और | जेते जीव, अवार-धर्म अङ्ग सेवन करें हैं। तिनके शुभ-भाव अल्प भासे है। सो इनको धर्म-सेवन का फल शुभ होयगा वा नहीं होयगा? ता समाधान-भो भव्य ! तूं ने प्रश्न महामनीज्ञ किया। सत्पुरुषन कू सुख पहुँचावनहारा, अनेक जीवन का संशय मेटनेहारा, ऐसे भाव सहित तेरा प्रश्न है सो अब चित्त देय के उत्तर सुन। इस उत्तर का धारण किये धर्म के अङ्गन ते विशेष प्रीति उपजैगो। धर्म के सैवनेहारे जीवन के अभिप्राय के दोय भेद है। राया तो यम फल के हेतु सर्वे हैं। एक लोभी, कषाय के पौषनै , धर्म सेवन करें हैं। सो जे भव्यात्मा, धर्म कं बड़ा जान, धर्म फल का लोभी भया; दान, पूजा, तप, ध्यान, शीलादिक करें हैं। सो पर-भव के कल्याण कू शुभ-भाव लिए करें हैं। पीछे कर्म के जोग ते कारण याय, भाव-चञ्चन भी होय, अरति उपजावें, तो याका शुभ-फल जाता नाहीं। जैसे-कोऊ भव्यात्मा, सामायिक करने के पद्मासन या कायोत्सर्ग काय का प्रासन करि, चित्त मला करि, सामायिक कर है । सो सामायिक कौं बैठा, तब अभिप्राय तो अच्छा था ।अरु मन-वचनकाय की प्रवृत्ति भी अच्छी थी। पीछे कोई कर्म-जोगते राग-भावन की प्रबलता करि, परिणाम और ही विकल्प कषाय रूप होने लगे। मन चञ्चल होय रह्या। परन्तु काय, सामायिक रूप है। परिसति, कर्म को जोरावरो त । याके हाथ नाहीं । अभिप्राय याका ये ही है जो मैं सामायिक करौं हों। सो रीसे धर्मात्मा का सामायिक का फल जाता नहीं। जैसे- कोई सामायिक करनेहारा भव्य जीव, सामाधिक समय, घर के अनेक कार्य तजि कैं, धर्म-बुद्धि का प्रेस्था, घर तें धर्म स्थान में जाय, तन की शुद्धता करि, अल्प परिग्रह राखि, कायोत्सर्ग तथा पद्मासन ध्यान धरि, पञ्चपरमेष्ठी के गुणन का विचार करि, अपने किये पाप याद करि, तिनकी आलोचना बार-बार करि, अपनी निन्दा करि, सर्व जोवन से समता-भाव करि, रीसा विचार करता भया। जो धन्य हैं वै मुनीश्वर तथा उत्तम प्रतिमाधारी श्रावक जो सर्व आरम्भ-पाप ते निवृत्त होय, सुख भोग हैं। ऐसी दशा मोरी कब होवेगी? ऐसे तप की भावना मावता, सामायिक करै। राते ही में एक चिन्ताकारी बात वादि होती भई। कि जो एक हजार दोनार की थैली वा दुकानवाले कू भूलि आया। सो याके याद होते मन तो चञ्चत होय, आरति के जाल मैं पड्या सामायिक मैं चित्त नाही लागें। तब यह धर्मात्मा विचारै, जो मेरे दोय-घरो की मर्यादा है। सामायिक
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को बैठा हौ। सो अब कैसे उठ्या जाय? मेरे भाग्य की है तो मिलेगी ही, कहा जायगी? अरु मेरे भाग्य में नहीं। होय, ती अब ताई, प्रगट-चौड़ी जगह में से, केसे बची होयगी? और अब मैं कदाचित लोभ के जोग तें उठौंहों।। तौ प्रतिज्ञा मेरी भंग होय। प्रतिज्ञा के भंग होते, मेरा पर-भव बिगड़े है। काया-धर्म, नाश होय है। तात जो होन- || ३०५ हार है, सो होयगी। मैं दोय घड़ी तो नाहीं उठौं हो। प्रशिः पूरण सो क्षेतहारजा है। ऐसा विचार तनकौं स्थिरीभत किए, तिष्ठ्या है। जो-जो सामायिक की क्रिया वन्दना, आलोचना सामायिक इत्यादिक पाठ | पढ़ें है। परन्तु मन-चश्चल भया. सो सामायिक मैं नहीं लागे है। तो भी ये धर्मात्मा का धर्म-फल जाता नाहीं और
कदाचित दीनारों के लोभ तें सामायिक छोड़ि उठ खड़ा होता तो पाप-बन्ध होता। धर्म-क्रिया का अभाव होता । ताते ये धर्मात्मा अपनी प्रतिज्ञा तजि, उठे नाहीं । तौ परिणति चञ्चल भले ही होऊ। या धर्मात्मा का अभिप्राय भला है। अभिप्राय शुभ धिरीभत नहीं होता तो सामायिक तजि करि जाता। तात अभिप्राय शुद्ध रहते तस्व-प्रद्धान दृढ़ता कौ लिये हैं । सो ऐसा धर्मात्मा उत्तम धर्मी ही है। ऐसे ही श्रद्धान की दृढ़ता अरु परिणति का आरति-भाव सर्व धर्म अङ्गन में लगाय लैना । सो ऐसे धर्मी का तौ विकल्प होते भी धर्म जाता नाहीं। रौसा जानना और एक लोभ के निमित्त धर्म स्वांग धरि तप, संयम, ध्यान, जिनवानी का पाठ इत्यादिक धर्म अङ्ग करें और अमिप्राय चोरी का है। जैसे-रुद्रदत्त चोर था, सो लोभकों देहरे (जिन-मन्दिर)जी का माल चोरनेकौ धर्मात्मा ब्रह्मचारी का भेष धरि नाना तप, संयम, भले पाठ करता सेठ के घर आय, धर्मात्मा होय, जिन-मन्दिर में रह्या । सो जिन-मन्दिर के चंवर, छत्र, कलशादि चोरे। खोटे अभिप्राय तें धर्म-सेवन करै था, सो तिनका कल-तो नहीं लगा। अरू खोटे अभिप्राय के जोगत मरि नरक गया। ताते ऐसे धर्म-सेवन मैं तोकौं दोय भेद कहे-सो जानना। जाका धर्म-सेवन मैं अभिप्राय धर्म रूप है ताके तो पुण्य फल होय है। जिसके धर्म-सेवन में अभिप्राय खोटा होय। ताके पाप-बन्ध होय है। ताते शुद्ध-भावन के अभिप्राय बिना जो धर्म-सेवन है। सो ऊपर को तोता, बगुलादिक तिन समानि जानना। शुद्ध-भावन बिना धर्म साधन लौकिक के दिखानेक करें हैं। ते जीव धर्म के अभिलाषी नाहीं। इनका धर्म-सेवन का कष्ट वृथा ही जानना। जैसे--कोई सेठ का मन्दिर बने है। तहां अनेक मजूर लगे हैं तिनकू मजूरी करते देख के एक अज्ञानी पागल पुरुष 'आया सो भाप भी बिना कहे
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अपनी इच्छा ते हो. मजूरी करता भया। सो औरन तँ यह पागल बहुत भार उठावें। मजूर उठावें पाँच सेर का पाषाण तो ये पागल उठावै दश पसेरी का पत्थर। मजूर ल्यावै एक पत्थर तो ये पागल ल्याव दश-पत्थर। सो ।। ३०६ याकी मानुनी देश में एखान पुरुषोसा विचारै जो यह मजूरी बहुत करै है। सो याका रोष भी बहुत होयगा। रोसे सब दिन मजुरी करी। सांझ को मजर छुटे। तब जिनके नाम मड़े थे, तिन सब मजरन को दिन मिल्या। सो अपने घर जाय सुनी भये। जब इस पागल ने भी मजूरी मांगी। तब दरोगा ने कागद में याका नाम देख्या, सो नाही निकस्या। तब याक, पंत कब लागा था ? तब यानें कहो-मेरी मन जाई तब ही लागा। तब याको पूंछो तोकौ कोऊ ने लगाया था ? तब या पागल ने कही-हमको कौन लगावै, हम हो अपने मन तं लगे थे। तब सबने जानी, ये मज़र नाहीं, कोई पागल है। तब धक्के दिवाथ कढ़ा दिया। मजरो नहीं मिली, धक्के मिले। सबने जानी, दीवाना है। मिहनत वृथा गई, क्यों गह? सो कहिये है। ये दिवाना काहू का चाकर तो भया नाहीं। अपनी इच्छा रूप रया। बन्ध रूप नाहीं। इस दिवाने करता विचार नाहीं। जो मैं फलाने का चाकर हौं या कहि कर काम करों। जो धनी की आज्ञा मानता नाहीं अपनी इच्छा रूप है ताते मंजूरी नहीं मिली। खेद वृथा गया। तैसे ही यह जीव एक शुद्ध धर्म की परीक्षा करि जाकौं कल्याणकारी जानें, ताकी आज्ञा प्रमाण धर्म का सेवन करें तथा धर्म के अङ्ग-दान, पूजा, तपादिक करें तो धर्म का फल भी लागै और धर्म-स्वांग तो बहुत धारै परन्तु कोई आज्ञा रूप नाही स्वेच्छा स्वच्छन्द होय धर्म अङ्ग का सेवन करे। अनेक कष्ट करै, सो वृथा जाय। जैसे-पागल की मजरी वृथा भई, तैसे जानना। ऐसे धर्म-अङ्ग सेवनहारे जीवन के दोय भेद कहे। सो हे भव्य ! तूं जानि। जो धर्म की आज्ञा सहित धर्म अङ्गन का सेवन करें हैं और निमित्त के दोष त उनके परिणाम चञ्चल भी होंय तो उनका धर्म-फल जाता नाहीं और कोई जीव सर्वज्ञादेव की प्राहा रहित भया; क्रोध, मान, माया, लोम के जोग तैं छल-बलकं लिये पाखण्ड सहित धर्म-सेवन लोक दिखावन कौ करे तिनका फल भी वृथा होय। ऐसे जानना। यह तेरे प्रश्न का उत्तर है। तातै भावन की शुद्धता सहित धर्म-सेवन ही मोक्ष-मार्ग जानि। शुद्ध-माव बिना बैद हो है, सो भी वृथा जानना। आगे और कहैं हैं जो शुद्ध-भाव बिना धर्म-अङ्ग वृथा है---
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पाथा-मखि पतङ्ग दहकाया तसयर चित्तोय णमण तण होई । सुरतरु देवह वाणी, भावो भी बिना ग सौमन्ती ॥ ५ ॥
अर्थ-मखि पतङ्ग दहकाया कहिये, माती व पतङ्ग काया दहे हैं। तसयर कहिये, चोर। चित्तीय कहिये। चीता। रामण तरा होई कहिये, इनके तन मैं बहुत नमन है। सुरतरु देवहु दाणो कहिये, कल्पवृक्ष मनवांच्छित दान देय। भावो सुधी बिना ख सीमन्ती कहिये, परन्तु भाव को शुद्धता बिना मोक्ष-मार्ग नाहीं। भावार्थभावन की शुद्धता बिना मोक्ष नाही होय है। नाना तप, संयमाद के खेद, सर्व वृथा जानना। सो भाव शुद्ध बिना केतेक तौ भोले जीव मोक्ष के निमित अपना भला तन अग्नि में भस्म करें हैं। सो ऐसे अग्नि में जलने के कष्ट त मोक्ष होती तो शुद्ध-भाव बिना माखीव पतङ्ग को होय। मासी व पतङ्ग दीपक में निराश होय, तन को दाहँ हैं। सो अज्ञान संक्लेश भावनत मरि खोटी गति ही विर्षे उपजें हैं। तात शुद्ध-भाव बिना काय का जलावना वृथा है और काय ते अत्यन्त नमैं विनय किये शुद्ध-भाव बिना मोक्ष होती तो चोर परार-घर में चोरीकू जाय तब अपना तन शीश नवावता जाय है। सो यह मायावी, दगादार महासोटे अन्तरङ्ग का धारो ये चोर तथा चौता पशु है सो अन्य जोवनको मार है तब पहले अपनी कायकू बहुत नमाय करि पीछे चोट करे। सो काय नमाएविनय किये शुद्ध-भाव बिना मोक्ष होय तो चोर तथा चीते को होय। तात धर्म अभिलाषो पुरुषनको भाव ही शुद्ध करना स्वर्ग मोक्षकारी है और शुद्ध-भाव बिना दान किए मोक्ष होय तो कल्पवृक्ष को होय जो वांच्छित फल देय है। तातें तस्कर चीता माखी पतङ्ग कल्पवृक्ष ज्ञान रहित हैं। खोटे-भाव सहित हैं। इन पर-भव सुख नाहीं। तातें ऐसा निश्चय करना, कि पर-भव के हित का कारण-भाव की शुद्धता है। सात धर्मार्थी जीवनक भाव की शुद्धता करना योग्य है। आगे सुसंग-कुसंग के बच्छक जीवन बतावे हैंगाथा-दापसरसाण अणाणी, हीण सङ्गीय रजई मूढो । हंस चतुर गर गाणी, ऊँच सङ्गोय वंछिका गेयं ॥ ६९ ॥
अर्थ-वायस कहिये, कौवा । स्सारण कहिये, कुत्ता। अणारणी कहिये, अज्ञानी। हीरा सोय कहिये, नीच सङ्ग विषै। राय मूढ़ो कहिये, मूरख रात्रै हैं। हंस चतुर गर-णाशी, ऊंच सङ्गीय वाञ्छिका गेयं कहिये, हंस | च तुर मनुष्य व ज्ञानी पुरुषन को ऊँच-सङ्ग ही सुहावै। भावार्थ-काक की चाहै जैते ही रतनमयो बाभूषण पहराय के श्रृङ्गारी। चाहे जैसा भोजन देय पोखौ। चाहे जैसा खेद स्वाय, पढ़ायो। कनक के पिंजरे में राखो ।
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इत्यादिक याका लाड़ चाहै जैसा करो। परन्तु जब या काक हाथ-पिंजरे तें छूटे, तब ही ये अज्ञानी, नीच जहां स्थान होगा तहां हो जायगा तथा आप समानि काक बैठे होंयगे, तहां जाय तिष्ठेगा और कुत्तेकूं, चाहे जैसा भला-भोजन करावौ । अनेक भले आभूषण याके तन में पहरावो। पालको व रथ की असवारी में धरो । नाना बिछौना, गादी, जाजमै पैराखो। इत्यादिक अनेक भले निमित्त मिलाय के राखौ। परन्तु जब यह डोर तैं छूटेगा, तब ग्राम-श्वानन विषै जाय रमने लगेगा तथा घूरा वै जाय तिष्ठेगा। ऐसा ही याका सहज स्वभाव है और अज्ञानी को चाहे जेता समझावो-पढ़ावो, परन्तु थाकी अज्ञानता नाहीं जाय । याका सहज स्वभाव ऐसा ही जानना । सो अज्ञान, ताके अनेक मंद हैं। तहा एक ज्ञान तो ऐसा है। जो और कला धर्म-कर्म को सब जानें है। अनेक भेद-भाव समझ है। परन्तु शास्त्र-वांचने के ज्ञान से रहित है। कोई पूर्व-कर्म जोगतें श्रुतज्ञानावरण के उदय तैं संस्कृत, प्राकृत, देश-भाषादिक शास्त्रन के वांचने का ज्ञान नाहीं । तातें याकौँ श्रज्ञान कहिये और एक अज्ञान ऐसा है जो ताक शास्त्र वांचने का ज्ञान तौ है । परन्तु योग्य-अयोग्य, भली-बुरी, पुण्य-पाप, हित-अहित इत्यादिक शुभाशुभ विचारतें, हृदय जाका रहित होय । जैसे—तोता को पढ़ाय परिडत किया । सो तोता कौं जैसे- काव्य- छन्द पढ़ावो सो पढ़ें। ताका पढ़ना देखि और जन राजो होंय। ऐसा पढ़ाय तैयार किया। परन्तु थाके मुख आगे अँगुली करो, तो काट खाय तथा पिंजरे तें खोल देव, तो मूरख उड़ जाय । कछू विचारै नाहीं । जो मैं इस रतन पींजरे में भले भोजन-जल खावता सुखी हौं । मोकौं इनने पढ़ाया है। सो ये अज्ञान, सर्व भूलि, पींजरा छोड़ जाता रहे । सो कोई ऐसा ही मूरख, अनेक शास्त्र, संस्कृत, प्राकृतादि तो वाँचि जानें, परन्तु कषाय- सहित, महामानी, पाप का भय नाहीं, पुण्य फल की चाह नाहीं, ऐसा हित-अहित रूप भाव नहीं समझे। काम, क्रोध, लोभ बहुत होय जार्के । सो पढ़या- अज्ञान कहिये | एक शुभाशुभ विचार रहित होय, अरु अक्षर ज्ञान तैं भी रहित होय, तार्कों भी अज्ञान कहिये और एक बालक अज्ञान होय । सो सुख-दुःख के स्थान -भेद नहीं समझे । ज्यों बालक कौं, शके माता-पिता कहैं हैं। पुत्र ! भोजन खायकैं, पालने भूलो सोवो । अरु घाम में मति जाओ, यहाँ शीतल जल पीवो। लड़कों में किए जाते हैं। ता नहीं समझा
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जो बालक-अज्ञान, सो माता-पिता के वचन उल्लम, छिपक, बड़ी घाम में ही भाग, बालकन में खेलने जाय है। तहाँ शीश मैं रज भरै। घाम तन सहै। प्यास लागी, सो सहै है। भख लागी है। औरन के मुख को गारी सहै है। कोई शिर में मारे, सो भी सहै है। इत्यादि खेद के स्थानन में तो जाय। अरु सस्त्र-स्थान अपना
घर, तहां नहीं रहै। ऐसा अज्ञान ये बालक है और एक अज्ञान ग्वाल है। जो सदैव ढोर चरावै। वन ही में रहे, । या मैं भी शुभाशुभ का ज्ञान नाहीं। इस गोपाल को शाल का जोड़ा दीजिये। तो ये अज्ञानी नितम्ब-वल्लभ, शाल । के मोल-गुण कं नहीं जानता-सन्ता, बैठे है तहां शालक, पद नीचे देय बैठे। इसको विशेष-विवेक नहीं होय । सदैव पशन की संगति मैं रहै। सो तैसी हो बुद्धि धारे हैं। इस गंवार क वन में प्यास लागें, तब नदी में जाय, पशु की नाई मुख ही ते जल पावै, हाथ तें नहीं पोवै। खड़ा ही नीतादिक बाधा करै। याके शुभाशुभ की खबरि नाहों। तातपाल भी अज्ञान है। यादिक काहे भूरखनन के भेद, सो इन सर्वकं नीच-संग ही भला लागे है और ऊँच-संग में जाते-बैठते-बोलते, लज्जा उपज है। जैसे—कोई भले-आदमी का पुत्र, होरी के दिन में, अपना मुख श्याम बनाय, नोच-संग के मनुष्यन में खुशी भया, रमै था-स्वछन्द खेले था। सो तहाँ कोई भलाआदमी पाय निकसै, तो लज्जा खाय धिपि जाय है। उस काले-मुख सहित, भलै-संग में लजा उपजै। तैसे इस अज्ञान कौ सुसंग में लज्जा उपज है और अपने समानि, अज्ञान के धरनहारे जीव होय, तिनमें ये अज्ञानी प्रसन्न रहे है। तात ये काक, श्वान, अज्ञान इनकं नोच-स्थान ही प्रिय है। सो इनका ये सहज-स्वभाव जानना । एतेन कं ऊँच-संग मला लाग है। सोही कहिये है। एक तो हंस, महासमुद्र का रहनेहारा, मोती चुगनेहारा, उज्ज्वलबुद्धि, निर्मल नीर का पीवनहारा, ऐसे भले-स्थान का रहनेहारा, सुबुद्धि, महासुन्दर तन का धारी, हंस कू ऊँचस्थान ही अच्छा लाग है। जहाँ बड़ा दरयाव होय, बड़े जल का विस्तार घणा-जल होय, हस तहां सुखी होय।। जे चतुर नर हैं सो भी तहां राजी होय हैं, जहां अनेक-कलाके धारी, विवेकी, चतुर, राजकुमारादि, उज्ज्वल-बुद्धि, आप समानि धर्म-कर्म-कला में समझते होंय । अनेक शुभ-विवेक वार्ता होती होय। नाना नय-जुगतिन की रहसि सहित प्रश्न-उत्तर होते होय। अनेक धर्म-कथा चरचा. शास्त्राभ्यास करें लिये होती होय। जहां की चतुराई में तिनक भला लागै कुसंगत अरति होय सो चतुर कहिए और जे धर्मात्मा हैं । तिनकू धर्म-स्थान सोहोऊँच-स्थान,
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प्यारा लागे है। सो जहाँ प्रथमानुयोग,करणानुयोग, द्रव्यानुयोगको कथा पाप हरनी,पुरुष करनी बात होतो होय सो स्थान धर्मात्माकं मला लागै तथा जहां अनेक मतान्तर की रहसिकं लिये तत्त्व भेदन का निर्धार होता होय जिनतें ! मोक्ष-मार्गजाया जाय संसार भ्रमरा छूटे परभव सुख होय लागे पाप नाश होय इत्यादिक ऊँच-स्थानक रखायमान होय सो ज्ञानी कहिए। ऐसे कहे जे सुसंग हंस चतुर नर ज्ञानी पुरुष इनकी ऊँच संग प्रिय लागे है। इनका ये ही सहज स्वभाव है। सो हे भव्य हो! जे नीच हूँ तिनकौं नीच संग प्रिय है। ऊँचनकों ऊँच संग प्रिय है। ऐसी परीक्षा करि नीच-ऊँच की पहिचान करना। जिसमें तेरे चले को होय तिस संगति मैं रचना मगन होना योग्य है।६६। आगे हितून के परखिनेक नव स्थान दृष्टान्तपूर्वक बतावें हैंगाथा-णिपभय खेद दरिदये, भोयण सतयार अजपणामो जराशक्ति अस्वभहीयो इथल हित हेम पास कसटीये ॥ ७॥
अर्थ-शिपमय कहिये, राजा का भय। खेद कहिये, रोग। दरिदये कहिये, दारिद्रच। भौयण कहिये, भोजन। सतयार कहिये, सत्कार। अजपरणामो कहिये, आरजी परिणाम । जरा कहिये, वृद्धपना। आसक्ति कहिये, हीन शक्ति। अवझहीयो कहिये, इन्द्रियन के बल घट। इथल हित हेम पाख कसटीये कहिये, ए स्थान हिन रुपी कनक के परखवे की कसौटी हैं। भावार्थ---संसार में अपने हितकारी जीव तेई भए स्वर्ण तिनके परखदेकौं श कहे स्थान सो कसौटी समानि हैं। सोई बताइए हैं। जहां एक तो भूप भय होवे। तब राजा का कोप अपने ऊपरि होय तब अपनी सहायक अपनी चाकरी करे। सो भला चाकर जानना।जे ऐसे समयमैं पासि. रहै, विनय करै, सेवा करै, सो सांचा चाकर है। अरु कुटुम्बादि, मन्त्री, जे भूप के कोप में सहाय करें सो सांचा हितू जानना।३। नाना प्रकार तन विर्षे कुशदि रोग को वेदना भई होय। ता समय मल-मूत्रादि को समेटणा करै सो ही भला सेवक सो ही कुटुम्ब सो ही मित्रादि जानना।२। जब पाप उदय ते दरिद्र आवे धन की हीनता होय। ता समय में भख-प्यास सहकै जो सेवा करे सो भला सेवक कहिए। जो इस दरिद्र दशा में संग रहै विनय तें पूर्ववत् रहै सोही कुटुम्ब सो ही मित्रादिक जानना।३। भोजन देते यथायोग्य बादरत विनय सहित अन्तरंग के स्नेह भोजन देव सो सांचा हित सोही कुटुम्ब सोही मित्र सांचा है। सोही सेवक भला है।
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जानना। ५। सरल भाव ते कुटिलाई तजिक विनय त सेवा कर सो मला सेवक है। सोही मित्र कुटुम्बादि। जानना।६। और शरीर में कमाने की शक्ति घटै। कुटुम्बादिक सर्व रक्षा करने की शक्ति घटै। तन अति ही। पराधीन होय। वचन बोलते मुखत नीर चलै। अंग उपांग कम्पन लागें। इत्यादिक अवस्था जरा आए होय || तरुणयना जाय तब कोई विनय सहित सेवा करै सो तो सेवक और या दशा में आदर सहित सेवा चाकरी करें आज्ञा मानै सोही मला पुत्र, भाई, स्त्री आदिक कुटुम्बी मित्र जानना ।७। उदय से उठतें बैठत मल-मूत्र खेपन शरीर की शक्ति घट गई होय, ता समय अशक्त भरा पीछे सेवा चाकरी करै सोही मित्र, कुटुम्बादि जानना पाजा समय पंचेन्द्रियाँ शिथिल होंय तथा एक दोय इन्द्रिय की प्रवृति जाती रहै। नेत्रनतें नाहीं सूझे नहीं दोखे तथा काननत नहीं सुनै। इस समय में जो कोई, विनय सहित आज्ञा प्रमाण सेवा करै, सोही मित्र, सोही सेवक, सोही स्वी-पुत्रादि, सांचे जानना हा रोसे कहे जे सेवक, मित्र, पुत्र, स्त्री, भाई, माता-पितादि, स्नेही सोही भये कञ्चन, तिन सबके परखिने कों ये नव स्थान कसौटी समानि हैं। जैसे—कसौटी घिसे, भले-बुरे कञ्चन की परीक्षा होय, तेसे ही इन नव स्थानकन मैं मित्र, सजन, कुटुम्बादिक की परीक्षा होय है। बाकी भले विौं तो अनेक चाकरी करें हैं। कुटुम्ब, पुत्र, स्त्री आदि आज्ञा माने हो मान। क्योंकि ये तो सर्व का रक्षक है। परन्तु उक्त नव स्थानकन का अवसर आय पडे, तब चाकरी करे, सोही सांचा नाता जानना ७०1 आगे ऊपर कहे जे कसौटी समानि सर्व स्थान, इन कौन-कौन कौं परखिये, सो कहैं हैंगाथा-रणव ठाण कसौटी, पोय तीय मित्तादि पुत्त सजणाणी । सञ्जय तव धम्म कणका, घसि पखगाय पमाण सुविही ॥७॥
अर्थ--ये उक्त नव स्थान, कसौटी समानि हैं। अरु पिया, स्त्री, मित्रादि, पुत्र और अनेक सज्जन और सञ्जय कहिये संयम, तव कहिये तप, धम्म कहिये धर्म, रा सब कहिये सर्व ही, स्वर्ग समानि हैं। घसि पक्षण्य पमारा सुदिट्ठी कहिये, नय-प्रमाण इनकू घसि के शद्ध दृष्टि होय, सो परखै । भावार्थ-ऊपरि गाथा मैं कहे नव भय-राज भय, रोग भय, दरिद्ध भय, भोजन नहीं भये, असत्कार भये, सरल भाव भये, वृद्ध मये, तन अशक्त भये, इन्द्रिय बलहीन भये, ए नव स्थान कसौटी समानि जानना। सो इन कारण पड़े तब धर्मकर्म सम्बन्धों जो पदार्थ तेई भये कनक, तिनकों परखिये 1 स्त्री तो भरतार कं, इन कारणन में परखै और
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भरतार, स्त्री को इन कारणन में परखै। मित्र, मित्र इन कारणन में परने और भाई, भाई को इन ! । कारणन में परखै। पुत्र, पिता को इन कारणन में परमार पिता, दाना परो । वेवक स्वामी क और स्वामी, सेवक के इन कारणन में परखें और चित्त की धीरजता, धर्म कार्यन में, तप करते, संघम की रक्षा करतें, इन कारण परखिये । इत्यादिक कहे जे धर्म-कर्म सम्बन्धी कार्य सर्व-अंग, इन नव अवसरन में दृढ़ रहै। सो साँचा धर्म-कर्म अंग जानना। बाकी पुण्य-उदय में अपने-अपने स्वार्थ पूरने में तौ. सब ही सहाय करें व धर्म सेवन करें। परन्तु ऊपर कहे अंगन में-असहाय में दृढ़ रहै, सो धन्य कहिये ।७। आगे एक दुःख कौं अपनी-अपनी कल्पना करि, अनेक उपचार बताउँ, सो कहिये हैंगाथा-वेद्यो कथयत रोगो, भूतो चयटक गहण मन्तीए। पूयो पाजय गांणय, एक गद जया दिट्टि भारान्ती ।। ७२ ।।
अर्थ-इस जीव कौं कोई पाप उदय करि, एक रोग होय । ताकौं जगत् के चतुर जीव, अपनी दृष्टि माफिक उस दुख का कथन करें। सो कोई वैद्य कौ पछिए, जो हमैं खेद काहे तें है, सौ कहो । तो कोऊ ज्वर, वाय, खांसी, स्वासादि रोग बतावे और कोऊ मन्त्रवादी-चेटकोक पूछिये । जो हम दुखी हैं. सी क्यों हैं ? तब कहै, तुमकों ऊपरला फेर है । जोरावरी भूत-प्रेत की फरपट में आये हौ। सो हम मन्त्र, जन्त्र, तन्त्र गंडा कर देंगे, सो सब रफे होय साता होय जायगी और निमित्तज्ञानीक पूछिये, जो हमकू खेद क्यों है ? तब कहै, तुमको शनीचर-मंगलादि ग्रहों की करता है। सो इनका किया खेद है । तातें इनकी पूजा करौ। दान देऊ । फलाने नक्षत्र में साता होयगी और कोऊ धर्मात्मा, संसार-भ्रमण का जाननहारा, पुण्य-वाप का समझनेहारा, तत्वज्ञानी, सम्यग्दृष्टि कं पूछिये, जो हमको खेद है सो क्यों ? तब समता-रस-रंगोला कहै । भो भव्य । कोऊ पूरव उपार्जित पाप का अश्म-फल प्रगट भया है। इस भव में ताने दुख किया है। तातें | तुम विवेको हो, पाप का फल रोसा दुखदायक जानि, पाप मति करौ। तातै पर-भव में फेरि दुख नहीं । होयवेकंधर्म-सेवन करौ, पर-भव सुख पावोगे । धर्मात्मा रोसी कहै। ऐसे राक दुख होय, ताके दूर करने के प्रथि, जो कोई कूपूछिये, सो अपनी-अपनी जैसी-जाको दृष्टि होय, जा वस्तु के अतिशय में जाका चित्त रसायमान होय, सो ही इस जीव कू सहायकारी भासै है सो जैसा जाका ज्ञान था तैसा ही इन्होंने इलाज.
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बताया। सो विवेकी इन सर्व के वचन सुनि, धर्मात्मा का वचन सत्य जानि, अद्धान करि, पाप का फल दुस्स जानि पाप तणि, धर्म के सेवन में जतन करें ।७२। आगे ऐसा कहैं हैं जो पहले घर की तजि, कुटुम्ब को तजि भेष धरि, फेरि घर मित्र चाहै ताकों कहा कहिए । सो बतावे हैंगाथा-मिन्दयतजि कुटइछये, दाणा ताज देण भूठ आचन्तौ । मन्यू ताज मित्तो, उ4 ब को होय सांगधर बादा ॥७३॥
अर्थ-मिन्दय लजि कुटइछये कहिये, मन्दिर छांडिटपरिया (झोंपड़ी) चाहै। दाणो तजि देण मूठ जाचन्ती कहिये, दान का देना तजि उल्टा भीख मांगे। बन्धू तजि इछमित्तो कहिये, कुटुम्ब तजि फेरि मित्र चाहै। तब गयको होय सांगधर जादा कहिये, तेरी कौन गति होयगी? है स्वांग धरनहारे आत्मा। भावार्थ-केतक भोले शुभ विचार रहित इन्द्रिय सुख के लोभी प्रमादी तिन. गृह की अनेक क्लेशता देखि उदास होय, घरकू तजि भैष धारचा पीछे भेष का निर्वाह करना विषम जानि जांचते लागे। फिर इन्हें टपरिया छप्पर मन्दिर बनाते देखि औरतें स्नेह करते देखि इत्यादिक विपरीत भेष देखि कै गुरु हैं, सो दया करि शिक्षा सहित हितोपदेश करते भये। भो भव्य ! तेरे पुण्य-प्रमाण मन्दिर में रहै था तिसको तजि जोग धारया। सो तू अब मन्दिर बनाधाया चाहै तथा घास को कुटी व छप्पर बनवाने के निमित्त आश्रय देखता फिर है । सो हे भाई! तु पहिले क्यों मुल्या? हे भव्य ! अपने घर में तब तो तूं औरनकं स्थान देय सहाय करैथा। अब घर तजि टपरिया बनवानक, दोन भया फिरै है। ताते घर तजना योग्य नाहीं था और अब तज्या हो है। तौ वन-विहार करना योग्य है। गुफा, मसान (मरघट ) वृक्ष की कोटर मैं तिष्ठना योग्य है। अस ऐसो शक्ति तेरी नहीं थी तो घर तजना योग्य नहीं था और देखि हे भव्य ! घर विर्षे था तो अपनी शक्ति प्रमाण दीन-दुखीकों दान देय दया-भाव करि पौखें था। अब तूं घर विषं दान देना तजि उल्टा घरि-घरि दोन मया भीख जांचता फिर है। सो भी तोकू योग्य नाहीं। तोकू अजाचीक रहना योग्य है और सुनि हे भाई! घर के पिता, माता, पुत्र, स्त्री, माई, सज्जन मित्रादि स्नेहो मोह के करनहारे तिनकं तजि, अब भेषि धरि अन्य गृहस्थनकौं सम्बोधन देय खुशामदि करि विनध करि तिनत नेह बधाय मोह के बन्धन में फेरि बन्ध्या चाहै है। अर वह तो तू ते मोह करते नाहों। तातै मोह बधावना था. तो तौकी घर तजना योग्य नाहीं था। अस अब घर तण्या है तो निर्मोही रहना योग्य है। ताते हे अजान! भोले ते घर तजि मन्दिर
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बनाये। तुम दान देना तजि उल्टे याचना क जाये तथा तुम घर के कूटम्बी मोही तजि औरनत स्नेह करते फिरौ ।
हो। सो हे भोले । येसे तेरे मोड-बहरूपिया कंस नाना स्वोग देख हमको बड़ा आश्चर्य आवे है? सो तेरी कौनसु || सो गति होयगी सो हम नहीं जाने अन्तर्यामी जानें। ऐसी शिक्षा उत्तम जीवनकों गुरु देते भए। सो विवेकी हैं
तिनकौ तजे पीछे ग्रहण करना योग्य नाहों। अरु कमतने कम अंगीकार करें, सो ताका तप लैना बालक का-सा चरित्र है तथा नट के समानि स्वांग धरना जानना। ऐसा जानि विवेकी जो धर्म कार्य करें सो प्रथम हो विचार के करना योग्य है । ७३ / आगे ऐसा कहैं हैं जो कौन वस्तु तजि किस वस्तु को तजि किस वस्तु कौँ राखिये, सो ही बतावै हैं-- गाथा-पुरतज्जे घण कजय सहरणतज्जेय काजकुलरमथो । कुल तजय तणकजय पुरवणकुलकाय तज्यधम्मकवाय ॥ ७ ॥ ___ अर्थ-पुरतज्जे धण कन्जय कहिये, पुर तो धन के निमित्त छाडिए है। सहधरा तज्जेय काल कुल रक्खो कहिये, सो धन कुल की रक्षा के निमित्त तजिए है। कुलतज्जय तण कजय कहिये, कुल को ताके वास्तै तजिए है। पुरधरा कुलकाय तज्यधम्मकजाय कहिये, पुर धन कुल काय ए सब धर्म के निमित्त तजिर है। भावार्थजगत् जीव कुटुम्ब मोह से तथा मानादि कषाय पोषने को तथा परम्पराय आपकौं सुख होयवे को इत्यादिक कर्म कार्यन के निमित्त सहायकारी सुखकारी धन जानि ताके पैदा करनेकौं यह विवेकी अपनी बुद्धि के बलत अरु पुण्य के सहाय ते घर तजिकै दोषान्तर समुद्र वन इन आदिक विषम स्थान कानन (वन) मैं प्रवेश करि बहुत कष्ट खाय क्षुधा, तृषा, शोत, उष्ण अनेक कष्ट सह के धन पैदा करे है। तब धन के निमित्त घर तजिये। ए बात प्रसिद्ध है। जो देशान्तर जाय धन कमाय लावै है-तब धन होय है और ऐसे कष्ट करि कमाया धन सो | कुटुम्ब की रक्षाकौं खरचिरा खुवाइये है। कोई ऐसा कार्य बन जाय जो धन गए कुटुम्ब बचे तो कुटुम्बकों राखिय धन दीजिए सो कुल कुटुम्ब की रक्षा के निमित्त धन तजिए और कोई काम समय ऐसा आवे है। जो अपने तन की रक्षा के निमित्त कुल कुटम्ब कौं तजिए है और कदाचित अपने धर्मक प्रयोजन आय प., तो कुल पुर, धन सर्व हो धर्म की रक्षाको तजिए । तनादिक तजै धर्म रहै तौ तनादिक सर्वको तजिकै अपने धर्म की रक्षा कीजिए। यहां प्रश्न? जो तुमने कह्या। काय तनिक भी धर्म राखिय सो काय गई सख धर्म कहाँ र
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लौकिक में भी ऐसा कहैं हैं कि कायारा धान है त, वाम गाधनी मौरी कहाँ हो ? लाला समाधानहे मन्यात्मा! तैने कही सो सत्य है। तेरा प्रश्न हमारे उपदेशतें मिलता ही है और लौकिक में कहैं हैं, सो भी प्रमारा है ये भी सत्य है। परन्तु याका भोले जीव भेद नाहीं जानैं हैं लौकिक में काया रासै धर्म कहैं हैं, सो सत्य है। याका स्वरूप आगे कहेंगे। अरु लौकिक में भोले या कहैं जो अपनी काया रासै धर्म है, सो रोसा नाही। काया राखै धर्म कैसे रहै ? सो हो कहिये है। सो हे भव्य ! तु चित्त देय सुनि। तूने प्रश्न मला किया। घने जीव का संशय मेटनेहारा तथा तेरा संशय मेटनेहारा प्रश्न है। सो तू उत्तर कुंचित्त देव सावधानी से सुनि । तोकू हम पूछे है जो एक शूरमा है। ताकौं कोई बड़े योद्धा मैं माय ललकारचा। कही-वह शूरमा कहां जाका मैं नाम सुन्या करौं हौं। वह महायोद्धा होय शूरमा होय तो मोते आय युद्ध करै। ठाके हस्त में बड़ा शस्त्र है। देख्या सो ही मारथा। सो अब इस शरमा कौ कहा योग्य है ? इसका धर्म कैसे रहै ? इस वैरी के सन्मुखाय युद्ध में अपनी काय शस्त्रन तै खण्ड-खण्ड करि मरै तो धर्म रहै ? तथा भागकै अपना तन रावै तौ धर्म रहै ? सो कहौ। तब वाने कही-भागि जाय तो निन्दा होय । शूरमा तो मरै तबही धर्म रहै । तब तोकं कहिये है। हे भव्य! यहाँ काया अपनी राखें धर्म रहै । ऐसा कहना मुठा मया । अपनी काया राबै धर्म रहै। तो शरमा मरता नाही। तात जे विवेकी हैं सो धर्म राखवै कौं काय भी तजि धर्म राखे हैं। ऐसा जानना। ऐसे धर्मकं पुर धन कुल काय सबही तजें हैं जौर धर्म राखे हैं। अब सुनि तैने कही जो काया राक्ष धर्म है। सो श्रेष्ठ धर्म है । यो भी जिनेन्द्रदेव का उपदेश है। जो काया राखें धर्म है। परन्तु ज्ञान-अन्ध प्राणी इसके भेदकं पावें नाहीं हैं। धर्म तो काया राखे ही है सो तुम सुनौ । अब यामैं भेद-भाव है । सो अन्तर भैद कहिये है। काय मैद षट् है। सो इन षटकाय
की रक्षा सो हो धर्म । सो कहैं हैं। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, श्रसकाय-ये | षट् काय हैं इनको राखे सो धर्म है। पृथ्वी जो भूमि ताहि बिना प्रयोजन खौदै नाही, जाले नाही, पोर्ट नाहीं
इत्यादिक पृथ्वीकाय की रक्षा करि दया-भाव करि हिंसा नाहीं करे। सो पृथ्वीकाय की रक्षा है। अपकाय को | जल सो जलकं बिना प्रयोजन जारे नाहों, नाखे नाही तथा प्रयोजन होय तहाँ जतनतें धी तेल की नाई जलकं वर्ते। । बिना प्रयोजन डार नाही ऐसे जलकाय की रक्षा करें और अनिकाय हैं बिना प्रयोजन तो बारम्भ नहीं करिए।
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मुजाईरा नाही. जालिए नाहीं जहां अग्नि का प्रयोजन भी होय ती घटाय के कीजिये। ऐसे अग्निकाय को राखे । बिना प्रयोजन पंखादि वस्त्र हिलावना झटकनादि क्रिया करि पवनकायको नहीं सताइये। सो पवनकाय की रक्षा है। वनस्पति के प्रत्येक साधारण दुभ, घास, पत्ता, बैलि छोटे वृक्ष, बड़े वृक्ष गुल्म, कन्द, मूल इत्यादिक हरी-नीलो कू बिना प्रयोजन खेद नाहीं करें। काटे नाहीं, छेदे नाही, छोले नाही, पैले नाही, हाथ-पांव तें मर्दन नाही करें इत्यादि विधि से वनस्पतिकाय की रक्षा करें और बेइन्द्रिय जौक, इली नारू आदिक केचुवा ए बेइन्द्रिय हैं। इनकी काया राक्ष और तेइन्द्रिय खटमल, चींटी, तिरूला, कुन्थुवादि जीव तेन्द्रिय हैं। इनकी काया राखै और चौइन्द्रिय मासी, मच्छर, टीड़ी, भ्रमर, डांस इत्यादिक चौइन्द्रिय जीव इनके तन की रक्षा करें इनको घात नाहीं। पंचेन्द्रिय हस्ती, घोटक, कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य, देव, नारकी-श पंचेन्द्रिय हैं इन , समताभाव राखि इनके रक्षा रूप भाव राखि दया करे। ऐसे त्रस जीव च्यारि प्रकार हैं। तिनको पोडै सतावें नाहीं सो उसकाय की रक्षा है। ऐसे पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, प्रस-ये षटकाय हैं। इनकी काया की रक्षा करे सतावै नाहीं मारे नाहीं। मन-वचन-काय करि इन षट भेद काया हैं। तिनकी रक्षा सो हो धर्म है। सो श्रावक तो एक देश रक्षा करें। मुनि सर्व प्रकार रक्षा करें। इन षटकौ राखें हैं। सो ही मोक्ष-मार्ग-धर्म है। ऐसे इन षटकाया कौं राधम कह्या । सो काया राक्षे धर्म जानना। आगे ऐसा कहिये है, जो जहां रोती वस्तु नहीं होय तो तिस देश नगरकू तजिरा-- गाथा-नहि पुर मह सतकारो, गह-बन्धव गह-मित्त जिणगेहो । विडा धम्म ण सुसंगो, सह पुर देसोय हेय दुध आदा ||७५॥
अर्थ-जहि पुर पह सतकारो कहिये, जिस पुर में सत्कार नहीं होय। राह-बन्धव सह-मित्त जिण गेहो कहिये, जहां बोधव नहीं होंय, मित्र नहीं होंय, जिन-मन्दिर नहीं होय। विद्या धम्मण सुसने कहिये, विद्यावान् नहीं होय, धर्म नहीं होय, सत्संग नहीं होय । सह पुर देसोय हेय बुध आदा कहिये, सो पुस्-देश बुद्धिमान् आत्मा के तणने योग्य है। भावार्थ--जे विवेकी हैं ते ऐसे अशुभ देशादि होंय, तहो नहीं रहैं। सो ही कहिये है। जहो। जिस पुर-स्थान में अपना आदर-सत्कार नहीं होय, तहां विवेकी नहीं हैं। रहैं, तो अनादर पा हैं और अनादर ते, परिणति संक्लेश रूप होय है, पाप बन्ध होय है। तातै रहना ही भला नाहीं और जहां अपने
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अशुभ देशादि शाकाहये, सो पर
1 विवेकी नहीं नहीं रहे। सौहाद्धमान् धात्मा ।।।
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भाई-बन्धु-कुटुम्बी-सहकारी सजन नहीं होंघ, तहाँ नहीं रहना और जहां जिन मन्दिर नहीं होय, धर्म-प्रवृत्ति । नहीं होय, तो ऐसे धर्म-रहित क्षेत्र विर्षे, धर्म का लोभी धर्मात्मा सुजोव नहीं रहे औरजा देश-पुर में विद्यावान्-॥ ३१७ पण्डित नहीं होय, तिस क्षेत्र में नहीं रहिये । अगर रहै, तो अपना बान नष्ट होय । अज्ञानी जीवन के संगत, आप अज्ञानी होय । जैसे-गोपाल, पशन के सदेव सङ्ग तें, आप भी पशु समानि, अज्ञानी रहै है और जीव का भला करनहारं शुद्ध-धर्म की प्रवृत्ति-क्रिया अहा नाही होचा क्षेत्र में नाहीं रहै। कुधर्मोन मैं रहे. तौ सुधर्म का अभाव होय । तात धर्म-रहित क्षेत्र में नहीं रहिये और जहां खोटे-संग के मनुष्य सप्तव्यसनी होय । चोर, ज्वारी, अनाचारी जीव होय । अरु सत्संगति के सुमाचारी नहीं होय, तहाँ नहीं रहिये और ऊपर कहे कारण जहाँ होंय, तहां बुद्धि-बल का धारी धर्मात्मा, ऊँच-संग का वाँच्छक, ऐसे स्थान मैं नहीं रहै और जो रहै, तो अपने भले गुण-धर्म का अभाव होय । रोसा जानना। आगे इन स्थान में लज्जा करिये नाही, ऐसा बतावे हैं
गाथा-हार विहारे जूझे, गित गोतेय त वादाए । भोगो वाजय पठती, यह वह धलेय सज्ज नहि बुझा ॥ ७६॥ । अर्थ--भोजन में, व्यवहार मैं, युद्ध में, नृत्य करने मैं, गीत गाने में, जुजा खेलने में, वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) करने में, पंचेन्द्रिय मोगन मैं, वादित्र बजावने में, पढ़ने में, इन दश स्थानन में, विवेकीन कौं लज्जा करना योग्य नाहीं है । भावार्थ-जहां भोजन जीमत लज्जा करें, तो भला रहै, खेद पावै, लोक-हाँसि होय, भोलापना प्रगट होय । जैसे-धर्म-परीक्षा में मूरखन को कथा कहो। तहां एक मूरख ससुरार षाय, भोजन में लज्जा करि, रात्रिकौ कोरे चावल खाय, मुख फड़ाया। लोक-हाँ सि भई, अज्ञानता प्रकट भई। तातें भोजन में लज्जा करै, तो इस मूरख ज्यों खेद-हाँसो पावै । तातें यहां लज्जा नहीं करना।। और व्यवहार विष लज्जा करें, तो व्यापार नहीं बनै। तात व्यापार में लज्जा नहीं करनी ।२। और वैरी ते युद्ध करत लज्जा करै, तौ युद्ध हारै मारचा जाय 1३। और नृत्य में लज्जा करें, तो नृत्य-कला यथावत् नाहीं बने समय वृथा जाय । तारौं नृत्य-समय में लज्जा नहीं बने ।। ज्वारीकों द्यूत-रमते लज्जा नहीं होय । तहाँ लज्जा करै, तो धन हारे। तातें चूत में लज्जा नहीं करनी।। और वाद समय, परवादी (प्रतिवादी) सूधर्म-कर्म का वाद करते लज्जा करें, तो वाद हारे। तात वाद-समय लज्जा नहीं करती। और पंचेन्द्रिय-भोगन समय में
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लज्जा करें, तो इन्द्रिय-सुख नाही होय। तातै पंचेन्द्रिय-भोग समय लज्जा नहीं करनी। ७। और वादिनों के | बजावै मैं लज्जा करें, तौ वादिन-कला सम्पूर्ण नहीं बने। तातै वादित्र-समय लज्जा नहीं करनी।८। गावने में ३१५ लज्जा करै, तो गावना नहीं बनै । ताते गावने मैं लज्जा नहीं करता। ६ । शुभ-शान के बढ़ाने कौं, परभव-सुख पावने को, शास्त्राभ्यास करने-पढ़ने विर्षे, लज्जा नहीं करनी। पढ़ने मैं लज्जा कर, तो ज्ञान को वृद्धि नहीं होय ! | यात शास्त्राभ्यास-पढ़ने में लज्जा नहीं करनी। चरचान में, प्रश्न करिव में, तव विचार में,उपदेश करते, इत्यादिक विद्याभ्यास के ध्यान में स्वाध्याय में लज्जा करें, तो आप ही अज्ञानी रहे। अपना बिगाड़ होय। तातें विद्या के स्वाध्याय करवै में, लज्जा नहीं करनी। २०। ऐसे भोजन, व्यापार, युद्ध, नृत्य, गीत, चूत, वाद, भोग, वादिन, पठन-इन कहे दश भेदन विर्षे, चतुरन को लज्जा योग्य नाहों। इति श्रीसुदृष्टितरङ्गिणी नाम ग्रन्यके मध्यमें अनेक नम सूचक, उपदेश-कथन वर्णन करनेवाला तेईसवाँ पर्व सम्पूर्ण भया ॥२३॥
आगे ऐसा बतावे हैं कि जो पत्न, सबल होय तो निर्वल का भी कार्य सिद्ध होय... गाथा-गिरि-सिर तह फल पकऊ, काको भवान्ति पक्षबल दोणो। णभूतव्य सिंहो, पडोणो जय गज-घटा सूरो ।। ७७॥
अर्थ-गिरि-सिर तरु फल पकऊ कहिये, पर्वत के शिखर पर एक वृक्ष के फल पके हैं। काको भक्षन्ति पक्षबल दीगो कहिये, ताकी काक तो पंखन के बलते दीन है तो भी खाय है । पतीखो कहिये, परन्तु पंक्षा नहीं। तातें सभूतव्यं सिंहो कहिये, ताक् सिंह नहीं भोग सके है । जय गज घटा सूरो कहिये यद्यपि ये गजन के समूहळू जोतनेक शर है। भावार्थ पक्षन का बल होय तो सामान्य बल धारी का भी कार्य सिद्ध होय और पक्षन का बल नहीं होय तो बड़े बलवान् का भी कार्य सिद्ध नाहीं होय है। सी ही बतावें हैं। जैसे कोई एक पर्वत के उत्तुंग शिखर पर एक वृक्ष है। ताकै भले फल मिष्ट लागें हैं सो ताकू वायवे कू कोऊ समर्थ नाहीं। ऊँचा बहुत है। सो ता फलकों काक तौ अपने पंखन के बल तैं भोग सके और तिस फल के भोगवेकौं सिंह की सामर्थ्य नाहीं। क्यों ? जो सिंह के पांखन का बल नाहों। बड़े-बड़े हाथिन का समूहकों तौ सिंह जीते, ऐसा बलवान् है।। परन्तु उतुङ्ग पर्वत के शीश पर वृक्षन के फल खायवेकौं समर्थ नाहों। काहे तें, कि पांख नाहीं। सो देखो. पखिन के बल तो काक भी बड़ा फल खावै। अरु पंख बिना सिंह के हाथ मज़ा-फल नहीं जावे। तात सर्व तें बड़ा बल
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पंखन का जानना । तातै विवेकी हैं ते पक्षबल नहीं तोड़े हैं। जैसे-कोई बड़ा राजा है। ताके धन खजाना बड़ा है। आप महाबलवान होय। बड़ा हो। ऐसा हो । परन्तु अपनी पत के योद्धान का अपमान करि तिन । बड़े सामन्तन का सहाय पक्ष तोड़े तो आप राज्य भ्रष्ट होय और योद्धान का पक्ष होय हजारों राजा जाकी पक्ष । होय तो जीत पावै सुखी होय । तातै विवेकी होय तिनको तन तें धन तें राज ते विनय ते जैसे बने तैसे पक्ष बल
राखना योग्य हैं तिनमें उत्कृष्ट पक्ष धर्म का है। ताका हो सहाय राखना योग्य है। आगे हित है सो बड़ा बल है। ऐसा बतावे हैंगाथा--गेह बल रघु-हरि दोऊ दहमुह जय सोय लेय लंकाए । दसिर बन्धुविरोधय तण कुल खय राय लोय अपसामओ ॥७८॥
अर्थ-रोह बल रघु हरि दोऊ कहिये, परस्पर स्नेह के बल तें राम-लक्ष्मण दोऊ। दह मुह जय कहिये, दशमुख को जीत कैं। सीय लेय लङ्कार कहिये, सीता की लेय लङ्का से आये। दहसिर बन्धु विरोधय कहिये, दशशीश ने बन्धु के विरोध तैं। तण कुल स्वय राय खोय अपसायो कहिये, तन कुल अरु राल्य का क्षय करि अपयश पाया। भावार्थ-परस्पर बन्धुन के स्नेह होय सोहो बड़ो सैन्य है। स्नेह ही बड़ा बल है । सोही बड़ा खजाना है। सो ही बड़ा पुण्य का उदय है। सो ही बड़ा यश है और परस्पर बन्धुन में विरोध का होना सों ही बड़े पाप का उदय है। सो हो अपयश है। सो हो हार है। जैसे-राम-लक्ष्मण दोऊ भाइन ने परस्पर स्नेह रूपी सैन्या तें अपने बन्धु स्नेह के बल रावण तीन खण्ड का स्वामी महामानी बड़ा जोधा च्यारि हजार मक्षौहणी दल का ईश तिसकौं युद्ध विर्षे जीत्या। तार्को मार अपनी स्त्री महासती ताहि लई। पीछे इन्द्र की विभूति समानि सम्पदा सौं भरी देवलोक को शोभा सहित ऐसी लङ्का-पुरी ताका राज्य पाय इन्द्र की नाई लङ्का में प्रवेश करते मये । सीता सहित लङ्का का राज पाय सुखी भये सो यह दोऊ भाईन के परस्पर स्नेह रूपी सैन्य बल का माहात्म्य जानना और परस्पर बन्धु विरोध तें रावण का क्षय भया। रावण ने भोलापने ते भाई विभीषणसे द्वेषभाव करि देश तें काझ्या। सो भाई विरोध से विभीषण रामचन्द्र पैगर। सो राम महासजन, बार के रक्षक विभोषणकं स्नेह देय राखा। विभीषण के जात रावण निष्पक्षो भया। युद्ध मैं मारा गया। सो तन नाश भया कुल नाश भया। अरु राज्य भ्रष्ट होय अपयश पाय कुगति गए। सोए बन्धु विरोध के अन्याय का फल है।
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ता विवेक हैं तिनकू शकूं व सुखकूं बन्धून विषै स्नेह-भाव राखने का उपाय राखना योग्य है और जिन जीवन कैं रावण की नाई तीव्र कषाय उदय आवैं तब वन्धु विरोध होय ऐसा जानना आगे न्याय मार्ग की भरन्तता बताइए है और अन्याय का फल कहिए है
गाथा - जुगभट रघु हरि व्यायो दहसिर जय सेन सहित जस पायो। दहमुख ठाण अण यो कुलबलतण णास अयस दुगताई ॥ ७९ ॥ अर्थ - रघु हरि दोऊ ही भटों ने न्याय के प्रसाद तैं दसशीश सैन्या सहित जीत यश पाया। अरु दसमुख अन्याय करि कुल फौज निज तन इनका नाश कौर अपयश पाघ दुर्गति गए । भावार्थ - राम-लक्ष्मण र दोऊ महासुभट सर्व राजनीति के बैना आए दो भाई रावण के जीतनेकौं लङ्का चालनेकों उद्यम भरा। तब सुग्रीवादि बन्दर वंशीन के राजा सर्व आय कहते भरा । हे स्वामी! वह महायोद्धा है। तीन खंड के सामन्तन के जीतने का उस एकले में बल है। ऐसा रावण महापराक्रमी चक्र का धारक तीन खण्ड का नाथ ताके संग अनेक विद्या के नाथ बड़े राजा अनेक देव जाके आज्ञाकारी और हजारों देव जाके तन की रक्षा करें हैं। ऐसा जो रावण ताके जीतने इन्द्र भी सामर्थ्यवान् नाहीं है। ऐसे त्रिखण्डी नाथ के जोतने कौं उद्यमी भये हो सो तुह्यारा उद्यम कैसे पूर्ण होगा? और कदाचित् ये बातें रावण ने सुनी तो तुह्मारा तन सहज ही सङ्कट में पड़ेगा सो तुम विवेकी हो विचार देखो। तुम तो दो भाई हो अरु रावण पृथ्वीनाथ है। कैसे जीत पावोगे। तातें विचार कैं उद्यम करना योग्य है । इत्यादिक रावण के पराक्रम की बात सर्व विद्याधरों ने कही। तब इन विद्याधरों के वचन सुनि कैं दोऊ भाई निशङ्क होय कहते भये । भो विद्याधीश हो। तुमने रावण के बल पराक्रम पुण्य की महिमा हमारे आगे कही तुमकों रावण ऐसा ही भार्से है। जैसे—अनेक बिना सींग के भेड़न का समूह तामैं एक श्रृङ्ग का धारी मोढ़ा होय है। सो सर्व भेड़नकौं बली हो दीखे है । यह अज्ञान मेड़न का समूह ऐसा नाहीं जाने है, जो यह फलानी भेड़ का बच्चा है। सो जेते हम हैं तैंसा हो ये है। हमसे ही याके माता-पिता हैं। परन्तु या श्रृङ्ग देखि सर्व भेड़ उस मोढ़ा तैं भय खाथ डरें हैं। सो मोढ़ा सर्व भेड़न के समूह कौं बली भार्से है। सो सर्व भेड़-बकरी उस मोढ़ा के दास होय उसकी आज्ञा मानें हैं और वह मोढ़ा उन सब बकरी-भेड़न का नाथ होय अनेक मैल अपनी अ (रूप देख तिन सहित वह मोठा महामानी भया स्वच्छन्द होय वन दिषै बांका-बांका ि
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। है । सो जब ताई नाहर का शब्द वन में नहीं मया तब ताई वह मोढ़ा फूल्या-फूल्या वन मैं फिरे है और जब सिंह। की गर्जना का शब्द भया तब ताकू सुनि के मोढ़ादि सर्व भेड़-बकरी भय कर कम्पायमान होय खान-पान को सुधि भूलि जोय हैं। जीवन का सन्देह करें। ऐसे हो तुम जानों। जब ताई रामबली के धनुष की टङ्कार नहीं भई तब ताई रावण रूपी मीना नभचर रूपी भेड़न में मानो भया है। जब हमारा सिंह समानि शब्द भया तब रावण मोढ़ा • सैन्या रूपी भैड़न सहित जीवना कठिन जानौ। अहो खगाधीश हो। चोर का पराक्रम कहा? रावण चोर है। अन्याय पथ का धारी है। जो राजा होय अन्याय करे। तो ताका पराक्रम नष्ट होय । तुम मति डरो तुम्हारा चित्त भयरूप भया होय। तो तुम जाय अपने घर कुटुम्ब मैं तिष्ठौ। हम तो न्याय पे युद्ध करें है। सो सांचे होयगे तो दोऊ भाई जीतेंगे। ऐसी कहि रावण ते युद्ध किया। सो अपनी न्याय रूपी सैन्या के बल कर दोऊ भाई रावण कूमारि सर्व सैन्या सहित जोत्या। ताकरि पृथ्वी मण्डल में यश प्रगट होय पवन को नगई भ्रमता भया। सो यो तो सत्य-मार्ग की महिमा जानी और रावण अर्द्ध चक्रवर्ती महाबलवान बड़ी सैन्या का धारी था। सो भी अन्याय के जोगते यूद्ध हारा। अन्याय के योगतै, दोय पुरुषन ते भंग पाय मारथा परया। सो ए अन्याय का फल है सो न्याय का फल रामचन्द्र फू अरु अन्याय का फल रावणकू मिल्या। ऐसा जानि अन्याय-मार्ग तजि न्याय-मार्ग रुप परिणमन करना योग्य है । ७६ । भागे अनेक सङ्कटन विर्षे पूर्व-पुण्य जीवा सहाय है। ऐसा कहैं हैंगाथा--रण पण अरि जल ज्वाला, सायर सखरेय सैण पम्मत्ते । मग गम हय असवारो, एको संणाय पुष पुष्णाए । ८०॥
अर्थ-रश कहिये, युद्ध में। वरा कहिये, वन में। अरि कहिये, वैरोते। जल कहिये, नीरत। ज्वाला कहिये, अगनि तें। सायर कहिये, समुद्र तै। सखरेय कहिये, पर्वत तें। सैण कहिये, सौवने में। पामत्ते कहिये, प्रमाद समय। मग कहिये, मार्ग जाते। गज हय असवारो कहिये, हाथी-घोड़ा की असवारी समय । एको संगाय पुठ्य पुराणाए कहिये, इन कहे ऊपरले स्थानकनमें एक पूरव भव का किया पुरथही सहाय जानना । भावार्थजब प्राणी युद्धकों जाय है। तब शरीर पे रक्षाकं बखतर टोप पाखर झिलमिल (वस्व विशेष) पेटी दाल बनेक वस्तु अपने तन की रक्षा कू राखे है और ऐसा विचारता जाय है। जो पराये तोर गोलो आवेगी तो बखतर
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टोपादिक तैं रक्षा होगी और मेरे पास सुभट सैन्या बहुत है सो मैं जीतूंगा। ऐसा विचार करे है सो सब वृथा है । रातें जीवित प्रावना जोति आवना सो सर्व फल एक पूर्वले पुण्य का है। पूर्व पुरुष नाहीं होय तो मरण ही हो है ऐसा जानना और कोई दीर्घ अटवी (वन) में भूलकर आ गया होय तो तहां अनेक सिंह, सुअरादि दुष्ट जीवन बचना तथा चोरादि के भय तैं बचि सुख तैं घर जावना। सो भी पूर्व-पुण्य का ही सहाय जानना और कोई दीर्घ वैरी के दाव में आ जाय, तहां भी पूर्व पुष्य सहाय है। कोई नदी सरोवर के दीर्घ जल में जाय पड़े तो वहां मी पूर्व-पुण्य सहाय जानना। दीर्घ अग्नि बीच में पड़ जाय, तहां भी पूर्व-पुण्य सहाय है। कदाचित् समुद्र जाता जाय पड़े। तो वहां भी पूर्व-पुण्य सहाय है और अनेक भय के स्थान ऐसे भारी पर्वतन के समूह में जा पड़े। तहां पुण्य ही सहायक होय है। सो कैसे हैं पर्वत उत्तुङ्ग शिखरको धेरै बड़ी-बड़ी गुफान करि पोले अत्यन्त भय के उपजावनहारे सिंहादि क्रूर-जीवन करि भरे, ऐसे पर्वतन में बचावनहारा एक पुण्य ही है। जब जीव, निद्रा के उदयतें निद्रा के वशि होय, तब मृत्यु की नाई आशंका उपजै है। बेसुध होय पराक्रम रहित होय है। ऐसी अवस्था में वैरी चोर अग्नि सर्वादिक जीवन बचावनहारा पुण्य ही है। प्रमाद दशा में अनेक कार्य करै है सो अनेक स्थानन में प्रमाद तें चलें है। प्रमाद तें बोलतें, प्रमाद तैं खावतें, प्रमाद मैं भागतें इत्यादिक प्रमाद दशान में पुण्य सहाय करें है। अनेक सङ्कटन में अनेक रोग के सङ्कटन में, वैरी के सङ्कटन में, सिंहादिक जीवन के सङ्कट में अग्रि जलादि अनेक सङ्कटन में पुण्य सहाय करें हैं। जब जीव, हस्ती की असवारी करि भ्रम है तब तथा घोटक असवारी करि भ्रमैं तब इनकी असवारी का निमित्त काल समान भयदाई है । सो इन गज-घोटक की असवारी में, पुण्य ही सहाय है। ऐसे ऊपर कहे जे सर्व स्थान, तिनमें काल का प्रवेश है। ये सब स्थान, दुख के कारण हैं। सो इनमें निर्विघ्र राखनहारा पुण्य हो जानना। तातें विवेकी जीव हैं, तिनकौं भव भव सुख के निमित्त, पुण्य-उपार्जन करना योग्य है। हे भव्यात्मा ! तूं महासङ्कट पाय के, धन भी उपाया चाह है। सो सङ्कट- खेद किये तो धन का उपार्जना दुर्लभ है। तूं सङ्कट सेवन कर के, धर्म का सेवन करें। तो धर्म के प्रसाद हैं, धन होना सुगम है। देखि, कष्ट तैं धन होय, तौ नोच- कुली हिम्मालादि, शोश-भारादिक द्रोवन कार्य बहुत करैं हैं । सो तिनका उदर भी कठिनता तैं भरे है। तातें तूं धन का अर्थी है, तौ तुझे धर्म का हो सेवन
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करना योग्य है। आगे रोती वस्तु काहू के कार्यकारी नहीं, ऐसा बतावे हैंगाथा-सर-बल-गत तरु-छाया, सृत-मण गत धण-दामा पृस्ता-आधाज! ! तन मन सावर, दव प्रम-गत-गरणेष-गप काया।
अर्थ-सर जल गत कहिये, सरोवर तौ नीर रहिन । तरु छाया गत कहिये, वृक्ष छाया रहित । सुत गुण गत | कहिये, पुत्र गुण रहित । धनदारा-गत कहिये, धनदान रहित । पुस्स गंधाऊ कहिये, फूल सुवास रहित । । कण्णा तब गत साधऊ कहिये, दया-भाव रहित साधु । इव धम्म गत पर कहिये, ऐसा हो धर्म-रहित मनुष्य ।
। रोण गय काया कहिये, जैसे—नेत्र रहित शरीर। भावार्थ-सरोवर की शोभा जल है। सरोवर का विस्तार | तो बड़ा होय । पक्की-सुन्दर पारि होय । रोसे सरोवर में जल नहीं होय । तौ जल रहित सरोवर वृथा है और
वृक्ष की शोभा, छाया रौं है । वृक्ष बड़ा होय । दूर से दीखे, ऐसा है । अरु छाया रहित है। तो वृथा है। पुत्र की शोभा सुपत है। सुपत-पुत्र सबकं सुखकारी है और पुत्र तौ है। परन्तु अनेक दोष सहित होय, अविनयी होय, व्यसनी होय, ऐसे अपयशकारी, अवगुण करि सहित होय, गुण-रहित पुत्र होय, तो वह पुत्र वृथा है। धन है, सो दान तें सफल होय है। धन तो बहुत है, किन्तु दान रहित है, तो धन वृथा है और फूल है सो सुगन्ध तैं भला लागै है । फूल दीखने का तो भला है, परन्तु सुगन्ध रहित है । तो वह फूल वृथा है। साधु है सो दया-भाव सहित, महातपस्वी होय, सौ पूज्य है और साध है अरु दयाभाव रहित है। तप भावना रहित, दीन होय । तौ ऐसा साधु वृथा है । शरीर है, सो नेत्रन तें सफल है। जो शरीर तो है, किन्तु नेत्र रहित है। सो काया वृथा है। तैसे ही मनुष्य पर्याय, धर्म तें सफल है और जैसे-ऊपर कहे-सर, जल बिना वृथा है। तरु, छाया रहित वृथा है। इत्यादिक कहे ए वृथा-स्थान तैसे ही धर्म बिना, मनुष्य-पर्याय वृथा जानना । तात विवेकी हैं, तिनको पाई पर्याय कौं, धर्म विर्षे लगाय, सफल करना योग्य है। आगे ये वस्तु पर-उपकार की बनी हैं, सो बताईये है
गाथा-सरता-पय पुख-मंघड़, तरु-साया-फरल ईस-मधुराई। सजण तणधन वाचर, इपर-उवकार कारण सव्वे ॥ २॥ ३२३ अर्थ-सरता पय कहिये, नदी का नीर । पुख-गंधउ कहिये, फूल की सुवास । तरु साया फल कहिये,
|| वृक्ष की छाया व फल। ईस मधुराई कहिये, ईख जो सांठे का मिष्टपना। सज्जरा तरा धरण वाचऊ कहिये,
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सज्जन का तन शरीर धन, वचन । इपर उपकार कारणं सव्वे कहिये, ये कही जो वस्तु सो सब पर उपकार के निमित्त बनी हैं। भावार्थ-नदी का जल, नदी नहीं दी। पपकर निमित, अन्य जीवन के पोधने कौं, सुखी करने को, जल का प्रवाह सहज ही बह्या करें है। फूल की खुशबू, फूल नहीं सूंघें है। परन्तु और जीवन के सुखी करने कूं, फूल खुसबू कौं धारें हैं और वृक्षन की सघन शीतल छाया में, वृक्ष नहीं बैठें हैं। जीवन के सुखी करने के अर्थ, परोपकार कूं, सघन छाया कूं वृक्ष धारें हैं और वृक्ष के मनोहर मिष्ट फल, वृक्ष नहीं खाय हैं । परन्तु पर के उपकार के निमित्त, अन्य जीवन कौं पोषने कूं, सुखी करने कूं, वृक्ष फल धारण करें हैं। ये औरन के पत्थर भी खाय, मिष्ट फल देंय, ऐसे उपकारी हैं। सांठे हैं सो आपनौ मिष्ट रस, आप नहीं भोगें हैं। परन्तु पर के उपकार कूं, पर के पोखने कूं, सुखी करने कूं. रस को धारण करें हैं। ऊपर कही वस्तून के गुण, सो सब पर उपकार के कारण हैं। तैसे ही सज्जन धर्मात्मा दयावान् पुरुष हैं, तिनका शरीर - पुरुषार्थ, पर जीवन की रक्षा कौं पर उपकार के निमित्त बन्या है और जीवन कूं सज्जन नाहीं सतावें हैं और सज्जन पुरुषन का वचन भी पर उपकार के निमित्त है। जैसे--पर- जीव का भला होय पर जीव सुखी होंय ऐसा वचन बोलें हैं और सज्जन का धन पाप-हिंसा में नहीं लागे । जहां अनेक जीवन कूं पुण्य उपजै धर्मात्मा जीवनकूं अनुमोदना करि पुण्य उपजावै तथा अनेक जीवन की जहां रक्षा होय इत्यादिक धर्म स्थानकन में सज्जन का धन लागे। ऐसे ऊपर कहे जे-जे स्थान सो सर्व पर उपकार को बने हैं, ऐसा जानना । ८२ । आगे इन षट् स्थानन में लज्जा नहीं करनी, ऐसा कहिये है
गाथा --- जिण पूजा मुणि दांणउ पसाखाणाय झांण आलोय । गुरुय णिज बघ जंपय वह षड भाणेय लज नहिँ बुद्धा ॥ ८३ ॥ अर्थ – जिरा - पूजा मुरा दांराउ कहिये, जिन-पूजा अरु मुनि दान में पत्ताखाणाय झारा आलोय कहिये, त्याग में, ध्यान में, आलोचना में । गुरुय शिज अघ जंपय कहिये, गुरु थाणेय लज्ज नहिं बुद्धा कहिये, इन षट् स्थानकन में लज्जा नहीं करनी। पूजा का फल नाहीं पाये। तातें अन्तर्यामी सर्वज्ञ वीतराग भगवान की पूजा निशक होय अष्ट-द्रव्य तें करनी ।
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उत्तम फल हो । २ । और यतीश्वर के दान देने विषै लज्जा करें तो दीन के फल का अभाव होय तातें
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समीप अपने दोष कहने में भावार्थ-- जिन-पूजा में लज्जा करे तो
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जगत गुरु, दया-भण्डार नगन तन धारी वीतरागी, समता समुद्र के वासी गुरुनक दान दीजिये, तब निःशंक होय दीजिये । तब उत्कृष्ट पुण्य फल होय। ऐसे मुनीश्वर की कोई मिथ्यादृष्टि भक्ति-भाव त दान देय तो ३२५ ये उत्कृष्ट भोग भूमि में तीन पल्य की आयु सहित तीन कोस के तन सहित उत्तम मनुष्य होय और जो सम्यग्दृष्टि ऐसे गुरुकों दान देय तौ कल्पवासी-देव होय । तातें मुनि के दान में लज्जा नहीं करनी 121 और प्रत्याख्यान जो कोई वस्तु का त्याग करना तथा कोई नियम-आखड़ी करनी होय तो निःशंक होय करिये। सर्व में प्रगट कर दीजै थामैं लज्जा नहीं करिये । लजा करै तो त्याग का अभाव होय तथा कारण पाय नियम । भङ्ग होय । तातें निःशेष होय त्याग प्रम करने में जानहीं करिये और लज्जा सहित ध्यान करे, तो चित्त स्थिरोभत नहीं रहे । फल होन होय तातें निःशंक होय ध्यान करै तौ उत्कृष्ट फल होय । यातें ध्यान में लज्जा नहीं करिये ।। और अपने किये पापन कौं यादि करि आलोचना करते लज्जा नहीं करिये। कदाचित् ऐसा विचारै, जो मैं ऐसा बड़ा आदमी होय अपनी निन्दा कैसे करौं ? तो पाप कटे नाहीं । तातै निःशंक होय अपनो जमानता प्रमाद बुद्धि की बारम्बार आलोचना किये पाप का नाश होय। ऐसा जानि आलोचना करते लज्जा नहीं करनी। ५। और गुरु के पासि जाय अपने दोश प्रकाशिये-कहिये, तो दोष जाय और गुरु पै अपने दोष प्रकाश से लज्जा करे तो दोष नाहीं जाय । जैसे-सवैद्य के पास रोगी अपना रोग प्रकाशते लज्जा करै भय कर तो रोग नहीं जाय अाय दुखी रहै । वैद्य रोग प्रगट करै, तो वैद्य औषध देय सुखी करै । तातै निःशंक होय गुरु पै अपना दोष कहिये, लज्जा नहीं करिये, तौ दोष जाय ६ रीसे कहे ऊपर षट् स्थान, तिनमें लण्णा नाहीं करिये। ऐसा जानना। आगे साहस ते सर्व संकट मिट है, ऐसा कहैं हैंगाथा-रोगे रण संणासे सङ्कट भरणेय माण तब धम्मे। दालदयेजल गहणं साहसे सफलं होय सह धारा ॥४॥
अर्थ-रोग में, रण में, सन्यास समय में, अनेक संकटन में, मरण समय-ध्यान समय तप में, धर्म-सेवन में, | दारिद्रय में, दीर्घ जल के तिरने में-इन सर्व जगह में, साहस तें सब कार्य सफल हो हैं। भावार्थ-पाय-कर्म
के उदय करि आर नाना प्रकार वात, पित्त, ज्वर, कफ, खांसी, स्वासादिक अनेक रोग तिनकरि बधो जो वेदना सो काहू तें मिटती नाहीं। रोये-चिन्ता किए, धर्म खोवना है। सुखदाता नाहीं। तातै विवेकी है ते ऐसा
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। विचार जो मैंने पूर्व पाप-कर्म उपाया है, सो अब विलाप किए कहा होय? कैसे जाय है ? तातै राजी होय मोकौं भी भोगना है । ऐसा साहस विचारै तब सर्व रोग सहज हो जाय । वेदना मन्द होय जाय है । तात रोग-दुःख में साहस । ३२६
चाहिये और युद्ध विष अरि कौं प्रबल जानि संग्राम विषम देखि, करि कायर-भाव करें। कम्पायमान होय, धीरजता तजि भागे। तो लज्जा आवै। युद्ध हारि जाय । कुलकं दाग लागे। तातें रण में साहस चाहिये जाकरि जय होय और काहू धर्मात्मा ने अपना प्राथु-क्रम निकट जानि के इस धर्मो जीव नै पर-भव सुधारने की अनशन का धारण किया होय । खान-पान तजि कुटुम्ब व शरोरते मोह तजि आप तुच्छ परिग्रह कू राखि धर्म-ध्यानरूप तिष्ट या है। किन्तु काय ते आत्मा पुटौं : होय है . हो क्योंदिया निकस है, त्यों-त्यों यह सन्यास धारनहारा ऐसा विचार। जो अब आत्मा तन तैं शीघ्र छुटै तौ मला है। अब मेरा साहस रहता नाहों। इत्यादिक अस्थिरता-भाव विचारै तौ व्रत डिाना परै। तातै व्रत की रक्षा के निमित्त ऐसा विचारै, कि मैंने इस काय का ममत्व त्यागा। धर्म-ध्यानमयी निराकुल होय तिष्ठ हूं। अब यह तन जब जाय तब जावो मेरे कछु खेद नाहों।। रोसा साहस सन्यास में भले फल का दाता है। तातें सन्यास में साहस चाहिये और मरण समय महावेदना में मोह के वशि करि आकुलता करै। तो मरण तो टलता नाही; परन्तु कायरता ते मरण बिगड़ जाय, कुमति होय तातें मरण-समय धीरजता सहित मोह रहित परिणाम करि मरण करै। तो पर-भव सुधरै तातें मरण-समय साहस चाहिये और कम के उदय ते जीव यै अनेक प्रकार संकट आय पड़े हैं। तिनमें धीरजता होय तो बड़ा संकट सुगम मासै। धीरजता बिना दुःख में बड़ा खेद होय । तातै दुःख संकट में साहस चाहिये और ध्यान करते चित्त की एकाग्रता सहित धर्म-ध्यान का विचार करता पुण्य का संचय करै है। ता समय कोई पापी जन आय धर्मध्यान से डिगाया चाहै। ताके निमित्त अनेक कुचेष्टा करै। सो वाके उपसर्ग ते चञ्चल-भाव होय तो धर्म का फल हीन होय। धोरजता राखें तौ पूजा पावै। जैसे—वह सेठ चौदश की रात्रि स्मशान भूमि में प्रोषध सहित ध्यान धरि तिष्ठे था। पीछे दोय देव, धर्म की परीक्षाको पाये तब सम्यग्दृष्टि देव ने कही ये सेठ गृहस्थ है। हमारा धर्मो है सो आज चौदशक उपासा ध्यान रूप है। ताहि डिगावौ तौ जाने। तब इस ज्योतिषो मिथ्यादृष्टि । देव ने सर्व राम्रि अनेक उपसर्ग किये सो नाही डिग्या तब धीरजता देखि देव ने सेठ की पूजा करो। तातें ध्यान
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में साहस चाहिये। अनेक तप करते कबहूँ तन तैं मोह उपज आवै। विषय कषाय की इच्छा होय जावै ' तब तप तैं दीर्घ खेद जानि विमुख चित्त करें। तौ तप का फल नष्ट होय । तातें तप में खेद होयतें तप का लोभी साहस राखें तौ तप का उत्कृष्ट फल होय और अपने सुधर्म का घात करनहारे अनेक पापी जन आपको धर्म तैं चलाया चाहैं । तौ पापी जन के उपद्रव किये में अपना धर्म रतन राखने कूं साहस राखना योग्य । पुण्य के उदय में तो सब कोई धर्म में धीरज राखेँ हैं। परन्तु जब पाप का उदय प्रकट होय है। तब दरिद्रता में धीरज परिणाम राखना, ये महाविवेकी का बल है । तातें दरिद्रता में धीरज साहस योग्य है और जब कोई कर्म के जोग तैं कोई दीर्घ जल में जाय पड़ना होय अरु कोई उपाय नाहीं दीखै। तब एक साहस ही सहाय जानना। ऐसे कहे जै ऊपर अनेक अशुभ कारण हैं, तिनमें साहस ही योग्य है ऐसा जानना । ८४॥ आगे ये तीन स्थान विवेकी जीव के हाँसि के कारण हैं ऐसा दिखावे हैं
गाया - अगय पठत आयाणो, विविधा सिङ्गार काय विधवायो । अग निन्दी खुसचित्तो, ए तोए बाम हासि मग गेयो ||६||
अर्थ - अगय पठत आधारणो कहिये, अजान होय के आगे बोलें। विविधा सिंगार काय विधवायो कहिये, विधवा-स्त्री नाना-श्रृङ्गार शरीर पै करै । जग निन्दो खुसचित्तो कहिये, जगत् निन्दा होय के, सदा खुशी रहे । रातीए थाणेय हाँसि मग गेयो कहिये, रा तीनों स्थान हौं सि के कारण जानना । भावार्थ- आपको जो पाठ आवता नाहीं, सो और कोई पढ़ता होय, ताके आगे-आगे आप बोलें-पढ़े, सी भोला-अज्ञानी जीव, विवेकीन करि निन्दा पायें । सो जीव, हाँसि का स्थान है। यहां प्रश्न जो अज्ञान जीवन का भोलापना देखि विवेकी जीव को बता देना योग्य है । परन्तु हाँसि का करना जोग नाहीं । ताका समाधान --जो अज्ञानी दोय प्रकार के हैं। एक तौ भोला, अजानः सरल परिणामी अज्ञान । सो आपकों ऐसा मार्ने; जो मैं कछु समझता नाहीं । मोकों कोई धर्म का मार्ग बताय, मेरा पर-भव सुधारे, तौ वा पुरुष का उपकार भव भव में नहीं भूलूं। ऐसा धर्मार्थी होय. सो तो मली सीख मानें। रुचि तें अङ्गीकार करै। ऐसे भोले- अज्ञानी जीव की हाँसि तौ विवेकी नाहीं करें। ऐकूं तो बताय तक सुमांर्ग लगाय, ताका भला करें और एक अज्ञानी हठी-मानी होथ है। सो आापक पण्डित मानता - सम्ता अपना महन्तपना औरन को बतावता सन्ता, ऐसा अज्ञानी मान-बुद्धि तैं काहू कूं पूछता
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नाहीं। आपकों बावता नाहीं। पठन कर, तब औरन के आगे-आगे बोले। सो ऐसा मानी-अज्ञानी आप अपने कौ पण्डित मान । ते जीव हाँ सि कुं प्राप्त होय हैं और जिस स्त्री का पति मर गया होय। ऐसी विधवा स्त्री; शरीर में नाना-प्रकार श्रृङ्गार करें। ताम्बल खावना, दर्पण में मुख की शोभा देखनी, शरीरकी वस्त्र पहराय निरखना, अजन-सुरमा नेत्र में अञ्जन करना ऐसी स्त्री निन्दा पावै। स्त्री की शोभा, पति के पीछे थी। सो पति गुराडे, श्रष्टार मार परेको भा और दिखाया चाहै। सो कुशोल दोष-मरिडत-स्त्री, विवेकीन के हॉसि का मार्ग है और जे जीव जगत्-करि निन्द्य होय । सर्व जगत-जन को अप्रिय होय । जग निन्द्य कियाआचार के धारी होंय । जहां जाय, तहां अनादर पावै। रोसा जीव, अपयश की मूर्ति जाकौं लोक-निन्दा का भय नाही, महानिर्लज्ज होय सदैव हर्ष ते फिर, सुखी रहै। ऐसा पाप-निशान मुर्ख जग में हाँ सि का मार्ग है। ऊपर कहे ये तीन जाति के जीव, सो हाँ सि के मार्ग जानना। तातै विवेकी-जन हैं तिनकं जगत-निन्द्य कार्य तजना योग्य है। तात जे अल्प पढ़या होय, ताकौ तौ विशेष-ज्ञानी के पीछे पढ़ना योग्य है और विधवा स्त्री को श्रृङ्गार करना योग्य नाहीं । जगत्-निन्द्य जीव कौं देश-नगर तजि देना तथा लज्जा सहित रहना, ये बात सुखकारी है सो हो करना भला है। प५। आगे ऐसा कहैं हैं जो जनादर तो तिनका गुण है और किनका आदर भी दुख है, सो बताईये हैगाथा-वर सतसंग अपमाणो, हेयो कुसंग जंतु सतकारो । जिम जुर जुत पय हेयो, लंपण, पादेय कटुक भेषजये ॥८६॥
अर्थ-वर सतसंग अपमाणो कहिये, सत्संग में अपमान होय तो गुणकारी है। हेयो कुसंग जन्तु सत्कारो कहिये, कुसंगी जीवन में गये अपना सत्कार भी होय तो भी तजने योग्य है। जिम जुर जुत पय हेयो कहिये, जैसे-ज्वर वारे कं दुग्ध तजना योग्य है। लंघरण पादेय कटक मेषजये कहिये तथा लंधण अरु कटुक औषधि उपादेय है। भावार्थ-सत्संग में सप्तव्यसन के धारी जीव अपमान पार्चे हैं। काहे ते, सो कहिये हैं। जो सत्संग है सो जगत्-गुण करि भरया है। यहां जगत्-निन्द्य औगुण, तिनके धारी औगुणी जीव, तिनका सत्संग में प्रवेश पावता नाहीं। सत्संग में औगुणी-जीव अनादर पावै और कोई सत्संग में आदर चाहै, तो कुसंग के दोष तजा। गुण कौं धारौ, ज्यों सत्संग में जादर पावो और जे प्रोगुणी हैं तिनका आदर, सत्संग में होता नाहीं। ये सत्संग
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धन्य है जो औगुण का प्रवेश नहीं होने देय है। हे भव्य हो! यो सत्संग जो अनादर करे, सो पर के दोष मिटायवे कंकरे है। ता सत्संग का अनादर ही भला। सत्संगोन के काहूत द्वेष नाहों। जो कुसंगी जीव अपना औगुण धांडि देय, तौ वाही का आदर करें। ताते है सुबुद्धि! जो तु अपना भला किया चाहे, तो सत्संग में रह।। सत्संग का अपमान तैरे दोष छुड़ाने कुं है । तातै सत्संगी तेरा अपमान करें हैं। सो तैरे उत्कृष्ट सुख का कारस है। सत्संग के अपमान ते कदाचित मान के योग से बुरा मान्या तौ तेरा पर-भव बिगड़ जायगा। तेरा औगुण नहीं जायगा। तालाना विवेक प्रगट करि यश नाहै है। तौ सत्संग के पुरुष जो तेरा अपमान करें हैं सो परमार्थ के अर्थ जानना ! हे भव्यात्मा! जबलौ तोकं कुसंग का आदर प्रिय लागै है। तबलौं तेरा दोष मिटता नाही अस सत्संग का अपमान भला लागता नाहीं। तात तोकू कुसंग का सत्कार स्नेह-भाव तजना योग्य है। जैसे-ज्वर सहित रोगी कं दुग्ध अच्छा भी लाग है। परन्तु ज्वर के जोगते तजना योग्य है और कट्रक-कड़वी
औषधि तथा लंघन उपादेय गुणकारी है। तैसे ही सत्संग के पुरुष तो में औगुण जानि तोसू स्नेह नहीं करे हैं। वर्तमान काल में तोकू मान बुद्धि के जोग से बुरा भी लागै। परन्तु तू विवेको है। सो कड़वी औषधि की नाई तथा लंघन की नाई सुखकारी जानना और सुनि। हे भव्य ! कुसंग का सत्कार ज्वर के माहि दुग्ध समानि है। सो किञ्चित् सुख देय पीछे दीर्घ दुःख कू करे है । तैसे हो कुसंग के अज्ञानी व्यसनी अपराधी जीव तेरा सत्कार करें हैं । ताका सुख किञ्चित् कौतुक परिणति की खुशी प्रमाण है। पीछे तिनका फल विषम दुखकारी है। जहां कोई सहाथी नाहों, ऐसे नरक के दुख ताहि भोगने पड़े हैं। ऐसा कुसंग का फल पीछे पर-भव मैं लागे है। ताते जैसे--स्याना रोगी दूध तजे तैसे कुसंग तजना योग्य है। ८६ । आगे षट् भेद म्लेच्छता के बतावे हैंगावा--मण तण घर पुर देसा झण्डादि खण्डमलेच्छ भेयाए । नहिं सुआचरण धम्मो सो अणाज्जवल भासियो सुत्त ॥ ७॥
अर्थ-मरा कहिये, मन । तण कहिये, शरीर घर कहिये, मन्दिर।पुर कहिये, नगर। देसा कहिये, देश। खंडादि खंड मलेच्छ भैयाए कहिये, खंड को आदि लैय म्लेच्छताई के षट् भेद जानना। नहिं सु भाचरण धम्मो कहिये, तहां पर शुभ आचरण नाही, शुभ धर्म नाहीं, सो अणाजथल भासियो सुत्त कहिये, सो अनार्य क्षेत्र सूत्र | विर्षे कहा है। भावार्थ-भो भव्य म्लेच्छापने के षट् भेद हैं। सो हो कहिए हैं। सो जहाँ शुम बाचरस नाही
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धर्म की प्रवृत्ति
न होय? तिस स्थान कौं म्लेच्छ कहिए। सो ता स्थान के षट् भेद हैं। मन म्लेच्छ, तन म्लेच्छ, घर म्लेच्छ, पुर म्लेच्छ, देश म्लेच्छ और खंड म्लेच्छए छः भेद हैं। सो ही अर्थ सहित बताइए है, जहाँ जाके मन में शुभ आचार नहीं होय । सुधर्म की जाके मन में प्रवृत्ति नहीं होय । सो मन म्लेच्छ समान है या मन कहिए और का शरीर तं सुआचार अरु धर्म सेवन नहीं बनें। सो तन म्लेच्छ समान है । याका नाम तन म्लेच्छ है और जाके घर में सुश्राचार सहित धर्म नाहीं । सो घर म्लेच्छ समानि है । याका नाम, घर म्लेच्छ है और जा पर विषै सुप्रचार अरु धर्म प्रवृत्ति नहीं होय। सो वह पुर म्लेच्छ के पुर समानि है । याका नाम, पुर म्लेच्छ है और जा देश में शुभ आचार सहित धर्म-प्रवृत्ति नहीं। सो देश म्लेच्छन के देश समान है । याका नाम देश म्लेच्छ है और जा खंड में शुभाचार सहित धर्म नहीं । सो खंड- म्लेच्छ है। ऐसे म्लेच्छपने के षट् भेद कहे। सो इनमें जहां-जहां धर्म-प्रवृत्ति नाहीं, सो म्लेच्छ जानना। इनकों सुधर्म का उपदेश शुभ लागता नाहीं । धर्म में रुचि होती नाहीं । ए कुआचारी, अभक्ष्य भक्षणहारे हैं। सो कुगतिगामी जानना
आगे मूढ़ता के सात भेद बतावें हैं
गाया जाय लोय धम्म मूढ्य मूढो मण काय चयण विवहारो । जयारीय विपरीयों मिच्छाइट्रीय होय सम जीवो ॥ ८८ ॥ अर्थ - जा कहिये, जाति मूढ़। लोय कहिये, लोक मूढ धम्म मूख्य कहिये, धर्म मूढ़। मूढ़ो मरा कहिये, मन मूढ़ | काय कहिये, तन मूढ़ वयण कहिये, वचन मूढ़ । विवहारो कहिये, व्यवहार मुद्र। जथारीय विपरीयो कहिये, इन आदि यथायोग्य विपरीत क्रिया के धारी मिच्छा इट्टीय होय सय जीवो कहिये, ए सब जीव मिथ्यादृष्टि जानना । भावार्थ - मूढ़ता नाम मूरखता का है। जो भली-बुरी के भेद को नहीं जाने। योग्य-अयोग्य खाद्यअखाद्य के भेद रहित हग्राही होय तार्कों मूढ़ कहिए। तहां कोई पाप क्रिया पर-भव दुखकरराहारी कोई जीव करै था । ताक देख काहू धर्मात्मा ने दया भाव करि मनै किया। कही हे भव्य ! ए कार्य पर-भव दुख देनेहारा है। तू ं मति कर दुखी होयगा। ऐसी कही। तार्कों सुनि वह मूढ अज्ञानी कहता मया । भाई! ए क्रिया तो हमारी जाति में करनी कही है। निन्द्य नाहीं। जो बुरी होती तो हमारे बड़े जाति में काहे कौं करते ? तातें जो अपने बड़े आगे सू करते आये जाति में सब करें ताकौं कैसे तजैं ? ऐसा हठी महाढीठ कठोर परिणामी पाय
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क्रिया को नहीं छोड़े। सो जाति-मढ़ कहिए।३। लोक मढ़ताको कहिए जो लौकिक अनेक खोटी पद्धति । अज्ञानता रुप पाय रुप कोध-मान-माया लोभ रूप चोरी.जवा, पर-रची गमनादिक अनेक पाप रुप क्रिया
कोई अज्ञानी जीव करै है। सो ऐसी अयोग्य क्रिया करता देखि कोऊ धर्मात्मा ने प्रार्थना करि मनै किया जो | ३३१ हे माई ! रा कुकारज महादुखदायक लोक-निन्द्य मति करै। तोकू दोऊ भव दुःख करेंगे। ऐसे हित-वचन कहे। तब वह अज्ञान दरिद्री मूर्ख बोलता भया। हे भाई।हम हो इस कारजको नहीं करें। ऐसी क्रिया के करता तौ लोक में बहुत हैं। तुम किस-किसकू मनै करोगे ? संसार में सर्व लोग कर हैं। इस मांति जो अज्ञान लोकन की देखा-देखी खोटा कार्य करें आप ज्ञान अन्ध कछू विचारे नाही, हठग्राही पाप क्रिया करे है। सो लोक-मुढ़ कहिए। २। और धर्म-मूढ़ ताकं कहिए है। जो तहां आगे कोई कुल विर्षे तथा लोक विषं अज्ञानता करि तथा बिना विचार तथा बिना परखै खोटा धर्म हिंसा सहित सेवते आए। ता विषय प्रत्यक्ष जीव हिंसा है। ऐसे मार्ग के उपदेशदाताकौं महाक्रोध-मान-माया-लोभ की तीव्रता है। पंचेन्द्रिय भोगन के पोखनहारे तप संयम रहित देव होय तिनमा गानें। ते जीव भोले धर्म-एटता लेग हैं ! कैसा है वह देव जाको छवि देखें महामय उपजै? ऐसी विकराल मुद्रा का घरो होय। निर्दयी मांसाहारी होय। ऐसे देव कूप्रभु मान पूर्णा देव माने हैं, बड़े क्रोध का धारी जनक शस्चन के धारनहारे बहु परिग्रही भयानक आकार धारे, कर वचन के धारी जाका विनय नहीं करें तो मार महामानी और भोले जीवनसूअपनी सेवा करावनहारा और नय-जुगति देय पराया धन खावनहारा मायावी लोभी अभक्ष्य भोजन के करता तिनकौं गुरु माने। हिंसा किश धर्म का उत्तम फल होय भोग-भोगवे तें पुण्य होय ऐसा कथन जहाँ पाइये ऐसे शास्त्र तें धर्म मानें। रोसे कुदेव, कुधर्म, कुगुरु के सेवनहारे भोले जीव धर्मार्थी धर्म जाति कुमार्ग हिंसा रूप कुआचार रूप प्रवृत्तते भये। ते जीव मोक्ष-मार्ग जानित सन्तै धर्म-फल के लोभी लोकारद धर्म सेवते भये। तिनकौं कोई साँची दृष्टिवाला धर्मात्मा देखि दया करि कहता भया।
भो धमार्थी हो! तुम धर्म के अर्थ पाप का सेवन मति करो। यह जीव-घातक मांसाहारी देव नाहीं है। भगवान् ।। ३३१ ।। का रा चिह्न नाहीं है। परिग्रह धारी शस्त्रधारी कषायी गुरु नाहीं। हिंसामयी धर्म नाहीं। हे भव्य ! तू विचारिक
देखि के देव धर्म गुरु का सेवन करना ज्यों तेरा भला होय। ऐसे धर्मात्मा के वचन सुनि, यह अज्ञानी ज्ञान
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दरिद्रो शुभाशन विचार रहित बिना समम ही हठग्राही रोसा कहता भया। हमारे बड़े बड़े आगे त यही धर्म सेवते आये हैं और हमारे धर्म में ऐसे ही देव धर्म-गुरु होय हैं। आगे ते हमारे कुल में ऐसा ही धर्म सेवते आये हैं, सो हम भी सेवन करें हैं। ऐसा कहि के हठग्राहो कुल धर्म-पाप पंथ नहीं तजै, सो धर्म-मूढ़ता कहिए।३। मन-मूदता ।
३३२ ताकों कहिए, जाका मन सदा ही चञ्चल रहै । थिरी नाही होय। महालोम करि मोहित होय। जाका मन सदेव । ऐसा विचार करें जो मोकों धना धन कैसे मिले ? कोई देवता की सेवा करौं तो मोकों मांगै सो देवे सो अवार के समय ता शीतला प्रत्यक्ष देखिर है ।साको पूजही वन मिल। सो संसा विचार कर धन का लोभी अनेक देवन की पूजा कर तथा ऐसा विचारै जो हमैं पड्या, गिर या माल मिल जाय तो भला है ताके निमित्त धरती के गड़े पाखान उपाड़ि-उपाडि धन देखता फिरै। ऐसी अवस्था सहित र अज्ञानी धर्म-पन्थ का मूल्या प्राणी सदैव मन को मुर्खता नहीं तजै । ऐसे भरम बुद्धि कू कहिए जो तू मन की थिरता राख । कुदेगदिक मति पूजो इससे पाप होयगा । धन मिलेगा नाहीं। तो ताकी सुनि अज्ञानी कहता भया। जो पाप कैसे हो है ? यह देव है, राजो भये धन देना इनके सुगम है। अनेकन को वांच्छित देय है। ऐसा जानि अपने मन विष कुदेव, कुधर्म, कुगुरु इनके प्रजिवै की मुर्खता नाहीं छोड़ें। सदैव मनक आर्त्त-रौद्र रूप राखै, सो मन-मढ़ता कहिए 18 जाकी काय ते शुद्ध देव, धर्म, गुरु की सेवा नाहीं बने। विनय भक्ति तिनको नहीं बनें कुदेवादिक को नमनता याने बहुत करी होय और वाहो तें जाका शरीर महाभयानक होय। नेत्र करता लिए लाल होंय। तन पै भस्मी, शिरपै सिन्दूर की बिन्दी होय और कण्ठ शोश भुजा में अनेक ताबीज होय। अरु हस्त में अनेक लोह ताके चूड़ा होय । ऐसे धर्म ध्यान रहित शान्ति मुद्रा सौम्य भाव रहित होय। महाभयानक विपरीत तन का धारी तामैं धर्म मानता होय । ताकौं कोई कहै, तोकों धर्म का फल चाहिए है तौ शान्ति मुद्रा राखौ। भयानक आकार रहना तजौ। तौ ताक। सुनि मूढ़-आत्मा रौसी कही। जो हम अन्तरङ्ग में तो शान्त हो है। बाह्य लोक दिखावै • अपना-आप छिपाय
रहवैकं बाह्य भयानक स्वांग राखें । रोसो नय-जुगति देव । परन्तु काय की करता नहीं तजै । सो तन-मढ़ता ३२ कहिए तथा शरीर की चाल मदोन्मत्त ईर्या समिति रहित होय और जीव ताकौ देखि भय खाय दुखी होते
होय । बिना प्रयोजन अपने हाथ पांवननै जीवनकौं दुख देता होय। रोसा विकट काय का धारी दया रहित
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मुद्रा का धारी शरीरको उद्धत राखता होय । सो काय-मुढ़ता कहिए । जहाँ जिन-आज्ञा रहित पापकारी पर-जीवनक भयकारी, झोककारी वचन बोलना । अपनी इच्छा प्रमाण स्वेच्छाचारी वचन पापकारी बोलना।। सो वचन-मूढ़ता है। याकौँ कोई कहे तुम ऐसे कषाय वचन मत कहो तथा देवकू गाली, गुरुकू गाली तथा गृहस्थनों गाली. कठिन ऐसे अयोग्य वचन मति कहो। तो वह मुर्ख कहै, हम इसी तरह देव की स्तुति करें हैं । गृहस्थीन को ऐसे ही दबाय देय हैं। ऐसे कहै; परन्तु क्रोधादि-कषाय पोषवे के पापकारी-वचन नहीं तजे। सो वचन-मूढ़ता है। जा वचन तें पराया तन क्षय होय । धन क्षयकारी, मान जयकारी ऐसे बिना विचारे वचन का बोलना जाकै सुनें सर्व सभा-जन दुःख पार्दै सो वचन-मूढ़ता है तथा जा वचनको सुनि सब कुटुम्ब दुस्ख पावे सो कुटुम्ब-विरुद्ध कहिए। ऐसे वचन तथा राज्य-समा विरुद्ध वचन जाके सुनै राज-सभा दुस्स पावै । इत्यादि वचन का बोलना, सो वचन-मूढ़ता है। ६ । व्यवहार-मूढ़ ताकौं कहिये। जहां अयोग्यहिंसाकारी व्यापारकू ऐसा मानना, जो ये किसब हमारे आगे नै चल्या आया है। हमारे बड़े, पोढ़ियों ते यही किसब करते आये हैं। सो बुरा है तो भला है । अरु मला है तो भला है। कुल का किसब कैसे छोड़ें? ऐसा जानि, महाहठग्राही, पापकारी-हिंसामयी किसब नहीं तजें 1 सो व्यवहार-मूढ़ता है।७। रौसी कही जे सात जाति की मूढ़ता, ताकौं अपनी-अपनी हठ बुद्धिकार, यथायोग्य विपरीत भावना सहित धारि, अङ्गीकार करना। ऐसे श्रद्धान का धारण जिनके होय, सो मिथ्यादृष्टि जानना । इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम अन्य के मध्य में जाति-व्यवहारादि का कथन करनेवाला चौबीसा पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥२४॥
आगे हितोपदेश दिखाइये है। तहां मिटयाज्ञान अरु सम्यग्ज्ञान के प्रकाशकौं दृष्टान्त करि दिखाइये है| गाथा-उपल वहणि मिछिणांणो, कय उदोम फुणस्याम उर जायो। हाटक सम सम्पायो,तब वहगी जुइ विमल तण होई ॥९॥
अर्थ-उपल वहणि मिछिराणो कहिये, काष्ठ-छारोको अग्नि समान मिथ्याज्ञान है सो! कय उदीय फुणस्याम उर जायो कहिये, उद्योत करि फेरि श्याम शरीर को धरै है। हाटक सम सम्यगांगो कहिये, सम्यग्ज्ञान स्वर्ग समानि है। तव वहणी जुइ विमल तण होई कहिये, तप रूपी अग्नितें विशेष प्रभा धरै है। भावार्थ-आत्म स्वभाव अरु पर-जड़भाव इनके जुदे-जुदे जानवैकौं, अनुभवन करवैकौं अताव श्रद्धानी मिथ्यादृष्टि का ज्ञान
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असमर्थ समिध्याशा का प्रसमा किचित प्रकाश हायाताके फलते एक भव देवादि के सख पावे। पीछे थी। उस देवादि-भव में भोगामिलापो चित्त होय, आर्त-रौद्र परिणति करि, संक्लेशता के फल ते. एकेन्द्रिय आदि । ३३४ सु। होय, संसार-भ्रमण कर तथा मिथ्यात्व-कर्म के योग ते कदाचित् मनुष्य में उपजै, तो नीच-कुल मैं धनवान
हुकुमवान् होय। राज्य-सम्पदा का धारी, तोव क्रोध-मान-माथा-लोम का धारी, संक्लैशी होय । इत्यादिक सामान्य सुख का धारी होय। पोछे अनेक पाप करि, अनेक हिंसा-दोष उपाय, नरकादि-दुख को प्राप्त होय । ऐसा होय तब मियाज्ञान का प्रकाश, मन्द होय। बहुत-काल मिथ्यात्व का फल रहता नाहीं। जैसे-छारो की अग्नि, प्रथम तौ तेज-प्रकाश कर है। पीछे प्रभा-रहित होय, श्यामता धारि, भस्मी होय । तैसेही मिथ्याज्ञान जानना। ये मिथ्याज्ञान है सो अन्धे के ज्ञान समानि है। जैसे--अन्धा चलें, तब अनुमान से चले। परन्तु यथावत, मार्ग का शुभाशुभ नहीं मासे । तैसे ही मिश्याज्ञान तैं शुद्ध यथार्थ-मार्ग नहीं भासे । यहाँ प्रत्र-जो मिथ्याज्ञानी धर्मात्मा हैं। तिनकं यथावत् पुण्य-पाप का मार्ग नाहीं भास, तौ नौ-नवेयादिक कैसे जांय ? देवादि गति मैं भी जांय हैं सो शुभाशुभ-मार्ग जान बिना जाप का तजन व पुण्य का ग्रहण, तप-संयम-चारित्र का सेवन कैसे संभवै ? ताकों पुरथ-पाप का मार्ग तौ भास है । भले प्रकार मिथ्याज्ञानक अन्धे के ज्ञान समानि कैसे कह्या ? ताका समाधानजो पुण्य-पाप तौ संसार-वन के मार्ग हैं, यथार्थ शुद्ध मोक्ष का मार्ग नाहीं। मिथ्याज्ञान ते मोक्ष-मार्ग नहीं सूझ है। तातै मोक्ष पन्ध के जानवे के अन्ध समानि जानना और सम्यग्ज्ञान है। सो स्वर्ग समानि है। जैसे स्वर्ण कं ज्यों-ज्यों अग्नि पै तपाइए, त्यों-त्यों ताको प्रभा. बढ़वारीको प्राप्त होघ है और कशन शुद्ध होता जाय है । तैसे ही सम्यग्ज्ञान रूप स्वरा है सो ताकी ज्यों-ज्यौं तप रूपी अग्नि कर तपाया जाय, त्यों-त्यों परम विशुद्धता को प्राप्त होय है । सो यह सम्माज्ञान, ज्यों-ज्यों निर्मल होय, त्यों-त्यों बहै। सो बढ़ता-बढ़ता केवलज्ञान पर्यन्त, सम्यग्ज्ञानावधि पूर्ण होय है। सो केवलज्ञान भये, ज्ञान की मर्यादा पूर्ण होय है। सदा रहै है। ये सम्यग्ज्ञान, भये पीछे मिथ्याज्ञान की नाईं जाता नाहीं। सदैव अनन्तकाल ताई रहै है। ये ज्ञान मोक्ष ही करें है। तातै मिथ्याज्ञानी, अङ्ग-पूर्वन कापाठी भी होय, तौ संसार काही कारण है और सम्यग्ज्ञान का अंश भी प्रकट होय, तो बढ़वारी कों प्राप्त होय, केवलज्ञान ही करै है। तातै मिथ्याज्ञान, हेय कह्या है और सम्यग्ज्ञान, उपादेय कया है। ताते
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विवेकी पुरुष हैं तिनक, मिथ्याज्ञान तजि कैं, मोक्ष का करमहारा, सिद्ध पद का देनेहारा, कमन का नाश
करनहारा, रोसा सम्यग्ज्ञान जैसे नारे तैसे प्रापमा घोग्य 7: भाग लिग सुख ते जात्मा तृप्त नहीं श्री। मया, सो ही दिखाइये हैगाथा-हरि हल सुर सग चको, पुण फल सुह भुजेय ण धपे । तब लब सुह पर आदा, धपो कि धम्मसेय सिब कज्जे ॥१०॥
अर्थ-हरि कहिये, नारायण । हल कहिये, बलभद्र। सुर कहिये, देव । खग कहिये, विद्याधर । चक्री कहिये, षटुखण्डी चक्री। पुरा फल सुह मुंजेय स धपे कहिये, पुण्य का फल सुख भोग्या, तो भी नहीं हप्त हुा । तब लव सुह सर आदा कहिये, तो है आत्मा ! मनुष्यन के अल्प सूख तें । धपो किं कहिये, कैसे तृप्त होयगा ? धम्मसेय सिव कज्जे कहिये, तातै धर्म का सेवन मोक्ष के निमित्त करौ । भावार्थ-ये जीव खण्ड का स्वामी सोलह हजार स्त्रीन के सङ्ग भोग-भोगनहारा भया । तहाँ भोगन ते तृप्त नहीं भया तथा हरि कहिए जो देवनाथ इन्द्र सो ताने अनेक देवाङ्गना सहित अनेक वांच्छित भोग भोगे, तो भी तृप्त नहीं भया तथा अनेक देवीन सहित सुख भोगनहारे देवपद के अनेक सुख भोगे: परन्तु तृप्त नहीं मया । अनेक गीत, नृत्य, वादिनादि के अद्भुत लक्ष्मी सहित कौतूहल करि अनुपम भीग में रम्या तहाँ भी ये आत्मा तृप्त नहीं भया तथा और भी देव समानि सम्पदा के धारी ऐसे विद्याधर तिनके सुख भोगनहारे अनेक प्रकार अढ़ाई द्वीप में स्वेच्छा फिरि क्रीड़ा करते दीर्घ सुख भोगे तो भी जात्मा विद्याधरन के सुख तें भी तृप्त नहीं भया और षट् खण्ड का पति छचानवे हजार देवाङ्गना समानि रूप गुण की धरनहारी स्त्री तिन सहित मनवांच्छित देवेन्द्र की नाई सुख समूह दीर्घ-काल ताई नये-नये भोगे तो भी आत्मा तृप्त नहीं मया और भी अनेक मतोल वांच्छित अद्भुत सुख भोगे। संसार में कोई ऐसा सुख नाही बच्या जो आत्मा ने अनेक बार पुण्य के उदय तें न भोग्या सर्व भोग्या । चिरकाल ताई भोगन में ही रजायमान रहा। सो हे भव्यात्मा! तुच्छ पुण्य तुच्छ पुरुषार्थ अल्प स्थिति सहित महाचपल मनुष्य के सुख तिन मैं तू कैसे तृप्त होयगा ? ताते हे निकट संसारी! समता भाव धरि भोगन ते उदास होऊ या मनुष्य पर्याय की अल्प स्थिति और रही है। ता मैं अब सोकं मोक्ष होयेक धर्म का हो साधन करना योग्य है । फेरि ऐसा अवसर कठिन है और हे सूबुद्धि! इन्द्रियन के सुख तौ
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अनेक बार भोगे। तिनकं फेरि भोगने में कहा प्रीति करे है ? और जो नवीन सूख जो कबहूँ नाही भोगे || "होय; ऐसे सूखक भोगवे तो नतीन सुस्त हो । तातै मोक्ष का सुख तैने कबहूँ नहीं भोग्या है। सो याके 4 भीमवैकू धर्म का साधन करना योग्य है । ये हो विवेक का फल है। ऐसा जानना । आगे दीर्घ दुःख नरक
पशन के तिनते नहीं डरचा, तौ तप के तुच्छ दुःखतें कहा डर है ? ऐसा बताएँ हैं| गाथा--असुहं फल गक तिरियो मुंबे, दुह अगेय मूढ आदाए । तो तव लब दुह आदा, कम्पय कि सेय धम्म सिज कज्जे १९५॥
अर्थ-असुहं फल एक तिरियो कहिये, अशुभ के फल नरक-तिर्यश्च गति के। मुंजे दुह भरीय मूढ़ आदारा कहिये, भोले आत्मा ने अनेक दुख भोगै। तो तब लव दुह आदा कहिये, तो तय के अल्प दुचन तें जात्मा। कम्पय किं कहिये, कहा कम्पे क्यों है ? सेय धम्म सिव कज्जे कहिये, मोक्ष होवे कं धर्म का सेवन करि। भावार्थ-भो आत्माराम ! तूने अशुभ के फल करि नरक मैं छेदन-भेदन आदि पञ्च प्रकार दुःख अनेक बार सहे सो कर्म के वश पराधीन होय महादुःखनकू सहज ही भोग लिए और तिर्यश्चन के दुःख अनेक प्रकार। मुख, तृषा, शीत, उष्ण, दंश-मसकादि बहुत वेदना पराधीन पशु काय को भोगी। सी भी सहज भोग ली। सो तहां तु डरचा नाही। तौ हे भोले प्राणी! तप विर्षे नरक-पशु ते अधिक दुःख नाहीं। बहुत ही अल्प दुःख है । तात हे भव्यात्मा! तूतप-दुःख ते मति डर। तप विषं तो स्वाधीन खेद है। सो सुख समान है और पराधीन दुःस्त्र के भोग त विकल्प होय तिन करि तो पाप-बन्ध होय है। तातै परम्पराय आगामी काल में भी दुःस्व फल ही होय है। स्वाधीन तप का खेद सहते परिणामन में सन्तोषी धर्मात्मा के विकल्प नाहों होय है. ताते पुण्य का बन्ध हाय। ताकरि आगामी काल में भी सुख फल होय । तातें नरक-पशून के दुःख तेने पराधीन होय सहे, तहाँ तो डरचा । नाहीं। तौ तिनतें बहुत धोरे तप के खेद ते, तूंमति डरै। समता सहित तप का खेद सह। बङ्गीकार कर। ज्यों तेरे समभावना सूकिर नाना प्रकार तप तिन करि कर्म का नाश होय मोक्ष होय। तातें ताकू धर्म-साधन ही सुचकारी है। ऐसा जानि बारम्बार जिन भाषित धर्म का समता करि सेवना योग्य है। जागे माया कपाय का फल और कषाय से अधिक बताईं हैंमाथामा म पिगोडा मि, साप पायो मामा क मा लामो समय
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अर्थ-मायागभ असुहो कहिये, माया गर्मित जे पाप हैं। रिणगोयदा कहिये, वै निगोद के दाता है। अणि कसाथ एक दायो कहिये और कषाय नरक की दाता हैं। मायाजुत सयल कषायो कहिये, माया ।। सहित सकल जो सर्व कषाय । इक बे ते चवात तण देई कहिये, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय इनके तन देंय । भावार्थ-सर्व कषायन में माया का फल बहुत ही पापकों उपजावै है। जे पीव निगोद में उपजि महादुःसी होय सो माया कषाय का फल है और अन्य जो क्रोध, मान, लोभ-इन कषायन ते नर्क होय है. निगोद नहीं होय और इन तीन ही कषायन में जो माया कषाय आन मिले, तो माया के जोग ते लोभ, मान, लोभ-- इन तीन में राकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौइन्द्रिय होय ऐसे फल कौं उपजावे। तातें सर्व कषायन में माया कषाय दीरथ निखध्य व पापकारी है । तातै विवेकी पुरुषनक पर-भव सुख के निमित्त माथा शीघ्र ही तजना योग्य है । यहां प्रश्न-जो क्रोध, मान, लोभ-इनका फल नरक काटा और माया का फल विकलत्रय आदि निगोद कह्या । सो इनमें अन्तर कहा ? अरु माया कूनिखध्य कह्या । सो दुःन तो नरक में बड़ा दीखे, निगोदिया का दुःख तौ भासता नाहों। तातें जाका फल बहुत दुखकारी होय ताकौं निखध्य कहिये तो दुस्ख तो निगोद मैं अल्य भासे है। अरु नरक में बहुत मासे है। बरु यहां माया कषाय
कौं निखध्य विशेष किया सो काहे कौं ? ताका समाधान-भो भव्यात्मा! तू नै प्रश्न मला किया। अब याका उत्तर तू चित्त देय सुनि। नरक दुःख तौ वाह्य, विशेष-विकराल मासै है। परन्तु पाँचों इन्द्रिय सबूतपूर्ण हैं । अरु इन्द्रिय-ज्ञान सबका खुलासा है। तातें दुःख थोड़ा है। आयकों कोई नारको मारे तब तो दुःख होय है । पोधे आप कोई नारकीकौं मारै तब आप खुशी होय । आप पै दुःसा आए ताकी मैटवे का उपाय करै है। बैरी कू तथा स्नेही जान है। अवधि आदि मति-श्रुत-ज्ञान की प्रबलता पाईये हैं। तातें इस नरक में सुख का निमित्त है। पाँवों इन्द्रियन का क्षयोपशम है । पर के मारवे कूतन का पराक्रम होय है। बड़ा आयु कर्म है। तातें यहां नरक विर्षे जीव अल्प दुःखी है और एकेन्द्रिय के चारि इन्द्रिय नाहीं। कर्म के उदय आया दुःसा ताकू मेटवै की शक्ति नाहीं। महादीन अल्प समय मैं मरण पावै और अल्प शीत के दुकातें मरण पावै। महाअशक्त ज्ञान रहित तातै एकेन्द्रिय महादुका का स्थान है तथा जैसे--कोई चोर को पांव बांधि
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उल्टा टांगि दिया। पीछे च्यारों तरफ से अनेक बांसन, कोड़ा को मार दीजिये, सो महादुःखी है। सो ऐसा दुःख तो नारकीन की है और एक चोर का मुस्न विर्षे वस्त्र भरि ऊपरि तें सूजोकर मुख सों दोजिये। मल-मूत्र के ॥३३०
द्वार सब बन्द कर दीजिये सो महादुःखी भया। पोछे कान मैं वस्त्र भरि सृजी ते सों दिया। कान में वस्त्र भरि द | कान सों दिया। नेत्र सों दिये। प सब तन की बांधि गठिया-सी बनाय कै एक खाल की मसक में डारि
मसक ऊपर तें सों दई, सो गोला-सा बनायके ऊपर दस-बीस मन को एक शिला धर दई। सो अब इसके दुःख का केवलो जाने और कों तो बाह्य दुःख दीखे। परन्तु याके गढ़ दुःख की औरनकौं तो ठीक नाहों। सो ऐसा दुःख निगोद राकेन्द्रिय के जानना। तातै नारकोम के दुःख ते असंख्यात गुणा निगोद राकेन्द्रिय के दुःख जानना। रोसे हो बेन्द्रिय के भी तीन इन्द्रियाँ नाहीं। तातै ताकू भी तथा तेइन्द्रिय के दो इन्द्रियाँ नाहीं। सो भी महादुःस्त्री। चौदृन्द्रिय के राकेन्द्रिय नाहीं। सो भी महादुःखी! रोसे विकलत्रय के महादुःख सो मी नारकीनते असंस्थात गुणा दुःखो है तात इन विकलत्रय जीवन में महापाप के उदय ते आवे है ताकरि महादुःखी जानना। सो ये जीव माया कपाय के जोग तैं इस भवसागर में पड़े हैं। तातै माया हो में दीरघपना जानना । हे भाई! और तीन कषायन के रस तौ जानि लीजिए है। परन्तु माया नाहीं जानी जाय । जो जानिये, ताका उपचार भी कीजिये। जानने में नहीं बावै ताका इलाज कहा बने ? सो क्रोधादि तौ जानिए है और कोई क्रोध करें तो ताका उपचार | यह कि जो कोई क्रोधी मारता आवे ताके पास दोनता पकरि रहै तौमारे नाहों और कोई पापी-मानी आपकों मारने आव तो ताके पासि अपना मान तजि, वाका विनय करें। वाकी स्तुति करें तो मानी मारे नाहीं और कोई लोभी आपको मारै तौ वाकौं बहुत धन देय तौ लोभी मार नाहीं। रीसे कोध-मान-लोभ- इन तीन कषायन का तौ उपचार है। याका उपचार किए शान्त हो जाय । परन्तु यह दगाबाज ऊपर तें नमन करै। मुख देखे दोन वचन बोलें। सेवक होय, पुत्र सम होय। पीछे दाव लगै दगा करै। याका उपचार विवेकीन से भी नहीं बने। तातें महामढ़ है। इस कषाय का फल दीरघ पापकारी है। ता पाप के फल ते जीव, नरकन के दुःख ते बड़ा दुःख | निगोद आदि का पावे है। ऐसा जानि माया कषाय कंतजना तथा इन पापचारी-मायावी जीवन को अपने बलतें।
पहिचान, तिनका संग तजना भला है। ऐसा जानना। आगे धर्म का फल इन्द्रिय-जनित इन्द्रिय-सुख है। यातें
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। नरकादि खोटी गति नहीं होय है। नरक दाता और ही कार्य हैं। सो बतावै हैंगाया- धम्म तरु फल अख गृहयो, सो फल दुगय देय णह कवक । धम्म कालय अत्र कर, कुमय फल देय सोय कीयाय १९३ ।
अर्थ-धम्म तरु फल कहिये, धर्म वृक्ष का फल। अख सुहयो कहिये, इन्द्रियन के सुख सो फल दुगथ देय। राह कबरू बाहिरी, सो फल दर्गतिनाब नहीं देश । म कालय अध करऊ कहिये, धर्म काल में पाप करे तो। कुगय फल देय सोय कोयाय कहिये, सो क्रिया कुगति का फल देय है। भावार्थ-यहां कोई रोसा जानैं कि जो इन्द्रियन का सुख है सो धर्म-धात करके जीवनको दुर्गति करै है । सो हे भाई! तू' चित्त देय सूनि । इन्द्रियन के सुख हैं सो तौ पुण्य का फल है । सो पुण्य फलत देव, इन्द्र, चक्री, काम, देवादिक का सुख है सो हजारों स्त्रीन के संग नाना प्रकार पंचेन्द्रिय मनवांच्छित सुख-भोग भोगते हैं। अनेक रथ, हाथी, घोटक, पैदल आदि अधिक सेन्या सहित, निरखेद मये, अपनी शुभ परिणति का फल ताहि भोगवं हैं। सो ये पुण्य का फल है। सो पुण्य का फल इन्द्रिय सुख है। सोही पुण्य का घात कैसे करें ? जे फल हैं सो अपने वृत्त का नाश नहीं करें। तातें इन्द्रिय सुख धर्म घात करते नाहों। इन्द्रिय सुखन तैं दुर्गति होती नाहीं; ऐसा जानना। यहां प्रश्न—जो जगहजगह शास्त्रन में ऐसा सुनिये है कि जो फलाना राजादि पुरुष, इन्द्रिय-सुख में मगन होय, नरकादिक गये। तहां जे महान-बुद्धि चक्रधर राजा थे, सो जगत् भोगन तै उदास होय, इन्द्रिय-जनित सूख दुर्गतिदाई जानि, सर्व राज्य-भोग सम्पदा तजि, दीक्षा धरते भये ।। तातै इन्द्रिय-जनित सुख पायकारी नहीं होता, तौ काहे कूतजते ? और यहाँ ऐसा कह्या जो इन्द्रिय-सुख धर्म का घात नहीं करै है। इन्द्रिय-सुख ते नरकादि खोटो गति भी नहीं । होय है। सो ये बात कैसे बने ? ताका समाधान---जो हे भव्यात्मा! तेरा प्रश्न प्रमाण है। परन्तु अब चित्त देय सुनि । जो वस्तु जातै उपज है सो ताका नाश नहीं करै । सो देखि, इन्द्रादिक-पद, चक्री-पद है, सो वांच्छित इन्द्रिय-भोग के सुख का सागर है। जो इन्द्रिय-जनित सुख ते दुर्गति होती, ती इन्द्रन को होय तथा देवन कू तथा भोग-भूमियान कूपर-भव दुर्गति होय । तातै ऐसा जानना। जो खोटी गति होय है सो इन्द्रिय सुख का फल नाहीं। जातें इस जीव कू खोटो गति होय है, सो तोकौं बताइये है। जे जीव धर्म-काल विर्षे, धर्म कूलि करि, विषय-कषाय में रायमान होय के, धर्म का घात करें। तिस धर्म-घात के पापते नरकादि खोटो गति
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होय है । तातें नरकादि दुःख, धर्म-घात का फल जानना । तातै विवेकी हैं तिनकू धर्म सेवन के काल में धर्म-घाति करि, पाप-विकल्प में काल गमावना, योग्य नाहीं। तातें धर्मात्मा गृहस्थ हैं सो तिन्हें प्रथम प्रभात धर्म-काल वि.मले प्रकार निर्मल भावना सहित धर्म-कार्य करि, पुण्य का संचय करना योग्य है। पीछे अपने पूर्व-पुण्य का फल इन्द्रियजनित सुख, ताहि भौग्या करौ। ऐसे सदैव धर्म-काल मैं धर्म का सेवन करना और अन्य-काल मैं कर्म-कार्य करना। ऐसे करि पुण्य का संग्रह करें। ताके फल, फेरि भी पर-भव मैं देवादिक के इन्द्रियजनित सुख-भोग पावें है और जै जीव-धर्म को भलि करि, धर्म-काल विर्षे इन्द्रियजनित भोगन में रक्त होय, सुख माने, सो मानौ। परन्तु पूर्वले पुण्य का फल भोगि चुकैगा, तो पीछे धर्म-फल बिना, नरकादि गति होयगी, ताके दुःख • भोगवेगा। जैसे कोई एक भला व्यापारी, अनेक व्यापार करि, अपनी बुद्धि के बल करि, बहुत धन कमाया। सो इसरे दिन सुख तैं भोगवै है । अरु जब दुकान पै कमाई का समय आया, तब अनेक सुख भोगे थे तिनकं तजि. दुकान चै जाय अनेक व्यापार-कला करि धन कमावै। तो दूसरे दिन, सुख से भोग्या करै। ऐसे भीग के काल में भोग-सुख करैः परन्तु अपनी कमाई का समय भावै तब अनेक काम छोडि, पाय कमावे। कमाई का काल नहीं चक। सो तो सदेव कमावे-खावे, सुखी रहै और जे जीव एक बार व्यापार करि धन कमाया। सो धन लेय, नाना प्रकार सुख करता भया। अरु फेरि कमाई का काल आया, तब भी नाच-नृत्य, खान-पान, भोग ही में रत मया धन उड़ाया करचा, कमाई कू नहीं गया। कमाई का काल वृथा गमा दिया और आगे कमाया था, सो धन खाय लिया। सो जीव कमाई बिना रङ्ग होय, भीख मांगेगा, दुःखी होयगा, रौसा जानना तथा कोऊ एक पुरुष के एक बाग है। तामें नाना प्रकार के मेवा होय हैं। अरु महासुन्दर सघन-छाया महाशोभायमान तामैं पांच सौ रुपया साल का मैवा होय, ताहि बैंचि, तामैं कुटुम्ब कौ पाले। ऐसे साल की साल, पांच सौ रुपया का मेवा बैंचि, सुखी रहै। अनेक मेवा पाप भोगवै। बाग को भली रक्षा किया करें। ऐसे बहुत दिन बीत गये। बाग की रक्षा करे दुष्ट पशन ते बचावै। वन कौँ निर्विघ्न राखें। ताके | फलन करि अपने कुटुम्ब का पालन करें। आप आनन्द सू रह्या करें। ऐसे बाग लें, पाकौं देखतें सुन होय ।
सो एक बार काष्ठ काटनहारे पाये, इस बाग बारे को कही। तेरा बाग मौल दे। तब याने पांच सौ रुपया मैं
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बाग बेच्या । सो वह बाग काट के लकड़हारे ले जांय हैं। सो देखो याकी मूर्खता, जो साल की साल पांच सौ रुपया देनेहारे बाग कूं काष्ठ काटनहारे कूं देय है। सी ये रुपैया एक बार के होय जाय हैं। पोछे आप दुःखी होय है। बाग की शोभा जाय है। मिष्ट फल जाये हैं। बाग का नाम जाय है और आप कुटुम्बी सहित दुःखी होय है। ये रुपया बरस एक में खा लेवे है तथा उस वन की रक्षा छाड़ि, कोई विषय कषाय नृत्य-गीतादि में लागि जाय है। सो बाग के बिगड़ने तैं बड़ा दुःखी होय है। एक बार ही नृत्य गीत के सुख हो हैं। परन्तु जिस बाग के पीछे, सर्व कूं रोटो थी। सोच नहीं रहे था, सर्व गीत-नाच अच्छे लागें थे। सो उजाड़ था। तो सर्व कुटुम्बी सहित दुःखी भया । जैसे—- बाग रहे सुखी रहेगा, तैसे हो धर्म रूपी बाग के फलन करि सदैव सुखी रहे है । ऐसे धर्म- बाग की रक्षा कू' भूलि, विषय- कषाय में मगन होय रहेगा, तौ धर्म रूपी बाग के विनाश तैं आप दुःखी होयगा। एक बार का ही विषय सुख होयगा और पहले सदैव बाग की रक्षा करि, पीछे विषय - सुख भोगेगा। तो ताके फल तैं सुखी रहेगा। तातें है भव्य ! तू ऐसा जानि । जो आत्मा कूं नरकादि खोटी गति होय है। सो ये धर्म-धात का फल जानना जे आंव धर्म-काल में धर्म-घाति करि, पाप का सेवन करि, विषय-भोगन में रत होवेगा । सो नरकादि कुगति के दुःख भोगवेगा और जो धर्म-काल में धर्म का सेवन सहित, धर्म की रक्षा करेगा। पोछे अपने विषय भोग भोग्या करेगा। अपने पुण्य प्रमाण मिले जो भोग, सो सन्तोष करि भोगेंगा, तो खोटी गति न होगी। ऐसा जानना और तैंने कही आगे बड़े-बड़े राजा इन्द्रियजनित सुखनकं पापरूप जानि, तिनकू तजि, उदास होय, दिगम्बर होय, दीक्षा धारी। सो है भाई ! सुनि । इन राजाननें दीक्षा धरी । अरु इन्द्रियजनित भोग तजे । सो नरकादिक के भय, दीक्षा नहीं धारी है। नरकादिक के दुःखन का अभाव तौ गृहस्थ अवस्था के धर्म सेवन करि होय। घर ही विषै अपने कुटुम्ब में तिष्ठतें, धर्म का सेवन करि, सुखतें पर्याय छाड़िते, तौ देवादि शुभ गति पावते । परन्तु हे भाई! घर विषै, कर्म का नाश करि मोक्षस्थान चाहे । सो घर में मोक्ष नाहीं होय । तातें भव्यात्मा, जे निकट संसारी हैं तिनने मोक्ष होवे कूं, सर्व कर्म-नाश करि शुद्ध भाव होवे कूं, राग-द्वेष तजी कूं, केवलज्ञान प्रगट करवे कूं, जनम-मरण के दुःख दूरि करवे कूं, सिद्ध पद के ध्रुव सुख पायवे कूं. दीक्षा धारी है। ऐसा भाव जानना । जिन्हें नरकादिक खोटी गति होय है
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सो धर्म को छांडि धर्म-काल में पाप का सेवन करै हैं । ते दुःखी ही होय हैं और धर्मात्मा गृहस्थन कौं इन्द्रिय-सुख भोगते पाप होता नाहीं और मोक्ष सूख, अविनाशी-अतीन्द्रिय-भोग सख, मोक्ष बिना होता नहीं । तात जे मोक्ष-सूख के वच्छिक होय, ते तो दीक्षा ही धारें हैं और जिन भव्यन कं मोक्ष वांच्छा तौ है, पर दीक्षा धरवे क समथं नाही। ऐसे धर्मात्मा गृहस्थ हैं, सो घर ही विर्षे मुनि का दान, जिन देव की पूजा, शाखन का श्रवण-पठन, संयम, शक्ति प्रमाण तप इत्यादिक धर्म का सेवन कर ताके फल देव-पद, भोग ममि फल, चक्री-पद इत्यादिक पावें। सो इन देवादिक पदन में निशदिन अद्भुत इन्द्रियजनित सुख-भोग, आयु पर्यन्त भोगवे हैं। तातें हे भव्यात्या ! इन्द्रियजनित सुख तैं पाप होता, दुर्गति होती तो गृहस्थ-धर्मात्मा का पर-भव कैसे सुधरता ? अरु धर्मो-श्रावक धर्म-रस के स्वादो, घर के सुख कैसे भोगते? तात अनेक नयन करि विचारिये है तौ पाप एक धर्म-घात का नाम है। भोगन में पाप नाहों। तातै विवेकी धर्मात्मा हैं तिनको शक धर्म-काल में धर्म-सेवन ही योग्य है। आगे मुनीश्वरों के मोक्ष कौ कारण, श्रावक का घर है। ऐसा कहै हैंगाथा--जीम सुहचय मोक्सो, मोक्खोत्तयण रयण मुण साहो । मुणगर तण आहारो, भोयण सावय गेह कर होई ॥ ९४ ।।
अर्थ--जोय सुह चय मोक्खो कहिये, जीव सुखकौं चाहै सो सुख मोक्ष विई है। मौक्वोत्तयण रयरा मुरा साहो कहिये, सो मोक्ष रत्नत्रय से होय है अरु रत्नत्रय मुनि-पद ते होय है। मुराणरतरा जाहारो कहिये, मुनि-पद मनुष्य शरीर तें होय है अरु शरीर भोजन तै रहै है। भोयरा सावय गेहकर होई कहिये, सो भोजन श्रावक के घर करि होय है। भावार्थ-ये सर्व च्यारि गति संसारो जीवन की आशा, एक सुख है। सो सुख सर्व चाहैं हैं। अरु आया सुख का वियोग मये, जीव दुःखी होय है। तातें ऐसा जानिये है। कि विनाश रहित अविनाशी सुस कौं जीव चाहैं हैं। सुनतें एक छिनक भी अन्तर नहीं चाहैं हैं, रौसा सर्व जीवन का अभिप्राय है। सो हे भव्य जीव हो! संसार में देव-मनुष्यन के सुख हैं। सो तो विनाशिक हैं। कोई पुण्य जोगते होय हैं। पीछे अपनी स्थिति-मरजाद पूर्ण भये पर्यन्त रहैं हैं। पूर्ण भरा पीछे सुख नाश होय है। सुख नाश भये, बड़ा दुःस्वी होय है। जैसे विद्युत पात, अल्प उद्योत का चमत्कार करि, पीछे अन्धकार करै है। तैसे ही इन्द्रिय-सुख तो तुच्छ-सा चमत्कार, सुख की वासना-सी बताय, पीछे दुःख ही उपजावै है । सातै रैसा विनाशिक सुन्न होने से न होना मला
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। है। यह जीव तौ निरन्तर अविनाशी सुख कू चाहै है। तातं हे सुख के अर्था जीव हो! तुम्हारी बाच्छा प्रमाण | सुख का स्थान सिद्ध पद है। तहां ध्रुव-अविनाशी सुध है। सो सुख, सर्व कर्म के नाश तें पाईये है। तातें तुम
कौ सदैव अविनाशी सुख की अभिलाषा है तो जैसे बने तैसे सर्व कर्मन का नाश करौ, ज्यों मोक्ष होय । सर्व सुख का स्थान मोक्ष है। सो सुख का आश्रय जो मोक्ष है, सो रत्नत्रय के आधीन है । सो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र-ये तीन रत्नत्रय, मोक्ष का आश्रय हैं। रत्नत्रय बिना, मोक्ष नाही और रत्नत्रय हैं सो मुनि-पद के आश्रय हैं। मुनि-पद बिना, रत्नत्रय के होता नाहीं। मुनि-पद है सो नर तन बिना होता नाहीं। तात मुनि-पद का आश्रय, नर का शरीर है। मनुष्य शरीर की स्थिरता, भोजन बिना रहती नाहीं। तात मनुष्य के तन का आश्रय भोजन है और मुनीश्वर का भोजन. धर्मों वावक सआचारी बिना होता नाहीं। तातै जे उत्तम श्रावक के मन्दिर हैं सो ही मुनि के तन का आश्रय जानना । तातें ऐसा जानता। कि जो मोक्ष-मार्ग है, सो श्रावक के घर तिनकै आधीन है। मुनि-पद बिना, मोत नाहों और श्रावक धर्मात्मा के घर बिना, मुनि के शरीर का सहकारी भोजन होता नाहीं । तातें जो शुभ श्रावकम का घर भोजन देने की नहीं होय। तो मुनि का धर्म नाहीं होय। अरु मुनिधर्म नहीं होय, तो मोक्ष-मार्ग भी नहीं सधै । तातै ऐसा जानना, मोक्ष-मार्ग का आश्रय श्रावक का घर ही है। ऐसा
जान धर्मात्मा श्रावकन कुं शुभ प्राचार रूप प्रवर्तना योग्य है। आगे बुद्धि, धन व तन पाये का फल कहै हैं|| गाथा-बुधिकल तत्व विचारइ, तण फल तव तीच माण चारत्तो। पण फल पूजा दाणउ, बच फल परपीय जन्तु रख सत्तो ॥१५॥
अर्थ-बुधिफल तत्व विचारइ कहिये, बुद्धि का फल-तत्वन का विचारना है । तरा फल तव तीथ मारण चारत्तो कहिये, तन का फल-तप, तीर्थ, ध्यान और चारित्र है। धरण फल पूजा दाणउ कहिये, धन का फलदान पुजा है। वच फल परपीय जन्तु रख सत्तो कहिये, वचन का फल-परको प्रिय दयामयी सत्य बोलना है। भावार्थ--जे सुबुद्धि कू पाय, धर्म-मार्ग भलि के विषयन में प्रवृत्ति करि, पाप करि, शीश अशुभ मार लिया। सा तो बुद्धि भई हो निष्फल भई और जिन भव्य जीवन नै बुद्धि पाय करि, तस्वन का विचार करि,
पाप-कर्म का क्षय व पुण्य का सञ्चय करि, मोक्ष होने का उपाय विचार किया। सो ही बुद्धि पाये का || उत्कृष्ट फल है। मनुष्य शरीर पायक अनेक पापकारी स्थानन में प्रवृत्ता, पर पीड़ा करी, पर-धन हरया.
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पर-स्त्री रम्या, पाप स्थानन में तीर्थ जा किया। हालाक्षिक परकार बशुम कर्म का बन्ध किया, सो तो तन पाया जैसा नहीं पाया । शरीर वृधा गया। जो शरीर पाय निहिंसक, आरम्भ रहित, दया|| भाव सहित, अन्तरगतप षट, बाह्य तय षट, ऐसे बारह तप कू करै, सो तन-फल है तथा जहां तें कर्म नाश
कर जतीश्वर मोक्ष गये, सो स्थान शुद्ध तीर्थ है । सो जा शरीर ते तिस स्थान की वन्दना-पूजा करनी, सो शरीर सफल है । जिस शरीर से विकराल भेष धरि, पाप-पाखण्ड धरि, औस्तकं भय उपजाया। सो शरीर वृथा है और जा शरीरत कायोत्सर्ग-मुद्रा तथा पद्मासन-मुद्रा धरि, समता भाव धरि और जीवन कू विश्वास उपजाय सुखी किये। धर्म-ध्यान, शक्क-ध्यान रूप भाव सहित ध्यान किया, सो काय सफल है और पञ्च महाव्रत, पञ्च समिति, तीन गुप्ति-ये तेरह प्रकार चारित्र तथा बारह व्रत जा शरीर ते बन्या होय, सो तन पाया सफल है। जा धन करि पायारम्भ क्रिया करि, पर-भव कं दुःख उपजाया होय, सो धन वृथा है तथा जा धन से अन्य जीवन के मोल लेय मारे होय, जा धन ते पर-जीव बन्दी में किये होंय, पर-स्त्रो सेवन किया होय तथा वेश्या-गमन में दिया होय, नाच कराय, मान कराय इत्यादिक विकार भावन में धन दिया होय सो धन वृथा है तथा द्युत रमने में धन दिया तथा चूत रमने के कारण चौपड़ि, गंजफा, शतरों इन आदि द्युत कार्य के उपकरन तिनकौं बहुत मोल देय लेना बहुत धन देय चाँदी-स्वादि के बनवावना महाअनुरागी सहित धन लगाय चूत की शोभा करनो, सो धन वृथा है। जा धन से मुनि वीतरागकुं दान दिया होय, जिन भगवान की पूजा को होय, सो धन पाया सफल है और मुख पाय, वचन" अनेक जीवन के मान खण्डन किये होय । पर-जीवनकू कटु वचन कहि दुःख उपजाया होय तथा वृथा-बै प्रयोजन वचन अनर्थ दण्ड के उपजावनहारे ऐसे वचन इत्यादिक पाप-बन्ध करनहारा वचन बोलना, सो वचन पाया जैसा नाहीं पाया वृथा वचन है। जिन वचनों कुं अन्य जीव । सुनि साता पावै। जिन वचनों की प्रतीत करि और जीवनकौं स्थिरता होय सुख पावै। ते वचन दया सहित, हिंसा पाप रहित सत्य इत्यादिक जिन देव की आज्ञा-प्रमाण हित मित वचन का बोलना, सो वचन पाया सफल है। ऐसा जानिके विवेकी हैं तिनकौं बुद्धि पाय कैं तो जीवाजोवादिक तत्त्वन का विचार करि बुद्धि सफल करना योग्य है और तन पाय तप तीर्थ ध्यान करि तन सफल करना भला है। धन पाय दान-पूजादि करि पुण्य
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उपजावना अच्छा है। वचन पाय हित मित सत्य बोलना और भी इन आदि सुकार्यन में विर्षे शुभ रूप रह के, भव सफल करना योग्य है। रोसा जानना । आगे ऐते निमित्त, काल-मृत्यु समान जानि तिनमें सावधान रहना। ऐसा बताएँ हैंगाथा-दुठणारो सठ मित्तऊ, गूढ जाणन्त मला जे भत्तो । अहर्षित घर विसपाणो, एसहु णमत्ताय द्वार जम्म गेयो ॥ १६ ॥
अर्थ-दठणारी कहिये, दुष्ट स्त्री। सठ मित्तऊ कहिये, मुर्ख मित्र। मढ़ जायन्त मन्त जे भत्तो कहिये, गढ़ बातकौं जो सेवक जानता होय । अहथित घर कहिये, घर में सर्प का वास। विषपाणो कहिये, विष का भोजन । ए सहु णमत्ताय कहिये, ए सब निमित्त । द्वार जम्म गैयो कहिये, काल समानि जानना। भावार्थ-इस जीव के जब पाप-कर्म का उदय आवै तब ऐसा निमित्त मिले। जो घर विर्षे महादुष्ट स्वभाववाली कलहकारिणी, विनय लज्जारहित तीक्ष्ण-कटुक वचन भाषरणी क्रोधादि कषायन सहित, कामाग्नि जिसके तीव्र होय । इनकं आदि लेकर अनेक अनाचा गौमा रिभरी स्त्री गित : नोमश समान हह सदैव जानना तथा जाप तो महाविवेकी होय नाना नय-जुगति का जाननेहारा होय। चतुर, अनेक कला का धारी धर्म-कर्म कार्य में प्रवीण होय और जिनमें सदैव रहना ऐसे मित्र जो आपके पास निरन्तर रहैं, सो मुर्ख होय। तो आप तो विचार कछु भला-कार्य अरु मुर्ख मित्र ज्ञान हीन वह विचारै निन्द्य-कार्य । अरु समझते नाही, कहिये कछु अरु वह मन्दज्ञानी कर काछ । सो ऐसे मूर्स के निमित्त तै विवेको कौं मरण समान निमित्त है और कोई अपनी गढ़ वार्ता है जो काहूको कहने की नाहीं। उस बात कोई जानै, तो आपकू दुःख होय और राज-पञ्च कदाचित् सुनि पावै तौ दण्ड देय । ऐसी वार्ता गढ़ थी सो पहिले कोई चाकर कं अपना मित्र जानि कही होय। तो वह चाकर मित्र काल पाय जिनका प्रयोजन नहीं सधै, द्वेष रूप होय । तब एही मित्र काल समानि हैं तात विवेकी होय सो स्नेह के वश सेवकको तथा मित्रको अपने घर की छिपी गुढ़ वार्ता नहीं जनावें हैं। जनावें तो कबहंकाल समानि दुःखदाता जानना। जा घर विर्षे सर्प होय ताही घर विर्षे निशदिन रहना होय। तौ क न क मरण होय। तातै विवेकी जा घर मैं सर्प होय तही नहीं रहै और हलाहल विष का खावना। सो मरण का कारण है। इत्यादिक कहे जे खोटे निमित्त, सो कबहू न कबहूं मरण करें। तातं विवेकीन का इतनी जगह सावधानी से जीतव्य जानता। आगे रती
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जगह मुनीश्वर नहीं रहैं। अरु रहें तो अपना संयम नष्ट होय, ऐसा बताई हैंगाथा-जहि मुणि थति यह भूपो, जीरो तण धाण अलप तंह होई । गह धम्मी जण धम्मो, स पुर देसोय तज्जये जोई ॥९७॥ | ३४१
अर्थ-जहिं मुरिंग थति यह भपो कहिः, वहीं मुनिकी नियहि नाही महा १.५.न होयनीरो तग धास अलय तह होई कहिये, जल-घास-अत्र जहाँ थोरा होय। शह पम्मी जण धम्मो कहिये, धर्मो जन अरु धर्म जहाँ नहीं होय। सो पुर देसोय तजरा जोई कहिथे, सो पुर-देश योगोश्वर तजे हैं। भावार्थ-इतनी जगह मुनीश्वर नहीं रहैं । एक तो जा देश मैं तथा पुर में आगे मुनि का वास नहीं होय । जा देश-पुर के वन में मुनि रहते होय, तहां रहैं तथा मुनि स्थिति करने योग्य जो स्थान नहीं होय, तो ता क्षेत्र में योगीश्वर नहीं रहैं । रहैं तो संथम जाय और जा देश-नगर का कोई राजा नहीं होय, तौ ता क्षेत्र में मुनीश्वर नाहीं रहैं। क्योंकि राजा रहित क्षेत्रन में प्रजा दुःखो होय है। जीवन की दशा अन्यायी होय, जीव तहां अनाचारी होंय, निर्दयी होय इत्यादिक अनेक विपरीतता होय । सो यति का धर्म तहां सधै नाहीं। न्याय राज्य बिना दुष्ट प्राणी, दीर्घ शक्ति के धारी होय, सो दीन जीवन कुं पीड़ा देंय । सो दोन जीवनकू दुःख होता देखि. दया-भरडार का हदय कोमल, सो प्रशक्तिमानों का दुःख देखा जाता नाहीं। राजा होय तो हीन-शक्ति के धारी जीवनक, बड़ी शक्ति का धारी पीड़ित नहीं करि सके और कदाचित् दीनकौं शक्तिमान् सतावै-दुःस्व देंय तौ राजा दण्ड देय और राजा नहीं होय तो प्रजा दुःखी होय । सो प्रजा का खेद दया-सागर देखि, दुःखी-चित्त होय। तातें राज्य रहित क्षेत्र विक् यतीश्वर नाहीं रहैं और जिस देश में नदी, सरोवर, कूप, बावड़ीन का नोर कठिनतातं मिलता होय । तहां यतीश्वर का धर्म पल नाहीं। ऐसे क्षेत्र में नाहीं रहैं और जहाँ तिर्यश्चन के तन का आधार जो तिस, सो घास की बाहुल्यता होय तो पश साता पाठे, सुखी रहैं और जहां घास की उत्पत्ति अल्प होय ताकरि घास के खानेहारे तिर्यञ्च पीड़ा पावै। ऐसे क्षेत्रन में करुणासागर नहीं रहैं और जिस क्षेत्र में अन्न की उत्पत्ति थोरो होय, तहां के जीव सदैव अन्न की चिन्ता सहित रहते होंथ । तो ऐसे क्षेत्र में मुनीश्वर का धर्म, निराबाधा नहीं सधै। ताते ऐसे क्षेत्र में दया-भण्डार जगत्-गुरु यतीश्वर नहीं रहैं। जिस देश-पुर विर्षे सुआचारी धर्मात्मा जीव नहीं रहते होय, तो यति के भोजन का अभाव होय । पापाचारी, अभक्ष्य के स्नेहारे।
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दया रहित जीवन करि भरचा ऐसा कुक्षेत्र तहाँ यति का धर्म नहीं सधै । तातें ऐसे धर्मो जीवन रहित क्षेत्र में नहीं रहैं और जहां जिन-धर्म की प्रवृत्ति नहीं होय। जहां जिन चैत्यालय में जैन शास्वाभ्यास नहीं होय । तो ऐसे | कुक्षेत्र में मुनीस्ता नहीं रहैं । इत्यादिक कहे जले माकुलता के कारण खोटे स्थान, तहां जगत् पीर-हर नहीं रहें।
कदाचित् रहैं तो संयम ते नष्ट होय। ऐसा जानना। आगे इन जीवन का विश्वास नहीं करिये, सो बताईये हैगाथा-णख संगा पसु गदियो, विसदंती सस्त्रणग तीय मदपायो। कितषण स्वामी दोहो, गम खस चित्तोय णाहि विसयासो ॥१८॥
अर्थ-राख संगा पसु कहिये, नख सींग के पशु । रादियो कहिये, नदी। विस कहिये, जहर। तथा दन्ती कहिये, दन्तवाले तिर्थञ्च। सस्त्रग कहिये, जाके हाथ में नग्न शस्त्र होय। तीय कहिथे, घर की स्त्री! मदपायो कहिये, दारु का मतवाला। कितघरा कहिये, कृतधी। स्वामी दोहो कहिये, स्वामी द्रोही। गम खल चित्तोय पाहि विसयासो कहिये, गढ़ मन का धारी दुष्ट परिणामो इन सबका विश्वास नाही करिये। भावार्थ-जे जीव नखते पर-जीवन का घात करनहारे ऐसे रीछ, सिंह, श्वान, मार्जार इत्यादिक दुष्ट तिर्य, ऐसे नखी जीवन का । विश्वास करना योग्य नाहीं और जे जीव सींगन तें पर-जीवनकू नारै रोसे भैंसा वृषम मोढ़ा, मृगादिक, ये तीक्ष्ण | सींग के धारी तिर्यों का विश्वास करना योग्य नाहीं और आप बहुत ही बलवान् जल का तैरनेहारा होय तौ भी सावन-भादवा को वर्षान करि चझ्या जो बे-मरजाद जल ऐसी भयानक नदी बहती होय, ताका विश्वास करना योग्य नाहों और महाहलाहल जाके खाये मरणा होय देखे ही प्राण जाय ऐसे विष का, कौतुक मात्र भी विश्वास करि खावना योग्य नाही तथा विष के धरनहारे कर सर्प-विच्छु आदिक विषवाले जीव तिन विषीन का विश्वास नहीं करिये और जे जीव दाँतन तैं पर-जीवन का घात करें कार्ट-मारेरोसे मगर चीता, ल्याली, स्यार और थे सिंह, श्वान दाँत-दाढ़ से भी मारे। तात सिंह, श्वान, सूस, गेंडा, हाथी इत्यादि जे दन्ती हैं। सो इन दन्तो तिर्यञ्चन का विश्वास करना योग्य नाहीं और जाके हस्त में नगन शस्त्र होय। ताका विश्वास नहीं करिये और स्त्री का ज्ञान महाशिथिल होय है। ताका चित्त महाचञ्चल होय । ताके उर विष कोई बात ठहरे नाही || गि विषयन की अभिलाखनी कार्य-अकार्य में नाहीं समझे। इत्यादिक अज्ञान चेष्टा की धरनहारी जो स्त्री पर्याय, । महालोभ की धरनहारो, रोसी स्त्री अपने घर की भी होय तो भी ताका विश्वास नाहीं कीजिये। अरु मदिरा-पाथी
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मद के अमल मैं बेसुध भया । ताकों भले-बुरे का भेद कछु नाहीं। जाका ज्ञान सर्व भ्रममयो होय गया है। जाके
अपनी परिणति अपने वश नाहीं। पराधीन अज्ञान चेष्टा का धारणहारा ऐसा मदोन्मत्त स्वप्न समानि बैसुध ताका || विश्वास नाही करिये और जे जीव परार किरा उपकार कौं भले सो कृतमी कहिए। काह ने मुख के भोजन दिया, नंगे कू वस्त्र दिया। रोग विषै मरत कौं अनेक यतन-जओषधि करि बचाया। तुच्छ पदस्थ ते बड़े पदस्थ का धारी किया, आदर रहित कू आदर सहित किया। निर्धन के धनवान किया। इत्यादिक उपकार जा किये होय तो भी तिन सबकं मलि जो दुर्बद्ध उल्टा द्वेष करें। अरु ऐसा कहै, तुमने कहा किया? हमारे भाग्य तें भया तथा हमारी बुद्धि के योग हम सुखी भरा व हमने पाया है। ऐसे कहनहास पराए किए उपकारन का उगलनहारा कहिए तजनहारा-मुलनहारा ऐसे कृतनी-पापाचारी का विश्वास नहीं करिये । क्योंकि जानें अनेक उपकार किरा तितका ही नहीं मया। तो ऐसा कुबुद्धि जीव और के अल्प उपकार को कहा मानेगा? ऐसा जानि याते डरि कर इस कृतघ्री का विश्वास नहीं करिए और एक स्वामी द्रोही, सो जिस स्वामी के प्रसाद अनेक सुख पार धन पाया छोटे से बड़े होय गए समय पाय उसही स्वामी का द्वेषी होय बुरा चाहे ताकं दुखदाई होय। ऐसे स्वामी द्रोही अपजस की मूर्ति अमृत समानि महालोभी ताका विश्वास नहीं करना भला है और जो अपने चित्त की वार्ता औरन को नहीं जनावै महामढ़ हृदय का धारी। मन में और वचन में और काय में और ऐसी कुटिल परिणति का धारी। तीव्र माथा कषाय के उदय का भोगनहारा, दगाबाज ताका विश्वास नहीं करना । र स्वामी द्रोही है! काहू का मित्र नहीं है। तातें इस स्वामी द्रोही का विश्वास नहीं करना और एक दुष्ट है, सो पराया सुखकू देखि आप दुःखी होय । पर-जीवनकू दुःखी देख आप सुखी होनेहारा, रौद्र परिणामी दुष्ट है। सो ऐसे दुष्ट का विश्वास नहीं करना । यात नली सोंगो नदी विषी दन्ती नगन शस्त्र धारी मदोन्मत्त कृतभी स्वामी द्रोही दुष्ट स्वभावी इन दश जाति के जीवन का विश्वास न करना सुखकारी है। इति श्रीसुदृष्टितरंगिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में अनेक जुगति उपदेश वर्णन करनेवाला पचीसवाँ पर्व सम्पूर्ण भया ॥ २५ ॥
आगे मुस्त्र में मीठा, पीठ ते द्वेष करनहारा ऐसा मित्र, तजव योग्य है। सो दृष्टान्त सहित बतावे हैंगापा-पूल्य काजय हन्ता, पतखो पीय क्यण सिरणावो। सय सठ मागापिंडऊ, जय विसकुम्भोय वदन पय जेहो ॥ १९॥
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अर्थ---पूठय काजय हन्ता कहिये, जो पीछे तो कार्य का घात करें। पतखों पीय वयण सिरणावो कहिये, प्रत्यक्ष मोठा बोले, मस्तक नवावै। सय सठ माया पिंडऊ कहिये, सो मरख दगाबाजी का पिण्ड जानना । जय । विस कुंभीय वदन पय जेहो कहिये, जैसे-मुख पै दुध लग्या विष ते भर या कलश होवै। भावार्थ-जो कोई रोसा दुर्बुद्धि-कुटिल अपना मित्र होय, तो ताकौ पहिचान के तजना भला है। कैसा है वह मित्र? पीठ पीछे तौ अपनी निन्दा करे, हाँसि करे। सदेव रोसा छल देखा करै जाकरि मान खण्ड करै तथा धन नाश करावै। मारने कं, दुःखी करवे कंछल दिसा करें। इत्यादिक दुलारास। अस प्रत्यक्ष मिले तब मह पै हाथ जोडि, बारम्बार बहुत शीश नवाय, विनय करे, मिष्ट वचन बोले, मुख-प्रसन्न करि बातें करे, स्नेह जनावै, सेवक होय रहै। धरती तें हस्त लगाय सलाम करें। पुत्र-सा होय रहै। किन्तु अन्तरङ्ग को दुष्टता नहीं तजै। ऐसे दुष्ट चित्त का धारी पाखरडो, मायावी भित्रकं तजना हो सुखकारी है। कैसा है यह मित्र ? जैसे—विष का भरया कलश होय, ताके ऊपर थोरा दूध भर या होय। सर्व अनजान जोवन कू, सर्व कलश दुध का भरचा भासै। सो कोई याकौं दूध का भरचा जानि, ऊपर के दुध कू खायगा तौ प्राण तजेगा। तातै वह दुध भी जहर समानि है। तात या सर्व ही विष का भरया जानि, तजना भला है । तैसे हो अन्तरङ्ग दोष करि भरचा, मुख मीठा, रोसा मित्र, विष के कलश समानि जानि तजना योग्य है। आगे एती सभा विर्षे विरोध वचन न बोलै। ऐसा बतावै हैंगाथा-धम्मसभा णिप पंचय, जाय लोयाय बन्धुवगणाणी । इणविरुद्ध षच करई, सचर सठ लोयणिद दुहलेहो ॥१०॥
अर्थ-धम्म सभा कहिये, धर्म समा। णिय कहिये, राज्य सभा। पंचम कहिये, पंच सभा। जाय कहिये, जाति सभा। लोयोय कहिये, लोक सभा। बन्धु वगणाणी कहिये, बन्धुवर्गों में। इविरुद्ध वच करई कहिये, इन विरुद्ध वचन का बोलना। सचर सठ कहिये, सो जीव मूरख । लोयनिन्द दूह लेही कहिये, लोक निन्द।
अरु दुःख पावै। भावार्थ-विवेकी हाँथ सो राती जायगा मैं सभा विरुद्ध वचन नहीं बोलें और रोतो समान में || सभा विरोधी बोबै. ताकं मुर्ख कहिये। सो हो बताईए है। एक तो मोक्ष-मार्ग सूचक धर्म तथा धर्म के कारण जिन-धर्म को सेवनहारे धर्मात्मा जीव। तिन धर्मात्मा जोवन की सभा विर्षे सर्व धर्मात्मा जीव धर्म को बढ़ावे कौं, प्रभावना होवे कौं, पुण्य बढ़ावे कू नाना चरचा करते होवें। तिस अवसर में सर्व सभा के धर्मात्मा पुरुषों ने ऐसा
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कह्या, जो यहाँ कछु द्रव्य लगावना तथा तन तें यहां कडू वैद खावना ज्यों पुराप होय। ऐसा प्रबन्ध विचारचा। सो सब कौ परस्पर बम चले कि जो धर्म-वृद्धि कं यह उपाय विचार या है, सो इस प्रबन्ध में सर्व प्राणीन कू ।।
| ३५० रहना योग्य है, सो ऐसा सुनि के कोई कहै, जो हम काहू के प्रबन्ध में नहीं, अपनी इच्छा होय तैसे धर्म साधन करेंगे जाकौं प्रबन्ध में रहना हो सो रहो, हम नहीं हैं। ऐसी धर्मात्मा-सभा के खण्डवे को मद सहित वचन बोले, सो महामूर्ख कहिये। ये धर्म-सभा विरोधी वचन महापाप-फल का दाता, धर्म-घातक वचन है। सो धर्मात्मा विवेको ऐसा नहीं बोलें। धर्मात्मा होय, सो धर्म प्रबन्ध रूप वचन सुनि के, हर्ष सहित सर्व कं ऐसा कहै, जो तुम धन्य हो। भली विचारी। हम जाज्ञा प्रमाण सर्व के वचन प्रबन्ध में शामिल हैं। सर्व नै करो, सो हमकं प्रमाण है। ऐसा वचन सभा में बोलना, उत्तम धर्म फल का दाता, धर्म-समा सुहावता होय है । सो रोसा बोलनहारा प्ररुष प्रसंशा योग्य है और जो पापात्मा होय, सो धर्म-समा विरोधी वचन बोले है, सो ये पाप-बन्ध का कारण है। तातै पाप ते भय खाय, धर्मात्मा धर्म-समा विरोधी वचन नहीं बोलें हैं। । और राजन की सभा विर्षे वचन बोलिये सो सत्य व विनय सहित, अपने-पराए पदस्थ प्रमाण, राजा आदि सर्व सभा क सुहावता वचन बोलना, सो विवेको का धर्म है और कदाचित् राजा के अविनय सहित तथा सभा कू अप्रिय, सभा विरुद्ध वचन बोले, तो मरणादि दुःख कं प्राप्त होय। तात राज्य-समा विरुद्ध वचन नहीं बोलिये। २। और पंचन में जहाँ सर्व पंच भले-मनुष्य न्याति के तथा पर-याति के मिल, मनसूबा तथा न्याय करै हैं तथा कोई प्रबन्ध करते होंय । तहां कोई परस्पर पूछ हैं। भाई हो! सर्व पंचन का यह प्रबन्ध है। सो इस मनसूबे में कायम हो अक नाही? फलाना जी, पंच तुम पे रोसा दोष लगावें हैं। सो ऐसा डण्ड विचारे हैं। सो तुमको कबुल हैं कि नहीं? तब विवेकी पुरुष तौ ऐसा कहै । कि भाई! हम बड़े हैं तथा धनवान हैं तथा राज-पंचन में बड़ा हमारा पदस्थ है तो कहा भया? ये हम कुं दोष है । सो सर्व पंच मिल ठहरावें, सो हमको प्रमाण है। पंचन को आज्ञा हमारे शिर पर है। इत्यादिक पंचन की बड़ाई व अपनी लघुता रूप वचन बलै, सो विवेकी है। सो वचन बोलना, पंचन में प्रशंसा योग्य है। यशदायक है और कोई भोरा, मन्द जान करि, अपयश कर्म के उदय, ऐसा कहै। कि जो । हमको दोष लगायें हैं। ऐसे-ऐसे दोषवाले तो हम पंचन में घने बतावेंगे। हमारे ऊपर कोई दोष लगावैगा तो
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हम भी पश्चन तथा कहनेवाले कू राजी करौगा। सर्व पञ्चन में लाय रौसी विपत्ति डारोंगा, सो सर्व घर-धन से जायगा। एक-दोध की आबरू ले मसँगा। मौकों दोष लगावनहारा तथा दण्ड देनेहारा कौन है ? घनी करोगे
३५१ तो पर अपनी पञ्चायती लेवेंगे। मेरे का पञ्चन तें अटका नाही। इत्यादिक एशन में सभा-विरोध वचन बोले, । सो जोव अपयश की मूर्ति, पञ्चन करि निन्दा पावै है। ताकी महामूर्ख कहिये । तातै पंचन में सभा-विरोध वचन नहीं बोलिये।३। जहां अपनी जाति इकट्ठी होय, कोई जाति का प्रबन्ध बांध्या होय। तहां कोई जाति में प्रवृत्ति नाहों है तथा कोई जाति का खान-पान मने है तथा कोई अभक्ष्य खान-पान मने है तथा कोई रीति का वस्त्रआभषण राखना मना है तथा कोई व्यापार-वणिज, बांकी पाग बांधना, फैटा का बांधना, शस्त्र का बांधना इत्यादिक मलिन-क्रिया खोटा-चलन मन है। सो काहू से कोई एक बात अयोग्य बन गई। ताकौं जाति के सब पंचों ने बुलाय के कही। हे माई! तुमने अज्ञानता करि यह जाति-विरोधी कार्य किया है। सो सर्व जाति तेरे नै दण्ड मांग है। तने पंचन की मर्यादा उल्लङ्घन करी है। तातें ये दण्ड देहु। तब जे विवेकी, जाति मर्यादा का जाननेहारा होय । सो तो जाति के वचन सुनि कैं, आप हस्त जोरि विनति करै। जो अयोग्य आचार मोत बन्या तो सही है। अब जो सर्व जाति की आज्ञा होय, सो ही मोकों प्रमाण है। अब आगै तें ऐसा आचार-क्रिया नहीं करूंगा। ऐसा वचन सर्व जाति कौं सुखदायी बोलना, सो तो यश पावने का कार्य है। कोई मुर्ख होय सो ऐसे कहे, जो हम काह की चोरी थोड़ी हो करी है। जाति दण्ड देय सो जाति कोई राजा धोरी ही है। ऐसी सीख
और कोऊकौं देय तो देय । हम तौ जैसी हमारी इच्छा होयगो तैसा खान-पान, आभूषण-वस्त्र करेंगे। किसका मंह है सो हमको मनैं करेगा ? इत्यादिक जाति-विरोधो वचन बोलना सो मुर्खता है। निन्दा पावै है। तातै जाति सभा में सभा-विरोधी वचन नहीं बोलना। ४ । लौकिक वि मला कार्य प्रगट होय ताकौं निन्दिये नाहीं और लौकिक वि जो कार्य निन्दनीय होय, ताक् अङ्गीकार नहीं करिये सो ताकौ विवेको कहिये। जैसे–चोरी, जुना, पर-स्त्री, व्यभिचार, वैश्यागमन, पर-जीव-घात. मदासादि खाना इत्यादिक सप्तव्यसन कारज थे लौकिक | कर निन्द्य है। सो इनकौ करें अरु रोसा कहै कि जो हमारी इच्छा होथगो सो करेंगे। हमारा कोई कहाणो करेगा? ऐसा वचन कहै ताक मूर्ख कहिये। निन्दा पावै है। तातें लोक-निन्द्य कारज नहीं करिये। ५। अपने
३५. कराचरातारा
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कम्झ, पाता-हिला, पुलगाई.की इत्यादिक सजन स्नेही बन्धुओं के समूहकों सुख उपजावे ऐसा वचन बोले
| ३५२ सो तो विवेकी है और बन्धु-विरोध बोलना जो थे सर्व कुटुम्ब मोर्को हन्या चाहै है। मैं जानूं हूँ मोहि देखि नाहीं सके हैं। मेरे सर्व द्वेषी हैं। सो मेरो दाव लगेगा तो मैं भी सर्व का घात करूँगा तथा मेरे इन कहा अटक्या ? मेरे पास धन होयगा तो आप ही आय मेरे पायन परेंगे। इत्यादिक जिनक सुनि सर्व कुटुम्बक दुःख होय। जिन करि सर्व कुटुम्ब का मान खण्डन होय रोसे कुटुम्ब दुःखदायक वचन बोलना, सो मूर्खता है। तात कुटुम्बविरोधी वचन नहों कहिए। ऐसे धर्म-सभा, राज-सभा, पंच-सभा, जाति-समा, लौकिक-समा, बन्धु-सभा इतने स्थान कहे तिनको दुःखदाई समा विरोध वचन बोलै तौ इस समा विर्षे पंच निन्द्य होय, लोक निन्ध होय, बन्धु वर्ग करि निन्ध होय, ये तीन निन्दा लेय पोछे जीवना वृथा है। ऐसा पुरुष जीवता ही सर्वकं मृतक समान मासै है। ताकरि तो यह भव बिगड़ जाय है और राज-सभा विरुद्ध तें तन का घात, धन का घात होय ऑगीयांग छैदन होय इत्यादिक होय और धर्म-समा विरोध तै पाप-बन्ध होय ताकरि नरकादि दुर्गति के दुःख पावै तातें धर्मात्मा विवेकी दोऊ भव के सुख यश का अभिलाषी होय तिनको रोसा वचन हित-मित सर्वकू हितकारी बोलना। ऐसा जानि विरुद्ध वचन का त्याग करना योग्य है। आगे शास्त्राभ्यास करिकै एते गुण नहीं भये तो वह शास्त्र के अभ्यास का शब्द काक के समान है। ऐसा बतावे हैंमाथा-सुत सुणि पश्रण णयोगा धम्मो णय सांतरसपाणो | तळपयण किंहकाजउ वायसइव घुणि पाणि उयलायो ॥१०॥
अर्थ—सुत सुरिण कहिये, शास्त्र सुनि। पथरा कहिये, पठन करि गयोगा कहिये, नहों वैराग्य । धम्मो !! कहिये, नहीं धर्म। रायसांतरसपाणो कहिये, नहीं शान्ति रस का पान । तऊ पथरा किंह काजउ कहिये, सो पठना किह काज है ? वायस इव कहिये, काक को नाई। धुरिणथाणि कहिये, धुनि करि। उयलायो कहिये, उकलाया। भावार्थ-यह जिनेन्द्र देव करि कह्या जो दयामयी धर्म सहित शास्त्रन का कथन तिनका रहस्य पाय अनेक धर्म धारी जीवन ने अपना कल्याण किया। सो ऐसे शास्त्रन का अभ्यास करके तथा सुनि के भी जाका हृदय वैराग्यकू नहीं प्राप्त भया। तो ऐसे शास्त्र के पढ़ने से तथा सुनिवे ते कहा कार्य सिद्ध भया? और जिन जीवनने दयामयी रस कर भरे ऐसे शास्त्र तिनका अभ्यास करके भी पाप-कार्यन ते भय साय धर्म रूप
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नहीं आचरण किया परिणति विर्षे धर्म की अभिलाषा रूप नहीं भया । तो ऐसे आगम के अभ्यास का खेद । वृथा हो गया और आप समान सर्व षट्कायक जीव हैं ऐसे भेद का बतावनहारा शास्त्र तिनका अभ्यास । करि सुनिक भी सर्व आकुलता रहित शान्त रस करि भर या समता समुद्र ताका अर्थ रूपी अमृतकुं पोय || सन्तोषकुं नहीं पाया । तो ऐसे शास्त्रन के अभ्यास कति पुर. जो. खेद सोही और कनाल भो । विर्षे धरनहारा पर-वस्तु ते खेद-छुड़ाय निर्बन्ध करनहारा ऐसे शास्त्र तिनके अभ्यास करके भी आत्मिक रस पाय निराकुल दशा नहीं करो तो शास्त्रन के अभ्यास का खेद करि किन सिद्ध नहीं भया । भो भव्य ! शास्त्रन का अभ्यास करि नाना प्रकार पठन-पाठन करि अनेक शास्त्र गुरुन के मुख से सुनि तिन करि अक्षर-ज्ञान तो बहत किया, वाचना मले प्रकार सीखा, अनेक छन्द, काव्य, गाथा, संस्कत, प्राकत कर दे भाषा करि उपदेश देना भी सीखा इत्यादिक चतुराई तो तैंने सोखो। किन्तु वैराग्य भाव न बढ़ाया। पाप तज धर्म दयामयी नहीं सुहाया और क्रोध-मानादि कषाय बुझाय शान्ति सुधा रस नहीं पिया तो शास्त्र का पठन-पाठन वृधा हो गया। सम्यादृष्टि के मूल अनुभव का फल स्वभाव-पर-भाव का निर्धार ए सर्व ऊपर कहे जो गुण सो सर्व प्रात्म-कल्याण के कारण हैं । सो शास्त्राभ्यास ते होय हैं । शास्त्रन का अभ्यास करि अनेक जीव मोक्ष-मार्ग जानि समता भाव धरि मोक्षकं पहुंचे हैं। ऐसे शास्त्रन का अभ्यास करि अनेक खेद पाय पठन करि ऊपर कहे गुण ता प्राप्त नाही भया तो सर्व खेद वृथा हो गया । जो शास्त्राभ्यास ते वैराग्य नहीं भया धर्म अच्छा नहीं लाग्या नहीं शान्त भाव मये तो तेरा शास्त्राभ्यास का शब्द ऐसा भया जैसा दीरघ शब्द करि काक उकलावे है । तेसे इन गुण बिना शास्त्र के वाचने का शोर काक शब्दवत् जानना । आगे मरण हू ते अधिक निद्रा को बतायें हैंगाथा-णिदा मात्र समाणो, मीत्रीय मभवान्त होई इकबारणिदो छिण-चिम घादय गाण आदाए देयगय अमहो ॥१०॥ ___ अर्थ-जिंदा मीच समायो कहिये, निद्रा तो मौति समानि है । मीचीय गभवान्त होइ इकवारऊ कहिये, मौत एक भव में एक बार होय। णिन्दो छिण-छिण घादय कहिये. निद्रा चिन-छिन घात करे है। साथ प्रादाय कहिये, इस प्रकार जात्मा के ज्ञानकू घात कर। देय गय असुहो कहिये, अशुभ-गति देय है।
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भावार्थ-यह संसारी जीव तौ मोह के वशीभत भये निद्रा-कर्म के उदय मया जो आत्मा के ज्ञान-दर्शन का धात ताके निमित्त पाय आत्मा जह समानि होयता निद्रा को प्रात भर लीव माता आनन्द भया मान हैं। सो हे भव्य ! र निद्रा मृतक समानि चेष्टा लिए जाननी तथा इसे मृतकहूँ ते अधिक दुःखदायक जानना। सोही बताईये है। जो सत्य है सो तो एक शरीर के उदय वि एक बार बायु के अन्त उदय होय प्रात्मा के दर्शन-ज्ञानकूघाते है और निद्रा है सो आत्मा का मुख्य गुण ज्ञान-दर्शन ताकौं छिन-छिन में घात है और ए निद्रा मले गुण का धाति करि, अशुभ-कर्म का बन्ध करि खोटो गति देय है। तातै निद्राकू मृत्यु तेंहदीरघ दुःख-दाता जानना । ताही ते योगीश्वर निद्रा का प्रवेश अपने स्वभाव में नहीं होने देंय हैं। ऐसा जानना। आगे दुष्ट जीवन का स्वभाव दृष्टान्त देकर बतावे हैंगाथा-दुजण जोंक समभावो इगओयण इग रुपर गह लेई । सथण लगो वा पोसउ गिजणिजपकत्य णाहिको बहई ॥१.३॥
अर्थ-दुजरा कहिये, दुर्जन। जौंक कहिये, जौंका सम भावो कहिये, ए एक से हैं। इग जोयस कहिये, एक तौ औगुण । इग रुधर गह लैई कहिये, एक रुधिर गहलेय। सथण लगो कहिये, धन ते लागे। वा पोषक कहिये, भावं पोषै। रिगज-रािज पकत्य कहिये, निज-निज प्रकृति। शाहिको जहई कहिये, कोई तजता नाहीं। भावार्थ-संसारी जीवन के अनेक स्वभाव होंय हैं तिनमें केतक ऐसे हैं। जो परकौं दुःखदायी दुष्ट स्वभावी पर दुःख सुखिया पर सुख दुःखिया अन्य जीवनकू दुःखी, दरिद्री, रोगी, शोको, भयवान्, मान-भङ्गी इत्यादिक जसाता सहित देख महासुखी होंय कोई सुखिया को अच्छी तरह स्वावता, पहिरता, अच्छे भोग भोगता, नाचता, गावता, हँसता, रोग रहित धनवान् इत्यादिक प्रकार सुखी देख तो दुःखी होय। ऐसे पापाचारी दुष्ट जङ्गी रौद्र परिणामी दुर्जन स्वभावी जानना। सो र दुर्जन स्वभावी अनेक दोषन ते भरचा है। याका सहज स्वभाव ही दुराचार है। याकौं शुभ करवे का कोई उपाय नहीं । याकौ शुभ भी करो तो दोष हो अङ्गीकार करै। इस दुष्ट का स्वभाव जोंक समान है। जौंक अरु दुर्जन इन दोऊन का एक स्वभाव है। दुर्जन अवगुण का हो ग्रहण करे है। यह याका सहज स्वभाव ही है। जौंक है सो लोह का ही ग्रहण करे। इस जौक का भी यही स्वभाव है। देखो इस जोक को दूध के भरे आँचल से लगावो, तो दूध तज के स्तन का लोह पीवै और इस दुर्जनको
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चाहे जेता पोषों, ताके ऊपर चाहे जेता उयकार करौ; परन्तु इसका जब प्रयोजन नाही साध्या तबही सर्व गुण भलि करि औगुण ही अङ्गीकार करें। यह अवगुणग्राही इसका अनादि स्वभाव ही जानना । ऐसे जौंक अरु दुर्जन इनकी प्रकृति स्वभाव है। सो अपने स्वभावकू कोई तजतानाहों। कोई जतनते स्वभाव काहू का पलटता
३५१ नहीं। सो रेजा जानि इहपुजा समय करना मना है। आगे अपने भावन की उपारजनात ही रोग की दीरघता होय है, ताही कों बतावै हैंगाथा कच कच गद विण संखो जे पुब्बो पाय जन्तु तण होई । उदय काल अपठो भोगे ण व्यण और को पायो ॥१०॥
अर्थ-कच-कच कहिये, रोम-रोम । गद विण संशो कहिये, अगणित रोग हैं। पुब्यो पाजेय जन्तुतण होई कहिये, अगले भव के उपारजे, जीव के शरीर में होंय हैं। उदय काल अण्ठो कहिये, उदय आये अनिष्ट है। भोगे ण ठयण और को पायो कहिये, भोगे हो जाय और कोई उपाय नाहीं 1 भावार्थ इन संसारी जीवन के तन विर्षे देखिये, तौ एक-एक बाल के ऊपर अनेक-अनेक रोगन की उत्पत्ति है। रोमरोम, रोगन ते भर या है। सो इस जीव ने पुरव भव में जैसे उपारजे हैं तैसे ही शरीर में रोग हैं। सो तिष्ठे हैं, सत्ता में बैठे हैं। सो वर्तमान काल तौ कोई ही रोग दुखदायी नाहीं। परन्तु जब आबाधा काल पूरस होय उदय जावेंगे, तब महाभयानीक दुःख कू करेंगे। तब अनिष्ट लागेगा। दीरच वेदना प्रगट होयगी। तिनके आगे, भारमा दुःख भोगता-भोगता शिथिल होयगा । अनेक कष्ट उपजेंगे। तिनके दूर करवे कुंकोई की सामथ्र्य नाहीं। मन्त्र, तन्त्र. जन्त्र, देव साधन, ज्योतिष, वैद्यक इत्यादिक सर्व उपाय वृथा होय हैं। तातें पुरव पाप-परिणामन का बन्ध, ताकौं भोगे ही जाय है और कोई मैटने का उपाय नाहीं। रोसा जानि विवेकी धर्मात्मा पुरुषन • उदय आई असाता मैं समता सहित दृढ़ रहना योग्य है। आगे और दुःख मैटने
का तथा रोग के मेटने का तौ उपाय है, परन्तु काल का उपाय नाहीं। ऐसा बताई हैं| गाया-सुवा अण तिषणोरो, आमय कुठादि होउ उवचारो। अन्तकणह उवचारो, हरिसुर कम्पय दीग लख होई ॥१०५||
अर्थ-सुधा अरण कहिये, सुधाकू बन्न । तिषणोरो कहिये, तृषाकू नीर । आमय कुठादि होऊ उपचारो || कहितकोढ़ की प्रादि लेय सब रोगों का भी उपचार है। अन्तक राह उपचारो कहिये, परन्तु काल का
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उपचार नाही । हरिसुर कम्पय दोश लख होई कहिये, इन्द्रदेव भी उसे देख, दोन होय कम्पायमान होय । भावार्थ-इस संसार में अनेक वेदना-दुःख का इलाज है । परन्तु काल का यतन नाहीं। सोही बताइये है। बड़ा रोग भूख है, ताका इलाज तो अन्न का भोजन है। ताकरि क्षुधा रोग उपशान्त हो जाय है और तृषा रोग को ओषषि जल है । सो तृषा, जल तें उपशान्त हो जाय है और कुष्ट रोग, वायु, पित्त, ज्वर, क्षय, खांसी, स्वांस इत्यादिक रोगन के जतन क अनेक ओषधि कही हैं। तिन करि रोग उपशान्त होय है। परन्तु एक काल रोग का उपचार नाहीं। ए काल कोई भी जतन से मिटता नाहीं। इन्द्र, देवादि ऐसे भी, काल का आगमन देखि, कम्पायमान होंय हैं। ताका नाम सुनतें, बड़े-बड़े योधा दीनता कंधारे हैं। ताते हे भव्य ! इस काल तें बड़े-बड़े नहीं बचे, तीन लोक में कोई ऐसा स्थान नाही. जहां काल तें बचे । सर्व स्थानकन में जहाँ जाय, तहां मारे। तातं हे धरमो! तुकाल त बच्या चाहै है तो मोक्ष के पहुँचने का उपाय करि। तात तन का धरनामरना सहज ही मिटै। मोक्ष में काल नाहों और मोक्ष बिना सर्व लोक स्थान में, सर्व संसारी तनधारी जोव, काल
का भोजन है। आगे इष्ट-वियोग कहां है, कहां नाहीं है। ऐसा बतावे हैं• गाथा-इठ व्योगा गठ जोगा, इठजोगा गठ क्योग कव होई । ये भवचर ववहारक, सिद्धो विवरीय रहइ इण संगो ॥१०॥
अर्थ-इठ व्योगा गठ जोगा कहिये, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग। इठ जोगा गठ वयोग कव होई कहिये, कबहुं इष्ट का संयोग, अनिष्ट का वियोग। ए भवचर ववहारऊ कहिये, रा संसारी जीवन का व्यवहार ही है। सिद्धो विवरीय रहई इस संगो कहिये, सिद्ध इन सर्व ते विपरीत-रहित हैं। भावार्थ-जे संसारो तनधारी जीव हैं। तिनकौं कबहुं इष्ट का वियोग, कबहुं अनिष्ट का संयोग होय है। तिन करि आत्मा दुःखी होय, विकल्पआरति करि पाप का ही बन्ध करे है। कबहूँ इष्ट का संयोग होय है, अनिष्ट का वियोग होय है ! तब जीव पुण्य के उदय में हर्ष मान है। सो ऐसा दुःख-सुख संसारी जीवों का व्यवहार हो जानना और ए कहे इट-वियोग, अनिष्ट-संयोगादिक दुःख-सुख सो सिद्धन में नाहीं। सिद्धन कों इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोगादिक के कारण । नाहां। तातै कारण के अभाव ते संसारी सुख-दुःख भी नाहीं। तातै सिद्ध भगवान् सदा सुखी जानना। आगे ॥ काल जागे कोऊ शरस नाही, एक धर्म शरण है। ऐसा बतावे हैं
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गाथा-जम्मण मण जग लगऊ, सुरणरणारय तिरीय किंह भाजय। सहु अंतक मुह कवलय, एको संणाय धम्म अणिणाहो ११०७॥ । अर्थ-जम्मण मण जग लगऊ कहिये, जन्म-मरण जग कौं लागा है। सुर कहिये, देव। पर कहिये, सा मनुष्य । णारय कहिये, नारकी। तिरीय कहिये, तिर्यच । किंह माजय कहिये, कहाँ भागें। सह कहिये, सर्व हो। | अन्तक मुह कवलय कहिये, ए सब अन्त में काल के मुख का ग्रास हैं। एको संगाय धम्म कहिये, एक धर्म
का शरण है । अणिशाहो कहिये, और नाहीं। भावार्थ-शरोर-इन्द्रिय नाम-कर्म के उदय ते नवोन पर्याय का उपजना, सो तो जन्म कहिये और उत्पत्ति भई थी जो पर्याय सो अपनी थी, मर्याद पर्यन्त रही। पोछे आयु के पुरण हो पप ते छुट जयगति गाना नगर कही। इसकी आयु-स्थिति का प्रमाण है। सो समयतें लगाय घड़ो, पहर, दिन, वर्ष, पल्य, सागर सो ही बताये है। तहां जघन्य युगता असंख्यात समय जाय, तब एक आँवली कहिये और असंख्यात ऑवली काल व्यतीत भये, तब एक श्वासोच्छ्वास काल होय है। ऐसे श्वासोच्छवासन ते संसारो जीवन की स्थिति है। सोरा संसारी जीव इस शरीर में इतने श्वासोच्छवास रहेगा। सो काय का आयु-कर्म जानना। सो यह पर्यायधारी संसारी जोय, जब अपनी स्थिति प्रमाण श्वासोच्छवास भोग चुके हैं, तब मरजाद पूर्ण होते, आत्मा पुद्रलोक शरीर के संग कू तजे है। ताका नाम व्यवहार नय करि लौकिक में मरना कहैं हैं। ऐसे रा जन्म-मरण, इन जगवासी तनधारनहारे जीवन कुं सदैव लगा है। नाना प्रकार भोगन के भोगनहारे, अनेक ऋद्धि के धारो, सागरों पर्यन्त जीवनहारे, रोसे जो देव हैं तथा नाना प्रकार दुःख-सुख करि मिश्रित जीवनहारे, जो मनुष्य पर्यायधारी। अनेक मन-अगोचर दीरघ-दुःस्वन का सागर ऐसी नरक गति है। अल्प-सुख, दीरघ-दुःख का स्थान तिर्यश्च गति है। ऐसे चारि गति के जीव समुच्चय अनन्त हैं। सो र जन्म-मरण के दुःख से भाग कर कहां जांय ? सर्व, जायगा काल मार है। तातै ए सर्व च्यारि गति वासो जीवन के तन आकार हैं, सो सर्व काल के ग्रास हैं। भावार्थ-कोई जीव कू अब, कोई कूवारि दिन पीछे,
काल सर्व कं खायगा। बचवे का कोई उपाय नाहीं। केवल एक धर्म शरण है और नाहीं। तातै विवेकी जन ३५७
जन्म-मरण के दुःखन तैं डर-चा होय ते भठ्यात्मा, धर्म का सेवन करि, सिद्ध में चालो। ए पुद्गलोक तन छोड़ि, अमर्तिक पद धारो। तहां सदैव सुखी रहोगे। वहां काल का आगमन नाहीं। यहां के शुद्ध अमूर्तिक आत्मा,
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काल के भय करि रहित हैं। तात जे पारि गति के मरण ते भागि, काल तें बच्या चाही. तो धर्म का शरण लेह बी और शरण नाहीं । आगे अग्नि-भेद तीन प्रकार हैं। सो रा अग्नि काहे-काहे जाले ? ऐसा बता है
गाथा-सोगोणल जे दय, दमय जे आतिझाण वहणीए । उपला अयणी दझय, इव त्रय ज्वालाय काय मण दाहू ॥ १७ ॥ | अर्थ--सोगोणल जे भय कहिये, जै शोक अगनि तें जलें। दमय जे आतिझारा वहसीए कहिये, जे बात
ध्यान रूप अग्नि तै जल्या । उपला अयणी दझय कहिये, जे काष्ठ-छाणे (कंडा-उपला) के अनि तें जला। इव त्रय ज्वालाय काय मण दाहू कहिये, इन तीन अग्नि कर काय-मन जाले है। मावार्थ-शोक अगनि के बहुत भेद हैं। तही असात काम के उदयत इट वस्तु का वियोग भया । ताके निमित्त पाथ, कर्म के उदध करि भई जो मन को भस्म करनहारी शोक रूपी अनि, सो ताकर दग्वायमान जो जीव, सो सदैव चिन्तावान मया, अशुभ-कर्म का बन्ध करता, दुःखी होय । तन दुर्बल होय । ताते इस शोक को अग्नि कहिए । जैसे-अग्रि का दग्ध्या पुरुषकं दुःख के आगे अन्न नहीं भावे, निद्रा नहों आवै। सुख के निमित्त नृत्यादि मिले तो भी दाह के दुःख तें सुखी नहीं होय। तैसे ही शोक- अग्नि करि जाका हृदय जल्या होय, ताकौं शोक ते अन्न नहीं भावे, निद्रा नहीं आवै। अनेक गीत, नृत्य, वादिन्नन के सुख अरुचि होय, सुख न होय। इस शोक के तीव्र उदय में बुद्धि नष्ट होय। उक्तिजुक्ति नहीं उपजे है। भला ज्ञान का अभाव होय । पढ्या ज्ञानादिक यादि नहीं आवै। अनेक रोगन की उत्पत्ति होय । इत्यादिक दुःख, शोक अगनि करि जल्या, ताकै प्रगटें हैं। जाके शोक अनि उर में होय, ताके वाह्य चिह्न
एते होंय, सो कहिरा हैं। चित्त तो ताका विभ्रम रूप, भ्रमता होय। गाल पे हस्त देय के बैठना । अश्रुपात होना। । दीर्घ श्वासोच्छवास लेना। रुदन करना। ए सबही कारण दुःख के बढ़ावनहारे हैं। ताही से विवेको समता
दृष्टि के धारी धर्मात्मा, इष्ट-वियोग में शोक नहीं करें। ए तो शोक-अग्नि है ।। अब जात-ध्यान रूप अग्नि है। सो याकौं, कारण रूपी पवन जब मिले है। तब प्रज्वलित होय, दाह उपजावै है। सो हो कहिए है। जो भलो
वस्तु गई, ताके विचार ते पात-अग्नि बढ़े है तथा खोटो वस्तु के मिलाप की चिन्ता, ताके निमित्त से आत-अग्नि ३५८
बढ़े तथा रोग पीड़ा काहू को देख ऐसा विचार उपज्या, जो मेरे रोग न होय तो भला है तथा मेरो रोग कैसे जाय ? ताकी आत-अग्नि प्रज्वल है और कार्य किए पहिले, आगामी फल की प्रारति । इत्यादिक अनेक प्रकार
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भारति सो ही भई अगनिः सो इस अगनि करि जल्या पुरुषक, बड़ा दुःख होय। सो इस आरति को कैसे | जानिए ? सो कहिरा है। एकान्त बैठना, आरतिवाले कु मनुष्यन की भीड़ अच्छी नाही लागै है। तातै इकला, | राकान्त स्थान में बैठे और की बात नहीं सुहावै। शोर होय-बहुत जन बतलावते होंय, सो नहीं सुहावै। चित्त
उदास रहै। खान-पान की अभिलाषा नहीं होय । भोगन में रक्त-भाव नहीं होय । पुरुषारथ की अति मन्दता होय । आलस भाव शरीर में प्रमाद होय। इत्यादिक र भात-भाव हैं। सो सर्व पाप-बन्ध के कारण हैं। तातें इसे आरति अग्नि का दुःख विशेष है। यह दूसरी आरति-अग्नि है। २। तीसरी छैगा-लकड़ी की अग्नि है। सो इस अग्नि के सर्व सारी जाने और जाने नील दुम रहा है।३। रोसे श तीन अग्नि हैं। तिनमें शोक-अनि अरु आत-अग्नि, इन दोय अग्नि को मोही जीव, ज्ञान की मन्दता से नहीं जान हैं और ए दो अग्नि जो दाह-दुःसा करें हैं । ताकौं भी अज्ञानता की विशेषता से नहीं जानें हैं और जे जिन देव की आज्ञा प्रमाण चलनेहारे, तत्त्व-श्रद्धानी, शुभाशुभ भाव विकल्प के रहस्य जाननेहारे, समदृष्टि जानी है, आत्म-काया न्यारीन्यारी जिनने। तिन मिथ्या परिणतिजारी, सदैव अनुप्रेक्षा के चिन्तनहारे, जगत् दशा तै उदासी, अल्पकाल में जे जीव शिव जासो जे अनुभव रस के भोगी हैं, ते इन दोऊ अग्नि के भेद-भाव जाने हैं। सो काष्ठ-लकड़ी की जो उपल अग्नि है। लो तो ऊपर तें सन कौं जार है और रा दोऊ शोक व आत-अग्नि हैं। सो अन्तरङ्ग में मात्मा के प्रदेश में दाह उपजाय, मन को सदेव दाह करें और काष्ठ आदि की अग्नि का अल्या तो एक भव में दुःख पावै। परन्तु शोक व आर्त्त-अग्नि का जल्या, भव-भव वि दुख पावै। तात जे विवेकी हैं तिन्हें समतारूपी शोतल-जल लेय करि, शोकादि-अग्नि को बुझावना योग्य है। इन दोऊ अग्नि के जले भवान्तर में दुःख पावें। रोसा जानि शोक आरति तजना सुखकारी जानना। आगे विद्यादिक अनेक भले गुण है, तिनको इन्द्रिय-सुख रूपी ठग हैं, सो ठगँ। सो बतावे हैंगाधा-बोधय तव चारत्तो, संजम माणोय साम्य पण्णो । ए सहु गुण जग पूज्यो, अख सुह वंचय तसयरा बुधे ॥१०९॥
अर्थ-बोधय कहिये, ज्ञान । तव कहिये, तप। चारत्तो कहिये, चारित्र। संजम कहिये, संयम। झोणीय | कहिये, ध्यान। साम्म परणो कहिये, शान्त परिणाम । एसहु गुण कहिये, ए सब गुण। जग पूज्यो कहिये,
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जगत् पूज्य हैं। अख सुह बंचय तसयरा बुधे कहिये, इन्द्रिय सुख है सो इनके ठगने को चोर समानि जानि, || पण्डितजन चेतो। भावार्थ-नाना प्रकार शास्त्रन का अभ्यास सो हो भया वांछित सुख का दाता मोक्ष-मार्ग दिखावे कुं दीपक समान चिन्तामणि रतन। सो सहज हो स्वर्गादिक सूख का देनेहारा ऐसा जो विद्याभ्यास, | जगत् पूज्य गुरण ताके ठगवेकौं इन्द्रियजनित सुख की अभिलाषा चोर समानि है। भावार्थ-ऐसे ज्ञान गुण के धारी ज्ञानी भी कदाचित् इन्द्रिय सूखन की भारति मैं आ पड़ें। तो वह आरति धर्म-शास्त्रन का ज्ञान ठग लेघ, लूटि लेय है। तातें जिनदेव भाषित विद्या का माषी शुभाशुभ पन्थ का वेत्ता इन्द्रियजनित सुखन में धर्म छाडि नहीं जाय है और अनेक प्रकार दुर्धर तप के धारी तपस्वी अनेक ऋद्धि संयुक्त औरनक पुरय-सम्पदा के दाता, जगत् पूज्य गुण भण्डार ऐसे तपस्वी मी कदाचित इन्द्रिय-सुखन को लालच करि भोगन की अभिलाषा करें तो तपादिक अनेक गुण सो इन्द्रिय चोर लोट लेंय हैं। तातें जो सांचे तपस्वी वीतराग दशा के धारी हैं, सो इन्द्रियजनित भोग से राग-भाव नहीं करें। अपने तप धन की रक्षा करें। चारित्र जो पञ्च महाव्रत, पञ्च समिति, तीन गुप्ति-रातेरह जाति चारित्र मोक्षरूपो द्वोपकं पहुँचावनेकं जहाज समानि, त्रिभुवन के जीवन करि वन्दनीय । ऐसे चारित्र रतन के ठिगवेकं जो इन्द्रिय-सुखन की भावना है सो लुटेरे समान है। जो ऐसे चारित्र का धारी यतीश्वर भी कदाचित् अपने धर्म त बिछुड़कें भोगन वि आवै तो ताका चारित्र रतन चुराया जाय है । तात जेते चारित्रधारी तपोधनो हैं। ते इन्द्रिय-मोगन ते राग-भाव तर्ज हैं। पंचेन्द्रिय तथा मन का जीतनहारा षट काय जीवन का रक्षक संयमी इन्द्रिय संयमी प्राण संयम का धारी जोगी जगत् वन्दनीय भो भोग विर्षे अभिलाषा करें, तो अपना संघम रतन ठिगावै। तातै जे संयम के लोभी हैं ते अपने गुण की रक्षा के हेतु भोगन की इच्छा नहीं करें और स्वर्गादिक का दाता धर्म्य-ध्यान और शुक्ल-ध्यान करि मोक्ष का अविनाशी सुख पावै। सो रोसे धर्म्यशुक्ल-ध्यान के धारक यतोश्वर भी कबहूँ इन्द्रियजनित सुख के प्रेम में पड़ि जाय तौँ अपना ध्यानधन गमा। सो ध्यानी समता रस का भोगी इन्द्रिय सुख की चाह नहीं करें और सहज सुधारस का स्वादी अनेक तत्त्व विचार के जोर करि कषायन का मद तोड़ करि मोह को निर्बल पाड़ि आप समता सागर में प्रवेश करि निराकुल तिष्ठनेहारा ऐसा यतीश्वर कदाचित इन्द्रिय सुख के द्वार सराग चित्त करि निकस तौ इन्द्रिय चोर ताका समता
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धन छिनाय लेय के भिखारी-सा करि डाले। तातें जे समता रस के स्वादी निराकुल भोग के वच्छिक हैं। ते इन्द्रिय-भोगन के मारा मी चित्तक नहीं चलावै। ऐसे कहे जे ज्ञान, तप, चारित्र, संयम, शुभ-ध्यान, सम-भाव रा सर्व गुण जगत् पूज्य हैं। सो इन गुण रतन ठगवेक इन्द्रिय-सुख चोर रूप हैं। तातें जो अपने धर्म गुण को बचायवे को चाहि होय तौ इन्द्रिय-मोगकू धर्म के काल में नहीं सेवना योग्य है। आगे इष्ट-वियोग के दोय भेद हैं, सो बतावे हैं। गाया-जुगभे यंठ वियोगो, इकासो इम होय णय आसो । मिति खय विणासउ, आसय जे भिण गमण उ अण ठणय ॥११॥
अर्थ-जुगमे यंठ वियोगो कहिये, इष्ट-वियोग के दीय भेद हैं। इकासो कहिये, एक बाशा सहिता इंग होय गय आसो कहिये, एक बिन आशा थिति खय कहिये, स्थिति के क्षय भए । विणासउ कहिये, सो बिन आशा। आसय जे कहिये, आस सहित जो। भिगमरा उ अरण ठराय कहिये, और स्थान जानेकुं भिन्न होय गमन करें। भावार्थ-संसार विर्षे इष्ट वस्तु चेतन-अचेतन इनका वियोग होय है। ताके दोय भेद हैं। सो हो कहिए हैं। चेतन इष्ट जे माता-पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, हाथी, घोटकादिक चेतन पदार्थ। इनके वियोग के दीय भेद हैं। एक तौ आशा सहित वियोग है और एक आशा रहित वियोग है। तहां जिस चेतन पदार्थ की आयुस्थिति पूरण होय करि जो आत्म पर्याय छोड़ि परलोक को गया सो अब यात वियोग भया सो अब फेरि मिलने की आशा नाहीं। ए तो आशा रहित वियोग है और कोई अपना इष्ट एक स्थान से भिन्न होय बिदा मांगि परदेशगमन किया सो र आशा सहित वियोग है। यातें मिलने की आशा है। ऐसे वियोग के दोय मेद हैं। सो मोह सहित जीवन के आशा सहित वियोग में तो अल्प दुःख होय है और आशा रहित वियोग में बड़ा दुःख होय है और अचेतन पदार्थ, रतन आभूषण, वस्त्र मन्दिरादिक काहू को मांगे दिख होय तथा कर्ज के निमित्त काहू को धन दिया होय। इत्यादिक बातन करि धन का वियोग होय सो आशा सहित वियोग है। या धन के आवे की अभिलाषा है ताकी अल्प चिन्ता है और जो धन अचेतन वस्तु चोरी गई होय, अग्नि में जली होय। काह गिरासियादि जोरावर ने खोसि लई होय इत्यादिक स्थान मैं गई ताके आवे की आशा नाहीं। सो निराशा वियोग है। याका विशेष दुःख होय है। रोसो जगत् जीवन की रोति है और जे विवेकी सम्यग्दृष्टि पुरय-प्राप
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दशा के जाननहारे हैं। तिनकै दोऊ हो दशा के वियोग में दुःख नाहों है। सदैव समता-रस का भोगनहारा धर्मात्मा, सो भले प्रकार जान है कि जो इष्ट अरु अनिष्ट दोऊ हो वस्तु विनाशिक हैं, कर्म के आधीन हैं। अपनी | स्थिति के प्रमाण रहैं हैं। जो मली वस्तु अपने पुण्य के उदय मिलै सो भी अपनी स्थिति प्रमाण रस देय विनश जाय है। स्थिति पूरी भए देव इन्द्र की राखी भी नहीं रहै और अनिष्ट वस्तु का मिलाप पाप के उदय ते होय । सो एकाह की घेरो जाती नाहीं अपनी स्थिति पुरण किए जाय। सो जे भोले मोहो पर-वस्तु को अपनी करि दृढ़ राखनेर गोव हौवे दियोग में हासो होय है और सांची दृष्टि के धारी परकों पर जाननहारे तिनकौं खेद-भाव नाही होय। आगे जैसी परिणति विषय कषाय में सांची होय लागै है, तैसे ही धर्म विषय लागै तौ कहा फल होय ? सो बतावे हैं-- गाथा-जे मण विसय फसायो, जेहो लगाय धम्म कैजाए । तउ लव काल णरंजण, इंदो अहमिन्द सयल मगलाहो ॥११॥
अर्थ-जे मण विसय कसायो कहिये, जे मन विषय-कषाय में लगै। जेहो लगाय धम्मकजाए कहिये, तैसे धरम कारज मैं लगावै । तउ लव काल शरण कहिये, तौ थोरे हो काल में निरजन होय । इन्दो अहमिन्द सयल मगलाहो कहिये, इन्द्र अरु अहमिन्द्र सम्पूर्ण के सुख सहज हो राह में प्राप्त होय। भावार्थ-जीवन की संसार विर्षे अनेक परिणति है। सो अनादि काल का भल्या ये जीव, धर्म के स्वाद कू नहीं जाने। अनन्तकाल का विषय-कषाय मोहित जीव, गति-गति में भ्रमणनेहारा प्राणी, इन्द्रिय-सुख कं बहुत चाहै है। परन्तु जगवासी जीव का चित्त, जैसे—विषय-कषाय में रायमान होय, एकाग्र लाग है। तैसा ही यदि धर्म विर्षे एकचित्त होय लागे, तो अल्पकाल में ही सिद्ध-निरञ्जन-पद पावै। तहां अनन्तकाल सुखी रहै और इन्द्र-पद, अहमिन्द्र-पद जो नव-वेधक, नव-अनुत्तर, पञ्च-पश्चोत्तर-इन कल्पातीत देवन के सुख तौ सहज ही राह में आय. प्राप्त होय हैं। तात विवेकी जीवन को विषय-कषाय तजि धर्म विर्षे लागना योग्य है। आगे रोसा कहैं हैं जो कृपण अपने तन को ठग है| गाथा-किप्पण णिज तण वंचय वंचम सुमपणण जणकतीए मित्तोय | तण दे तण ण दाणो,घम्म रहीयो मित्य काय सम जीयो।११२
अर्थ-किप्पण शिज तण वश्चय कहिये, सूम अपने शरीर को ठग है। वंचय सुयपणस कहिये, अपनी
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जननी को ठगे। जगक कहिये, पिता । तीए कहिये, स्त्री । मित्तो कहिये, मित्र । इनकौं ठगे है। तपदे तराराह दाणो कहिये, तन देय परन्तु तृण का दान नहीं देय। धम्म रहयो मित्य काय सम जीवो कहिये, धर्म करि रहित जीव मृतक के शरीर समानि है। भावार्थ- जे जीव महाकृपण मन के धारी सूम हैं। सो अपने तन कौं आदिले सर्व कुटुम्ब कौं ठगे हैं। सो ही बताइये है। अपने तन निमित्त अल्प-भोजन रस-रहित खाय, पेट में भूखा रहे । लोभी उदर-भर भोजन नहीं करै, भूख सहै । शोत-काल में तनपे मोटा वस्त्र सो भी अल्प, साता तै सम्पूर्ण तन नहीं कैश की वेदना सहै। घास लकड़ी जला कर तातैं तन तपाय, शीत-काल पूर्ण करै, बहुत कष्ट सह दिन बितावें । दाम-दाम जोड़ि साता मानै । ऐसे तन कूं कष्ट देय। जा तन तें भार बहि-बहिं, मजूरी कराय धन कमाया, ताही तन को नहीं पोषै। पेट भर भोजन नहीं देय। ऐसा लोभी अपने तन कूं ठगनेहारा कहिये और पुत्र है सो भूख का मर या रुदन करें। और के बालक अच्छा खाय-पहरै, तिनकौ देखि यार्क पुत्र यापै अच्छा खान-पान नौगे-तरसे, परन्तु एलोमी दया रहित भोजन नहीं देय, तब पट- भूषस कहां से पावें । ऐसे
सूम, पुत्र कूं ठगनेहारा कहिए और या सूम की माता ने नव मास पेट में राखा था। ऐसी माता, पुत्र वै मला भोजन-वस्त्र माँगें । कहै है पुत्र ! अपने घर में धन अटूट है । अरु तूं हम कौं पेट भर अन्न भी नहीं देय। सो हे पुत्र ! हम ऐसा किसकूं कहें ? हमको भूख रहे है, शीत वेदना रहे है, अग्नि तैं ताप, दिन-रात काटै, सो तोहि दया नाहीं आवें है ? ऐसे वचन माता के सुनि के सूम अगल-बगल हो जाय । सुनि-अनसुनी करै । परन्तु दाम एक भी नहीं देय । सो माता का ठगनहारा कहिए और इस सूम का पिता, सो ताने बड़े-बड़े कष्ट सहकें, द्वीप सागरन उद्यान -नगर-देशन में गमन करिकरि अनेक भूख-प्यास सह कै, पापारम्भ ठानि अनेक द्रव्य उपाय। जब जानी कि मेरो पुत्र नाहीं, सो धन घर सोहता नाहीं । तब पुत्र बिना, धन-सम्पदा वृथा जानता भया । तब पुत्र के निमित्त अनेक कुदेव-कुमेष पूजे। अनेक मन्त्र तन्त्र, यन्त्र, करि करि पापारम्भ बांध्या । और-और व्याह किये। अनेक स्त्री परन्या । तब कोई कर्म जोग तैं एक पुत्र भया। तब पिता बहुत सुख किया । याच किन कूं मन वांच्छित दान दिये । पुत्र जन्म का बड़ा उत्सव किया। पीछे अनेक भले-भोजन लाय पुत्र के दिया। अनेक पट- भूषण देय, लाड़िला राखा । ऐसे जतन करि बढ़ाया तरुण किया। आप
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केतक दिन में वृद्ध भया । तन की शक्ति घटी। पुत्र बालक था सो तरुण भया। तब पुन का व्याह करि घर का धनी करन्था। सर्व घर का धन धान्य पुत्र ने पाया। अब पिता का तन, दोन भया। इन्द्रिय बल घट्या । तब पुत्र पैं भला भोजन माँग, सो नहीं देय । वस्त्र मांग, नहीं देय। देय तो तुच्छ देय या बहकाय देय । सो अपयश की मूर्ति, लोभी पुत्र, पिता का ठगनेहारा कहिये और अपनी स्त्री, भला भोजन-वस्त्र
आभूषण मांगे। कहै हे पति ! औरन के घोसी देख.. पाय-यहरे है. अनारे पर में बड़ा | धन है अरू हमारा यह हवाल है। जो अन्न, तन की तो देय। ऐसे दीन वचन स्त्री कहै । परन्तु यह लोभी
स्त्री कुंभो न देय । सो स्त्री का ठगनेहारा कहिये और अपने मित्रन की मजलिस में जाय, सो उनका धन तो आय खाय आवै। अरु अपना धन मित्रन के नहीं खुवावै । सो मित्रन का ठगनेहारा कहिये। ऐसा कृपरा, अशुभ परिणति का धारी, दया-भाव रहित है। र कठिन उर का धारी सूम, सी मरें, अपना तन का घात करै, परन्तु दान के निमित्त घास का तिनका नहीं देय । ऐसा सूम, निर्लज, दुर्भागी. निन्दा का पात्र, धर्म भावना रहित, जीवित ही मृतक समानि जानना। भावार्थ-रोसे इस जीव का जीवना वृथा है। रा सूम जैसा जीया तैसा न जीया। आगे भिक्षुक है सो मांगने के मिस करि, मानू घर-घर उपदेश ही देय है। ऐसा बताइये हैमाथा-भिक्षफ पय-षय बोधय, भो सत्त पुंसाह देह धण दाणं । विण दीए मम जोबो, सहवण वार-बार जाती ॥१३॥ ____ अर्थ-भिक्षक घय-घय वोधय कहिये, मँगता घर-घर उपदेश देय है। सौ सतपंसाह कहिये, मो सत्पुरुष हो ! देश धन दाणं कहिये, धन को दान में देओ। विश दोरा मम जोवो कहिये, बिना दिये मोकों देखो। लहुवण कहिये, मैं तनक-सा होय । वार-वार कहिये, घड़ी-घड़ी। जाचन्ती कहिये, मांगों है। भावार्थ-ग रङ्क जो भिक्षा मांगनहारे-मंगता, घर-घर विर्षे भख के मारे याचते फिरें हैं। सो आचार्य कहैं हैं। ए रक्त पाप जाँचें नाहीं हैं। मानू कृपणा, कठोर चित्त के धारी, दया रहित जीवन कू अपनी दशा दिखाय, उपदेश ही देय हैं। तिनके निमित्त ए भिक्षा मांगनेहारे घर-घर में ऐसा कहते फिरें हैं। हे धर्मात्मा पुरुष हो। तुम्हारे पास धन है सौ ताकी दान में लगानो, दान कू करौ। नहीं तो पीछे इमारी-सी नाई पछतावोगे।
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बिना दान दिये. हमको देखो। हमने पूर्व भव में धन पाया, परन्तु दान नहीं दिया। सो अब या भव में पेटभर भोजन नाहीं । तन ढकने कूं वस्त्र नाहीं । महाअपमानित भये, दारिद्र्य के जोग करि दोन होय, रङ्क भये घर-घर के दाना याचें हैं, तो भी उदर नाहीं भरे है। सो हे सत्पुरुष हो । हमने या बात सत्य मानी। जो लौकिक में ऐसी कहैं हैं कि जो दिया सो पावै, बिना दिये हाथ नहीं आवै । सो अब हमने निश्चय जानी प्रतीति, आई कि जो हमने पूर्व भव में नहीं दिया, तातें लाचार - असहाय होय बारम्बार कहिये, घड़ी-घड़ी याचें हैं तथा वारवार कहिये, घर-घर के वारने नगर में माँगते फिरें हैं तथा बार-बार कहिये, हमारा बाल-बाल अशीष देय मिक्षा मांगें है तथा बार-बार कहिये, अपने घर तैं बाहिर यार्चे हैं तथा बार-बार कहिये, बायर-बायर करि पुकारें, शोर करि यार्चे हैं। तो भी उदर नहीं भरें है तथा बार-बार कहिये, नीर-नीर घ्यावो, मारै प्यास के प्राण जांय हैं। सो पानी पियावी, पानी पियावो ऐसे दोन भये तृषा के दुःख तें पुकारें हैं सो पाप के उदय, कोई जल भी नहीं देय। ऐसे हम बिना दिये, कहां तैं पावैं ? महादुःखी भये फिरें हैं। तातें है भव्य हो ! बिना दान दिये, हमारो-सी नाई दुःख पायोगे । अरु हमारी नाई, पीछे पछताओगे । तातें अब कछु दान देने की शक्ति होय, तो दान करतें मति चूक । ऐसे एक हैं सो भिखारी का भेष करि, मानी उपदेश हो देय हैं। या भांति भिखारी का दृष्टान्त देय, दान का मार्ग बताया। तातें जो विवेकी हैं सो अवसर पाय, तिनकं दान देना योग्य है । १२३ । आगे सर्वज्ञ-केवली तैं लगाय सम्यग्दृष्टि के अरु मिथ्यादृष्टि के वचन उपदेश विषै, अन्तर बतावैं हैं-
गाथा - जिन गण मुण वच सामय, अतसम जुय वयण होय समदिट्टी मिच्छो वच विण अत्तसय, इम णिष्प रंकेम वयण भेयाय ॥ ११४ अर्थ – जिरा कहिये, केवली । गण कहिये, गणधर मुण कहिये, मुनीश्वर । सावथ कहिये, श्रावक । वच कहिये, इनके वचन । अतस्य जुय वयरा कहिये, अतिशय सहित वचन । होय समदिट्टो कहिये, ए सम्यग्दृष्टि हैं । मिच्छो वच कहिये, परन्तु मिध्यादृष्टि के वचन । विण अतसय कहिये, बिना अतिशय हैं। इमि कहिये, जैसे । शिप कहिये, राजा । रकेय कहिये, रंक के 1 वयरा मेयाय कहिये, वचन का भेद है। भावार्थ - जे वचन जतिशय सहित होय, सी वचन तो सत्यपरो के लिए हैं। तात तिन वचन का धारण किये तो तत्त्वज्ञानी होय है और जे वचन अतिशय रहित हॉय, तिन वचनों तै तत्वज्ञानी नहीं होय । सो हो कहिए है। जो केवलज्ञानो सर्वज्ञ
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भगवान के वचन को धुनि सुतिते ही श्वा प्रविन होंश का नाश होय । तत्वज्ञान के भेद को दिखावै है।
रोसे भगवान अन्तरजामी के वचन, अतिशय सहित हैं और इन्हीं भगवान के वचन-प्रमाण अर्थ को लिए, च्यारि ||सा | ज्ञान के धारी गराधर देव के वचन प्रमाण हैं। ए वचन अतिशय सहित हैं। तात सत्य हैं और इनहीं गशधर देव के वचन-प्रमाण अर्थ सहित प्रलपे जो आचार्य, उपाध्याय, साधु, मुनिराज इन योगीश्वरों के वचन है, सौ अतिशय सहित हैं। तातै प्रमाण है और इनहीं आचार्यन के अर्थ कू लिये, इनके प्रमाण कू लेय भाषे, पञ्चम गुणस्थान धारी श्रावक तिनके वचन, अतिशय सहित हैं। तातै प्रमाण हैं और इन्हों केवली, गणधर, आचार्य इनके भाषे अर्थ, तिनही प्रमाण अर्थ का धारण करशहारे चतुर्थ गुणस्थान के धारी सम्यग्दृष्टि जीवन के वचन, देव-गुरु के कहे अर्थ प्रमाण हैं । ताते अतिशय सहित हैं। रोसे जिन वचन, गणधर वचन, आचार्य मुनि के वचन, श्रावक सम्यक धारी के वचन, असंयमो यती के वचन-ए सर्व सम्यादर्शन के धारी हैं। सो इन सर्व के वचन यथायोग्य अतिशय सहित हैं । सोही कहिरा हैं । केवली तीर्थङ्कर के वचन, अनक्षर मैघ-ध्वनि समानि हैं । तिसके सम्बन्ध से देव, मनुष्य, तिर्यश्च-ए तीन गति के जीव इनके श्रवण निकट तिष्ठते पुद्गल स्कन्ध, सो अक्षर रूप सहज ही परिणमें हैं। ताकरिए सर्व उन्हें अपनी भाषारूप समझ लेय हैं। ऐसा अतिशय तो भगवान के वचन विर्षे है और गराधर देव के वचन, अक्षर रूप हैं। सो तिनका विश्वास तीन लोक के जीवन को होय। तिनके श्रवण किए, पाप का नाश होय । रोसै इन गराधर देव के वचन का सहज स्वभाव हो है । ऐसे अतिशय गणघर देव के वचन का है । मुनीश्वरों के वचन राग-द्वेष रहित, सरल, मिष्ट, सर्व जीवन कू सुखकारी हैं। तातें इनकी भी प्रतीत कर, सर्व जीव-धर्म-सन्मुख होय। ऐसा अतिशय, मुनि के वचन का जानना और प्रावक-व्रती अरु असंयत सम्यग्दृष्टि, ए भी केवली के वचन-प्रमाण अर्थ कूलिए उपदेश करें हैं। तातै इन तत्त्वज्ञानी के वचन भी सर्व धर्मो जीवन कं, प्रतीति उपजा हैं । तातै र भी अतिशय सहित हैं और मिथ्यादृष्टि वचन जिन-भाषित-अर्थ रहित हैं। तात असत्य हैं। अतत्व के प्ररूपण हारे, राग-द्वेष सहित हैं। तारौं अतिशय रहित है। अप्रमारा है।
रोसा जानना । जैसे-राजा का वचन जो निकसै, सो सर्व को प्रमाण है। सत्य है। सर्व अङ्गीकार करें । भूप का वचन उल्लघन किये दण्ड पावै दुःखी होय । भूप की आज्ञा माने, सुखी होय । तैसे सर्वज्ञ भगवान्, जगत्
है। सर्व अङ्गीकार करें। औरणी
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का राजा । ताके वचन प्रमाण चालै सुखी होय। जिन वचन उल्लंघन किए, पाप-बन्ध होय । दुःख उपजे । तातें राजा का वचन अतिशय सहित है और रङ्क का वचन अतिशय रहित है। रङ्क काहू के ऊपर कोप करें, तो कछु होता नाहीं तथा कोई पर राजी होय, तो कार्यकारी नाहीं । रङ्क कहै, तेरा घर लूट लेहों । तो यातें घर लुटता नाहीं और रङ्क कहै कि राज पद दे देहों तो राज्य मिलता नाहीं । तातै रङ्क का शुभाशुभ वचन बोलना, वृथा है। रज के वचन में अतिशय नाहीं । तैसे ही अतिशय रहित मिध्यादृष्टि के वचन असत्य, अप्रमाण रङ्क के वचन समान निरर्थक, पापकारी, अतत्त्व श्रद्धान सहित हैं। तातें मिध्यादृष्टि, मिथ्या श्रद्धानी के वचन अप्रमाण पापकारी जानि, ग्रहण नहीं करिये। ए भलै फल रहित, सुखकारी नाहीं । जैसे—कोऊ राजा की सेवा करि ताक राजी करिए तो राजी भए कबहूं दारिद्र खोवें। धन देय, ग्राम देव, सुखी करें। तातें राजा की सेवा तो.. शुभ फलदायक है और कोई रङ्ग को अनेक प्रकार सेवा करि, रङ्क कूं रिझाय, राजी करें तो सेवा का फल वृथा जानना । वह रङ्क आप हो दरिद्री भूखा है, दुःखी है। तो और को कहा सुखी करेगा ? तैसे हो तीन लोक के राजा इन्द्र, चक्री, धरणेन्द्र हैं... सी. इन राजान के राजा को सुखी होंय । तिनके वचन प्रमाण करि चार्ले, तौ देव सुख, इन्द्र सुख, चक्री सुख, खगपति सुख, मण्डलेश्वर राजा आदि अनेक पद के सुख निश्चय ही पावै है और मिथ्या श्रद्धानी के वचन प्रमाण चालें, तौ सुख नाहीं। ऐसा जानि मिध्या वचन, शुभ भावना रहित, इनका विश्वास नहीं करना। ए अतिशय रहित हैं। सम्यक् सहित श्रद्धावान के वचन सुखकारी हैं। ए अतिशय सहित वचन जानना ।
इति श्री सुदृष्टि तरंगिणी नाम प्रन्थ के मध्य में हितोपदेश का कथन करनेवाला छवीस पर्व सम्पूर्ण भया ॥ २६ ॥ आगे षट् लेश्या कथन बताईये है
गाथा - किन्हं गोल पोतय असुह लेब्साह जीय पक्ामो पोता पम्मा सुक्का ये सुह लेस्साय होय खण भैया ॥ ११५ ॥
अर्थ – कृष्ण, नील, कापोत—ये तीन अशुभ लेश्या हैं। पीत. पद्म, शुक्ल — ये तीन शुभ लेश्या हैं। भावार्थऐसे जीव के अशुभ शुभ परिणाम पर षट् भेद लैश्या के हैं। योग अरु कषाय के मिलाप तं शुभाशुभ जीव की परिणति का होना सो लेश्या है। सो इनका स्वरूप कहिये है। जहां बड़ा क्रोधी होय । वैर नहीं तजै । पर के
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बुरा करने का सहज स्वभाव होय । महादुष्ट परिणामी होय । स्वामी द्रोही होय। माता-पितादि गुरुजन की आज्ञा है विदु हो । अनी और देव, गुरु, धर्म को आज्ञा तैं प्रतिकूल होय। राज विरोध क्रिया का करनहारा हो । जुआ, आमिद (मांस), मदिरा, वेश्या घर गमनो, जीव घाती, चोर, पर-स्त्री लम्पटी इत्यादिक सप्तव्यसन कर रञ्जयमान पापाचारी अनेक दोषन की मूर्ति ऐसे अशुभ मात्र जाके होंय । सो इन लक्षण सहित जे जीव भाव सो कृष्ण लेश्या है तथा स्वेच्छाचारी स्वच्छन्द होय तथा धर्म क्रिया विषै प्रमादी होय । मन्द बुद्धि, आलसी शिथिल शब्दी होय पर के किये गुण का लोपनहारा कृतघ्नी होय विशेष ज्ञान कला चतुराई करि रहित हो । पंचेन्द्रिय विषय का लोलुपी होय । महामानी होय । अत्यन्त गूढ़ चित्त का धारी होय मायावी होय जाके चित्त की ओर नहीं पावै। इत्यादिक चिह्न कृष्ण लेश्या के जानना । इति कृष्ण लैश्य । । १ । आगे नील लेश्या बहुरि जा बहुत निद्रा होय पर के ठगने की कला चतुराई में प्रवीण होय तथा और सौखवे की वांच्छा होय और अत्यन्त लोभ के उदय सहित धन-धान्यादिक इकट्ठे करिव को अनेक आरम्भ करता होय और काम चेष्टा करि बहुत 'ही विकल होय इत्यादिक लक्षण जाके होय सो नील लेश्या है । इति नोल लेश्या । २ । आगे कापोत तहां और दोष लगावै का सहज स्वभाव होय । अनेक नय जुगति देय पर की निन्दा करनहारा होय । जो हँस-हँसि पराया बुरा करें। पराई निन्दा करें चुगली करें। ऊपर तें विनयवान् होय जन्तरङ्ग में पराया बुरा चाह । बुरा करने का उपायी होय । परकों भला खाता-पीता पहरता देखि आप खेद पावै । परक सुखी देख नहीं सुहावें । पर के दुःख करवेकौं अनेक उपाय करता होय सदैव जाका चित्त शोक रूप रहता होय । जाके निरन्तर भय रहता होय और पर का अपमान करि सुख मानता होय । अपने मुखतैं अपनी बहुत प्रशंसा करता होय। आप जैसा पापी चोर असत् मारगी और कौं जानि कोई का विश्वास नहीं करे। आपकी बड़ाई करे खुशामद करै ताकौं राजी होय धन देवें। अपने पराये हेतु कौं नहीं समझें। युद्ध विषै मरण की जाकी इच्छा होय इत्यादिक चिह्न जाके होंय सो कापोत लेश्या जानता । इति कापोत लेश्या । ३ | आगे पीत लेश्या तहां कार्यकार्य समझें 1 खाद्य-अखाद्य कौं भी जानें भोगवे व नहीं भोगवे योग्य वस्तुकों जानें षट् द्रव्य गुण पर्याय का जाननहारा होय । सर्व पदार्थन में समता होय । पूजा, जप, तर दान विषै प्रोतिमान होय। दद्या धर्म चलावे का
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अधिकारी होय। मन-वचन-काय करि कोमल होघ । इत्यादिक लक्षण साहत होय सोपीत लेश्यों जीव है। । इति पीत लेश्या ।। आगे पढ़ा लेश्या तहां भद्र परिणामी होय। त्यागी होय । मले कार्य रूप भाव होंय । महाव्रतअणुव्रत का वांच्छक होय । सिद्ध क्षेत्र तीर्थ वन्दना का अभिलाषी होय। पञ्च-परमेष्ठी की पूजा विष उत्सववन्त होय । कष्ट उपद्रव भये धीर बुद्धि होय । देव-गुरु आदि का भक्त होय। इत्यादिक शुम चेष्टा सहित जाके लक्षण होय सो पा लेश्यी है। इति पद्म लेश्या। ५. आगे शुक्ल लेश्या-तहां पक्षपात करि काहूँ • बुरा नहीं कहै । सर्व जीवन पै दया करि मैत्री-भाव राखे और इष्ट-अनिष्ट में बहुत राग-द्वेष नाहों करें और कुटुम्बादिक ते अल्प राग करें। धर्मो जीवन विषै प्रीतिमान् होय । इत्यादिक लक्षण सहित होय सो शुक्ल लेश्यी है । इति शुक्ल लेश्या ॥६॥ आगे लेश्यान के भाव का स्वरूप कहैं है। तहां लेश्या द्रव्य और भाव करि दोय भेद रूप हैं तहां जैसा शरीर का वर्ण होय सो तो द्रव्य लेश्या है । जीव के जैसे भाव होघ सो भाव लेश्या है। सो तिन भाव लेश्या का दृष्टान्त दिखाय भावना को लेश्या प्रगट कर है। तहां एक वनम लकड़ो काटनहारषट् पुरुष प्राय। सो तिन सबन के पास कुठार हैं। सो एक आम के वृक्ष के नीचे घनी छाया देख बैठ गये। तब एक पुरुष बोल्या कि भाई, मख लागी है। तब तिनमैं एक कृष्ण लेश्यो जीव बोला कि माई जो अपने पै कुठार हैं। सो इस आम 4 जो फल : लगे हैं। सी लग जावो । मारे कुठारन के आमकं पोण ते काटो सो सर्व के पेट भरें। रातौं कृष्ण लैश्यी है।। दूसरा बोल्या जो पोड़ा तें काहेक काटी वृथा वृक्ष का खोज मिट जायगा। तातें आधा एक तरफ से बड़ी साखा || काटो सो सब खांयगे। अपन लायक बहुत हैं। ए नील लेश्यी है।२। पीछे तीसरा बोल्या जो आधा गिराये वृथा वृक्ष की शोभा जायगो तातें एक छोटी शाखा काट लेऊ । सो अपनकौं बहुत हैं । ऐसा कापोत लेश्यी है।३। तब एक बोल्या, जो शाला काहे कौं काटो। भूमके-झमके तोड़ो सो खाय लेय हैं। श पीत लेश्यो है। ४ । तब पञ्चम पुरुष बोल्यो जो ममकेन में कच्चे-पक्के सब ही हैं। तातै पके आम तोड़ लेउ और अपनी क्षुधा मैटो। श पद्म लेश्यो जानना। ५ । तब षष्ठ पुरुष बोल्या। हे भाई हो। इस तसकं काहे को सतावी हो ममि वि अपने खाने योग्य तो बहुत पड़े हैं। सो एके-पके खाय अपनी भूख मिटावो। ए शुक्ल लेश्यी है । ६ । ऐसे षट् प्रकार भाव भेद जानना। इन परिणामन करि अपने तथा पर के परिणामन की परीक्षा करि लेश्या के अन्तरङ्ग भाव
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जानना । सो अशुम भावन के वेग कू पहिचान, तजना योग्य है। ऐसे भेद ज्ञानी जड़-भाव तजि चैतन्य के विकल्प
जानि अशुभता तजि, शुभभाव रूप रहना विचार हैं। इति षट् लेझ्या। आगे नव भेद योनि कथन| गाथा-संवत सोत सचितो, मिस्सो सेताण जोणि णब श्रेयो। संखम कुम्मो वंसय, तोए गम्मो समुच्छ उववादो॥ ११६॥
अर्थ--संवत्त कहिये, संवत । सोत कहिये, शीत। सचितो कहिये, सचित्त। मिस्सो कहिये, मिश्र। सेतारण कहिये, इन तीनन की प्रतिपक्षी। जोणि राव मेतो कहिये. इस प्रकार योनि के नव भेद हैं। संखय कहिये, शंखा योनि। कुम्भो कहिये, कम योनि। वंशय कहिये, वंशा योनि । तोए गम्भो कहिये, ए तीन भेद गरमज के हैं। समुच्छ कहिये और सम्मूर्छन योनि । उववादो कहिये तथा उपपाद योनि । ऐसे योनि भेद कहे । सो प्रथम गर्भज के तीन भेद कहिए हैं शंखा योनि, वंशा योनि, कूर्म योनि–ए तीन गर्भज के और नव भैद ऊपर कहे और सम्मान उपपाद सो इन सबका स्वरूप सामान्य-सा कहिरा है तहाँ तीन भेद गरमज के हैं। सो तिन योनि में कौन-कौन उपजें ? सो कहिय है। तहाँ जा स्त्री की शंखावर्त नाम शंख के आकार योनि होय तामै पुरुष का वीर्य नहीं। ठहरे। सो स्त्री जग में बन्ध्या कहावै ।। वंशपत्र योनि जा स्त्री की होय तामैं सामान्य पुरुष उपजें। पदवी धारक तीर्थङ्करादि महान पुरुष नहीं उपजें। २ । कूर्मोनत योनि जो कछुवा के आकार जा स्त्री को योनि होय तामें तीर्थङ्करादि महान् पुरुष उपज हैं। सामान्य पुरुष इस योनि मैं नाहीं उपजें।३। ए तीन भेद गर्भज के हैं। . तहाँ माता का श्रोणित व पिता का वीर्य र दोऊ मिल गर्भसं उपजै, सो गर्भज कहिए। माता-पिता के निमित्त बिना जाकी उत्पत्ति होय सो सम्मान कहिरा सो बादर सम्मछन जीवन की उत्पत्ति तो पृथ्वी आदि के आश्रय तें होय और सूक्ष्म जीवन की उत्पत्ति बिना सहाय आकाश में होय । सोश सूक्ष्म सम्मन्छन जन्म जानना । देवन की उपपाद-शय्या रतनमयी कोमल सुगन्धित शय्या तामें देवन का जन्म होय। नारकीन के उपजने के स्थान महादुर्गन्धित, धिनावने अनिष्ट ऊँट के मुखाकार नरक-क्षिति के लुमते घटाकारवत् स्पर्श के धरे, सो नारकी के उपजने का स्थान है। ऐसे देव नारकी का उपपाद जन्म है। र तीन मेद जन्म गर्भज सम्मूर्छन उपपाद के कहे। जब नव भेद योनि का भाव कहिय है। तहाँ अन्य जोव करि ग्रह जे योनि स्थान जैसे--पंचेन्द्रिय तिर्यश्च मनुष्य उपजने की योनि सो सचित्त योनि है। अन्य जीवन करि नहीं ग्रहै ऐसे पुदगल स्कन्ध की योनि जैसे-देव
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नारकीन की सो अचित्त योनि है । २ । कैईक योनि स्थान सचित्त-अचित मिले स्कन्ध को हैं, सो मिश्र योनि स्थान है । ३ । उपजने के पुद्गल स्कन्ध शीत होंय जैसे- सातें व छठें नरक के नारकी की शोत योनि है । ४ । उपजने के योनि स्थान के पुदुगल स्कन्ध उष्ण होंय । जैसे—तीजे वा चौथे नरक पर्यन्त नारकोन के उपजने के उष्ण योनि स्थान हैं । ५। अरु उपजने के स्थान शीत, उष्ण दोऊ स्कन्ध रूप होंय सो मिश्र योनि स्थान हैं | ६ | जीव उपजने का योनि स्थान प्रगट नहीं दीखै सो संवृत योनि स्थान है। ७ । उपजने के योनि स्थान प्रगट दीखें सो विवृत योनि स्थान है । ८ । जीय उपजने के योनि स्थान के पुद्गल स्कन्ध कछु प्रगट होंय कछु अप्रगट होंय सो मिश्र योनि स्थान है । ६ । ऐसे सामान्य मेद नव कहे, विशेष चौरासी लाख हैं। इति योनि स्थान । आगे इन योनिन तैं उपजे जीव तिनके कौन-कौन के शरीर में निगोद नाहीं सो कहिए हैं
गाथा — केवलकायमहारी, सुरणारय तण भौमि जल तेक बाय व इव ठांणय रहि नहि शिगोय जिण भणियं ॥ ११७ ॥
अर्थ-केवली के शरीर में, आहारक शरीर में देवन के शरीर में, नारकीन के शरीर में, पृथ्वीकाय, अपकाय, ते काय और वायुकाय — इन आठ स्थानन में निगोद नाहीं। ऐसा जानना। आगे इन आठ जाति के जीवनतें शौच नहीं पलै, ऐसा बतावें हैं -
| गाथा - रोगी लोलु दलद्दो, दुधहोणो कुसंग होय मंद पाणी परवस आलस सहितो एवसु मादाय सोच यह पालय ॥११८॥
अर्थ -- रोगो, इन्द्रियन का लोलुपो, दरिद्री, बुद्धि हीन, कुसंगी, मद पायो, पराधीन और आलसी – इन. आठ जाति के जीवन तें शौच नाहीं पलै । भावार्थ - रोगी तो अति वेदना के आगे खाद्य-अखाद्य योग्य-अयोग्य नाहीं विचारै । अपवित्र पवित्र नहीं विचारै। मारे वेदना के जो मिलै सो ही खाय । मूढ़ वैद्य जैसा भक्ष्य- अभक्ष्य कहै, सो खाय । तातें शौच नाहीं बने। १ । जो इन्द्रियन का लोलुपी होय । सो खाद्य-अखाद्य, योग्य-अयोग्य नहीं विचारै । जैसे बनें तैसे अपने विषय का पोषण करें। अपने कुल योग्य खान-पान का विचार नाहीं । तातैं तिन लोलुपी तैं शौच नाहीं पलै । २ । जे पूर्व पाप के उदय करि भये जो दरिद्री, सो मारे दरिद्री के केवल उदर पूरण ही करचा चाहें। सो योग्य-अयोग्य नाहीं विचारें जैसे बनें तैसे उदय भरचा चाहें। ताके तृष्णा अधिक सो तृष्णा पुण्य तैं पूरी जाय अरु पुण्य, आगे उपाय नाहीं । तातें पुण्य रहित जीव जैसे-तैसे पेट भरे सो इस दरिद्री
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से शौच नाहीं पलें । ३ । बुद्धि रहित होय तार्के योग्य-अयोग्य के विचार का विवेक नाहीं । ज्ञान की मन्दता के योग करि पशू समानि खान-पानादि करें रात्रि दिवस का भेद नाहीं, भक्ष्य-अभक्ष्य का ज्ञान नाहीं तातैं बुद्धिरूपी सम्पदा करि रहित होन-बुद्धि जीव तैं शौच नाहीं पलै । ४ । और कुसंग के धारनहारे, सप्तव्यसनी जीवन के स्नेही, तिनकी संगति ते, स्नेह के बन्धान करि तिनमें तिन जैसा ही खान-पान करें। होन कुली, होन ज्ञानी, सप्तव्यसनी, जैसा अनाचार रूप खान-पान करें। तैसा हो तिनको संगति में आपकों करना पड़े। तातें कुसंगीन तैं शौच नाहीं पलै । ५ । मदिरापायी कूं सुध-बुद्धि नाहीं। खान-पान के योग्य-अयोग्य खाद्य अखाद्य का ज्ञान नाहीं । जैसे--- खपत - बेसुध होय, तैसे ही मदिरापायी बेसुध है । तातें मदिरापायी तें शौच नाहीं पलै । ६ । और पराधीन होय, सो पराई मर्जी सौं चाल्या चाहै। आप दयावान संयमी होय, बरु संयमी का सेवक होय । तौ आपके तौ संयम पालने का काल है। यदि स्वामी संयमी न होय, तो जा समय सरदार ने कही, यह आरम्भ करो । सो नहीं करै तौ आज्ञा भङ्ग भये, चाकरी बने नाहीं । तातें असंयम रूप आरम्भ ही कार्य, संघम के काल मैं करना पड़े। इत्यादिक पराधीनता तैं शौच नाहीं पलै । ७। और जे आलसी प्रमादी होंय, सो जैसा मिले तैसा भक्षण करें। प्रमाद के वशीभूत खाद्याखाद्य याग्यायोग्य नहीं विचारें। तातें जे आलसी प्रमादी होय, तिनसौं शौच नाहीं पलै ऐसे और ग्रन्थ के अनुसार कला है। जो इन आठ जाति के जीवनतें शौच नाहीं सधै तातें इनक धर्म-लाभ नहीं होय और शुभाचार इनके हृदय में तिष्टता नाहीं। ऐसा जानि विवेकी जीवनको इन आठ जातिकै निमित्तन तं रहित होय, सुआचार रूप रहना योग्य है। आगे निमित्त ज्ञान के आठ भेद हैं सौ कहिये हैंगाथा --- अंग भोम अंतरखऊ, विजण सुर छिन्य लक्खणरे सुपणक । इव वसु भेयव भणियं, गिमित णाणाय देव सर्वज्ञो ॥ ११९ ॥ अर्थ - अङ्ग कहिये, शरीर । भोम कहिये, पृथ्वी अन्तरखऊ कहिये, अन्तरीक्ष विजरा कहिये, व्यंजन निमित्त । सुर कहिये, शब्द । छिराय कहिये, छिन। लक्खणो कहिये लक्षण । सुपराऊ कहिये, स्वप्न । इव वसु भयव कहिये, ए आठ भेद । भणियं कहिये, कहे हैं। शिमित्त शाशाय कहिये, निमित्त ज्ञान के देव सर्वज्ञो हिये, सर्व देव । भावार्थ-निमित्त ज्ञान के जाठ भेद हैं सो हो कहिए हैं। मनुष्य पशु के तन के अङ्गोपाङ्ग करारी आए।
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मूके, लूले, टूटे, कूबरे, बावने का फल कहै । जाके तन का रस खट्टा तथा मिष्ट व कडुवा होय इत्यादिक जैसा तन का रस होय, सी फल कहै तथा तन का रुद्र, श्याम व लाल वर्ण होय, ताका फल कहै इत्यादिक शरीर के लक्षण देखि शुभ-अशुभ का फल सुख-दुःख है । सो अङ्ग-निमित्त ज्ञान है । २ । और भूमि विषै जहाँ-जहाँ जो वस्तु होय, सो जानें। जो इस जगह रतन खानि है। यहां कश्चन-खानि है। यहां विभूति है 1 यहां खोदो, अस्त्र समूह है, ताकौं जानें तथा इहाँ जल है । इहाँ पाखान है। इहाँ धन है । इत्यादिक भूमि में जहां-जहां शुभ-अशुभ चिह्न होय, तिनको जानें, सो भूमि निमित्त ज्ञानी कहिये । २। और आकाश के विषै बादर पटल, घन, गाज, बिजली चमकना, चन्द्रमा, सूरज, नक्षत्रादिक इत्यादिक तैं आकाश का शुभाशुभ चिह्न देखि, सुख-दुःख बतावै । सो अन्तरिक्ष-निमित्त ज्ञानी है । ३ । और जहां मनुष्य का शब्द सुनि शुभअशुभ हैं। तहाँ चाडाल, कृषक, वैश्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादिक मनुष्यन के शब्द सुनि, सुख-दुःख क तथापन के शब्द तो और, का, सार, वन, स्यार, मार्जार, व्याघ्री इत्यादिक पशून के शब्द सुनि, शुभ-अशुभ फल बतावें। सो सुर-निमित्त ज्ञानी है । ४ । और व्यंजन जो शरीर में तिल मसा देखि. सुख-दुःख कहैं। मुख पैं तिल, कर में तथा उर में मसा पीठ में नासिका, कान, गाल, अंगुरी इत्यादि हाथ-पांव अङ्ग में तिल-मसा देखि, शुभ-अशुभ कहैं। सो व्यंजन-निमित्त ज्ञानी है। ५ । और लक्षण जो शुभ चिह्न श्रीवृष, स्वस्तिक, भृङ्गार, कलश, वज्र, मछली इत्यादि शुभ तथा कोई अशुभ चिह्न इत्यादिक शुभअशुभ चिह्न शरीर में देखि, सुख-दुःख कहैं । सो लक्षण निमित्त ज्ञानी है । ६ । और छिन निमित्त ज्ञान सो कोई वस्त्रादि वस्तु कूं मूसादि जीवन कर काटी देखि, ताकरि शुभाशुभ फल कहै । सो छिन्न निमित्त हानी कहिये ॥७॥ और स्वप्न -- जो शुभाशुभ स्वप्रकौं जानि, ताका सुख-दुःख कहै । सो स्वप्न निमित्त ज्ञानी है ऐसे निमित्त ज्ञान आठ प्रकार कह्या । इहां सामान्य कया। विशेष अन्य ग्रन्थनतें जानना । आगे ज्ञान के आठ अङ्ग बताईये है
गाथा - विजन अर्थ समग्गह, सव्दार्थोभय कालवेणोम । उपभाण विणय, समय वहुमाण गुवादि वसु अंगय ॥ १२० ॥ अर्ध-विजन कहिये, व्यंजनोजित । २ । अर्थ समग्गह कहिये, अर्थ समग्रह । २ । सब्दार्थोभय कहिये,
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शब्दार्थ उभय पूर्ण । ३ । काल धेशोय कहिये, यथा काल अध्ययन करना । ४ । उयमाण कहिये, उपध्यान समधित । ५ । विराय समधय कहिये, विनय समर्षित । ६ । वहुमाग कहिये, बहु मान समधित अङ्ग । ७। | गुवादि कहिये, गुरुवादि निह्नव अङ्ग।८। वसु अङ्ग्य कहिये, ए ज्ञान के आठ अङ्ग हैं। भावार्थ-जो बिना अर्थ विचार हो पाठ का पढ़ना। तही गाथा, काव्य, छन्द, श्लोक, पद, विनति, सामाधिकादि पाठ का पढ़ना । सो याका नाम व्यंजनोजित अङ्ग है। २ । और जो शास्त्र तो नाहीं, परन्तु अपने उर विर्षे, एकान्त बैठा, शास्त्रन का अर्थ विचार करै सो र मी ज्ञान का अङ्ग है। याका नाम अर्थ समग्रह अङ्ग है ।२१ और जहां शास्त्र, काव्य, गाथा, छन्द अर्थ सहित पई। पाठ भी पढ़े, अरु अर्थ का मी विचार करै। सो र भी ज्ञानी का अङ्ग है। याका नाम शब्दार्थो-भय पूरण अङ्ग है।३। और जहां जिस काल में जैसा शास्त्र चाहिए, तैसा ही काव्य बखान करें। जैसे—प्रभात कालकौ कौन शास्त्र वांचिरा ? मध्याह में कौन शास्त्र वांचिए । शाम को कौन का अभ्यास कीजिए ? रात्रि की कौन का अभ्यास कीजिए? तथा बाल्य अवस्था में कौन शास्त्र का अभ्यास कीजिए? तरुणावस्था में कौन शास्त्र का अभ्यास करें। वृद्धावस्था में कौन शास्त्र का अभ्यास करं? इन आदि काल में जैसा शास्त्र चाहिय, तैसा ही विचार के काल-योग्य शास्त्र का अभ्यास करें।तेसा ही उपदेश देय । सो ए भी ज्ञान का अङ्ग है। याका नाम कालाध्ययन ध्रुव प्रभाव नाम अङ्ग है।४। और शास्त्राभ्यास निरप्रमाद होने के निमित उपवास-राकाशन करना, रस तजना, अल्प भोजन करना । ऐसा विचारना जो मेरे शास्त्राभ्यास में प्रमाद नहीं होय, ताके निमित्त तप करना। सोए भी ज्ञान का अङ्ग है। याका नाम उपध्यान समथित अङ्ग है। ५। और जहां शास्त्र का विनय करना । वाचना, सो विशेष उत्तम विनय से वाचना । सुनना सो भी राकचित्त करि विनय तें सुनना । उपदेश देना, सो पर-जीवन के कल्याणहेतु विनय तें देना । शास्त्र धरना-उठावना, सो भी विनय तैं। इत्यादिक शास्त्र का तिनय करना, सो ए भी ज्ञान का अङ्ग है। याका नाम विनय समधित अङ्ग है।६। और जाके पास प्रापने ज्ञानाभ्यास किया होय, जाते आपको ज्ञान की प्राप्ति भई होय, ताकी बहुत सेवा-चाकरी करना । ताको बारम्बार प्रशंसा करना, बारम्बार ताका उपकार स्मरण करना। ताका उपकार जन्मान्तर नहीं भूलना। सदैव धर्म-पिता
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जानता। इत्यादिक ज्ञान-दान देनेवारे का विनय करना, सो भी ज्ञान का अङ्ग है। थाका नाम बहुमान समधित अङ्ग है। ७। और अपने जा गुरु के पासि शास्त्राभ्यास किया होय, ता गुरु को नहीं छिपाईये। भावार्थ-जा गुरु के पास ते आपने ज्ञान-धन पाया होय, ऐसा को गुरु। सो कर्म योग तें-पीछे आपकौं विशुद्धता के योगते ।। तथा तप-ध्यान करि अनेक ऋद्धि आप कौं प्रगट भई होंथ । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय, ज्ञानादिक अनेक ऋद्धि प्रगटी होंय और अपना गुरु ज्ञानदाता, तितकै अवधि-मनः पर्यय नाहों। अस गुरु का नाम प्रसिद्ध नाहीं। आपको ज्ञान बड़ा, आपका नाम जगत् में प्रसिद्ध होय, तो भी अपने ज्ञानदाता गुरुको नहीं छिपाईये। रा भी ज्ञान का अङ्ग है। याका नाम गुरुवादि निह्नव अङ्ग है तथा आप भला सम्यकज्ञान मोक्ष-मार्ग के पन्थ का बतावनेहारा, पर-जीव का उपकारी, शुद्ध तत्त्व आपकू भले रुप आवता होय, तो ताकौं नहीं छिपाइये। जो ज्ञान दया-भण्डार, दया का मारण प्रगट करनहारा, अनेक संशय नाशनेहारा, उत्तम ज्ञान, जाकौं आप जानता होय, तौ ताकी नहीं छिपाइये। ए भी ज्ञान का अङ्ग है तथा परम कल्याणकारी, तव प्रकाशी कथन सहित शास्त्र, अपने पास है। सो कोई धर्मात्मा पुरुष अपने में तत्त्वज्ञान होने अभिलाषी प्राय कहै। फलानी पुस्तक आप पै होय तो हमको स्वाध्याय को हमारे मस्तक पै विराजमान करो, तौ हम पुण्य उपारजैं। तो अपने मस्तक जे शास्त्र होय, ताकी नहीं छिपाइये। यह भी ज्ञान का अङ्ग है। याका नाम भी गुरुवादि निह्नव अङ्ग है। ८। रोसे ज्ञान के आठ अंग हैं। सो धर्मात्मा जीवन करि धारच योग्य हैं। ए आठ अंग ज्ञान के जे भव्यात्मा विनय सहित पालें, सो तत्त्वज्ञान सम्पदा के धारी होय । रोसा जानि निकट भव्यन कों, ज्ञान के अंगन की रक्षा करना योग्य है। आगे मुनिजनकी ध्यान करवे के कारण दश स्थान बतावें हैं। इतनी जायगा परिणामन को विशुद्धता विशेष बद्रे, ध्यान की एकाग्रता विशेष होय, सो ही बताइये है। ध्यान की कदाचित् एकान्त क्षेत्र नहीं होय, बहुत जीवन के शब्द का कोलाहल होय, अनेक जीवन का आवना-जाना होय, तो ऐसे स्थान में परिणति चञ्चल होय। तातें ध्यान को एकान्त स्थान चाहिये। एकान्त बिना ध्यान की सिद्धी नाहों होय।। अशुद्ध क्षेत्र होय तो ध्यान लागै नाही. ताते रमणीक-निर्मल क्षेत्र चाहिये, तब ध्यान की शुद्धता होय । २। और जहां काष्ठ की व चित्राम की पुतरी नहीं होय तरंगमहल, रमणीक बिछौने इत्यादिक सराग क्षेत्र नहीं होय । महाउदास, वैराग्य बढ़ने का कारस. राग
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रठित क्षेत्र चाहिये. ताते ध्यान की सिद्धि होय। जा तथा महापर्वतन को गफा होय ।। तथा उत्तंग मनोहर, | उदार पर्वतन के शिखर होय।। तथा निर्मल जल करि सहित बड़े सरोवर तथा बहती गहन बड़ी नदी, तिनके तट ध्यान योग्य हैं। ६ । तथा जीर्ण उद्यान, अरु महाभयानोक, मोही जीवनकू उपजावनहारी, विकट, वृक्ष रहित अटवी, ध्यान योग्य क्षेत्र है। ७ । तथा दोरघ सघन वृक्षन करि भरचा वन होय, सो ध्यान योग्य क्षेत्र है। और जहां अति शीत नहीं होय, ते क्षेत्र ध्यान योग्य हैं।६। तथा जहां बहु उष्ण नहीं होय, सो क्षेत्र ध्यान योग्य है।३०। ऐसे दश क्षेत्रन में ज्ञान-वैराग्य के बढ़ाने रूप माव होय। धीरजता होय, क्षमा भाव होय। इत्यादिक भाव सहित ध्यान सिद्धि के क्षेत्र जानना। आगे परिणामों को विशुद्धता कू कारण, आलोचना भाव है। सो आलोचना के अतिचार दश हैं। तहां प्रथम नाम कहिये—आकम्पन, अनमापित, दिष्ट, बादर, सूक्ष्म, शब्दाकुल छिनि बहु पारिवाःतन सेवा हो ए एस जया निकासानन्य स्वरूप कहिये है--जहां कोई मुनीश्वर कौं अपने संयम में दोष लाग्या दोखै। तब वह यतीश्वर पाय का भय खाय गुरुन पै पाप दूर करने कूदण्डप्रायश्चित्त जांचता भया। सो दण्ड जाँचता कबहूँ ऐसा विचार करें जी आचार्य दीर्घ दण्ड नाहीं बता तो भला है। ऐसा भय करना सो आकम्पन दोष है।। और कोई यति को दोष लाग्या होय तो अपने गुरु 4 जाय अपने प्रमाद को निन्दा करै। आलोचना सहित अपना लाग्या दोष प्रगट करि गुरु दण्ड जाँचता ऐसा विचार करै जो मेरा तन निर्बल व रोग पीड़ित है सो दोरघ दण्ड सहवे की मोरी शक्ति नाहीं। तात आचार्य मोकौं अल्प दण्ड बतावै तौ भला है। ऐसे विचार का नाम अनमापित दोष है। २। और यति आपको कोई दोष लाग्या जानै तौ विचारैं। जो मेरा दोष फलाने में देखा है तो अपना दोष गुरु 4 कहैं अपनी निन्दा-आलोचना करें और जो अपना दोष काहू ने नहीं देखा होय तो गुरु नाही कहैं ! ताका नाम दिष्ट दोष है।३। यतीश्वर
को कोई सूहम दोष लागा होय तो गुरु नाहां कहैं । कोई बादर-बड़ा दोष लागा होय तो मान के निमित्त ३७६ | और के दिखावने कौ आचार्य वै कहैं आलोचना करें सो बादर दोष है 181 जहां मुनीश्वर की कोई बादर
दोष लाग्या होय तौ आचार्य के पास नहीं कहैं और सक्ष्म दोष लगा होय तौ मान-बड़ाई लोक-प्रशंसाकों गुरु जाय प्रकाशैं। अपनी आलोचना करें। सो सूक्ष्म दोष कहिये । ५१ और कोई मुनि को दोष लागा होय
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तो गुरुयै कहै तौ सही; परन्तु मान-बड़ाई के अर्थ दोष छिपाय के कह। सो अपना नाम तो नहीं लेंथ।
गुरु कहैं । भो गुरो ऐसा दोष काहू मुनि पै लागा होय तौताका कहा दण्ड ? सो कहो। ऐसे मालोचना सहित | पूछना। अरु निन्दा के भय से अपना नाम प्रगट नहीं करना याका नाम छिनि दोष है। ६ । और कोई मुनि कौं
दोष लागा होय सो गुरु पैशकान्त तो नहीं कहैं। अरु जब आचार्य बहुत मुनि श्रावकन सहित तिष्ठे होंय तब मान का लोभी अपनी प्रशंसा करावने का अभिलाषी गुरु को कहै तथा अनेक स्वाध्याय का शब्द होय रह्या होय तथा आचार्य उपदेश करते होंय तथा और शिष्यन का प्रश्न होय रह्या होय इत्यादिक समय देखि भरो सभा में प्रश्न-उत्तर के शोर मैं अपना दोष गुरु कहै आलोचना करें। सो गुरु ने कछु सुन्या कडू नाहीं। ऐसा अवसर देखि कहना सो याका नाम शब्दाकुल दोष है । ७. और कोई मुनि को दोष लाग्या होय सो गुरुप जाय अपना दोष कहै। मालोचना कर राब गुरुघाके पापनाशने कुंप्रायश्चित्त देंथ। सो गुरु का दिया प्रायश्चित्त सुनि विचारी जो गुरु ने प्रायश्चित्त भारी बताया। तब ऐसी जानि और हो आचार्य पे जाय आलोचना सहित अपना दोष कहै। तब उनने भी दण्ड दिया ताकौं भी भारी दण्ड जानि और आचार्य के संघ में जाय आलोचना करि अपना दोष कहै । ऐसे ही जब ताई कोई आचार्य अल्प दण्ड नहीं बता तब ले अनेक आचार्यन पैजाय आलोचना करि अयना दोष कहै याका नाम बहु दोष है।६। कोई मुनि को दोष लागै सो पाप के भयतें अपना दोष प्रकाशै तौ सही। परन्तु मान-बड़ाई लजा के योग तें प्राचार्य कं नाहों कहैं। मेरा अपयश-निन्दा होयगी ताके भय से गुरु नहीं कहैं । अरु कोई आप तैं छोटे पदस्थधारी तथा आपके समानि होय तिस मुनि को कहैं। ताके पास अपना दोष आलोचना सहित प्रगट करै। सोयाका नाम अविक्त दोष है।६। और कोई मुनि को दोष लगा होय सो मान-बड़ाई अपयश-निन्दा के भय ते गुरु नाहीं कहैं और जब कोई आप-जसा दोष और मुनि कौं लागें, सो आचार्य कों वाकौं प्रायश्चित्त देते देखि, आचार्य को आप कहै। भो नाथ! इन मुनीश्वर-सा दोष मोकों भी लागा है। सो जैसा दण्ड या मुनि कौं दिया, तैसा ही मोकौं देव। ऐसी आलोचना सहित कहना, सो याका नाम तत्सैवत दोष है । २०। ऐसे आलोचना के दश दोष हैं । सो जो अन्तरंग के धर्मात्मा हैं तिनको अपने धर्म कौं सुधार राखना उत्कृष्ट है। इति आलोचना के दश दोष! अब बाचार्य कोई शिष्य के कल्याण होने कं
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दीक्षा देंय, तो य दश काल टालि दीक्षा देय हैं। इकलन में यह देय । सो ताइये ।। जहां प्राथम नाम ग्रहोपराग कहिये, जाकौ कोई अशुभ ग्रह होय, तो दीक्षा नहीं देंय । ३। सूर्य ग्रहण होय । २। चन्द्र का ग्रहख || ७८ होय।३। इन्द्र धनुष चढ़या होय। 81 जाकौ उल्टा ग्रह बाया होयाश तथा आकाश बादलन करि बाच्छादित होय रह्या होय। ६ । तथा जिस जीव कौ महिना खोटा होय । तथा अधिक मास होय। ८। तथा संक्राति दिन होय । ६ । क्षय तिथि होय।१०। इन दश अवसरन में भला ज्ञाता, निमित्त ज्ञान के वेत्ता आचार्य, शिष्य कौं दीक्षा नहीं देंय और कदाचित् कोई ज्ञान की मन्दता के जोग ते इन दश कालन में दीक्षा देंय, तौ आचार्यन की परम्परा का लोप होय, निन्दा पाते। जिन-आज्ञा का उल्लंघन करनहारा जानि, सर्व आचार्यन के संघ से बाहर होय, संघ तें निकसैं, अपमान पावै। तातै र दश काल टालें हैं और जिन दिनों में दीक्षा होय सो बताइये है। शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ मुहूर्त, शुभ ग्रह इत्यादिक शुभ काल में दीक्षा होय है और दीक्षा कौन-कौन गुण सहित को होय है। सो ही बताइये है। बुद्धिमान् होय विशुद्ध कुल होय । गोत्र शुद्ध होय। शरीर के अंगोपांग शुद्ध होय। तहां कांणा, अन्धा, लूला, ठूठा, बांवना, कूबड़ा, रोगी, बधिर इत्यादिक दोष रहित होय, सुन्दर मूरत होय। मन्द कषायी होय । जाके पंचेन्द्रिय-भोगत ते अरुचि होय । मोक्षाभिलाषी होय । शुभ चेष्टा सहित प्रकृति होय । शुभाचारी होय । हाँसि-कौतूहल रहित, नैवन करि चमत्कारक होय । महावैराग्य दशा करि पूरित होय । इत्यादिक गुण सहित जो शिष्य होय, तिनको दीक्षा होय । ऐसे मुख्य गुण हैं सो कहे। बाकी इनमें सामान्यविशेष योग्य-अयोग्य सम्हालक-विचारकै आचार्य करें हैं। ऐसा जानना। इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ मध्ये, षट् सेहया, योनि भेद, निगोद रहित स्थान, निमित्त सानाविक कषम पर्णनो नाम,
सत्ताईसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥ २७ ॥ आगे दशकरण का निमित्त पाय, कर्मन की अवस्था कहिये है। प्रथम नाम-बन्ध, उदय, सत्ता, उत्कर्षण, ।। अपकर्षण, संक्रमण, उपशान्त, निधत्ति, निकांचित और उदीरणा-ए दश हैं। अब इनका अर्थ-तहां प्रथम बन्ध करस कहिये है। सो जीव अपने शुभाशुभ परिणामन तें कर्मन का बन्ध कर है। सो बन्ध च्यारि प्रकार है। प्रकृति बन्ध, प्रदेश बन्ध, स्थिति बन्ध पौर अनुभाग बन्ध-तहां प्रथम प्रकृति बन्ध का स्वरूप कहिये है।
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सोनाना जीव नाना काल अपेक्षा एक सौ बीस प्रकृति बन्ध योग्य हैं। सो ही कहिये है। ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणीय ६, वेदनीय २, मोहनीय २६, आयु ४. गोत्र २ अन्तराय ५ – ए सात कर्म की प्रकृति ५३ भई । नाम-कर्म की वर्ण चतुष्क ४, संस्थान ६. संहनन ६, गति ४ गत्यानुपूर्वी ४, शरीर ५, जाति ५, अंगोपांग ३. चाल २, अगुरु लघु अष्टक ८, दश दुक की २० ऐसे नाम-कर्म की सड़सठ । सर्व मिलि अष्ट-कर्म की एक सौ बीस प्रकृति बन्ध योग्य । सो मनुष्य गति में तौ सर्व का बन्ध है । तातें मनुष्य विषै एकसौ बोस बन्ध योग्य हैं। तिर्यश्च गति में पंचेन्द्रिय के बन्ध योग्य एकसौ सत्तरा है। आहारक दुक की दोय और तीर्थकर एक इन तीन बिना जानना । बेन्द्रिय तैन्द्रिय, चौइन्द्रिय-इन विकलत्रय में बन्ध योग्य प्रकृति एक सौ नौ हैं। वैक्रियिक अष्टक की आठ, आहारक दुक को दोय और तीर्थकर एक-इन ग्यारह बिना विकलत्रय में १०६ का बन्ध है । पश्च स्थावर मैं बन्ध योग्य विकलत्रयवत् एक सौ नव प्रकृति है। विशेष एता जो अग्नि व वायुकायिक इन दोय स्थावरनकें ऊँच गोत्र व मनुष्यायु-इन दोय बिना एक सौ सात प्रकृति का बन्ध है देवन के वैक्रियिक अष्टक की आठ, विकलत्रय की तीन, आहारक दुक की योग, सूक्ष्म, साधारण और इन दिना समुच्चय १०४ का बन्ध है। तहां विशेष राता जी दुजे तैं ऊपरि तीसरे स्वर्ग तैं लगाथ बारहवें स्वर्ग पर्यन्त के देवन एकेन्द्रिय जाति थावर, नाम और आतप इन तीन बिना २०२ का बन्ध है। बारहवें स्वर्ग तैं उपरि के देवनकें विकलत्रय की तीन और उद्योत – इन च्यारि बिना सत्यानवे का बन्ध है। ऐसे देव का बन्ध कह्या । नारकीन के एक सौ बीस में वैक्रियिक अष्टक की आठ, विकलत्रय तीन, स्थावर, एकेन्द्रिय, साधारण, अपर्याप्त, सूक्ष्म, आहारक दुक की दोय, आतप इन उत्रीस बिना समुच्चय २०२ का बन्ध है। विशेष राता जो तोर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध तीसरे नरक ताई है आगे नाहीं । तातें तोजी पृथ्वी तैं नीचे एक सौ प्रकृति का बन्ध है। सातवें नरक में मनुष्यायु बिना निन्यानवें का बन्ध है। ऐसे व्यारि गति विषै यथायोग्य सामान्य बन्ध कह्या विशेष एता जो एक जीव के एकै काल अपेक्षा तीन गति में तौ गुणसठ प्रकृतिन का बन्ध है । तिर्यश्च गति विषै एकै काल तीर्थङ्कर प्रकृति बिना अट्ठावन प्रकृतिन का बन्ध है । इहां प्रश्न – जो तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध तौ मनुष्य मैं हो का । परन्तु यहाँ देव नारकी में भी कह्या सी कैसे बने ? ताका समाधान – जो हे भव्य ! प्रश्न तुम्हारा
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प्रमाण है। प्रथम तौ तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध मनुष्य ही के होय है। या बात प्रमाण है। परन्तु मनुष्य गति का किया बन्ध देव, नारकी में जाय है । तातें तहां बन्ध और गति जानना । यहाँ फेरि प्रश्न—जो तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करनहारा सम्यग्दृष्टि देव गति में जाय । सो देव मैं तौ तीर्थङ्कर का बन्ध करै है, सो सम्भवै। परन्तु तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करनहारा जीव नरक में कैसे जाय ? ताका समाधान-कोऊ जीव नै मिथ्या-दशा में प्रथम नरकायु का बन्ध किया था पीछे उस निकट भठ्यात्मा संसारी जीत सम्यस्त भया सोतोशकर केवली के निकट निमित्त पाय षोडश भावना भाय तथा इनमें से एक दोय आदि कोई भावना भाय परिणामन की विशुद्धता तें तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध कर पीछे आयु बन्ध के योगत जीव नरक जाय । तहां तीर्थङ्कर बन्ध लिये जाय । ताकी अपेक्षा बन्ध कहा है। सो प्रथम नरक में जानेहारा जीव तौ सम्यक्त्व सहित भी जाय है और दूजे व तीज का जानेहारा जीव सम्यक्त्व क्रू तजकै जाय है। सो अन्तर्मुहुर्त मिथ्यात रहै। कार्मण से जाय पर्याप्ति पूर्ण करें। जहाँ ताई पर्याप्ति पूरन नाही करै तहो ताई तौ मिथ्यात्व है। पर्याप्नि पूर्ण किये तीर्थङ्कर बन्धवारे के सम्यक्त्व होय है । तब ते तीर्थकर बन्ध जानना। ऐसे च्यारि गति में बन्ध कह्या । सो ए तो प्रकृति बन्ध है और इन राकएक प्रकृति की साथि अनन्त परमाणु स्कन्ध रूप होय। सो समय प्रबद्ध की गैलि केतो परमाणु बन्धी तिनकी संख्या सो प्रदेश बन्ध है। बन्धी जो कम प्रकृति तिनमैं मोह-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण हैं। नाम व गोत्र की बीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति है। आयु-कर्म की तैतीस सागर स्थिति है । सानावरणीय, दर्शनावरणीय, वैदनीय, अन्तराय—इन च्यारि कर्मन को तीस-तीस कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति है वेदनीय की जघन्य स्थिति द्वादश मुहर्त को है। नाम व गोत्र इन दोय कर्मन की जघन्य स्थिति आठ-आठ मुहूर्त को है। बाकी औरन की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त की है। ऐसे यथायोग्य स्थिति का बन्ध होना सो स्थिति बन्ध है । बन्ध कर्म विष उदय भये जैसा रस देबे की शक्ति जो र कम उदय भये राता रस प्रगट करेगा। सो अनुभाग बन्ध है। रोसे कहे जो च्यारि प्रकार बन्ध सो बन्ध है। सो प्रकृति व प्रदेश बन्ध तो योगनते होय है। स्थिति व अनुभाग बन्ध कषायन ते होय है। ऐसे तौ रा बन्ध करण जानना। इति बन्ध करण ।। आगे उदयकररा कहिये है। तहां उदय भी च्यारि प्रकार है। प्रकृति उदय, प्रदेश उदय, स्थिति उदय और अनुभाग उदय ।
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। तहां प्रथम ही प्रकृति उदय कहिये है। सो नाना जीव नाना काल अपेक्षा उदय योग्य प्रकृति एकसौ बाईस श्रो | हैं। तहां ज्ञानावरण को ५, दर्शनावरण की६, वेदनीय की २, मोहनीय को २८, आयु-कर्म की ४. गोत्र || की २, अन्तराय-कर्म को ५, रोसे सात की ५५ नाम-कर्म को वर्ण चतुष्क की 8, संहनन ६. संस्थान ६,
गति ४. गत्यानुपूर्वी ४, शरीर ५, जाति ५, अंगोपांग ३, चाल २, अगुरु अष्टक की ८और दश दुक की २०, रोसे नाम-कर्म को ६७। समितिः २२२ उदय चोर पता : । ला विच सम्बन्धी २२ तिर्यंच गति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वो, तिर्यंचायु, जाति च्यारि, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप और उद्योत- प्रकृति तिथंच द्वादश हैं और वैक्रियिक अष्टक इन बीस बिना मनुष्य योग्य एक सौ दोय हैं। अब देव योग्य उदय की प्रकृति कहिये हैं। ज्ञानावरण को ५, दर्शनावरण को ६, वेदनीय की २, मोहनीय को नपुंसक बिना २७. वायु गोत्र ऊँच अन्तराय की ५, ऐसे सात कर्म को ४७ वर्ण चतुष्क को ४ (संहनन नाही) संस्थान एक, समचतुरस गति, गत्यानुपूर्वो, शरीर की तीन, अंगोपांग, चाल, जाति, अनुरुलघु, उच्छ्वास, उपघात, परघात, निर्माण, दश दुक को बारह सर्व मिलि नाम-कर्म की तीस ऐसे देव योग्य उदय प्रकृति सतत्तरि हैं । सो नाना जीव नाना काल अपेक्षा समुच्चय कथन जानना। नारकी के उदय योग्य प्रकृति छिहत्तरि हैं। सो देव के उदय की प्रकृतिन में तौ दोय वेद घटाय दोजे । अरु नपुंसक वेद मिलाइये। यथायोग्य प्रकृति पलट देनी। शुभ की जायगा अशुभ प्रकृति करनी रोसे नरक में उदय योग्य प्रकृति छिहत्तरि हैं; तिर्यंच के उदय योग्य प्रकृति एक सौ सात हैं। एक सौ बाईंस में तें वैक्रियिक अष्टक को आठ, मनुष्य गति आदि तीन, आहारक दुक को दोय, तीर्थक्कर ऊँच-गोत्र इन पन्द्रह बिना एक सौ सात प्रकृति का तिर्यंचन के उदय है। विशेष तहाँ एता जो पंचेन्द्रिय तिथंच के उदय योग्य प्रकृति निन्यानवें हैं। तिनके नाम ज्ञानावरणीय की पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठाईस, आयु, गोत्र, नीच, अन्तराय पांच ए सात कर्म की इक्यावन । वर्ण की च्यारि, संहनन षट्, संस्थान षट, गति, गत्यानुपूर्वो, शरीर तीन, जाति, अंगोपांग, चाल दोय और तीर्थकर व बातप इन दोय बिना मगुरु अष्टक की छः और दश दुक को मैं तें सूक्ष्म, साधारण, स्थावर इन तीन बिना सत्तरा ऐसे नाम की अड़तालीस सर्व मिलि निन्यानवे हैं। अब एकेन्द्रिय के उदय योग्य प्रकृति अस्सी हैं। ताकी विधि—झानावरण की पांच
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दर्शनावरण नव, वेदनीय दोय, मोहनीय चौबीस, आयु, नीच, गोत्र, अन्तराय पांच ए सात कर्म की सैंतालीस।
आगे नाम की-तहां वर्ण की च्यारि, संस्थान, गति, गत्यानुपूर्वो, शरीर तीन, रकेन्द्रिय जाति, तीर्थङ्कर बिना | अगुरु अष्टक को सात, दश दुक की पन्द्रह ऐसे नाम-कर्म तेतीस सर्व मिलि एकेन्द्रिय के उदय योग्य प्रकृति
अस्सी। अब विकलत्रय के उदय योग्य प्रकृति कहिये हैं। सो एकेन्द्रिय के उदय योग्य में तें सूक्ष्म, साधारण स्थावर, भातप रा च्यारि तौ कादिरा। अरु संहनन, अंगोपांग, चाल, स्वर, त्रस ए पांच मिलाइये तब विकलत्रय के उदय योग्य प्रकृति इक्यासी। ऐसे कहे जो सामान्य भाव च्यारि गति सम्बन्धी उदय सो प्रकृति उदय कहिये और सपा-बसर चे जय बाय तक कि प्रकृतिन के संग जेती-जेती प्रमारा कर्म उदय बाय खिर सो प्रदेश उदय है। सो हो संक्षेप दिखाइये है। तहाँ एकलो अणु का नाम तौ वर्ग है। अनन्त वर्ग का समूह सो वर्गखा है
और असंख्यात लोक प्रमाण वर्गणा स्कन्ध मिलाइये तब एक स्पर्धक होय । ऐसे पसंख्यात लोक प्रमाण स्पर्धक मिलाइये तब एक गुण हानि होय। ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण गुण हानि को मिलाइये तब एक नाना-गुण हानि होय। ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण नाना-गुण हानि को मिलाइये तब एक अन्योन्याभ्यस्त राशि होय । ऐसी असंख्यात लोक प्रमाण अन्योन्यभ्यस्त राशि स्कन्ध मिलाइये तब एक प्रकृति होय। ऐसे उदय योग्य प्रकृति तिनके साथ औते प्रदेश उदय आय सिरे सो प्रदेश उदय है और जिस प्रकृति की जेती जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति थी तिनमैं तें जो समय घाटि उदय पावै सो स्थिति उदय है और जिस प्रकृति के उदय होते जो शुभाशुभ रस का प्रगट होना सो अनुभाग उदय कहिये। ऐसे सामान्य करि च्यारि प्रकार उदय कह्या ।। अब सावकरण कहिये है। तहां ऊपरि कहि आरा जो बन्ध सो कर्म बन्धे पोछे जेते काल उदय होय नहीं खिरें। आत्मा के से एक क्षेत्र कर्म रहैं। सो सत्त्वकरण है । सो सत्त्वकरण भी चारि प्रकार है। प्रकृति, प्रदेश. स्थिति और अनुभाग।। तहा प्रथम ही प्रकृति सत्त्व कहिये है। सो सत्त्व योग्य प्रकृति एक सौ जड़तालीस हैं । सो नाना जीव नाना काल अपेक्षा हैं और एक जीवकै एकै काल तीन आयु बिना भुज्यमान आयु सहित एकसौ पैंतालोस का सारव है और | भुज्यमानवारे के तीर्थक्कर बिना एकसौ चवालीस का सत्त्व है और कोई के तीन आयु. आहारक चतुष्क व तीर्थकर बिना एक सौ ४० का सत्त्व है। किसी के आहारक चतुक, तीर्थकर और वध्यमान आयु सहित
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एक सौ छयालीस का सत्त्व है। एक सौ अड़तालीस मैं ते बद्धयमानवारे के तीर्थङ्कर और दोध आयु इन तीन बिना, एक सौ पैंतालीस का सत्व है। किसोक आहारक चतुष्क, तीन आयु इन सात बिना एक सौ इकतालीस का सत्व है और आहारक चतुष्क व दोय वायु इन षट् बिना कोई बद्धयमान आयुवारे के एकसौ ब्यालीस का सत्य है। ऐसे अनेक प्रकार नाना जोव सत्त्व पाइये । ताका सामान्य कथन कह्या । सो याका नाम सत्त्वकरण है।३। और जैसे-कच्चे आमों की पाल-पत्ता देय, सिताब (जल्दी) पकाइये। तैसे ही जिस कर्म की स्थिति बहुत होय, ताको बलात्कार तप-संयमादि करि, ताकी स्थिति घटाय उदय काल में लावना, सो उदीरणा में। भावार्थ-जो कर्म की बहुत स्थिति कू घटाय, थोड़ी करि, खेरना सी उदीरणाकरण है। ४ । जिन कर्मन को बहुत स्थिति थी सो तिनके निषेक, नोचले थोरीसी स्थितिवारेन में | मिलाय, उदय मैं ल्यावना, सो अपकर्षण है। ५। जिन कर्मन की स्थिति थोरी थी, तिनके निषेक नीचले तें लेय, ऊपरले बड़ी स्थिति के निषेकन में मिलावना, सो उत्कर्षण है। भावार्थ-जा कर्म की स्थिति थोरी थो ताकी बड़ी करना, सो उत्कर्षण है। ६ । आगे शुभ मावन ते पुण्य प्रकृति बांधी थीं ताके निषेक पाप परिणामन तैं पाप प्रकृति रूप करना तथा आगे अशुभ भावन ते पाप प्रकृति बांधी ताकौ शुभ भावना के फल ते पल्टाय पुण्य प्रकृति रूप करना, सो संक्रमण है । ७ । कर्म उदयावली वांझि है । सो उदयावली में कर्म कोई उपाय तें नहीं आवै, सो उपशान्तकरण कहिये।८। जिन कर्मन के परमाणु संक्रमण नहीं होय तथा उदयावली में नहीं आवै । सो याका नाम निधत्तिकरण है । है । जा कर्म के परमाणु उत्कर्षण जो कर्म स्थिति का बढ़ावना, अपकर्षण जो कर्म स्थिति का घटावना, संक्रमण जो कर्म को और रूप करना, सो जामें तीनों ही नहीं होय उदयावली में नहीं आवै। जिस अंशन करि बन्ध्या है, तिन ही ग्रंशन करि उदय आवै। सो निकाचित नामकरण है। ३०। ये दश करस हैं। इनकी जान कर्म की अवस्था भले प्रकार
जानी जाय है । ऐसा जानना । इति दशकरण । विशेष इनका श्रीगोम्मटसारणी तें जानना । ऐसा करण का ३८३ स्वस्व मध्याहन गय जान
स्वरूप, मिथ्यात्व गये जानिये है । सो मिथ्यात्व का स्वरूप कहिये है। मिथ्यात्व के दीय मेद हैं। सादि । मिथ्यात्व और अनादि मिथ्यात्व । सो जीव के अनादिकाल संसार भ्रमण करत, कबहुं भी सम्यक्त्व का
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लाभ नहीं भया होय, सो तो अनादि मिध्यादृष्टि है । २ । और जे जीव सम्यक्त्व कूं पाय, पीछे पाप भावतत्व की वा तैं मिथ्यात्व में आया होय, सो सादि मिथ्यात्वी कहिये । २ । इनके होतें कर्म का स्वरूप नहीं पावै। इति मिथ्यात्व | आगे भाव भेद तीन बताइये है। शुद्ध भाव, शुभ भाव, और अशुभ भाव इनका अर्थ-तहां राग-द्वेष का अभाव, शत्रु-मित्र, कञ्चन तृण, रतन-पाशन इनमें राग-द्वेष नहीं होय, सौ शुद्ध भाव कहिये । १ । दान, पूजा, शील-जप, तप, संयम, ध्यान, शास्त्राभ्यास इत्यादिक क्रिया रूप शुभ भावन की प्रवृत्ति, सी शुभ भाव हैं। २। और जीव हिंसा भाव असत्य भाषण भाव पर द्रव्य हरण भाव पर स्त्री लम्पट भाव पुण्य उपरान्त परिग्रह के इकट्ठे करवे रूप भाव, सप्तव्यसन माव, पाखण्ड भाव, हाँसि कौतुकादि भराड भाव, रुद्र भाव, आरत भाव, क्रोध - मान-माया-लोभ भाव इत्यादिक पाप-बन्ध के कारण सो अशुभ भाव हैं । ३ । ये तीन भाव के भेद हैं। तिनमैं शुद्ध भाव तौ भव्य ही कैं होय हैं। शुभ अशुभ ये दोय भाव, भव्य तथा अभव्य दोऊन के होय हैं। तहां भव्य के मो तीन भेद हैं। निकट भव्य, दूर भव्य और दूरानदूर भव्य । तहां जे जीव थोड़े काल विमोक्ष जां, सो निकट भव्य हैं। १ । जे जीव बहुत काल में मोक्ष होंय तथा कबहूँ न कबहूँ अनन्त काल में होंगे, ऐसी केवलज्ञान में भासी है। सो दूर भव्य हैं। मोक्ष होवे योग्य हैं, तातैं इनको दूर भव्य जानना । २ । | जे
भव्य हैं. केवलज्ञान में भासे हैं। सो भव्य राशि हैं। परन्तु मोक्ष होने की सामग्री जो सम्यग्दर्शनादि जिनके कबहूं प्रगट नाहीं होय । सदैव संसारवासी, अभव्य समानि, कबहूं मोक्ष नहीं जांय, सौ इरानदूर भव्य हैं । ३ । यहां प्रश्न – जो भव्य कह्या अरु मोक्ष कबहुँ नहीं होय, सो कैसे बनें ? ताका समाधान हे भव्य ! तू चित्त देय सुनि । अभव्य राशि तौ बहुत ही अल्प है। सो देखि। सर्व जीव राशि तैं अनन्तवें भाग तो सिद्ध राशि का प्रमाण है । सिद्ध राशि अनन्त भाग. अभव्य राशि है। सो भो जघन्य जुगता अनन्त है। सो ये अभव्य तौ जब कहिये तुच्छ राशि जानना और भव्य राशि बहुत है। सो सुनि, ज्यों तैरा भ्रम जाय। एक महा छोटा खस-खस दाने प्रमाण निगोद स्कन्ध में, असंख्यात लोक प्रमाण निगोद शरीर हैं। तहां एक-एक शरीर में अक्षय जनन्त जीव हैं। इनका अन्त नाहीं । इस शरीर में तैं निकसि-निकसि अनन्तकाल तांईं, अनन्त जीव मोक्ष होवे करें, तो भी केवली कूं पूछिये, तब ही उस शरीर तैं निकसे तिनतें अनन्त गुणे जीव, भव्य राशि और कहैं। ऐसे ही इस
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संसार तै अनन्त काल ताईजीव मोक्ष हावा करत मी सिद्ध राशि अनन्त भव्य जोव जब पूछौ, तबही केवली बतावै। तातें सदैव मोक्ष जातें भी, जब कैवली क पूछिये तबही अमव्यन तै अनन्त गुणे भव्य, एक शरीर में जानना और कदाचित् मोक्ष जाते-जाते, भव्य राशि मोक्ष जा चुके, तो मोक्ष का पीछे अभाव होय । मोक्ष बन्द होय। सो मोक्ष-मार्ग कबहूँ बन्द होता नाही, शाश्वत है। छः महीना आठ समय में, छ: सौ आठ जीव, निरन्तर मोक्ष जांध । सो ये अनुक्रम कबहूँ बन्द होता नाहीं। सो ऐसा जानना कि जो अनन्ते जीव, भव्य-राशि में ऐसे हैं, सो कबहूँ मोक्ष होते नाहों। जब केवली सं पूछौ, तबही अभव्य राशि तें अनन्त गुरौ भव्य बतावै। तामें दूरानदुर भव्य राशि भी, अभव्यन तें अनन्त गुणी जानना। सो ये दुरानदर भव्य, अभव्य समानि हैं। इति । आगे तीन भेद जंगुल के कहिये हैं। सो प्रथम ही नाम-उच्छेद अंगुल २, आत्म अंगुल २, प्रमाण अंगुल ३, इनका अर्थ-तहां प्रथम ही उच्छेद अंगुल को बताः हैं। ताके निमित्त, उगशीस मैद गिणती कहिये। अवसनासन, सनासन, तटरेणु, प्रसरेण, रथरेणु, उत्तम भोग-भूमि के बाल का अग्रभाग, मध्य भोग-भूमि के बाल का अग्रभाग, जघन्य भोग-भूमि के बाल का अग्रभाग, कम-भूमि के बाल का अग्नभाग, लोख. सरसौं, जव नाम अन्न, अंगुल, ये तेरह स्थान हैं। सो अवसनासन स्कन्ध ते लगाय, अंगुल पर्यंत तेरह स्थान, आठ-आठ गुणा अधिक जानना। भावार्थ-जैसेअवसनासन स्कन्ध है सो अनन्त पुद्गल परमागून का स्कन्ध होय है। आठ अवसनासन का, एक सनासन स्कन्ध होय है। आठ सनासन मिलाथे, तब एक तटरेण होय है। आठ तटरेए मिलाये, तब एक ग्रसरेण होय हैं। ऐसे आठ-आठ गुणा अंगुल पर्यंत जानना। इस आठ जव प्रमाण उच्छेद अंगुल तैं पांच सौ गुणा प्रमाण-अंगुल है २४ चौबीस अंगुल का एक हाथ होय है १५ च्यारि हाथ का एक धनुष होय है २६ दो हजार धनुष का एक कोस होय है १७ च्यारि कोस का शक योजन होय है १८ असंख्यात योजन का एक राजू होय है १६ उगणीस भेदन में से तेरहमा भेद, आठ जव प्रमाण उच्छेद अंगुल है जिस काल में जैसा शरीर होय तैसा ही अंगुल, सो
आत्म अंगुल जानना । अवसर्पिणी का प्रथम चक्रवर्ती, पांच सौ धनुष के शरीरवाला. ताका अंगुल सो ये प्रमागुल है। सो ये उच्छेद अंगुल से पांच सौ गुणा मोटा, प्रमाण-अंगुल जानना । इति। आगे अक्षर के तीन भैद हैं, सो | कहिये हैं। प्रथम नाम---निवृत्ति अन्तर, लब्धि अक्षर, स्थापना अक्षर, अब इनका अर्थ-तहाँ ओंठ ताल्वादि
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स्थान ते उत्पत्ति होय जो शब्द रूप अक्षर, सो निवृत्ति अक्षर है। शशानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम तैं मई जो पदार्थ जानने की भावन्द्रिय द्वारा अक्षर शक्ति, सो लब्धि अक्षर है। २। जो अपने-अपने देश भाषा रूप अक्षरन का आकार बनाय के, तिन ते कर्म-धर्म का कार्य करना.शास्त्र पढ़ना-समझना। इत्यादिक सो स्थापना अक्षर है। ३। ऐसे तोन भेद अक्षर जानना। इति। आगे पर्याप्ति के तीन भेद-पर्याप्ति।। अपर्याप्ति तिसका ही नाम निवृत्त्य पर्याप्ति । २। लब्धि अपर्याप्ति।३। इनका अर्थ-जहां पर्याप्ति नाम-कर्म के उदय सहित जीव पर्याप्ति पूर्ण करें, सो पर्याप्ति है। पर्याप्ति प्रकृति के उदय सहित जीव जेते काल शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं किया होय, सो निवृत्यि पर्याप्ति जीव है।२। अपर्याप्ति के उदय सहित जोव शरीर पूर्ण करतें पहले मरण करे है, सो लब्धि अपर्याप्ति है।३। ऐसे तीन भेद पर्याप्ति के जानना। इति। आगे चक्षु-दर्शन के दोय भेद हैं। एक शक्ति-चक्षुदर्शन । एक व्यक्त-चक्षु-दर्शन।२। इनका सामान्य अर्ध-अपर्याप्ति प्रकृति के उदय सहित ऐसे लब्धि अपर्याप्त, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के शक्ति-चक्षु-दर्शन है। इनके चक्षु-दर्शन का क्षयोपशम तो है, परन्तु अपर्याप्ति-कर्म उदयतें. अपर्याप्त दशा में ही म हैं। तातै प्रगट नहीं होने पावै। तातै शक्ति-चक्षु-दर्शन कहिये । २ । पर्याप्त चौइन्द्रिय सो ये व्यक्त-चक्षु-दर्शनी हैं ।२। इति। आगे उपशम सम्यक्त्व के दोय मैद बताइये हैं-प्रथमोपशम सम्यक्त्व ।। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व।। इनका सामान्य अर्थ-तहां अनादि काल संसार भ्रमण करते कबहूँ मिथ्यात्व छुटि सम्यक्त्व होय। आगे कबहूँ नहों भया था, अब हो अनन्तकाल में सम्यक्त्व भाव जिस जीवक होय, सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व है। शश्रेणी चढ़ते अप्रमत्त गुणस्थान वि जयोपशम सम्यक्त्व नै उपशम सम्यक्त्व होय, सो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहिये । २ । इति। प्रागे योग स्थान के तीन भेद बतावै हैं—प्रथम उत्पाद योग स्थान।। एकान्त वृद्धि योग स्थान । २ । परिणाम योग स्थान। ३। इनका सामान्य अर्थ-तहां जो उपजने के प्रथम समय में ही जो योग स्थान होय, सो उत्पाद योग स्थान है। याका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक ही समय है। २। उपजने के द्वितीय समय ते लगाय, पर्याप्ति पूर्ण होने के एक समय घाटि पर्यंत एक-एक समय बढ़ाइये। ता” एकान्त वृद्धि योग स्थान हो है। याका मो जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय है। २. पर्याप्ति
। तब से लगाय आधु पर्यन्त होय सो परिसाम योग स्थान है।३। यहाँ प्रश्न-जो परिणाम योग स्थान
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तौ पर्याप्त जीव के सम्भव है और अपर्याप्ति कर्म के उदयवाले के कैसे सम्मवै ? ताका समाधान—जो इस। लब्धि अपर्याप्त जीव का आय. श्वास के अठारहवें भाग है। ताके तीन भाग कीजिये, सो दोय भाग बिना एक । भाग अन्त का है। सो याका परिणाम योग स्थान जानना। ये तीन योग स्थान कहे। इनका विशेष श्रीगोम्मटसारजी के जीव काण्ड तें जानना। इति ।
आगे धर्म में अरुचि होवे के तीन कारण बताइये हैं। राक तौ जो जीव जन्म का हो अज्ञान है। ताकों अज्ञानता के योग करि धर्म से अरुचि रहे है। ३। कोई जीवकै कषाय के दोष ते धर्म अरुचि होय है। 21 कोऊ के धर्म-सेवन करते हो, पाप के उदय तें अरुचि होय । ३ । अब इनके दृष्टान्त दिखाइये है। तहाँ जैसेकोई जीव जन्म-रोगी तथा जन्म-दरिद्री इन दोऊ हो मैं कबहुं घृत-मिश्री का भोजन नहीं किया। इनके स्वादक कबहूँ नहीं पाया। तैसे ही कोई पापात्मा अनादि ज्ञान-दरिद्री मिटया रोग पूरित सहज ही अन्नानता करि पापपुण्य के भेदक नहीं जाने। तातें धर्म तें अरुचि होय है। ३ । दुसरा जो कोई जीव कषाय करि तथा जाकै कोई खोटी आयु का बन्ध होय गया होय ताकरि कोई ते लड़-पड़ा। सो वाके ऊपरि अपघात करवेक कूप, नदी, बाधड़ों में पूर्वदि मरे तथा कोई जहर खाय व छुरी-कटारी करि, मरे। तैसे ही पाप-कर्म के उदय करि धर्म सेवन करता मी काहू ते द्वेष-भाव करि धर्म ते अरुचि करै है। २। कोई अच्छी तरह खाता-पीता जीव के पापकर्म के उदय ते पेट में रस बढ़ चल्या। ताके योग त खान-पान तं अरुचि होय चली। ज्यों-ज्यों पेट में रस बढ़ने लगा त्यों-त्यों रोग बढ्या । त्यों-त्यों अन ते अरुचि होय चली तैसे हो अच्छा मला धर्म-सेवन करता ही जीव पाप उदय तें तथा कोई खोटो गति के बन्ध तैं तथा जायु के बन्ध योग से शनैः-शनैः धर्म तैं अरुचि करै है। दीरघ आरति के योग ते भोगासक्त भया ताके दोष करि धर्म त अरुचिकर है।३।ये तीन भेद-भाव तें धर्म में अरुचि करि पाप-बन्ध करि आत्मा अपना पर-भव बिगाई है। ऐसा जानना। इति।
आगे तीन शल्य के भेद कहिये हैं—माया शल्य । समिध्या शल्य।२। अग्र सोच (निदान) शल्य ।३। ॥ इनका अर्थ-तहाँ माया को परिणति आप तण्या चाहै है। धर्म-सेवन करै। परन्तु अपने हदयतें माया नाही जाय। कबहूँ न कबहूँमाया की वासना प्रगट हो ही जाय सो माया शल्य कहिये। २जहां धर्म-सेवन करते
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मिथ्यात्व आप तज्या चाहै कुदेवादिक को सेवा का भी त्याग करै, परन्तु कारण पाय कबहूँ न कबहूँ अतत्त्वभाव उपज है। मिथ्या-भाव ते अतत्व उपजै तथा जिन भाषित में संशय होय, सो मिथ्या शल्य है । २ । जहाँ धर्मसेवन निरवान्छित होय के सेवते ही चित्त में कबहूँ न कबहूँ धर्म-सेवनतँ पहिले ही सेवन के फल की वांच्छा होय कि धर्म का मोकौं क्या फल होगा ? तथा नहीं होयगा तथा ऐसा फल उपजियो इत्यादिक भाव विकल्प, सो अग्रसोच (निदान) शल्य है। ३। इति ।
आने निक्षेप च्यारि का स्वरूप कहिये है। प्रथम नाम-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव अब इनका अर्थ-तहां कोई वस्तु का कछु नाम कहना, सो नाम निक्षेप है। कोई वस्तु का आकार करना, सो स्थापना निक्षेप है ।२। और कोई वस्तु-पदार्थ होवे की कोई वस्तु होय सो, द्रव्य निक्षेप है । ३ । वस्तु प्रत्यक्ष होय, सो भाव निक्षेप कहिये है। ४। यहां इनका दृष्टान्त करि कहिये हैं। जैसे-वृषभ आदि तीर्थङ्करों के नाम लेय सुमरन करि पुण्य का बन्ध करना, सो नाम निक्षेप है।।
चौबीस तीर्थङ्करों के शरीर के आकार वर्ग लक्षण रूप सहित कायोत्सर्ग तथा पद्मासन प्रतिमा रतन की स्वर्ण की चाँदी की धातु की मनोज्ञ उत्तम पाषाण की स्थापना करि, पूजा-स्तुति करि, पुण्य उपार्जन करना, सो स्थापना निक्षेप है। २।
तीर्थङ्कर का जीव पर-गति में ही है। अरु षट मास पहिले नगर की रतनमयो रचना पञ्चाश्चर्य करि उपजावना तथा जो तीर्थङ्कर भये हैं । तिनके गर्भकल्याणादि अतिशय का उछाह करि, स्तुति करि, पुण्य का बांधना । सो द्रव्य निक्षेप है। तीर्थङ्कर भये नहीं हैं। परन्तु वह गर्भ में तिष्ठती आत्मा तीर्थङ्कर होने योग्य है। काल पाय
तीर्थङ्कर-पद पावेंगे। सो द्रव्य तीर्थंकर कहिये । सो इनकी सेवा पूजा किये पुण्य-बन्ध होय है सो द्रव्य निक्षेप है।३। । जहाँ समोशरण सहित गन्ध कुटी वि सिंहासन युक्त कमल तिसत अन्तरिक्ष चार अंगुल विरामपान भगवान
। घातिया-कर्म नाश करि अनन्त चतुष्टय सहित विराजमान दिव्य-ध्वनि करि उपदेश देते तिष्ठं सो भाव निक्षेप है। १५८ इनकी पूजा-स्तुतिकं करि पुण्य उपजावना, सो भाव निक्षेप है।४।
लगाकर तिर प तीर्थकर है। यहां एक दृष्यन्त और भी कहिये है। कार का नाम सिंह कहना, सो,
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मु
नाम सिंह है। काष्ठ पाषास चिन्नाम का नाहर का आकार बनाया, सो स्थापना सिंह है। नाहर की पर्याय में उपजर्व क्सन्मुख भया जो जीव सो तौ अन्तराल में है, सो द्रव्य नाहर है। साक्षात् कूदता, फांदता, बोलता सिंह सो भाव सिंह है। इत्यादिक भेद सब जगह चेतन-अचेतन पदार्थन पै लगावना । इन च्यारों के मारै पाप होय व इन पे दया-भाव किये पुण्य होय । मिट्टी के स्थापना-नाहर के फोड़े मारै का दोष लागे हैं। यहां निक्षेपन का स्वरूप सामान्य कह्या। विशेष विवेकी सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञान के माहात्म्य करि सब स्थान यथायोग्य लगाय लेना। इति ।
आगे अलौकिक मान के भारि भेद ३ . सोचता है। प्रथम नानस्य मान, क्षेत्र मान, काल मान और भाव मान अब इनका अर्थ--सो इन च्यारों मान विष जघन्य मध्यम उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद हैं। तहाँ मान नाम प्रमाण का है। सो जो एक पुद्गल परमाणु है सो जघन्य द्रव्य मान है । यातें छोटा द्रव्य और नाहीं। महास्कन्ध तीन लोक के प्रमाण, सो उत्कृष्ट द्रव्ध मान जानना । या महास्कन्ध ते बड़ा और पुद्गल स्कन्ध नाहीं। तातें महास्कन्ध उत्कृष्ट द्रव्य मान जानना । पुद्गल परमाणु से ऊपर, महास्कन्ध से एक पुद्गल परमाणु कम जो बीच के भेद हैं सो मध्यम द्रव्य मान है। और एक प्रदेश आकाश का क्षेत्र, सो जघन्य क्षेत्र मान है। यात छोटा क्षेत्र नहीं और तीन लोक क्षेत्र प्रमाण क्षेत्र सो लोकाकाश को अपैता उत्कृष्ट क्षेत्र मान है और अनन्त अलोकाकाश क्षेत्र है सो उत्कृष्ट क्षेत्र मान है । या अलोकाकाश तें उत्कृष्ट क्षेत्र नाहीं
और एक प्रदेश के ऊपर तें एक-एक प्रदेश बढ़ता उत्कृष्ट पर्यन्त मध्य के भेद हैं। ये क्षेत्रमान के तीन भेद हैं। २। और एक समय ते छोटा काल-भेद नाहीं। तातें एक समय तो जघन्य काल मान है और अतीत, अनागत, वर्तमान–ए तीन काल के जेते समयन का प्रमाण सो उत्कृष्ट काल मान है और दूसरे समय तें एक-एक समय काल बढ़ता सो उत्कृष्ट तें एक समय घाटि पर्यन्त मध्य के भेद हैं। ऐसे काल-मान के तीन भेद कहे ।३। और सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक जीव एक अन्तमुहर्त में व्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस जन्म-मरण करै। सो तिनमें छः हजार ग्यारह जन्म-मरस निगोदिया सम्बन्धी करि चुक्या होय । बरु बारहवें जन्म धर , प्रथम समय में अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान रहै है । सो जघन्य ज्ञान है । सो ही जघन्य
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भाव-मान जानना । यात अल्प भाव-मान नाहीं और इस जघन्य भाव तें एक-एक ज्ञान अंश बढ़ते एक अंश घाटि केवलज्ञान पर्यन्त मध्य भाव-मान के भेद हैं और सर्व तीन काल की जाननहारा अन्तरजामी सर्व के
केवलज्ञान है, सो उत्कृष्ट भावमान है। ये तीन भेद भाव-मान के जानना । ४। ऐसे सामान्य च्यारि भेद || मान के जानना । इति ।
जागे अजिकाजी के च्यारि गुण कहिये हैं। प्रथम नाम-लजा।। विनय । २ । वैराग्य ।३। शुभाचार ।। इनका अर्थ प्रथम अर्जिकाजी का रहने का स्थान बतादें हैं। सो जहां अर्जिकाजी के रहने का स्थान होय सो मगर त अति दूर नहीं होय । बहुत नजदीक भी नहीं होय । ऐसा यथायोग्य कोई मध्य स्थान होय तहाँ तिष्ठे और जब अाहार कौं नगर में जाय तौ अकेली नहीं जाय, कोई बड़ी अर्जिकाजी के साथ जाय। सो भी मौन सहित, विनय ते, अङ्ग संकोचती, नीची दृष्टि किरा, ईा समिति सहित, नगर में भोजन कों जाय। तन को छिपारा रहे, अङ्गोपाङ्ग प्रगट नहीं दिखावै। एक पट ते सर्व तन को आच्छादित राखती, लड्डा सहित प्रवृत्ते, सो लज्जा मुरा कहिये।। और अजिका जी आचार्य के दर्शन को जांय, तौ पांच हाथ अन्तरसे विनय सहित नमस्कार करैं हैं। उपाध्याय जी के दर्शन को जांय, तब षट् हाथ से नमस्कार करें हैं। साधुजी के दर्शन कौं अर्जिका जी जाय, तज सात हाथ के अन्तर ते नमस्कार करें। सो अर्जिका जो इन गुरौं को नमस्कार करें, तब पंचांग नमस्कार करें। अर्जिका जो को गुरुन पै कोई प्रश्न करना होय, तौ अकेली जाय, नहीं करें। एक बड़ी अर्जिका कं अपना प्रश्न कहै, जो इस प्रश्न का उतर गुरु के मुख से सुन्या चाहौं हौं ऐसा कहि, बड़ी अर्जिका जो को अगवानी करि, प्रश्न करावै और भी इनकों आदि देव, गुरु, धर्म, विर्षे योग्य विनय सहित रहै, सो विनय गुरा है।२। और निरन्तर वैराग्य बढ़ावने के अर्थ, अनेक तप करता। यत्र ते संयम-ध्यान करना। निरन्तर संसार
की अनित्यता का विचार करना। भीगन को भुजङ्ग समानि जानना। तनकौं सप्त धातुमयी जान, ताकै धारण ते । चित्त की उदासीनता, इत्यादिक मावन सहित विरक्त भाव रहना, सो वैराग्य गुण है। ३. और परम्पराय जिन
आज्ञा प्रमाण कही है जी अजिंका के प्राचार की प्रवृत्ति, ताही प्रमाण क्रिया करनी, सो शुभ आचार गुरु है।४। इन च्यारि राय सहित होय. सी सतीन में परम शिरोमणि, धर्म मुर्ति मजिका जानना । इति आर्थिका गुरा। .
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आगे दत्ति भेद च्यारि कहिये है। तहाँ नाम-पानदत्ति।समदत्ति।२। करुणादत्ति ।३। सर्वदत्ति । अब इनका अर्थ-तहां मुनिराज कों नवधा भक्ति करि दान देना तथा आर्थिका जी कू भोजन-वस्त्र भक्ति सहित
दान देना तथा त्यागी, अलि खलिक, प्रतिमाधारी, तिन को भोजन-वस्त्र देना तथा संघ में मुनि-श्रावकन को । कमण्डलु-पोछो देना। इत्यादिक वारि प्रकार संघ में महाविनय सहित भक्ति-भाव करि दान देना, सो पात्रवृत्ति है। । और आप समानि धर्म श्रद्धा का धारक गृहस्थ, धर्मात्मा, ज्ञानी, वैराग्यवान, सन्तोषी, सम्यग्दृष्टि, शुद्ध देव-गुरु-धर्म को श्रद्धा को समझनेहारा, उत्तम शुभ कर्मों, ताकी यथायोग्य भक्ति-अनुराग करि, विनयपूर्वक भोजन-वस्त्रादि देना । तिन की स्थिरता करनी, साता करनी, सो समदत्ति है। प्रयोजन पाय इनकौं दान दीजिये तथा उनका आप लीजिये। तातें इनका लेना-देना सो समदत्ति है। २। जहाँ दीन, दरिद्री, अन्धा, मुखा बालक, वृद्ध, अशक्त, रोगी, असहाय इत्यादिक कौं देखि अनुकम्पा करि, दया-भाव सहित दान का देना, सो करुणादत्ति है।३। जहाँ सर्व परिग्रह-आरम्भ का त्याग करि मुनीश्वर का पद धरना, सो सर्वदत्ति है। जब कछु दैन का नाम नहीं, जो देना था सो सर्व दिया। सर्व संसार में तिष्ठते जो-जो त्रस-स्थावर जीव, तिन सबमैं समता-भाव करि, सबकी अभय-दान देना, संसदात जालना रोसे दत्ति चारि। इति दत्ति।
आगे कुलकर तें लगाय भरत चक्रवर्ती पर्यन्त जीवन में, चूक भये दण्ड होय। ताके भेद च्यारि हैं। सो बताइये हैं-तहाँ तीजे काल के व्यतीत भये, पल्य का अष्टम भाग काल, बाकी रह्या। तब झान का सामान्यविशेष भया। कोई जीव विशेष ज्ञानी, कोई जीव सामान्य ज्ञानो। ताके योग तें कुलकर भये। सो और जीवन में ज्ञान अल्प और कुलकरन में ज्ञान विशेष भया। सो प्रथम कुलकर तें लगाय पञ्चम कुलकर पर्यन्त कोई चूक भये, जीव कौं रौसा दण्ड होय जो "हा"। याका अर्थ यो, जो "हाय-हाय ! (यह कार्य मति करौ)"श ऐसे ही पञ्चम ते लगाय दशवें पर्यन्त ऐसा दण्ड जो "हा मायाका अर्थ यह, जो "हाय-हाय ! यह कार्य मति करो"
और वृषभ देव पर्यन्त पञ्चम कुलकरों के वारे ऐसा दण्ड भया, जो "हा मा धिक। याका जर्थ-"हाय-हाय ! यह कार्य मति करौ तौ को धिक्कार है"।३1 पीछे काल-दोष तें जीवन के कषाय बढ़ी। तब राज-दण्ड मो दीरघ भया । सो चक भये भरत चक्रवर्ती के समय वारे जीव, वक्र-कषाई भये। अपराध बड़े करने लगे। सामान्य दण्ड
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का उल्लङ्घन करने लगे। तब छेदन-भेदन, वध-वन्धनादि दण्ड भये।४।ऐसे दण्ड भेद च्यारि कहै । सो जीवन की जैसी-जैसी कषाय भई, तैसा-तैसा दण्ड विधान चल्या । सो अब देखिये है। जो दोरघ चूक तें. दीर्घ दण्ड | पाते। अल्प चूक ते शोरा दराव पाने और चूक रहित स गुण सहित जीवन की, पूजा होती देखिरा है। तातें ऐसा जान, विवेकी पुरुषन कचूक (मूल) भाव छांडि, गण करना योग्य है। इति दण्ड भेद। इति श्रीसुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में दश करणादि के भेदों का वर्णन करनेवाला अट्ठाईसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥२८|| | __ आगे श्रावक की क्रिया पच्चीस हैं। इन-इन भावन से जीव, कर्म का आसव करै है, सो ही बताइये है। प्रथम सम्यक्त्व को क्रिया कहिये है--तहां अठारह दोष रहित शुद्ध देव की पूजा, शुद्ध गुरु की पूजा, शुद्ध धर्म की पूजा, जिन बिम्ब की पूजा, सिद्धक्षेत्र पूजा। धर्मात्मा पुरुषन के गुणन में अनुराग भाव, वात्सल्य भाव । दोन, दुःखित, रोगी, दुःखी-दरिद्री इत्यादिक क्लेशवान् जीवनकों देख, दया-भाव करें। समता-भाव बढ़ावें। इत्यादिक समभावना सहित जोय, शुभ-कर्म का आस्रव करै है। याका नाम सम्यक्त्व क्रिया है। ये तो शुभ आस्रव है।। प्रागे मिथ्यात्व प्रवद्धिनी क्रिया कहिये है-तहां कुदेव पूजा, कुगुरु पूजा, कुतीर्थ पूजा, हिंसा सहित कुतप तिनके करवे की भावना, औरन के हिंसा तप को प्रशंसा, कुदान करवे की अभिलाषा, कुव्रतन में काय को प्रवृत्ति, सर्व में विनय, सुदेव-सुगुरु, कुदेव-कुगुरु, इनकौं एक से जानना इत्यादिक भावन तैं अशुभ-कर्म का आस्रव होय है। याका नाम मिथ्यात्व प्रवद्भिनी किया है। ये शुभ-कर्म कौं उपजावे है। २। और असंयम प्रवद्धिनी क्रिया कहिये है-तहां मन में अनेक विकल्प धन-धान्य की चाह करना। भोग-उपभोग में अभिलाषा रूप रहना, इन्द्रियन के पोखवे की वौच्छा इत्यादि असंयम के विकल्प रूप मन का वेग, सो मन असंयम है। पंचेन्द्रिय अपने विषय कौ चाहती। सो रसना इन्द्रिय, षट रस के भोग में लब्ध । स्पर्शन इन्द्रिय, अपने अष्ट विषयन में लुब्ध। घ्राणेन्द्रिय, सुगन्ध इच्छुक । नेत्र इन्द्रिय, पञ्च वर्ण विबै लुब्ध। श्रोत्र इन्द्रिय, सुस्वर शब्द-वादिनन में लब्ध। इत्यादिक इन्द्रिय असंयम रूप। ऐसे मन व इन्द्रिय आत्मा के वश नहीं रहैं और उस-स्थावर के षट ! कायन की दया नहीं पाते। ऐसे बारह असंयम रूप भावन के विकल्प ते, अशुभ-कर्म का पासव जीव करे है। याका नाम असंयम प्रवद्भिनी क्रिया है।३। आगे प्रमादनी चौथी किया कहिये है-तहां जो जीव प्रथम तो आप
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संयम, व्रत आखड़ी को धारतें तप के फल का वांच्छक होय । तपस्वी नाम बाजै। पोछ काल पाय तप कष्ट । । ते भय स्वाय जल की इच्छा, अन्न की इच्छा, स्त्री को इच्छा । शीत-उष्ण नहीं सह्या जाय सो और असंयमी | जीवकों खावते-पीवते, स्त्री संग करते, शोत-उष्ण में अनेक तन के जतन करते सुखी देखि. विचारी। जो
मैं तो संचम तम्त हास्यानो और अधमी सी है, अच्छा खाय है-पीवै है। ऐसे भाव करि आप | संयमी होय कर, पीछे प्रमाद योग ते याप उदय करि, असंयम कं मला जान, संयम ते विचल्या चाहै । सो
प्रमादिनी नाम की क्रिया है। ऐसे भाव ते अशुभ-कर्म का आस्रव होय है।४। आगे ईर्यापथ क्रिया कहिये है। सो याकरि दोय भेद आस्रव होय है। जो जीव अन्तरङ्ग में सर्व जोव चै दया-भाव करि, गमन करते नोचो दृष्टि करि देखता चाले । धीरा चाले । छोटा-बड़ा जीव नजर में आवे, सो राह में बचाय लेय, ऐसे दयाभाव सहित जतन ते भमि शोधता गमन करें, तो चलता जीव के ही पुण्य का आसव होय और गमन करते, ईर्या तजि, प्रमाद ते उतावला चालै । राह में आप समान आत्मा अनेक, छोटी कायधारी, पशु चींटा-चौंटी हैं तिनकी रक्षा रहित, प्रमादतें गमन करता आत्मा, अशुभ-कर्म का आस्रव करें। याका नाम पञ्चम भेद ईयर्थ्यापथ क्रिया है। ५। आगे प्रादोषि को क्रिया कहिये है-जहां ये जीव धर्म भाव तजि क्रोध के वशीभूत होय, अनेक पाप करें। जाकौं क्रोध का उदय होय तब जीव घात करी दश तजै। क्रोधी जीव देव, गुरु, माता आदि गुरुजन का अविनय करै। शस्त्र घात तें, आप तन हत। क्रोधी अग्नि ते ग्राम, वन, घर जाले। क्रोधी नर, पुत्र, स्त्री, भाई आदि का घात करें। इत्यादिक पाप, क्रोध भाव से करै। तहां क्रोधी भी अशुभ-कर्मन का आसव करै है। याका नाम प्रादौषि की क्रिया है। ६ । अब कायिक क्रिया कहिये है-तहाँ जाने शरीर पाय, चौरी करी। जीव घात किया । पर-स्त्री सेवन किया । मद्य-मांस भक्षण किया। अपने कुल निन्द्य, अपने धर्म निन्द्य, खान-पान निन्द्य किया करि । द्यूत रम्या । युद्ध किया । पर-जीवन कं भय उपजाये। इत्यादिक ता शरीर से बहुत अपराध किये। ताके फल से शरीर की नाक छेदन कराई, पाव छेदन कराये इत्यादिक अङ्ग-उपाङ्ग छेदन सहित रहै। तो भी पर-घात का तौ उद्यम किया करै। ऐसे बहुत पाप-अकार्य करि, भाव बिगाड़ि, अशुभ-कर्म का पासव किया और शुभ-कर्म तौ शरीर कौं धारि, काबहूं नहीं करचा, अपराध किये। सो सातमी कायिक क्रिया है । ७। आगे
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अघकरणी क्रिया कहिये है-तहां जाकी हिंसा के उपकरण, बहुत बल्लभ (प्यारे) लागें। तीर, तलवार, तुपक, तोप, सेल, बरछी, कटारी, छुरी इत्यादिक अचेतन, हिंसा के उपकरण हैं। सो ये जा कू बहुत अनुराग उपजा। तिनके निमित्त श्रङ्गारवेकौं अनेक द्रव्य लगाय आभषण करावे तथा चीता, बाज, श्वान, सिंह, सुअर, मारि, चोर, ऐंठा देनेहारे घर फोड़नेहारे, ठग, फांसी करनहारे इत्यादिक ये चेतन, हिंसा के उपकरण जाकौं प्यारे लागें इनको भला भोजन देय। बडे भारी वस्त्र देय इत्यादिक चेतन-अचेतन हिंसा के पाप के सहाई उपकरश तिनको दैगित एष गाल पला, सो आसव के करनहारे भाव जानना। थाका नाम आठवीं अघकरणी क्रिया है।८। प्रागे परितापि की क्रिया कहिये है। तहां अपनी इच्छा करि जान-बझ पूछ करि ऐसो क्रिया करै जाकरि पर-जीवन कं पीड़ा होय । जैसे—काह ने कौतुक हेतु हस्ती का युद्ध कराया। मीठेन का युद्ध कराया। कर जीव नाहर का युद्ध किया सर्प नेवले को युद्ध किया घोटक युद्ध, महिष युद्ध, ऊँट युद्ध, नर युद्ध इत्यादिक युद्ध क्रिया अन्य जीवन की करावनी। तिन से कोई के शिर फूट। केई के पद मामये इत्यादि अन्य जीवनकू बलात्कार दुःखो करि आप हर्ष पावना । सो परितापि की क्रिया, अशुभ भासव की करनहारी है तथा नदी, कूप, बावड़ी, सरोवर विर्ष, कौतुक हर्ष के हेतु कूदना ताकरि दीन जीव जलचर, तिनका घात करना, दुःखो करना। जान-बूम-पूंछ काहू के लात, मूकी, लाठी, शस्त्र मार दुःखी किरा इत्यादि क्रिया करि अशुभकर्मन का आसब करना, याका नाम नववीं पारितापि को क्रिया है। आगे प्रारतिपाति की क्रिया कहिये है। तहां जो जीव अपने तनते पर-जीवन के तन का नाश करें। जैसे—खेटक करनेवाले की क्रिया तथा चाण्डालादिक दया रहित, पर-जीवन का घात करनहारे तिनको क्रिया तथा चोर व फैसियारा अपने हाथ से पर-जीवन का घात करें, सो क्रिया इत्यादिक पर-जीव घातवे की क्रिया हैं। सो सर्व पाय का आस्रव करें हैं। याका नाम प्रागतिपाति को दशवों किया है। २०। आगे दर्शन क्रिया कहिये है जहां पराया भला रूप देसर्व को इच्छा, कोई स्त्री-पुरुष का अच्छा रूप सूने, तौ ताके देखवे की अभिलाषा होने की क्रिया 1 पुरुषकौ अनेक पट-आभूषण पहराय, स्त्री का रूप आकार बनाय, देखवे के परिणाम। कोई देव. देवी, मनुष्यनी के रूप का बखान सुनि के, तैसे रूप देखवे क चित्त का विह्वल होना तथा अनेक प्रकार षट्स भोगवे की अभिलाषा।
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रसना के रावनेहारे भोजन तें सुखी, रसना कं अरति उपजावनेहारे भोजन-रस मिले दुःखी, रोसे भावन ते जीव ।। अशुभ-कर्म का आस्रव करें। याका नाम ग्यारहवीं दर्शन किया है। १। आगे स्पर्शन क्रिया कहिये है। तहां जो जीव अपने काय के स्पर्शने कू कोमल शय्या के निमित्त, साँचत कूल-बाड़ी तिनको शय्या रचना करै। तामें शयन करि-लोट, आनन्द मनावें। पाप का भय नाही, दया का विचार नाही, हिंसा का तरस नाही, अपनी इन्द्रिय पोषी जाय सो करना तथा योग्य-अयोग्य कुल नहीं विचारें। मावै स्पर्शवे योग्य होऊ, भावे नोच अस्पर्शवे योग्य होऊ, जाका तन सुन्दर होय कोमल होय, सो स्पर्शन इन्द्रिय का भोगनेहारा ताकौं स्पर्श है। नीच-ऊँच नहीं विचारें। सो बारहवों स्पर्शन क्रिया है। २२ आगे प्रात्ययिनी क्रिया कहिये है। जहां पाप करने के कारण नाना प्रकार शस्त्र, तोर, गोली, छुरी, कटारी, तरवार जाल, पीजरा, फौसि, फन्दा, चेप, कुप इत्यादिक हिंसा के कारण शस्त्र तिनकी अत्यन्त चतुराई बनावने की जानौं होय । सो रोसे अद्भुत शस्त्र बनावे, तैसे और कोई ते नहीं बनें। ऐसे अपूरव दुःख के कारण शस्त्रादि करने की कला-चतुराई, सो महाअशुभ-कर्म का आसव करे। याका नाम प्रात्ययिनी क्रिया है।२३। आगे समन्तानुपातनी क्रिया कहिये है। जो गृहस्थ के मन्दिर प्रसूत के स्थान हैं। ये भोगी जीवन के स्पर्श करने के हैं। जहां सराग क्रीड़ा सदैव होय। सो ऐसे स्थान त्यागीन के रहवे के नाहीं। ये सराग स्थान त्यागीन को योग्य नाही, अयोग्य हैं, भय के कारण हैं। तातै जो यति आदि संयमी, इन गृहस्थन के घर में आर्य, तौ महासावधान, प्रमाद रहित, वीतराग दशा सहित, भोजन निमित्त आवै। सो जेते काल सराग नहीं होंय, दोष टालि भोजन लेंय। सो जाते तथा आवते, संयमी अपने तन के श्लेषमादि मल-मत्र, प्रमाद के योग ते कदाचित् गृहस्थी के घर विर्षे ना। तो ऐसे प्रमाद-भावन ते अशुभ आसव करें। याका नाम समन्तानुपातनी क्रिया है।२४। आगे अनाभोग क्रिया कहिये है। जहां बिना देखे वस्तु को धरती पे धरना, बिना देखे धरती उठाना। सो यति तौ कमण्डलु, पौधे, तन इत्यादिक धरै सो बिना शौधे धरती, बिना पीछी तै पूर्वे, धरै तो अशुभ आस्रव करें हैं और श्रावक भी अनेक वस्तु धरना-उठावना बिना देखे, प्रमाद सहित करें, तो अशुभ आसव करें। याका नाम अनाभोग क्रिया है। २५। आगे स्वहस्त क्रिया कहिये है। तहाँ जे दुराचारी, दुष्ट स्वभाव का धरनहारा, महापापी, अपने हाथ से पाप का कार्य करें। जो ऐसा निषिद्ध खोटा कार्य और
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तें नहीं बने। ऐसी काय का धारी महापाप का आसव करै। यह ऐसा पापी है कि यदि याके कहै कोऊ पाप कार्य न करै तथा कोई करता पाप कार्य से डरै। तो यह निर्दयी ऐसा प्रेरक होय कहै। जो हे भाई। यो पाप हमारे शिर है। तू मत डरै। ये पाप का कार्य निःशङ्क होय करि। ऐसे भाव का धारो बड़े पाप का जासव करें। याका नाम स्वहस्त क्रिया है। १६ । आगे निसर्ग क्रिया कहिये है। तहां जो दुरात्मा को भला कार्य तौ सिखाये ही नहां आवै। शुभ कार्यन विर्षे मूढ़ता, भली बात बोलना न आवै और अनेक कुकार्य, बिना सिखाये ही अपनी बुद्धि तैं उपावै। अनेक युक्ति, पाप-कार्य करने की उपजै। आप करै, औरन कू कुकार्य उपदेशै । ऐसे जीव अपने भाव ते पाप-कम का आसव कर। याका नाम निसर्ग क्रिया है। १७। भागे विदारण क्रिया कहिये है। तहां जो जीव अपना अवगुण लोकन मैं बाप प्रगट कहै। जो मैं बड़ा चोर हूं। मो-सा और नाहीं। अनेक संकट में, महागढ़ स्थान में, धन धरचा होय, तहां तें ल्याऊँ तथा कहै, जो मो-सा ज्वारी और नाहों तथा कहै, हम परस्त्री सेवनहारे हैं तथा कहै, मैं बड़ा पाखण्डो हूँ मो-सा पाखण्डी और नाहीं। बड़ा झूठा हों तथा मैं बड़ा दगाबाज हों इत्यादिक अपने अवगुण को प्रशंसा, अपने मुख से करें। ऐसा जीव अपने भावन को वक्रता करि, अशुभ-कर्म का आसव करै । सो याका नाम, विदारण क्रिया है। १८। आगे जिन-आज्ञा उल्लंघन क्रिया कहिये है। जो विषय-कषायन में उद्यमी, पंचेन्द्रिय पोषवे क अनेक उद्यम करै। कदाचित् तन की शक्ति नहीं भई होय, तो बुद्धि बल करि मन त बड़ा उपाय करें। परन्तु जैसे बने तैसे, विषय पोषण करि, सुख माने । जिनके सेवन पुत्र वध, न होता जानें, ऐसे कुदेव तथा जिनतें रसायन होतो जाने तथा वैद्यादिक कला के धारी, जन्त्र-मन्त्रादि चमत्कार बतावनहार-गुरु, इनकी सेवा में सावधान । तिनकी आज्ञा प्रमाण तौ करें। जिन भाषित धर्म-सेवन में शिथिल. स्वर्ग-मोक्षदाता तप, व्रत, पूजा करने में प्रमादी। कायर ऐसा कहै, जो मेरे तन में शक्ति नाहीं। अशक्ति जानि, आलस सहित, शुद्ध धर्म की क्रिया करै। सो भी अपनी इच्छा रूप करे जिन-आज्ञा प्रमाण नाहीं करै । ऐसे भावन का धारी अशुभ आसव करै। याका नाम जिन-आज्ञा उल्लंघन क्रिया है । १६ । आगे बीसवों अनादर क्रिया कहिये है । जो जोव शास्त्रोक्त तप, संघम, पूजा, दान, चारित्र, ध्यान पाठादि धर्म क्रिया करै सो सर्व अनादर सहित करें। यह अभागी धर्म-भावना रहित पापाचारी
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। प्रात-रौद्र के विकल्पन करि भरया है हदय जाका। ताक चोर-ज्वारीन का तौ आदर आप जैसे पापी, पाखण्डी, सप्तव्यसनी, चोरन के सहाई, तिनका आदर करे और महालोभी पर-स्त्री इच्छुक धन के लोभ की व पर-स्त्री
३९७ वश करने की अनेक मन्त्र-तन्त्रन का साधन कर,तप करै, जप करै, सो महाआदर सू करे। अरु कल्याणकारी धर्म क्रिया आदर बिना करें। ऐसी परिणति का धारी, अशुभ-कर्म का आस्रव करें। याका नाम जनादर क्रिया है 1२० आगे प्रारम्भ क्रिया कहिये है। तहां अपनी शक्ति तौ आराम करने की नाहीं। तब और केकिये पापारम्भ तिनकों देख हर्ष करना । जैसे-किसी के किये मन्दिर, गढ़, कोट, कूप, बावड़ी, सरोवर बनते देखि महाजारम्भ देख आप अनुमोदना करनी तथा पर के व्याह में बड़ा आरम्भ देखि प्रशंसा करनी इत्यादिक भावन” अशुभ-कर्म का आस्रव करे है ।याका नाम आरम्भ क्रिया है।२। आगे परग्राहणी क्रिया कहिये है। तहां जै जीव लोभ के मरे योग्य-अयोग्य नहीं गिनैं। ये लेने योग्य है, ये नहीं लेने योग्य है। ऐसा भेद तीन लोम के उदय नहीं विचारै। परवस्तु अपने हाथ आवै सो सब लेय। देव-धर्म का माल जो धर्म निमित्त का सौर भगनी, पुत्री का, भानजे का इत्यादिक ये लौकिक निन्द्य पर द्रव्य है। सो जो महालोभ सहित जीव होय है सो लोभी धर्म-अर्थ का भी द्रव्य विषय में लगावै । बहिन-भानजे का धन लेय इत्यादिक लोभी के हाथ आवै सो त नाहीं। ऐसे पर माल ग्रहण खूप भावन का धारी अशुम-कर्म का आस्रव करे। याका नाम पर-ग्राहणी क्रिया है। २२। आगे माया नाम क्रिया कहिये है। तहां जे जीव पर-जीवनको ठगनेकौं महाचतुर अनेक थुक्ति देय अनेक विद्याकर पराया धन हरैं। अनेक कलान करि अपने विषय-कषाय पोषण करें इत्यादि पाप-कार्यन मैं तो प्रवीस होय हैं और जे जिन माषित शुद्ध-धर्म की क्रिया तिनमैं मूरख समानि भोला जिन-पूजा नहीं जाने जो कैसे करें व कैसे पढ़ें हैं। भगवान् की स्तुति नहीं करि जानें। प्रभु का दर्शन नहीं करि जानें । जिनकी दया महापुण्यकारी होय ऐसे षट्- || जीव तिनके नाम-भेद नहीं जानें । संसार भ्रमण के जो स्थान च्यारि गति ताका स्वरूप नहीं जानें। आप जीव है सो मापक जीवत्व भाव नहीं जाने। इत्यादिक कल्याणकारी धर्म सम्बन्धी बात क्रिया नहीं जाने। ऐसे भाव का धारी जो पाप मैं चतुर धर्म में मूढ़ सो पाप पासव करि पर-भव बिगाई है। याका नाम तेईसवीं माथा क्रिया है।२३। आगे मिथ्यादर्शन क्रिया कहिये है। जो जीव प्राप मिथ्यात्व रूप क्रिया करै। औरन• उपदेश देय।
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जैसे-आप तौ धन का लोभी तथा मान-बड़ाई के अर्थ मिथ्या देव-गुरु की सेवा करै। जो मोकं धन देय मोकू पुत्र, हाथी, घोटक देय इत्यादिक वस्तु के लोभको मिथ्या-मार्ग सेवन करै तथा और भोले अज्ञानी जीवनकं उपदेश देय कुदेवादिक के अतिशयकों कहै कि ये देव प्रत्यक्ष वाच्छित देय है। हमने इनकी सेवा करी सो हमें ऐसी वांच्छित वस्तु देय हमारो वाच्छा पूरी करी इत्यादिक अतिशय जानि देवादिकळू आप सेवना औरनकू उपदेशना। सो ऐसे भावन से जीव संसार दुःख देनहारे पाप-कर्म ताका आसव करें हैं। याका नाम चौबीसवीं मिध्यादर्शन किया है । २४ जागे अप्रत्याख्यान क्रिया कहिय है। सो जे जीव अज्ञानता के योग तैं तथा परिशामन की करता ते सर्व हो पाप-कार्य करें कोई पाप का त्याग नाही ते मूल केई तो ऐसा कहैं जो हम तौ भोले हैं। हमकौं पाप नहीं लागैजो समझ हैं, ताकौ पाप भी लागे है। सो हम तौ कछु समझते नाही जो पाप कला झोय है एकास कमाव: और ई जीव कहैं हैं कि जो हे भाई! पाप-पुण्य तो है ही नाहीं। तात भय काहे का ? निःशङ्क होय भोग सुख करना। केई प्राणी कहैं हैं। अरे देख लेहैं जब मरेंगे तब। हाल तौ अपनी इच्छा होय सो करौं। मरती बार धर्म लय लेहैं। केई कहैं हैं कि जो तुम चाहो सो करौं पाप होय तौ याका फल हमकं लागै। इन क्रियान ते नरक होय तो हमें होऊ । हे भाई! यहां ही वांच्छित नहीं मिले तो नरक है और यहां ही सुख मिले तो स्वर्ग है। तात सुख तैं रहौ। हाल ही छते सुख काहे कौ तजौ हौ ? इत्यादि स्वेच्छाचारी होय सर्व पाप करें। योग्य-अयोग्य का कळू विचार नाहीं। कोई पाप का त्याग नाहों करें। ऐसे भावन के धारी अशुभ आस्रव करें। याका नाम पच्चीसवीं अप्रत्याख्यान क्रिया है। २५। इति । पञ्चोस क्रिया आसव की कहीं।
आगे राजा श्रेणिक ने श्री गौतम स्वामी नै प्रश्न किये थे तथा तीर्थकर को माता ते देवाङ्गना ने प्रश्न किये थे तथा और अनेक शास्त्रन में धर्मो-जीवन के प्रश्न प्रमाण यहां पुण्य-पाप का फल प्रगट जानवेकू शिष्यन की प्रश्नमाला लिखिये है। तहां शिष्य गुरु के पास विनय सहित होय पुण्य-पाप के फल प्रगट जाननेक प्रश्रमाला की जो पति सो पूछे है । हे गुरु-देवजी ! यह जीव अन्धा कौन पाप तें होय । तब गुरु कही-जिन जीवन ने अन्य भव विषय अन्ध जीवन के नेत्र दुःखाये होय, पर के नेत्र फोड़े होय। पर की आँख दुःखती देख सुखो भया होय ।
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परको अन्धा भया जानि अनुमोदना करी होय । अन्धे जीवन को हाँ सि करि बहकाया होय । अन्धेन का धन, वस्त्र बल-बल करि हरचा होय इत्यादिक पापन तैं जीव अन्धे होंय तथा नेत्र रहित तेइन्द्रिय आदि अन्धे जीव उपजें हैं। २ । बहुरि शिष्य पूछ है । भो प्रभो ! जीव बधरे कौन पाप त होंय ? सो दया करि कहौ । तब मुनि कही—जे जीव अपने काननतें विकथा सुनि हर्ष पाया होय । सत्य वचन सनि ता असत्य कहा होय । मुठा वचन सुनि जानि सहि तय करिनान्या हाय सबा अपराधी चुगलन के मुख से असत्य पापकारी वचन सुनिक पर-जीवन पर दोष लगाए घर लुट्या होय । दण्ड कर दिया होय । घर, स्त्री. गज, घोटकादि खोंस लिये होय । औरन के कान द्वेष-भाव करि छेदन किये होंय तथा औरन कं बधरे जानि कुवचन बोले होंय तथा परकं बधिरे जानि ताकी हाँ सि कौतुक करि हर्ष मान्या होय । पराये दीनता के वचन न्याय रूप सुनिक जनसुने किये हाय तथा दोन पाय-आय याचना रूप वचन कहैं तितकं सुनि मान के जोर से जबाब नहीं दिया होय तथा अन्य जीवन में आपकू मला मनुष्य जानि विनय-वचन कहे नमस्कारादि किया तिनकौं मानो होय पोछे प्रति उत्तर नमस्कारादि नाहीं करया होय। सुन्या-अनसुन्या किया होय इत्यादिक पापन तैं बधिरा होय है तथा कान रहित चौइन्द्रिय होय है ।। पोछे और प्रश्न शिष्य करता भया। हे यतिनाथ ! लला कौन पाप नै होय? तब यति कही-हे वत्स! जाने पर-भव मैं अपने हाथ तैं पर के पाँव तोड़े होंय तथा दीन पशूनकं लाठी-लाठो मारि दया रहित चित्त करि तिनके पांव तोड़े होय तथा शस्त्र तें दीन पशन के पांव तोड़े होय । पर कौं लला-पग रहित जान ताका वस्त्र वासनादि ले भागा होय तथा पर के पाँव छेदतें आप खुशी भया होय तथा इस कौतुक क देख हर्षाया होय तथा पर कौं लंगड़े जानि बहकाये होय, ताकी हँसी करी होय इत्यादिक पाप तें लंगड़ा होय तथा पवि रहित, हलन-चलन रहित राकेन्द्रिय होय ।३। बहुरि शिष्य पूछो हे नाथ! मुख रहित तथा मुख सहित मका, कौन पाप तें होय ? तब गुरु कही-हे वत्स सुबुद्धि ! चित्त देय सुनि। जिन जोवन नैं पर के मुख मंदि, तिन्हें शस्त्र मारे होंय तथा मुख में शस्त्र घालि, वचन बन्द करि, दुःखी किया होय तथा पर कौ भले वचन बोलते देखि, ताकी मने किया होय तथा मुख पाय के असत्य बोलिक, अन्य जीवन का बुरा किया होय तथा रसना इन्द्रिय का लोलुपी बहुत रह्या. ताके निमित्त अनेक जीवन को हिंसा करी होय तथा
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अभक्ष्य वस्तु तो रसना तैं बहुत भली लागी होय तथा मुख करि अन्य जीवनको कोप करि इवानादिक को नाई काटे हों तथा और कूं मूंका देखि तिनकी हाँसि करि बकाये होंय तथा अन्य जीवनकूं प्रच्छन्न वचन, जानें वह नहीं समझे ऐसे वचन बोलि, दुर्वचन कहि कैं हर्ष मान्या होय इत्यादिक पापनतें मूंका होय है । ४ तब फेरि शिष्य प्रश्न करता भया । हे नाथ! यह जीव निर्धन कौन पाप तैं होय ? तब गुरु कहोमो वत्स ! जिननैं परभव में अन्य जीवन का धन चोर कौर, उन्हें निधने किया होय तथा पर को झूठा दोष लगाय, आपने जबरी हैं ताका धन लूट, अन्य कौं निर्धन किया होय तथा पर को भय देय, दुःख देय ताका धन छोन लिया होय तथा धन जोड़ने कौं अनेक स्वाङ्ग धरि, पराया धन ठगा होय। ऐसे अपराधी जीव, निर्धन होय हैं तथा परकौं धनवान् न देख सक्या होय । पर के घर में धन देखि, आप दुःखी भया होय तथा परकौं धनवान् देखि ताके धन खोवने कूं अनेक चुगली राज-पश्चन में करि ताका धन नाश कराय, निर्धन किया होय तथा अन्यकूं धन की पैदायश कोई कार्य में जानी, ता कार्य का घात किया होय इत्यादिक पाप-भावन तैं प्राणी भवान्तर में निर्धन होय तथा निर्धन होने के अनेक भेद है। जिनने पराया धन अग्रि में जलता देखि हर्ष पाया होय तथा अपने पराये धन कौं अनि लगाय, निर्धन किया होय तो तिस पाय हैं अपना धन अग्नि में जल आप निर्धन होय तथा पर धन जल में डूबता देख सुनि हर्ष पाया होय तथा अपनी दगाबाजी तें नदी-सरोवर में पराया धन डुबां परकों निर्धन किया होय । तिस पाप तैं भवान्तर में आपका धन नदी-सरोवर में जहाज डूबे, नाव वै। ऐसे आप निर्धन होय तथा औरन के घर नगर लुटे सुनिदेखि, आप सुखो भया होय तो आप भी तार्के फल तें फौजनिस लुटि, निर्धन होय तथा पर का धन, आपने जबरन लूटया होय तथा पर का धन बोरन तें लुटता देखि तथा सुनि, आप हर्ष मान्या होय । तार्के पाप तैं भवान्तर में आपका धन वोरन तें लुटि, आप निर्धन होय इत्यादिक निर्धन होने के अनेक भेद हैं। जा जा परिणामन त परकों निर्धन वांच्छ या होय तथा जा-जा प्रकार पर कूं निर्धन भये देखि, आप खुशी भया होय। तिस ही निमित्त पाथ, आप निर्धन होय । ५ । बहुरि शिग्य प्रश्न किया। भो गुरुनाथ ! यह जीव धनवान कौन पुण्य तैं होय ? तब गणधर ने कही है भव्यात्मा! जिन जीवन नै निर्धन पुरुष को दया करि, तिनको दान देय धनवान् करि. सुखो किये होंय तथा निर्धन जीव देखि, तिनको दया करि धनवान होना वच्छा
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होय तथा पर-जीवन के धन प्राप्ति भई सुनि आप सुखी भया होय इत्यादिकशुभ भावना है, जाप धनवान् होय । ६ । पीछे फेरि शिष्य प्रश्न किया। भी गुरुदेव ! यह जीव, पुत्र रहित कौन पाप तैं होय ? तब गुरु कहो — जो जीव पर भव में पर के पुत्र नहीं देख सकच्चा होय। पर जीवन कूं पुत्र को प्राप्ति भई सुनि, ४०१ आपने दुःख पाया होय । पर के पुत्र का मरण सुनि, आप सुखी भया होय तथा पर-पुत्र देखि, हरचा चाड्या होय इत्यादिक पापन तैं जोव, पुत्र रहित होय। ७ । पोछे फेरि शिष्य प्रश्न किया। नाथ ! यह जीव कौन पुण्य तैं पुत्र सहित होय है ? तब गुरु कही है वत्स ! जिन जोवन नैं भवान्तर में पर-जीवन क, पुत्र सहित देखि सुख मान्या होय तथा परकौं पुत्र की प्राप्ति सुनि, हर्ष पाया होय तथा परकौं पुत्र रहित जातध्यानी- दुःखी पुत्र का अभिलाषी देखि, ताकी दया भाव करि ताक पुत्र होना वांच्छा होय इत्यादिक पुण्यर्ते पुत्र सहित होय । ८ । पोछे फेरि शिष्य प्रश्न किया— हे नाथ! यह जीव कूं कुपूत पुत्र का संयोग, कौन पाप होय ? तब गुरु कही हे वत्स ! जिन पर - पुत्रकं बहकायवे में सहायता दी होय, उसे पाप-कार्यन मैं लगाय, अनेक कुबुद्धि सिखाय, माता-पिता का अविनय किया होय । तार्कों अनेक कुमार्ग लगाय, मातापितात युद्ध कराया होय । पुत्र के पास माता-पिता की निन्दा करी होय तथा परका सुपूत पुत्र देखि, ताकौ नहीं सुहाये होंय तथा पर के पुत्र चोर, ज्वारी, कुशील आदि विशेष व्यसनी देख, आप हर्षवन्त भये होय । पर कूं अनावारी देखि, सुख पाया होय इत्यादिक अशुभ भावन हैं, कुपूत पुत्र का संयोग होय है | पीछे फेरि शिष्य प्रश्न करता भया । है जगत्पति ! सुपूत पुत्र का लाभ कौन पुण्य होय ? तब गणधर ने कहीजिन जीवन नै पराये कुपूत कुमार्गी पुत्रन कौं अनेक शिक्षा देय, सुमार्ग लगाये होंय । अनेक नय-युक्ति करि, तिनकूं सुबुद्धि उपजाय, माता-पितान की आज्ञा में किये होंय पर के सुपूत पुत्र देख आपकूं सुख उपज्या होय । पर के सुपूत पुत्रन के शुभ लक्षण देखि, तिनकी प्रशंसा करी होय । पुत्रकूं माता-पिता सु विनयवान् देखि, आप हर्ष पाया होय इत्यादिक शुभ भावना तैं, सुपूत पुत्र का लाभ होय है । १० । पोछे फेरि शिष्य प्रश्न करता भया । हे नाथ! खोटी स्त्री, कौन पाप तैं पावै, सो कहौं। तब गुरु कही हे वत्स | जे जीव पर के घर में खोटी स्त्री - कलहकारिणी देखि सुखी भये होंय तथा पर- स्त्री भर्तार में माया करि, कालह
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कराया होय । परस्पर द्वेष- पाड़ि, आप हर्षाया होय । पर के घर में सती, विनयवती भली स्त्री देखि, आप a नहीं सुहाई हो । पर को भलो स्त्रीन कौं देखि तिनकी निन्दा करी होय इत्यादिक पाएन तै पर-भव मैं खोटी स्त्री पावै । २१ फेरि शिष्य प्रश्न किया । हे नाथ ! भली स्त्री कौन पुरायते पावै ? तब गुरु कही - है भव्यात्मा ! जानें पर-स्त्रीन के अवगुण छुड़ाय, उन्हें गुणवती करी होय तथा पर-स्त्रीन के शोलादिक गुण. भरतार के विनय रूप देखि, जाक सुख भया होय तथा पर-स्त्रीन के शोल-गुण की रक्षा करी होय तथा शीलवान् सती स्त्रीन की प्रशंसा करो होय इत्यादिक शुभ भावन तैं शुभ-स्त्री पावै । १२ । तब फेरि शिष्य प्रश्न पूछी। हे नाथ! ये जीव संसार में अपमानी कौन पाप हैं होय ? तब गुरु कही हे भव्य ! जिनने परभ में अनेक जीवन का मान खण्डया होय तथा माता-पिता, गुरुजन का मान नहीं रखा होय तथा देवगुरु-धर्म का अविनय किया होय तथा पर-जीवन कूं अल्प पुरायी जानि तिनका अनादर करि, पर-जीवनकूं दुःख उपजाया होय तथा अपनो महिमा अपने मुख तैं करि, पर कौं निन्दे होंय तथा आप कूं महन्त जानि, दोन जीवन कूं पीड़ा उपजाई होय इत्यादिक पाप भावन हैं, पर भवमैं अपमानी होय । १३ । बहुरि शिष्य प्रश्न करता भया । हे गुरुदेव जी ! जीव जग में कोर्तिमान् कौन पुण्य तैं होय ? तब गुरु कही --जिन जीवन ने अपने मुख पर भव में तोर्थङ्कर, चक्री, कामदेवादिक महापुरुषन के गुण की कीर्ति करी होय । पर की कीर्ति सुनि आप सुख पाया होय । पराये दोष देख आपने दावे होय तथा देव-गुरु-धर्म की महिमा अपने मुखतें करी होय तथा माता-पितादि गुरुजन को विनय सहित सेवा-चाकरी करी होय इत्यादिक पुग्थ भावनतें कीर्तिमान होय है । १४ । तब फेरि शिष्य मस्तक नमाय पूछता भया। भो श्रथज्ञानी! इस जीव का सर्व कुटुम्ब दुःखदायक कौन पाप तैं होय ? तब गुरु कही हे शिष्य जिनने पर के कुटुम्ब में परस्पर साता देखि आपने दुःख मान्या होय । पर के कुटुम्ब में कलह देखि सुख पाया होय तथा पर के घर में परस्पर भ्रातृ-स्नेह देखि अपनी दगाबाजी तें झूठे वचन बनाय इतके उत-उत के इत कहि परस्पर द्वेष कराय हर्ष मान्या होय इत्यादिक पाप ष्ट सर्व कुटुम्बी-जन दुःखदायक होय हैं। २५ । तब फेरि शिष्य पूछी है जगत्पूज्य ! सर्व कुटुम्ब सुखदायक कौन पुण्य तैं होय है ? तब गुरु कहो - है वत्स ! हे आर्य! जाने और के कुटुम्ब में परस्पर द्वेष देखि,
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अपनी बुद्धि के बल करि, तिनका परस्पर स्नेह कराय, सुखी किये होंय। पर के कुटुम्ब विर्षे परस्पर स्नेह देखि, सबकू साता देखि, आपनै हित पाया होय, आय सुखी भया होय ! पर के कुटुम्ब सुखी करने कू, बहुत धन दिया होय । तन का कष्ट तथा बुद्धि के प्रकाश करि, पर के कुटुम्ब में साता करी होय इत्यादिक शुभ भावनात, । सर्व कुटुम्ब सुखदायक पावै। १६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे संघनाथ ! शरीर विष रोग का समूह कौन से होय? तब गुरु कही-जाने पर-भव में कोऊ की ओषधि दान देते मने किया होय । पर के शरीर में रोग देखि, सुखी भया होय । पर शरीर रोग रहित देखि, आप दुःस्त्र पाया होय तथा पर-जीवन कू, रोग वांच्छा होय । औरन के शरीर में रोग देखि, बहुत ग्लानि करी होय तथा रोगी जोव देखि, तिन पै दया भाव नहीं किया होय तथा जन्य जीवन के तन वि रोगन भी शादी है,बोटाना दई होगा तथा कबहूं, औषधि दान नहीं दिया होय तथा पराये तन में रोग देखि, तिनको हाँसि करि उन्हें बहकाये होय, तिनको निन्दा करी होय इत्यादिक पाप भावन तें रोगी-तन होय । २७ । आगे शिष्य फेरि प्रश्न किया। भो प्रभो ! ये जीव, निरोग शरीर कौन पुण्यते होय ? तब गुरु कही हे वत्स! जिन जीवन ने पूरव भव में सुपात्रन के तन में रोग की बाधा देखि, भोजन समय प्रासुक ओषधि देय, साता उपजाई होय तथा दीन-दुखियन के तन में रोग देखि, करुणा भाव करि रोग नाशने कू औषध-दान दिये होंय तथा पर के शरीर में रोग देख अनुकम्या करी होय तथा पर का निरोग शरीर देखि सुखी भया होय तथा पराये शरीर में रोग देख, ग्लानि नहीं की होय । तिनकी दया करि साता दांच्छी होय इत्यादिक शुम भावन तें रोग रहित शरीर होय है। १८ फेरि शिष्य पूछो। हे गुरुनाथ ! कर परिणामी दुर्जनस्वभाव जीवन में कौन कर्म के उदयतें होय ? तब गुरु कही-हे मव्यात्मा जे जीव दुराचारी नरकन के निवास ते बहुत काल दुःख भोगि निकस होय । सो नरक का या प्राणी पूर्व पापतै महाक्रोधी दुराचारी क्रूर परिणामी होय तथा पूर्व भव में मनुण्याथु का बन्ध करि पोछ कुसंग का निमित्त पाय महाकर हिंसामयी वा होय । सो
जीव पूर्वलो वासना सहित दुराचारी होय क्रोधी होय तथा जाका पर-भव बुरा होय । हे गुरो! सज्जन भाव सहित | जीव कौन पुण्य तें होय है? तब गुरु कही-हे वत्स ! जो जीव देव गति आदि शुभ गति से आया होय । सो जो पूर्व भव की भली चेष्टा थी सो ताही के लिये दया-भाव के फल तैं महान पुरुषन की संगति पाय तामें भले उपदेश
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सुनि सज्जन स्वभावी होय तथा पर-जीवन की सज्जनता देखि हर्ष पाया होय। बड़े गुरुजन की सेवा, चाकरी. शुश्रूषा करी होय । इत्यादि पुण्य तैं सज्जन स्वभावी होय । २०। तब फेरि शिष्य ! । हे गुरो ! ये जीव समता
भावी कौन पुण्य तैं होय है ? तब गुरु कही है धर्मार्थी सुनि जे भव्य जीव पर भव में मुनि श्रावकन की शान्त मुद्रा देखि हर्षे होंय तथा जिनेन्द्रदेव की शान्त मुद्रा देखि पद्मासन कायोत्सर्ग मुद्रा देखि जिन ने अनुमोदना करो
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होय तथा पर- जीवन के क्रूर वचन सुनिकै समता घर तिन पर क्रोध भाव नहीं किये होंय । औरन की क्रूरता देखि पने तिन पै दया करी होय तथा संसार की विडम्बना देखि संसार तैं उदास भये होंय तथा धन-तनादि सम्पदा सामग्री चञ्चल देखि राग-द्वेषादि भाव दुःखदाता जानि क्रोध मानादि तजि मन्द कषाय रह्या होय इत्यादिक शुभ भावन तैं समता भाव प्रगट होय है । २१ । तब फेरि शिष्य प्रश्न करता भया । हे जगत्गुरु! यह जीव धर्मात्मा कौन पुण्य होय ? तब दयालु-भाव सहित गुरु ने कही हे भव्यात्मा है भद्र परिणामी जिन जीवन तैं नैं पर भव में महासमता भाव राखे होंय । धर्मात्मा जीवनको धर्म सेवन करते देख अनुमोदना करि पुण्य उपाया होय तथा अनेक जीवन में दया भाव किये होंय तथा धर्म उत्सव देखि हर्ष पाया होय तथा धर्म के अनेक भेद हैं। सो जिस जाति के धर्म अङ्ग देखि श्रापको अनुमोदना उपजी होय । तिस ही जाति के धर्म अङ्ग का लाभ पर भव मैं जीवक होय है। सो ही कहिये है - जिस जोव ने पर-भव विषै और धर्मात्मा जीवनको तप करते देखि हर्ष किया होय। तपस्वी पुरुषन की सेवा चाकरी करो होय। तप कौं उत्कृष्ट सुखदाता जानि ताके करवे की अभिलाषा करी होय इत्यादिक तप अङ्ग की अनुमोदना के फल तैं भवान्तर में तप धर्म का लाभ पावै । बहुरि जिन ने औरनक भगवान् की पूजा व स्तुति करते देखि अनुमोदना करो होय तथा भगवान् के भक्त जन देखि तिनमें प्रीति भाव करि तिनकी सेवा-चाकरी करि होय। श्रापक भगवान् की पूजा करने का अभिलाष बहुत रह्या होय इत्यादिक पूजा की अनुमोदना चाहि रूप भव पटल तैं भवान्तर में प्रभु की पूजा के भाव होय । पूजा धर्म अङ्ग पावें और जिन जीवननें पर भव में अन्य जीवन कूं नियम आखड़ी करते देख तथा घृत दुग्धादि रसन को त्याग करते देख तथा ताम्बूल वस्त्रादि परिग्रह के प्रमाण करते देखि तथा दया भाव सहित प्रवृत्ति देख तिनकी प्रशंसा करी होय तथा अन्यकूं संयमी देखि संयम की अभिलाषा की होय इत्यादिक संयम की अनुमोदना
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के फल तें मवान्सर में संयम-सम्पदा पाये और जिननं पर-भव में और जीवन को सिद्धक्षेत्र-यात्रा क गमन करते देख तथा सिद्धक्षेत्र वन्दना के निमित संघ जाते देखि ताकी अनुमोदना करी होय तथा सिद्धक्षेत्र-यात्रा करने की अभिलाषा रहो होय तथा सिद्धक्षेत्र-यात्रा करनेवालों को सहायता करि साता उपजाय सुखो किये होंथ इत्यादिक । पुण्य भावन ते भवान्तर में सिद्धक्षेत्र-यात्रा का बहुत लाभ होय। पर-भव में आचार्यन कौँ उपदेश देता देव तिन धर्मो पुरुषन का उपदेश सुनि तिनके ज्ञान की शान्ति-भावना की प्रशंसा को होय । धर्म के उपदेश दाता की भक्ति करि आनन्द मान्या होय इत्यादिक भावन तें धर्मोपदेश देने का उत्तम ज्ञान पाय अपना तथा पर-जीवन का कल्याण करे है। ऐसे धर्म-अङ्गन के अनेक मैद हैं। सो जा-जा धर्म-अङ्ग का सहाथ किया होय अनुमोदना करी होय ताही धर्म-अङ्ग का लाभ होय। धर्म का फल उपजावै। २२ । बहुरि शिण्य प्रश्न करता भया। हे नाथ! यह जीव बलवान कौन पुण्य तें होय ? तब गुरु कही-हे भव्य । जिन जीवन में पर-भव विर्षे दीन-जीवन की दया करि रक्षा करी होय तथा अशक्त-जीवनकौं देखि तिन में दया-भाव करि तिनके दुःख मैट सुनी करवेकौं अनेक उपाय करि रक्षा करी होय। निर्बल जीवनकौं भलै भोजन पान देय दया-भाव करि सुखी किये होय । नंगेन के वस्त्र, रोगोनको औषधि देय पुष्ट किये होय । औरनों अनेक साता उपजाय रक्षा करी होय इत्यादिक शुभ भावनतें जीव भवान्तर विर्षे बलवान् होय । २३ । बहुरि शिष्य प्रश्न किया ! हे नाथ ! हे यति पति ! यह जीव निर्बल कौन पाप तें होय ? तब गुरु कही-है वत्स! जिन जीवन ने पर-जीवन का खान-पान बन्द करि निर्बल करिडारे होय तथा दीन जीव बल रहित देव तिनकी हाँ सि करि तिनकौं लज्जावान किये होय तथा बल रहित जीवनकौं मारे होंय, बांधे होय, लटकार होय। आपकों बलवान् जानि अपने बल-मद आगे औरनको बल रहित जानि अनेक भय उपजाय दुःखी किये होंय तथा अपने बल मद के प्रागे सिंह-हस्तो की नाई मदोन्मत्त वा होय । अन्य जीवन का बल देख आपने द्वेष-भाव किया होय इत्यादिक पाप भावनत बल रहित होय है । २४। फेरि शिष्य पूछी। हे नाथ! यह जीव भयवान् कायर चित्त का धारी कौन पाप तें होंय ? तब गुरु कहीहे भव्यात्मा ! सुनि, जिन जोबनने पर-जीवनकौं अनेक भय उपजाये होय। प्रारा नाश का भय देय कम्पायमान करे होय। धन नाश का भय दिया होय । घर लुटने का भय दिया होय तथा ताकी आबरू-खंडवे का भय दिया
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होय तथा घर के मनुष्य पकड़ने का भय दिया होप तथा राज-पंच का भय बताय, भयवन्त किये होंय तथा चोर, सिंह, हस्ती इन आदिपशन का भय देय दुःखी किये होंघ तथा रण ते भागते भयवन्त दीन जीव, तिनकी ।। हाँसि करी होय तथा औरनकौं भयवन्त कायर देख आप हर्षवन्त भया होय इत्यादिक दया रहित भावन ते कायर होय है। २५ । बहुरि शिष्य प्रश्न करता भया । हे गुरो! यह जीव शरवीर निर्भय कौन पुण्य से होय? तब गुरु कही-है वत्स ! जिन जीवन नैं पर-भव में दोन जीवनकौं अभयदान दिया हाय । करुणा करि पर-जीवन की रक्षा करी होय तथा किसी जोव ने काहू दीन-दुःखी जीवको भय बताय दुःखी किया होय । ताको देख आप दया-भाव करि, अपने भुजबलतं दोनकौं दुष्ट तें बचाय, सुखी करि, भय रहित किया होय तथा त्रस-स्थावर जीवन पै दया-गाव राखे होंय तथा अनेक जीवनक राज, पंच, दुष्ट, सिंहादि जीव तिनके उपद्रव ते बचाय निर्भय किये होंय तथा मयवान जीवन के दया-भाव करि स्थिर भाव किये होय तथा भय रहित सुखी जीवन कू देख आपकं सुख मया होय इत्यादिक शुभ भावन के फल ते निःशङ्क चित्त का धारी शूरवीर होय हैं। २६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरुजी! यह जीव उदारचित्त सहित दातार कौन पुण्य तं होय? तब गुरु कही-हे मव्यात्मा! जिन जीवन नै पर-जीवनकौं सुपात्र दान देते देख, अनुमोदना करी होय तथा दीन दुःखितभुखित देस्त्र तिन जीवन की तानै दया करो होय तथा दान देने की बहुत अभिलाषा करी होय तथा धर्म निमित्त धन देते सुख पाया होय इत्यादिक शुभ भावतै उदार चित्त सहित दाता होय है ।२७। बहुरि फेरि शिष्य कहीहे यति पति ! यह जीव संम किस कर्म के उदय करि होय सो कहो। तब गुरु कही-जिन जीवन नै पर-भव । में कोई जीवकं दान देते मने किया होय । औरनकौं धन खर्चते देख आपने दुःख मान्या होय। पर-भव में नाना कष्ट पाय धन जोड़ि कर आप नहीं खाया नहीं औरनकू खुवाघा अरु और धन जोड़ने की अमिलाषा रही होय। अत्यन्त तीव्र तृष्णा के भावन में मरण किया होय तथा औरन के दान की निन्दा करी होय इत्यादिक पापमावन से सूमता सहित लोभी होय ।२८ फेरि शिष्य पूछी। यह जीव परि डन कौन कर्मत होय ? तब गुरु कहीहे वत्स! जिन जीवन में पर-भव में विद्या का दान दिया होय। औरसक पण्डित-विद्यावान जीव देख तिनकी । सेवा-चाकरी करी होय ! अज्ञानी जीवन की संगति तै जिसके अरुचि रही होय। जो धर्म शास्त्रन के वेत्ता हैं
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तिनकी स्तुति करो होय तथा धर्म-शाखा की आप लिखे तथा घर-धन वरच के लिजाय धर्मात्मा-जीवन के पठन-पाठनकौं दिये होथ । तिन शास्वन के उपकरण जो पूठा-बंधना उत्तम कराये होय तथा शास्त्राभ्यास करने ।
की बहुत अमिलाषा रहो होय तथा अन्य विद्या अभिलाषी भव्य जीवन की धर्म-शास्त्र का ज्ञान कराया होय - | इत्यादिक पुरय-भावन तै पण्डित होय ।२६। और फिर शिष्य पूछी। हे नाथ ! है तपोधन ! यह जीव मरख कौन पाप ते उपजे है ? तब गुरु कही-जिन जीवन नै पण्डितन को हाँसि करी होय तथा धर्म-शास्त्र के सनवे में - अरुचि भाव किये होंश तथा धर्म-शास्त्र चराये होंय तथा तिनके बन्धन-पूठे चुराये होंय तथा धर्मार्थी पण्डित ते द्वेष-भाव किये होंय इत्यादिक पापन ते मूरख होय ।३०। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो! यह जीव पराधीन कौन पापों से होय। तब गुरु कही-हे भव्य ! जिन जीवन नै पर-मव| में पर-जीवनकों बन्दी में राखे होय तथा अन्य जीवनकू तुच्छ धन देय अपने वशीभूत राखे होय तथा कर्जादिक के आपने करि निर्धन जीवनकुं रोके होंय तिनकौं तुच्छ-अल्प अन्न-जल देय अपने वश राखे होंय तथा बलात्कार-जोरावरी करि
पर-जीवनकौं अपने आधीन राखे होंय तथा पराधीन जीवन की हाँ सि करी होय तथा पशून कौ राखि. तण-जल | देने में प्रमादी रह्या होय इत्यादिक पापन तैं पराधीन होय।३। बहुरि शिष्य पूछी। हे प्रभो। यह जीव स्वाधीन
कौन पुण्यतै होय ? तब गुरु कहा—जिन जीवननें पर-भव में अन्य को खान-पान देय कुटुम्ब सहित तिनकी स्थिरता करी होय तथा दीन जीवन को खान-पान देय, साताकारी वचन कहि, तिनकौं निराकुल किये होय तथा पराधीन जीव देखि ताकी अनुकम्पा उपजी होय। पर-जीवन • स्वाधीन-सुखी देख. आप साता पाई होय इत्यादिक पुण्य तें स्वाधीन होय है । ३२ । बहुरि शिष्य प्रश्न पूछी। हे गुरो! यह जीव कुरूप किस पाप त होय ? तब गुरु कही-भो भव्यात्मा! जिन जीवन कौं पर-भव में पराय रूप की महिमा नहीं सुनाई होय तथा केई पाप-उदय तें जो रूप रहित मया होय, तिन जीवन के तन की ग्लानि करी होय, सो जीव कुरूप होय तथा कुरुप मनुष्य देखि, ताकी हाँ सि करी होय तथा पराया भला रूप देख ताकी दोष लगाया होय तथा पराये भले रूपकुं विभूति-धूल-कर्दमादि लगाय, विपरीत करि डारथा होय इत्यादिक भावन तैं कुरुप होय।३३। बहुरि शिष्य पूछी। हे ज्ञानमति! ये जीव रूपवान कौन पुण्य तें होय ? तब गुरुकही-हैं वत्स ! जिन जीवन पर-मव
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मैं पर-जीवन का रूप देख, निरविकार चित्त किये देख, सुख मान्या होय तथा पर-जीवन कं रूप के योग ते अनादर पाया देख तिनकी दया करि, रूपवान होना यांच्या होय । धर्म का सेवन करि, रुपवान होना वोच्छया होय इत्यादिक शुभ भावन तें रूपवान होय है।३४। तब फेरि शिष्य प्रश्र किया। हे धर्ममूर्ति ! यह जीव पुण्य के उदय कार अनेक भोग्य वस्तु मिली तिनको भी नहीं भोग सकै, सो यह कौन पाप का फल है? तब गुरु कहो जिन जीवन में पर-भव में अन्य जीवन कौं अन्न, जल, मेवा, पान, मिठाई इत्यादिक खावने विर्षे अन्तराय किया होय। तिनक भलो वस्तु द्वेष-भाव करि, खावने नहीं दई होय । औरनको सूखी-रुखी कोरी-रस रहित खावता देखि, आप खुशी भया होय। औरनको सुख ते खान-पान करते देख नहीं सुहाया होय। औरन कू भूखे-प्यासे देख, तिनको हाँ सि करि होय, दुर्वचन कहि दुःखी किये होंय आप रसना इन्द्रिय का लोलुपी होय नाना प्रकार भोग वस्तु भोगो होय। अपने विषय-पोषने कौ नाना प्रकार छल-बल दगाबाजी करि रसनादिक के विषय-मोग सुख मान्या होय तथा पर का भोजन श्वान-मार्जारादि पश ले गये देख आप सुखी भया होय इत्यादिक पापन तैं छती (उपस्थित) वस्तु भोग में नहीं आवै और कदाचित् लोभ का मारया दुग्धादि भली वस्तु साय हो तो रोग वधै दुःखी होय तातै अन्तराय-कर्म के उदय भली वस्तु नहीं पचे है।३। और शिष्य प्रश्न किया। हे सुखमूर्ति जाके घर में सुन्दर स्त्री, वस्त्र, आभूषण, घोटक, रतनादिक मली वस्तु उपभोग योग्य पाईये
और भोग नहीं सकै सो यह कौन पाप का फल है सो कहाँ। तब गुरु कही—जिन जीवन को पर-भव विर्षे पराये हस्ती, घोटक, स्त्री. बाहनादि उपभोग योग्य पदार्थ सुन्दर देख के आपको नहीं सुहाये होंय तिनके मलै पदार्थ देख छल-बल करि लूट लिये होय । भय देय जोरावरी खोंस लेय आप भोगे होय । पराये भले पदार्थ उपभोग योग्य देख जाकौं नहीं सुहाये होंय । पराये घर में भली वस्तु रतन, हस्ती आदि देख भय बताया होय कि जो ये भलो वस्तु राज में छिना देहौं। कहै कि ये वस्तु राजा देखेगा तो खोंसेगा इत्यादिक पाप त अच्छी वस्तु नहीं भौग सके है । ३६ । बहुरि शिष्य प्रश्न करता मया। हे गुरो! ये जीव तीव्र क्रोध का धारी किस पाप ते होय? तब गुरु कही हे वत्स :जा जीवनें पर-भव में क्रोधी जीवनक क्रोध करते देखि, भलै जाने होंय तथा पर-जीवन ते युद्ध करने का जाका स्वभाव पर-भव मैं बहुत रह्या होय तथा पर कयुद्ध करते देखि, सुख मान्या होय तथा
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परभव में आप सिंह, सुजर, श्वान, सर्प, भीलादि को पर्याय धारि, पर जीव अनेक पीड़े होंय तथा समता। भाव के धारो धर्मात्मा तिनकौं देखि, तिनके समभावना को निन्दा करी होय । शान्त परिणाम जीवन की हाँसि करी होय। इत्यादिक पापन ते महाक्रोधी होय । ३७ । बहुरि शिष्य प्रश्न किया। हे गुरो! यह ||
|४०९ जीव आप तो मान चाहै, अरु मान नहीं रहै । सो ये किस पाप का फल है, सो कहौ। तब गुरु कहो
है भव्यात्मा! जिन जीवन नैं पर जीवन का मान नहीं रास्ता होय तथा अपने तन, धन, यौवन, राज, हुकुम, ष्टि |बल इत्यादिक के गर्व करि, अन्य जीवन का अनादर किया होय तथा आप कौ भला मनुष्य जानि और
जीवन में शीश नमाये, सो तिनको शीश नमाते देखि, अपने मान-भाव ते परकौं तुच्छ जानि, पोछा शीश नहीं नमाया होय तथा गुरुजन की आज्ञा से प्रतिकूल होय स्वच्छन्द वर्त, बड़ेन को आज्ञा खण्डी होय तथा दीन जीवन को जोरावरी भय देय, अपने पायन नमाये होय । तिनके मान खण्ड किये होंय तथा कहीं किसी का मान खण्ड भया सुनि, आप सुख पाया होय इत्यादिक क्रूर भावन तैं अपमानी होय, मान चाहै अरु ना रहे। ३८। बहुरि शिष्य ने प्रश्न किया। भो दयासागर! यह जीव अपना मान नहीं कराया चाहै, अरु बिना चाह हो और जीव आय-आय मस्तक नमा, आज्ञा माने सेवा करें। सो रोसी महिमा कौन पुण्य ते होय? सी कहो। तब गुरु कही-हे भव्य, सुनि। जिन जीवन नैं परभव विष, महा भक्ति करि शुभ मावन तें देव-धर्म-गुरु की सेवा-पूजा, विनय सहित मस्तक नमाय करी होय । ताके फल तैं ताकी सेवा देव करें, ऐसा इन्द्र होय तथा मनुष्यन का इन्द्र चक्री होय, तथा अर्ध चक्री होय तथा अनेक राजान करि बन्दनीय महामण्डलेश्वर राजा होय । इत्यादिक पदके धारी पृथ्वीपति होय। तिनको बड़े-बड़े महंत राजा स्वयमेव हो भक्ति सहित शीश नमावें हैं तथा जिन जीवन नैं पर-भव में गुरु-जन जो माता-पिता तिनको सेवा करवे कौ बारम्बार शीश नमाय विनय ते चाकरी करि होय। ताके पुण्य ते सर्व कुटुम्ब के बाझाकारी रहैं सर्व में आदर पावै तथा जिसने पर-भव में अन्य जन, अपनी वय तें बड़े पुरुष तिनका विनय करि मान रास साता उपजाई होय, आदर किया होय । सो जीव बड़े-बड़े वयके धारी पुरुषन के धंदने-सराहने योग्य हैं। आप तें बड़ी-बड़ी उमर करि सहित जीव आय-आय शीश नमा, मान राखें, ऐसा होय तथा जो विवेकी, ।।
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संसार रचनाका जाननहारा, धर्म शास्त्र का पाया है रहस्य जान, यथायोग्य विधि वैत्ता, सो जिसने बल. कुल. धन, बुद्धि, वय इत्यादिक करि जे छोटे, तिन सबका यथायोग्य विनय करि सत्कार करि साता उपजाई होय। तिन सबका मान राखा होय। सो जीव जगतमें प्रशंसा पाय, सर्व करि पूज्य होय । ताकौं जगत्जीव स्वयमेव हो आय-बाय शीश नमा, थाका मान रास, रोसा पदधारी होय तथा जानें कोऊ ही जीवका मान खण्डन नहीं किया होय। पर-जीवन के अनेक आदर करि सुखी किये होंय । इत्यादिक शुभ भावनके फल ते रोसा पद पावै, जो आप तो अपना मान नहीं चाहै, अरु अन्य जोव अपनी इच्छा से यात स्नेह करि आय-आय शीश नमाय, आदर करें। ऐसा जानना। ३६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरुनाथ जी! यह जीव दगाबाज-मायावी कौन पाप ते होय ? सो कहो। तब गुरु कही हे वत्स ! दगाबाज के अनेक भेद हैं। सो जिस जीव नैं पर-भव में पराये भले तप को देख, दोष लगाय, ताकी निन्दा करी होय। तो वह पाप के फल ते भवान्तर में जब कबहं मनुष्य होय तप धारण करे, तो मान के अर्थ करे। अन्तरंग में
बाह नहीं रहे। लागत में पुजा को, दगाबाजी भाव करि तपस्वी होय। ताके तय में दगा होय। प्रच्छन्न भोजन लेय, अरु औरन कौ तप-जनशन बतावै। इत्यादिक तप पावै, तो दगा सहित तपस्वी होय
और जिन जीवन ने पराये भले दान में दोष लगाय, दगा करि निन्दा करी होय। सो जीव इस पाप ते भवान्तर में जब कबहूँ मनुष्य होय दान देय, तौ दगा सहित दान का देनेहारा होय। आप दान देय, सो लोगन की तौ बहुत द्रव्य बतावै, अरु आप थोड़ा ही धन दान देय। लोक जानें, याका दान दगाबाजी लिये हैं। सो निन्दा पावे। वस्त्र देय. तो जीर्ण तौ देय, कहै बड़े-बड़े मोल के नूतन वस्त्र दिये इत्यादिक पाप-भावन तें. दान में दगा करनेहारा होय और जिन जीवन नै पर-भव में पराये मलै धर्म, पूजा, सामाधिक, ध्यान, अध्ययनादि अनेक
धर्म-अङ्ग हैं तिनकू देख, शुद्ध धर्म-अङ्गन कौ दोष लगाया होय, ताकौ पाप फल तैं भवान्तर में कबहूँ मनुष्य | उपजें तौ रोसे होंय, कि धर्म का सेवन करें तो भाव रहित करें। प्रभु की पूजा करें, तो भाव रहित करे। अल्प धन लगावै, लोगन कौं कहैं हमने बड़ा धन लगाया है और घर में धन होते भी, धर्म-कार्य में धन का काम पड़े तो अपनी दगाबाजी-चतुराई , अपना निर्धनपना बताय, घर का दुःख बतावै। धर्म मैं धन नहीं खरवें।
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नता पाप-फल तें, धन रहित, धर्म विर्षे दगाबाज होय और जाने पर-भव में पराये ध्यान कौ दोष लगाय, हाँसि
करी होय। सो ताके पाप से मवान्तर में दोष सहित, ध्यान का धारी होय । बगुला की नाई कुध्यानी होय। धर्म-अङ्ग सेवन करे, सो दगा सहित करें तथा पर-भद में दमा सहित धर्म के सेवनहारे तिनके पाखंड देख, तिनकी प्रशंसा करी होय इत्यादिक पाप मावन से जीव धर्म-दगाबाजी करनेहारा होय और जिन जीवन ने परभव में अन्य जीवनकौ कुटुम्बतें दगाबाजी करते देख, सुख पाया होय। ते जीव भवान्तर में कुटुम्ब त, दगाबाजी करनेहारे उपजें और जिननें पर-मव में दगाबाजी सहित आजीविका पूरी करते देख, तिनकी माया की प्रशंसा करी होय, सुख पाया होय। सो जीव भवान्तर में अपनी आजीविका दगाबाजी से पूरी करै, ऐसे होय और दगाबाजी के अनेक भेद हैं। सो पर-भव में जैसा दगा, भला लागा होय। तैसा ही दगाबाज उपजे है इत्यादिक भले धर्म-कार्थन की जैसी दगाबाजी के कार्य जाने होंय । तैसी ही जाति का धर्म-दगाबाज उपज है तथा जैसेकर्म-कार्यन को दोष दिये होंय, तिस जाति का कर्म-कार्यन में दगाबाज उपजे है। 801 बहुरि फेरि शिष्य प्रश्न पूछी। हे गुरो! यह जीव चोर कौन पाप तें होय? तब गुरु कही-पर-भव में चोरन को भले जाने होंय तथा चोरन से व्यापार करि, तिनका बड़ा नफा खाय, चोरन ते हित किया होय तथा चोरन का सहकारी होय, पराये धन हराये होंय। अपने मन में पराये धन चुराने की अभिलाषा रही होय इत्यादिक पाप भावन तँ जीव, चोर उपजै है।४। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो 1 यह हिंसा का करनहारा जीव, कौन कर्मत होय ? तब गुरु कहीजिननें पर-भव में हिंसा भली जानी होय तथा हिंसक जीवन कू हिंसा करते देख. तिनकी अनुमोदना करी होय तथा पर-भव में हिंसा करने की अनेक कला-चतुराई सीखी होय तथा पर-भवमैं आपने अनेक हिंसा के उपकरण बनाये होंय तथा तीर, तुपक, जाली, फन्दा, चेप, गुलेल, सेल्ह, बी आदि अनेक शस्त्र राखि, आप सुख पाथा होय तथा शस्वन के उज्ज्वल करने की, तीक्ष्ण करने की चतुराई पर-मव में करी होय तथा पर-भवमैं शस्त्र बेंचे होंय, बनाये होंय इत्यादिक पाप ते पर-भव में शस्त्र ते मरै तथा माप हिंसक होय । ४२ । बहुरि शिष्य प्रश्न किया। हे जगत् गुरो! यह जीव क्रिया रहित अनाचारी किस पापत होय जाकौ खान-पान की संधि नाही, विकल्प भाव सहित सदव रहै। सो कौन पाप का फल है। तब गुरु कही-जिनने पर-भव मैं शुभ आचारी
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जीवन की निन्दा करी होय तथा मला आचार देव जाकौं नहीं सहाया होय तथा प्रचार करने में प्रमादोरह्या होय तथा पर-भव में पराई जंठी खाय, सुख मान्या होय तथा आगे पर-भव, पशु पर्याय मैं श्वानादि की पर्याय में अशुभ भक्षण करे होय तथा सिंह की पर्याय में तथा और पशन को पर्याय में जहां खाद्य-अखाद्य का भेद नाहीं जान्या, तहां विचार रहित वरत्या होय तथा औरन को अभक्ष्य वस्तु खावते देख, जाप सुखी भया होय तथा अनाचारी जीवन में विशेष रखा होय तथा जनावारी जीवन की प्रशंसा करी होय तथा और का अनाचार देख, आपकौं अनाचार करने की अभिलाषा रही होय इत्यादिक पापन से पशु होय तो चान, वायस, गर्दभ आदि अशुभ भक्षक को पर्याय धरै तथा मनुष्य होय तो भीलादि नीच कुली होय। कदाचित् ऊँच कुली होय, तौ शूद्र समान अनाचारी होय । ४३ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो! यह जीव शुम लाचारी कौन पुण्य तें होय ? तब गुरु कही-जिन कूपर-भव में अनाचार-प्रक्रिया देख के ग्लानि उपजी होय तथा भला आचार सहित, दयामयी प्रवृत्ति देख, हर्ष मान्या होय तथा पर-भव में भले सुआचारी क्रियावन्त पुरुषन की संगति रही तथा भली लागो होय तथा अभक्ष्य भक्षण तें अरुचि भाव रहे होंय और जिनक कुशब्द भले नहीं लागे होय और सप्तव्यसनादि अनाचार देख, तिनकं कुफलदायक जानि, तजे होय और पराये दान, पूजा, शील, संयम, तप, व्रत, दयामयी आचार देख, तिनको अनुमोदना करी होय तथा पर-भव में आपकं शुभाचार भले लागे होय तथा मले आचार करने की आपकं इच्छा भई होय इत्यादिक शुभ परिणामन” शुभाचारी होय ।४४। बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो! संसार में भाई समान वल्लम नाहीं। सो ऐसे भाई-भाई में परस्पर द्वेष कौन पापते होय? तब गुरु कहीभो भव्य ! सुनि। जिनने पर-भव विर्षे एक माता के गर्भ में निकसे दोऊ भाईन का युगल तथा हस्ती, घोटक, भैंसा, श्वान, मोढ़े, तीसुरि, लाल, मुनयों, मुर्गा, मोर तथा मनुष्य इत्यादिक दुपद, चौपद, भूचर, नभचर, पशुमनुष्यन के युगल तिनकों कौतुक के हेतु तथा द्वेष-भाव करि तिनकं परस्पर लड़ाये होय तथा कोई दो भाईयों को परस्पर लड़ते देख, सुख मान्या होय तथा कोई दोय भाईन में स्नेह देख, नहीं सुहाया होय तथा अपनी चतुराई करि, बीच में माया-दगाबाजी करि, दोय भाईन को परस्पर लड़ाय दिये होंय तथा कोऊ कौ खोटी सलाह देय, परस्पर दोय माईन में द्वेष पाड़ि दिया होय तथा कोई की, भाईन मैं दोष कराने की वौच्छा सहित
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पर्याय छुटो होय इत्यादिक पाप मावन ते भाई-भाई, शत् समानि होय। ४५। बहुरि शिष्य प्रश्न किया। हे गुरु । भाई-भाई में परस्पर स्नेह कौन पुण्य ते होय ? तब गुरु कही—जिसने पर-भव में और के दोय माईन में स्नेह देख, सुख मान्या होय तथा दोयन को लड़ते देख, आपने सज्जनता करि समझाय, दोयन को राड़ि (लड़ाई) मिटाय, स्नेह करा दिया होय इत्यादिक भले भावतें, भाईनमैं परस्पर स्नेह पावै।४६। बहुरि शिष्य प्रश्न किया। | हे ज्ञानवान ! माता-गुन में देष कौन प त होय ? तब गुरु कही-जो पर-भव में पर के माता-पुत्र तिनमें स्नेह नहीं देख सक्या होय। पर के माता-पुत्रन की लड़ाय सुख मान्या होय। माता-पुत्र लड़ते देख, खुसी भया होय इत्यादिक द्वेष भावन तैं माता-पुत्र मैं द्वेष होय । ४७ । बहुरि शिष्य पूछी। हे करुणानिधान ! माता-पितान के पुत्र का वियोग किस पाप तें होय ? तब गुरु कहो-जिसने पर-भव में पशु-पवरुन के बच्चनकू पकड़ि, माता-पिताते उनका वियोग किया होय तथा जो पराया पुत्र चोरी तें तथा जोरो ते पकड़ ले गया होय तथा काहू का पुत्र भला देख, ताकौं शस्त्र तें तथा विषादि से मार, वियोग करचा होय तथा किसी के पुत्र का वियोग देख, आप सुशी भया होय तथा किसी का पुत्र-वियोग, वांच्छया होय इत्यादिक पायनतें माता-पितान के, पुत्र वियोग होय ।४पा बहुरि शिष्य कही-हे दयानिधान! पुत्र का वियोग न होय सो कौन पुण्य ते? सो कहो। तब गुरु कहीजाने पर-भव में परके पुत्र का वियोग सुनि दया-भाव करि, वाक पुत्र का मिलाप वच्छिचा होय तथा कार का गया पुत्र बहुत दिन वि मिलाप भया सुनि-देख, आप सुखी भया होय तथा किसी का पुत्र कोई दुष्ट बन्दी में ले गया सुनि, ताकौ धन देय तथा जोरो से छुड़ाय, जाका पुत्र वाकौं दिवाया होय तथा कोई पशु का पुत्र बिछुड्या देख, ताकी दया करि, तलाश करि लाय, ताके पुत्र का संयोग कराय दिया होय तथा कोईको ही, पुत्र का वियोग नहीं वांच्छया होय इत्यादिक पुण्य-भावनतें पुत्र न बिछुड़े का लाभ होय 188। बहुरि शिष्य पूछी। हे जगत गुरो पिता-पुत्र के निमित्त अनेक कष्ट पाय पुत्र की उत्पत्तिको चाहै । सो ऐसे पिता-पुत्र में परस्पर द्वेष कौन पाप तें होय? तब गुरु कही-जिनने पर-भव में पराये पिता-पुत्र मैं द्वेष कराया होय तथा तिनको लड़ते देख भाप सुखी भया होय तथा और के पिता-पुत्र में स्नेह देख आपकू नहीं सुहाया होय तथा और के पुत्र-पिता में द्वेष कराय दिया होय तथा कोई के पुत्र-पिता में देष चाहा होय इत्यादिक अशुभ भावनतें पिता-पुत्र में द्वेष होय 1 ५०॥
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बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो । पिता-पुत्र में स्नेह कौन पुण्य ते होय ? तब गुरु कही-जिनने पर-भव में और के पिता-पुत्र में स्नेह देख सुख पाथा होय । पराये पिता-पुत्र में द्वेष-भाव देख अपनी बुद्धि के बल करि दोऊनकौं ||१४ समझाय, स्नेह कराय दिया होय। औरन के पिता-पुत्र में स्नेह चाह्या होय इत्यादिक शुभ भावन तैं पिता-पुत्र में स्नेह होय । ५२ । बहुरि शिष्य पूछी। है गुरो। गर्भ में पुण्याधिकारी का अवतार भया कैसे जानिये? तब गुरु कही-जाके गर्भ में आवते माता-पिता प्रसन्न चित्त रहैं। कुटुम्ब में मङ्गल होय। माता का चित भगवान् की पूजा रूप होय। ताकै दान की अभिलाषा होय । दिन-दिन कुटुम्ब तें जाकी प्रोति बधै। माता-पिता का चित्त उदार होघ । माता-पिता कुटुम्ब-जन के तथा पर-जन के सत्कार रूप प्रवत। माता के चित्त में उज्ज्वल भली वस्तु आचार सहित उपजो ताके खावने की अभिलाषा होय तथा माता-पिताकू दीरघ धन का लाभ होय। मातापिता कोई दीन-दुखो दरिद्री कौं देखें तौ तिनका चित्त दया रूप होय इत्यादिक शुभ लक्षण सहित शुभ जीव का अवतार जानना। ५२ । बहुरि शिष्य पूछी। है नाथ ! पापात्मा का अवतार कैसे जान्या जाय? तब गुरु कहीजाके गर्भ में आवते माता-पिताको दुःख-संकट होय। अभक्ष्य वस्तु सावने पर मन चले। माता-पिता का वित क्रूर होय। चित्त उद्वेग रहै। कुटुम्ब में क्लेश बधै। माता-पिता के मन में सूमता प्रगटै। क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायन की तीव्रता बथै । माता-पिता का चित्त, दुराचारमयो होय । घर-धन नाश होय तथा माता-पिता की मृत्यु होय इत्यादिक चिह्न गर्भ में आवत होंय तब पापाचारी जीव का अवतार जानना। ५३ । बहुरि शिष्य प्रछी। हे गुरो! अनेक भोग योग्य वस्तु, अन्न, मेवादि षटरस का भोगी. सुगन्धादि भली वस्तु का भोगनेहारा जीव किस पुण्य तें होय? तब गुरु कही—जिनने पर-भव में दीन-दुःखी जीवनकं देख दया-भाव करि दान दिथे होंय तथा पर-भव में मुनि-श्रावक की भक्ति सहित दान दिये होंय औरन कू दान देते भले जाने होंय और जीवन कौ भला अन्न, मेवा, मिठाई खावते देख, अनेक सुगन्धादि सहित सुख देख, आपने हर्ष याया होय इत्यादिक शुभ भावन तें वांच्छित भोग योग्य, षट् रस मेवादि मली वस्तु का भोगी होय । ५४ । बहुरि शिष्य प्रश्न पूछो। हे गुरी! यह जीव अनेक उपभोग योग्य वस्तु विस्तर, आभूषण, मन्दिर, हस्ती, घोटक, रथादि बाहन, : । पालकी आदि बहुत पदार्थ का भोगी किस पुण्य तें होय? तब गुरु कही-जाने पर-भव में मुनिनको वस्तिका
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का दान दिया होय तथा श्रावकन कौं तथा आर्यिका कौं वस्त्र दान दिये होंय तथा जिनदेव कू छत्र, चमर, । सिंहासन आदि उपकरण कराश हमे पुराय पाया होश तथा पर-जीवन के वस्त्र भूषण पहरे देख आप हर्ष मान्या थो, होय तथा जिनने सर्व जीवन • सर्व प्रकार सुख वांच्छया होय इत्यादिक शुभ भाव सहित होय तौ अनेक उप।। भोगन का भोगनहारा होय। ५५ । बहुरि शिष्य पूछी। हे नाथ! ये जीव बावने शरीर का धारी कौन कर्म ते
उपजै है ? तब गुरु कही-जाने पर-भवमैं परकू छोटे शरीर का धारक देख, तिनको हाँसि, निन्दा करी होय तथा आप बड़े तन का धारक होय, अभिमान किया होय। पर का बावना शरीर देखि आप हर्ष पाय मला जान्या होय । अपने बड़े तनत अन्य छोटे शरीरवालों की पीड़ा पहुंचाई होय इत्यादिक अशुभ भावन तैं छोटे शरीर का धारी बावना होय है ।५६। बहुरि शिष्य पूछो । हे मुनिनाथ ! इस जीवकू कूबड़ा शरीर किस पाप भावन तें होय ? तब गुरु कही-हे दयालु चित्त के धारनहारे वत्स ! तूचित देय सुनि । जिन जीवन नै पर-भव में पर-जीवन कौं लाठी, लात, मूकी मारि ताके हाड़ तोड़ तिनकू दुःखी करि जाप सुख पाया होय तथा पराये शरीरकगांठ-गठीला रोग-सहित देख आप सुखी भया होय तथा औरन का शरीर का बांका कुम्प देख हाँसि करो होय । अपने मले तन का भारी गर्व कर औरनकों बहकार होय इत्यादिक अशुभ भावन तें कूबड़ा शरीर होय है ।५७। बहुरि शिष्य पूछी । हे गुरो ! ये जीव देव किस पुण्य ते होय ? तब गुरु कही-जिन जीवन नैं पर-भव में सम्यक धारा होय तथा पञ्च-परमेष्ठी की पूजा, वन्दना, स्तुति करी होय तथा तप, शील, संयम पाले होय तथा दीन जीवन की रक्षा रूप भाव करि करुणा भाव धारे होय तथा मुनि श्रावकादिक च्यारि संघ का वैय्यानत करन्या होय तथा मले भाव सहित जिनवाणी सुनी होय इत्यादिक धर्म का सेवन कर चा होय तथा औरनकों धर्म सेवते देख अनुमोदना करी होय तथा नन्दीवर द्वीप, कुपडलगिरि, रुचिकगिरि आदिक क्षेत्रन के जिन-मन्दिरों को वन्दना को अभिलाषा राखी होय इत्यादिक धर्म भावन ते देव होय है ।५५। बहुरि शिष्य पूछी । हे गुरो! मनुष्य किस भाव तें होय ? तब गुरु कही—जिनने पर-भव में सरल भाव राखे होंय । कोई जोवन ते द्वेष-भाव नहीं किये होंय । मन्द कषाय धरै, धर्म भाव सहित आर्जव परिणामी रह्या होय इत्यादिक शुभ भावनतें मनुष्य होय ।५। बहुरि शिष्य पूछो। हे करुणानिधाम 1
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यह जीव नरक किस पापत पावै? तब गुरु काही-जिन पर-भव में अनेक पर-जीव सताये होय । दीरध क्रोध धारचा होय । जाका हृदय महादगाबाजी से भरचा होय । जाने मद्य-मांसादि अमक्ष्य भक्षण करे हाथ । धर्म भाव रहित, पाप सहित वरत्या होय तथा धर्म ते द्वेष-भाव करि पाप-कार्यन की रक्षा करी होय तथा पर-जीवन के मारने-बांधने की विशेष इच्छा रही होय इत्यादिक भावन ते नरक में उपज है । ६०। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुदेवजी ! यह जीव पशु में किस पाप ते उपजै? तब गुरु कहो—जिन पर-मव में पर स्तुति की प्रारति करी होय । कर्म के वश अनेक खान-पान की आरति धन जोड़ने की आरति शरीर पुष्ट करने की आरति करो होय इत्यादिक भाव जानैं अशुभ राक्ष होय तथा प्रक्रिया सहित खान-पान करे होय तथा खाद्य-अखाद्य वस्तु का विचार नहीं करचा होय । प्रमाद सहित धर्मभावना रहित वरत्या होय इत्यादिक अज्ञानता सहित अनेक आत-ध्यान से तिर्यच होय । ६२ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरु जी! यह जीव कुमोग भूमि का मनुष्य जाका मुख तौ अनेक पशुन के आकार अरु नीचले अङ्गोपाङ्ग सर्व मनुष्यन कैसे महासुन्दर सुघड़ होय, सो ऐसा शरीर कौन कर्म के उदय ते पावे? तब गुरु कही-जा जीव ने पूर्व भव में मिथ्याष्टिमुनि को दान दिया होय तथा कुमुनिन की भक्ति करि दान दिया होय तथा शुभ मुनिन कौं कपटाई सहित दान दिया होय तथा मुनीश्वरों को दान देते चित्त लोभ रूप रह्या होय तथा मानो चित्त रह्या होय तथा मान को इच्छा रही होय तथा मुनीश्वर कौं दोष-सहित भोजन दिया होय तथा नवधा भक्ति में अभिमान रख्या होय तथा दाता के सात गुण हैं, तिनमें कोई होन होय इत्यादिक भावनत कुभोग-भमिया मनुष्य होय है ।६२। बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो! सुभोग भूमि विर्षे तीन पल्य की आयु सहित देव समान दश प्रकार कल्प वृत्तन के दिये सुख तिनका भोगता, किस पुण्य तें होय ? सो कहाँ । तब गुरु कही–जार्ने * भाक्तिक तौष्टिकं प्रार्द्ध सविज्ञानमलोलुपं । सात्विक क्षमक सन्त: दातारं सप्तधाविदुः ॥ १ भक्ति, २ तुष्टि, ३ श्रद्धा,
४ ज्ञान, ५ अकोलुप ( अलोल्म), ६ सत्व, ७ क्षमा--ये सात दातार के गुण हैं। पर-भव विर्षे नवधा-भक्ति सहित (२ प्रतिग्रह, २ उच्च स्थान, ३ अंघ्रि प्रक्षालन, ४ अर्चा, ५ आनति, ६ मनः शुद्धि, ७ वचन शुद्धि, ८ काय शुद्धि, ६अत्र शुद्धि-ये नवधा-भक्ति हैं।) दान दिया होय तथा और
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मध्यन मुनि-दान देते देख अनुमोदना करी होय तथा भुनीश्वरों को दान देने की अभिलाषा रही होय तथा मुनि-दान समय देवन के पश्चाश्चर्य होते देख तथा सुनि के मुनि के दान की महिमा बड़ाई करी होय तथा मुनि-दान देनेहारे दाता की स्तुति करो होय इत्यादि शुभ भावन तै उत्कृष्ट भोग-भूमियां होय है ।६३। बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! कुक्षेत्र का वास किस पाप-कर्म से होय ? तब गुरु कही-जिन जीवन नैं पर-भव विर्षे पर-जीवनक झटायो लगाय नवन तें निकासि उनार में साग तथा म्लेच्छन के भोग भले लागे होय तथा कोई पै कोप करि ताहि पकड़ निर्जन-मयावने स्थान में राखा होय तथा कुक्षेत्र में वास करनेहारे, अनाचारी जीवन को प्रशंसा करी होध तथा पशु-पालक होय, उद्यान में रहके, हर्ष पाया होय इत्यादिक कुचेष्टा तें, कुक्षेत्र का वास पावै । ६४ । बहुरि शिष्य पूछो। हे ज्ञाननेत्र, सुक्षेत्र का वासी जीव किस पुण्य तें होय ? सौ कही। तब गुरु कही.. जाने पर-भव में कुक्षेत्रवासी जीवन को दया करि सुक्षेत्र में बसाया होय तथा दीन-दुःखिता जोवन के उद्यान में से ल्याय, सुख में राखा होय, तिनकौं साता उपजाई होय तथा अपने राज्य-भोग होड़, तप लेप बन में रहने का उद्यम किया होय तथा वनवासी मुनीश्वरों की धीरजता देखि, प्रशंसा करी होथ इत्यादिक शुभ भावन तें, सुक्षेत्र का वास पावै । ६५ । बहुरि शिष्य प्रश्न किया। हे नाथ ! यह जीव अल्प आहार में सन्तीको किस पुण्य तें होय ? तब गुरु कही—जिन पर-भव में मुनीश्वरों कों अल्प दान राक-दोय नारा देय, अपना भव सफल मान्या होय और दीन-भखे जीवन कूवान्छित भोजन देय, तृप्त किया होथ तथा एर-भव में अनेक वांच्छित भोग थे तिनकों छांडि, उदास होय, अल्प भोजन राखा होय । अनेक सुभग रस का त्याग किया होय इत्यादिक समता-भाव के फल ते अल्प भोजन में तृप्त होय है।६६। बहुरि शिष्य घो। हे पूज्य ! ये जीव बहुत भोजन करने की इच्छा रासे, अरु मिल नहीं। सो यह कौन कर्म का उदय है ? सा कही । तर गुरु कही—जिनने पर-भव में अन्य जीवन को तरसाय, भोजन दिया होय तथा पर-4 में मनुष्य, श्वान, मार्जारादि को पर्याय मैं पराया भोजन, ले भाज्या होय तथा धर्मात्मा जीवन का अल्प भोजन देख, हाँसि करी होय तथा पशु-हस्ती, घोटक, बैल, महिष आदि अनेक जीवन का बहुत भोजन देख, सुख मान्या होय तथा पर-भव में रात्रि दिन मुख तें भोजन करता भी, तृप्त नहीं भया होय इत्यादिक
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अशुभ भावन ते बहत भोजन करता, तृप्त नहीं होय है।७। बहरि शिष्य पूछो। हे गुरुदेवजी! यह जोव घी | चतुराई-कलारहित मुर्ख, हृदय शून्य, लौकिक ज्ञान रहित, किस पाप ते उपजे ? तब गुरु कही-जाने पर-भव || |४१८
में पराई कला-चतुराई देख द्वेष-भाव तैं, दोष लगाय हाँ सि करी होय। अरु अपने दोष छिपाने कू अनेक मायाचतुराई करि, अपना दोष छिपाया होय। भांड-कला देख, हर्ष पाया होय। पराया गावना, खावना. हाव-भाव, नृत्य, वादिनादि-कला देख, तातै वेष-भाव किया होय। पराई चतराई प्यारी नहीं लागी होय तथा पर-भव में याके रिझावे कं, काह ने अनेक कला-चतुराई करि राजी किया, ताकी रीझ (इनाम) पचाय गया होय इत्यादिक पापन तँ मूढ़, लौकिक ज्ञान-चतुराई रहित होय है। ६८। बहुरि शिष्य पूछो। हे ज्ञानमूर्ति ! यह जीव लौकिक कला-चतुराई सहित कौन पुण्य ते होय ? तब गुरु कही-जिन जीवन नैं पर-भव में औरत को गान, नृत्य, वादिन, चित्र-कला, शिल्प-कलादि अनेक चतुराई देख, हरख पाय, तिनकं उदार चित्त सहित अनेक रीझ दई होय । पराई चतुराई. विवेक, भला-ज्ञान देख, भला लाग्या होय। तिनकी प्रशंसा करी होय, कहो कि याकी ज्ञान-कला, शास्त्र प्रमाण है। गुणी जन का आदर किया होय इत्यादिक अपनी सजनता प्रगट करि, औरन के सुखो करने के निमित्त भला-ज्ञान खर्च किया होय । सो जीव लौकिक कला-चतुराई में प्रवीण होय।६६। बहुरि शिष्य प्रश्न किया। है गुरो! यह जीव बहुभार का बहनेहारा मनुष्य-पशु, किस पाप होय है ? तब गुरु कही-जिन नैं पर-जीवन पै बहुत भार लादा होय तथा बेगारि पकड़, ताप बराजोरि भार धरया होय तथा पशुन पें बहुत भार देय चलाये होय तथा अल्प भार का नाम लेय, बहुत भार बांध-धरा होय तथा अपने लोभकौं, पर-जीवन पै भार लादि कुटम्ब की रक्षा करी होय तथा पर पै दीर्घ भार लदा देख हर्ष पाया होय इत्यादिक भावन के अशुभ फल तैं बहुत भार का बहनेहारा होय है। तिर्यंच में वृषभ, महिष, ऊँट, गर्धवादि बहुत भार बहनेहारा होय। मनुष्यन में बहुत भार बहनेहारा हम्माल व बैगारी होय । ७०। बहुरि शिष्य पूछो। हे नाथ ! यह जीव रत दरिद्री किस पाप तें होय ? तब गुरु कही—जिन पर-मव में अपनी अन्याय बुद्धि तें जोरी करि ।। । अनेक जीवन कौ दुःखी करि धन खसि निर्धन-दरिद्री करे होय तथा पर-जीवन को लटे-खुसे देख हर्ष मान्या होय तया कोई रङ्क का जोड्या अल्प धन सो पर-भव में चोरचा होय तथा कोई दीन-दुःखी जीवन कूदुर्वचन
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कहि पीड़े होंय तथा दीन-दरिद्री जीवन को देख तिनको झूठा चोरी का दोष लगाया होय तथा दीन-दरिद्री जीव देख तिनकी हाँसि करी होय इत्यादिक परमव में पाप-भाव करे होंय जिनतें ये जीव र दरिद्री होय है । ७२ ॥ बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरुजी ! यह जीव कुकाव्य-कला का धारी चतुर कौन कर्म तैं होय ? तब गुरु कहीजिन जीवन के कुकथा भली लागी हो तथा करनी- किस्से पड़े जानि-सुनिल पाया होय तथा लौकिक चतुराई के शास्त्र-धर्म जानि दान दिये होय तथा उदर पूरण के कारण ऐसे ज्योतिष वैधक सुभाषित-सभा चातुरी के शास्त्र तथा शिल्प कलादिक चतुराई के शास्त्र धर्म जानि दान दिये होंथ तथा धर्म के अर्थ औरन कौं लौकिक विद्या कला-चतुराई सिखाईं होय तथा अपवित्र शरीर तैं धर्म-शास्त्र का अभ्यास कर्या होय तथा अनेक आरम्भ अन्याय पाप करि धन उपाय वह धन शास्त्रन को लिखाई निमित्त दिया होय तथा आप उत्तम धर्म सेवता कुकवीन के ज्ञान की प्रशंसा करी होय व आपकों सोखवे को वांच्छा रही होय इत्यादिक भावन तें जीव भवान्तर में कुकवि होय है। ७२ । बहुरि शिष्य पूछो। हे नाथ! सुकवि धर्म-शास्त्रन के छन्द-काव्य-कला का जोड़नेहारा सुबुद्धि का धारी किस पुण्य तें होय ? तब गुरु कही- जिनने पर भव में गणधरादि कविनाथ
छन्दकर्ता आचार्य तिनका काव्य-कला शास्त्र में देख-सुनि तिनका रहस्य जानि कविनाथ जो गणधरादि तिनको महिमा करो होय तथा सुकाव्य धर्म शास्त्र के कर्ता तिनको देख अन्तरङ्ग में प्रसन्न होय, तिन तैं वात्सल्य भाव जनाये होंय तथा धर्म की जोड़-कला करते सुकविन की सेवा-सहाय करि, साता उपजाई होय तथा सुकविन के किये छन्द, गाथा, श्लोक तिनको वांचि, धर्म का रहस्य जानि, हर्षायमान होय, कविन की प्रशंसा करो होय तथा धर्म शास्त्र को जोड़-कला करते कवीश्वर की कछु सहाय करी होय इत्यादिक शुभ भावना तैं विशेष ज्ञान का धारी सुकाव होय। ७३ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जीव दीर्घ आयु का धारी, जन्मान्तर पर्यन्त सुखी कौन पुण्य ते होय? गुरु कही -- जिनने पर भव में पर- जीवन कूं मरते बचाय, फिर तिनको अनेक भोजन कराय, देव, मिष्ट वचन भाषण करि साता उपजाई होय तथा अनेक जीवनकों :-जीवन कूं सुखी करने की सदैव अभिलाषा रही होय । औरनकों अल्पायु मरते देख, संसार हैं उदास होय, दया भाव सहित जाका चित्त भया होय। दोन जीवन को रक्षा विशेष चाही होय
बन्दी तैं छुड़ाय, सुखी करे ह
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इत्यादिक शुभ मावना तै, दीर्घ आयुधारी, जीवन पर्यन्त सुखी रहै । ७४ । बहुरि शिष्य पूछी । हे गुरो! यह जीव दीर्घ आयु पाय, दुःस्त्री किस पाप नै रहै है ? तब गुरु कहो--जिन जीवन नैं पर-भव में पर-जीवन का घात || किया होय। अनेक जलगाहन, तरु छेदन, ममि खोदन, अग्नि जालन इत्यादिक क्रिया के प्रारम्भ से अनेक जीव बस-स्थावरन का घात किया होय । अनेक छोटी काय के धारी दोन-जीवन को सताये होंय। और को दुःखी या रोगी रोवते देख खुशी भये होय। पर कौं सुखी देख, ताका बुरा करना वाच्छा होय इत्यादिक पाय-भावना ते दीर्घ आयु पाय दुःखी होय ।७५॥ बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरुजी! ये जीव सदैव शोक रूप कौन पाप ते होंय ? तब गुरु कही-जे जीव पर-मव में पर-जीवन के शोक सहित देख, सुखी भया होय तथा पर कौ द्वेष-भाव तें भय देय, शोक उपजाया होय तथा असत्य वचन ते हाँ सि करि कही-फलानी जगह तेरा धन राह में लट्या गया। रोसा कहि शोक उपभाषा होय त्यावर सोको सिकार होय तथा पराये मङ्गलाचार में उपद्रव का होय इत्यादिक पापन तैं शोकवन्त रहै । ७६ । बहुरि शिष्य पूछो । है गुरो! यह जीव सदैव शोक रहित सुखी, किस पुण्य तें होय है ? तब गुरु कही---जिन जीवन नैं पर-भव में तीर्थङ्कर के पञ्चकल्याणक उत्सव देख, हर्ष-अनुमोदना करी होय तथा जिन-पूजा, जिन-प्रतिष्ठा, सिद्धक्षेत्र-यात्रा संघ जावता इत्यादिक उत्सव देख, बहुत हर्ष किया होय। धर्म उत्सव करनेहारे जीव को बड़ी प्रशंसा करी होय। अनेक जीवन के शोक जानें धन तें, मन तें, तन ते अनेक उपाय करि मिटाय, सुखी करै होंय तथा और जीवन को शोकवन्त देख, करुणा भाव करि तिनकौं सुख वांच्छ्या होय। पर कौं सुस्त्री-मङ्गलाचार रूप देख, सुख पाया होय इत्यादिक शुम भावना ते शोक रहित सदैव सुख रूप होय । ७७ । बहुरि शिष्य पूछी। है गुरुदेव ! यह जीव अनेक जीवन करि पूज्य, बहुतन का ईश्वर, कौन पुण्य ते होय? तब गुरु कही-जाने पर-भव मैं अनेक धर्मात्मा जीवन की वैय्यावत्य करि, साता उपजाई होथ तथा देव-गुरु-धर्म • उत्कृष्ट जानि पूजे होंय तथा औरन कौं धर्मात्मा जीवन की सेवा करते देख, तिनकी अनुमोदना करि, तिनकौं भले जाने होंय तथा पर-भव में जाने अनेक जीव असहायो-दीन की दया करि अन्न देय, धन देय तथा वस्त्रादि तें सुखी किये होंय तथा पाके च्यारि प्रकार संघ की सेवा करने की अभिलाषा रही होय इत्यादिक पुण्य भावन तें बहुत जीवन का नाथ
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होय ॥७८॥ बहुरि शिष्य पूछो। हे नाथ! यह जाव कौन पाप तें बहुत जीवन का दास होय ? तब गुरु कहीजिन जीवन में पर-भव में अन्य जीवन कौं भय देय, तिन तैं गारि कराईं होय तथा सेवक राखि, चाकरो कराय कछू दिया नाहीं होय तथा सेवकन कौं रुजगार हेतु मेले राखे हॉय तथा पर-जीवन कौं अपराधी देख, सुख पाया होय इत्यादिक पाप भावन तैं बहुत का दास होय । ७६ । बहुरि शिष्य पूछी - हे गुरो ! यह नपुंसकलिङ्गी का तैं होय ? तब गुरु कही जाने पर भव में पुरुष को नारी का आकार बनाय, सुख पाया होय तथा कोई नर स्त्री का रूप बनाय लोकन को मोह उपजावै था सो ता रूप देख, आप हर्ष मान्या होय तथा पुंवन यहाँ से करते देख तिनकी चेष्टा आपकौं प्यारो लागी होय तथा अन्य जीवन कूं नपुंसक, जोरी तैं कर डारचा होय तथा नपुंसक का संग भला लागा होय तथा नपुंसक मनुष्य कैसी चेष्टा करने की, आपके अभिलाषा भई होय तथा पर- स्त्री व पर-पुरुषन के बीच आप द्वत हीय, तिनका शील खण्डन कराया होय तथा एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय-ये नपुंसक वेदी हैं तिनकी हिंसा करते करुणा नहीं भई निरदयो रह्या होय इत्यादिक पाप चेष्टा तैं जोव नपुंसक होय तथा स्थावर, विकलत्रय होय । ८० । बहुरि शिष्य पूछो। हे ज्ञान सरोवर गुरो ! यह जीव की स्त्री पर्याय, कौन कर्म तैं होय ? तब गुरु कही – जिसने पर-भव में स्त्रीन का संग भला जानि, तिनमें स्त्री कैसी चेष्टा करि सुख माना होय ? तथा अपनी चेष्टा औरन कौं स्त्री की-सी बताय, औरन क वशीभूत किये होंय तथा स्त्रीन मैं मोहित बहुत रह्या होय तथा पर-भव में आप पुरुष था, सो नारी का रूप बनाय, औरनकों मोह उपजाया होय इत्यादिक कुचेष्टा तैं स्त्री पर्याय होय || बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जीव एकेन्द्रिय स्थावर किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही — जो पर भव में वीतराग देव-धर्म-गुरु की निन्दा करि, द्वेष-भाव करि, सुखी भया होय तथा देव-गुरु-धर्म की व धर्मात्मा जीवन की, कुसंग के दुर्बुद्धि जीवन का निमित्त पाय, निन्दा करी होय । ते जीव साधारण वनस्पति व निगोदिया होंय तथा जानें पर भव में वृत्त छेदे होंय तथा अनेक वनस्पति खोदी, छेदी, छोली होंय तथा बहुत भूमि खोदी होय तथा जल डाल्या होय तथा अग्नि प्रजालीबुझाई जिससे पवनकाय के जीव घातै होय इत्यादिक पश्च स्थावरन की दया रहित प्रवृत्था होय तथा औरनको
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पञ्च स्थावर घात करते देख, अनुमोदना करी होय इत्यादिक याप ते राकेन्द्रिय स्थावर काय होय ।२। बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो! यह जीव विकलत्रय में कौन पाप तें होध ? तब गुरु कही-जे जीव विकलत्रय आदि त्रस जीवन की घात करते, निर्दय रूप रहे होंय तथा तिली, गेहूँ जादि अत्र को भरडशाला (बंडा-खत्ती धरि) करि बहुत दिन राखि, अनेक त्रस जीवन का समूह उपजाय के तय किया होय। तहां दया नहीं उपजी होय तथा त्रस जोवन सहित अनेक मेवा, फल, फूल, पकवानादि अनेक रसना इन्द्रिय के वशीभूत होय मतण किये होय और दया नहीं उपजी होय तथा नर-पशुन का मूत्र इकट्ठा करि त्रस जीवन की उत्पत्ति-तय होते, दया नहीं उपजी होय इत्यादिक विकलत्रय की दया रहित वर्त होय, सो जीव विकलत्रय में होय ।१३। बहुरि शिष्य पछी। गुरु जी, यह जीव विकलांगी, अङ्गोपाङ रहित कौन पाप ते होय ? तब गुरु कही--जिन जीवन में पर-भव विष पर-जीवन के हाथ, पाव, कान, नाक, शीश, अंगुलो आदि अङ्ग-उपाङ्ग छेदन किये होंथ तथा कोई के अङ्गउपाङ्ग छेदते देख, हर्ष पाया होय तथा दीन-पशुन के अङ्ग-उपाङ्ग शस्त्रन छेदन किये होय तथा पाहन, लाठी, लात. मूकी पराधीन नर-पशुन के अङ्गोयाङ्ग तोडि डारे होय तथा अङ्गोपाङ्ग रहित जीव देख तिनको हाँसि करि, हर्ष मान्या होय इत्यादिक पायन ते विकल अङ्गी अङ्गोपाङ्ग रहित होय है। ५४। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरु। अष्ट अङ्ग सहित सम्पूरण. कौन पुण्य तें होय ? तब गुरु कही--जिन पर-भव वि अन्य जीवन के अङ्ग-उपाङ्ग को रक्षा करी होय तथा कोई के हाथ-पांवादिक अङ्ग-उपाङ्ग कटते राखे होंय, दया-भाव करि धन देय बचाये होंय तथा औरन के अंग-उपांग में दुःख देख, आप दया करि ओषधि देय, ताकौ साता करी होय तथा अंगोपांग रहित काऊ कौं देख, अनुकम्पा करी होय तथा औरन के अंगोपांग शुद्ध-पुष्ट देख, सुख मान्या होय इत्यादिक पुरय भावन तैं अष्ट अंग शुद्ध पावै।श बहुरि शिष्य पछी। है गुरो। यह जीव नोच कुलो किस पाय ते होय ? तब गुरु कही-जिन जीवन ने पर-भव में ऊँच कुली पुरुषों को निन्दा करी होय तथा अपने मुख तें अपनी प्रशंसा करी होय तथा पराये मले गुणन का आच्छादत किया होय तथा अपने औगुरा आच्छादन किये होंय तथा पराये दोष प्रगट करे होय तथा नीच कुलीन के खान-पान वि रायमान होय, अनुमोदना करी होय तथा अपने अभिमान करि औरत का अनादर किया होय तथा नीच सेग में बहुत रह्या होय
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इत्यादिक अशुभ भावन ने नोच ली होग।६। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुदेव ! ऊँच कुलो कौन पुण्य तें होय ? बरकतो ...सा, कामको प्रशंसा करी होय तथा अपने भौगुण गुरुन वै प्रगट प्रकाशै होय
|४२३ तथा पराय गुण देख आच्छादन कमरे होय तथा चार प्रकार के संघ की सेवा करी होय तथा दुराचार ते डर या होय । अनेकौन-जीवन्त कं अनेक भोजा-पान-वस्त्र देय, सुखी करि मिष्ट वचन तें साता उपजाई होय तथा अपने भावक तें कोऊ का मी अनादर नहीं करचा होय तथा आप दोन समानि आपकौं जानि, अभिमान रहित । रह्या होय इत्यादिक शुभ मावन से ऊँच कुलो होय । ८७ । बहुरि शिष्य पूछो। है गुरु। यह जीव नीच कुल में उपजै! तिनकौं दीर्घ पन, हुकुम, लोक में मान पुरुषार्थ होय सो कौन पुरय तें होय ? तब गुरु कही—जिन जिन जीवन नै पर-भव में अनेक अज्ञान तप करे कबहूँ अन्न का त्याग करि, साग-भाजी भोजन करो होय तथा वनफल-पत्ता का भोजन करया होय तथा सर्व त्याग, दुध लिया होय। मही पिया होय । घासि घोट के पिया होय। अग्नि में तन तपाया होय। ऊर्ध्व पोव-अधो शीश. मुल्या होय। भूमि गड़-या। पर्वत पतन किया। जल पतन इत्यादिक बाल तपस्वी होय, अनेक कष्ट, धर्म के निमित्त सहे होंय तथा अज्ञान तपस्वीन कौं, मले धर्मात्मा जानि विनय सहित सरल भावन तै तिनको पूजा करी होय। धर्म के निमित्त यात्रकन की दान दिया होय तथा लौकिक कार्यन में धर्म जानि धर्म फल कौं धन खर्चा होय तथा अपनी अज्ञानता त अन्य भोले जीवन के धर्मो जान पूजे होय तथा आप झान रहित होय, मन्द कषायो रट्या होय इत्यादिक भावना सहित नीच कुल में उपजि. धनवान-हकुमवान होय सो तिर्यंच गति का बन्ध किये पीछे ऐसे गाव होय, तौ शुभ भावना के फल से कोई राजा का हस्ती-घोटकादि पशु होय । ताक पीछे अनेक जीव पलें। भले वस्त्र-आभूषण, भले भोजन का भोगनहारा आप सुखी होय तथा पहिले मनुष्यायु का बन्ध किया होय, तौ नीच कुल में उपजै। सो हुकुम का धारी होय तथा पहिले देवायु का बन्ध किया होय तौ भवनत्रिक में अल्प ऋद्धि का धारी, हीन देव होय इत्यादिक भावन ते ऐसे
होय । ८८। बहरि शिष्य पूछो। ये जीव ऊँच कुली होय दीन दशा धारे, धन रहित होय। सो किस पाप का ४२३ । फल है ? सो कहिये । तब गुरु कही--जिसनें पर-भव मैं शुभ भावन से ऊँच-गोत्र का बन्ध करि पोछे विपरीत
कषाय रूप भाव भये, सी मान के वश होय, मोह के जोर ते मदोन्मत्त होय पर-जीवन का मान खण्ड कर, हर्ष
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पाया होय। आप गुरु जन की आज्ञा रहित रह्या होय तथा दीन जीवन पै द्वेष-भाव करि तिन कुवचन करि पोड़ा उपजाई होय । पर का धन छल-बल करि नाश कराय, सुख पाया होय इत्यादिक पाप भावन तें ऊँच कुली | होय, परन्तु धन-धान्यादि रहित, दीन दशा का धारक होय 1८६। बहुरि शिष्य पूधी 1 हे गुरुजी ! यह जीव बहुत देशान्तर भ्रम आजीविका पूर्ण करें। ऐसा किस कर्म से होय ? तब गुरु कही—जिन जीवन नैं पर-भव में दीनकों दान दिये होय, सो अनेक जगह भ्रमाय-प्रमाय दिया होय तथा दाम के दाम अन्य ग्राम मैं बताय दोनको भटकाय दान दिया होय तथा और दीनन 4 अनेक सेवा-चाकरी कराय बहत दिन तक भटकाय, पीछे दया करि दान दिया होय तथा अनेक ग्राम-देश भ्रमाय, सेवा-चाकरी कराय, पीछे धर्म जानि दान दिया होय तथा कासोदन कौं सफदेश प्रमाय, ताकी चाकरी नोंद होय तथा कसर करि दई होय तथा धर्म निमित परकौं ग्राम, धन, वस्त्र देय तिनत अनेक चाकरी कराय, बहुत देश-नगरकौं कासोद (हलकारे) को नाई भ्रमाय, तिन खेद कराया होय तथा धर्मात्मा पुरुषन के आधीन राख, अनेक देश-ग्राम अपने संग भरमाय, तिनको स्थिरता को आजीविका बताई होय तथा देशान्तर की आजीविका करनेहारे जीव की हाँ सि करी होय। आप मद करि एक जागि तिष्ठा, धन पैदा करता, मत्सर भाव करि अन्य कौं बहकाये होंय इत्यादिक अशुभ भावना सहित, भवान्तर में मनुष्य होय, तौ देशान्तर भ्रमण करि आजीविका पूरण करणहारा होय । १०। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो ! यह जीव एक स्थान 4 तिष्ठा, आजीविका कौं अनेक धन पैदा करता, कौन पुण्य तें होय ? तब गुरु कही-जिसने पर-भव में अनेक धर्मात्मा जोवन की स्थिरता को खान-पान धन-दानादि देय निराकुल, धर्मसेवन कराया होय तथा अनेक पशु तथा दोन मनुष्य इनकौं अशक्त देख, दुःखी देख. तिनकी दया करि तिनके स्थान बैठे हो असहाय जानि, तिनके खान-पान की खबर लैघ, साता उपजाई होय तथा निर्धन धर्मात्मा जीवनकौं निराकुल धर्म सेवन करते देख, समता सहित देख, तिनकी प्रशंसा करो होय तथा औरन कौं सुख से धन पैदा | करते देख, खुशी मया होय इत्यादिक शुभ भावन ते एक स्थान में धन पैदा करि सुखी होय दश बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो! यह जीव दगाबाजी सहित आजीविका पैदा करनेहारा किस पाय त होथ ? तब गुरु कहीजाने पर-भव में दान में कपटाई करी होघ । दीन जीवन कूकपटाई सहित दान दिये हॉय । गुरुजन जो मुनि,
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मिनलौ भक्ति-भाव रहित दान दिया होगटावित-तितन की दया रहित दान दिया होय तथा मायातं उदर । भरनेहारे चोर, फांसी, गिरी, ठग तिनकी कला-चतुराई देख, तिनके ज्ञान को प्रशंसा करो होय तथा पराया | धन धरचा हो जानता, मुकरि गया होय । औरन के मले किसव को दोष लगाया होय इत्यादिक पाप भावन । तें दगाबाजी सहित आजीविका करनेहारा होय । १२ । बहुरि शिष्य पूछी। हे दयाल गुरुनाथजी ! सरल भाव
सहित सत्यवादी होय आजीविका पूर्ण करें, सो किस पुण्य तें करें? सो कहो । तब गुरु कही—जिनने पर. भव में सरल भाव तें धर्म-राग करि धर्मात्मा जोबन कं अन्न-पान विनय सहित देय, साता करी होय तथा
दगाबाजी रहित, दया सहित, दोन जीवन कू खान-पान देय रक्षा करो होय । जारन को निर्दोष आजीविका उपजावते देख, तिनको प्रशंसा करी होय तथा पर-भव में सत्य वचन व सरल भाव सहित आजीविका नहीं मिलै मी, अनेक भूख सही, सक्कट सहे । परन्तु कपटाई सहित उदर पोषण नहीं किया होय इत्यादिक शुभ भावन तै, न्याय सहित सरलता से आजीविका पैदा होय है । ६३ । बहुरि शिष्य पूछी। यह जीव नर व पशु होय, घर-घर बिकता फिर। सो कौन पाप-कर्म का फल है? तब गुरु कही-पर-भव में जा जीव नैं बल करि, छल करि, पराये पुत्र-पुत्री बैंचे होय तथा पराये पशु छल-जल करि हर के, घर-घर बैंच होय तथा पराये पुत्रादि मनुष्य तथा हस्ती, घोटक, महिष, वृषभ आदि जीव कोऊ के प्रबल शत्रु ने अन्याय भाव ते लटि, पकड़ ल्याय घर-घर बैंचे होंय तिनको देख सुखी भया होय तथा बीच में दलाली खाय, पराये मनुष्य-पशु बिकाये होंय इत्यादिक भावन से आप घर-घर विर्षे बिकै है । १४1 बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरी। एक बार ही बहत जीव-समुदाय मरणको प्राप्त होय । सो कौन कर्म के उदय तें होय? सो कहिये । तब गुरु कहीपर-भव में जिन बहुत जीवन नैं राक ही बार पाय उपाया होय । जैसे—कोई, मनुष्य कू तथा पशु कं मारे है 1 तहां कौतुक के हेतु अनेक जीव देख, सुखी होय, पाय भार उपाया होय तथा कोई नर-नारीकं अग्नि में जलते देख, अनेक जीव सुखी भये होंय, अनुमोदना करी होम तथा युद्ध विर्षे अनेक जीवन का भरस सनि तथा देख, अनेक जीव राजी होय, हर्ष पाया होय तथा अनेक जीवनिने मिलि वीतराग देव-गस-धर्म की निन्दा-हाँ सि करी होय इत्यादिक पाप भावन ते समुदाय सहित अनेक जीव मरण पावें हैं ।इश बहरि शिष्य
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प्रश्न किया। हे गुरो! यह जीवन के समुदाय कं सूख किस पुण्य ते होय? तब गुरु कही—जिन जीवन में तीर्थकर के गर्भ उत्सव तथा देवन के किये जन्मोत्सव, तप उत्सव, ज्ञान उत्सव, निर्वाण उत्सव-इन पाँच || |४२६ कल्याण के बड़े उत्वस, अनेक देव सहित, इन्द्र-शची कौ करते देख तथा सुनि, जिन जोवन नैं इकट्ठे होय, अनुमोदना करी होय तथा इन्द्र महाराज इन्द्राणी सहित अनेक देव लेय, नन्दीश्वर जी के उत्सव कौं जाते देख तथा सुनि, परम सुख कं पाय, अनेक जीवन के समुदाय ने अनुमोदना करि पुण्य बांध्या होय तथा बड़ा सङ्घ सिद्धक्षेत्र को यात्रा को जाता देख. ताका जय-जयकार उत्सव देख, अनेक जीवन नै अनुमोदना करि. पुण्य बन्ध किया होय तथा च्यार प्रकार संघ को वीतरागता देख, अनेक जोवों ने सुख पाया होय तथा समोशरण की महिमा देख तथा बड़ी पूजा-विधान प्रतिष्ठा तिनके उत्सव देख तथा शास्त्रन तैं सुनि, अनेक जोक्न की अनुमोदना उपजी होय इत्यादिक शुभ कार्यन में अनुमोदना करि, बहुत जीवन नै समुच्चय पुण्य बन्ध किया होय। तिनकू समुदाय ही सुख होय है । ६६ । बहुरि शिष्य पूछो हे गुरो! बहुत जीव एक बार ही तप लेय, स्वर्ग-मोक्ष कौं सङ्ग ही जाय । सो किस पुण्य का उदय है ? सो कहो। तब गुरु कही—जिन जीवन नै पर-भव में तीर्थङ्करों को, देवोपुनीत राज्य सम्पदा छांडि तप लेते देख तथा चक्रवर्ती षट् खण्ड की विभूति तृणवत् तजि दीक्षा लय, तिस उत्सव को देख तथा बलमद्र, कामदेव, मण्डलेश्वरादि महाराजान् को दीक्षा लेते देख, हर्ष करि अनुमोदना करी होय तथा एक-एक राजा की संगति करि, अनेक राजा व तिनकी रानी, राज्य-सम्पदा छाडि, दीक्षा लेंथ। ऐसे हजारों जीवन को दीक्षा देख तथा शास्वन सुनि, बहुत भव्य जीवन नै एक बार ही तप की अभिलाषा सहित अनुनीदना करि, समुदाय सहित पुण्य का बन्ध करि, वैराग्य भाव किये होंय इत्यादिक समुदाय पुण्य से, समुदाय तप अङ्गीकार कर स्वर्ग-मोक्ष होय है।६७। बहुरि शिष्य पूछी। हे नाथ ! बहुत जीवन के एकही बार रोग होय। सो किस कम त होय? तब गुरु कही-जिन पर-भव में वीतरागी यतीश्वर का, जो अपने शरीर हो त निष्प्रयोजन हैं तिनका शरीर मलिन देख तथा तप ते क्षीण देख तथा मुनीश्वर के शरीर में दीर्घ रोग देख बहुत जीवन ने एक ही बार ग्लानि करी होय तथा निन्दा करि अनादर किया होय । तो उन बहुत जीवन के एक साथ हो रोग होय तथा कोई आर्यिका के तन में रोग देख तथा धर्मात्मा श्रावक, श्राविका अविरत
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सम्यग्दृष्टि इनके शरीर रोगः क्षीण व अशुचि देख, बहुत जीवन नै एक ही बार ग्लानि करी होय इत्यादिक अशुभ भावन से बहुत जीवन के एक ही बार रोग होय है।हए। बहुरि शिष्य पूछी । हे गुरुजी ! इस जोवर्क पर-स्त्री तथा पर-पुरुष देख काम विकार होय, मोह उपजै । सो किस कर्म का फल है ? तब गुरु कहीजो जीव पर-भव की स्त्री होय तथा पर-भव में जिनको परस्पर व्यभिचार का बन्ध भया होय तथा पर-भव को हाँसो, सिलवती, नाच, गीत की सुहवति-संग का जीव होय इत्यादिक पर-भव के विकार सम्बन्ध ते भवान्तर में ताकौ देख काम-विकार होय है। बहुरि मिस पूटी। है भुलेपर-जीका देवा. बिना कारस द्वेष-भाव होय । सो कौन कारण? तब गुरु कही-जाको देख द्वेष-भाव होय, सो पर-भव का वैरी होय । आपने वाकौं पर-भव में दुःखी किया होय तथा वान आपकौं काहू युद्ध कराय, हर्ष मान्या होय तथा जापने वाकौं भिड़ाय, सुख मान्था होय इत्यादिक पूर्व द्वेष जातें होय ताकौ देखे भवान्तर में देष-भाव होय ।३००! बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुजी ! पर-जीव देव, मनुष्य, पशु ताकौं देख हर्ष होय। सो कौन सम्बन्ध है ? तब गुरु कही--कोई पर-भव का पुत्र का जीव होय तथा भाई का जीव तथा माता का जीव तथा बहिन का जीव तथा पिता का जीव इत्यादिक पर-भव का कोऊ कुटुम्बी जीव होय तथा पर-भव का कोई मित्र होय तथा अपना कोई पर-भव में उपकार करनहारा होय तथा आपने वाके ऊपर कोई उपकार पर-भव में किया होय इत्यादिक सम्बन्ध वातै कोऊ पूर्व भव का होय ताकी सूरत देख मोह उपजै है। २०३ । बहुरि शिष्य पूछी। है गुरुदेव ! अपने दुःख मैं बिना प्रयोजन कोई जाय सहाय करे। सो कहा सम्बन्ध ? सो कहिये। तब गुरु कही-पर-भव में आपने वाके ऊपर कोई उपकार किया होय। जो भोक अत्र-भोजन दिया होय सो आय आपकों बड़े सङ्कट में भोजन का सहाय करें। जान तृषावन्त कौ जल प्याय साता करी होय। सो आपकौं दीर्घ पर्वत, वन, उद्यान में तथा युद्ध में जहां जल नहीं होय तृषा-सङ्कट में प्राण जाय ऐसे दुःखन मैं जल प्याय सुखी करै तथा जानै नग्न रहते कौ वस्त्र देय साता करी होय। सो भवान्तर में ल्याय अनेक वस्त्र नजर कर तथा आपने काहू को अभय-दान देय दुःस्त्र ते, मरण ते बचाया होय तो वह हस्ती, सादि दुष्ट जीवन करि । प्राण जावते आय सहाय करै मरत कौ बचाव है तथा महासंग्राम विष बाय सहाय करै इत्यादिक जाके ऊपर
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जाने जैसा उपकार किया होय तैसा ही आपकों दूसरा भी आय सहाय करें है तथा नये सिरे तें उपकार करने की अभिलाषा होय है । १०२ । बहुरि शिष्य पूछो। है गुरुनाथ ! जाका धन रोग निमित्त बहुत लागे। परन्तु सुख नहीं होय । सो कौन पाप का फल है ? तब गुरु कही जाने पर भव विषै अनेक भोले जीवन कौं बहकाया हो और तिनकौं रोग नाश करि पुष्ट करने का लोभ देय तिनका धन छल-बल करि आप लिया होय तथा रोग नाशक लोभ देय ताका वहुत धन खराब कराया होय तथा अल्प मोल की वस्तु देय बहुत धन छलि करि लिया होय तथा अन्य कौं दुःखित- रोगी देख तिनका धन औषध निमित्त वृथा लागता देख श्रपने हर्ष मान्या होय तथा पर कौं रोग नाश करने निमित्त कुदैवादिक के निमित्त पूजा बताय ताका धन क्षय किया होय तथा कोई रोगी कौं ग्रह-नक्षत्र का भय देय तिनका धन ग्रह-दान में क्षय कराया होय इत्यादिक कुभावन हैं भवान्तर में मनुष्य होय ताका धन रोग निमित्त जाय है । १०३ । बहुरि शिष्य पूछी । हे गुरो ! इस जीव का भला धन कुव्यसन विषै लागे । सो किस पाप का फल है। सो कहो। तब गुरु कही – जानें पर भव में पराया धन कुव्यसन विषै शिक्षा देय लगवाया होय तथा धनादेखी भया होय। द्यूत रमाय पराया धन हरा होय । अभक्ष्य भक्षण कराय पर धन खोया होय तथा आपने चोरी करि पराया धन हरा होय । मदिरा प्याय धन उगा होय तथा वैश्या के नाच-गान व पर-स्त्री आदि भोगन मैं पर धन नाश होता देख आप खुशी भया होय इत्यादिक पाप तैं भवान्तर में कुव्यसन में धन नाश होय है । १०४ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जीव गर्भ में ही कौन पाप तें नाश हो जाय ? तब गुरु कही — जिन नैं पर जीवन को पर-भव में गर्भ में ही मारे होंय अनेक वनवासी पशु तिनकूं आप निर्दयी होय, गर्भ में ही हते होंय तथा आप दाई का स्वांग धारि, अनेक स्त्रियों के बालक गर्भ में ही मारि डारे होंय तथा औषध देय तथा जन्त्र-मन्त्र करि गर्भ का निपातन किया होय तथा पर के बालक गर्भ विषै मरे सुनि आप सुखी भया होय तथा कोई तें द्वेष-भाव करि ताका बालक किसी कौं कहि के गर्भ में हो नाश कराया होय इत्यादिक पापन तैं जीव भवान्तर में गर्भ में ही मौत पायें है | २०५ | बहुरि शिष्य कही है गुरो ! इस जीव को भलो सोख बुरो क्यों लागे ? सो कहो। तब गुरु कहीजानें पर कौं अनेक खोटो सीख देय पर का बुरा करि, आप सुख पाया होय तथा पर कौं खोटी सोख देय,
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कुमाग चलाया होय तथ: गुरु जनजामाता-पितादिक, तिनके हितकारी शिक्षा वचन सुनि, जाकी नहीं सुहाये होय। जिनने उल्टै गुरु जन कौ अविनय वक्न कहे होय। औरन को अविनय सहित चलते देख, जाप राणी
भया होय। शिक्षा के देनेहारे गुरु जन, तिनको हाँसि करी होय। स्वेच्छाचारी पशु पर्याय, तामैं हैं चय के | मनुष्य भया होय तथा पापाचारी, अधिनयो कुसंगो जोव तिनके वचन भले लागे हॉय इत्यादिक पाप भावन तें. I भली सीख वचन नहों सुहा हैं। २०६ । बहुरि शिष्य पूछी। है गुरो! इस जीव की अवधि, मनःपर्यय कौर
केवलज्ञान को प्राप्ति कौन शुद्ध परिणति तें होय ? तब गुरु कही हे भव्यात्मा ! सुनि। जिनने पर-भव में तपस्वी मुनि अवधि-मनःपर्यय ज्ञान धारी, तिनके ज्ञान का माहात्म्य देख, हर्ष पाया होय तथा ऐसे दीर्घ शान के धारी तपस्वी, लिनको सैना-चाकरी करि, अपना भव सफल मान्या होय तथा ऐसे अवधि-मनःपर्यादिमान का अतिशय देण, तिनको बहुत महिमा करो होथ, बारम्बार स्तुति करो होय, तिन तापसी ज्ञान-भण्डार यतीन की वैघाव्रत्य करने की अभिलाषा रही होय तथा मुनि पद धारि अवधि मनःपर्यय ज्ञान उपायवे की वौच्छा रही होय तथा केवली के वचन सुनि, सत्य जानि हर्ष पाया होय तथा केवलज्ञानी के अतिशय, देव-इन्द्रन करि वन्दनीय
जानि, आपकू केवली के श ने बहन अनुसग भया होय तथा केवलज्ञानो के वचन प्रभास तीन लोक, तीन काल. | जीव-अजीवादि द्रव्य, तिनके यमःणा का स्वरूप, परोक्ष तौ जान्या होय अरु ताके प्रत्यक्ष जानवे का परम | अभिलाषी भया. वीतराग भावन की इदा सहित प्रवृत्ति करी होय इत्यादिक शुभ भावना ते अवधि-मनःपर्यय
केवलज्ञान की महिमा प्रशंसा भक्ति-भाव सहित कर, तिन उत्तम ज्ञान की प्राप्ति की दीक्षा का उद्यमी भया होय इत्यादिक शुद्ध मावना सहित जीवन कं भवान्तर में अवधि, मनःपर्यय, केवल ऐसे उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति होय है ।२०७। बहुरि शिष्य पूछी । हे गुरुजी ! इस जीव का धन, धर्म कार्यन विर्षे लागें । सो किस पुण्य का फल है ? ।। । सो कहो। तब गुरु कही--जिन जीवन ने पर-1 में औरन को धर्म विर्षे धन खर्च करते देख, अनुमोदना करि । हर्ष उपाया होय तथा आफ्ने चोरी दगाबाजी रहित, न्याय मार्ग सहित, धन उपारज्या होय। औरन कौं तीर्थ
स्थान में धन लगावते देख तथा जिन मन्दिर के करायवे में द्रव्य लगावते देख तथा पूजा-प्रतिष्ठा विर्षे धन लगावते । देख, आपने विशेष अनुमोदना करो होथ तथा प्रापने पर-भव में अनेक प्रभावना अङ्गन में द्रव्य लगाया होय
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तथा औरन को इन स्थानकन में धन लगावते देख, भले जानें होंय । ऐसे पुण्य परिणामन तैं इस जीव का धन शुभ कार्य में लागे है । १०८ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो ! यह जीव व्रत लेय मङ्ग करि डारै सो किस कर्म का फल है ? तब गुरु कही पर भ में पर-पवन के कधि तथा पराये शुद्ध व्रत कौं दोष लगाया होय तथा अन्य अज्ञानी जीवन कौं व्रत लेय भङ्ग करते देख अनुमोदना करो होय तथा कोई धर्मात्मा जीवन का व्रत, कोऊ दुष्ट भङ्ग करें है। सो तामैं सहाय होय. पराया व्रत भङ्ग कराया होय तथा बाल्यावस्था में अनेक बार कौतुक मात्र आखड़ी लेय-लेय के भङ्ग करो होय इत्यादिक अशुभ कर्म तैं भवान्तर में शिथिलांगी व्रत करनेहारा होय । १०६ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो ! यह जीव पशु पर्याय में उपजि कसाई के हस्त तै मरे । सो कौन पाप का फल है ? तब गुरु कही — जिसने पर भव में कसाईं का किसव (व्यवसाय) किया होय तथा जिन नैं पर भव में अन्य जीवों को विश्वास देय, अनेक भले खान-पान पोष, तिनका घात किया होय तथा पर-जीवन को छल-बल करि हते होंय तथा पर- जीवन कौं मोल लेय, मारे होंय तथा पर-जीवन के अण्डा मोल लेथ मारे तथा अण्डे बैंचे होंय तथा पर-जीवन कौं पालि पीछे लोभ के अर्थ, कसाईन कों बेंचे होंय तथा बिना अपराध वन-जीवन को अपने हाथ तैं हते होंय तथा कसाई के घर का आमिष मोल लाय, भक्षण कर घा होय तथा पर- जीवन को कसाई के हाथ तैं मरते देख, सुख मान्या होय तथा पर- जीवन का आमिष बहुत खाया होय इत्यादिक पापन तैं जीव को कसाई के हाथ तैं मौति होय । ११० । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो ! यह जीव पाप परिणामी, पाप क्रिया सहित कौन पाप तैं होय ? तब गुरु कही - जानें पर भव में पापी, चोर, ज्वारीन का संग बहुत किया होय तथा पर- जीवन का घात किया होय तथा पापी जीवन को कुबुद्धि-पाप रूप क्रिया करते देख, अनुमोदना करी होय तथा हिंसा सहित जीवन को कुबुद्धि-पाप रूप क्रिया करते देख, अनुमोदना करी होय तथा हिंसा सहित पाखंडी जीवन के कल्पित देव गुरु मांस भक्षो, तिनकी सेवा-पूजा करी होय तथा धर्मात्मा जीवन की निन्दा करि, अविनय करि सुख मान्या होय तथा शुद्ध देव-गुरु-धर्म की निन्दा करि विपरीत भाव ह्या होय इत्यादिक अशुभ भावन तें पापी, पाप-क्रिया का करनहारा होय है । २१२१ बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो ! यह जीव भली उत्तम मनुष्य पर्याय पाय खपत कैसे पाप तैं होय ? तब गुरु कही जाने पर भव में जन्य སྐུ
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जीवन कौ मन्त्र-मन्त्र करि खपत कर होय तथा अनेक जड़ी-बूटो खुवाय के, जीवन • खपत करें होंय तथा
केई जीव पाप के उदय तें खपत होय गये, तिनकी हाँ सि करी होय तथा केई खपत को महान चेष्टा देख, श्री । तिनकी चोरी आदि मठा दोष लगाया होय तथा कोई हौल दिल कू स्वच्छन्द प्रवृत्तता देख, ताकौ मारचा होय सु । तथा मदिरादि अमल पीय, अपनी अज्ञान चेष्टा करि, सुख मान्या होय तथा कोई मदिरा पोवनेहारा, तिनकी
अज्ञान चेष्टा देख, आप सुख मान्या होय इत्यादिक पाप चेष्टा ते जीव भवान्तर में सपत होय है। १२ । बहुरि शिष्य पछी । हे गुरो! यह जीव कुशीलवान किस पाप ते होय ? तब गुरु कही-जानैं पर-भव में वैश्या का रंग बहुत किया होय तथा वेश्या, नृत्यकारिणी तथा कुशील स्त्री, नपुंसक पुरुषाकार तिनके संग बहुत अज्ञान चेष्टा देख तथा उन समान आप कुवेट कारि, हर्ष मान्या सोय. तिन मैं गोष्ठी कर, रम्या होय और जीवन कौ कुशील करते देख, अनुमोदना करी होय तथा श्वानादिक पशु पर्याय में कुशील रूप वरत्या होय तथा औरन के बीच में द्रुत होय, कुशील मैं सहायता दी होय तथा दिन विबै कुशील के वीर्य का उपण्या होय इत्यादिक पाप भाव ते कुशील हो होय ।।२३। बहुरि शिष्य पूछो। हे नाथ ! ये जीव शीलवान् किस पुण्य कम ते होय ? तब गुरु कहीजानै पर-मव में शीलवान पुरुष-स्त्री जीवन की प्रशंसा करी होय तथा शीलवान् पुरुष के झोल राखवेकौं सहाय करी होय । पूर्व संयमी पुरुषन की संगति करी होय तथा कुशीलन की संगति ते मन उदास रहा होय इत्यादिक शुभ भावन तें शीलवान होय । १२४। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो! यह जीव जनमते हो मरण को प्राप्त किस पाप तें होय ? तब गुरु कहो-जाने औरन को जनमते ही मारे होंय तथा अल्प वायु के धारी जनमते हो मरते देख, हर्ष पाया होय तथा द्वेष-भाव से कोई कौं जनमते देख, हस्त ते मारचा होय तथा सम्मन्छन एकेन्द्रियादि त्रस जीवन के घात के उपाय करि तिनकी हिंसा करी होय इत्यादिक पाप भावन ते जन्म समय ही आप मरण पाd 1991 बहरि शिष्य पछी। हे गरो। यह जीव बन्दी होय, पर वश पर के किये दुःख को सहै। सो किस पाप का फल है ? सो कहो। तब गुरु कही-जिनमें बिना अपराध धन के लोभ कौ पर-जीव जोरावरी पकड़ि के बन्दीगृहमें राखे होंय तथा पर-भवमै दुपद, चौपद,नभचर, जलचर, उरपद इत्यादिक पशूनको बलात्कार,पोजराफन्दा आदि बन्धन मैं रासे होंय तथा पर-जीवन कौं देष-भाव करि, चुगली खाय, पराये मान खण्डन को धन
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नाशक, डा दण्ड लगाय, बन्दी में दिवाये होंय तथा पर कौं बन्दीगृह में देख, अनुमोदना करि खुशी भया होय इत्यादिक पाप तैं, जीव नृपादक का बन्दी होथ । १२६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जोव अकस्मात् शस्त्र हैं पसीने, गोला हैं विष तैं इत्यादिक कारण तें मृत्यु पावै । सो किस पाप के फल पावैं ? सी कहो तब गुरु कही जाने पर भव में पर जीवन कूं दोष लगाय, विष देय मारे तथा विष ? मूरा देख, हर्ष पाया होय। सो जीव इस पाप से अकस्मात् मृत्यु पावें और जानें पर जीवन कौं फांसो त मरे हों तथा फांसो हैं मूये सुनि, अनुमोदना करि हर्ष पाया होय । ते जीव चोरन का निमित्त पाय, फांसी तें मरे और जिनने पर जीवन को तीर, गोली, बछ, कटारी, छुरी तलवारादि शस्त्र तैं मारे होंय तथा मुये सुनि, अनुमोदना करी होय । ते जीव अकस्मात् शस्त्र तैं मौति पावैं और जिन जीवन नैं पर भव में सिंहादि जीवन को शस्त्र तें हते होंथ तथा औरन तैं मारे सुनि, सुख पाया होय ते जीव सिंहादिक दुष्ट जीवन तें कस्मात मृत्यु पायें और जिनने पर जीवन के अग्नि में जाले होंय तथा अग्नि में जले सुनि, हर्ष पाया होय । सो जीव अकस्मात् अग्नि में जलें और पर जीवन को जिनने जल में डुबोय मारे होंय तथा जल में डूबे सुनि, सुख पाया होय । ते जीव अकस्मात् जल में डूब मरें इत्यादिक जे पाप क्रिया, ताही निमित्त पाय अकस्मात् मरण होय । १२७ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जीव पर का खानाजाद गुलाम, किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही- जानें पर भव में बलात्कार पर जीवन की गुलाम किये होंय तथा धन लोभ देय तथा भूखेकौं खान-पान वरचादिकका लोभ लगाय तथा परण्या मनुष्य विकते देख मोल देव इत्यादिक कारण तें पर-जीवन कौं गुलाम किये होंय तथा अन्य जीव कोई का गुलाम भया होय तथा अपने बोचि दूत होय, किसीको किसी का गुलाम कराया, दलाली खाय हर्ष पाया होय इत्यादिक पापन तैं जोव भवान्तर मैं आय, अन्य घर बिक गुलाम होय । ११८ । बहुरि शिष्य पूछी। हे नाथ! यह जीव लोक-निन्द्य कौन पाप तैं होय ? तब गुरु कही जाने जगत्सृज्य जो वीतराग देव-धर्म-गुरु की निन्दा करी होय तथा और कोई देव-धर्म-गुरु के निन्दक जानि तिनमें प्रीति भाव किया होय तथा तीन जगत्पूज्य, प्रशंसा योग्य ऐसे वीतरागादि उत्तम गुण, तिनकी निन्दा करी होय तथा धर्मात्मा पुरुषन की निन्दा करी होय तथा लोक-निन्द्य पुरुषन के संगकौं पाय, अनेक निन्द्य-कार्य
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किये हों। अयोग्य खान-पान करे होय इत्यादिक पापन ते जीव लोक-निन्द्य पद पावें । ११६ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुदेव ! इस जीव को पुत्र, स्त्री, माता, पिता, भरतार आदि इष्ट वस्तु का वियोग किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही - जानें पर-पुत्र हरे होय तथा पराये पुत्र हरे जान, जानै अनुमोदना करो होय तथा पराई स्त्रीकौं, ताके भरतार तैं वियोग कराया होय तथा पर-स्त्री पुरुष का वियोग सुनि हर्ष पाया होय ताके स्त्री का वियोग होय तथा परका कुटुम्ब माता-पितादिकर्ते वियोग कराया होय तथा पर का कुटुम्बतें वियोग सुनि, महाहर्षवानू भया होय इत्यादिक पाप भावन तैं भवान्तर में जीव कूं कुटुम्बादिक का वियोग होय है । १२० बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुदेव ! इस जीवक धन का वियोग किस पाप तैं होय ? तब गुरु कहो — जाने पर भव में पर का धन हरया होय तथा चोर तैं, जल हैं, अग्रि तैं, राज्य तैं, फौज तैं इत्यादिक निमित्त पाय, पर का धन नाश भया सुनि अनुमोदना करी होय इत्यादिक अशुभ भावन तें भवान्तर में आपको धन का वियोग होय है । २२२ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुजी ! इस जीव के घर में अग्रि किस पाप तैं लगे है ? तब गुरु कहो -- जानें पर जीवन के घर में जाग लगाई होय तथा पराया घर जलते देख, हर्ष पाया होय इत्यादिक पापन तैं घर में अग्रि लगे है । १२२ । बहुरि शिष्य पूछो। हे नाथ! इस जीवकें कण्ठ विषै नरैल समान मेद किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही जाने पर-भव में पर जीवन कौं लाठी, सोठी, मूंकी मार ताका कण्ठ सुजाय दिया होय तथा जानें पर के मुख आगे भार बांध, दुःखी करन्या होय तथा पर के कण्ठ में मेद देख, ताको हाँसि करि बहकाय, हर्ष मान्या होय इत्यादिक पाप भावन तैं भवान्तर में आपके कण्ठ में नरेल ते दीर्घ मेद ही है । १२३ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो ! यह जीव सर्व कौं वल्लभ किस पुण्य तैं होय ? तब गुरु कही जाने पर भव में सर्व संसारी जीवनतें स्नेहभाव करचा होय तथा देव, गुरु, धर्म जार्कों महावल्लभ लागे होय तथा जार्कों पर भव में च्यारि प्रकार के संघ के धर्मात्मा जीव, महावल्लभ लागे होंय तथा गुनी जन तैं स्नेह जनाया होय तथा दीन-दरिद्री दुःखित-भुखित, सोचजलधि में पड़े महादुःखी जीव तिनकों देख, दया भाव करि तिनको स्नेह सहित विश्वास उपजाय, सुखी किये होय इत्यादिकशुभ भावन तैं जीव भवान्तर में सब कूं सुखदाई परम वल्लम होय । २२४ । बहुरि शिष्य पूछी है गुरुनाथ जी ! इस जीव के घर, सदैव मङ्गल रहे। सो किस पुण्य तें होय ? सो कहो। तब गुरु कही
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भी पर-भव मैं तीर्थक्कर के पश्चकल्याणक देख तथा सूनि करि, हर्षवन्त भये होंय तथा जिन-पूजा, जिन-प्रतिष्ठादि मङ्गलाचार उत्सव देख, अनुमोदना करी होय तथा पुण्योदय तें काऊ के घर मङ्गलाचार गाजते-बाजते देख, हर्षित मया होश ताश कोई तर शोक, चिप, देव तिनकी दया करी होय इत्यादिक पुण्य भावन तें सदैव घर में मङ्गल होय है। १२५। ऐसे एक सौ पच्चीस प्रश्न शिष्य नैं गुरु तें स्व-पर कल्याण के अर्थ किये। सो ये प्रश्र हैं, | इनमें के केतक प्रश्न तो त्रैलोक्यनाथ को माता तें देवांगना ने करै हैं। तिनके उत्तर तीर्थकर की माता ने दिये हैं और केतक प्रश्न, राजा श्रेणिक महाधर्ममूर्ति बुद्धिमान ताने गौतम स्वामी गणधर तें करे। तिनके उत्तर श्रीगौतम स्वामी ने दिये हैं। सो इनकौं इकट्रेकरि, यहां भव्य जीवन के कल्याण हित, समुच्चय बखान किये। तिनके भेद जानि, पाप पंथ तजि, सुपंथ लागि, अनेक जीवन में पुण्य बन्ध किया और इनकौं सुनि अनेक भव्य, पुण्य उपारजेंगे तातै विवेकी इस प्रश्नमाला कौं बांचि, निकट संसारी इनका रहस्य पाय, अपना कल्याण करें। इस प्रश्नमाला के धारण किये, भव्य जीव भव-भव में सुखी होय । कैसी है ये प्रश्रमाला ? गुरु के वचनरूपी महा शुभ सुगन्धित फूल तिनको बनाई है। सो इस माला कों निकट भव्य मोत्तरमखो का दुलह, हर्षाय के अपने हृदय विर्षे पहरि, सुस्त्री होऊ। कवीश्वर कहै हैं, इस माला कुं मैं अनेक हृदय में फेरि, जपना भव सफल जानि कृत-कृत्य मया और भी जे अमर-पद के लोभी इस प्रश्नमाला को अपने कण्ठ में पहिरेंगे। ते भन्धात्मा कल्याण के वांछो, सुबुद्धि, युग भव में तथा भव-भव में शोभा पावेंगे। रोसी जानि इस प्रश्नमाला कं धारण करहु । इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में अनेक ग्रन्धानुसारेण, प्रश्नमाला कर्मविपाक वर्णन करनेवाला
गुणतीसवां पर्व सम्पूर्ण भया ॥ २१ आगे हिंसा विर्षे पुण्य का अभाव बताव हैंगाथा-पय बहणो बल पदमो,जल मथ घो धाण होय तुख खण्डम । रवि हिम ससि तप करई, तब हिंसा पुष्प दे भो बादा ॥१२॥
अर्थ-पथ वहणी कहिये, जल विर्षे अगनि । थल पदमो कहिये, पृथ्वी में कमल । जल मथ धी कहिये, पानी के बिलोये धृत । धारण होय तुख खण्डय कहिये, भ्रस के कटे अन्न । रवि हिम कहिये, सूर्य के छगते
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| शीत । ससि तप करई कहिये, चन्द्रमा तपति करें। तव हिंसा पुण्य देय कहिये, तो हिंसा पुण्य देव ।। । भो आदा कहिये, हे आत्मा ! भावार्थ जल विर्षे जान कबहूँ नहीं होय। तैसे ही जीव हिंसा विर्षे पुण्य का
फल कबहूँ नहीं होय और कठोर भूमि विर्षे कमल कदाचित् न होय । तैसे ही हिंसा में धर्म-फल नहीं और जल बिलोए घृत कबहूँ न होय । तेसे ही प्राणी घात में पुरुष नाहों और तुष के कूटे अत्र नहीं निकसे । तसे ही जीव घात ते पुण्य नाही होय और सूरज के उदय होते शीत नहीं होय । तैसे ही जीव घात किये धर्म नाहीं और चन्द्रमा के उदय होते, आताप नहीं होय । तैसे ही हिंसा विर्षे पुण्य कदाचित नाहीं ऐसे कहे जो ऊपर एते नहीं होने योग्य ना.11 की जो घातहिंसा होय है, अ धर्म कबहूँ नहीं होय । सो हे भव्यात्मा ! तूं भी पर-भव सुधारने के निमित्त, रोसा श्रद्धान दृढ़ करि। कि जो जीव घात विर्षे कोई प्रकार पुण्य नाहीं। ऐसा श्रद्धान गोकू भव-भव विर्षे सुखकारी होयगा। ऐसा जानि, अपने समान सर्व जीवकू जानि, तिनकी दया-भाव सहित रहना योग्य है । आगे पुनि हिंसा विर्षे पुण्य का अभाव बतावे हैंगापा--बह मुह ममि सुत वंझय,गणकासुत जनक सिथ अवतारो। स: सुचि सूम उदारक,तच जीव हिंसोय देय पुण आदा॥१२२॥
अर्थ.....अह मुह अमि कहिये, सर्प के मुख में अमृत । सुत वमय कहिये, बन्ध्या के सुत । गणका सुत जनक कहिये, वैश्या के पुत्र का पिता । सिध अवतारी कहिये, मोक्ष मये पीछे जीव का अवतार । सठ सुचि कहिये, मर्च के शौच । सम उदारऊ कहिये, सूम का मन उदार । तब जीव हिंसीय देय पुरा आदा कहिये, हे आत्मा ! तब जीव हिंसा में पुण्य होय । भावार्थ महाभयानक काल रूप सर्प के मुख में अमृत होय, तो जीव हिंसा में पुण्य-फल होय और बांझ के पुत्र होता नहीं। सो बाँझ के पुत्र होय, तो प्राणी बंध में पुण्य होय और वेश्या के पुत्र के पिता होता नाही, तैसे ही जन्तु-वध में हिंसा होय, तहाँ धर्म नाहीं और शुद्ध जीव कर्म नाश सिद्ध होय, तिस मोक्ष जीव का संसार में अवतार नाहीं। तैसे ही जीव हिंसा में पराय नाहीं और मूर्ख के शौच नाहीं होय, तैसे ही हिंसा में पुण्य का फल नहीं होय और सूम शरीर देय, परन्तु दानकं एक | दाम नहीं देय । सो या सूम का चित्त उदार होय, तौ हिंसा में पुण्य-फल होय । ऐसे ऊपर कहे कारण, सौ
कबहूँ नहीं होय । तैसे ही धर्मात्मा तूं ऐसा जानि। जहां जीव घात होय, तहाँ पुण्य-फल नहीं होय। तातें
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ऐसा जानि, जीव घात तजि, दया सहित रहना योग्य है। आगे और भी हिंसा का निषेध बतावै हैंगाथा-परिछम रवि सिल तरई, भू पलटय वण सीत तग धरऊ । मेर चलय अन्ध देखय, तथ हिंसा देय पुण आदा ॥१२३॥
अर्थ-एच्छिम रवि कहिये, सूर्य पश्चिम दिशा से उदय होय। सिल तरई कहिये, शिला तैरे। म पलटय कहिये, पृथ्वी उलट-पलट होय। वहण सोत तण धरऊ कहिये, अग्नि शीतल तन धरै। मेर चलय कहिये, मेरु चलै । अन्ध देखय कहिये, नेत्र रहित देखें। तव हिंसा फल देय पुण आदा कहिये, आत्मा तो हिंसा का फल पुण्य होय। भावार्थ-पश्चिम दिशा में सूर कबहुं नाही ऊगे। तैसे ही हिंसा में धर्म का फल कबहूं नहीं होय और पाषाण की शिला जल वि तैरे, तो हिंसा में धर्म होय और पृथ्वी पल्टै तौ हिंसा में धर्म होय। सो शिला जल में कबहूँ तरतो नाहीं और पृथ्वी कबहूँ पलटती नाहीं अनादि ध्रुव है। तैसे ही हिंसा में पुण्य फल नाहीं और अग्नि शीत अङ्ग धरै तौ हिंसा में धर्म फल होय और सुमेरु पर्वत अनादि अचल है सो ये मेरु हालै तो हिंसा में धर्म फल होय और जन्म के अन्धे को कछु नहीं दीखें । तैसे ही जीव घात में पुण्य का फल कबहूँ नहीं होय। रोसे ये कहे नहीं योग्य स्थान तैसे ही हिंसा वि धर्म कदाचित नाहीं। ऐसा जानि हिंसा धर्म तजि दया सहित धर्म का अङ्गीकार करना योग्य है। आगे पुनि हिंसा निषेधगाथा-पंग चढ़य गिरि सिहरे, वधरो रंजाय राग सुह पाई। कातर रण जय पावय, तब हिंसा फल होय पुण आदा ॥१२४॥
अर्थ—पंग चढ़य गिरि सिहरे कहिये, पैर रहित पुरुष पर्वत के शीश पर चढ़े। वधरी राय राग सह पाई कहिये, बहरा राग के सुखको पादे । कातर रण जय पावय कहिये, कायर युद्ध में विजय पावै । तब हिंसा फल होय पुरा आदा कहिये, हे आत्मन् ! तो हिंसा में पुण्य फल होय। भावार्थ-पांव रहित पुरुष कों पर के सहाय विना अल्प भी नहीं चल्या जाय। सो रोसा पंगल पुरुष उत्तुंग पहाड़ के शिखर पर भागि के चढ़े तो जोव घात में पुण्य होय और बहरा पुरुष कान तैं कछु सुनता नाहीं। सो बहरा पुरुष राग के सुन्दर शब्द सुनि राजी होय तौ हिंसा में पुण्य होय और जे कायर नर होंय सो युद्ध से डरें। सो कायर पुरुष वैरी की सेना मगाय
जोति पावै तौ हिंसा विर्षे धर्म का लाभ पावें और ऊपर कहे जे कारण सो कदाचित नहीं होय! सो होय तो । हिंसा में धर्म फल होय। तात हे धर्म फल के लोभी सर्व जीव ! आप समान जानि सबकी रक्षा के निमित उपाय
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करना सा भव-भव में सुखकारी है। आगे पुनि हिंसा निषेधगाथा-जम उर करुणा धारय, काको मुह सौच मित्य तण जीरो । दुट जण पर मुह इच्छय, तव हिंसा फल होय पुण आदा ॥१२॥
अर्थ-जम उर करुणा धारय कहिये, काल के हृदय करुणा होय। काको मुह सौच कहिये, काक का मुख पवित्र होय । मित्य तण जीवो कहिये, मृतक जोवे । दुइ जण पर सुह इच्छय कहिये, दुष्ट पुरुष पर के सुख कौं वच्छेि । तव हिंसा फल पुरण आदा कहिये, हे आत्मा! तो हिंसा के करने में पुण्य होय। भावार्थ-यम जो काल, सो जड़ दया रहित है । सो काल कौं दया आव. संसारी जीव नहीं मारै, तो हिंसा में पुण्य फल होय और काक का मुख तौ सदा अपवित्र ही है। सो कदाचित् काक का मुख शौच रूप होय, तो हिंसा मैं पुण्य फल होय और आयु कर्म पूरण होय जे आत्मा पर्याय तज मरा, सो कबहूँ जीवता नाहीं। सो मृतक जीवे तो हिंसा में पुरय होय और जे दुष्ट स्वभावी, पर दुःख रअन, पर कौं सुखी देख महादुःखी होय। सो ऐसा क्रूर स्वभावी दुर्जन प्राणी, पर-जीव कौ साता देख सुखी होय, तो हिंसा में पुण्य होय । ऐसे ऊपर कहे कारण सो कबहूँ नहीं होय, सो ये होय तो जीव घात में धर्म होय । तातें धर्म लोभी के धर्म के निमित्त, दया-भाव करना योग्य है। आगे बहुरि हिंसा का निषेध करिये हैगाथा-विस पय जोवय जीवो, जागो गमणाय सरल तण होई स्वाण पुच्छ सुष होण्य, तव हिंसा फल होय पुण माथा ॥१२६॥
अर्थ-विस पय जीवय जीवो कहिये, जहर स्वाय के जीव जीवै। गागो गमणाय सरल तण होई कहिये, सर्व सीधा होय चालै । स्वाण पुच्छ सुध होवय कहिये, कुत्ते को पंच सीधी होय । तब हिंसा फल होय पुरा बादा कहिये, हे आत्मा! तो हिंसा में घुण्य होय । भावार्थ- हलाहल जहर खाय कोई जीवता नाहीं। ऐसा विकट विष खाये जोवै, तो हिंसा में धर्म-फल होय और काल नाग, सहज हो वक्र चाल चाल । सो कबहूँ सांप सूधा होय गमन करे, तो हिंसा में शुभ फल होगा और श्वान की पंछ का सहज स्वभाव ही वक्र है । सो कदाचित इवान की पंछ सुधी होय, तौ हिंसा में धर्म होय। ऐसे ऊपर कहे नहीं होने योग्य पदार्थ होय, तौ हिंसा में धर्म होय ताते हिंसा तजि, दया का पथ समझने में अपनी रक्षा जाननी। आगे और भी ऐसा कहैं हैं जो जीव-घात में पुण्य नाहींगाया-रज पीलय ह पाबई, रजनी रवि बिहोंति पभ पाये | काय धरी मह खपई, तब हिंसा सुइ देय माए ॥१२७॥
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अर्थ रज पीलय गैह पावइ कहिये, रज के पेलें तें तेल होय। रजनी रवि कहिये, रात्रि में सूर्य होय । श्री || बिहोंति सभ सपाय कहिये, बालिश्त ते आकाश न। काय धरी यह खपई कहिये, काय के धारी मरे नाही।
| तब हिंसा सुह देय णेमार कहिये, तो निश्चय नै हिंसा में पुण्य होय। भावार्थ रण जो बाल-रेत ताकौं घाणी में पेलें तें तेल निकसै. तो हिंसा में धर्म-फल होय। अरु रात्रि को सूर्य का उद्योत होय, तौ हिंसा में पुण्य होय और अंगुल-बालिश्त करि आकाश नापना होय, तौ हिंसा में धर्म-फल होय और शरीर अवतार का धारो, सदैव शाश्वत रहै, तो हिंसा में पुण्य होय । रौसे ऊपर कहे जे नहीं होने योग्य कार्य, सो ये होंय तौ हिंसा विर्षे पुण्य होय । रोसा जानि धर्म के इच्छुक धर्मो जीव हैं तिनकों, दया-भाव का मार्ग जानना योग्य है। आगे हिंसा में धर्म नाही, रोसा और भी बतावे हैंगाथा-खल पीलय सनेहो, सायर लंघाय पाप मजादो । णक सहते सुर अध दय, तव हिंसा फल देय मह आदा ।। १२८ ॥
अर्थ---खल पीलय सनेहो कहिये, खली के पेले तैल निकसै। सायर लघाय पाल मजादो कहिये, समुद्र अपनी पार को मर्यादा लंधै । एक सुहते कहिये, शुभ कार्य किये नरक होय । सुर अघ दय कहिये, स्वर्ग स्थान पाप फलतें होय। तब हिंसा फल देय सुह आदा कहिये, हे प्रात्मा! तौ हिंसा का फल शुभ होय। भावार्थजैसे मूरख खली को पेल तेल काढ्या चाहे, सो कबहूँ नाहीं निकसे। जो खली पेले तेल निकसै. तो हिंसा में पुण्य होय और समुद्र अपनी मर्यादा को उलंघे. तौ हिंसा में धर्म का फल होय और पाप के करनहारे सुगति जाय सो कदाचित् पाप करनहारे देव होय, तौ हिंसा में पुण्य होय और एण्य के करनहारे स्वर्ग-मोक्ष जांय हैं। सो यदि धर्म किये नरक होय, तौ हिंसा में धर्म लाम होय। रोसे ऊपर कहे स्थान, ते नहीं होने योग्य हैं। तैसे ही हिंसा में शुम नाहीं है। तातै तूं अपना कल्याण चाहै है। तो समता-भाव करि सुखी होयगा। आगे फेरि : हिंसा में धर्म का अभाव बतावे हैं
गाथा—जड़ दब्बो जुव गाणऊ, चेदण दव्वोय होय दिण गाणो । कलहो कय जस होई, तव हिंसा पुण देय गेमाए ॥१२९॥ ४३८
। अर्थ-जड़ दळवो जुव रणाराऊ कहिये, अचेतन द्रव्य ज्ञान सहित होय। चेदण दव्योष होय विश णामो ......... कालिये, सेवन नाश न एति होय। कलहो कय जस होई कहिये, कलह करते यश होय तय हिंसा पुत्र देय
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श्रो
सु
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रोमाए कहिये, तौ हिंसा पुण्यका फल देय । भावार्थ-जीव बिना, पाँच द्रव्य हैं । पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश । ये पांच द्रव्य अनादि तैं जड़त्व भाव को लिये हैं। इनके गुण भी जड़ हैं, और पर्याय भी जड़ है। खी ये अजीब द्रव्यनम ज्ञानका अभाव है सो इनमें ज्ञान होय, तौ हिंसामै धर्म-फल होय । और चेतन, गुण सहित देखने-जाननेहारा, दर्शन-ज्ञानका समूह, सो थाका ज्ञान कर्म योगर्तें घटे तो अक्षर के अनंतवें भाग रहे, परन्तु ज्ञानका अभाव कबहूं नहीं होय । अरु कदाचित जीव ज्ञान रहित होय, तो हिंसा धर्म फल होय । तथा अपथका कारण कलह है। सो कलह-युद्ध किये यश होय, तौ हिंसाके किये पुण्यका फल होय । ऐसे ऊपर कहे कार्य हों, तो हिंसा में धर्मका फल होय । तातें धर्म इच्छुक ! धर्मके निमित्त, दया धर्म का अध्ययन करहु । और भी अब करुणा का स्वरूप कहें हैं, और दयाका फल कहिये हैं-
गाया --- दीरघ घिति भ्रू जसयों, गद रह तण भोय इच्छ सहु होई । मुर, चक्की सुह सह लय, ये करुणा फल होय णेमाए ॥१३०॥
अर्थ - दीरघ थिति कहिये, बड़ी आयु । भू जसयो कहिये, धरतीपें यज्ञ । गढ़ रह तण कहिये, रोग रहित शरीर । भोय इच्छ सहु होईं कहिये, मनवांच्छित भोग। सुर चक्की कहिये, देव चक्रवर्ती। सुह सह लय कहिये, इनके सुख सहज ही होय । ये करुणा फल होय रोमाए कहिये, ये दया का फल निश्चय से जानना । भावार्थ - इस जीव को भव-भव रक्षा करनहारी, दया है। सो दया भाव जिनके सदैव रहै है, तिनको आयु तो सागरों पर्यंत बड़ी हो है । और जे दया भाव रहित होय है, ते जीव अल्पायु पाय मरण करें हैं। और दयाके फलतें जगतमें सहज ही यश होय है। और जो जीव पर-भवमें पराया यश नहीं देख सक्या। तथा जिसने महा निर्दय भाव कर पराया यज्ञ हत्या है। ते जीव, दया रहित भावनके फल हैं, यातें प्रगट भया जी यश, सो ऐसा यश चाहैं, तो लाखों दाम खर्चे भी वश मिलें नाहीं । यशके निमित्त प्राण देय मरैं तौ भी दया बिन यश नहीं मिले दोन होय बोलै, सब नम्रीभूत होय मस्तक नमावै, तो भी यज्ञ नहीं मिलें। काहे तें, जो पर भव विषै पराया मान राखा होय, प्रण राखे होंय, इत्यादिक मन-वचन-काय कर सर्व कौं साती करी होय. ते जीव सहज ही जगत में यश पावें । तातें यश है सो दया भावका फल है। और निरोग शरीर पावना, आयु पर्यन्त सुखी रहना. सो दया भाव का फल है और मनवांच्छित सुख का मिलना, सो दया भाव का फल है। जो मन में कल्पना करी
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सो ही वस्तु देवादिक की नाई तुरन्त मिलै, सो दया-भाव का फल है और दया बिना ये जीव तृण जो घास, सो | भी पेट भर नहीं भोगवे है। सदैव अन्न व तन करि बहत दुःखी होय, सो दया रहित माव का माहात्म्य है और
देवन के नाना प्रकार भोग, असंख्यात द्वीप-समुद्रन मैं गमन, नन्दीश्वर, कुण्डलगिरि, रुचिकगिरि इन द्वीपन में भगवान के मन्दिर हैं तिनको यात्रा का करना, ये शुभ फल उपावना पौर असंख्यात देव-देवी प्राज्ञामान, अनेक देवांगना के समूह तिनका आयु पर्यन्त सुख, सो दया-भाव का फल है और चकी के चौदह रत्र, नव निधि, छियानवे हजार स्त्रियां, षट् खण्ड का राज्य इत्यादिक सुख सो भी दया-भाव का फल है और ऊपर कहे जे भले फल, दीर्घ आयु जगत् यश, निरोग तन, वोच्छित भोग, देव सुख, चक्री सुख-ये सर्व दया-भाव का फल जानना। आगे और भी दया-भाव का फल कहिये हैगाथा-सुर तरु चिन्ता रयणो, काम घेयोय पास पासाणऊ । चित्ता लता सुसंगो, मै सहु किप्पाय भाव फल आदा ॥१३१॥
अर्थ सुर तरु कहिये, कल्पवृत्त । चिंता रयणो कहिये, चिन्तामणि रतन । काम धेयोय कहिये, कामधेनु । पास पासाराऊ कहिये, पारस पाषाण । चित्ता लता कहिये, चित्राबेलि । सुसंगो कहिये, सत्संग। ये सहु किप्पाय भाव फल आदा कहिये, हे प्रात्मा! ये सब दया-भाव का फल है। भावार्थ-दश प्रकार कल्पवृक्ष कर दिये जो उत्तम भौग, सो दया-भाव का फल है और मन चिन्तै भोग सुख का देनेहारा चिन्तामणि रत्न का मिलना, सो कृपा-भाव का फल है और वांच्छित सुख को देनहारी कामधेनु गाय का मिलना, यह भी दया-भाव का माहात्म्य है और कुधातुकों सुवर्ण करनहारा जो पारस-पाषाण सम्पदा सागर ताका मिलना, सो भी दया-भाव का फल है और अल्प वस्तु को अटूट करनेहारो चित्राबेलि नामक वनस्पति ताका पावना, ये भी दया-भाव का फल है और पाप के उद्य, निर्दयो-भावन के फल करि, अनन्तकाल कुसंग विर्ष गमन होता पाया। सो ताके सम्बन्ध नै त्रस स्थावरन की अनेक पर्याय धरि दुःख विर्षे डूबा । सो अदया का फल है। जब जीव का संसार निकट होय, तब याकों सत्संग का मिलाप होय है, सो सत्संग का मिलना भी दया-भाव का फल है। ऐसे ऊपर कहे सुर तरु, चिन्तामणि, कामधेनु, पारस, चित्राबेलि, सत्संग-ये तीन जगत् में उत्कृष्ट वस्तु हैं । सो दया-भाव के फल से मिले हैं। ऐसा जानि विवेको पुरुषन कों पर-जीवन की रक्षा रूप भाव रखना योग्य है। आगे और
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। भी दया-भाव का फल बतावे हैं---
गाथा--राहु हित कय पजाओ, आद राहु पाण सुंद तण होई । इन्द अहमिन्द शगंदर, किप्पा भावोय होय फल मेहः ॥११२॥ | अर्थ-सह हित कय पज्जाओ कहिये, सर्व कौ हितकारी पर्याय। आदे सहु धान कहिये, सर्व स्थान | विर्षे आदर। सुंद तरा होई कहिय, सुन्दर शरीर होया इन्द कहिये, इन्द्र पद। अहमिन्द कहिले, अहमिन्द्र
पद। सगंदउ कहिये, नागेन्द्र पद। किप्या भावोय होय फल येही कहिए, दया भावका फल ऐसा होय है। भावर्ध—जिनका मुख देखते ही सर्व जीवन कू सुख उपज, विश्वास उपज, मोह उपज, रोसी सुन्दर काया पावनी. सो दया भाव का फल है। दयाभाव बिना महा कुरूप, भयानक, रौद्र आकार, सव कौं अरति उपजावे ऐसा शरीर पावै है। और जिन जीवन का जगह-जगह प्राव-आदर होय, जिनकू देख सर्व प्राणी प्रोति भाव करें. ऐसा आदेय कर्म के उदयवाला सर्व कों वल्लभ होय। सो दया भावका फल जानना । और जाका शरीर महा सुन्दर, कामदेव के शरीर की शोभा कुंजीते, देवन के मनकों मोह उपजावे, अद्भुत शोभाकारी शरीर, सो दया भाव का फल है। और ग्लानि उपजावनहारा, विकट, असुहावना कुरूप इत्यादिक अशुभ कर्म के उदय का शरीर पावना, सो निर्दयी भाव का फल है। और देवन का नाध, असंख्याते देव-देवो जिसकी आज्ञा मान, आय-आय महाभक्ति करि अपना शीश नमा, सर्व देव जाकी स्तुति करें, ऐसा इन्द्र पद का पावना. सो भी दया भाव का फल है। तथा कल्पातीत जो देव हैं, जिनको महिमा वचन-अगोचर है। जितना सुख सर्व कल्पवासी सोलहों स्वर्गकि इन्द्र-देवन का है, तिन ते अधिक कल्पातीत जो अहमिन्द्र तिनका है। यहां प्रश्न-जो तुमने कहा कि कल्पवासी देव-इन्द्रन तें अहमिन्द्रन के सुख अधिक है। सो कल्पवासी देव-इन्द्रन कैं तो अनेक देवांगना हैं। तिन सहित सुख भोग हैं। और अनेक देव आघ-आय शोश नमावै हैं। असंख्याते देवों के नाथ हैं। पंचेन्द्रीय सम्बन्धी सुख मान घोषवै सम्बन्धी सुख, सो सर्व इन्द्रन के प्रत्यक्ष दीख हैं। परन्तु अहमिन्द्रों के देवांगना नाही. कोऊ आज्ञाकारी सेवक-देव नाहीं। तो इनके कल्पवासी इन्द्रन ते अधिक सुख कैसे सम्भवै ? ताका समाधानभो भव्य ! तुम चित्त देय सुनो। सुखके दोय भेद हैं। एक तो संक्लेशता सहित सुख, एक निराकुलता सहित सुख । सो संक्लेश सुख तें, निराकुल सुख अधिक है। जैसे एक पुरुष अपनी रत्रोंकी पोट अपने शीश पै
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धर, अपने घर कों, राहमें चल्या जाय है। अरु भले मोदक खावता जाय है। ताकरि सुखी है। और एक पुरुष अपने मन्दिरमें तिष्ठता, शीतल जल पीवता, मला मोदक स्वायके सस्ती है। इन दोऊनमें तूं विचार, जो विशेष सस्त्री कौन है ? जाके शीश मोट है अरु मोदक सावता राह चलता जाय है, ताका सुख तो आकुलता सहित है। और शोश भार रहित, एक स्थान तिष्ठता मोदक खाय, सो सुख निराकुल है। सो कल्पवासीका सुख तो शीश गठियावारका-सा है। अरु अहमिन्द्रनका सुख, एक स्थान तिष्ठनेहारे समान है। ऐसा जानना और सुनौं जो व्रती पुरुष हैं, सो तौ मन्द कषायन करि सुखी हैं और इन्द्र-चक्री ये सुखी हैं सो संक्लेश-सुखी हैं। ताही तें देव, इन्द्र, चको आदि बड़े-बड़े पदधारी, व्रती पुरुषन की पूजै हैं. शुश्रूषा करें हैं। जरु ऐसी याचना करं हैं। जो है गुरो। तुम्हारी भक्ति के फल तें, हमारे भी आप कैसा निराकुल-स्वाधीन सुख होय । अरु हमारे शान्ति-भाव प्रकटै । ऐसी प्रार्थना करें हैं। सो यहां भी निराकुल सुख की महिमा आई। तैसे ही इन्द्र-देवन का सुख तौ साकुल है और कल्यातीतन का सुख निराकुल है, मन्द कषाय रूप है। तातें कल्पवासीन ते कल्पातातन का सुख अधिक जानना तथा जैसे-एक पविरा-खुजली के रोगवाला पुरुष, ताने एक टटेरे का क पाया। सो तिस टटेरे के ट्रंक ते अपना तन खुजाय, सुनी भया । सो टटेरे में कहा सुख है ? परन्तु याके तन में खुजली का रोग है । सो टटेरे तें खुजाया, तब वाजि का दुःख मिटने तें कछु सुखी भया और कोई पुरुष खाज रहित सुखी है । सो ये भी सुखी है। सो इन दोऊन मैं खुजली रोगवा तें, उस निरोगी के बड़ा सुख है। ताते हे भव्य ! देवांगना के सुख की वांच्छा सो ही मया खुजली का रोग सो जब देवांगना का निमित्त पावै, तब किंचित् सुखी होय है। सो ये खुजलीवाले रोगी समानि है। जब काम रूपी खुजली चले. तब देवांगना रूप ठटेस से खुजाय सुरही होय । सो कल्पवासी देव-इन्द्र का सुख देवांगना का जैसा जानना। अरु अहमिन्द्रन का सुख है सो खुजली रहित, निरोगी पुरुष जैसा है। इन कल्पातीतन के, काम रूप खुजली रोग नाहों। तातें ये परम सुखा हैं। कल्पवासीन के काम रोग है। बरु कल्पातीतन का रोग रहित सुख है। ऐसे तेरे प्रश्न का उत्तर जानना। सो ऐसा जो अहमिन्द्र पद है, सो । उत्तम दया का फल है और भवनवासी देवन का नाथ नागेन्द्र ताका पद, सो भी करुणा का फल है।
सुजाया, तब वाजि का दान
पुरुष खाज रहित सखी
ते, उस
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ताते हे भव्योत्तम! ये ऊपर कहे उत्कृष्ट पद, सो इन सर्व के सुख, सर्व दया-भाव का फल है। ऐसा
जानि विवेकी पुरुषन कौ सर्व हितकारिणी जो दया, ताकौं धारणा योग्य है। आगे और भी दया-भाव को श्री || महिमा कहिये हैगाथा-तण वीजय बहु दासऊ, भय रहियों सोक तोत चतुयायो। तगति लव चिर सुहियो, ए किप्या फल होप मुह मादा ॥१३॥
अर्थ-तरा वीजय कड़िये, तन का तीर्य । बह दासऊ कहिये, बहत दास । भय रहियो कहिये, भय रहित । सोक तीत कहिये, शोक रहित । चतुयायो कहिये, चतुर । तणांत लव कहिये, तन के अन्त लू । चिर सहियो कहिये, बहुत काल तक सूखी। र किप्पा फल होय सुहादा कहिये, हे आत्मा। ये दया-भाव का फल है। भावार्थ-शरीर विरे बड़ा वीर्य होय । सो जैसे-चक्री में षट्-खण्ड के मनुष्यन से अधिक पराक्रम होय है । ऐसा बल पावना तथा तीन खण्ड के मनुष्यन मैं जेता बल होय, तेता पराक्रम एक वासुदेव में होय, जैसा जोर पावना तथा कोडि योद्धान का बल पुरुष में होय, ऐसा कोटी मट का बल पावना । लाख जोधान को एकला जोतै, सो लख भट है। ऐसा बल पावना। सहस्र योद्धा जीते, सौ सहस भट का बल पावना । शत भटकी जीते, सो शत भट होना । ऐसे कहे जो पराक्रम, सो सब दया का फल है। जिन जीवन मैं हिंसा करि पर-जीव घाते हैं । ते जीव भवान्तर में एकेन्द्रिय-विकलत्रय में होन-शक्ति धारी उपजै हैं और कदाचित तिर्यच-पंचेन्द्रिय उपण तथा मनुष्य उपजें तो दीन, रोगी, शक्ति रहित, दरिद्री, हीन भागी होय । सो ये भी पर-जीवन को दीन जानि, तिनकी घात का फल जानना और अनेक सेवक, बड़े-बड़े सामन्त, महाबल के धारी योधा, पराक्रम धारी आय-आय हस्त जोड़ नमस्कार करें। ऐसे बली, मानी राजा हजारौं जाकी सेवा करें, आज्ञा याचे, विनय करें, सो ऐसा पद पावना भी दया-भाव का फल है। पर-जीवन की सेवा आयआय करना, हस्त जोड़ आज्ञा माननी सो, हिंसा-भाव का फल है और जिनने पर-भव में तीर, गोली, गिलोल, लाठी, मूकी, शस्त्रादिक ते पर-जीवन कू भय उपजाया होय। ताके पाप फल तें भवान्तर में आय मनुष्य-पशु में उपजै, तहाँ भयानक रहै। सदैव ताका हृदय, भय तें कम्पायमान होय। सो भय के सात भेद हैं। इस भव का भय, पर-भव का भय, मरण का भय, रोग का भय, अनरसा भय, अगुप्त भय और अकस्मात् मय ये नाम हैं।
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अब इनका सामान्य स्वरूप बताइए हैं। तहां इस पर्याय में मोकों कछु दुःख नहीं होय। ऐसा विचार राखना, सो इस भव का भय है।३। और पर-भव में मोकौं तिर्यंच गति के दुःख नहीं होय, नरक के दुःख नहीं होंय तो भला है। ऐसे विचार का नाम, परलोक का भय है। २। मरण समय महावेदना होतो सुनिये है। सो परस समय मोकों वेदना नहीं होय, तो मला है। ऐसे विचार का नाम, मरण भय है।३। और जहां औरन की अनेक रोग-वेदना देख, भयवन्त होना। जो ये रोग के बड़े दुःख हैं मोकों कोई बड़ा रोग नहीं होय तो मला है। ऐसे : भय रूप रहना सो रोग का भय है। और जहाँ यह कहना कि जो मेरे कोई सहायक नाहीं। सहाय बिना सुख कैसे होय? मैं अशक्त हों। ऐसे भय रूप होय विचार करना सो अनरक्षा भय है। और यहां मोकों तथा वहां मोकों, कोई भय नहीं होय । मैं इस घर में बैठा हो सो घर नहीं गिर पड़े तथा इस घर में कोई सादि दुष्ट जीव मोकों खाय नहीं तथा कोई वरी मोको मार नहीं इत्यादिक भय रूप भाव रहना, सो अगुप्त भर है।६। पोलों कोई अचानक-नामस्मात् भय नहीं होय तो भला है । ऐसे भावन में भय राखना सो अकस्मात भय है। ७ । रोसे कहे जे सप्त भय सो जीवन • दुःख उपजाते हैं। सी ऐसे भय का होना सो निर्दय भावन तें पर को भय उपजाय. ता पाप का फल है। इन ही सप्त भय ते रहित, निर्भय भाव निःशङ्क होय रहना सो दयाभाव का फल है और जिननैं पर-भव में मन, वचन, काय करि पर-जीवन को शोक करया होय तिस पाप के फल ते भवान्तर में सदैव शोक रूप रहैं। सदेव शोक रहित सदा सुखी मङ्गलाचार रूप रहना, सो दया-भाव का फल है। जाने पर कौ बुद्धि सीखने में, ज्ञानाभ्यास में घात करी होय। द्वेष-भाव ते पराई बुद्धि, घात करी: होय। सो बुद्धि रहित मूर्ख उपजै। अनेक बुद्धि का प्रकाश पावना, अनेक कला पावनी, धर्म-कर्म सम्बन्धी अनेक चतुराई का पावना इत्यादिक गुण होना, सो पर-जीवन को दया का फल है। कोई जीव माता के गर्भ में आया, सो नव मास तो उदर में दुःखी भया। फेरि जन्म घरचा। सो जन्म से ही माता-पिता का मरण भया। तब असहाय होय, महादुःख त आयु के वशाय जोय. तरुण भया। सो भी ऐसे ही अत्र रहित, पट रहित, धन रहित, मान रहित इत्यादिक महादुःख ते पर्याय पूरो करि, पर-भव गया। सो ये निर्दयी भावन का फल है। जब मैं माता के गर्भ में आए. तब हो सदैव घर में पूरा मङ्गलाचार होना। जन्म भया तब से ही, अनेक दान,
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पूजा, गीत होते मरा। अनेक सुखपूर्वक तरुण अवस्था को प्राप्त होय, महासम्पदा के धनी हुए, सो दया-भाव औ का फल है। सो रोसा जानि अपने सुख की, पर-जीवन को रक्षा करना योग्य है। आगे और भी दया-भाव की || महिमा बतावे हैंगाथा-झहियो आरय झांणउ तणांगोपांगाय सहु णीको । मर बन्धव णंह करयो कोमल चित्तोय होय किप्पाए ॥ १३४ ॥
अर्थ-महियो आरय झोराउ कहिये, आध्यान करि रहित होघ । तगांगोपांगाय सहु सीको कहिये, तन के अङ्गोपाङ्ग सकल शुद्ध होय। सउ बन्धव रोह करयो कहिये, सकल बांधवन विधैं प्रीति हीय। कोमल चित्तीय कहिये, कोमल चित्त का होना। होय किप्यार कहिये, ए सब दया-भाव होथ। भावार्थ-जीव कुं नहीं सुहावती जो वस्तु, तिनके मिलाप कर मई जो आरति तथा भली वस्तु के जाने को आरति, खोटी वस्तु के मिलापको भारत, रोग होने की सयाभय के मेटने को आरति तथा आगे मैं रोसा करूंगा इत्यादिक मावन के विचार कर अपने उर में खेद का करना सो निर्दय भाव का फल है और इन च्यारि भेद आत-भाव रहित निराकुल सुख रूप भाव रहना, यह दया का फल है और जिन अङ्गोपाङ्ग सहित सुघड़ शरीर पाया होय, सो दया का फल है। तिन अङ्गोपाङ्ग के नाम हस्त दोय, पोव दोय, छाती, पीठ, मस्तक और नितम्ब-ए अष्ट अङ्ग हैं। सो इनका शुम-शास्त्रों प्रमाण आकार पावना सो करुणा भाव का फल है और केई नेत्र रहित, केई जिला रहित, केई श्रोत्र रहित इत्यादिक उपाङ्ग रहित होना तथा पांव रहित, हाथ रहित होना । अंगुली नासिकादि अङ्गोपाङ्ग करि हीन होना । महाविकट शरीर का आकार, भयानक पांव के रूप होना, महाकुघाट शरीर पावना, ये सब निर्दय परिणाम का फल है और सर्व कुटुम्ब माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री इत्यादिक सर्व बांधव सुखकारी मिलना, सो दया-भाव का फल है। पुत्र भला, ताक पिता खोटा। भला पिता कू पुत्र स्खोटा। भली माता के पुत्रपुत्री दोऊ खोटे। पुत्र-पुत्री को माता खोटी। परस्पर भाई खोटे। भलो स्त्री कू भतार खोटा। भले भर्तार कू
स्त्री खोटो। इत्यादिक परस्पर कुटुम्ब विषं विरोध-भाव केई महाक्रोधी, केई मानी, केई दगाबाज, केई ४४५
लोभी, केई कुव्यसनी, केई चोर, केई ज्वारी, केई पाखण्डी और केई परस्पर बांधव द्वेष सहित विरोधी मिलें, सो हिंसा-भाव किये, तिनका फल है और जिन जीवन के दीर्घ पुण्य का फल उदय होय, सो कोमल
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चित्त पावै। ताकै कोई ते द्वेष-भाव नाहों। कोई कं दुःख नहों वाच्छै। सर्व का हित वाच्छनहारा रोसा | कोमल चित्त पावना, सो दया-भाव का फल है और जाकौं पर-जीव बहुत दुःखी देख. दया नहीं उपजें। | ऐसा कठोर चित्त पावना, सो निर्दय भाव का फल है। ऐसे ऊपर कहे शुभ लक्षण, आरति रहित शुभ भाव, शुद्ध अङ्गोपाङ्ग, कुटुम्ब मोही, कोमल चित्त ये सब शुद्ध सामग्री पावना, सो दया-भाव का फल है 1 आगे
शुद्ध जोपा
और भी कहिये है-
पोय जीय रखय, किप्पा इव जोय हो
गाथा-कम्म हणी शिव रुग्णी, तणो भव पीर वोर षड् कायो । जपणो इव जीय रखय, किया इव जोय होय शिव आदा॥१३॥
अर्थ-काम हणी कहिये, कर्म नाश करनी। शिव करणो कहिये, मोक्ष कारणो । तणी भव गीर कहिये, संसार-जलकों जहाज। वीर षड कायो कहिये, षट काय कों भाई सम। जणगी इव जीव रखय कहिये, माता समान जीव की रक्षा करतहारी। किप्या इस जोय होय शिव आदा कहिये, दया-भाव को ऐसा जानै तो यह आत्मा मोक्ष होय । भावार्थ-धर्म के अनेक अङ्ग हैं। तप, जप, संयम, व्रत, ध्यान, नग्न रहना, बड़े- | बड़े तप करना। पक्ष. मास, वर्ष के अनशन करता महाव्रत, समिति. गुप्ति पालना । इन्द्रियन का जीतना । । भूख-प्यास सहना पश्चाग्रि तपना । शीशप केशन का बधावना । चर्मादिक तें शरीर ढाँकना । वस्त्र का त्याग करना। ऊर्ध्व पांव, अधो शीश झूलना। भूमि वि गड़ि मरना। जीवित हो अग्नि में जरना। पर्वत पात करना । जल प्रवाह लेना । कन्द, मूल, वनस्पति खावना । अत्र तज, दूध-मठा पोवना इत्यादिक अनेक कष्ट मारग हैं सो यह जीव, धर्म के निमित्त अनेक कष्ट खाय है । सो ये कहे जो कष्ट, सो दया-भाव बिना मोक्ष-मार्ग नहीं करें। सर्व वृथा ही जांय हैं। तात जेतेधर्म अङ्ग हैं, तिनमें यह जीव-दया सर्व का मूल है। कैसी है यह दया ? सर्व कर्मन को काटनहारी है। दया-भाव बिना, निर्दयी जीवों के कर्म कटै नाहों फेरि यह दया कैसी है? या बिना सिद्ध पद नहीं होय । कैसा है सिद्ध पद ? जन्म-मरण रहित है । निराकार, निरचन-कर्म अजन रहित है। फेरि कैसा है मोक्ष पद ? देव, इन्द्र, चक्री, धरणेन्द्रादि महान पुरुषों करि पूजने योग्य है। सो ऐसे सिद्ध पदकों यह दया-भावही देय है। दया रहित प्राणीनकौं ऐसा सिद्ध पद होता नहीं। बहुरि कैसी है दया? संसार-समुद्र के दुःखजल, ताहि पारि करनेकौं, जहाज समान है। दया नाव बिना, संसार-सागर तिरचा नहीं जाय है । हिंसा-धर्म है सो
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सान्द्रय हैं। तेइन्द्रिय, चींटी,
चार स्थावर हैं। और त्रस जो बात कायिक, हरी-पोली बेलो.
पाहन जहाज समानि है सो ये आप भी डूब है और पाहन-नावका आश्रय लेनेहारा भी डुबै है। तातें हिंसा तजि, दया भाव राखना भला है। बहुरि ये दया भावना कैसी है । षट कायक जीवनको रक्षा करने को भाई समान है। कैसे हैं षट कायिक, सो कहिये हैं। पृथ्वी कायिक तौ, मिट्टी-पाषाणदिकके जीव हैं। अएकायिक, जलके जीव हैं। तेजःकायिक, अनिके जीव हैं। वायु कायिक, पवनके जीव हैं। बनस्पति कायिक, हरी-पोली बेलो, धास वृक्ष । इन आदि अनेक तनके धारी पञ्च स्थावर हैं। और त्रस जो बैइन्द्रिय-इल्ली जोंक, नारुवा, कैचूवा आदि बेइन्द्रिय हैं । तेइन्द्रिय, चींटी, चींटा, खटमल, कंथवा, इन जादि अनेक तनक धारी तेन्द्रिय हैं। और चौइन्द्रिय में मक्खी , मच्छर, प्रमर, टिड्डी, इन आदि चउ इन्द्रिय हैं। पंचेन्द्रियमें देव, मनुष्य तिर्यच, नारक ये सर्वत्रस हैं। सो ऐसे कहे जो स-स्थावर षट कायिक जीव, सो इनकी रक्षा करने की दया भाव, भाई समानि हैं। और इन षट काधिक जीवनको रक्षा करने को दया, माता समानि है। जैसे माता पुत्रको रक्षा कर है। ऐसेही दया, सब | जीवोंकी रक्षा कर है। तातें है भब्धात्मा, ये दया सर्व गुण भण्डार जानि, याका साधन करि। याके उत्कृष्ट
सैवनकौं जानें, तो कं मोक्ष होयगी। यहां प्रश्न-जो दया के उत्कृष्ट जाने ही मोक्ष कैसे होय ? दया पालैगा तो मोक्ष होयगी। ताका समाधान—जो है भव्य, जो तेने कही सो सत्य है। परन्तु जाको उत्कृष्ट जानें तो ताका सेवन भी करें। तातें प्रथम पक्का श्रद्धान करावना कि दया से मोक्ष होय है। जैसे लौकिक में भी ऐसी प्रवृत्ति देखिये है। जो जाकौं बड़ा मानें, तो ताके वचन की भी प्रतीति करे है। जो फलाना बड़ा जादमी है, उदार है, ताको सेवा किये अनेक जीव धनवान होय सुखो भये। सो मोकों भी याकी सेवा मिले, तो मोकों भी धन मिले। मैं भी सूझी होऊ1 ऐसे पुरुष की सेवा बिना, चाकरी बिना, दरिद्रता जातो नाहीं। रोसा दृढ़ श्रद्धान होय है। तब पोछ यह धनका इच्छुक, सुख के निमित्त, उस ऊंच पुरुष की सेवा करने को वाके पास जाय, मान तजि, नमस्कार करि, बारम्बार शीश नमावै, विनय करे है। ताकी शाज्ञा प्रमारा करै। निश-दिन सेवाविर्षे सावधान रहै। अनेक मुख-प्यासादिक कष्ट सहे करि भी रहे। कष्ट सह. परन्तु उसकी आज्ञा मंग नहीं करै। जब वह बड़ा पुरुष याको सेवा बहुत प्रोति सहित जाने, तब वह उत्कृष्ट पुरुष याकौं धन देय सुखो करे है। और कदाचित् सेवा | करनेहारे कौं बड़े पुरुष का उत्कृष्टपना भास ही नहीं, बड़ा ही नहीं जाने, तौ सेवा कैसे करे? अरु सेवा नहीं
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| करें, तो याका दुख-दरिद्र कसे मिटे। तातै प्रथम ताके बड़प्पन को जाने, तौ पीछे श्रद्धान होय। जो ये बड़ा पुरूष है, याको सेवा किये सुखी होऊंगा, तब सेवा कर रोसी प्रतीति लौकिक मैं प्रत्यक्ष देखिए है। सो पहिले जानपना होथ। पोछे श्रद्धान होय 1 ता पीछे ताको सेवा करी जाय। तैसे हो दया-भाव को उत्कृष्टता पहिले
जाने, तौ पोछ ताका दृढ़ श्रद्धान करे। पछि दया को उत्कृष्ट जानि, ताको रक्षा करे-सेवा करें। दया धर्म की । पूजा करें-विनय करें। जब याके ऐसा सांचा दृढ़ श्रद्धान प्रगटैगा। तब इस निकट संसारी भव्य के ऐसे परि
गाल होयगे जो सुख का समूह तौ मोक्ष स्थान है। अरु मोक्ष है, सो दया-भाव ते होय है। सो मैं महा गृहासम्म विर्षे पड्या हो। तहां पर जीवन की रक्षा होतो नाहों। मोकौं मोक्ष के सुख कैसे होय? तातें सर्व प्रकार दया—मार्ग सद्गुरु जाने हैं। वह गुरु दया का भण्डार बाजै हैं । तातै मैं गुरु के पास जाय, विनीत करौं। तौ दया के समूह मो कृपा करके, मेरा मनोरथ पूर्ण करेंगे। ऐसा विचार करि, ये भव्यात्मा, मोक्षामिलाषी, श्री गुरु पे जाय, नमस्कार करि, तीन प्रदक्षिणा देय, महा विनय सहित हस्त जोड़ खड़ा होय, अपना अन्तरंग अभिप्राय कहता भया। हे नाथ ! हे दीन दयाल ! मैंने सांसारिक सुख बहुत भोगे। परन्तु हे नाथ! मेरी वाच्छा पूर्ण नहीं मई। जैसे कोई अन्तरंग ज्वर का रोगी, सदैव सोणा तन होय। सो तन पुष्ट करने की बड़ी इच्छा जाकै. सो तन स्थल करवे को अनेक पुष्ट-गरिष्ठ भोजन करें। परन्तु पुष्ट होता नाही. दिन-प्रति क्षीण होता जाय है। याको इच्छा पूरती नाहीं। तात दुख ही व है, नेसे ही हे नाथ! मैंने सुखी होयने के अनेक भोग-सामग्री पाय-पाय भोगी। परन्तु सम्पूर्ण सुन्बी नहीं भया। ओ मेरे सर्व सुखो होयवे की इच्छा बनी रहे है। मेरे इच्छा नाम रोग का महा दुःख, मिटता नाहीं। नाते मी जगत गुरु ! जैसे मोकौ सम्पूर्ण सुखकी प्राप्ति होय, सो ही उपदेश करौं। जाकै धारण किए, मैं सूखी होऊ। अब मोकी यह इन्द्रिय जनित सख है सो महा भय उपजावे है, | प्रिय नाहों। तातें अब आज्ञा करौ, सो हो करूं। तब योगीश्वर ने जानी, जो ये जीव मोक्ष सुख को बड़ा-सर्वोत्कृष्ट जाने है, ताही के योग करि याके दृढ़ श्रद्धान प्रगट्या है। ऐसा विचार, आचार्य दया भाव करि कहते
भए। भो मन्या तेने भली विचारी। यह सांसारिक भोग, अज्ञानी जीवन कौं अपने सुख की आमासा सो || दिखाय, मोह उपजा हैं। बाकी य सर्व-इन्द्रिय भौग, रोग करि पूरित हैं। गुण रहित हैं। जैसे शरीर बाह्य में
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मोही जीवन को सुख्ख को प्राभास सी बताय, मोहित करें हैं। बाकी सुख रहित है। सप्त धातुमयो झोणित, पक्व रुधिर, अस्थि, रोम, तिन करि स्थान-स्थान पूरित है। ऊपर चरम तें लिपटा है। विनाशीक है। इत्यादिक अनेक अवगुरा करि भरा है। तातें हे भव्य ! ऐसा विचार, जो ये शरीर विनश्वर है। सो याके जासरे जो
इन्द्रिय जनित सुख, सो ये कैसे स्थिरीभूत रहेंगे? और है भव्य, देख । शरीर तो ऐसा है, अरु तूं इस शरीर में | बैठा है। बहुत काल का या तन के मोह करि इसमें बंध्या है। तातें तूं विषयन से उदासीन भया है। सो हे
भव्यात्मा! ऐसा हो तू इस शरीर तें भी उदास होऊ। ज्यों तेरी अभिलाषा पूर्ण होय। क्योंकि ये शरीर बिनाशिक है। तात जब जेते याकी स्थिति है तेते तू यातें दीक्षा अङ्गीकार कर ऊत्कृष्ट दया-धर्म पाल । कौर मोक्षजा। क्योंकि जो ना-यावर की सर्व प्रकार दया, इस गृहस्थावस्थामें तो पलें नाहीं। काहे ते. जो इस परिग्रहके संघोग तै उत्कृष्ट दया पलती नाहीं। लंगोट मात्र परिग्रह होय, तो भी सम्पूर्ण दया नाहीं पले. तो इस बहुत परिग्रहमें कैसे पल ? तातें हे भव्यात्मा, सर्व प्रकार स-स्थावर जीवनको दया, महाव्रत भये पलै। तातें
अब त भले प्रकार महाव्रत अइनकार कर। समता भाव धारि, शुभ भाव धारि। स-स्थावर जीवनकी रक्षाके | निमित सर्व जीवन ते क्षमा भाव करि के, सर्व अभय दान देय । तब त सर्व दया का धारी भया जातें अब तेरे
नूतन कर्मका बन्ध होयगा नाहीं। और आगे तैने अज्ञानावस्थामें इन्द्रिय और शरीरके पोषवे कू हिंसा करि कर्म को बांधे थे, सो याही शरीर से नानाप्रकार तप करकै. पिछले कर्मनका नाश करि। सर्व कर्मका नाश भये, तू मोक्ष सुख पावेगा। सो वह मोक्ष-सुख अविनाशी है, अखरड है अनन्त है। ये सुख भये पीछे जाता नाहीं।। हे भव्य यहां तेरी अभिलाषा पूरी होयगो। ऐसे आचार्य ने कह्या तब शिष्य गुरुको माझा सुनि महा विनय ते । उल्लास करि रोसा विचारता भया। जो आजका दिन धन्य है। आजि मोकों गुरु ने ऐसा इलाज बताया जा करि मेरे पूरव किये पापका नाश होयगा। और अनन्त सुखका स्थान सर्व कर्म रहित निरंजन पद केवलज्ञान सहित सिद्ध पदकी प्राप्ति होयगी। सो अब तौ श्री गुरुके प्रसाद करि मैं मोक्षको पाऊंगा। सो ये उपकार गुरुनका है। ये गुरु वांच्छित सुख देने कू कल्पवृत्त समान हैं। परन्तु कल्पवृक्ष तो एक स्थान ही स्थिरीमत रहै। यायें कोई चल करि आवै तौ फल पावै। घर बैठे देने नाही जाय है। और तामें भी यह भोजन-भषणादि
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इन्द्रिय जनित सुख देय सो भी शाश्वत नाहीं। किञ्चित काल सुखसा दिसाय विनश जाय । और श्री गुरु कल्पवृत्त हैं। सो भव्य जीवन कू घर बैठे ही वांच्छित सुख देवे कूआए देश बिहार करि सबको आशा पूरै हैं। 11 YX ताते श्री गुरु धन्य हैं। जिनको क्रिया करि संसारी जीव मोक्ष पावै। ऐसे नाना प्रकार गुरुको महिमा करि पीछे शिष्ध गुरुके बताये ना पर तय सिमा करिने यो नाका भार होय है। तातें प्रथम जानना होय पोछे जानी वस्तुका पक्षा श्रद्धान होय। सो श्रद्धान होय तो कष्ट पाय के भी अपने भलेका कार्य करें हो करै। ऐसे तेरे प्रश्नका समाधान जानना। ताते हे भव्य पहिले तो भली-बुरी वस्तुका जानपना होय। भले प्रकार जाने पीछे ताका दृढ़ श्रद्धान होय और भलो-बुरीका निर्धार कर है। और कोई बाल-बुद्धि पदार्थ को नान। परन्तु तामें ताका ग्रहण-त्याग नहीं करि जानें। ऐसा मिथ्यादृष्टि मोहित भोले जीव संसारमें बहुत हैं। इनके ज्ञान के जानपनका इनकौं कछु नफा नाहीं। इन मिथ्याज्ञानीनका जानपना निज-पर जीवन के ठगने कौं प्रगट होय हैं। और सम्यक्त्व सहित जानपना है सो तामें पहिले श्रद्धान करि पोचे तिनका त्याग-ग्रहण होय है। सो जो अपने भले योग्य हितकारी परभवमें सुखकारी होय सो ताका तो ग्रहण करे। और जो पदार्थ
आपको इस भव-परभव में दुखकारी होंय, पाप बंध करता होय, परंपराय जात दुख होता जाने, तिन पदार्थनका त्याग करे। रोसा त्याग-ग्रहरा करि सम्यकदृष्टि जीव नैं ऐसा विचारया। जो सर्व धर्म-अजनमें एक दया भाव है सो मुख्य धर्म है। काहे तें जो तप, संयम, दान पूजादि हैं सो तो धर्मके अङ्ग हैं। जीव दया है सो ये मूल धर्म है। इस जीव दया के पालवे के निमित्त धर्म है। सो हिंसाके कारण राज्य, गृहारम्भ छाडि अपने तन सम्बन्धी भोगन तैं ममत्व भाव छोड़ के पीछे मोह तजि, नग्न काय होय, सर्व षट-कायिक जीवन के सुख देवे कौं, आप यतिका पद धरया। तहाँ सर्व प्रकार जीवन की रक्षा करि, जगत्पूज्य सिद्ध पद ताकौ पाय मोक्ष स्थान विर्षे अखण्ड सुखी होता भया। तातें यह बात सिद्ध भइ, कि जो दया ही धर्म है। दया बिना कोई धर्म कहै, सो वृथा है। और लौकिक में भी बाल-गोपाल दया हो कौं धर्म कहै हैं। तथा और देखो, इस दया की षट मत विर्षे प्रसिद्धि है। व सर्व जीव यश गावैं हैं। देखो जो अज्ञान-रंक भूखा होय, सो भी ऐसा कहै है। कि जो हम भूखे हैं सो कोई दया धर्म का धारी होय, सो हमारी दया कर हमारा दुख मैटो। सो देखो, रंक भी ऐसा
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जाने हैं और दया की ही धर्म कहैं हैं। तो जे विवेकी हैं सो तौ दया मैं धर्म कहैं ही। ताते रोसा जानना, || जो ये दया सो ही धर्म है। तात जगह-जगह जिनेश्वर देव ने भी ऐसा ही कया है। कि दया धर्म है।। श्री | सो अब रोसा विचार के, धर्म राक दया ही का निश्चय करना। अब रोते भी कोई प्राणी, जीव घात में ही मु| धर्म मानें, तो याका चित्त ही महाकठोर है। याका पर-भव बिगड़ना है व दुःखी होना है। थाकों पर-मव
में दुःखदायक पर्याय उपजैगी। दोन, दरिद्री, अन्धा, असहाय हीन होना है तथा नारकी व पशु होना है। इन स्थान में महादःखी होयगा। इसका किया ये ही भोगवेगा। इसके श्रद्धान की यही जाने। परन्तु हमने तौ रौसा ठीक किया, कि जो धर्म रक दया-भाव है । तातें जिनकौं परम सुख की इच्छा होय । सो धर्मात्मा, सर्व जीवन ते क्षमा-भाव करि षट् काय जीवन को अभयदान देओ। बहुत कहने करि कहा । ऐसा अवसर फिर मिलना कठिन है। इति श्रीसुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्धके मध्यमें हिंसा निषेध, दया का माहात्म्य वर्णन करनेवाला तीसयो पर्व सम्पूर्ण भया ॥३०॥ ___आगे राज लक्षणों का स्वरूप कहिये हैं। जाकरि प्रजा सुखी होय, राजा का तेज-प्रताए बधै, लक्ष्मी बधे, यश होय, सुखी रहे, पर-भव सुधरे। ऐसे गुण श्री आदि पुराण जो अनुसार कहिये हैगाथा-षट् गुण चक विद्याए, पण दल अणि होय सुभग गुण सेसा: सज णिप जस लछिपायइ, फूण तव लेय होय सिक णाहो ॥१३॥
अर्थ-षट गुण चव विद्यारा कहिये, छःगुण अस च्यारि विद्या । परा वल अणि होय सुभग गुण सैसा कहिये, पञ्च-बल और अनेक गुण होय । सरशिप जस लछि पावइ कहिये, सी राजा यश-सम्पदा पावै । फुरा तव लेय होय सिव साहो कहिये, फिर तप लेय मोक्ष लक्ष्मी का भरतार होय । भावार्थ-रोसे षट् गुरा, च्यारि विद्या अरु पञ्च-बल—ये राजान के गुण हैं। सो जिनमें ये गुण होय, सो भला प्रजापति है । सो ही प्रथम षट गुण कहिये हैं। प्रथम नाम- सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संस्थान और आश्रय-ये षट भेद हैं।
अब इनका विशेष कहिये है। तहां कोई आप से अधिक बलवान राजा, बड़ी फौज का धारी होय तथा ४५१] आगे कहेंगे राजाओं के पांच गुण, सो आपते पर-राजा के पास बहुत होय आप त पश्व-बल भी तिस राजा
के पास बलवान होंय । जाते युद्ध किए जोतिरा नाही। ऐसा बलवान वैरी होय । तौ ताकौ ग्राम, देश, धरती
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देय राठी कोजिया हस्ती-चोटकादि दोजिये । अपने घर का उत्तम रतन-धन दीजिये । ताकी विनय कीजिये। || || ताको सेवा चाकरी कीजिये । जैसे बने तसे, प्रबल वैरी को राजी कीजिये । तासों स्नेह होय, सोही कीजिये।
ताका नाम सन्धि नामा गुण है । सो जो विवेको राजा-मन्त्री, भली बुद्धि कौं धरैं हैं। सो इस सन्धि गुणकौं ।
अवसर पाय प्रगट करि अपना राज्य राख, सुखी होंय हैं और ये सन्धि गुण जामें नहीं होय, तो अपने तें | विशेष जोरावर राजा ते युद्ध करि, रावरा को नाई मरण पावै। कुल का, तन का, धन का क्षय होय ।
राज्य जाय दुःखी होय । जातें विवेकी राजा हैं है कोई रोसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, जान के इस सन्धि गुण के बल करि वैरो कौ उपशान्त करें हैं। आप ते जोरावर राजा ते शोश नमावते, उसकी सेवा करते, अपना मान-खण्ड नहीं माने। बलवान-सेवा, अपनी रक्षा का कारण जानि, सन्धि करें हैं ये विवेकी राजा का धर्म है। इति प्रथम सन्धि गुण । ३। आगे विग्रह गुण कहिये है। तहां और कोई राजा प्रबल-वैरी धीठ बुद्धि होय। धन देते, देश देते, चाकरी कबूल करते, हस्ती-घोटकादि देते इत्यादिक विनय करते जो वैरी उपशान्त नहीं होय, तो पीछे युद्ध करै। युद्ध में शंका नाही करै। निःशङ्क होय वैरी ते युद्ध करै। अपना पुरुषार्थ-पराक्रम प्रगट कर । सो विग्रह नाम गुण है। २। अागे यान गुश है सो कहिय है। जे महान् वंश के उपजे राजकुमार, तिनकौं यान गुण में प्रवीणपना चाहिये। सो ही बताईए है। हस्ती की असवारी, गज का जोतना, गज क्रीड़ादि में गज को चलावना, अपने वश हस्ती करना। इन आदि गज-असवारी में सावधान रहना और घोटक बढ़ना, दौड़ावना दुष्ट अश्व को वशीभत करना इत्यादिक घोड़े की असवारी में सावधान होय तथा रथ के चलावे में सावधान होय। रोज की असवारी जाने, सिंह को असवारी जाने। करहा सांड की असवारी करना जाने। महिष की असवारी, वृषम की असवारी, गैंडा की असवारी इत्यादिक असवारिन में प्रवीणता, सो यान गरा है। सो ये गुण राज-पुत्रन में अवश्य चाहिरा । ये गुण नहीं होंय, तो युद्ध हारें और अन्य राज-पुत्रन में जांय, तौ लजा पार्वे) तातें यान गुरा चाहिए। इति यान मुश। ३. आगे आसन गुरा कहिश है। राजान में आसन गुण चाहिये। तहां बैठवे की दृढ़ आसन चाहिए । जहां तिष्ठ, तहां राकासन दृढ़ होय बैठे, चलाचल आसन नहीं रासे । कबहूँ कहीं, । कबहूँ कहीं ऐसे चञ्चल भाव नहीं होय । एक स्थान दृढ़ होय तिष्ठ तथा देशान्तर गमन करते जहां मुकाम
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कर, तहा जपन तन का सावधानां कर। जहां जल, तृण, अन्न की प्रचुरता होय, तहाँ मुकाम करें तथा सेन्या के । सोमाकी रक्षा करें। जहां उंरा होय, तहाँ अपने तन के मोही सेवक सुभट तिनके डेरा अपने चौ-तरफ राखि, । अपने तन की रक्षा देख, मुकाम कर इत्यादि सावधानी राखनी। सो आसन गुण कहिए। ये जासन गुरा है।। || आगे संस्था गुण कहिए है। संस्था गुण ताकौं कहिये जो अपने मुख से वचन बोलना, सो फेरि अन्यथा नहीं
होय । वचन को दृढ़ता राखनी जो वचन बोल्या, सो ताकी मर्यादा निवाहनी। तन गये भी जो वचन कह्या ताका नहीं उल्लंघिये। जैसे-दशरथ राजा ने अपनी रानी कैकई को वर दिया सो समय पाय वान पुत्र-भरत कुं राज्य याच्या। सो अयोध्या का राज्य भरत कू देय, वचन राख्या। सेसे हो राजान को अपने वचन की दृढ़ता राखनी, सो संस्था गुरा है। ये वचन-दृढ़ का गुण राजा में नहीं होय, तौताको प्रजा दुःख पावे। अन्याय विस्तरे। राजा का वचन प्रतीति रहित भये, अपयशादि दोष प्रगटै। तातै वचन सत्य बोलना, सो संस्था गुण है। इति संस्था गुण । ५। जागे जाश्रय गुण कहिये है सो राजान में आश्रय गुण चाहिये। कोई भयवन्त होय, जोरावर का सताया, अपने आश्रय आवे तो आप ताकुंजपने शरश राखें । सन्तोष उपजावै तथा आप भय आये, आपत प्रबल होय ताके आश्रय जाय, सुखी होना । सो अपने से बड़े के शरण जावे में, अपना मान खंड नहीं मानना और अन्यकं अपने बाश्रय राखने में काहू का भय नहीं करना । ये आश्रय नाम गुश है। ये गुण नहीं होय, तो महिमा नहीं पाये। तातें आश्रय गुरा राजान में चाहिये। इति आप्रय गुरा।६।ऐसे राजाओं के षट गुण जानना। आगे राजाओं के सीखने योग्य च्यारि विद्या है, तिनका कथन कहिये है। प्रथम नाम---पानीष को विद्या, त्रयी विद्या, वार्ता विद्या और दण्डनी विद्या-ये च्यारि विद्या हैं। अब इनका सामान्य स्वरूप कहिये है। जैसे-जौहरी अपनी बुद्धि के योग तें, भले-बुरे रत्न कुंजानैं। तैसे हो विवेको राजा, प्रथम तो अपने-पराये बल-पराक्रम को जानै । ऐसा विचारै, फलाने राजा का पराक्रम ऐसा, उस राजा की सैन्या इतनी, भुजबल ऐसा, वाके राता मुल्क ऐसा खजाना है। ऐसे-ऐसे सामन्त राजा ताके सेवक हैं। ऐसे बुद्धिमान् मन्त्री हैं और मेरे शरीर का जोर एता है, मेरा राता मुल्क है, राता खजाना है। एते सामन्त-सेवक हैं। रीसै मन्त्री हैं इत्यादिक मेद जाने, सो विवेकी राजा है और जो अपने-पराये पराक्रम विर्षे नहीं सनम, तो आप से बड़े बलवान् राजा ते द्वेष करि,
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अपना राज्य खोय, दुःखी होवै। अपने सेवक, मित्र, प्रजा के लोग इनके स्वभाव कुं जाने। जो ये बुरा है। ये भला है। ये दुष्ट अङ्गी है। ये सजन अङ्गी है। ये गुण-लोभी है। ये सत्यवादी है। ये झूठा है। ये स्वभाव का धरनहारा है। ये पराया बुरा करनहारा, जुगल है। ये पर के भले का करनहारा है। यह यश का लोभी है। ये धन का लोभी है। ये चोर स्वभावी है। यह क्रोधी है। ये मानो है। यह दगाबाज-मायावी है। यह सरल स्वभावी है। यह चित्त का उदार है ! यह सूम है। यात मोकौं सुख है। यात मोकों निन्दा आवै है। यातें मेरा यश होय हैं। यह पर कौं पोड़ें है। ये पर का रक्षक है इत्यादिक विवेक-विद्या, राज-पुत्रन कौं सीखना सुखकारी है। याका नाम आनीष की विद्या है। इस विद्या का ज्ञान होय, तो अपने ज्ञान-बल तै. कठोर चित्ती है तिनकों कोमल करै। यहां प्रश्न—जो कठोर स्वभावी है तिनकों कोमल स्वभावो कैसे करे ? ताका तौ स्वभाव ही कठोर है, सो वस्तु का स्वभाव कैसे मिटे है ? ताका समाधान—जैसे--पृथ्वीकाय स्वर्ण, चाँदी, तावा, पीतल, लोहादि अनेक धात करि, अनेक पग है।
मोर्वहीन लोग हैं। बोकारोगर, इन धातून की कठोरता जानि. प्रथम तौ अग्नि मैं तपाव है। पीछे धन तें, हथौड़े से कटै है । बहुरि तपावें है। ऐसे करते, कछु नरम पड़े है। तब छोटी हथौडी ते अल्प पीट है। ऐसे सख्त, महाकठोर धातु भी विवेको के हाथ पड़े है, तब नर्म होय है। तेसे ही दुष्ट मनुष्य है, सो महाकठोर है। तिनकौं विवेको राजा, अपनी न्याय बुद्धि के बल करि उनकी, उन योग्य कठोर दण्ड ही देय है। तब दुष्ट प्राणी भी, राजा के दोघं भय करि अपनी कठोरता तजि कोमलता रूप होय हैं। पीछे तिनकौं भला निमित्त मिले, तो वे भी अपना भला करें हैं। ऐसे यह आनीष की विद्या है सो महान वंश में उपजे जो विवेको राजा, तिनके सीखने योग्य है ।। आगे दूसरी त्रयी विद्या । सो विवेको राजा शास्वन के वेत्ता. जान्या है इस भव-पर-भव सुधरने का भेद जिननें, सो महान बुद्धि धर्म-शास्त्र के वेत्ता पाप-पुण्य के फल को जानि आप पाप तजि अनेक धर्म अङ्ग दान-पूजादि तिन रूप परिशमैं और जिन क्रियान तैं पाप बधै हिंसा होय
दुराचार प्रगटै ऐसी क्रिया अपने मुल्क में नहीं होने देंय । अनेक पाय क्रिया अज्ञानी जीवन के करने को जिनकी । करि भोले जीव अपना भव बिगा.। कुक्रिया करें जीव हिंसा होय । इत्यादिक पाप प्रवृत्ति को जानि विवेकी
राजा आप तजै और पर के कल्याण की पाप करते तिनको मनै करें। अपनी प्रजा पाप रूप प्रवर्ते ताकौ दराड
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देय धर्म में लगावै। जो प्रजा धर्मात्मा दया-भाव सहित शुद्ध प्रवृत्ति की धारी होय ताकी रक्षा सहित शश्रषा करे। । जैसे—प्रजा धर्म रूप प्रवत सोही कार्य करें। पृथ्वी में शुमाचार बधावै। धर्म क्रिया भला आचार आप करें। ! औरन कौं उपदेश देय पूजा, दान, शील, संयम, तप, व्रत इत्यादिक धर्म को बधावै। पाप कौं मैट। निरन्तर धर्म ।।
सेवन का सोच राखै। संसार भोग विनश्वर जानि विषयन में रत नहीं होय। आगे महान् राजा भरत चक्री आदि बड़े-बड़े पुरुष राज्य सम्पदा छोड़ जिनेश्वरो दोक्षा धार तप करि मोझ गये। तिनके गुणन को कीर्ति करता वैराग्य भावना का अभिलाषी प्रजा को रक्षा करता ऐसे भावन सहित राज्य करें। सो त्रयी नाम दुसरो विद्या है। २। आगे तीसरी वार्ता विद्या है। तहां नोति शास्त्रन तैं जानी है जान की परम्पराय जानैं। सो यश का अर्थी राजा अपनी प्रजा कं पालने को सुखी राखने को है बाच्छा जाकैं। ऐसा सुबुद्धि राजा प्रजा के न्याय अन्याय, सुख दुःख जानि को फैलाये हैं देश नगर में हलकारे स्पो नेत्र जाने। जैसे-नेत्रन से सब देखा जाय तैसे बड़े राजाओं के नेत्र हलकारे हैं। सो तिन संदर-दूर की बात जानी जाय है। सो विवेकी राजा दसों दिशा हलकारे भेजा पृथ्वी की खबर राखै। स्व-चक्र पर-चक्र की होनता अधिकता जानैं। तिन हलकारेन ते योग्य अयोग्य सब जाने । सो अपनी प्रजा कौं दुःखदायी चोर चुगल पाखण्डी अदेखा दुराचारी दीन जोवन कौ सतावनहारा इत्यादिक दुष्ट जीवन को जानि अपने मुल्क देशनै निकास देय और जे धर्मात्मा सज्जन दयावान् सन्तोषी संघमी न्यायी इत्यादिक गुण सहित साधु जन होय तिनको सेवा चाकरी रक्षा करें इत्यादिक हलकारान तै प्रजा की कथा जानै । ऐसी विवेक बढ़ावनहारी यह विद्या जिस राजा के हृदय में वसै ताका यश होय । प्रजा सदैव सुखी रहै। यह तीसरी वार्ता विद्या है । ३। आगे चौथी दण्डनी विद्या है सो यातै विवेकी राजा अपनी न्याय बुद्धि करि अपनी बस्ती में चोर चुगल जो अपनी आज्ञा के प्रतिकूल होय सप्तव्यसन का उपदेशक होय तिनकौं दण्ड देय दुखी करि लोकन को बतलाव कि जो कोई न्याय तजि अन्याय चलैंगा। सो ऐसा दुःखी होय दण्ड पावैगा और बस्ती में जो भले मनुष्य न्यायवान होय तिनको रक्षा करें। ये दण्डनी नाम चौथी विद्या है।४।ऐसी च्यारि विद्या कही। सो महान् कुल के उपजे दोऊ पक्ष जिनके पवित्र होय ऐसे राजकुमारन कों सीखना मङ्गलकारी है। ये सब विद्या, जिस भपति के हृदय में तिष्ठे,
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सो राजा यश पावै। परम्पराय शुभ गति भोग. मोक्ष पावै। इति च्यारि राज्य विद्या। आगे राजा के पञ्च-बल || कहिये हैं। प्रथम नाम-भाग्य-बल, देव-बल, मन्त्र-बल, शरीर-बल और सामन्त-बल। जब इन पश्च-बलन का | सामान्य अर्थ कहिये है। जानें पूर्व-भव में विशेष पुण्य किया होय, सो पुण्य के उदयवाला जीव राज्य पाये। तौ ताक पुण्य के आगे, अन्य राजा सहज ही भय खाय, आय-आय शोश नमावै, सेवा करें, आज्ञा याचें. अपने मुकुट नमावै, ताकौ अपना प्रभु मानें। जैसे—तीन खण्ड का राजा वासुदेव तथा षट खरड का राजा चक्रवर्ती है। सो इनका राज्य, पुण्य के उदय का है। क्योंकि जो इनकी दृष्टि महासौम्य है। वचन महामिष्ट हैं । तिनको मूर्ति महाविश्वास उपजावनहारी, सुन्दर मनकौं मोह उपजावै। महासज्जन, तिनके वचन सुनते-पर-जीवन कू समता होय स्थिरता बन्धे 1 आप तौ रोसे और इनका वाय प्रताप ऐसा कि तिनके भयसं देव विद्याधर कम्पायमान होथ। कोई जज्ञा भंग नहीं करि सके। बिना भय बताये हो बड़े-बड़े पृथ्वीपति माय-आय मुकुट नमा। ऐसा उनके पुण्यका तेज है। जैसे सूरज, मूलमें तौ तिसको प्रभा शोतल है परन्तु औरनको तेजकारी होय है। तैसे हो सूर्यको नाई तेज धारै। सो राजाओंका भाग्य बल है। २। और कर्म जाका भला करै, ताकौं कौन विगाड़ि सकै ? जाकों कम भला दिखावै ताको बुराई काहू तें नहीं होय । जैसे रावण तीन खण्डका नाथ सर्व विद्याधरनका नाथ महा न्यायो, महा बलवान्, अरु जिसके विभीषण-कुम्भकरणसे भाई अरु इन्द्रजीत-मेघनादसे घुन जाके। ऐसा रावण जानें इन्द्र-विद्याधरकों जोत्था । अरु जीवता पकड़ लाया। रोसा राक्षसनका पालनहारा, तीन खरडका अधिपति। रोसे बलीकों राम-लक्ष्मण दोई माईनने युद्धमें जीत्या। ये कर्मका बल है। जाकों कम जितावै सो जोते । जाका कर्म भला करै ताका भला होय । सो दैव बल है। तथा जैसे मैनासुन्दरीने कही। . सुख-दुख कर्म करै सो होय । तब ताके पिताने द्वेष-भावतें कर्म-परीक्षा करनेक अपनी पुत्री श्रीपालजीकू, कोढ़ी जानि परनाई। पीछे शुभ कर्म ते श्रीपालजीका कुष्ट गया। राज्य पाया। मैनासुन्दरी आठ हजार रानीनमें पट्टरानो होय सुखी भई। तब ताके पिताने देख कर्म-कर्तव्य सांचा जाना। सो यह देव बल है। २। और जाने नाना प्रकारको विद्याका साधन करि अनेक विद्यान को अपने आधीन करो। तिन विद्यानके प्रसाद करि अनेक मानो राजा जोति अपनी आज्ञा मनवावै। सो मन्त्र बल जानना।३। और अपने शरीरका भुजबल
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बड़ा होय। कोटि भट लक्ष भट सहस भट इत्यादिक अनेक हस्ति-सिंहकं जीतनेका पराक्रम होता। तथा । । अनेक सैन्याकं आप एकला ही जीते ऐसे शरीर-बल पावना सो शरीर बल है। ४ । और जाको जाज्ञा विर्षे । कौ | अनेक बड़े-बड़े सामन्त राजा होय । सर्व सैन्याके सुभट अपनी आज्ञा प्रमाण होय ! बहुत सामन्तका नाथ होय । सी सामन्त बल है । ५। ये राजा का पांच बल हैं। सो विवेकी राजा कौं इनको इच्छा करनी योग्य है। इति
राजा के पांच बल। ऐसे राजा के षट गुण, च्यारि राज्य विद्या, पांच बल। ये सर्व राजा की सम्पदा है। जिनकी || रोसी सम्पदा होय ते राजा सदैव सुखके भोगता होय यश पावै। तप लेय, देव इन्द्र अहमिन्द्र निर्वाण एते पद |
पावे हैं। ये शुभ राज लक्षण कहे । आगे पुण्याधिकारी पुरुषनके सीखने की विद्या हैं, जिनके नाम-लक्षण कहिये है। तहाँ प्रथम नाम-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, अलंकार ज्योतिष, निरुक्त, अतिहांसि, पुराण, मीमांसा, और न्याय ये चौदह विद्या हैं। अब इनका विशेष कहिये है। तहो सामान्य बुद्धिनलों धर्म ति लगावनेत भनेक महान पुरुष तीर्थकर चक्रवर्ती नारायण कामदेवादि पुरुषनकी कथा पुन्य पापका फल स्वर्ग-नरक का सुख-दुख कथन इत्यादिक हितोपदेश देनेकी कला, सो प्रथमानुयोग नाम विद्या है। । अधो लोक मध्य लोक ऊर्ध्व लोक इन तीन लोकन की सर्व रचना लोकका जो आकार तामै च्यारि गति रचना का कथन इत्यादिक तीन लोक के कथन उपदेश करने की कला सो करणानुयोग विद्या है।२। और जहाँ मुनि श्रावकके आचार विर्षे प्रवीणता इनके खान-पानकी विधि जानना। मुनि कौं पड़गाहनेकी विधि व नवधा भक्तिको विधि समझना त्यागी-प्रतिमाधारी प्रावककं भोजन निमित्त ल्यायवेकी विधि तिनकू भोजन देवेकी विधि इत्यादिक यति-श्रावकके उपदेश करने की कला सो चरणानुयोग विद्या है।३। और जहाँ षट द्रव्य इनके गुण-पर्यायका समझना। जीवके राग-द्वेष भाव जैसे होंय सो जानना। और पद्धगलके स्कंध ज्ञानावस्यादि कम रुप कैसे होय? और जीव कर्मन से कैसे बन्छ, कर्मन से कैसे खलै इत्यादिक कर्मका बन्ध होना उदय होना सत्त्व रहना इत्यादिक द्रव्यानुयोगके उपदेश देने की कला सो द्रव्यानुयोग विद्या है। ।। और शिष्यनके कल्याण होनेके निमित्त यथायोग्य उपदेश देनेका ज्ञान जो बालकको उपदेश ऐसे दीजिये, तरुणको उपदेश ऐसे वृद्धको उपदेश ऐसे विशेष ज्ञानीक रोसे सामान्य ज्ञानी को ऐसे
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ऊच-कुलो उपदश नीच-कुलोक उपदेश चंचल बुद्धिक ऐसे बालकतरुण स्त्रीक वृद्ध स्त्रीक, पति सहित श्री। स्त्रीकं विधवा स्त्री को ऐसे इत्यादिक यथा योग्य उपदेश देनेकी कला। जैसे शिष्यजनका भला होता जाने,
तसे तिनके परभव सुधारवेकौं उपदेश देना सो शिक्षा-कल्प विद्या है। ५। अनेक प्रकारके शब्दको स्पष्टता विभक्ति सहित पद सहित लिंगके साधन, धातूनके साधन सहित, शुद्ध शब्दका बोलना । जनेक गद्य काव्य, छन्दनका विभक्ति अर्थ सहित पदच्छेदन सहित, भले प्रकार अर्थ करना। इत्यादिक संस्कृतका विशेष ज्ञान बधावना सो व्याकरण विद्या है।६। जहां अनेक जातिके छन्द गाथा, आर्या, श्लोक काव्यइत्यादि बहुत प्रकार छन्दको चाल जानना, परकौं उपदेश देना सिखावना सो छन्द विद्या है। ७। जहां नाना प्रकार अलंकार जैसे स्त्री का मुख चन्द्रमाके समान तथा यह नरेन्द्र अपने प्रतापके आगे सूर्यकं जीत है। इत्यादिक अलंकार कलाका सीखना-जानना-उपदेश देना सो अलंकार विद्या है।८। जहाँ चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, इत्यादि इनके गमनागमन क्रिया तें शुभाशुभ फलका सीखना जानना उपदेशना सो ज्योतिष विद्या है। ।। जहाँ नाना प्रकार को युक्तिका ज्ञान, अनेक युक्ति उपजावना। बहु प्रकार दृष्टांतादि कलाका सीखना उपदेश देना सो निरुक्त विद्या है । १०। जहाँ अनेक चतुरता सहित सभा रंजित बोलनेकी कला जैसा अवसर देखे तैसे शब्द बोलनेकी कला जैसा मनुष्य देखें तैसा बोलनेका ज्ञान इत्यादिक सभा व समय पहिचान अपता-पराया पदस्थ पहिचान बोलना, इत्यादिक चतुराई सहित, सर्व सभा रंजन, मिष्ट विनयकारो, आनन्दकारी वचन बोलनेको कला सो पति-हांसि कला नाम विद्या है । २१ और जहां धर्म कथाके अनेक पुराण बांचना, कंठ पाठ जानना-पढ़ना उपदेशना सो पुराण विद्या है । १२ । और जहां अनेक मीमांसादि मतांतरके शास्त्रनका पढ़ना रहस्य जानना । अनेक मतान्तरके वाद जीतने की कला नास्तिकमती, एकान्तमती, विनयवादी इन आदि अनेक मतानका रहस्य जानना, सीखना औरनकों उपदेश देना, सो मीमांसा विद्या है। १३1 और अनेक प्रकार तक-युक्ति उपजाय,
प्रश्न करना। न्याय करि पर-वादीको असत्य थुक्तिका खण्डना। अपना न्याय वचन स्थापना। पर-वादी ४५८
अनेक असत्य युक्ति देय ताका रहस्य जानि ताका खण्डना इत्यादिक न्याय पूर्वक नय-युक्तिका सोखना औरनकों उपदेश देना सो न्याय विद्या है । २४। ऐसे ये चौदह विद्या शास्त्रोक्त कही हैं। सो मान बढ़ानेके
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पात्र पुरुषको सदैव इनका अभ्यास करना योग्य है । इति शास्त्रोक्त चौदह विद्या कही । जागे लौकिक चौदह विद्या कहिये हैं। तहां प्रथम नाम ब्रह्म, चातुरी, बाल, बायन, देशना, बाहु, जल, रसायन, गान, संगीत, व्याकरण, वेद, ज्योतिष और वैद्यक। ये चौदह लौकिक विद्या हैं। अब इनका सामान्य स्वरूप कहिये है। तहाँ आत्मा चैतन्य है। ज्ञान रूप है, शुद्ध है, अशुद्ध है, इत्यादिक आत्माका स्वरूप जानिये सो आत्म विद्या, सोही ब्रह्मविद्या है । २ । जहां नाना प्रकार बातनका करना। राज्य सभा, पंच सभा, जैसी सभा होय तैसी बात करना । परकौं रंजावना चित्रकला, शिल्पकलादि अनेक लौकिक चातुरी सोखना, सो चतुराई विवा है । २ । बाल्यावस्था हो तें अनेक प्रकार विद्याओं का सोखना, सो बाल विद्या है । ३ । जहाँ हस्ती घोटक, रथादिककी असवारी जानना सोखना, सो वाहन विद्या है। ४। धर्मोपदेश देनेकी कला, सो देशना विद्या है | ५ | जहां दण्ड पेलनादि पर मल्ल जीतन की चतुराई नाना कलाका कूदना - फॉंदना नेजम झाड़ना, मोगरी फेरना इत्यादि कला सीखना, सो बाहु विया है । ६ हज तैरनेकी कला सीखना सो जल विद्या है। ७ । बहुरि कुधातु कूं सुधातु करना । जैसे तांबेकूं स्वर्ण करना. रागकी चांदी करना । पारा - हरतालादि शुद्ध करि, रसायन पैदा करनी । इत्यादिक कला सीखना सो रसायन दिया है। और जहां अनेक स्वर सहित काल मर्याद रूप मिष्ट स्वर सहित ताल कूं लिये गावना, सो गान विद्या है। 1 अनेक प्रकार वादित्र कला, नृत्य कला, इनके हाव-भाव गति ललितता, चाल, ताल, इत्यादिकमै शास्त्रोक्त समझना, सो संगीत विद्या है । १० । और अक्षरका सुस्पष्ट स्वर, व्यंजन, विभक्ति सहित समझना. सो व्याकरण विद्या है । ३२। और अनेक शास्त्रका सोखना सो वेद विद्या है। २२ । पंच प्रकार ज्योतिषी वैदनकी चाल करि शुभाशुभ जानना, सो ज्योतिष विद्या है। २३ । अनेक प्रकार शरीरके रोग जाननेकी बहुत परीक्षाका जानना। हाथकी नस, मस्तककी नस, पांवनकी नस, हृदयकी नसोंका परखना। सो याही नसोंकी परखईका नाम नाड़ी परीक्षा है। सो नाड़ी परीक्षा जानै मूत्र परीक्षा, जो मूत्रकूं देखि रोग जाने । दृष्टि परीक्षा सो दृष्टि देख के रोग जानें। पसीना कूं देख-सूधि रोग जानै, सो स्वेद परीक्षा है । इत्यादिक चिन्हन तैं रोग जानि ताके नाश करने की कला सो वैद्यक विद्या है। २४ । ये चौदह कर्म-विद्या हैं। और ऊपर कहीं चौदह,
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वे धर्म विद्या हैं। तिन सबका स्वरूप विवेको राज-पुत्रन आदि सर्व कुलीनकं सीखना योग्य है। और जिस राजपुत्रकू इन विद्यानका ज्ञान होय सो प्रजाकू सुखी करै, आप यश पावै। ऐसे जानि इन विद्या रूपी गुणनका संग्रह करना योग्य है । इति लौकिक विद्या। प्रागे राजानका इन्द्र जो षटखण्डी चक्रवर्ती ताके पुण्यका माहात्म्य पाय चौदह रत्न व नव निधि ही हैं । तिनके नाम व गुण कहिये हैं। तहां प्रथम स्त्र नाम सुदर्शन चक्र चंड वेग दण्ड चमर चूड़ामणि काकिणी छत्र असि सेनापति बुद्धिसागर पुरोहित शिल्पी गृहपति विजयगरि हस्ती घोटक और स्त्री ये चौदह रत्न हैं। एक-एक रनकी हजार-हजार देव सेवा कर हैं। अब इन रत्नन से कहा-कहा कार्य होय सो कहिये हैं। तहाँ चक्रो, जिस आज्ञा करे चाहै। सा चक्रके रक्षक देव जाय चक्रीकी आज्ञा कहैं । यह चक्र रत्नका कार्य है!। विजयार्द्ध पर्वत की गुफाके कपाट सेनापति तोड़े है, सो गदा रत्न है तारे तोड़े है। सो ये गदाका कार्य है।२। जहां राहमें नदी-सरोवरका बड़ा गहन जल आने है। तब चरम रत्र जलमें विधाय दीजिये। सो ताके प्रसाद करि सर्व जल धरती समानि होय। तापै तँ चक्रोका सर्व कटक पार होय । ये चमर रनका गुण है। ३। और विजयार्द्धकी गुफा पचास योजन लम्बी है। तामें यहा अंधकार में सो चक्री कैसे धसै है। तहां चूड़ामणि रसके उद्योत करि, सूर्य-प्रकाशको नाई उचात, गुफा पार ही है। यं चूड़ामणि रत्नका गुरा है। ४ । और काकिणी रत्न ते चक्रो अपना नाम लिखे है । वृषभाचल पर्वत पै, जब ठाम नहीं मिले है। तब इस काकिणी रत्न तें, ओर चक्रीका नाम मेटि, अपना नाम लिखे है। और याकै प्रकाश से भी बारह योजन गुफामें प्रकाश होय है। ये काकिणों रत्नका गुरा है । ५। और चक्कीके कटक पर मेघ बरसै, तो छत्र रत्नके विस्तार करि जलकी वाधा मेटै. सब सैन्या छाया लेय है। ये छत्र रत्नका गुण है।६। और जाके तेज ते वैरी डरें, सर्व शत्रु जाते जीतिए, ऐसा असि रत्नका गुन है। ७। ये सात रत्न तो अचेतन कहे। और सब प्रार्य
म्लेच्छ खण्डके राजान कुंजीति, सर्व कलाय चक्रीके चरणमें नमाय सेवा करावे, ए सेनापतिका गुण | है।८। और पुरोहित ऐसी सलाह देय जातै प्रजा सुखी होय, वैरी वश होय, ये पुरोहित रत्नका गुण ४१.| है1९1 और चक्रीकी आज्ञा ते तत्क्षण, मनदांच्छित, अनेक शोभा सहित, बहुत खण्डके सुन्दर महल
! वनावै, सो ये शिल्पी रन है। १०1 और चक्रीके घरका सर्व कारबार, बारम्भ कार्यकी सावधानी राजै.
गि
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। सो थे गुरण गृहपति रत्र का है। १३ । चक्री के मन क सुखकारी असवारी का देनेहारा, ऐरावत इन्द्र के
हस्ती समान विजयगिरि नाम सुन्दर हस्ती रत्न है । १२ । वांच्छित असवारी देनेहारा, पवन समान धेग ते । चलनहारा, चञ्चल, सुन्दर अश्व है।२३। महासती, शची समान रूप की धरनहारी, महासुन्दर, चक्री के मन
कौं धरनहारी, आज्ञाकारिणी, महाबलवती रत्न चूर्ण करें ऐसी, स्त्री रत्न है ।२४. ये सात चेतन रत्र है। सब मिलि चौदह होय हैं। ये जहां-जहां उपजै, सो स्थान बताईये हैं। चक्र, छत्र, असि. दरड ये चार तो आयुधशाला में उपजें हैं । चरम, काकिणी, चूड़ामणि—ये तीन श्रीगृह में उपज हैं। हस्ती, घोटक, स्त्रीये तीन विजयार्द्ध पर्वत 4 उपजें हैं। सिलावट, पुरोहित, सेनापति, गृहपति—यै च्यारि निज-निज नगरी में । इस हैं । जे दह रनों का सामान्य व समा दाह्या । विशेष अन्य पुराणन तें जानना । इति चौदह रत्न । आगे नव निधि के नाम व लक्षण कहिये हैं। काल, महाकाल, नैसर्व, पाण्डक, पदम, मासव, पिंगल, शंख और सर्व रस्त्र ये नवनिधि हैं। ये कहा-कहा कार्य करें हैं, सोही कहिये हैं । काल निधि तो वांच्छित पुस्तक देय है। ५ । महाकाल वांच्छित असि देय है। २। वांच्छित भोजन देय, सो नैसर्प निधि है। ३ । वच्छित षट्ररस देय, सो पाण्डक निधि है। ४। वांच्छित वस्तु देय, सो पदम निधि है। ५। योच्छित नीति शास्त्र व शस्त्र देय, सो मारणव निधि है।६। वांच्छित आभूषण देय, सो पिंगल निधि है । ७। अनेक बाणे देय, सो शंख निधि है।८। वांच्छित सर्व रन देय, सो सर्व रत्न निधि है।।। ये सर्व मिलि नव निधि जानना । सो इन निधिन के आकार व प्रमाण कहिए है। र सर्व निधि गाड़ी के आकार हैं। लम्बी चौकोर जानना । आठ पहियान सहित हैं। सो एक-एक निधि, बारह-बारह योजन लम्बी है । नव-नव योजन चौड़ी है। आठ-आठ योजन ऊँची है। एक-एक निधि के हजार-हजार देव रत्तक हैं। इन निधिन पै चक्री को आज्ञा है। ये निधि, चक्री के पुण्य प्रमाण हैं। ऐसे चौदह रत्र, नव निधि र पुण्य का फल है, बिना पुण्य नाहीं। इति निधि। आगे चक्री की सेना षट प्रकार है,सो कहैं हैं । तहाँ प्रथम नाम--हस्ती चौरासी लाख, रथ-सैन्या. चौरासी लाख चौड़ा, अठारह कोड़ि सर्व दोऊ श्रेसी | के विद्याधरन की सैन्या, भरतक्षेत्र सम्बन्धी देवन को सैन्या, पयादेन की सेन्या-ये षट् प्रकार की सैन्या है। सामान्य राजा के तो च्यारि जाति की सैन्या होय देव विद्याधर की सैन्या नहीं होय । अरु चक्रधारी के षट
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प्रकार की सैन्धा जानना। ऐसी विमति सहित श्री आदिनाथ के पुत्र भरत चक्रवर्ती सोलहवें कुलकर पहले चक्री सो महाविवेक के सागर होते भए। सो इनके काल विष भोग भमि के बिछुरे प्रजा के लोग भोले जोव कर्म भूमि की रचना में नहीं समझे। अरु कल्पवृक्षन का अभाव भया जीवन के क्षुधा बधी। तब भोले जीव उदर पूरण की विधि बिना दुःखी होने लगे। विशेष ज्ञान चतुराई कर्म भमि सम्बन्धी आरम्भ नहीं जानें। तिनके दुःख निवारवे कू मरत चक्री हैं सो प्रजा को कर्म भूमि की रचना का ज्ञान होवे कू प्रजा कू सुखी होने के निमित्त षट् कर्म का उपदेश देते भए। तिनके नाम व स्वरूप कहिए है। इज्या, वार्ता, दान, स्वाध्याय, तप और संयम-ए षट कर्म हैं । अब इनकी प्रवर्ति कहिरा है। तहाँ भगवान् सर्वज्ञ जगन्नाथ की तरनतारन जानि पापहरन मोक्षकरन जानि के विवेकी भक्ति के वशीभत होय आपकौं पाप सहित जानि कर्म सहित जन्म-मरण करि दुःखिया जानि आप दीन होय विनय सहित, अपने पाप हरवे कं, भगवान् का पूजन करना। तिनके सन्मुख खड़ा होय, उत्कृष्ट अष्ट द्रव्य मिलाय अपनी काय पवित्र करि, मन्त्र सहित प्रभु के चरण आगे धरै। जैसे—लौकिक में निज उत्कृष्ट वस्तु लेय, राजान जमत जाय, वरण माग धौं: राजा कीरति करें। तैसे ही भगवान् को पूजा-स्तुति किये, पाप क्षय होय । सो तिस पूजा के न्यारि मेद हैं। तिनका नाम-एक तौ प्रतिदिन अष्ट द्रव्यते भगवान् की पूजा करना, सो नित्यमह है। ३। चतुरमुख पूजा-ये महापूजा-विधान सो मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वरादि बड़े राजान ते बनें है। २ । कल्पवृक्ष पूजा-सो तामैं उत्तम नेवज, नेत्र कू सुखकारी, जाकौ देख देव भी अनुमोदना करें, ऐसे उत्तम द्रव्य ते पूजा करनी और ता समय जेते दिन लौ पूजा-विधान आरम्भ रहै। तेते दिन सर्व कौ किमिच्छक कहिए मनवांच्छित दान, याचकन को इच्छा-प्रमाण कल्पवृक्ष की नई दान देना, सो कल्पवृक्ष पूजा है। सो ये पूजा चक्रवर्ती से बनें है। ३ । अष्टाह्निका-पूजा याका नाम ही इन्द्र-पूजा है। सो या पूजा इन्द्र तें बने है।४। रोसे च्यारि प्रकार प्रभु की पूजा का, भरतेश्वर अपने निकटवर्ती राजान की तथा प्रजाङ उपदेश देते भये । याका नाम इज्या क्रिया है। इति इज्या। आगे वार्ता क्रिया काहिरा है । वार्ता कहिए, दगाबाजी सहित आजीविका का विचार त्याग करि, न्याय सहित आजीविका पूरी करनी, सो वार्ता है। ताके अनेक भेद हैं। मुख्य-असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और पशु-पालन-ए षट् भेद हैं। तहां असि कहिए खड़ग, सो
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शस्त्र बांध, नाशादर्तक. दयारादित, लील हा कोला करता. इट जोवन कों दण्ड देता, प्रजापालन करें। । सो शस्त्र सहित आजीविका करली, सो असि वार्ता कहिए । २। मसि कहिए स्याही, तातै धर्म-कर्म के अक्षर यो । लिखने का व्यवहार करना, पाप रहित न्याय सहित लिखने करि, आजीविका पूर्ण करना। सो मसि वार्ता है ।२। । कृषि काहिए, खेतो करना। अपनी बुद्धि के बल करि, धरती विर्षे अनेक प्रकार बीज बोय, बहुत प्रकार अन्न,
मेवा, अनेक रस निपजाय, धन का उपजावना, सो कृषि वाता है । ३। अनेक न्याय सहित वाणिज्य-व्यौयार, हिंसा-पाप रहित व्यापार करना। तामें बहुत आरम्भ, बहु हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादिक दोष रहित, मला यश सहित, धन को उपजावने के निमित्त व्यापार करना । सो वाणिज्य वार्ता है। ४। जहां अनेक महल-मन्दिर बनवाने की कला प्रगट करि आजीविका करनी सो शिल्प वार्ता है। ५१ पशु-पालन कहिए, अनेक पशून की रक्षा करि, तिनके पालने की विद्या। पशन की पीड़ा पहिचानना, पशु परीक्षा करनी, तिनके शुभाशुभ चिह्न, दय का समझना, तिनके खान-पान में समझना, तिनके अनेक रोग समझ. ताकी ओषधि का जानना। सो पशुपालन वार्ता है।६। ऐसे षट कर्म-भेद, वार्ता आजीविका को विधि, आदि चक्री में प्रजा के सुखी होने के, भोग भमि के बिछरै भोले जीव तिनकों बताई। ता प्रमाण सर्व प्रजा के लोग अपने तन की तथा कुटुम्ब को रक्षा करतै भये। ये षट भेद वार्ता कर्म के हैं। २। ये दोय कर्म तो इस भव के यश सुखकौं उपदेशे। च्यारि कर्म पर-भव के कल्याण कौं, स्वर्ग मोक्ष की राह बतावै को उपदेशे। सो कहिये हैं। दोय तो ऊपर कहे। तीसरा कर्म जो दान सो च्यारि प्रकार है। भेषज, अन्न, शास्त्र और अभयसो ओषधि-दान तैं तो पर-भव में निरोग शरीर या है। अन्न दान करि पर-भव में सदा अन्न भोजन करि, सुखी रहै। औरन कंपालनहारा होय । मायु पर्यन्त सुखी रहै । शास्त्र-दान ते भवान्तर में ज्ञानवान महापण्डित होय । अभय-दान करि, दीर्घ वायु का धारी इन्द्र-अहमिन्द्र होय तथा निर्भय जो मोक्ष स्थान ताहि पावै। तातै व्यार दान दीजिये। सो दुःखित-भुखित दीनन कौ तौ करुणा करि, सन्तोष सहित, पुचकार करि देना। पात्रनक भक्ति करि देना। इस दान करि जीव परमव मैं बहुत सुखी होय सो ऐसा दान-कर्म का उपदेश किया। ३ । चौथा स्वाध्याय सो जिनवाणी का पाठ, अनेक धर्म-शास्वत का अध्ययन करना, सो ऐसा स्वाध्याय नाम कर्म उपदेश्या । ४ । बारह प्रकार तप सो
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| अन्तर-बाह्य करि दया-मावन सहित, समता-भाव को विधि लिये करना, सो तप कर्म है ।। तहां पंचेन्द्रिय ||Yey । तथा मनकों वशीभत करना षटकाय को दया करनी । सो द्विविधि संयम बारह प्रकार है । सो उपदेश्या।६। है। ऐसे षट् कर्म भरत चक्री प्रजा का पिता, सो सबके थग-भव के सुख का अभिलाषी, कर्म-धर्म के मार्ग कों
दीयक समान जो भला उपदेश सो षट-कर्म रूप उपदेश देय, लोकन को सुखी करे। इति भरत चको के उपदेशित षट्-कर्म । पोछे भरतनाथ मरत चक्रवर्तीकों सोलह स्वप्ने आये । तिनका फल चक्रो ने श्रीजादिनाथ जिन से पूछा। तब भगवान् ने कहो-हे राजन् ! इनका फल चौथे काल में नाहीं । आगे पश्चम काल में, इन स्वप्न का फल प्रगट होयमा। सो कहिये है। प्रथम नाम-प्रथम तो तेबोस सिंह देखें। दूसरे स्वप्न में एकला सिंह, ताके पीछे मृगन का समूह गमन करते देखा । तीसरे स्वप्न में हस्ती का भार धरै, तुरग देखा। चौथे स्वप्न में कागन करि, हंस पीड़ित देखा। पांचवें स्वप्न में बकरेकं सखे पत्र चरते देखा। छ? स्वप्न में बन्दरको हस्ती के कन्धे पर चभ्या देखा। सातवें स्वप्न में भूत नाचते देखे। आठवें स्वप्न में एक सरोवर ताका मध्य तो सुखा और तीर में अगाध जल देखा । नववे स्वप्न में रन राशि रज करि मण्डित, कान्ति रहित देखी । दशवे स्वप्न में श्वानकं पूजा का द्रव्य खाते देखा । ग्यारहवें स्वग्न में तरुण वृषभ दहङ्कता देखा। बारहवें स्वप्न में चन्द्रमाकों शाखा सहित देखा । तेरहवें स्वप्न में दोय वृषम इकट्ठे होय गमन करते देखें । चौदहवें स्वप्न में सूर्य विमानकों मेघ पलट से आच्छादित देण्या। पन्द्रहवें स्वप्न में छाया रहित सूखा एक वृक्ष देखा। सोलहवें स्वप्न में जीर्ण पत्रन का समूह देखा। ये सोलह स्वप्न भये अब इनका अर्थ कहिये है। तहाँ ते बीस सिंह देखे, तिनका फल ये, जो तेईस तीर्थङ्करन के समय में तो खोटी चेष्टा के धारी परिग्रह सहित, जिन-धर्म विष मुनि नहीं होंयगे।श एक सिंह तरनतारन, ताके पीछे मगन के समुहगमन करते देखे। तिनका फल ये है। जो अन्तिम चौबीसवें जिन महावीर तिनके निर्वाण भये पोवे यति मग की नाई दीन नग्न परीषह सहवेकौं असमर्थ, सो परिग्रह का धारन कर, यति बाजैगे। जिन लिंग तज, कुलिङ्ग धरेंगेहाथी के भार सहित तुरङ्ग देखा ताका फल ये है-जो पश्चमकाल में साधु, तप के भार करि दुःखी होयगे। तपधारनेकों असमर्थ होंयगे।३! बकरेक सूखे पत्र खाते देखा। तिसका ये फल है। जो ऊँचे कुल के मनुष्य शुभाचार ते ।।
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भ्रष्ट होय, खोटा आचार आदरेंगे।४। बन्दरको हाथोके कन्धे पे चड्या देखा। ताका फल ऐसा, जो आदि। तँ चला आया जो क्षत्रीनका वंश तिसको व्युच्छित्ति (नाश) होयगी। होन कुलके धारी अकुलीन, पृथ्वी पर राज्य करेंगे।५। वायसनके समूह करि, हंस पीड़ित देखा। ताका फल ऐसा, जो पञ्चम-कालमें जब्बानी मोले । जीव धर्म के अर्थ मुनि धर्म तजिक, अनाचारी-हिंसक जीवनकी सेवा करेंगे। असंयमी कषायी जीवन करि, धर्मात्मा जीव पीड़े जांयगे। पापो जीवन करि, धर्मो जीवनका अपमान होयगा।६। भत नाचते देखे तिनका फल रौसा। जो पञ्चम कालमें अज्ञानी जीव भगवान् जानि धर्मके अर्थ भूतादि व्यन्तर देवनको पूजा करेंगे।७। सरोवर मध्यमें सूखा, तीरमें अगाध जल देखा। ताका फल, ऐसा जो उत्तम तीर्थ-स्थानकनमें धर्मका अभाव रहेगहीन रणनमें धर्म रहेग! वि भुलि करि लिप्त देखी। ताका फल रोसा। जो पश्चमकालमें शुक्लध्यानी नहीं होयगे। धर्मध्यानी केईक रहेंगे।६। जिन पूजाका द्रव्य, श्वान खाते देखा ताका फल ऐसा जो पञ्चमकालमें पात्र को नाई, अव्रतो तथा कुपात्र व अपान ये आदर पावेंगे। २०१ तरुण वृषभ शब्द करते देखा। ताका फल रोसा जानना, जो पञ्चम काल के जीव. तरुण समय में तो धर्म-ध्यानके आदरने विर्षे उद्यम करेंगे। परन्तु वृद्ध भये, धर्ममें शिथिल होय, अरुचि करेंगे। १३ चन्द्रमा के शाखा देखीं ताका फल ऐसा, जो पंचम काल में अवधि, मनःपर्यय ज्ञानके धारी मुनि होंगे। २२। दो वृषम साथही गमन करते देखे ताका फल ऐसा, जो पंचम काल के मुनि, संघ में रहेंगे। राका-विहारी नहीं होयगे। १३। सूर्य मेघ पटल करि आच्छादित देखा। ताका फल रोसा, जो पञ्चम काल के मुनीनकों केवल-ज्ञान नहीं होयगा।२४। सूखा वृक्ष छाया रहित देखा ताका फल रोसा। जो पंचम काल के स्त्री-पुरुष शोल व्रत धारि, पीछे कुशील सेवेंगे।२५। सूखे पत्रन का समूह देखा। ताका फल रोसा, जो अन्न आदि ओषधि हैं तिनका रस जायगा, सर्व ओषधि नीरस होंगी।२६। रोसे भगवान वृषभदेवने कही कि मो चक्रेश्वर! इनके फल अब नाहीं। आगे पंचमकाल के उतारमैं दिखेंगे। इति भरत चक्रवर्ती के स्वप्न-फल समाप्त। आगे पंचम काल में भोले जीव अपनी बुद्धि तें कल्पना करि, अनेक प्रकार भगवान कू स्थाप्य के पूजेंगे, बहुविधि त भगवान के भेद कहेंगे। तातै शुद्ध भगवानके जानने कौं, भगवान के गुरा कहिए हैं। जिनमें ये गुण होय, सो शुद्ध भगवान हैं। जिनमें ये गुण
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नाहीं होय, सो शुद्ध देव नाहीं। ये अतिशय जामें होंय, सो शुद्ध तरन तारन जानना । सो प्रथम अतिशय तीन हैं । वचन अतिशय, आत्म अतिशय और भाग अतिशय । इनका अर्थ- जाकी वाणी मेघ समान अनक्षरी. अनुक्रम रहित खिरै सो अपनी-अपनी भाषामें सब बारह सभा के जीव समझें। सर्वका संदेह जाय, संशय रहे नाहीं । जार्कों सुनि, भव्यका कल्याण होय । पाप नाश होय पुण्य फल उपजै सो वचन अतिशय है । २ । कर्म के प्रगट्या पोता अनन्तदर्शन अनन्तसुख और अनन्तवीर्य सो ये आत्म अतिशय है । २ । गर्म के पहिले, रत्नों की वर्षाका होना, नगर सब रत्नमयी होना, इन्द्रादिक देव सेवा करें। केवलज्ञान स्वभाव प्रगट भये, समोशरण विमूर्तिका प्रगट होना । इत्यादिक महिमा सो भाग्य अतिशय है | ३ | ऐसे तीन अतिशय जिनमें होंय, सो भगवान् हैं। इति तीन अतिशय आगे भगवान् की माताको गर्भ के पहिले, सोलह स्वप्न आये हैं । तिनके नाम व लक्षण कहिये हैं। प्रथम नाम ऐरावत हस्ती, श्वेत वृषभ, सिंह, पुष्पमाला, लक्ष्मी कलश स्नान करती देखी, पूर्ण चन्द्रमा, सूर्य, कनक कलश, मच्छ युगल, सरोवर, सागर, सिंहासन, स्वर्ग विमान, धरणेन्द्र विमान, रत्न राशि, और निर्धूम अग्नि । ये सोलह स्वप्न भगवानकी माताने देखे हैं। अब इनका सामान्य फल कहिये है। प्रथम ऐरावत हस्तो देखा । ताका फल ऐसा जो पुत्र महान् पुण्यका धारी, सर्व तैं ऊँचा होयगा । २ । और श्वेत वृषभ देखा ताका फल रीसा जो पुत्र धर्मका धारो, जगत्-पूज्य हीथगा । २। और सिंह देखा । ताका फल ऐसा जो पुत्र अनंत बलका धारी होयगा । ३ । पुष्पमाला देखी। ताका फल ऐसा जो पृथ्वीमें धर्मको प्रगट करनहारा होयगा । ४ । लक्ष्मीको कलश स्नान करती देखी। ताका फल ऐसा जो पुत्रका सुमेरु पर्वत पै स्नान होगा । ५ । पूर्ण चन्द्रमा देखा। ताका फल ऐसा जो तीन लोकके जीवनकों जानन्दकारी होयगा । ६ । सूर्य देखा ताका फल ऐसा जो महा प्रतापी होयगा ७ कनक कलश देखा । ताका फल ऐसा । जो अनेक निधिका भोगता होयगा । ८। ता पीछे मच्छ-युगल देखा। ताका फल ऐसा जो अनेक सुखका भोक्ता होयगा । ६ । सरोवर देखा । ताका फल ऐसा १००८ लक्षणका धारी होयगा । १० । पोछे कल्लोल करते समुद्र पौ देखा । ताका फल ऐसा जो केवलज्ञानका धारी होयगा । २२1 पीछे सिंहासन देखा। ताका फल ऐसा जो बड़े राज्यका भोगता होयगा । १२ । पीछे स्वर्ग विमान देखा । ताका फल ऐसा जो स्वर्ग तैं चय के अवतार लेयगा
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। १३ । पीछे पाताल तैं निकसता धरणेन्द्रका विमान देखा। ताका फल ऐसा जो जन्म तैं हो ताकेँ अवधि-ज्ञान होयगा । १४ । पीछे रत्न राशि देखी ताका फल ऐसा, जो गुणका निधान होयगा । २५। निर्धूम अनि देखि
ताका फल ऐसा, जो अष्ट कर्मनका जारनहारा होयगा ।। २६ । ऐसे भगवानके अवतार होनेके पहिले के सोलह स्वप्नोंका फल जानना ।
इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्मे में राजानके गुण तथा चौदह विद्या, तीर्थंकरकी माता के सोलह स्वप्न, इत्यादि कथन करनेवाला इकतीसवां पर्व सम्पूर्ण ॥ २१ ॥
आगे भगवान् वृषभदेवने जन्म पीछे तेरासो लाग्त पूर्व राज्य किया। भादोई का पता दशधा भोग भोग सुखी भये । तिनके नाम प्रथम मन वांच्छित रत्न ज्योतिषो दैवनकी प्रभाकौं जोतनेहारे अनेक वरनके तिनके सुख भोग । २ । नव निधिकों आदि लेय, परम सम्पदाके भोग । २। महासती, शचीके रूपक जीतनहारी आज्ञानुसारी, विनय सहित अनेक मन मोहन चेष्टाकी धारनहारी सुन्दर रानीका भोग । ३ अनेक सम्पदा कर भरे नगर देश तिनके राज्यका भोग । ४ । देव विद्याधर भूमि गोचरो राजान सहित अनेक महान् पुरुषन करि वंदनीय हस्ती घोटक पयादे इन षट् प्रकार सेन्याके ईश्वर ताक्रे भोग । ५ महान् सुगंधता सहित. अनेक रत्नमयी कोमल शैय्याके मोग । ६ । रत्नमथो सिंहासन तख्त, बैठनेके स्थान महा उदार, उत्तम मन्दिरनके भोग । ७ । अनेक रत्नमयी स्वर्ण चांदी आदि अनेक मनोहर धातुके अनेक आकार के वासनके भोग । ८८ । नाना प्रकार षट्रस भयो अनेक भोजन- व्यंजन, जिह्ना रंजित वस्तुके खावनेके भोग । ६ । देव देवी, मनुष्य स्त्रीनके गाये बजाये अनेक सुन्दर स्वर सहित संगीत, गान, नृत्यादिक, अनेक राग रंगके भोग । १०1 ऐसे दश प्रकार के भोग, देवाधिदेव वृषभनाथ जिनने राज्यावस्थामें भोगे सो अतिशय पुण्यका फल जानना । इति दश जाति भोग। आगे सहज षट्-गुण पुण्यवान् के परखवेकों बताईये है। एक तो आप, सर्व जगतके देव मनुष्यन करि पूजनीय पदके धारी, सब तैं बड़े हाँथ । अरु अपने बड़प्पनका मान नहीं करें ये महा पुण्यका फल है। हीन पुण्यो, अल्पसा भी लोकमें आदर-सत्कार पावै तौ मान करें। पुण्यवान् बड़ा भी सत्कार पावै, तौ भी मान नहीं करै । २ । होन पुरायो अल्पसा सत्य बोले तो मान करें। कहै, हम जैसा सत्यवादी और नाहीं
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पुण्यवान्का सहज ही सत्य बोलनका स्वभाव होय है। तातें पुण्यवान सत्य बोल मान नाहीं करें। ये पुण्यवानका दुसरा भेद है। २। होन कुलो, तुच्छ पुण्यो, अल्पसा पुरुषार्थ पाय मान करै। दीन जीवनकौं पोडै भय बतावै। कहै हमसे बलवान् पुरुषार्थी और नाहीं। ऐसा कहि अभिमान करै । जे महान पुण्यी हैं ते बड़ा भी बल पराक्रम ! धार मान नाहीं करें। दीन जीवनको रक्षा करें। ये तीसरा पुण्यवानका चिन्ह है। ३। हीन पुण्यी, महा रौद्रपरिणामी अन्तरज में तो महा निर्दय भाव अरु बाह्य लोक दिखावैको दान देय दया करि मान करै। कहै हम दयावान हैं। जे दीर्घ-भागी हैं वे सहज ही कोमल चित्तके धारी महा दया भाव करि मी मान नहीं करें। ये चौथा पुण्यवान का चिन्ह फल है । ४। अल्प पुण्यका धरो, पादान देश न माहै हामो दाता और नाहीं। ऐसा मान करें। दीर्घ पुण्धी सहजही चित्तका उदार, दयावान बड़ा दान करें मी, मान नहीं करें। ये पुण्यवान का पांचवां चिन्ह है । ५। हीन पुरयी अल्पसा ही विरक्त होय मान करै। कहै हम त्यागी हैं,हमैं कछु भो वांच्छा नाहों। और जे बड़मागो-महान पुण्यी हैं। ते अनेक भोग-सम्पदा पाय, तासै उदास रहैं। मान नहीं करें। ये पुण्यवानका छडा चिन्ह है । ६। जो इन षट् बातनमें मान नहीं करै, सो ये पुण्यका फल है। इति षट् गुण सो
ये भगवान विष पाईथे है। भगदान, राज्य अवस्थामैं इन्द्र के ल्याये अनेक प्राभषण-रत्र मयी आभषणन को | अलंकृत करि, भषराम कौं शोभा देते भये । सो आचार्य कहैं कि जो अपने आश्रय पाव ताको यशवंत करै, भला
दिखावै। गवानके तनका आश्रय आभूषणनने लिया, सो आभूषण भले शोभते भये। तिन सर्व आभूषण Ji में मुख्य हार है। सो हारके अनेक भेद हैं। सो ही कहिये हैं। हारके तीन भेद हैं, एकावली जिष्टी हार, । स्त्रावली जिष्टी हार, और अल्पवृत्तक । ये तीन भेद, हार के हैं । तहां जिष्टीके पांच भेद हैं। सीरख. उपसोरख,
अवघाट, प्रकांडक और तरल-प्रबंध। ये पांच जिष्टी हारके भेद हैं। सो जिष्टी नाम लड़ीका है। हारमें | जेती लड़ी होय, तिनको जिष्टी कहिये। सो लड़ के पांच मैद है। तहां जिस हारमें केवल मोती ही मोतीन
की लड़ो होय, सो शकावली जिष्टो हार कहिये।३। और जाके मध्य में तो मारा होय और दोय तरफ मोती होय, सो रत्नावली नामा जिष्टी हार है। २। और जामें दोय मोती एक मणि, ऐसे जो लडी पोई
की मासामगि तीन-तीन मोदीन के अन्तर में एक-एक मरिण होय । तथा व्यारि-च्यारि
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मोती और एक मशि पोई गयी होय तथा पांच-पांच मोती और एक मरिण ऐसे पोई गई होय, सो इनका नाम अपवृत्त है। यहां मणि के दोय भेद हैं। एक मरिण और दूसरा माणिक्य । तहां जायें छिद्र होय, सूत में पोई जाय, सो तो मणि कहिये और जो छिद्र रहित होय, स्वर्ण में जड़या जाय, सो माणिक है। सो जो लड़ी में एक मोती, एक मणि और एक माणिक्य होय, सो भी अपवृत्तक नाम हार है । ३ । जहां जा लड़ी के सर्व मोती तौ बराबर के होंय अरु मध्य में एक बड़ा मोती होय । ताक सीरख नाम लड़ी का हार कहिये । २ । जामैं मध्य में तीन बड़े और जन्य बराबर के मोती होंय, सो उपसोरख कहिये है । २ । जाके मध्य में पांच बड़े मोती होंय, सो प्रकाडकनामा जिष्टी हार कहिये है । ३ । जाके मध्य का मोती तो बड़ा होय। दो तरफ के मोती क्रम तैं छोटेछोटे हॉय, सो अवघाटक नाम जिष्टी कहिये । ४ । जामैं सर्व मोती समान होंय, सो तरल-प्रबन्ध नाम जिष्ट है। ये पांच जाति की लड़ी हारन में होय हैं। सो तिन हारन के ग्यारह भेद हैं सो ही बताइये हैं । तिनके नाम -अर्ध मानव, मानव, अर्थ गुच्छ, निषत्रमालिका गुच्छ, रम्यकलाप, अर्थ, देवछन्द, हार, विजयछन्द और इन्द्रघन्द-ये ग्यारह प्रकार के हार हैं। सो इनके पहिरने हारैन के पदस्थ कहिये हैं। तहां दश लड़ी का हार, सो तो अर्ध मानव हार है । २ । और बीस लड़ी का हार, सो मानव नाम हार है । २ । चौबीस लड़ी का हार, सो अर्ध गुच्छ हार है । ३ । सत्ताईस लड़ी का हार, सो निषत्रमालिका हार है । ४ । बत्तीस लड़ी का गुच्छ नाम हार है । ५ । चौवन लड़ो का, रम्यकलाप नाम हार है। ६ । चौंसठ लड़ी का अर्ध हार है। ७। इक्यासी लड़ी का, देव छन्द नाम हार है । ८ । एकसौ लड़ी का हार, सो हारनामा हार है । ६ । जो पांच सौ च्यारि लड़ी का होय, सी विजय- छन्द नामा हार है। १० । एक हजार आठ लड़ी का होय, सो इन्द्र- छन्द नामा हार है। १२ । ये ग्यारह भेद कहे। सो इनमें पहिले कहे जो नव भेद, सो इन हारन को महामण्डलेश्वर राजा ताई पदवारे पहिरे हैं। दशां विजय - छन्द हारकौं नारायण प्रतिनारायण पद के धारी पहिरें हैं। जो इन्द्र-छन्द नामा हार है सौ देव, इन्द्र, चक्रो पहरें ये भगवान के निकटवर्ती सेवक हैं, सो ये पहिरें तथा इन देव- इन्द्रन के नाथ तीर्थङ्कर पहिरें । एक हजार आठ लड़ी का हार, देवोपुनीत है। ताहि पहिरें जिन देव ऐसे सोहते भये, मानों सर्व ज्योतिषी देव मिलि के, भगवान की भक्ति करने कौं, निकट हो आये हों। ऐसे भगवान् बहुत काल पर्यन्त राज्य करि, ता
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पोछे तप लेय, केवलज्ञान पाय, समोशरण सहित विहार कर्म करि, धर्मोपदेश देते भये। तिसकं सुनि बारह सभा के धर्मार्थो जोव, धर्म-मार्गलागते मये। सो तिन बारह सभा के नाम कहिये हैं। प्रथम सभा में कल्पवासी देव, दुसरो में ज्योतिषी देव, तीसरी में व्यतर, चौथी में भवनवासी देव,पांचवीं में कल्पवासी देवियो छठी मैं ज्योतिषी देवांगना, सातवों में व्यन्तर देवों की देवियां, पाठवों में भवनवासी देविया, नववी सभा मैं मुनि, दसवों में आर्यिका व सर्व स्त्री, ग्यारहवी में मनुष्य, बारहवों में सर्व जाति के सनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-इन बारह सभा सहित, भगवान् मोक्ष-मार्ग प्रगट करते, जगत्-जीवन के पुण्य के प्रेरे उनके कल्याण के अथि, विहार करते मये। सो अनुक्रम ते कैलाश पर्वत पर आये। जब भगवान के निर्वाण होने में चौदह दिन बाकी रहे, तब भरत चक्री आदि आठ मुख्य महान् राजा, तिनकुं शुभ स्वप्न भये। तिनके नाम व चिह्न बताइये हैं। जिस दिन भगवान ने योग निरोधे, उस दिन की रात्रि विर्षे भरतेश्वर चक्की के ऐसा स्वप्न हुआ कि मानो सुमेरुपर्वत ऊँचा होय, सिद्धक्षेत्र से जाय लग्या है।। भरत जो के पुत्र अर्ककीर्ति, ताक ऐसा स्वप्न भया कि स्वर्ग लोक के शिखर ते एक महान् ओषधी का वृक्ष आया था, वह जगत्-जीवन के जन्म-मरण का दुःख खोय के, अब लोक के शिखर जायवे कौं उद्यमी भया है। २ । भरत चकी का गृहपति-रत्न, तिसकं ऐसा स्वप्न भया कि ऊर्द्धलोक ते एक कल्पवृक्ष आया था, वह जीवन की मनवांछित फल देय के. पीछा स्वर्गलोक के शिश्वर जायगा।३। चक्री का मुख्य मन्त्री, ताकौं ऐसा स्वप्न आया कि लोकन के भाग्य ते एक रतन दीप आया था सो जिनक रतन लेवे की इच्छा थी तिनक अनेक स्तन देय के, पीछे उर्वलोक कौं, गमन करेगा। ४ । भरत जी के सेनापति कौं ऐसा स्वप्न आया कि एक अनन्तवीर्य का धारी मृगराज, अद्भुत पराक्रमी, सो कैलाश पर्वत रूपी वज्र का पींजरा ताकों छेद करि, ऊर्ध्व विष उछवले कौ उद्यमी भया है ।। जयकुमार जी का पुत्र अनन्तवीर्य, ताकी ऐसा स्वप्न आया कि एक अद्भुत चन्द्रमा, अनन्तकला का धारी, जगत् विर्षे उद्योत करि, तारानि सहित, पर्यतोक कौं जायवे कौं उद्यमी मया है। ६ । भरत चक्री को पटरानो सुभद्रा ताकुंरेसा स्वप्न आया कि वृषभदेव की रानी यशस्वती अरु सुनन्दा ये दोऊ तथा इन्द्र की पटरानो शची-ए तीनों मिलकर बैठी, सोच करती हैं ।७। काशी । देश का राजा चित्रांगदत्तको ऐसा स्वप्न आया जो अद्भुत तेज का धारी सूर्य, पृथ्वी विर्षे उद्योत करि ऊर्ध्वलोक
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को गया चाह है।८। ऐसे आदिनाथ स्वामी के निर्वाण सूचक आठ स्वप्न, आठ पुरुषन को आये। जिन ।।
स्वप्नों का स्मरण-पाठ किये, भव्यन का कल्याण हो है। ये प्रो आदिदेव, पृथ्वी के आदि नायक भये। थो । इनते ही धर्म की मर्यादा चली है । तातें ये भगवान् सर्व जगत् के नायक हैं। सो नायक के तीन भेद हैं। सु। सो ही बताइये हैं। तिनके नाम देशनायक, घरनायक और मननायक । अब इनका अर्थ-जो देशनायक
तौ राजा है। सो देश का राजा धर्मो होय, तौ देश के जीवन क धर्म-राह लगाय, धर्मो करै। देश में जो धर्मो दान, पूजा, शील, संयम, तप के धरनहारे, तिनको रक्षा करै। जे अपने देश में पापी, अन्यायी, चोर, दुराचारी जीव होय, तिनकू दण्ड देय। सो तौ देशनायक धर्मात्मा कहिथे जो देशनायक पापो होय तो पाप। कौं अपने देश में विस्तारै। चोर चुगल अन्याय पथ के चलनेहारे जीव तिनकी रक्षा करें। अरु ता देश में साधु पुरुष भलै मार्ग के चलनेहारे तिनक पीड़ा होय । तातें जैसा देशनायक होय तैसा ही देश में चलन प्रगटै । ये तो देशनायक जानना । १ । जो देशनायक पापी होय पाप बन्ध करै। ताकी तो सो ही जानें। परन्तु देश में घर बहुत होय हैं । सो जा घर विर्षे सर्व कुटुम्ब का रक्षक, जो सर्वकौं अन्न-वस्त्र देय सबकी। रक्षा करें, सो घरनायक कहावै। सो घरनायक धर्मात्मा होय, तौ सर्व घरकौं धर्म रूप चलावै, सबका भला करै । घरनाथक पापी होय तौ ताके घर-जन भी पाप रूप प्रवृत्त । रा घरनायक कह्या।२ घरनायक कदाचित पापी होय तौ होऊ ताका फल वही भोगवेगा। परन्तु मननायक आत्मा है सों जाका आत्मा भली गति का जाननेहारा होय सो अपने मनकौं सदैव धर्म रुप राखै और जाका आत्मा पापी होय, सो अपने मनको मातरौद्र रूप राखै। पाप बन्ध करि पर-भव बिगाड़े है । ३। ऐसे थे नायक के तीन भेद कहे। सो देशनायक, घरनायक तो अपने पुण्य के प्रमाण रहना योग्य हैं और मननायक सदैव है, सो अपने मनकौं सदा-काल धर्म रूप राखना उचित है। इति नायक के तीन भेद। आगे अगुव्रती श्रावक के तीन भेद हैं। पाक्षिक, साधक और
नैष्ठिक । अब इनका विशेष दिखाइये है। जे धर्मात्मा पुरुष राजादिक बड़े बल के धारी धर्म की रक्षा तथा धर्मी ४७१
जीवन की रक्षा के करनहारे, जिनके राज्य में धर्मात्मा जीवनकू कोई पीड़ित नहीं कर सके। महाधर्मात्मा, धर्म के पक्षी इन्हें पाक्षिक श्रावक कहिये। जैसे तीर्थङ्कर, चक्री, अर्द्ध-चक्री, कामदेव, प्रति-चक्री, बलभद्र, महा
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मण्डलेश्वर, मण्डलेश्वर इत्यादिक महान् राजा, पृथ्वी नाथ, दया मूर्ति, न्याय मार्गो, जिनके भय से कोई क्रूर ! जीव धर्मकू धर्मो जीवनक सता नहीं सके। मुनि-श्रावकनकों कोई दुष्ट पोड़ा नहीं करि सके। चैत्यालयन का ॥ वन में कोई अविनय नहों करि सके। ऐसा जिनका भय का कोई कुवादी भूठा नय-दृष्टान्त देय सत्य धर्म तें मूळे धर्म की प्रवृत्ति चाहे तो अपने ज्ञान के प्रकाश तें, बुद्धि के बल तैं न्याय-मार्ग करि सर्व जगत् जीवन के कल्याणकू कुधर्म उखाडि सुधर्म प्रवृत्ति राखे, सो पाक्षिक श्रावक है। इनके राज्य में पाप नहीं बधै । ११ दुसरा साधक-जे धर्मात्मा श्रावक जिनकी धर्म साधन करते बहुत काल भया सो इन्द्रिय-भोगनते विरक्त होय, तिनके जीतव्य ते निस्पृह भया, अपना आधु-कर्म नजदीक जान के ये मोक्षाभिलाषी पर-भव सुधारवे कौं सर्व जीवन तें तमा-भाव करि, अरु घर, धन, धान्य कुटुम्बादि स्व-पर जनतें मोह-ममता भाव तजि अपनी कायतें ममत्व छोड़ि, च्यारि प्रकार का आहार त्याग, पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करता, तत्त्वन का विचार करता धर्म-ध्यान सहित सन्यास लेय, तिष्ट्या यति ऋषि होय । सो साधक जाति का श्रावक है। तीसरा भेद नैष्ठिक, ताके ग्यारह भेद हैं, सो बताइये है। प्रथम नाम| गाथा-दसण वय सामायो पोसय सचित्त रयण भख त्यागो । यंभारंभ हेय परिगह अणमत उदिट्ट त्याज सागारो ॥ १३७ ॥
अर्थ-दसण वय सामायो कहिये, दर्शन व्रत सामायिक। पोसय सचित्त रयण मल त्यागो कहिये, प्रोषध सचित्त व रात्रि भोजन त्याग। बंभारंभ हेय परिगह कहिये, ब्रह्मचर्य, आरम्म त्याग, परिग्रह त्याग। अगमत्त उदिट्ट त्याज सागारो कहिये, अनुमति त्याग, उद्दिष्ट त्याग-ये ग्यारह भेद नैष्ठिक प्रावक के हैं। भावार्थ-ये ग्यारह प्रकार प्रतिज्ञा पञ्चम गुणस्थान धारी नैष्ठिक श्रावक को हैं। तहां जाके सम्यक्त्व को पच्चीस दोष नाहीं लागें और समव्यसन का त्याग, पञ्च उदम्बर. तीन मकार-इन आठ का त्याग सो अष्ट मूलगुण हैं। सो इनके अतिचार रहित शुद्ध व्रत, सो प्रथम दर्शन-प्रतिज्ञा है। अब इनके अतिचार को बताइये हैं। सो प्रथम सम्यक्त्व के अतिचार कहिये हैं 1 सम्यक्त्व के आठ दोष, मद दोष आठ, अनायतन पट और मूढ़ता तीन-इन पच्चीस के होते सम्यक्त्व मलिन हो है। सो इनका स्वरुप ऊपर कह आये हैं और युत, मांस भक्षण, सुरा पान, वैश्या गमन, शिकार, चोरी और पर-स्त्री सेवन-ये सात व्यसन हैं । सो जाम आत्मा के भाव बहुत एकाग्र होय गमन
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होना. सौ व्यसन है। ताके सात भेद कहे। इनमें द्यूत, मांस, सुरापान, चोरी और शिकार इन पांच व्यसन का | पाप तौ लोभ कषायतै होय है और वेश्या, परदारा-इन दो व्यसन का पाप काम-कषाय ते होय है । ये व्यसन
कषायन तै होय हैं। सो कषाय बताइये हैं। हे मन्य ! लोम और काम-ये दोऊ कषाय सर्व पापन का बीज जानना। जगत् में जेते पाप हैं ते इन दोई कषायन तें होय हैं। ऐसा समझ लेना। इन लोभ अरु काम के वशि जीव, पिता पुत्रको मारे। पुत्र पिताकों मारे। भाई, माईको मारे। तात सर्व दुःख, संकट और अपयश का मूल ये कषाय हैं। देखो, काम के माहात्म्य तें रावण मरा और लोम ते भरत चक्रवर्ती का मान भङ्ग भया इत्यादि अनेक स्थानन पै लगाय लेना। सो जेते पाप हैं तेते सर्व काम और लोम ते होय हैं। ताते इन काम अरु लोम ते उपजै सातव्यसन सोशमीमसपाका स सा माना। बड़ फल, पीपल फल, उदम्बर फल, कठम्बर फल और पाकर फल-ये तो पञ्च उदम्बर हैं। मद्य, मांस, मदिरा-ये तीन मकार हैं। ये आठ हैं, सो इनके अतिचार सप्तव्यसन मैं गर्भित हैं, सो जान लेना। तिनका आगे कथन करेंगे। अब प्रथम हो द्युत व्यसन के अतिचार कहिये हैं। तहां चौपड़ का खेल है, सो असत्य का मन्दिर कुफर का बोलनेहास, शुत खेल है सतरा है सो ता विर्षे ऐसे पाप वचन, मन का विकल्प रहै है जो राजा मारौं, हाथी मारी, घोड़ा मारौं, ऊँट मारौं, वजीर मारों, पथादा मारौं इत्यादिक मन-वचन-काय करि पंचेन्द्रिय के घात रूप भाव-चेष्टा करनहारा, सतरा जुना है नरद का खेल है, सो दीर्घात का कारण है। गंजका का खेल है सो ता विर्षे राज्य के राज्य हारिये है। महादगाबाजी के या खेल ते कुभावना रहै है; ये भी द्यूत है मूठी जो आप दाव लगाय खेले, सो प्रत्यक्ष निन्दा का कारण द्य त है। परस्पर होड़ लगाय के रमना, सो धूत है। मूठी भर के ऊँना-पूरा मांगना, सो घत है। कौड़ी नम (आकाश) मैं फैक उल्टी-सूधी नारिख, हारि-जीत करना, सो भी धूत है । नव कंकरीन ते चिरभरि (बाघा) खेलना भी छत है। षोड़श कांकरीन तें राजा-रानी खेलना, सो द्युत है। होड़ लगाय मुद्री ते नारियल फोड़ना और हाथ तैं लाठी-लकड़ी तोड़ना, सो भी चु त खेल है और होड़ दिक पाषाणादि भार उठाना, सो मी छत है। भीती उछलना, सो भी द्यूत है। कुंआ, बावड़ी दीवालादि पैद लगाय के कूदना, सौ जुआ है। होड़ लगाय मार्ग चलना-भागना. सो भी द्यूत है। दूसरों को खेलते देखना, सो मी रात समपाप है। धत कार्यन तें व्यापार
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करना, सो छु त-सा पाप है। ज्वारी तें जीत लेना, सो छ त सम पाप है। धू तकार की वस्तु सस्ती देख | लेना। इन आदि क्रियान में छत समान पाप उपज है। ज्वारी को वस्तु गहना राम्सि, बहुत व्याज लैना और
भी जो द्यूत समान याप की करनहारी क्रिया, सो विवेकीन को तजना योग्य है। छु तकारत का संग ही सर्व प्रकार पापकारी है। विष व शस्त्र ते घात भला, सर्य के मुख में हस्त देना भला, परन्तु ध त-संगति भली नाहों। केसी है धूल संगा ? जात प्रतारा जाय, धन जाय, लोक विौं अनादर होय, बड़प्पन नाश होय, अगला किया पुण्य नाश होय। ताते हे भव्य। ये द्य त-संग मला नाहों, तजना ही योग्य है। इस छत के रमने ते लोक, चोरज्वारी कहैं । तातें ये द्य त, सर्वथा अपयश की मर्ति-खानि ही जान, इसका निवारना भला है। ये घत. सर्व पापन का गुरु है। याके फल आत्मा नरक दुःख को पावै, घने कहने करि कहा-तब यहां कोई विवेकी द्यूतकार प्रश्न करता मया। जो द्युत कार्य और तौ हमने भो बुरे जानै, परन्तु चौपड़ कं जुआ मैं कही, सो इसमें कहा पाप है ? ताका समाधन----जो है मव्य! एक तौ चौपड़, झूठ वचनन की खानि है। कुफर-लज्जा रहित वचन यामैं बहुत होंय हैं। मुख ते मार हो मार शब्द निकलें। चित्त दगारूप रहै। चोर समान प्रवृत्त। तातें इन बादिक बड़े पाप या चौपड़ में हैं। तातें तजने योग्य कही है। तब तकार फेरि प्रश्न करता भया जो चौपड़ हमने बुरी जानी। परन्तु सतरों में पाय कहा है ? सो कहो । तामें मौन सहित, वचन रहित, नेत्रन तें देखना हो है। सो पाप कैसे है ? ताका समाधान-जो है भ्राता सतरा विर्षे चौपड़ से विशेष पाप है। सो तें सुनि। या विर्षे परिणति अरु वचन तौ रौद्र-भाव रूप रहैं हैं। रीसे भाव रहैं हैं, जो बादशाह तें वजीर जीतौं। हस्ती तें, घोटक मारौं इत्यादिक पंचेन्द्रिय घातक भाव रहैं हैं तिनही के मारने का विकल्प रहै है सो ऐसे भावन मैं तो नरक जाय। तातें विवेकीन को सतरजतजना ही योग्य है । तब फेरि भी तकार नै प्रश्न किया। जो सतरज पापकारी है, सौ
हमें मासी। परन्तु गंजफा में कहा पाप? सो कहो । ताका समाधान-जो हे भाई! तू विचार। जो कोई दोय ४७४
कौडोहारे, तो लोक कहैं, यह बड़ा ज्वारी है। वाकों मी चिन्ता होय, जो मैं हारया हों। ताके भी योग तें
जगत् में अपयश पावै तो हे भाई! जो गंजफा के खेल में राज्य के राज्य हार, ताकी चिन्ता अरु पाप को कहा । कहानी? जहाँ अशर्फी हारचा, रुपया हारचा, तरवार हारचा, बगीचे हारथा, स्त्री हार-चा, गुलाम हारचा.
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सिर का ताज हारथा इत्यादिक सर्व घर का सरंजाम स्त्री-वाहनादि धन हारे। ताके दुःख को-पाप को कथा, कहांताई कहिये ! तातें कुगति दुस्ख ते डरि, गंजफा भी तजना योग्य है। तब द्यूतकारने कही। मंजफर भी पाप रूप है, सो हमने जान्या। परन्तु अल्प से धन से मूठि-दाव विष खेलना, यामैं कहा पाप? सो कहो? ताका समाधान-जो हे भव्य ! मूठोका खेल है सो लौकिकमैं लुच्चनका है सो प्रथम तौ जो देख, सो लुच्चा कहै । चोर-ज्वारी कहै । हारे, तौ चोरी करनेका उपाई होय । ताते हे भव्य ! ऐसे भावनमें बड़ा पाप होय । यामैं ऐता पाप लेके, अपयश लेके खेलिये, सो बड़ाईं कहा ? सो विचार देखो। इस भव निन्दा, अरु पर-भव दुर्गतिके दुख होय । तातें तजता ही योग्य है। तब द्यूतकार बोल्या। जो जुवा तां पाप-मयी जान, मैंने तजा। परन्तु व्याजके निमित्त द्यूतवारेन • कर्ज देना, यामैं पाप कहा ? ताका समाधान-जो हे भव्यात्मा 1 जुमाका धन ही महा पापकारी है। जैसा पाप, दुयत रमनेमें होय । तैसा ही पाप, साके धन लेनेमें होय है। तात मन, वचन, काय करि तजना योग्य है। तब दुयतकारका चित्त दुयतमें पाप जानि, शंका को प्राप्त भया-डरचा। तब फेरि प्रश्न किया जो जुआमैं तौ पाप है, सो हमने तजा। परन्तु जीते 4 लेय, तामैं तो पाप नाहीं है? ताका समाधान-जो है भाई । ममी नशार होय, लकी तैः पीत राहै । आप को नहीं देय, ताकी हार चाहै। ऐसे परकी हार-जीत,
रूप परिणाम रास। सो अल्प भोगके योगके निमित्त तें पराया बुरा चाहै। सो पापी ही जानना। तातें जीते 4 | द्रव्य लेना, योग्य नाहीं। तब युतकार कही, दुयतको जीतका माल भी नहीं लेंय । परन्तु हमारे घर विर्षे ठाम बहुत है, सो रात्रि कौं बैठने कों जगह देय, भाड़ा प्रमाण, जीते ये द्रव्य लेंय, तो कहा दोष ? सो कहो। ताका समाधान-है भाई, इयतकार कौं घर ल्याय जुवा खिलाने। सो तो प्रत्यक्ष पाप है। तिनका सहाई होय जुवा रमावै, सो दुयत कैसा पाप पावै है। हे भव्य, जाका संग किये ही पाप लागे। तो घर ल्याये, मंगल कहाँ ते । होय? तातें घर ल्याय, सहाय करि दुयत रमावना, योग्य नाहीं। तब दुयतकार ने कहीं, घर ल्याये भी पाप है, सो जान्या । सो नहीं ल्यावे। परन्तु हमारी देखनेकी अभिलाषा रखा कर है, सो देखनेमें पाप कहा? ताका | समाधान-हे माई। देखने में पाप बहुत है। खेलनहारेका तौ घर-धन लाग है। सो तो व्यसनी होय, लखा छोडि.! जग-निन्दा अङ्गीकार करि, त खेलना शुरू किया। सो तो लोमके योग तैं, ताकौ तौ अर्थ-पाप लागें है।
नाहा है ? ताका
आप को नहीं
दे
भोगके योग
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देखनेहारेका आवना-जावना तो कछु मी नाहीं। अरु वृथा ही बिना प्रयोजन पाप विर्षे काल लगावै । सो याकों अनर्थदण्ड-पाप होय है। सो अर्थ-पाप ते अनर्थ-पापका फल' विशेष दुखदाई जानना। ऐसा जानि, घत देखना मी तजना योग्य है। तातै चूत देखना' चूतखेलना, घतका व्याज लेना इत्यादिक च तक सर्व कार्य, पापके दाता हैं। हे मव्य । येश्चत, सर्व पापका राजा है। निन्दा-अपयशका समूह है। याकै रमैं निरादर होय है। बत कोई प्रकार भला नाहीं। आगे पारडव-युधिष्ठिर ने द्यूतक्रीड़ा करी। ताके फल राज्य गया। वनवास रहे। दुख पाया। अपयश बधा। औरों ने भी जगत विष प्रगट देखा, जो बतकारकी महिमा नहीं, निन्दा ही हो है। तातें है भव्य हो, तुम अपने विवेक ते विचार देखो। जो दुयत खेल ते यश होय, पुण्य होय, तौ करौ। नहीं तो तत्क्षण हो तो, बहुत कहने करि कहा। ऐसा जानि, धर्मात्मा सम्यादृष्टी श्रावकन को ये जुवाकाव्यसन अतिचार सहित तजना योग्य है। इति दुयत व्यसन । आगे आमिष व्यसन कहिये है-हे भव्य, ये आमिष है सो जीव-हिंसा त तौ उपजे है। फिर मृतक-जीवनका कलेवर है। महा म्लानिका पिंड है। जिसके देखते ही चित्त मुरझाय जाय। और सात धातुनका निषिद्ध मैल है। ताकी खानेहारे किस तरह खांय हैं? हे भव्यो, देखो जो कानका मैल, नाक व मुखका मैल लग जाय तो जल लेय, मिट्टी तें धोय, शुद्ध करें। तो भी घिन नहीं जाय है। सो ये तो मृतक पशुका मल-आमिष खाय हैं। ऐसा मलिन वस्तु, ऊंच-बुद्धि नहीं लेय हैं। जो आमिष खानहारे हिंसक जीव हैं। सो बताइये हैं-सिंह, स्याल, माजरि, सुअर, श्वान, चीता, काक, चील्ह बाज, विषमरा, सर्प, सोगोस इत्यादिक दुष्ट जीव हैं. ते मांस खांय हैं। मनुष्य होय, ऐसी मलिन वस्तु छोवने योग्य भी नाहीं। सो कैसे खाय हैं ? और कदाचित् मनुष्य होय, मांस खाय हैं । तो भील, चांडाल. कसायी, कोली, चमार इत्यादिक नोच कुलके उपजे, अस्पर्श-शुद्ध ही मांस खांय हैं। तिनमैं भी केतेक उज्ज्वल-बुद्धि, पाप तें डरनेहारे, कोमल परिणामी शद्र भी,प्रभुकों मजें हैं। तिलक-छापे करें हैं । ते आमिष नहीं खांय हैं। अशुचि-बुद्धि निर्दयी खांय हैं। सो भी कहा जानें, ऐसो दुर्ग धित वस्तु कैसे खाय हैं ? कैसा है आमिष पिंड, ग्लानिकारी है। जिसकी बिना गंध लिये, देखे हि चित्त दुखी होय, सो खांय कैसे ? सो ताकी तेही जाने। परन्तु ऐसा शनि मांस-पिड खावना, नीच-कुलीका प्रगट चिन्ह है। और जे ऊंचकुलके उपजे क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, थे उत्तम
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वंशके हैं। सो इन वंशोंके उपजे भव्यात्मा, उज्ज्वल आचारी हैं। सो आमिष को छोवें भी नाहीं हैं। जो
दयावान पुरुष हैं सो तो ऐसी वस्तु देखते ही भाग हैं तथा जे भव्यात्मा आमिष त्यागी हैं। सो अपने व्रत को । रक्षा को ऐतो वस्तु नहीं खोथ हैं, जिनके खाये मांस का दोष लागें। त्रस जीवन के कलेवर का नाम मास है। 'ताते जा वस्तु मैं उस जीव उपजै तथा जो त्रस का कलेवर होय, सो वस्तु आमिष त्यागी नहीं खाय है। सो जहां-जहां त्रस उपॐ तथा नस का कलेवर है; तेते स्थान बताइये हैं। सो अनगाल्या जलमैं, दुहे पीछे दौथ घड़ी उपरान्त के कच्चे दूध विषै और मर्यादा पूर्ण हुए आटे वि, इनमैं बस जीवन की उत्पत्ति है। सो आमिष त्यागी, ये तीन वस्तु नहीं खांय और चर्म का तेल-घृत-जल इन आदि और रस जाति वस्तु, भ्रस जीव का
उत्पत्ति का स्थान है तथा रात्रि का पोसा आटा, बन बीन्धा अन्न, फड़ी वस्तु. रात्रि की पकायो हल्वाई के घर | की बनी वस्तु, दुकानदार की दुकान-
बिता श्राटा, होगा मधु इत्यादि वस्तु, सामिष त्यागी नहीं खाय और अोला, घोरबरा, निशि भोजन, बैंगन, बहु बोजा, संधारणा, बड़ फल, पोपल फल, उदम्बर फल, कठूम्बर फल, पाकर फल, कन्दमूल, मिट्टी विष, आमिष, मधु, मक्खन, मदिरा, तुच्छ फल, अचार, चलित रस और अजान फल । ये बाईस अभन्न आदि वस्तु आमिष त्यागी नहीं खाय और रात्रि बसी कांजी और गुड़ दही मिलाय केव द्विदल दाल दही तें मिलाय नहीं खाय। साधारण फल-फूल-बौड़ी ये वस्तु आमिष त्यागी नहीं खाय और जै बमक्ष्य, इस विवेको के ज्ञान मैं आवै, सो अपने व्रत को रक्षा के निमित्त अतिचार जानि, नाहीं साय। ये मामिष व्यसन महापाप का स्थान जानना और भी देखो। मांस भती को संसार निन्दे है और केतेक महाजिला लोलुपी जिनके कुल में मांस नहीं लेंय। सो जीव, मांस की नकल को तरकारी बनाय खावें हैं। तिनको भी जामिष खाये का सा दोष लाग है। मौस मक्षीको नरक मैं ताका तन काटि ताहो की खुवावें हैं तातें आमिष का विवेकी नहीं तो खांय, नहीं खाते देख अनुमोदना करें, नहीं अपने व्रतको अतीचार लगावें। सो आमिष-त्याग व्रत जानना। इति आमिष व्यसन । २ । आगे सुरापान व्यसन लिखिये है। जो मन-वचन-काय करि सुरापान मैं रत होय ताको मदिरा व्यसन कहिये है। सो जे विवेक के धारी व यश के लोभी हैं ते या व्यसनकौं तजें हैं और जे लज्जा रहित अज्ञानी, नीच कुली पुरुष हो हैं; ते सुरापान को लैंय हैं। ये व्यसनी महामूरख दामकं खोय निन्दा जपाजें हैं।
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इस मदिरापान के करनहारे जीव महाकठोर परिणामी होय हैं। अनेक वस्तु मिलाय, तिन सर्वकौं कूटि एक जल कुण्ड में डालि सड़ाव हैं । ता विर्षे कुछ दिनमैं कोटि पड़ि चलें हैं। जल मैं दुर्गन्ध चले, तब उस जलक सर्द जीवों सहित यन्त्र में डालि, अग्निपै चढ़ाय ताका अर्क काढ़ें। ऐसी जो मदिरा, ताकी विवेकी. उत्तम आचारी, शुभ कुली नहीं खाय हैं। जाके पिये बुद्धि जाय, वचन प्रतीति जाय, लोक जो देखें सो धिक्कारें। जो ऐसा जानि कमी मदिरा नहीं तजै तिनकी सममिकौं विवेको निन्दें हैं। मद्यपाधो, पाय के योग ते नरक जाय है। तहाँ ताका 'मुख चोरि, तातो-ताती धातु गालि, ताकौं पिघावें हैं। यहां प्रश्न-नरक में धातु कहाँ है ? ताका समाधानयहां धातु तो नाही; परन्तु जीवन के पाप करि, तहां के पुद्गल परमाणु गलि, धातु तैं ही असंख्यात गुखी अधिक उष्णता स्प, धातु के प्राकार होय हैं। सो धातु पिवाय ते नारको मद्यपायो कौं पाप याद कराने हैं कि जो १२- मैं तेने सुराधानका साताका फल इस ताक मैं ऐसा होय है और इस मदिरापायीकै बुद्धि का अभाव होय है। मद्यपायी के वचन की प्रतीति नाहीं। भद्यपायोकै पुरुषार्थ का अभाव होय है। यह पग-पग मूळ खाय पड़े है। मद्यपायी का किया धर्म, विफल होय है। शीश तैं पगड़ी पड़े। वस्त्र फटैं। मर्यादा रहित मुख आवै सो बकै। माता, स्त्री. भगिनी, पुत्री का ज्ञान नाहां सर्वकौं शक-सा देखें। खाद्य-अनाद्य का ज्ञान रहित होय इत्यादिक पाप व निन्दा का स्थान मदिरा, ताका त्याग करना योग्य है और जिनतें अपने व्रतकों अतीचार लागे सो भो तजना योग्य है। सो दास के अतीचार कहिये है। भांग, तमाखू, गांजा, चरस, याकादिक विषय-पोषण के निमित्त वस्तु का खावना। सो दारू का-सा दोष है और खम्मीर राखी वस्तु जो की जलेबी, अनगाले जल का मही और जे बहुत दिन की रस-वस्तु होय, सो खाये से मदिरा समान दोषकुं उपजावे है और अर्क, गुलाब जल, ये मदिरा सम हिंसा उपजावै है और सिंगिया विष, सौंठिया विष, हल्दिया विष, सौमला खार इत्यादिक विष जाति मदिरा सम दोष उपजावै है और कोई कू मदिरा पीयवे की इच्छा होय, तो इहा मद्य कू देख लेवे। पीछे कछु बड़ाई होय तो पीवना। हे भव्य ! कोई नेत्र हित अन्ध होय है। परन्तु मद्यपायी है सो नेत्र सहित अन्ध है मद्यपायो क सर्व गैसा कहैं हैं कि यह सप्त है। मद्ययायी की करी धर्म-क्रिया विफल होय है। के तौ मद पीवनेहारा खप्त कहावै के वायु-सन्निपात रोग सहित बोलनेहारा खप्त कहावे तथा हौल-दिल होय
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गया होय, सो खप्त कहावै। तीनों राकसे हैं। इनको दिवाने कहिये, बेसूब कहिये इत्यादिक मद्य लेने में जगत् | निन्दा होय. घर धन जाय, सो प्रसिद्ध है। और देखो, जो दारू पोथकै कोईने यश पाया होय. तो बताओ।
देखो, यादव-सुतौंने धोखे ते मद पीया सौ सर्व कुल सहित द्वारका का नाश भया । तातें है भाई! तेरे घरमें धन दाम बहुत होय तो जलमें डारि दे। परन्तु व्यसन विर्षे मत लगावौ। हे भव्य, दाल ते दावानल भली है। अग्नि प्रवेश भला है। तन वि पीड़ा भई भली है 1 इत्यादिक दुखन ते एक एक भव विर्षे दुख होय है और दारू ते अनेक भवों में दुख होय है। तातै दारू तें, हलाहल विष मला है, परन्तु दारू व्यसन भला नाहों। ताते अनेक प्रकार पापकारी जानि, धर्मार्थो श्रावकको अपने व्रतकी रक्षा कौं, अतिवार सहित दारू व्यसनका त्याग करना योग्य है । इति दारू व्यसन।३। आगे वेश्या व्यसन कहिये है। कैसी है यह वेश्या, जाके चित्त करि मोह्या गया है कामी पुरुषनका मन सो ताकै सदैव धर्मका अभाव है। जो परके पासका दाम लेय, व्यभिचार क्रिया रूप प्रवृत्तै. सो ताक वेश्या कहिये। याकी संगति तें, चित विकल होय है । या वेश्याके काहू ते स्नेह नाही, एक द्रव्य तें स्नेह है। जो कोई महा नोच-कुलो होय, अरु ताके पास धन होय, तौ वेश्या ताते संगम करें। ग्लानि नाही करें। जाका तन विरूप होय, लदि-दीन होय, तर हीनदोष नाम ना करोगानो देश्या ताका | आदर करे, तातें स्नेह करें। महा बुद्धिमान होय, कामदेव समान रूपका धारी होय, पराये मनका मोहनेहारा हाय, ऊंच कुलो-बड़े वंशका होय इत्यादिक गुण सहित, शुभ-लक्षणो होय, अरु कदाचित् धन रहित होय, तो वैश्याके घर जाय आदर नहीं पावै। धन रहित पुरुष तें वेश्या स्नेह नाहीं करै। याकै धन मित्र है, और नाहीं। तात वेश्याका नाम धन-मित्रा भी कहिये है। केसी है यह वेश्या, जो याका तन ममिके मार्ग समान है। जैसे मार्ग नीच-ऊंच सर्वही चलें हैं, तैसेही वैश्याका तत है। याके तन पर भी नोच-ऊंच सभी जाय। यह वैश्या, महा लोभको खानि है। धनके निमित्त अपना तन बैंच है। महा निर्लज है। निर्लज्ज पुरुषोंके भोगका स्थान है। जंठी पातल समान है । जैसे काहूने जूठो पातल फेंकी। ताके ऊपर अनेक श्वान चाटवे आवे हैं । तैसे हो काहूंकी || मि भोग-नाखी वैश्या रूपो जंठी पातल, ताके ऊपर अनेक व्यसनी श्वान आवे हैं। जगत निन्द्य है। तातें वैश्याके सर्व चिन्ह पापकारी जानि, बुद्धिमान कूतजना योग्य है। और ये वेश्या,शील वृक्ष के छेदवैकं कुठार समान है। याका संग
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किये, धर्म साधन किश था ताका फल नाश होय है। तातें विवेकी-धर्मात्मा पुरुषतको वैश्या-संगति तजना योग्य है
और जिन-जिन कार्यन मैं वेश्या संग किये का-सा दोष होय, सो भी कार्य, व्रत के रक्षक धर्मो-पुरुष तर्ज हैं। सो हो बताइये है। जाके वेश्या व्यसन का त्याग होय, सो रातो जायगा नाही जाय । अरु कदाचित जाय, नौ अपने व्रतको अतितर - पहलेल्या का स्थान होय, तहां नहीं जाते और जहां वेश्या-कञ्चनी का नृत्य, गान, वादित्र होय, तहां नहीं जाय और वेश्यात वाणिज्य नाहीं करें और वैश्या के मुहल्ले जाय वसना नाहों और वेश्या तैं हाँ सि, कौतुक, वचनालाप नहीं करे इत्यादिक कहे जो कार्य, सो व्यसन समान पाप उपजावै हैं और वैश्याकेतनको नहीं निरखै और वैश्याके हाव-भाव नहीं देखै। ताके गान, रूप, वादिन नृत्यादिक नाहीं सुनै-देखें। आगे तिनको प्रशंसा अनुमोदना नाही करै। बार-बार वैश्या के गुणन को कथा नाहीं करें। ताको कथा औरनत सुनि, हर्ष नाही करै। वैश्या का सत्कार नाहों करै ताके संगी-कुटुम्बीन ते हित माव नाही करें। इत्यादिक वेश्या सेवन के दोष हैं । सो सर्व का त्याग करते हो अपने व्रत को रक्षा ही है। हे भव्य ! वेश्या के संग विर्षे गुण नाहीं। याके संग तें लोकन मैं अपयश निन्दा होय है। वेश्या का संग, चोरटे पराये धन के हरनहार करे हैं तथा जे लुच्चे, जुवारी आदि निर्लज पुरुष हैं ते वैश्या के घर जाय हैं तथा कुलहीन पुरुष ही वेश्या का संग करें हैं तथा जाके आगे-पीछे कोई कुटम्ब नाहीं, सो वेश्या गमन कर है। देखो, प्रागे चारुदत्त सेठ पुत्र ने वेश्या का संग किया था। सो वेश्या ने ताका सर्व घर धन लेय, पीछे उसे दुर्गन्ध भरी छारछोवी (पाखाना) मैं डाल दिया। सो नरक सम्मान दुःख, इहां ही भोगता भया। जगत्-बिछौना समान, वेश्या जानना। याका तन सर्व जन नीच-ऊँच स्परौं हैं। वेश्या के संग तें, शील का अभाव होय है। ताका फल, दुर्गति होय है। ये वैश्या महादगाबाजी की मूर्ति है। अरु रोसे ही महानिर्लज दगाबाजी की खानि, दुर्बद्धि पुरुष ताका संग करें हैं। अहो मव्य ! सिंह की गुफा में जाना तो मला है। परन्तु वेश्या का संग मला नाहीं। तातें है भव्य ! घनी कहने करि कहा- वेश्या का संग तजना ही मला है। इस वेश्या व्यसनो कौ चोर, लुच्चे, वेश्या के गमनी भला कहैं हैं। तब यह मूर्ख अपनी प्रशंसा सुनि, प्रफुल्लित होय हैं और जब विवेको, ऊँच-कुली, पण्डितन में जाय है तब | उस अधोमुख होना पड़े हैं। अपने भले कुल में कलंक चढ़ावै है या वैश्या के संग ते सर्व प्रकार कुकीर्ति की
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बैलि जगत मण्डल में पसरे है। जिनने वेश्या का संग किया ते प्राणी अपना पाया भव हारते भये । वेश्या
के संग तें खाद्य-अखाद्य का विवेक नाहीं रहै है। अमक्ष्य भोजन करें। लज्जा रहित वचन कहै । वेश्या का । संग करनहारा जीव देव-गुरु-धर्म को आज्ञा ऐसे लोप है; जैसे-मदोन्मत्त हस्ती अंकुशकों लोपै । वैश्या |
व्यसनी, माता-पितादि गुरुजन की आज्ञातै प्रतिकूल होय है । कोई तौ नेत्र रहित अन्ध होय है । परन्तु वैश्या ! । व्यसनी कर अन्ध है इत्यादिक अनेक दोष सहित वेश्या व्यसन है। सो विवेकी धर्मात्मान• अपने व्रत की
रक्षाकू अतीचार सहित वैश्या-व्यसन तजना योग्य है। इति वेश्या-व्यसन । ४ । आगे पारधी व्यसन लिखिये ।। है यह व्यसन, निर्दय चित्त के धारी जीवों का है। जे नोच-कुल के उपजे, तिनत ऐसा अन्याय बनें है। ऊँचकुलो, दयावान, सुभाचारी, सत्-पुरुषन तें, पर-जीव-घात नाही बने है। यह बड़ा आश्चर्य है कि लोक मैं । तौ पराये परणाम खुशी करवे कों, मला खान-पान दीजिये है। मुझे पशुन कौं घास डालि, सुखी कीजिये। है। आय का सत्कार कोजिये है । कोई अपने घर मंगता-रङ्क आवै तो ताकी दया करि, दीननकौं भोजनदान दीजिये है। परतें मिष्ट वचन बोलि, ताका यथायोग्य विनय करि, ताकौ साता कीजिये है इत्यादिक। क्रिया करि, जैसे बने तैसे यश के निमित्त तथा पुज्य के निमित मला मला कार्य कार और जीवनको सुखी करें हैं । सो जगत् में जिनकी ऐसी उज्ज्वल प्रवृत्ति, दया सहित देखिये है, वे ही सुबुद्धि जीव जानि-पुष्ट्रिक पर-जीव दोन-पशु तिनके तन वि शस्त्र मारि, तिनको हत। सो ये बड़ा आश्चर्य है। ऐसे सज्ञानी जीवन के भाव ऐसे कठोर कैसे हो जाँय हैं ? सो उन पशन के ही पाप का उदय है कि जो सज्जन सदावत देय, शीत में वस्त्र देय दीनन को रक्षा करें। वै ही पुरुष जब पशूनकै शस्त्र-तीर-गोलो मारे हैं तब तिनकों दया नहीं आवै। ऐसे बड़े आदमी, बुद्धिमान, दयावान, धर्म निमित्त धन के लगावनहारे, ते पर-प्राण का घात कैसे करें हैं ? तातें ऐसा जानना, जाकै पर-प्राण-पीड़िते , दया नाहीं होय, सो दया रहित भावन का धारी, त शिकारी कहिये। अपने पुत्र पालवे को, पराये पुत्र हते उसे पारधी कहिये। ते जीव पाप के अधिकारी
होय, नरक के पात्र होय हैं । अपनी जिह्वा-इन्द्रिय पोपवे की तथा अपनी भूख मिटावन की, पराये पुत्र दीन। पशनको हते है, दया रहित पारधी जानना। केसे हैं वन-जीव ? महादीन हैं। महाभयवान हैं। कोई ते ॥
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तिनका देष नाहीं। वन का घास-तृण चुगके, अपने तन की रक्षा करें हैं। ऐसे दीन-निर्दोष पशनकों जो शस्त्र मारे, सो महाकठोर चित्त का धारी निर्दयी है। वन के पशु भोले, अज्ञान, असहाय, तिनक्केई पापाचारी छलबल करि मारे,सो बडा पाप-भार बांधे हैं। सोये पाप कब कटेगा के खान रहित.दया रहित नीच-कुली ऐसा कहैं है कि यह हमारा धर्म है। केई कहैं हैं कि यह हमारा किसव (व्यापार) है। सो ऐसे जीव कसाई हैं जे जीव हते ते चाण्डाल हैं। उनके घर में, धर्म का अभाव है जीव-घात करनेहारे प्राणी, खटीक समानि हैं। तिन जीव-घाती जीवन का मुख देखे, पाप लाग है। जे भले कुल के उपजे हैं, ते पर-जीवन को नहीं पाते हैं। जी पर-जीव धातै सो होन-कुलो समझना। पर जीवन के प्राण राखें सो ऊँच-कुली हैं। भोलादिक वनचर हैं, सो वनचर जीवन को मार हैं। उत्तम प्राणी, पर-घात नाहीं करें। जे दयावान हैं, वे ऐसा विचारें कि हाय ! बिना दोष पर-जीव कैसे प्राते हैं ? ये तिलारे दोन, तर लेणी . काह के घर जाय सतावत नाहीं। काहू कवू मांगते नाहीं। काहू का खेत नाहों खून्दते। किसी का फल नहीं खावते। वन के तृण वन-फल, घास, पत्र तो ये खाय हैं । नदी-तलावन का जल पीवते हैं नहीं मिले, तो क्षुधा सहित भले ही पड़ि रहे हैं। नहीं काहू ते लड़ें, नहीं काहू कोप करें । ऐसे दोन पशनकों जे मारे,ते शठ अपना पर-भव बिगाड़े हैं। सर्व जीवन मैं पापी तौ सिंह है । ऐसे पापी सिंहको मारिके अपनी शूरता माने, सो याहू ते पापी हैं और केई वन के सुमरन को मारे हैं
और कहूँ हैं कि हम शूर हैं ते शूर नाहीं पारधी हैं। हिरन, सरगोश, स्थाल इनकों मारे ते श्वान हैं और भवांतर मैं श्वान ही उपजें हैं और चिडिया, कबतर, मोर, तीतर, बाज, मछली, मगर इन बादि पक्षी तथा जलचर जीवन की मार सो सेटकी हैं। ये पर-जीवन के हतनहारे निर्दय परिणामो निश्चय ते नरकादि गति के पात्र जानहु ! ताते जे विवेकी-दयावान जीव-घात नाहों करें उत्तम परिणाम के धारी हैं। ते भव्य येते काम और भी नाही करें। सौ कहिये हैं। जे दयावान होय सो तोर, गोली, गिलोल, कृपाण, बन्दुक, कटार, छुरी, तलवार इत्यादिक शस्त्र नहीं राखें। शस्त्र ते मासँगा, ऐसा वचन नाहों कहैं और फन्दा-फाँसी-पींजरा ये नाहीं बना नाही राखें । बड़ थूहरि आक के दूध तै प बनाय पंखी नाहीं पकड़े । लाठी व लात ते नाही मारें। जाल नाही बनावें नाहीं रात्र नाहीं बैचे । इत्यादिक हिंसाकारी वस्तन का व्यापार नाहीं करें और जे तीर, बन्दुक, तोप,
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बरछी छुरी, आदि पर-जीव घातक शस्त्र बनावे, तिनत दयावान लेन-देन नाहीं करें। कुसी, कूदाली, खुरपी ।। हँसिया इनके बनाने वालों से भी लेन-देन नाही करें। और भमिके खोदनेहारे, ताल-नदी-बावड़ी-कूप इनमें जल काढ़ने व फोड़नेहारेन से भी लेन-देन नाहीं करें। और जामैं बहुत जल बिलोलना पड़े, बहुत नीर ढोलना पड़ें बहुत अग्नि जलाना पड़े तथा जो नील-आलका काम करें, उनके साथ भी लेन-देन नाहीं करें। इत्यादिक सब खेटक-हिंसाका दोष करें हैं इनका वैसा घरमें आये, खेटकका सा दोष उपजावै। और अन्न, तिल, जीरा, धना, सौंठि, हल्दी,इन नादि काठानिक किरानों तथा शनसन, चाम, हाड़, केश, सींग, शहद इनको भझाला (दुकान) नाही करें। तथा शीशा, शोरा इत्यादिक हिंसक व्यापार नाही करें। इनमें खेटक समान दोष जानि, दयामूर्ति रोता व्यापार नाही करें। और काष्ठ-पाषाश चित्रामकी पुतलीं तथा देव-मनुष्य-पशुको स्थापनाका आकार बिगाड़े, तो खेटक समान दोष होय। और सतरंज मैं नाम-निक्षेपकै धारी जीव-हस्ती, घोटक मनुष्य राजादिक ताके हार-जीते, खेटक समान दोष होय। तात धर्मात्मा सतरंज तें नाहीं खेलें। और वन में, घर में अग्नि लगाये खेटक समान दोष है। तथा परजीवकों भयकारी मार-मार शब्द नाहीं कहैं। और वृक्ष, बेल, घास, माड़ी नहीं छेदें। वस्त्र धूप विर्षे नाही नाौं। चोपट राह में खटमलनकी खाट नाही झाड़ें। पर जीवन कू शोक नहीं करावें और मर्यादा ते जभिक भार, जीवन पै नाही लादे । भाड़ा किया होय तो वाहन 4 छिपायके अधिक भार नहीं धरै । इत्यादिक कहे कार्य धर्मात्मा-दयावान् अपने व्रतका लोभी अपने व्रतको रक्षाकौं ये पाप नहीं करें। और जुबा लोख दयावान् नहीं मारें। सर्व जीव आप समान जानि सर्वको रक्षा. करें। और जे दया रहित दुर्गति-गामी अज्ञानी जीव परकौं शस्त्र मारते दया नहीं करें । अस अपने तनमें तनिकसा काटा लगे तो कायर होय दुख माने । सो ये कठोर बुद्धि परके शस्त्र कैसे मारे हैं? आप तनकसा भय सनै तौ हिपता फिरें भय करि कंपायमान होय। अरु पापी जन दीन-पशन नन शस्त्र चलावतें नहीं करें!
हैं। सो ताके खेटक-व्यसन कहिये । देखो जब आप रशमें जाय तो अपने तनकी रक्षाकों वसतर पहिने। ६३ | शिरपे टोप धरें। आगे उरस्थलमें बाड़ी ढाल धरै। तो भी पापी-कायर चित्तका धारी डरता-डरता जाय है। ताक
दीन पशनके तनमें निशंक वनमें फिरते दीन जीवन कं दगा करि जालमें पकड़ि शस्त्र मारते दया नहीं भावें।
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सो जीव दुर्गति-गामी पारधी जानना। ऐसे प्राणीनकों तीन लोकमें सुख नाहीं । ये खेटकका व्यसन पाप है। ये पाप भव भव खेटक करै। महा दुख उपजावै । तातें विवेको धर्मात्मा, आप समान सर्व जीवन जान सर्व जीवनकी रक्षा करें सो खेटक व्यसनका त्यागी कहिये । इति खेटक व्यसन । ५ । आगे चोरी व्यसन कहिये है । जे जीव बिना दिया, परका पदार्थ नहीं लेंय सो चोरी व्यसनका त्यागी है। कैसी है चोरी सो कहिये है । एक तो महा दगाबाजीका समूह है। अदत्ता दानको लेय सो चोर है। सो जे चोर हैं सो परधन हरवै
अनेक चतुराई करि पराया घर फोड़ना, पराये खोसेमेंसे धन काढ़ि लेना पराये घरे धनकौं छिपाय के उठाय लावना तथा पराया धन उठाय कहीं घर देना आदि कार्य करें हैं। ये सर्व चोरी व्यसन है। इस चोरी करनहारे का परिणाम महा कठोर निर्दय होय है । पराया धन चारें हैं, सी महा पाप है । संसारमें जीवनकौं ये धन अपने प्राण तें भी प्यारा है। ये जोव अपने दस प्राणकूं धारि सुखी रहें हैं। तैसे ही यह जीव धन तैं सुखी रहे है । तातैं ये धन जीवका ग्यारहवां प्राण है। जो इस धनकौं हरें ते महा पापो जानना । जे पराये धन हरवेक अनेक छल बल करें हैं । कोई तौ पर धन हरवेकों राह चलते जीवनकूं डरवाय धन हरें । कोई जबरी तैं नगर घरन पै धाड़ा मारि करि घर धन लूट ले जांघ । सो तो जोरावरोके चोर हैं। कई दगाबाजी सहित, अनेक भेष बदल, फांसो मारि, धन हरें, ते चोर हैं। कोई पराया धन, लेखा करने में भूलि करि राखेँ। ते चोर हैं। कोई पराया धन घर या हुआ नहीं देंय, जानि वूम मुकर जांथ सो भी चोर हैं। कोई पराया धन कर्ज खाथ रहे, नहीं देय, सो चोर है। ऐसे कहे जो ये सो सर्व चोरन के चिन्ह हैं। और कोई ऐसे हैं जो आप तौ चोरी नहीं करें, परन्तु चीरन क चौरी करने में सहायक, चोरी करावें को, तिनकौं चोरी के उपकरण देंय, मार्ग बतावै सी भी चोर समान हैं। और जे चोरन की पक्ष करि, चोरन को लांच खाय, चोरन क नाकर राख, चोरी कराय धन बांट लेंय । सो भी चोरी समानि फल का धारी है। और चोरन को चोरी पे कर्ज देन, चोरन तैं वाणिज्य व्यापार रखना ये भी चोरी सा हो फल प्रगट करें है । तातें जे विवेकी हैं ते अपने व्रत को निर्दोष राखेँ । सो एती बात नहीं करें जिनका कथन ऊपरि कहि आये। और इस अदत्ता दानके अतिचार हैं सो भी न लगावैं सो ही कहिये हैं। कोई भली चोर कलाका धारी होय तो ताकी अनुमोदना नहीं करें। और
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तराजूत तौलिये ताके सर पंसेरी आदि बांट तथा कुड़पाईं छोटी बड़ी रक्खें। सो लेने के तो बड़े अरु देने के सैर
पंसेरी कुड़ापाई छोटी रीसे राखै सो चोर है। ऐसे ही भली वस्तु विषै बड़े मोल की वस्तु विषै अल्प मोल की ४८५ वस्तु मिलावना, सो चोरी समान है। सो विवेकी ऊँच- कुत्री ऐसी चोरी नहीं करें। जे हीन कुली हैं ते चोरी करें हैं। जैसे - भील मोशा गौंड़ ये मनुष्य चोरी करें हैं तथा धन हारचा ज्वारी चोरी करें तथा जोभ लोलुपी चोरी करै तथा जो खान-पान वस्त्र आभूषण तौ भलै चाहे वरु कुमाय नहीं जाने ऐसा कुप्त पुरुष चोरी करै । वेश्या व्यसनी होंय ते चोरी करें। मांसाहारी चोरी करै तथा पर-स्त्री लम्पटी चोरी करै इत्यादिक कुबुद्धि के धारी जीव चोरी कर अपना पाया भव वृधा कर अपना किया धर्म कौं विना हैं तथा अपने स्वामी का बुरा चाहनेहारा स्वामी द्रोही चोरो करै तथा मित्र तैं कपटाई करनेहारा मित्र द्रोही चोरी करें तथापर के किये उपकार की भूलनेहारा कृती होय सो चोरी करें तथा धर्म भावना रहित पुरुष चोरी करें, इत्यादिक जीव चोरी करें। सो चोरी के अनेक भेद हैं। एक तौ धर्म चोर एक घर चोर । सो जो पापी जीव धर्म स्थान में चोरी करै सो तौ धर्म चोर कहिए और जे माता-पिता, भाई, स्त्री, पुत्र इन तैं धन चुराय राखें सो घर चोर हैं तथा परारा घरन का हरनहारा होय सो घर चोर है। ताकरि राज्य पञ्च का किया दण्ड पावें और बालक पुत्र तथा स्त्री तैं छिपाय खाय भली वस्तु छिपाय कैं खाय सो पुत्र स्त्री चोर हैं। रा सर्व चोर समान दोष करें हैं। ता चोरी के दो भेद हैं। एक चोरी दूसरा चरपट जो छल कर छिप करि पर धन हरै, सो चोर है और गिरासियादि जोरी तैं डराय प्रगट पराया धन हरै, सो चरपट कहिए। सो ए चोरी चरपट भेद भी पाप जानि, तजना योग्य है। ये चोरन को चतुराई, सबही दुःखदाई, ताहि तजना जिन गाई मैं भी धर्म-हित भव्य जीवन कूं सुनाई। तातें तो समझ सब भाई. याके किये हानि दाई, जस हानि गुरु सुनाई। पर-भव दुर्गति होय, सकल पाप धान जीय, ऐसो लक्ष्य तजो सोय, मानो सीख भव्य होय इत्यादिक चोरी सर्व पाप का मुकुट जानि, तजना योग्य है। इस चोरी हो के चिन्तन किये, पाप-बन्ध होय है। तातें अपने पर-भव सुधारवे कूं. सन्तोष भाव भजिकै, बहुत तृष्णा का कारण जो चोरी, ताहि निवारौ। ये सोख सुपूत को है। जो कहे का उपकार मानें और जिनकौं चोरो भलो लागे । सो सुनि करि, भले उपदेश सूं द्वेष-भाव करें। चोरी व्यसन का
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त्याग सुनि चोर हैं ते धर्म-सभा तजै। परन्तु चोरी नहीं तऊँ। सो ऐसा प्राणो धर्म-सोख काहे को मान है ? ये; सीख सपूत की है। तातै प्रावकन कं अतिचार सहित, चोरी उपसन तजना योग्य है। इति चोरी व्यसना६। आगे परदारा व्यसन कहिये है---जहां पर-स्त्रोन के रूप हाव-भाव कौं देव, भोगवे को इच्छा सो परदारा व्यसन है या व्यसनो को दृष्टि तौ भगिनी, पुत्री, माता को भी रूपवान देख विकार रूप ही प्रवत्त है और जे धर्मात्मा हैं सो पर-स्त्रोन कॅ भगिनी, माता, पुत्री समान देखें हैं। ऐसा भिन्न भेद इनको दृष्टि में जानना। ये। जीव उसही दृष्टि (आँख)तें भगिनी, पुत्री को देखें हैं । अरु उसही दृष्टि से अपनी स्त्री कूदेखें हैं। सो धर्मात्मा तौ यथावत् जाने हैं। अरु व्यसनी, विचार राष्टिकरिया है। रुह जीपन की हा काही भेद जानना। कैसी है या व्यसनी की दृष्टि? दोऊ भव-दुःख अपयश की करनहारी है। इस व्यसनी कौं पर-स्त्री गमन तें पकड़िये. तो जाति ते निषेधै हैं और राजा है सो ताका तन छेदन करि. घर लटै है और सर-रोहण करि, देश ते निषेधे है। तातें है भाई। कहा जाने नरक-फल पर-मव में कब लागै? हाल ही में जीव कौं नरक समान दुःख देखने पड़े हैं। लोक में निन्दा होय है। नाक-कान-हस्त-पांव अङ्गादि छिदै हैं। सो ये फल तो खराबी के यहां ही प्रत्यक्ष देखना होय है 1 तात धर्मी-जन, अपने हित कौ पर-स्त्री, धर्मरूपो कल्पवृक्ष के दवे कू करोत समान जानना और ये पर-स्त्री यश रूपी पर्वत के नाशवे कुंबन समान है। देखो रावरा-सा महाबली तीन खण्ड का स्वामी, यश का तिलक, जाके यश-सौभाग्य को देव भी महिमा करें-रोसा दीर्घ पुरयी, सो भी पर-स्त्री के दोष ते अपयश पाय, होन-गति का वासी भया। राज्य गया, कुल क्षय भया, पर-गति बिगड़ी। तातै हे भाई ! नाग के मुख हस्त देना, विष भोजन करना, ये तो मला है; परन्तु पर-स्त्री-संग, मला नाहीं। छुरी, कटारी, बर्ची की धारत पै कूदना भला। इन ते एक भव दुःख होय। बरु पर-स्त्रो संगति हैं, भव-भव में दुःख होय । तातै विवेकीन कौं पर-स्त्रीन का त्यागना भला है। अरु जिन बातम में पर-स्त्री-संग का दोष लागै, ऐसे अतिचार भी तजना योग्य है। सो अतिवार कहिये हैं। पर-स्त्रीन ते सराग भाव सहित हैं सि बोलना। कौतुक सहित तिनके तन से लिपटना। पर-स्त्रीन के षट्-आभूषण देव कहै, जो तुम कौ यह भला लाग है ये मला नहीं सोहै है। पर-स्त्रीन के अङ्ग-उपाङ्ग चाल की सराहना करना। ये सर्व पर-स्त्री व्यसन समान दोष
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करें हैं और विकार चित करि पर-स्त्रीन का काम काज करें। ताकी मले-भले षटभषणलाय देय। राग
सहित मुख ते वचन बोलें। ताकं पर-स्त्री का व्यसनी कहिये और जहां नारी, स्वैच्छा भई कौतुक करती होय, -'गाली-गोत गावतो होंय, तहां आप जाय, सुनि करि हर्ष को प्राप्त होय, चित देव सुनै, तिनकी प्रशंसा करै, सो
पर-स्त्री का व्यसनी है। और पर-स्त्रीन के समूह में जाय, तहाँ बैठ के तिन स्त्रीन की सहावतो बात कहै। तिनकौं अनेक कौतुक कया कहि के हँसावे-सुखो करें। सो पर-स्त्री का व्यसनी कहिये और जै पनघट-घाट, जहां अनेक स्त्री-समूह जल कौ जोय तथा और जगह जहाँ अनेक स्त्रीन के गमन का स्थान होय। ऐसे स्थान वैजाय तिष्ठना, सो पर-स्त्री का व्यसनी है तथा पर-स्त्रीन को चाल-काय सराहना, षट्-आभूषरा-रूप देख हर्ष करना, सो पर-स्त्री का व्यसनो है। अपने घर में दासो राखना तथा विधवा स्त्री की मोह के वश करि, घर में राखना। तातें भोगन को अभिलाषा पूर्ण करती। सो पर-स्त्री का व्यसनो है और बालक नर को नारी बनाय देखना तथा सुन्दर स्त्रीन कं, नर भेष बनाय. देख सुखी होय, स्पर्श करि सुखी होय सो पर-स्त्री का व्यसनी है और विधवा तथा पर-स्त्री जाका मार जीवता होय, तिनत एकान्त विर्षे बतलावना। तिनतें ऐसा कहना, जो आज कल तो हम 4 कोय है। तात नहीं बोलो हो । सो हम पै ऐसी कहानक परी है, सो कहो। हम तौ आपके आज्ञाकारी हैं इत्यादिक राग सहित वचन भाषण करे, सो व्यसन का लोभी है। अरु पर-स्त्री तें अबोला रहै, सूठना करें 1 फेरि तिसके बोलने कौं, औरन तें प्रार्थना करें। कहै जो हमकों वाकों बुलाय देव इत्यादिक भावन का धारी, इस व्यसन का धारी है और जे अपने तन में नाना प्रकार वस्त्र आमषण पहरि, पर-स्त्रोन को दिखाया चाहैं। अपना मला रुपयौवन, तनकी ललाई पुष्टता, पर-स्त्रीन कौं दिखाया चाहैं, सो पर-स्त्रो व्यसन मोही है इत्यादिक कहे जो पर-स्त्रीन के व्यसन के दोष, तिन सहित सबको त्याग, अपना व्रत निर्दोष राखै, सो पर-स्त्री व्यसन का त्यागी कहिये । इति परदारा व्यसन । ७ । ये कहे
जो सात व्यसन, सो सर्व पाप के मूल हैं। जेते जगत् के पाप हैं, तैते सर्व इन व्यसनन में गर्भित हैं । सो || जिनके उदर विषै, इन व्यसनन को वासना है। सो धर्म विमुख प्राणी, अपने भव का बिगाड़नहारा है।। | है भव्य ! ये सात व्यसन, सात नरक के दूत हैं। ये व्यसन जीव कों किञ्चित् सुख की छाया-सी बताय
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लोभ देय नरक विर्षे धरैं हैं। जे ग्राणो इन व्यसनन में फंसे हैं। तिनने अपना मव वृथा किया धर्म छोड़ि || दिया और जे जीव इनक परख व्यसन जानि इन विष रायमान होय प्रवर्ते इनकौं सेवन करें, सो जीव पाप | के निशान हैं। तिस व्यसनी का चलन ही अशुभ होय धर्म क्रिया हीन होय परिणति खोटी होय जिन-आज्ञा रहित होय अभिमानी होय सुबुद्धि जीवन करि निन्ध होय । दरिद्रो अत्र करि दुःखी होय इत्यादिक युग भव दुःख का सहनेहारा ये व्यसनी है। सो विवेको जीवन करि तजिवे योग्य है। या व्यसनी का संग भला नाहीं। अहो भव्य हो ! दीन होय रहना मला है। तातें समता सधैं कोई जीवन की पीड़ा नहीं होय । ऐसा उपदेश सुनि जो जीव व्यसन का सेवनहारा अअन चोर की नाईं निकट संसारी होय। तो ऐसे निकट भव्य जीव तौ व्यसन को बुरे जानें। अपनी निन्दा करते अत्यन्त आलोचना करते उपदेशो का उपकार मान । स्तुति करि व्यसन भाव तजें हैं। अपना भव सफल जानि धर्म विर्षे लागें । सत्संगकी महिमा करें। सत्संग धन्य है जो मोकों व्यसनके पापका भेद बताय संबोधित किया। जैसे काह की कृप पडते राखै । तैसे सत्संग ने मोका नरक पडते को बचाया तथा जैसे कुधातु जो लोहा ताकौं पारस लाग कंचन करें। तैसे ही मोसे पापो व्यसनी लोहे समान कू पाप से छुड़ाय धों किया। इत्यादिक भव्य व्यसनी तो अपना भला जानि सत्संगको स्तुति करै। और जे पापी व्यसनी दीर्घ संसारी हैं ; ते व्यसनकी निन्दा सुनि, आप तुरा मान सत्संग तज। परन्तु सप्त व्यसनकं नहों तजै। ऐसे पापी-व्यसनी कौ, धर्मोपदेश नाही लागे। ये सात व्यसन हो धर्मके घातक हैं। ऐसा जानि उत्तम श्रावक जिन |
आज्ञा प्रमाण व्रतके धारीक, अपने व्रतको रत्ता निमित्त, श सात ही व्यसन अतिचार सहित तजना योग्य है। इन | सप्न व्यसनके अतिचारमें आठ मूल गुणके अतिचार बाईस अभक्ष्य आदि आ गये सो जानना। इत्यादिक सर्व दोष रहित सम्यग्दर्शन व अष्ट मल गुण होय, और रा सात व्यसन व बाईस अभक्ष्यका त्याग सो प्रथम दर्शन
प्रतिमा जानना।। । इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्यके मध्य में, सागर धर्म-एकादश प्रतिमा विर्षे प्रबम दर्शन प्रतिमाके वाईस अभक्ष्य अतिचार
सहित सात व्यसन त्याग, अष्ट मुल गुण सहित कथन करनेवाला बत्तीसवां पव सम्पूर्ण ॥ ३२॥ आगे दूसरी व्रत प्रतिमाका संक्षेप लिखिये हैं। दूसरी व्रत प्रतिमा है ता व्रतके बारह भेद हैं। पांच अणुव्रत,
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तीन गुराव्रत और च्यारि शिक्षा व्रत । र सब मिल बारह भये। तहां प्रथम नाम-अहिंसाणुव्रत, सत्याशुव्रत,
अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमारणाणुव्रत । ए पांच अणुव्रत हैं। अब इनका सामान्य अर्थ-जहाँ श्री राक देश पांच पापनका त्याग सो अणुव्रत है। अणु नाम थोरेका है सो ये उस हिंसाका तो सर्व प्रकार त्यागी | है। बाकी बारहमें ग्यारह ते असंयम है। परन्तु महा दयाल है। कोई यहां ऐसा जानेगा जो त्रस रक्षक है तो
स्थावर घात करता होयगा। मन इन्द्रिय वश नहीं होय सो मन इन्द्रिय करि महा विकल रहता होयगा? सो है भव्य, ए अणुव्रती श्रावक सांसारिक इन्द्रिय भोगन ते महा उदास है। पचिपापन ते महा भय-भीत है। सो इन्द्रिय-मनकौं सदैव रोकता धर्म ध्यान मई प्रवर्ते है। ये भोग-भाव, ताहि काले नाग समानि मासे है। ताका इनमें मन रंजे नाहीं। और स्थावरको हिंसाका त्यागी तौ नाहीं परन्तु पञ्च स्थावरके आरम्भमैं दया भाव सहित आरंभ करें। जहां पर हिंसा होय नामें गमको पालोचर का रने है। तातें ए अणुव्रती मन इन्द्रिय वश करिवेका तो उपाई है। और स्थावरको रत्ता रूप भावनाका भोगी है। तातें ये व्रती श्रावक महा दया धर्मका धारी है। गृह-आरम्भ परिग्रहके योग ते सर्व प्रकार स्थावर की हिंसा बचती नाहीं । ता तिस श्रावक अणुव्रतो कया है। अपने हाथ से त्रस हिंसाका आरम्म नहीं करै। सोयाका नाम अहिंसाणवत है याके पांच अतिचार हैं। सो ही कहिये हैं-अपने हाथ से कोई बस जीव कू नहीं बांधै। जैसे हस्ती. घोटक, गाय, बैल, भैंस, बकरी, मनुष्य इत्यादिक त्रस जीवके हाथ-पांव, बन्धन से नहीं बांधै। गलेमें फन्दा डाल कोईकं नहीं बाँधै। तथा बालककं भी क्रीड़ा-मात्र नहीं बांध । याका नाम बन्ध अतिचार त्यजन है।। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इन आदि त्रस जीवनको कोड़ा. लाठी आदि शस्त्रन तें नहीं मारे। सो ये वध दोष त्याग है।२। और मर्यादा के उपरांत पशु पै, मनुष्यन पै भार नहीं लादे। सौ याका नाम अतिभारारोपण दोष त्याग है।३। और त्रस जीवन के अङ्गोपाङ्ग अपने हाथतें नहीं घेदै। सो ये छेदन दोष निवारण है।४। और कोई सका, अत्रजल-घासादि खान-पान नहीं रोक। जैसे कोईके सिर अपना कर्ज आवै था। सो ताकौं रोसा नहीं कहै, जो हमारा कर्ज देव, नहीं तो अत्र-जल खायगा तौँ तोकों ऐसी बाण (कौल) है। ऐसा वचन, व्रती श्रावक नहीं कहै। तथा गाय, बैल, हस्ती, घोटकके खान-पान कू बंद नहीं करें। याकानाम अन्न-पान निरोध दोष त्यजन
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है ।। ऐसे पाच अतिचार नहीं लगावै। सो अद्ध तत महिसागतत है। इति अहिंसाणुव्रत ।। आगे सत्याणुव्रतका अतिचार सहित स्वरुप कहिये है। तहां ऐसी स्थल भूठ नहीं बोले, जातें लोक निन्दा होय, दुसरोंको बुरा लागे। कोई दगाबाजी सहित वचन, कठोर वचन, मर्म छेदन वचन, परदोष प्रगट करन वचन, कलहकारी वचन, द्रोह वचन, गाली वचन, पापबंधकारोवचन, परघर धन मन तन हरन वचन, परनिन्दा वचन, क्रोध वचन, लोभ वचन, रागद्वेष वचन, अविचार वचन इत्यादिक असत्य वचनके भेद हैं। इन सर्वकात्यागना, सो सत्याणुव्रत है । सो याके भो पांच अतिचार हैं। सो दिखाईये हैं। प्रथम नाम मिथ्या उपदेश, रहोव्याख्यान, कूटलेख क्रिया, न्यासापहार, और साकार मंत्र मैद। इनका अर्थ-तहाँ भूठा उपदेश देना झूठा मार्ग बतावना तथा बालकनते असत्य भाषण करि, क्रीड़ा करनी। इत्यादिक असत्य वचन बोलना सो मिध्योपदेश है। ।। और जहां पराई राकांतकी बात कोई बतलावते होंय, ताकी कोई अनुमान नै जानि, अन्य लोकन में प्रकाश करै। सो रहोव्याख्यान अतिचार है। २। और जहां मुठा खत, हुण्डी, चिट्ठी लिखना। झूठा लेखा माड़ना। इत्यादिक ये कूट-लेख क्रिया दोष है।३। और पराये गहने आदि धरै माल को राखि, जानि-बमि मुकरि (मेंट)जाना, सत्यघोष पुरोहितको नाई। सोन्यासापहार नाम अतिचार है।४। और कोईके शरीरके चिन्हतै, नेत्रके चिन्हते, मुखके चिन्हते. ताकी अक्रिया देख, ताके मर्मकी बातकों जानि, पीछे द्वेषभाव करि, पराई छिपी बात कू सबमें प्रगट करना। सो साकार-मंत्र भेद दोष है। ऐसे पांच अतिचार रहित होय, सो सत्याएव्रत कहिये ।२आगे अचौर्याणवतका स्वरूप कहिये है। तहाँ पराया धन बिना दिया लेय, सो अदत्तादान है। ये चोरो जानना । जो पराये पुत्र, स्त्री, दासी, दास, हस्ती, घोटक, गाय, बैल, बकरी इत्यादिक चेतन वस्तु । अरु, रत्न, स्वर्ण, चांदी, वस्त्र, अन्न, धन ये अजीव वस्तु । ऐसे इन चेतन-अचेतन द्रव्य कौं चोरना, सो चोरी है। सो या चोरीके पांच अतिचार हैं। सो कहिये हैं। प्रथम नाम-स्तैय प्रयोग, स्तेय वस्तु आदान, राज्य-विरुद्ध किया, मानोन्मान, पर-रूपक व्यवहार। ये पांचा अतिचार हैं। इनका अर्थ-तहां चोरोका उपदेश देना, चोरकं राह बतावना, पराया घर-मन्दिर फोड़वे
क कुसिया, कुदारी देय, चोरीका मंसूबा बतावना। इत्यादिक चोरीके प्रयोग बतावना, सो स्तेय प्रयोग नाम ।।दोष है। 21 और चोरीको वस्तुक सस्ती जानि, बड़ा नफा देख, मोल लेना। सोयाका नाम तदाहता दान दोष
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है। याहीका नाम स्तेय वस्तु आदान दोष है। २। और राजाकी मर्यादा लोपना, राजाकी आझा, टालना, सो
राज्य-विरुद्ध नाम दोष है। ३। और जहाँ लेनेके तोलादि तो बड़े होंय, और परकौं देनेके पाई, कुड़ा तोला सेर । पंसेरी सो छोटी-हीन राहै। सो याका नाम होनाधिक मानोन्मान नाम अतिचार है।४। और बड़े मोलकी
वस्तुमें, थोड़े मोलको वस्तुकों मिलायके बेचना। सो प्रतिरूपक व्यवहार नाम दोष है। ५। ऐसे इन पांच अतिचार रहित होथ सो अचौर्य नाम अणुव्रत है। इति अचौर्याणुव्रत । ३ । आगे ब्रह्मचाणुव्रत कौं हैं: पाकै छोटो र-त्री, पुत्री की. सी. पहिन व बड़ी स्त्री माता समान है। रोसो दृष्टि तौ पर स्त्रीन पै रहै। और अपनी परणी स्त्रीमें संतोषी, तीव्र राग रहित समता भाव सहित संतान उत्पत्ति निमित्त स्व-स्त्री त रति समय संगम करें। बाकी च्यारी प्रकार चैतन अचेतन स्त्री, विर्षे रागद्वेषका अभाव विकार दृष्टि करि नहीं देखें। तथा पर-स्त्रीनमें काम चेष्टा रूपविकार वचन हाँसि वचन परस्पर प्रेम बधावने हारे निर्लज्ज वचन कुशील-राग करि मरी दृष्टि देखना परस्त्रोन ते गोष्ठीचर्चा वार्ता करनी इत्यादिक परस्त्री संबंधी दोष हैं ! कैसी है पर-स्त्रीकी दृष्टि ? विषनाग समान राग-जहर करि भरी यौवन करि मदोन्मत्त, विकराल स्वरूपको धरनहारी। शीलवान् पुरुषोंकों भयकारी। महा विष नागनी। बालक, वृद्ध, देव. पशु सर्व तीन गतिके जोवनक डसनहारो। बड़ोंकी आज्ञा रूपी मंत्र मर्यादा की लोपनहारी। ऐसी परस्त्रीका त्याग सो ब्रह्माणुव्रत है सो याके पांच अतिचार हैं सोही कहिये हैं। प्रथम नाम परविवाह करन, इत्वरिका गमन, परगृहीतागृहीत गमन, अनंग क्रीड़ा, काम तीव्राभिनिवेश। ये पांच हैं। इनका अर्थ तहां पराया विवाह करावना। बीचिमें पड़ि, सगाई करावना। बीचमें फिरि, लड़का-लड़कीनके नाता मिलाय, साख मिलाय, व्याहके नेग चार करावना। इत्यादिक व्याह के कार्य करावना सी पर-विवाह करण नाम दोष है ।श और दासोक घरमें राखना तात स्त्रीव्यवहारको चेष्टा करनी। सो इत्वरिका-गमन नाम अतिचार है। २। और पर-कर-गृहीत जे स्त्री, जिनका भर्तार जीवता होय तथा पर कर नहीं गृहीत जो विधवा स्त्री-मार रहित तथा कुवारी विवाह रहित इनसे विकार चेष्टा करि तिनके घर गमनागमन करना। सो पर गृहीतागृहीत गमन नाम दोष है। ३1 और | जहां स्त्रोका भोग योग्य योनि स्थान तजि वाह्य अङ्गन से कोड़ा करनी। जैसे श्वानादि पशु भोग-योग-स्थान
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तजि ऊपर ऊपर क्रीड़ा करें। तथा हाथ-पांव अङ्गन तैं क्रिया करि वीर्यका गिराना । इत्यादिक ये अनंग क्रीड़ा दोष है । ४ । और जहां, जिस भोजन तैं, तथा जिन वचनन तैं तथा जिस क्रिया तैं तीव्र कामकी बधवारी होय ---- सो काम तीव्राभिनिवेश दोष है |५| ऐसे ये पांच अतिचार रहित होय, सो ब्रह्मचर्थ्यासुव्रत है । इति ब्रह्मव्रत ॥४॥ आगे परिग्रह परिमाणासुव्रत कहिये है-तहां दस प्रकार परिग्रह तिनका प्रमाण करें। सो तिन दसके नाम क्षेत्र वास्तु, धन, धान्य, चौपद, दोषद, आसन, शयन, कुप्य, और भाण्ड ये दस भेद परिग्रह के हैं । सो तहाँ चौतरफ क्षेत्रका प्रमाण करना। जो येते क्षेत्रनमें कर्म सम्बन्धी क्रिया करनी । यातें अधिक क्षेत्रनमें कर्म सम्बन्धी कार्य करने का त्याग सो क्षेत्र परिमाण है। तथा एते क्षेत्र विषै हल जोति खेती करना अधिक क्षेत्र नहीं जोतना । ऐसा परिमाण करना सो क्षेत्र परिग्रह परिमाण है । २ । और जहाँ दुकान, मन्दिर, नगरका परिमाण मन्दिर राखे । सो वास्तु परिग्रह परिमारा है । २ । स्वर्ण चांदी, रत्न इत्यादिकका प्रमाण करना, जो यता धन राखना सोधन परिग्रहका परिमाण है । ३ । और तहां दुल, गेहूं, अधू, रोठ, मूंग, उड़द, चना, कोदों, बटरा, मसूर, तूअर इत्यादिक अन्नकी संख्याका परिमाण जी ऐते अन्न राखे, सो एतै तौल प्रमारा सो धान्य परिग्रहका परिमाण है। 8 और दासी दास सेवक, दो पदके धारी जीव एते राखना, सो दुपद परिग्रहका परिमाण है । ५ । और हस्तो, घोटक, ऊंट, गाय, भैंस, बकरी, रा चौपद हैं। सो इनका परिमागा करना, जो रातै चौपद अपने आधीन राखूंगा । सो चौपद परिग्रह परिमाण है । ६ । और रथ, गाड़ी, गाड़ा, सिंहासन, पालको, म्याना, इत्यादिक आसन हैं । सो इनका परिमाण राखना । सो आसन परिग्रह परिमाण है । ७। और पलंग, खाट, बिछौना, तकिया इनका परिमाण कर लेना । सो शयन परिग्रह परिमारा है। ८ । और सूत रेशम घास, रोम इत्यादिकके कोमल कठोर वस्त्र तिनका प्रमाण । सो कुप्य नाम परिग्रह परिमारा है तथा केशर, कपूर, अगर, चन्दन, इतर इनकी खुसका परिमारा राती खुसबू राखो सो याका नाम कुप्य परिग्रह परिमाण है । ६ । धातु पात्रके बासन चांदी, स्वर्ण, कांसा, पीतल, तांबा, लोहा, जस्ता, सीसा, रांगा इत्यादि पृथ्वी काय धातु पात्रका परिमाण राखना। जो राते थाल, रकेबी, चरुवा, बैला, भरत्याईं सर्वकी गिनतो तौलका परिमाण राखना। सो भाण्ड नाम परिग्रह परिमाण है । २० । इन दस जाति परिग्रहके
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परिमारा का नाम तौ, प्रशोत्तर श्रावकाचारजी के अनुसार कहा और तत्वार्थसूत्रजो विर्षे क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, | स्वर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, भाण्ड, कुप्प–श दस हैं। सो नाम भेद हैं । अर्थ मैद केवली-गम्य है तथा विशेष
ज्ञानीन के गम्य है। इन दश जाति के परिग्रह का परिमाण करना सो परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। सो याकै पांच अतिचार हैं । सोही कहिये हैं । अति बाहन, अति संग्रह, अति विस्मय, अति लोभ और अति भारारोपसए पांच हैं। इनका सामान्य अर्थ गाड़ा, गाड़ी, रथ, हस्ती, घोड़ा इत्यादिक असवारी जाति के जैसे-दस हजार घोड़ा, दस रथ इत्यादिक परिमाण राखे थे सो वर्तमान काल में आपके पास परिमाण से थोड़ा है। सो ताके | पूर्ण करवे कौ अनेक उपाय करते, ऐसा विचार । जो मेरे तो दसका परिमाण है । सो पांच तौ हैं, अरु पांच और
ल्यौं। तो मेरे व्रतक दोष नाहीं। ऐसा विचार कर पूरण कर या वाहै है। सो बहुत वाहन नाम दोष है तथा अपने परिमाण ते बहुत इकट्ठ करने की इच्छा होय तथा अपने परिमाण तें बहुत वाहन होय। तौ कहै, ए मेरे नाहीं, मेरे पुत्र के हैं तथा स्त्री के हैं तथा भाई के हैं इत्यादिक अपने मन त कल्पना करि, तिनको इकट्ठ करै। सो अनि का नाम दोष है! अपनीयतः उधिनमा सन्तोष छोड़, अत्यन्त लोभ के योग तैं, अपने जेते अन्न की मर्यादा राखी थो, ताही परिमाण अनेक जाति का अन्न संग्रह करि भड़शालामैं बहुत दिन राखै । तिनमें अनेक जीव पड़ चलें सो तिनकौं देख के, निर्दय-भावना करि ऐसा विचारै। जो मेरे एतै अन्न की मर्यादा है। कोई मर्यादा कं उल्लंधि करि थोड़े हो गया है अरु जीव पड़े सो ही पड़ें। अन्न है। ऐसी कहां सधै ? व्यापार है। नहीं करिये. तो बने नाहीं। ऐसी विचार करि कठोर भाव राख दया नहीं करै। सो बहुत संग्रह नाम दोष है।२१ कठारखाने की दुकान सम्बन्धी किराना, धना, जीरा, हल्दी आदि अनेक वस्तु लेनी-बेचनी। तिनमें सामान्य विशेष लाभादि नहीं जान, परिणामन में खेद करना, संक्लेशता रखनी तथा पहिले तो लाभ जानि वस्तु ल्यावना। पीधे लाभ नहीं मासै तब बहु तृष्णा करि बेचना तथा अपनी मर्यादा ते अधिक भाई जान ताके फेरवे कौ विसम्वाद करना, सो विस्मय नाम दोष है।३। और जहां वाणिज्य के निमित्त अनेक वस्तु संग्रह करना, लेना पोछे बैंचना तब अल्प मोल की वस्त में मिलाय बैंचना, सो अति लोभ नाम दोष है।४। और तहाँ वृभष भैंस, खर, हिम्माल, इनके ऊपर मर्यादा के उपरान्त भार का धरना। जैसे-भाड़ा तो तिनके भार को मर्यादा
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प्रमाण मनुष्य से किया। अरु पीछे राजा के कर के भय से चुराय, ताके ऊपर बड़ा भार धरना यथा नफा के लोभ ते पर-जीवन पै मर्यादाकौं उल्लंघि, मार का धरना, सो अति भारारोपण दोष है । ५। ऐसे कहे जो पांच अतिचार बचावै, तो परिग्रह प्रमाण का व्रत, शुद्ध होय है ! इति पांच अणुव्रत के, पच्चीस अतिचार कथन। आगे तीन गुराव्रत के नाम व अतिचार कहिये है। प्रथम नाम-दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्ड त्याग व्रत। इनका अर्थ-तहां पूर्व दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा, दक्षिण दिशा जोर पूर्व-दक्षिण के बीचि जाग्नेय कोण विदिशा है और दक्षिण-पश्चिम के बीच में नैऋत्य विदिशा है। पश्चिम-उत्तर के बीचि में वायव्य कोण है। उत्तर-पूर्व के बीचि में ईशान कोण है। ये च्यारि विदिशा हैं तथा ऊर्व दिशा और अधो दिशा। ऐसो इन दशों दिशाओं का परिमाण करना तथा दिशा-विदिशा विर्षे रोसी प्रतिज्ञा करनी। जो फलानी दिशा-विदिशाक, फलानी नदी ताई तथा फलाने पर्वत ताईं. फलाने देश ताई, फलाने नगर ताई, एती मर्यादा में कर्म-कार्य करूँगा । एती ही दूर ताई, पत्र लिखूगा। रातो ही दूर का पत्र आय तो बाचूंगा। रोती ही मर्यादा में वस्तु भेजूंगा। रोती ही मर्यादा तें मँगाऊँगा। इस मर्यादा को उल्लंघकै पत्र नहीं लिवंगा और उर्व दिशा में एते ऊँचे पर्वत ताई चढूगा और अधो दिशा में राती नीची धरा ताई पाताल में नदी-कुएँ में जाऊँगा। ऐसे दी दिशा का प्रमाण करें। सो दिव्रत है। थाके पांच अतिचार सो हो कहिये हैं। अधोतिक्रम, ऊर्ध्व अतिक्रम, तिर्यग्गमन अतिक्रम, क्षेत्र परिमाण उल्लंघन और अन्तर स्मरण। अब इनका अर्थ-अपनी मर्यादा कं उल्लंधि के धरती, कूप, बावड़ी, नदी इत्यादिक पृथ्वी में उतरना। सो अधो दिशातिक्रम नाम अतिचार है। । और जहाँ पर्वत-शिखरन 4, अपनी मर्यादा उल्लंघ के चढ़ना, सो ऊर्ध्व दिशातिकम अतिचार है। २। मर्यादा उल्लंघि के, विदिशा में गमन करना सो तिर्यगमन अतिक्रम अतिचार है। ३. जिन क्षेत्रन मैं मर्यादा की थी सो तिसकौं उल्लंघि, अधिक क्षेत्र में कर्मकार्य करना, सो क्षेत्र उल्लंघन अतिचार है। ४ । और जहां दिशा में सीमा की थी। ताकू अन्तरङ्ग में भूल कर विचारना, जो मेरे कौन-सी दिशा की मर्यादा थी? ऐसे करि मर्यादा थी? ऐसे करि मर्यादा का भलना, सो अन्तर-स्मरण नाम दोष है। शरीसे अतिचार रहित दिग्वत का पालना, सो दिग्द्रत है।३। आगे दुसरा देशव्रत कहिये है। तहां आगे कह्या दिग्द्रत-परिमाण, ताही मैं घटाय के मर्यादा करना। जो पहिले दिग्द्रत किया, सौ
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आयु पर्यन्त है और तिस व्रत में घटाय, रोज-रोज की मर्यादा करनी तथा वर्ष, षट मास, चतुर्मास, एक मास, पन्द्रह दिन, पहर, घड़ी का नियम करना। जो राते काल, राते दिन, एते मास ताईं, एते भोग-उपभोग राखे। भोग वस्तु में रातै अन्न, एते मेवा, सावने; अधिक नाहों। ऊपर-उपभोग में राते वस्त्र, गाड़ी, रथ, घोड़ा, हस्ती, महल, बिछौना, स्त्री एते-एते राखे। सो भोगना अधिक नाहीं। एते क्षेत्र में कोस, दश-पांच धनुष, जाऊँगा। ये क्षेत्र में राते काल ताई रहूँगा इत्यादिक नियम रूप मर्यादा सो देशवत है । याही के पांच अतिचार हैं, सो कहिये हैं। प्रथम नाम--आसन-शयन, पर-प्रेक्षण, शब्द, रूप और पुद्गल-क्षेपण—ये पांच हैं। इनका अर्थ-जहाँ जेते स्थान का परिमारा करि, जेते काल पर्यन्त दृढ़ होय तिष्ठना, शयन करना, बैठना। इतनी मर्यादा में रोसे रहना । ऐसे मर्यादा करि, फेरि ताके काल-क्षेत्र का उल्लंधि के क्रिया करनी, सो आसन-शयन अतिचार है । जेते क्षेत्र में काल की मर्यादा करी। तामें तिष्टया ही और के पास संज्ञा, उपदेश देय कार्य करावना, सो पर-प्रेक्षण अतिचार है। २। आप अपनी सीमा-मर्यादा में बैठा ही और कों बुलाय कार्य करावै तथा अन्य कं दूर बैठे तें बतावै तथा अन्य कोई कार्यवार ने आय कही कि फलाने जी कहां हैं ? तब अपने स्थान में तिष्टया हो, खखार करि तथा खाँ सि कर, अपना अस्तित्व बतावै, जो हम यहां हैं ताका नाम शब्द दोष है । ३ ! आप तो अपने स्थान में तिष्ठै है और कोई प्रयोजनहारा आवै। अरु कहै, फलाना कहां है? तब वाका शब्द सुनि प्रयोजनी जान, गोखते, खिड़की से अपना मुख काढ़ि ताकी बतावै। ताकों संज्ञा करि, कार्य सिद्ध करै, सो रूप नाम अतिचार है। 8 । अपने परिमाण क्षेत्र में तिष्ठता कोई कार्य काहू ते जानि वातै बोल्या तो नाहीं परन्तु कंकर वस्त्रादि पुदगल-स्कन्ध डार अपना कार्य सिद्ध करना सो पुद्गल-क्षेप नाम दोष है। ५। ऐसे पांच अतिचार नाही लागैं, सो शुद्ध देशवत है ।
इति देशव्रत । २ । प्रागै अनर्थदण्ड त्याग व्रत का कथन करिये हैं-तहां बिना प्रयोजन पाप कार्य करना, | सो अनर्थदण्ड है। ताके पांच भेद हैं। प्रथम-पापोपदेश, हिंसा का उपकरण राखना ( हिंसा-दान)।
अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमाद-चर्या । इनका अर्थ-जहां पाप का उपदेश, पर कौ देना । जो आओ, बैठो। कहा करो हो? चौपड़, सतरज, गंजफा, मूठ आदि इत खेलो। ज्यों दिन कटै। ऐसा उपदेश देना, सो
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अनर्थदण्ड है तथा चोरी करने का मंसूबा करना। चोरन की चतराई की प्रशंसा करनी। चोरो का उपदेश | देना। कुशील-सेवन की कथा करनी। कुशील-सेवन के कारण धातु आदि कामोद्दीपन प्रोषध को कथा करनी ये सब अनर्थदण्ड है। वेश्या-कञ्चनी के रूप की कथा। तिनके नाच, गान, नृत्य इनकी कथा सो अनर्थदण्ड है तथा जात परिग्रह वध, ताका उपदेश देना। मोह वध, क्रोध वधै, मान-माया-लोभ वध, मत्सर वधै इत्यादिक दोष वर्धे, ऐसा उपदेश देना तथा भमि खोदने का उपदेश देना। बहूत अग्नि जलावने का उपदेश तथा पराये घर-नगर-वन में अग्नि लगायने का उपदेश देना। ये अनर्थदण्ड है। भूमि-खुदाय स्खेती करने का उपदेश देना तथा नदी, तालाब, बावड़ी, कूप का जल बहावने, फोड़ने का उपदेश देना। वस्त्र धुलवाने का उपदेश। कूप, तालाब, बावड़ी, महल, मन्दिर, बनवाने का उपदेश देना। परस्पर औरन के युद्ध करायवे का उपदेश । ये सर्व अनर्थदण्ड हैं तथा नदी, तालाब, बावड़ी में कूदने-सपरने का उपदेश तथा बहुत वृक्ष, वनस्पति छेदने का उपदेश। वन कटायने का उपदेश, बाग कटायने का उपदेश, घास कटायने का उपदेश । अन्न, तिल, शहद, सन, हाड़ का संग्रह-भण्डशाल करने का उपदेश । ये सर्व अनर्थदण्ड है तथा धर्म-घात का उपदेश देना। जो हे भाई! धर्म तौ तब याद प्रावै, जब पेट-भर रोटी मिले। तातें बड़ा धर्म ये ही है। जासे दोय पैसा पैदा होंय, सो करौ। धर्म-सेवन में कहा खावोगै? ऐसा धर्म-घातक उपदेश, सो अनर्थदण्ड है तथा कोई तीर्थ यात्रा कों जाता होय । ताकौं रोसा उपदेश देना जो है भाई! अभी तो कमाई के दिन हैं। तोकों दोय-च्यारि महीना परदेश में लगें। पांच-पचास रुपया खर्च पड़ें। रोसे तीर्थ में कहा पाय है? तातें घर ही तीर्थ है। तेरे भाव अच्छे राख । इत्यादिक उपदेश देना। सो अनर्थदण्ड है तथा त सब दिन धर्म-सेवन, पढ़ना-सीखना, जप, तप इत्यादिक धर्म विर्ष लगाद है, घर का सोच नाहीं । सो खायगा कहा ? आगे घर का काम कैसे चलेगा? तात कमाई में लागो। इत्यादिक धर्म-घातक उपदेश देना, सो अनर्थदण्ड है। सो याका नाम पापीपदेश है।। और हिंसा का उपदेश देय, हिंसा के उपकरण करावना। वक्की, ऊसली, मूसली घुरो, कटारी, बी तलवार तुबक, कुल्हाड़ी, कुदारी, कुसिया, हंसिया-इन आदि को बनवायकर, मांगे देना इत्यादिक पाप कार्य करना, कराकना, अनुमोदना । सो हिंसा दान नाम, अनर्थदण्ड है। २। और जहाँ खोटे पापकारी व्यापार का उपदेश देना। आप दीर्घ हिंसा
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सहित व्यापार का करना तथा परकौं ताका उपदेश देना तथा परकौं पाप व्यापार वाणिज्य का उपाय बतावे कहै कि शीशा, शोरा. शहद, नील, अदरख – इनका वणिज करने मैं, बड़ा नफा है। सन, साजी, लूरा (नमक), चर्म - इनके व्यापार में विशेष नफा है इत्यादिक पाप-व्यापार का उपदेश देना, सो अपध्यान नाम अर्थदण्ड है | ३| हां स्वेच्छया - अर्थात् कल्पना करि कामी जीवनको विकार-भाव करिवेकूं, कवीश्वरों बनाये जो श्रृङ्गार शास्त्र, जो राग- मालादि रसिक प्रिय सुन्दर श्रृङ्गार इत्यादिक शास्त्र, जिनको सुनि भोले मोही जीव अपने भाव काम-चेष्टा रूप करि, पर-स्त्री आदि भोगने की अभिलाषा करि, पाप बन्ध करें । जिन शास्त्रन में पर- स्त्री सेवने में पाप नहीं कह्या विधवा स्त्री को घर में रख, उससे काम सेवन में पाय नहीं कह्या होय इत्यादिक कामी जीवन कूं मोह उपजायवे कू, अपने-अपने विकार भाव पांषिवकू, जे शास्त्र का कथन करना, सी अनर्थदण्ड है। लोभी कवीश्वरों ने अभक्ष्य भोजन में पाप न कह्या । मद्य-मांस के खावने के अभिलाषी जीव, तिनके राजी करवैकूं बनाये जो कल्पित अपनी मति अनुसार शास्त्र तिनमें हिंसा का पाप नहीं । मद्य, मांस, मधु खावने का पाप नहीं कह्या होय, सो कुशास्त्र अनर्थदण्ड है । जिनमें नाहर, सुअर, हिरण मारने का पाप नहीं कला, वनस्पति छेदने में पाप नहीं कह्या । अनगालै जल पोवने, सपरने में पाप नहीं कहा। ऐसे जो कषायो जीवन के बनाये कल्पित शास्त्र, परम्पराय योगीश्वरों की आम्रा रहित कल्पित शास्त्र करें, सो अनर्थदण्ड है। जिनमें जादू करना, वशी करना, पर-मोहन, ऐसे कल्पित मन्त्र, यन्त्र तन्त्र, स्तम्भन इत्यादिक चमत्कार बतावने का कथन करि, भोरे जीवन कूं आश्चर्य उपजावना | ऐसे कल्पित स्वेच्छा शास्त्र का जोड़ना, सो दुःश्रुति नाम अनर्थदण्ड है । ४ । प्रमाद सहित. ईर्ष्या-भाव सहित, शीघ्र - शीघ्र चलना । त्रस जीवन को विराधना सहित अदया भाव करि चलना । बिना प्रयोजन पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति आदि का छेदना । इसी का नाम प्रमाद-वय्यां अनर्थदण्ड है । ५ । ऐसे इन पांच मेदमयी अनर्थदण्ड है, सो याके पांच अतिचार हैं। सो हो कहिये हैं। प्रथम नाम — कन्दर्प, कौरकुच्य, मौर्य, अति प्रसाधन और असमीक्ष्याधिकरण । इनका अर्थ --तहां काम चेष्टा सहित, काय का स्फुरावना । नेत्र की चेष्टा, विकार रूप करनी। मुख, विकार रूप करना । काम पोषक, शील भञ्जक,
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भयानक, राग भरे वचन कहना, भय बतावना, पर को लोभ बतावना, काय मोड़ना आदि अनेक कुचेष्टायें लिये, काम-विकार सहित बोलना, सो कन्दप नाम अतिचार है।। जहां कौतुक लिये मदोन्मत्त भया, हाँसि सहित भण्ड-वचन बोलना। गालि कादिनमयी हाँसि वचन, शील खण्ड पाप रूप वचन, काम-चेष्टाविकारमयी आलस का लेना, दीर्घ उच्छवास का करना। अपने शरीर के गढ़ चिह्न प्रगट करि, अन्य कौं दिखावना, सो कौत्कुच्य नाम अनर्थदण्ड दोष है। २ । जहाँ प्रयोजन रहित वृथा वचन भाण्डवत बोलना, सो धर्म-कर्म रहित बिता प्रयोजन ही सप्तको नाई वचन बोलना, सो मौखर्य नाम दोष है।३। जहां हिताहितज्ञान रहित, अविचार सहित, मुर्ख वचन भाखना ताकौं सनि, वे प्रयोजन बहुत जीव द्वेष भाव करें। मुरस्त्र कहैं, निन्दा पावे इत्यादिक द्वेष उपजावनहारा, बिना प्रयोजन वचन बोलना, सो असमीक्ष्याधिकरण दोष है।४। जहाँ संसार विर्षे अनेक भोग वस्तु, अनेक उपभोग योग्य वस्तु, नाना प्रकार इन्द्रिय सुस्त । देव, इन्द्र, चक्री, कामदेव, भोगभूमियों इत्यादिक पुण्याधिकारी जीवन के भोग योग्य वस्त, तिनके भोगने की अभिलाषा करनी, सो पुण्य तौ होन, जो उदर पूरणा ही होती नाहीं। इन्द्रिय सुख भोगने की इच्छा-देव-इन्द्र की-सी राखना तथा पराया राज्य-भोग देख, पुण्य-रहित ऐसा विचारै। जो ये राज्य नहीं करि जाने। अरु राज्य-लक्ष्मी नहीं भोग जाने। अरु ये हस्ती, घोड़ा, पालकी पै नहीं चढ़ जाने। प्रजा नहीं पाल जाने। जो रोसी राज्य-लक्ष्मी मोकों मिले, तो मैं ऐसे राज्य करौं। रोसे हस्तो, घोटक, रथ, पालकी पर चढ़ों। ऐसे राज्य-लक्ष्मी भोग इत्यादिक पुण्य रहित होय, अर्थ रहित विचार, सो भोगोपभोग (अति प्रसाधन) नाम दोष है। ५। इति तीसरा अनर्थदण्ड त्याग गुणव्रत ।२। | इति श्री मुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में थावक धर्म प्ररूपण साप, एकादश प्रतिमा विर्षे, दूसरी त प्रतिमा के
बारह व्रतन में, तीन गुणत अतिचार सहित कथन वर्णन करनेवाला तेतीसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥ ३३ ॥
आगे च्यारि शिक्षाव्रत कहिये है। प्रथम नाम–सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिणाम और अतिथि संविभाग। इनका अर्थ-सामायिक के दोय भेद हैं। एक द्रव्य-सामायिक और दूसरा भाव-सामायिक । तहाँ सामायिक करते विनय सहित, समता लिये,शान्त मुद्रा धार, कायोत्सर्ग तथा पद्मासन तिष्ठ, शुद्ध सामायिक-पाठ
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कर है। अरु परिणति सामायिक रौं छुटि, अन्त गई होय प्रमादवशात् अन्य ही विकल्प में लागै, सो । द्रव्य-सामायिक है। जो सामायिक करनेहारा भव्य, शुद्धासन करि पाठ करें। सो अर्थ विर्ष चित्त राखि, । सामायिक करै, सो भाव-सामायिक है। यहां प्रश्न—जो सामायिक प्रतिमा तो तीसरी है। बरु यहो दूसरी || प्रतिमा विर्षे व्याख्यान किया। सो क्यों? ताका समाधान-जो सामायिक प्रतिज्ञा का अतिचार रहित धारी तौ तीसरी प्रतिमा में है। परन्तु यहां शिक्षाव्रत में कथन किया, सो साधन रूप कथन है। जैसे—रस विर्षे लड़ने-युद्ध करनहारे पुरुष, सुभट हैं; सो तीर, गोली, तलवार राखें हैं। जो युद्ध में काम पड़े, तौ सुभट अपना पौरुष प्रगट करि, तीर-गोली चलावें। वैरीन कों जीते हैं। सो तौ सुभट शूर ही हैं और उन सुमटों के बालक हैं, सो तिनका भी अभिप्राय अपने बड़ों की नाई युद्ध करि, रण में अस्त्र चलाय, वैरी जीति, यश प्रगट करवे रूप है। सो वह भी अपने बड़ों से शस्त्र-विद्या सीखें हैं। सो ते बालक भी तीर-गोली राख, चलावें हैं। सो इन बालकन कौं, सीखनेहारा कहिये। इन तैं हाल, युद्ध नहीं जीत्या जाय। ये सुभट नाहीं। जब शस्त्र-विद्या सोस्न चुकेंगे तबही सभट कहावेंगे। हाल हास्न र तीन गोली को गिरी के तौसदान में चलावना सीखें हैं। तैसे ही शिक्षाप्रतवाला सामायिक करना सीखे है। सामायिक नामा प्रतिमाधारी नाहीं। यहां कोई अतिचार भी लागै तथा कोई समयान्तर, काल भी उल्लंघन होय. तो होय। कोई अतिचार भी यहां होय । तातै यहाँ शिताव्रत ऐसा कहा है। ये शिक्षाप्रतवाला, अतिचार रूप वैरी को जीति नहीं सके है। | तीसरी प्रतिमा विर्षे, निर्दोष व्रती होय है। ऐसा जानना। इति सामायिक शिक्षाव्रत।। आगे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहिये है। जहाँ सोलह-सोलह पहर का अनशन होय। सर्व काल धमध्यान में अपनी मर्यादा सहित एक स्थान में व्यतीत करें। सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है। इनके अतिचारन का कथन भागे इनकी प्रतिमा वि करेंगे। तहाँ त जानना। इति प्रोषधोपवास। २। आगे भौगोपभोग परिमारण शिक्षाक्त कहिये है। जहाँ एक बार भोगने में आये ही, जो वस्तु अयोग्य हो जाय सो वस्तु, भोग कहावै और जो बार-बार भौगने । में आवे, सो वस्तु उपभोग कहावै है। तहां भोग वस्तु के दोय भेद हैं-एक तो भोग-योग्य वस्तु है। दूसरी भोग-अयोग्य वस्तु है। जहाँ अत्र, मेवा, पकवान् इत्यादिक निर्दोष वस्तु सो तो भोग वस्तु हैं तथा मिष्ट,
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तिक्त, कटुक, खारा, दुग्ध, घृतादिक, षटूरस-ये मोग-योग्य वस्तु हैं तथा चन्दन, केशर, कपूर, गन्धादिक अन्तर्जाति सर्व वस्तु। खाद्य, स्वाद्य, लय, पेय इत्यादिक ये सब मोग-योग्य वस्तु जानना और कन्द-मूल आदि बाईस जमक्ष्य, अभोग-योग्य वस्तु हैं, सो ये सब तजने योग्य जानना। ऐसे भोग वस्तु दोय रूप कहीं और स्त्री, वस्त्र, आभषण, चाँदी, स्वर्ग, स्त्र, माणिक, मोती, हीरादि रत्न जाति और देश, नगर, मन्दिर, हस्तीघोटकादि, चौपद तथा दोपद-दासी, दास, सेवक। ऐसे ये चेतन-अचेतन करि दोय मैद रूप उपभोग वस्तु हैं। सो इन भोगोपभोग का प्रमाण राख लेना, सो भोगोपभोग परिमारा शिक्षाव्रत है। सो याक पांच अतिचार कहिये हैं। प्रथम नाम–सचित्त, सचित्तसम्बन्ध, सम्मिश्र, अभिषव और दुःपक्वाहार। इनका अर्थ-तहां सचित्त वस्तु का भोगना, सो सचित्त नाम अतिचार है।। तहां सचित्त ते ढांकी जो वस्तु तथा सचित्त वस्तु उपर बरी होय इत्यादिक वस्तु को सचित्त का संयोग भया होय, सो सचित्त-संयोग है ।२। और सचित्ताचित्त वस्तु का मिलाप सहित भोजन लेना, सो सम्मिश्र अतिचार है । ३। और तहां अनेक प्रकार बलकारी-पुष्टकारी रस का खावना, सो अभिषक नाम अतिचार है। ४ । और जो भोजन, लिये पीछे दुःख कर पचे, ग्लानि करै, डकार करै, सो ऐसे गरिष्ठ भोजन करना, दुःपक्वाहार अतिचार है।५। ऐसे पांच अतिचार रहित होय, सो शुद्ध मोगोपभोग परिमारा नाम शिक्षावत है। सो ये व्रत के थारो जो उत्तम फल के लोभी हैं; सो इन दोषों को टालि, व्रत निर्दोष राखें हैं। इति तीसरा भौगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत । २। आगे अतिथिसंविभाग नाम शिक्षाव्रत कहिये है। तहां तिथि नाम परिग्रह का है। सो जो परिग्रह रहित होय, सो अतिथि है तथा तिथि नाम वच्छिा का है। सो जाके वांच्छा नहीं होय, सो अतिथि है। "मर्दा परिग्रहः"। ऐसा तत्त्वार्थसूत्र का वचन है सो अतिथि के दोय भेद हैं—राक अतिथि तो ऐसा है कि पाप के उदय करि नहीं है अन्न-धन-वस्त्र जाके पास । उदर-पूरण को पर-घर फिरै है, याचे है। तो भी ताके उदर-मात्र
की वाच्छा पूर्ण नहीं हो है। ऐसा महादीन, दरिद्री, अनेक रोगन करि दुःखिया, वृद्ध, बालक, जन्धा, । लूला इत्यादिक ये असहाय, जिनके पास एक वक्त का अन्न नहीं। कोई दया करि देय तब, पेट भरें,
सुखी होय । याका नाम वांछा सहित अतिथि है 1 यह अशरण है, दया करने योग्य है । याका
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नाम वांच्या सहित अतिथि है। अस वाच्छा है, सो याचना कराव है। रोसो याचना का धारी, वांच्छा सहित रंक,
ताको असहाय जानि, दया भाव करि दानका देना। सो करुणा सहित अतिथि का दान है। और वीतरागी, सु-तपसी, ज्ञानी, ध्यानी, यमी, दमी, शान्ति रसका भोगो नन दिगम्बर, याचना रहित, जगत् पिता, सर्वका गुरु,
त्रिलाक पूज्य, सब जावका पोड़ा-हर, दया सागर, षट्कायिक जीवनकू अभय-दान का दाता, योगीवर, मोक्षाभिलाषी, परोषह सहने कंसाहसी, तन-ममत्व रहित, इत्यादिक कहे गुण सहित जे मुनीश्वर, सो उत्तम पात्र हैं। सो इन पात्रन कू महा भक्ति-भाव सहित, नवधा भक्ति करि दान देनेहारा दाता. ताके सात गुण हैं। सो हो कहिये हैगाथा-सध्धा भत्ति सत्तह, विणाण मलुब्ध होय वम भावो । जम्मं गुण सुह तज्यो, इव सत्तय गुण जय आदाए ॥ १३॥
अर्थ-सध्धा कहिये, श्रद्धा। भत्ति कहिये, भक्ति सत्तय कहिये शक्ति। विशारा कहिये विज्ञान । अलुब्ध कहिये, अलुब्धता। होय चम भावो कहिये, क्षमा भाव होय । जम्म गुण सुह तज्यो कहिये, अंतका शुभ-गुस, त्याग है। इव सत्तय गुण कहिये, ये सात गुण । ज्ञेय आदार कहिये. दाताके हैं। भावार्थ-श्रद्धा, भक्ति, शक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और त्याग--ये सात हैं। जहां दाताके रोसा श्रद्धान होय । जो परलोक है। च्यारि गति है। पाप-फल तैं नरक-पशु होय है। पुण्य-फल ते सुर-नरके सुख होय हैं । अरु मुनि का दान, स्वर्ग-मोक्षका दाता है। जिनका संसार रह्या होय. तिनके घर यतीश्वरका दान होय है। ऐसो श्रद्धाका अस्तित्व सहित दान देना सो श्रद्धा गुरा है।। और जो मुनिराज, भोजनकों अपने घरमें आये। तिनके गुण सूं प्रीति-भाव करना। सो भक्ति गुण है। २। और जगतके गुरुकौं, प्रमाद रहित विनय सहित, भोजन देव की शक्ति होना सो शक्ति गुण है।३। और मुनिराजके भोजन वि प्रवीणता। सो यथा-योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जानि, भोजन देय।। विवेकी-दाता ऐसा विचारै। जो ये मुनि वृद्ध हैं, तो इनके योग्य पुष्टता रहित भोजन देय । अरु गरिष्ठ देय तौ वृद्ध-मुनि कौं खेद करै। तातै वृद्धकी वय ( उमर )प्रमाण देय । तथा मुनिराज तरुण हैं तो ता माफिक देय । तथा ये मुनि, रोग सहित हैं। सो फलाना सेंग है । वैसी ही दवा सहित, भोजन देय । तथा इन यतिका तन, वायु सहित है। तथा पित्त सहित है। तथा कफ सहित है। इत्यादिक तौ द्रव्यको विद्यार। और ऐसा जाने, जो यह
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ऋतु उष्ण है। तथा शीत है। तथा मध्यम है। इन मुनिकी ऐसी प्रकृति है। इन्हें ऐसा भोजन रुचे, ऐसा नहीं रु। ऐसा द्रव्य, क्षेत्र, काल भावका विचार करि, मुनीश्वरकों भोजन देने में प्रवीणता 1 सारो दान की विधि जाने सो विज्ञान गुण है।४। और मुनिके दान देने योग्य वस्तुनमें लोलुपी नहीं होना। जैसे घर विषै एक-दोय भोजन, अपने रुचिकर बनवाये होंय । ऐसी वस्तु अल्प होय। तो ऐसा नहीं विचार, जो भोजनकी फलानी वस्तु अल्प भई है, हमने अपने वास्तै कराई है। सो मुनीश्वर की देहौं, तो मोकौं नाहीं बचि है । तातै वह वस्तु
नहीं द्यों। और भोजन बहत है सोदै हों। ऐसा विचार नहीं कर सो अलब्ध गुण है। ५! मुनिको भोजन || देते. मान मत्सर क्रोध लोभ करता सर्व तजि, समता भाव सहित, सर्व जीवन ते स्नेह भाव सहित, क्षमा भाव
धारि, भोजन देना । सो क्षमा गुण है।६। उदारता सहित. लोभ भाव रहित. भक्ति करि भरचा, मुनि को भोजन देश। सोयाश!!७! ऐसे कहे जो दातारके सात गुण, सो इन गुण सहित जो यती कुं दान देय, सो उत्तम फल पावें । सो जो इन सात गुण का धारी दाता, यतीश्वर को दान देय, सो नवधा भक्ति करि दान देय हैगाथा-पितगहणं, उचयाण, पदधोणमर्चएव होह पणणामो। मन वय तण अण सुद्धा, एषण सुध्यय भक्त गव सुहदा ॥१३९ ॥
अर्थ-पितगहणं कहिये, प्रतिग्रहण । उचथाणे कहि, ऊंच स्थान। पदधोरां कहिये, पद धोवना। अर्च एव कहिये, अर्चन करना । होहु पशगामी कहिये, प्रणाम करना। मण वय तरा श्रण सुद्धा कहिये, मन, वचन, काय इन तीनोंकी शुद्धता। एषण सुध्यय कहिये, एषणा शुद्धि। भक्त राव सुहदा कहिये, ये नवधा भक्ति सुखदाता हैं। भावार्थ-प्रतिग्रहण, ऊंच स्थान अध्रि-प्रक्षालन, अर्चन प्रणाम, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, और राषरणा शुद्धि। ये नव भक्ति हैं। तहाँ श्रावक, मुनि-भोजन समय, उज्ज्वल वस्त्र धारण करि प्रासुक जलको झारी सहित अपने मन्दिर (घर) के द्वारे, विधि सहित खड़ा होय मुनि आए, उनको पड़गाहना। सो प्रतिग्रहरा नाम भक्ति है। २। जब योगीश्वर ईO समिति करता दातारकी घरभूमि पवित्र करता दाताक थर विर्षे प्रवेश करि भोजनशाला में जाय। तहां ऊंचे आसन 4 विनय सहित स्थापना। सो ऊंचस्थान नाम भक्ति है। तहां मुनिराजके दोऊ चरण-क्रमल कौं, श्रावक अपने दोऊ हाथन ते स्पर्श करि अपने हस्त ते साफ करता, सासक अल्पजल तें पद धौवना सो पद धोवन नाम (अन्ध्रि प्रक्षालन) भक्ति है। ३। और पोधे अष्ट द्रव्य हैं,
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जगत्गुरुकी पूजा करनी सो अर्चन भक्ति है।४। और पीछे विनय सहित नमस्कार करना सो प्रणाम भक्ति है।५। और मन को, भक्ति सहित, विनय रूप करि, मुनीश्वर में मन लगावना। उत्साह सहित, प्रमाद रहित विकल्प तजि, एकाग्र होय मुनिके दानमें मन राखना सोपा हुद्धि भनि ।६। और पान गुनीशाके भोला । समय, घर-जन तें वचन बोलना-कोई कारण पायके सलाह करनी होय तौ परम्पराय विचार के बोले सो वचन । शुद्धि है । ७ । और मुनि को भोजन देते समय दाता अपनी काय कौं शुद्ध राखै। और क्रियान ते छुड़ाय,
भोजन देनेमें एकाग्न करि शुद्ध राखना सो काय शुद्धि भक्ति है।९। और शुद्ध भोजन, अधः-कर्म रहित सो शुद्ध भोजन है। सो अधः-कर्म कहा ? सो कहिये है । अधः-कर्म चार प्रकार है-आरम्भ, उपद्रव्य, विद्रावण और परतापन । इनका अर्थ-जो प्राणीके प्राण घाततै निपजें। सो पारम्भ दोष है।। और अन्यजीवनकौं मनवचन काय विर्षे दुखी करि भोजन बनावना। सो उपद्रव्य दोष है। 21 और अन्यजीवनके बङ्गोपाङ्ग छेदन करि भोजन निपज्या होय। सो विद्रावरा दोष है।३। पर-जीवन को सन्ताप-क्लेश उपजाय, भोजन निपज्या होय सो परतापन दोष है 18। इन च्यारि दोषों सहित भोजन देय सो अधः-कर्म दोष है ऐसे च्यारि भेद अधः-कर्म रहित भोजन देना सो राषरणा शुद्धि भक्ति है।६। ये नवधा भक्ति कहीं सो दाताके सात गुण, नवधा भक्ति इन गुरा सहित मुनीश्वर को भोजन देना सो पात्र दान है सो श्रावकके घरमैं,जो श्रावकने अपने निमित्त किया होय, तामें तें भोजन देना सो अतिथि संविभाग व्रत है । सो यति अतिथि हैं, वे भक्ति सहित, दान देने योग्य हैं। भक्ति सहित पावन कौं दान दिये, महत-फलका लाभ होय है सो इन पानन कुं अन्नदान, ओषधिदान, शास्त्रदान, और अभयदान दीजिये। यहां प्रश्न-जो तुमने मुनि कौं च्यारि ही दान देने योग्य कहे। सो अभयदान कैसे सम्भवे ? अभय-दान तौ दया मयी भावन ते दिया जाय है सो दया एकेन्द्रिय, विकलैन्द्रिय, इन आदि दीन-दुखी जीवनकी कीजिये। तिनकों अभयदान सम्भव है। अरु जगत गुरु, त्रिलोक पूज्यको दया कैसे सम्भवै ? ताते इनको अभय-दान कैसे कह्या ? ताका समाधान-जैसे कोई राजाके प्रबल वरो थे सो कोईक छल करि, राजाको अकेला पाय, ताकौ पकड़िक मारनेका उद्यम किया। तब ऐसे समय विर्षे, इस राजाका सेवक-महा योद्धा, आय गया सो वानें अपने नाथ की दुःख जान, वैरीन ते युद्ध किया। अपने पुरुषार्थ हैं।
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। औरन की जोति, अपना नाथ-राजा, ताकौ बचाय लाया। पीछे राजाकों सुखी कर, नमस्कार किया। विनित ।
करी कि मी नाथ ! मैं आपका सेवक हों। ऐसे ही अपने नाथ वीतरागी जो गुरु, तन से निष्प्रिय, शत्रुमित्रमें समभावरी, ऐसे गुरुनाथ की पापोजन, कोई प्रबल द्वेष-भावतें उपसर्ग करें। ता समय महाघोर उपसर्ग मैं कोई महाधर्मात्मा, यतिनाथ का सेवक आय, अपने बल त पापोजनकौं दण्ड देय, मुनीश्वर का उपसर्ग टालि, पीछे जाय यतीश्वरको नमस्कार करि, स्तुति करि, विनति करै, सो यह मुनि कौं अभयदान भया। ऐसे कहने में कछु दोष नाहीं। तातै मुनि को चारों ही दान सम्भवै। यामैं कछु दोष नाही। एता विशेष है कि जो दीनकों अभयदान देने में तौ करुणा-भाव होय है। मुनि की जमयदान देने में भक्ति-भाव होय है। इन च्यारि दानन में अभयदान उत्कृष्ट है। अरु याका फल भी औरन तै उत्कृष्ट है। जैसे-राजा की और अनेक सेवा करने से, राजाको मरते राखें, सो उत्कृष्ट सेवा है। मरण समय सहाय करि, वैरी से बचाय करि राखे, सो उत्कृष्ट सेवक है। यों हो उत्कृष्ट सेवा का उत्कृष्ट फल है तैसे ही मुनिको तीन दान तें, उपसर्ग से बचायने का महान् पुण्य है। ताते च्या दान यति कौ कहे हैं। इस नय प्रमाण करि समझ लेना कोई नय, शास्त्र बड़ा दान है, सो शास्त्रदान तैं, जिनवाणो का अभ्यास करि, केवलज्ञान पावै हैं। इस नय ते शास्त्र-दान बड़ा है। कोई नयतें अन्न-दान बड़ा है। जहां रोग को बधवारो भये, यति-श्रावकनको ध्यान में स्थिरता नाहीं होय । रोग गये ध्यानध्येय की प्राप्ति होय है। इस नय ते औषधि-दान बड़ा है और जो क्षुधा दिन-प्रति खेद करै, तब शिथिल होय । भोजन बिना तन क्षोण होय । धर्म-ध्यान नाही सधै । तातै तन को स्थिरता तें, भाव को स्थिरता होय है। भाव की स्थिरता ते, कर्म नाशि. केवली होय, सिद्ध पद पाय है। इस नय ते आहार-दान बड़ा है। ऐसे अपनी-अपनी जगह, नय-प्रमाण सर्व ही उत्कृष्ट हैं। यह आत्मा अन्न-दान तै, सदैव सुखी होय है। अनेक जीवन का पोषणहारा होय है। ओषधि-दान तै, शरीर रोग रहित होय । औरन के रोग नाशने की कला का धारी होय । शास्त्रदान ते अंग-पूर्व आदि श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान की प्राप्ति होय। आप भवान्तर में औरन कूशानदाता होय ! अभय-दानत भवान्तर में कोटो-भटादि महायोद्धा होध है । दयावान होय तथा जनुक्रम तँ, अनन्तकाल सुख का स्थान, स्थिरोभूत, लोकाश्विर पै, सिद्ध होय। ऐसा जानि च्यारि ही दान देना योग्य है। अरु यहाँ मुख्यता
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कथन, अतिथि संविभाग व्रतका है। तातें अपने भोजन में अतिथिका संविभाग करना, सो अतिथि संविभाग व्रत है । याके पांच अतिचार है। सो हो कहिये हैं। नाम सचित्त निक्षेप, सचित्ताविधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम । इनका अर्थ — जहां भोजनकी वस्तु, सचित्त वस्तु वै धरी होय । सो सचित्त निक्षेप नाम अतिचार है । २ । जहाँ भोजनकी वस्तु, सचित्त वस्तुसे ढांकी होय । सो सचित्ताविधान नाम दोष है । २ । जहां भोजन समय मुनीश्वर आरा जानि, औरकों कहै, जो मोकं काम है। तुम मुनिकों आहार देय लेना। ऐसा कहिकैं, अन्य से अपना भोजन दान करावना । सो पर व्यपदेश नाम अतिचार है। ३ । जहां और अन्य दातारका दान नहीं देख सकें । तथा अपने भावः मत्सर सहित राख दान देवे, सो मात्सर्य दोष है । ४ । जहां भोजनका काल उल्लंघि जाय। आप अपने घर-धंधे में लग गया सौ प्रयोजनके वशीभूत होय, मुनीश्वरके भोजनका काल उल्लंघि दिया। पीछे सुचिताईमें याद आई। तब द्वार-पेक्षरा क्रिया करी, सौ कालातिक्रम नाम अतिचार है । ५ ऐसे पांच अतिचार रहित होय, सो शुद्ध अतिथि संविभाग नाम व्रत है । ६ । ऐसे पांच अणुव्रत, तीन गुराव्रत और च्यारि शिक्षाव्रत । ये बारह असुव्रत ( देश व्रत ) भये। एक-एक व्रतके पांच-पांच अतिचार सर्व मिलकर साठ भये । सो ये व्रत प्रतिमाधारी सम्यग्दृष्टि, सो ताके सम्यक्त्व कौं पोच अतिचार नहीं होय । सो ही कहिये हैं। शेका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और अन्य दृष्टि संस्तव । इनका अर्थ - जिनवाणीमें कहे जे धर्म- जंग, तिनके सेवन में शंका राखना। सो शंका नाम अतिचार है । २ । जहाँ धर्म सेवनमें इस —भव संबन्धी वांच्छा तथा परभव सम्बधी वांछा करनी, सो कांक्षा दोष है । २ । जहाँ धर्मात्मा मुनि श्रावकादिक निर्मल दृष्टिके धारी पुरुष के तनमें रोग देख, तन मैल तैं लिप्त देख, मुख वासना देख, इत्यादिक रोग देख ग्लानि करनी । सो विचिकित्सा दोष है । ३ । जहां मिथ्यादृष्टि जीवनके गुण देख, बारम्बार यादकर, प्रशंसा करनी । "ते गुण भले जानना। सो अन्यदृष्टि प्रशंसा नाम दोष है। ४ । मिथ्यादृष्टिकी अपने वचन हैं स्तुति करनी, सो संस्तव नाम दोष है ।५१ ऐसे पांच अतिचार रहित सम्यग्दर्शन सहित जो व्रतका धारी, कोमल चित्त सहित, दया भडार, संसार हैं उदासीन, पाप तैं भयभीत होय, व्यारि गति बास दुखदाई जान, तन धरने व मरने तैं दुखी भया है मन जाका, जो मोक्षाभिलाषी, अजर-अमर पदका लोभी, धर्मात्मा ! जो अपने मन-वचन-तन है क्रिया
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करें। सो सर्व जीव आप समानि जानि,ये त्रस-हिंसाका त्यागी श्रावक, यत तें करें। कैसा है धर्मी श्रावक ? निरंतर समता सहित काल की व्यतीत करने की है इच्छा जाकें। निराकुल परिणति सहित, शान्ति रसका
अभिलाषी। षट् काय जीवन अभयदान देने को है अभिलाषा जाकैं। ऐसा धर्मात्मा श्रावक भव्य, तन-धन तें उदास होय, सल्लेखना व्रत धारै सो कैसे धारै? सो कहिये हैं। तहां प्रथम तो सर्व जीवन तें समता-माव करें। पीछे अपने तन, धन, राज्य लक्ष्मी, इन्द्रिय-सुख कुटुम्बी, सजन तिन सर्वत मोह-ममता भाव तज, सन्यास धारै सो कब धारै ? सो समय कहिये हैं। के तो यह धर्मात्मा अपना आयु-कर्म नजदीक आया जाने, तब सन्चास धार या शरीरमें कोई तीव्र रोग जाने तब। तथा शरीर पै कोई दुष्ट पशु सिंह-सादिक का उपद्रव जान तब सल्लेखना करें। कोई कारण पाय, राजादिकका तीव्र कोप जाने, इत्यादिक दीर्घ उपद्रव जाने, तौ सल्लेखना करे सो ता समय यह श्रावक शेसा विचारै, जो इस उपद्रव त बच्या तौ अन्न-जल ग्रहण करूंगा नहीं तो अन्न-जलादिकका त्याग है। ऐसी प्रतिज्ञाका धरना,सो तो सागार सन्यास है। अपने बचनेका उपाय कछू नहीं भास, तौ अनागार सन्यास करें। उपसर्ग तौ नहीं, परन्तु अनन्त संसार भोग ते उदासीन काय धरने ते आकुलित होय के, मनिपद धरनेकं असमर्थ, नहीं पाया है यतिपद धरनेका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव जाने सो भव्यात्मा. अपने तन ते निष्प्रिय होय, काय त्यजनेका उपाय शनैः शनैः करै है । सो ही कहिये है। प्रथम तौ जात अपने परिणामनकी विशद्धता बध, संक्लेश भाव नहीं होंय, रोसा तप करें। राकांतरे करे, पीछे एक-एक उपवास साथै । पीछे दोय-दोय उपवास साधै। ३, ४, ५, उपवासका साधन करे। पीछे पारगाके दिन अल्प आहार लेय-ऊनोदरी साधै। ऐसे केतक दिन करि, पीछे रसत्याग साधै। पीछे केतक दिन गये नम भोजन, पीछे पतला दलिया, पीछे भातका पान, पीछे अन्न तणि दुध, पीछे दुध तजि दही। पीछे दही तजि, मही। फिर महो तज, जल राखै। ऐसे करते-करते अनुक्रम तैं, जब काय त्यजनेका समय नजदीक जानें तब अपने सज्जन-कुटुम्बी जन बुलाय, उन मोह घटावैके निमित्त हितोपदेश देय, महा हित मित वचन कहि, उन्हें संतोषित करें। पीछे यह सम्यग्दृष्टिका धारी, जगत तें उदासी आत्मा, शरीरको भिन्न अवलोकनहारा, सर्व जीवनकों सस चाहता ऐसा विचारै-जो सर्व जीव साता पावें। कोई भी प्राणी, दुखी मत होऊ।
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को रोग पोड़ा. दुख-दरिद्र, अन्न तन करि दुःखी मत होऊ । मेरे सर्व जीवनतें क्षमा-भाव है। सर्व जीव मोक्षमार्ग पावने का भाव करौ। अब मैंने मन-वचन-काय करि एकेन्द्रिय विकलेद्रिय आदि त्रस - स्थावर, जोद सो सर्वकूं अभय-दान दिया। सर्व जीव मेरे पैं दया भाव कर अभयदान देओ । ऐसे सर्व जीवनतें क्षमाय, पीछे अपनी आलोचना करें कि जो मैंने अपनी अज्ञानता करि, मोह फांसी में फॉसि, राग-द्वेष करि पर-वस्तु में ममत्व अपना-अपनाथ, पाप- फन्द विषै आत्मा उलझाया। मनुष्य पर्याय पाय, वृथा दुःख बधाया। हाय हाय ! अज्ञान चेष्टा का करनहारा, भ्रम बुद्धि मो-सा और कोई नाहीं । देखो, जो आगे महान् बुद्धिमान् भये तिनने मनुष्य पर्याय पाय, धर्म साधन किया। पीछे संसार भोगनत उदास होय, राज्य-सम्पदा व इन्द्रिय-जनित सुख काले नागके समान जानि, जे । तन ममत्व निर्वार, दिगम्बर होय, नग्र मुद्रा धारि, मोह फांस छेद, वन विहारी भये। बाईस परीयह सह के कर्म रूपी ईंधनको ध्यान रूपी अग्नि में भस्म करि, सिद्धलोक दिषै जाय तिष्ठे । अविनाशी भये । काय धरने तैं निरञ्जन हो धन्य हैं। मैंने तो समान सुख को देनेहारी मनुष्य पर्याय पाथ, हालाहल विष समान विषय चाहे। सुकृत कछु नहीं बन्या, अरु मरने के दिन आय पहुँचे इत्यादिक आलोचना करि, कषायन का मद तोड़, मन्द कषायी होय के पीछे ये पवित्र बुद्धि का धारी, महाविनय सहित, नम्र भावन हैं, पञ्चपरमेष्ठी कौं नमस्कार करि बारम्बार तिन पञ्च गुरुन की स्तुति पढ़ता, परिशति विशुद्धि राखकें, यह सर्व नय का वेत्ता, श्रावकन की लौकिक परम्पराय-मर्यादा का जाननहारा, अपूर्व गुण का धारी मोह तैं रहित होय व्यवहार पोषरोकौं अपने तन के प्रयोजन धारी कुटुम्बी-मोहो जन तैं, यथायोग्य विनय तैं, मिष्ट क्षमावचन कहै। शुभ अक्षर उच्चारता, न्याय वचन धर्म रस के भोंजे, संसार तैं उदास, मर्यादा प्रमाण वचन कहै। भो कुटुम्बी जनो ! अब ताई तुम्हारे हमारे पर्याय के सम्बन्ध करि एक क्षेत्र विषै एते दिन रहना भया । तातैं परस्पर मोह के बन्धान करि, एकत्व भया, सो अब हम इस पर्याय तैं मित्र होंगे सो तुम कछु मोह-भाव तैं, आर्त भाव नहीं करना । जाकरि अशुभ कर्म का बन्ध होय, पर-भव में दुःख उपजै, सो ऐसा भाव नहीं करना । है। तुम सर्व ही जिन धर्म के वेत्ता, संसार कला विनाशिक जाननेहारे हो। भो पुत्र ! तू इस पर्याय सम्बन्धी पुत्र दोऊ भलै कुल का धारी, धर्मात्मा, सज्जन अङ्ग का धारी है सो जैसे- हमने इस भव में पर्याय पायकैं न्याय
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करि, धन उपारज्या। कुटम्ब की रक्षा करी। यथायोग्य सज्जन का विनय किया। जिन-धर्म विर्षे दृढ़ प्रतोति रोग मते तैसे की सारियों को न्याय हैं धन, यश, पुण्य उपजावना । मोह नहीं बधावना। हे इस भव के माता, पिता, स्त्री, भ्रातृ. मित्र हो ! हमारे इस पर्याय का नाता है। ये जीव अनन्त-पर्याय में कई बार पुत्र तें पिता-पिता ते पुत्र, माता तें पुत्री-पुत्री से माता, स्त्री नै भगिनी, मगिती तें स्त्री, भाई नै पिता, पिता तैं भाई, मित्र ते वैरी, वैरी ते मित्र इत्यादिक अनेक नाते भए। जिस पर्याय में यह जीव मिल्या, तैसा ही नाता पाल्या। अरु ताही रूप प्रवृत्त्या । सो अब इस पर्याय के सम्बन्धी, तुम कुटुम्बी भरा हो, सो तुम सबही सज्जन अङ्गी हो। सुकृत्य के इच्छक हो सो तुमने मेरे ऊपर उपकार करि इस पर्याय का यत्र करि, याकौ बधाय पुष्ट करी। सो मैं अज्ञान रस भोना, अविनय चेष्टाको धारि तुम्हारो सेवा बन्दगी इस काय तें कछू नहीं करी। अरु और भी इस पर्याय तें कछु शुभ कार्य नहीं बना । हे कुटुम्बी प्रीतम हो मैं मन्द बुद्धि, इस पर्यायकू पाय कुसंग-योगः कुमार्ग चल्या। अरु सुपात्रनकू मक्ति सहित दान नहीं दिया। दोन-दुःखितषं करुणा करि, दान नहीं दिया। छल-बल करि, परराये धन, प्रपञ्च करि हरे शरीर पाय शोलव्रत नहीं पाल्या। पशुवत् कुशील सेवन किया । सुदेव-सुधर्म-सुगुरु को सेवा नहीं करो। अरु पाखण्डी कुदेव-कुधर्म-कुगुरुकू शुभ अतिशय सहित जानि, पूजे। सन्तन की संगति तज कर, निन्दा करी। अरु पापाचारी कुमार्गोन को प्रशंसा करी परकौं दोष लगाय, अपने दोष ढांके। शुभाचार तज्या, कुआचार सेवन किया। निशि भोजनादि कुकार्य रूप प्रवृत्त, पाप बन्ध । खाद्यास्वाद्य नहीं विचारचा। उत्तम-मार्ग तज्या। हीन-मार्ग विर्षे गमन किया। अनेक दीन मनुष्य-पशन क, द्वेष-भाव करि पोड़े-दुःखी किये। मत्सर-भाव करि सताये। सामान्य प्राण के धारी अनेक जीव, दया रहित भावन ते हते | इत्यादिक तिहारे कुल योग्य नाही, ऐसी होन क्रिया करि, मो मन्द बुद्धि ने पाप बन्ध करि अशुभ का भार अपने सिर लिया। अकार्य सहित प्रवृत्त्या अपयश रूप वासना फैलाई। ऐसे अज्ञानी जोव को, तुमने अनेक बरदासि
कर ( सह कर), अपनी सज्जनता प्रगट करो। मोते मोह बुद्धि करि तुमने अपने पास राखा इत्यादिक | भो सज्जन हो ! तुम्हारी प्रोति, तुमने विशेष जनाई: परन्तु अहो सज्जन, अङ्गी हो! अहो कुटुम्बी लोगो ! अब मेरा । मायु-कर्म पूर्ण होने आया सी तुम मोपें, समता-भाव राखो। मैं महाअज्ञान, मोतें तुम्हारी सेवा का बनी नाही,
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अरु हमारे-तुम्हारे वियोग होने का समय आय लग्या, सो तुम कछु चिन्ता-आर्त नहां कसा। ए जीव ऐसे ही | अनन्ते नाते करता, अनन्तकाल का जन्म-मरण करता आया। जो पर्याय पाई, सो ही काल ने हरी। परन्तु मैरी | अज्ञानता नहीं छूटी। जैसे-कोई अन्याय वा चोरी करनेहारेक, राजा अनेक दण्ड देय। पीछे और सामान्य
दण्ड तें नहीं माने, तौ मारि डारें। ऐसा कठिन दण्ड देख कर भी, यह जीव अमार्ग चोरी नहीं तजे। तौ राजा कहा करें। तैसेही राग-द्वेषादि वत्तिते अनेक पाप कार्य किरा । ताका फल बहुत प्रकार राग-द्वेष, चिन्ता, शोक, भय इत्यादिक भोगे। तो भी यह जीव पाप नहीं तजै । राग-द्वेष रूप अपराधकौं करता हो गया। तब कालरूपी राजा ने बड़ा दोषी जान, मारि डारया। तो भी रागादिक कुमार्ग, मेरा नहीं छुटा। ऐसे अनन्तकाल मोकों भ्रमण करते होय गए। जगतू मैं गया वहां भी रागादिक कुमार्गचल्या। तहां काल-राजा नै मारथा सो जब भी इस पर्याय में मैंने अनेक-अनेक राग-द्वेष भाव करि, पाप किये सो तातें कालरूपी राजा के वश भया सो मोकों काल-राजा, अब मारने का उपायी है सो मारेगा। तातें तुम मोह तजी इत्यादिक अनेक समता करि अनेक वैराग्य भावना सहित, यह सन्धासो-धर्मात्मा, अनने चित्तकौं निर्मल करिक, शुभ भावना भाय, व्यवहार नय ते कुटुम्बी-जनकौ अनेक सम्बोधन रूप हितकारी-धर्म सूचक वचन बारम्बार कहि मोह फन्दछड़ावे। हे जन हो! तुम इस पर्याय के स्नेहो हो तुम सब, चित्त देय सुनो। जो तुमने इस पर्याय ते मोह बधाय करि, अब ताई मेरी योग्य-अयोग्य क्रिया में नजर नहीं करी। अरु स्नेह बुद्धि करि, अब ताई मेरे तन की रक्षा करी। तुमने सज्जनता प्रगट करि, इस तन की प्रतिपालना करो। जैसे—स्नेह बुद्धि के धारी बड़ी बुद्धिवारे करें, सो जो तुम्हारे करने को थी, सो तुमने करी। परन्तु है प्रीतम हो। इस तन की स्थिति पूर्ण होने बाईं, सो अब ना-इलाज है। काहू को राखी रहेगी नाहीं। तातै इस शरीर से अब तिहारा वियोग होयगा। तातें तुम सबही विवेकी हो। मोह-भाव करि शोक-चिन्ता नहीं करो। अनादि ते जगत् की ऐसी ही परिपाटी चली आई है। अनेक भवन में अनेक नातान का संयोग मघा, अरु छूटा। जब भी तुम ते कुटुम्ब का सम्बन्ध भया था ये भी छूटेगा। ताः अब ताई इस तन तें. तुम्हारी ववन-काय करि, तुम योग्य विनय-क्रिया नहीं भई होय तथा अविनय भया होय, तो तुम अपनी सरल-बुद्धि करि, क्षमा-भाव करो इत्यादिक शुभ शब्दन करि सबकौं समाधान लाय,
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साता उपजाय, लौकिक मोह छुड़ाय, घोछे यह भव्यात्मा च्यारि प्रकार आहार तजन करता भया। सो इन | आहारन के नाम तहाँ जाके खाये पेट भरे, सो खाद्य आहार है।३। जे लौंग, सुपारी आदि स्वाद के निमित खाईये, सो स्वाद आहार है। २। तहाँ जाकौं अंगुली से चांटिये, सो लेह्य आहार है।३। तहां जाकौं पानी की नाई पोजिये, सो पेय आहार है। ४। ऐसे खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय-इन च्यारि प्रकार आहार की तजन करि, डाम के विस्तर को निर्जीव भूमि शोधि, तापै बिछावै। तावै तिष्ठ करि, साधर्मी जन तैं चर्चा करता, तत्त्व विचार करता, द्वादशानुप्रेक्षा विचारता। वीतराग देव का स्मरण, वीतराग गुरु, दया-धर्म इत्यादिक पञ्चपरमेष्ठी के गुरान का चिन्तन इत्यादिक धर्म-ध्यान भावना सहित, काय ते भिन्न होय । इस भांति सन्यासी काय तजके, महाऋद्धि धारो कल्पवासी देव होय है। ऐसे सल्लेखना व्रत जानना । याही व्रत के पञ्च अतिचार हैं । जीवित संशय, मरण संशय, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान । इनका अर्थ-तहां संन्यास लिये पीछे रोसा विचारना, जो में बहुत जाऊ नाही, तो मला है। ऐसा विचारै, सो जीवित संशय अतिचार है। जहां संन्यास लिये पीछे ऐसा विचार करना, जो मैं मरूँगा अक नाही? अब पर्याय रही भली नाहीं। ऐसी भावना का नाम मरण संशय है । २ । संन्यास लिये पीछे ऐसा विचारना, जो फलाना हमारा बाल-मित्र है। तात मिलाप होय तो भला है। ऐसे विचार का नाम मित्रानुराग अतिचार है।३। तथा अगले भोगे भोगन क यादि करै, सो याका नाम सखानुबन्ध अतिचार है।४। संन्यास लिये पीछे ऐसा विचारै, जो इस व्रत भोकौं रौसा भला फल उपजियो, सो याका नाम निदान-बन्ध अतिचार है । ५। ऐसे ये पांच अतिचार नहीं लागैं, सो शुद्ध सल्लेखना व्रत है । या प्रकार शरीरकों व्रत सहित तजिये । शरीर तजे के तीन भेद हैं—च्युत, च्यावक और त्यक्त। इनका अर्थ-तहां कदलो घात बिना, संन्यास बिना, अपनी सम्पूर्ण आयु-सर्व-भोग, उदय-मरण करै, सो जो शरीर आत्मा नै तज्या, सो च्युत शरीर है ।। अब कदली घात का स्वरूप कहिये है। विष से मरै, शस्त्र तें, जल ते, अग्नि तें, पर्वतादिक तें गिरि मरै। रोग को तीव्र वेदना ते इत्यादिक काररान तें. मरै सो कदली घात मरण है । सो इस कदलो घात सहित, संन्यास रहित जा शरीरका आत्मा ने तज्या, सो च्यावक शरीर है। २। तीसरे त्यक्त के तीन भेद है। याको आत्मा चाह करि, अपनी इच्छा
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सहित] है । ताका नाम त्यक्त कया है । सो ये त्यक्त शरार, महाउत्तम मुनि तथा श्रावक का होय है। ताके तीन भेद हैं। उनके नाम-भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन | इनका अर्थ-तहां भोजन का त्याग करै, सो जघन्य तौ अन्तर्मुहूर्त काल भोजन कौं तजैं । अरु उत्कृष्ट बारह वर्ष लूं अनशन करें। मध्यम के अन्तर्मुहूर्त लगाय, एक-एक समय अधिक, उत्कृष्ट बारह वर्ष पर्यन्त के अनेक भेद हैं। सो ऐसे भोजन का प्रमाण सहित – अनशन करि शरीर तजैं, सो भक्त प्रतिज्ञा संन्यास सहित शरीर है |१| जा शरीर तजतें, संन्यास करनेहारे के शरीर में, तप के योग तैं कदाचित् खेद होय तो अपने शरीर का वैयावृत्त्य आप ही अपने हाथ तैं करें शिष्यादिक तैं नहीं करावें। भक्त प्रतिज्ञावाला संन्यासी, शरीर में खेद भये अपने हाथ अपने पांव, पीठ, शीश आदि अङ्गोपाङ्ग दाब लेय था और शिष्यादिक तें भी अङ्गोपाङ्ग दबाव था। अरु जो परतें वैयावृत्य नहीं करावे, अपने हाथ तैं अपना वैय्यावृत्त्य करै सो इंगिनी संन्यास सहित शरीर है |२| नहीं तो आप करै, नहीं और पै संन्यास में वैय्यावृत्य करावे । सन्यास लिये पोछे जो-जो उपद्रव खेद-दुख शरीर पै आवें सा समता सहित एकासन सहै । शरीर कौं चलाचल नहीं करें। संन्यास धरतें जैसा आसन सूं, जनांति बैठा था, ताहो तरह जीवन लूं रहे । हाल-चाल नाहीं । यह प्रापोपगमन संन्यास सहित त्यक्त शरीर है । ३ । ऐसे इन आदि संन्यास के अनेक भेद हैं। जो भव्यात्मा, जन्म-मरण करि डरचा होय तिस निकट संसारी कौं ऐसे सन्यास सहित काय तजवे को मिले है । जे दीर्घ संसारी, मोही, धर्म-वासना रहित
तिन जीवन के ऐसा मरण नाहीं होय । ऐसा जानना ।
इति श्री सुष्टि तरङ्गिणो नाम ग्रन्थके मध्य में, धावकको एकादश प्रतिमा विषै, सम्यक् सहित बारह व्रत कूं लिये, सल्लेखना व्रत मिलाय इन चौदहकै पांच-पांच अतिचार सहित, दुसरी व्रत प्रतिमाका कथन करनेवाला चौंतीसवां पर्व सम्पूर्ण ॥ ३८ ॥
आगे तीसरी सामायिक प्रतिमा का स्वरूप कहिये है
गाथा -- सद्रु चर किष्पा भावो, तब संजय बरत भाव बधवाए । आरदि रुद्द विहीणो, सामायो तस भासयो सुत्त ॥ १४० ॥
अर्थ- सहु चर किप्पा भावो कहिये, सर्व जीवन पै क्षमा भाव। तव कहिये, तप । संजय कहिये, संयम वरत कहिये, व्रत । भाव बधवारा कहिये, भाव वृद्धि होय । आरदि रुद्द विहीणो कहिये, आर्त्त-रौद्र-ध्यान से
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रहित । सामायो तस भासयो सुत्त कहिये, या शास्त्र में सामायिक कला है। भावार्थ-तहां पञ्च स्थावर हैं सो पृथ्वी, खोदें नाहीं । जल, मथै नाहीं । अग्नि जलावे- बुझावें नाहीं । पंखादि तैं वायु कम्पनादि करि, वायुका नै नाहीं । वनस्पतिक छेदे विदारे-छोले नाहीं। ये पांच स्थावर एकेन्द्रिय जीव, तिनमें समता-भाव करि, दया धारि, इनको अभयदान देय, घातै नाहीं । बे-इन्द्रियादि त्रस स्थावरनको समान जानि, स हिंसा का त्यागी, सर्व क नहीं सतावै । आप समान जानि सर्व तैं समता भाव राख अपनी तरफ तैं सर्व कूं सुख का अभिलाषी स-स्थावर जीवन के अभयदान देवे रूप परिणति राखें । अन्तरग-बहिरङ्ग तप बारह संयम बारह व्रत इनको बधवारी वांच्छे । आर्त-रौद्र-ध्यान का त्यागी होय ऐसे भाव वर्ते, सो सामायिक जानना । ताही सामायिक के पञ्च अतिचार हैं । सो कहिए हैं। प्रथम नाम-मन दोष, वचन दोष, काय दोष, विस्मरण दोष और अनादर दोष – इन पांच दोषन का अर्थ कहिये है। तहां सामायिक करते समता भाव तजि कैं प्रमाद तैं अनेक आर्त-रौद्र भाव-विकल्प करें, सो मन दोष है । २ । जहां सामायिक करते पञ्चपरमेष्ठी की स्तुति आलोचना तत्त्व का विचार वैराग्य भाव का चिन्तन ध्याता-ध्यान ध्येय का विचार इत्यादिक शुभ क्रिया तजि प्रमादवशात् दुर्वचन बोल उठना, सो वचन दोष है। २१ जहां सामायिक करते शुद्धासन तजि आसन चञ्चल किया करै, सो काय अतिचार है। ३ । जहाँ सामायिक करते पाठ भूलि-भूलि जाय कि जो मैंने यह पाठ पढ़या अक नाहीं ? मैं कहा पढ़ों हौं ? ऐसा भ्रम-भाव रहै, सो विस्मरण दोष है । ४ । सामायिक करतें वचन- काय प्रमाद सहित राखेँ । अनादर भाव तैं सामाधिक करें, सो अनादर दोष है । ५ । जो इन पांच दोषकों टाले सोही याका नाम शुद्ध सामायिक व्रत है। इस सामायिक व्रत के बत्तीस अतिचार हैं। तिनकों व्रतधारी धर्मो टा है, सो ही कहिए है। प्रथम नाम - अनादर, ततध्व, प्रतिष्ठा, प्रतिपीड़ित, दौलायत, अंकुश, कच्छप, मछोव्रत, मन, दुष्ट, बन्धन, भय, विभ्य, गौरव वृद्धि, गौरव न्यति, प्रतिनीति, प्रदुष्ट शब्द, ताड़ित, हीलित, त्रिबलित संकुचित दृष्टि, अदृष्टि, करमोचन, लब्धि, आलब्धि होन, उद्धत्, दो चूलि, मूक दादुर और चूलित – ये बत्तीस हैं। इनका अर्थ-तहाँ सामायिक करते नमस्कारादि क्रिया करै, सो प्रमाद सहित, विनय रहित करें. सो अनादर दोष है। 21 सामायिक करते, विद्या के मद सहित, उद्धत् होय, अशुद्ध क्रिया करै, सो ततथ्व दोष
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है। २ । जहाँ प्रतिमाजी के बहुत हो नजदीक सन्मुख होय, सामायिक करै, सो प्रतिष्ठा दोष है।३। जहां दोऊ हाथ तें जघा दाबि के नमस्कार करें, सो प्रतियोड़ित दोष है। ४ । सामायिक कर, सो पाठ विसर्जन होय जाय तथा शुद्ध ही पढ़े, तो चित्त संशय रूप होय, कि यह पाठ पढ़या अक नाही? पढ़या तौ मौकों यादि नाहों। ऐसे | मन चंचल रहै अरु कायर्क, मूले की नाई मुलाया करै, सो दोलायित अतिचार है।५। हाथ की अंगुली कू
अंकुशाकार करि, मस्तक में लगाय नमस्कार करे, सोअंकुश दोष है।६। सामायिक करते कटिहाथ लगाय कायकों संकोच, कछुवा के आकार करै, सो कच्छप दोष है।७। सामायिक करते कटिकौं हिलावै, मधली की 'नाई चंचल राखें, सो मोक्त दोष है। पालो सामायिक करते, मया हो सूर्य का घाम ताके सहनेक असमर्थ होय, परिणति संक्लेश रूप करे, सो मन दुष्ट नाम अतिचार है।। सामायिक करते कायकों हाथ ते दाबि, दृढ़ बन्धन-सा करै, सो बन्धन अतिचार है।३०। सामायिक करते कोई देव, मनुष्य, सिंह, सादि जीवन के भय सहित कायोत्सर्ग करें, सो भय दोष है। १२ । सामायिक करते, अपने तौ स्थिरता नाही, अस धर्म-फल की इच्छा भो नाही; परन्तु गुरु के भय से तथा संघ के भय से, सामायिक क्रिया करै, सो परमार्थ रहित करै, सो विभ्य दोष है । १२ । तहां च्यारि प्रकार संघ के खुशो करनेकौं तथा अपनी महिमा पर के मुख ते सुनिवेकौं, शोभा के हेतु सामायिक करै, सी गौरव-वृद्धि दोष है । २३ । अपना माहात्म्य करायवेकी, इन्द्र के सुखन की इच्छो सहित, मान-बड़ाई के हेतु सामायिक करै, सो गौरव दोष है ।१४। जो गुरु के पास सामायिक करूंगा, तो कोई मेरा प्रमाद देख, औगुन काढ़ेंगे, रोसा जानि, एकान्त मैं गुरु ते छिपकर सामायिक कर, सोन्यति दोष है। १५। जहां सामायिक करते गुरु की आज्ञा रहित, गुरु ते प्रतिकूल होय, अपनी इच्छा रूप, गुरु के कहें बिना ही, गुरु की आज्ञा बिना ही, सामायिक कर, सो प्रतिनीति दोष है। १६ । सामायिक करते. अन्य जीवन ते द्वेष-भाव राखै तथा युद्ध करने का तथा कलह करने का अभिप्राय रासै, सो प्रदुष्ट दोष है 1१७] जहां गुरु करि ताड़ित जो गुरु नै अविनयी जानि तथा प्रमादी जानि, धर्म-भावना रहित जानि, संघ ते काढ़ि दिया होय । सो गुरु
के भय तें तथा संघ के भय तें, सामायिक करै, सो ताड़ित दोष है । १८। सामायिक करते, मौन तजि बोल उठे, || सो शब्द दोष है। १६ । तहां सामायिक करते, गुरु की अविनय रूप भाव हो जाय गुरु के मान-खण्डन रूप
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परिणति होय जाय, माया रूप भाव हॉय, सो होलित दोष है । २० । सामायिक करते ऊँचा होय, त्रिवली भङ्ग करै तथा ललाट पर त्रिबली करें, सो त्रिबलित दोष है । २१ । जहां सामायिक करते, सिरकूं हस्त तैं छोय करि, कायको संकोच कर, गठिया समान होय करै, सो संकुचित दोष है । २२ । गुरु के देखते तथा अन्य कोई के देखते सामायिक करै, तब तो महाविनय सहित खड़ा हो करै । काय को शुद्ध भली क्रिया सहित सामायिक करै अरु कोई नहीं देखता होय, तौ प्रमाद सहित स्वेच्छाचारी होय करें। चहुँ दिशा अवलोकन रूप कायचंचल राइ भोति सामायिक. तो दोष है सामायिक करते अपने गुरु अपच्छिन्न होय तथा संघ में और वृद्ध मुनि, बड़े-बड़े गुरुजन तैं दृष्टि चुराय, अपने तन की शोभा निरखें, सो काय रूप देख राजी होघ मन-तन चलित- चंचल राखँ, सो अदृष्टि दोष है । २४ । जहां व्यारि संघ तथा अन्य जन राजी करवेकौं सामायिक करें, सो करमोचन दोष है । २५॥ तहां सामायिक करते आपकूं पोछी आदि पदार्थ को प्राप्ति वांच्छे जो मेरे पास पोछी शास्त्रादि उपकरण नाहीं, सो मिलें तो भला है। ऐसी जानि सामायिक करै सो लब्धि दोष है । २६ / श्रावक के षट कर्म रूप उपकरणन की प्राप्ति जार्ने, तो सामायिक करै, सो आलब्धि दोष है । २७ । जहाँ काल की मर्यादा टालि, सामायिक करै अरु ग्रन्थ के अर्थ विचार रहित भाव राखै, सो होन दोष है । २८ तहां शीघ्र - शीघ्र क्रिया करि, अल्पकाल में सामायिक पूर्ण करें तथा धीरे-धीरे प्रमाद सहित क्रिया करि, बहुत काल पूरै अरु पाठ पढ़ें, सो भूलि-भूलि जाय, फेरि पढ़ें। फेरि पढ़ें, सो फेरि भूलें। ऐसी सामायिक करै, सो उद्धव दो चूलि दोष है । २६ । जहां सामायिक करते, मूके की नई हूं-हूं शब्द बोलै और अंगुली- नेत्रादि तैं संज्ञा बतायें, सो मूक दोष है । ३० तहां सामायिक करते शोर करि पाठ पढ़ें। जैसे मैंड़क शोर करें, तैसे पाठ करते शब्द बोलें, सो बहुत शोर करै सो ददुर दोष है। ३२ । सामायिक करते एकासन तैं हो, एक क्षेत्र तिष्ठता, सर्व देव गुरु की स्तुति करते नमस्कार करे अरु पाठ पढ़, सो महामिष्ट स्वरतै, राग सहित, पर का मन रायवहारा स्वर तैं पढ़ें, सो चूलित दोष है। ३२ । ऐसे कहे बत्तोस दोष, तिनको टालि सामायिक करै, सो शुद्ध सामायिक धारी श्रावक है । इति बत्तीस दोष। आगे बाईस दोष, सामायिक करते कायोत्सर्ग करें तब टालै सो कहिये हैं। तहां प्रथम नाम घोटक, लता, स्थम्भ, कूट्या, माला, वधू, लम्बोतर, तन दृष्टि, वायस, खलिन, जुग, कपित्थ,
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सिर- कम्पित, मूक, अँगुली, भ्रूविकार, सुरापान, दिशावलोकन, ग्रीवा, परिणमन, निष्ठीवन और अमरक्ष । इनका अर्थ-तहाँ घोड़े को नई खड़ा होय सामायिक करें, सो घोटक दोष है । २ । सामायिक करते शरीरकों बेलि की नोई आंका-बांका करें सो लता दोष है | २| सामायिक करते शरीरकों स्थम्भ तथा भौति का सहारा देय खड़ा होय सामायिक करे तथा शास्त्र के अर्थ चिन्तन करि रहित, शून्य चित्त करि, स्तम्भ f को नई खड़ा होय, सामायिक करै, सो स्तम्भ दोष है । ३ । सामायिक करते महल, गुफा, गृह, कुटी,
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मराsपादिक वांच्छे, सो कूट्या दोष है |8| सामायिक करते ऊँचा सिंहासन, पाटा या चौकी पर खड़ा होय, सामायिक करै, सो माला दोष है । ५ । जैसे कोई भली स्त्री. लज्जा सहित अङ्ग छिपाय खड़ी होय तैसे वस्त्र तैं व कर तैं अङ्ग ढाकि खड़ा होय, सो वधू दोष है । ६ । सामायिक करते व्युत्सर्ग समय लम्बे हाथ करि अर्द्ध नमस्कार करें, सो लम्बोतर दोष है | ७| सामायिक करते अपने शरीरको निरखे सो भला कोमल, सुन्दर, शुभाकार देख खुशी होय अरु मलिन, क्षीण शोभा रहित देखे तथा श्याम कर्कश देखें, तो मन में बेराजी होय, सो तन दृष्टि दोष है । ८ । जहाँ सामायिक करते काक को नोई नेत्र चंचल राख, चारों दिशा अवलोकन करें, सो वायस दोष है । ६ । सामायिक करते घोटक की नाई दांत चबाया करै मुख तन कठोर राखै, सो खलिन दोष है । १० । सामायिक करते वृषभ की नाई नार (ग्रोवा) कूं ऊँची-नीची करें. सो जुग दोष है । ११ । सामायिक करते मूंकी बांधि सामायिक कूं खड़ा होय, सो कपित्थ दोष है । १२ । सामायिक करते शोश धुनै-हिलावे, सो शिरःकम्पित दोष है। २३ । सामायिक करते मुख नाक नेत्र बांके (टेढ़े) करता जाय, सो मूक दोष है । २४ । सामायिक करते हाथ-पांव की अंगुली हिलावे, सो अंगुली दोष है । १५ । सामायिक करते नेत्र वक्र करें, भौंह धनुषाकार चढ़ावै, दृष्टि बांकी करें, सो भ्रूविकार दोष है। २६। सामायिक करते मतवाले की नाईं भूमैं, सौ सुरापान दोष है । १७ । सामायिक करते नोचा ऊँचादि दशों दिशा, इत उत देखा करै, सो दिशा अवलोकन दोष है। १८ । तहां सामायिक करते ग्रीवा (गर्दन) को इत उत हिलाय बांकी नीची-ऊँची करें, सो ग्रोवा दोष है । २६ । सामायिक करते ध्यान तजि और ही क्रिया करने लागे, सो परिणामन दोष है। २० । सामायिक करते मुख तें फूके, नाक तैं नाक मैल काढ़े तथा तन के अङ्गोपाङ्ग मर्दन करि मैल
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उतारे तथा मुख में जीभक हिलावै, फेरचा करें। दाँतनक होंठ ताई चलावै पद्मासन तिष्ठता, पांव की पगथली छीया करै-मसलै सो निष्ठीवन दोष है। २१ । सामायिक करते नीति करने का स्थान, मल करने का स्थान छोवे, सो अङ्गमरक्ष दोष है ।२२। ऐसे सामायिक के पांच अतिचार तथा बत्तीस और बाईस एते अन्तराय टालि के धर्म फल का लोमी सामायिक प्रतिमा का धारी, अपने व्रत की रक्षा करता सामायिक करै, सो सामायिक कौन स्थान में करे? सो स्थान बताइये है। जहां सूना महल होय, घर-मन्दिर सूने होय तथा बिना धनी के मामत्व रहित जामें कोई का ममत्व नाहीं होय ऐसे मण्डप होंय तथा सिंहादिक के ममत्व रहित गुफा होय। तहां सामायिक करें तथा वन श्मशान भूमि वृक्ष की कोटरन में जिन-मन्दिर इत्यादि राकान्त स्थान शुद्ध देख। जहां अति शीत नहीं होय, अति गर्मों नहीं होय । जहाँ दंश-मसकादि नहीं होंय । जहाँ कोलाहल शब्द नहीं होय । जहाँ काहू का युद्ध नहीं होय, जहां परस्पर काहू के कटुक शब्द नाहीं होय । इन आदिक शुद्ध गफा । सो जीव रहित, वैराग्य भावना के बधावने कू कारण, निर्जन स्थान होय । तहां तिष्ठ के मन-वचन-काय करि एकाग्र, शुद्ध होय । सर्व जीवन तें दया-भाव करि, कोमल मावन सहित, सामायिक करे, सो शुद्ध सामायिक प्रतिमा का धारी, उत्तम श्रावक जानना सो सामायिक समय लंगोट मात्र आदि अल्प-परिग्रह का धारी होय तिष्ठे। चित्त की वृत्ति निर्मल, मुनि समान राखे, अपने तन तैं ममत्त्व-भाव तजि, वैराग्य-भाव का समह मोज-मार्ग के विहार करने की इच्छा का धारक,रोसा साधर्मी श्रावक। नहीं चाहै है च्यारि गति के शुभाशुभ शरीरन का वास तथा अपने पदस्थ से ऊपर के स्थान चढ़वे की है इच्छा जाकैं। ऐसा जगत-सुख से उदासी, श्रावक-धर्म का धारी, तीसरी सामायिक प्रतिमा धारी है।३। इति श्री सुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में एकादश प्रतिमा के कयन विर्षे तीसरी प्रतिमा का कथन करनेवाला
पैतीसवा पर्व सम्पूर्ण भया । ३५ 14 तहां बाग चौथी प्रोषध प्रतिमा, ताकौं कहिये है। सो सर्व पापारम्भ का त्याग करि, शरीर-भोगन की इच्छा । निवार, उदासीन-भाव धारण करि, धबध्यान का अभिलाषी होय, खान-पान का तजन करै। सो प्रोषधोपवासणी है। एक मास विर्षे दी अष्टमी, दोय चतुर्दशी-ये च्यारि उपवास करें सो तेरस के दिन प्रभात उठ, भगवान
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का पूजन करें। पोछें शास्त्र श्रवण-पठन करें, दोय पहर धर्म्यध्यान सेय, मुनि श्रावक कूं दान देय, आप भोजन लैो विधालय क्षेत्र रहने को भोजन करि, पीछे षोडश पहर खान-पान का सेवना तजै सो दोय पहर तोतेरस के दिन के, च्यारि पहर तेरस की रात्रि के आठ पहर चौदस की दिन-रात्रि के दोय पहर पूर्णिमा के ऐसे सोलह पहर जागरन, पूजा, ध्यान, स्वाध्याय, चर्चा, शुभ अनुप्रेक्षा का चिन्तन इत्यादिक धर्म्य-ध्यान विष पूर्ण करें। पीछे पूर्णिमा के दिन दोय पहर कूं घर जाय, द्वारापेक्षण भावना भाय, मुनि श्रावक कूं दान देय, दुखित मुखित कूं सन्तोषित करि, पीछे आप पारणा करें। सो एक बार भोजन करें। ऐसे ही मास-मास के च्यारि उपवास आयु पर्यन्त प्रमाद रहित होय करै । अरु नीचली प्रतिमा में जो क्रिया कहीं, सौ सर्व ऊपरली में गर्भित जानना | नीचे दूसरी प्रतिमा में प्रोषध कथा । सो वहां शिक्षा मात्र, साधन रूप कह्या था। अरु यहां चौथी प्रतिमा में प्रोषध का स्वामित्व-भाव है। सो यहां अतिचार रहित, आयु पर्यन्त व्रत का धारना है। तारों यहां प्रोषध प्रतिमा कही । सो याके पांच अतिचार हैं। सो हो कहिये हैं । अप्रत्यवेक्षित, अप्रमार्जित, उत्सर्गादान, संस्तरोपक्रमण, अनादर - अनुस्मृत्य । अब इनका अर्थ - जहां प्रोषध कों बैठे सो बिना भूमि शोध-माड़े ही प्रोषध कौं तिष्ठे । सो अप्रत्यवेक्षित अतिचार है |२| और जहां व्रतधारी प्रोषध करते भूमि शोध तो सही. परन्तु कोमल पीछी तैं तथा कोमल वस्त्र तैं नाहीं झाड़ें, मोटे वस्त्र तैं तथा कठोर पोछी तैं झाड़े। सो याका नाम अप्रमार्जित प्रतिचार है । २ । और भूमि विषै, बिना शोधे हो मल-मूत्र का क्षेपणा। सो याका नाम उत्सर्गादान है । ३ । और प्रोषधधारी जिस स्थान में बैठे-आसन करें बिछौना विछावै, सो भूमि शोधै झाड़े नाहीं । सो थाका नाम संस्तरोपक्रमण है |४| और जहां उत्साह बिना, धर्म भावना रहित, प्रमाद सहित, परमार्थशून्य, लौकिक यश का लोभी, और के दिखाय कौं, अनादर भाव सहित, प्रोषध क्रिया करें, सो याका नाम अनादर- अनुस्मृत्य है । ५। ये पांच अतिचार प्रोषधोपवास व्रत के हैं। इन रहित, शुद्ध भावना सहित, वैरागी व्रती अपने व्रत की प्रतिपालना करें, सो प्रोषध प्रतिमा का धारी उत्तम श्रावक कहिये है । इति प्रोषधोपवास नाम चौथो प्रतिमा । ४ । आगे सचित त्याग पांचवीं प्रतिमा कहिये है । यह पांचवीं प्रतिमा का धारी श्रावक, सचित्त वस्तु का त्यागी होय है, सो यह सचित्त जल नहीं वर्ते है । हाथ-पाँव - शोशादि अङ्गोपाङ्ग, कच्चे जल तैं नहीं धोवै है । अपने हस्त तैं नदी, सरोवर, कूप,
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बावड़ी का जल नहीं भरै । कच्चे जल तें स्नान नहीं करें। वनस्पती कूं छोले नाहीं, काटै नाहीं । भोगी जीवन के भोगवे योग्य, ऐसी फूल-मालादि तथा महासुगन्धित अनेक जाति के फूल, सो ये व्रती अपने हाथ तैं छोवें नाहीं. पहिरे नाहीं, सूंघे नाहीं । अनेक जाति का सचित्त मेवा दाख, अनार, केला, आमफल, जामुन, नारङ्गी, जम्भोरी, मी, रोष, सीताफल, र, डिही. कमरस, खिसी, राजूर, आंडू, मौलशिरी, तेन्दू, पीलू, अखरोट, अंगूर इत्यादिक भोगी जीवन के भोग योग्य, सचित्त वस्तु का त्यागी नहीं खाय, नहीं छोवें, नहीं तोड़े और ककड़ी, खरबूजा, तरबूजा इत्यादिक नहीं खाय जनेक व्यञ्जन, अयोग्य वस्तु, तरकारी जाति, पत्ता, फल-फूल, बौंड़ी जड़ जाति, कन्द जाति, बक्कल जाति, कौंपल जाति, औषध जाति, चमत्कार गुणकों लिये प्रत्यक्ष रोग नाशनहारी इत्यादिक हरी वनस्पति-ये सर्व विषयो जोवन के भौग्ध योग्य वस्तु, सो सचित्त त्यागी धर्मात्मा श्रावक नहीं स्वाय है। ऐसे अनेक भली वस्तु भोगियों को वल्लभ, जिनके भोगवे कूं. भोगी अनेक कष्ट पाय, तिनके निमित्त मन-वचनकाय अरु धनलगाय, तिनके मिलाप कूं अनेक उपाय करि, भोगवें हैं । तिन भोगन तैं बड़े-बड़े सुभट सुख मानें हैं। ऐसी वस्तु कुं सचित्त का त्यागी, धर्मात्मा श्रावक, तन-भोगन तैं उदासी, प्रात्मिक सुख का भोगी, ये चित्त वस्तु कूं नहीं खाय है। इस सचित त्यागो कूं जगत्-भोग, इन्द्रिय जनित सुख, वल्लभ नाहीं लागें । यह श्रावक, घर में हो यति सरीखे भाव धरै है । विरक्त भावना सहित, काल-क्षेपण करै सो पश्चम प्रतिमा का धारी, सचित्त त्यागी है। ५। आगे घट्टी प्रतिमा का स्वरूप कहिये है। इस प्रतिमा का धारी, रात्रि भुक्ति त्यागी धर्मात्मा, दिन के कुशील सेवन नहीं करें। रात्रि का भोजन त्याग, यहां भया है । तातें रात्रि भुक्ति त्यागी कहिये हैं। यहां प्रश्न - जो रात्रि भोजन का त्याग यहां किया, सो नीचली प्रतिमावाले, रात्रि में खावते होयगे ? अरु दिन का कुशील यहाँ तज्या, सो नीचली प्रतिमा में, दिन कूं कुशील सेवते होंगे ? ताका समाधान - हे भाई! तेरा प्रश्न भला है । परन्तु तूं चित्त देय सुनि । अब भी जगत् में ऐसो प्रवृत्ति देखिये है जो होन - ज्ञानी अरु हीन - पुण्थी, भोले हैं। ते कहैं तो बहुत मुख तैं वाचाल किया तो विशेष करें। अरु तिनतै बनें कछु भी नाहीं । सो तो असत्यभाषी हैं, पाखण्डी हैं। पर का उगनेहारा अपने यश का लोभी, बाल-बुद्धि है । महाज्ञानी परिडत हैं, दीर्घ पुरायी हैं, सज्जन स्वभावी हैं। सो कार्य तो बड़ा महत् करें अरु अपने मुख तैं
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अल्प प्रगट करें। ते धर्मात्मा धीर-बुद्धि हैं। तैसे ही पराये दिखायवै के, परके रंजायवै कौं, भोले जीवनका मान हरखे कं, अपने पद-नमावे कौं, ते पाखण्डी अपने कुज्ञानकी प्रबलता से अनेक धर्म-सैवन के स्वांग धरि
जप, तप, कथा तो वचन-आडंबर से बहुत कर। अरु इन परमार्थ-शन्य प्राशीन ते, बनै कछू भी नाही। सो मु । जीव तौ धर्मात्मा नाहीं। जरा धर्मार्थी भी नाहीं। जे जगत-यश ते उदासी, जिनने तोड़ी ममता फांसी, ते अल्प
कालमें शिव जासी। स्वर्ग–सम्पदा होय जिन दासी। मिथ्यादृष्टी तिन नाशी। वह भव्य सुखराशी। ऐसे निकट संसारी, धर्मका सेवन तो बड़ा करें। अरु अपनी महिमा नाहीं चाहूँ। सो धर्मात्मा हैं। तातें तुम विचारौ-देखो जे जीव अल्प से भी धर्म-सेवन कौं उत्कृष्ट जानि, पाप तैं भय खाय हैं। ते जीव ही विषय-कषाय कौं तजि, शुभाचार रूप परणमैं हैं। केई घर-स्त्रीका त्याग करें। कई दिनका भी भोजन तजि, उपवास करें। केई जन्म पर्यन्त, स्त्री-विषयका त्याग करें। कैई भव्यात्मा. रात्रि-जलका भी त्याग करें हैं। इत्यादिक प्रवृत्ति भोले शीत धर्मानरागमैं हैं। तो रहे सगता -साकेनया, जिनका दर्शन-मोह गया, तब सम्यक्त्व घर भया। भेद-ज्ञान तब लया। तब ऐसा भाव भया, विषय-मोग विषमयो। गुणस्थान चौथा लया। पर सेती भिन्न भया। विषय-राग तब गया। समता भाव परिगया। बाह्य विषयी सा रह्या। बाकी अंतरंग भेद भया। ऐसे जिन-प्राज्ञाप्रमाण, तस्वके वेत्ता भव्य, अव्रती होय हैं। सो विषधन से विरक्त रहैं हैं। येही रात्रि-भोजन नहीं करें। दिनमें कुशील नहों से। तो हे भव्य ! जे पंचम गुणस्थान धारी, व्रती श्रावक हैं। सो प्रथम, द्वितीय, तोसरी, चौथी प्रतिमा, पांचवीं प्रतिमाका कथन, इनका त्याग, इन प्रतिमाओंकी क्रिया-प्रवृत्ति, इनके धारी धर्मीश्रावक तिनकी वैराग्य दृष्टिका रस, सो तो नीके कधन करि पाये हैं। सो नीके सुन्या ही है। सो अब तूं विचार दैखि ! जो नीची प्रतिमा विष स्त्रीका भोग, अरु रात्रि भोजन कहा रह्या ? ये छद्रम प्रतिमा धारी श्रावक महा उदासीन वृत्तिका धारी, वैरागो, बड़भागी, इनको इतना विषय-रस नाहीं, जो दिनमें स्त्रीका भोग होय । महा धर्मात्मा हैं इन्हें रात्रिकाल विः सो स्त्रीका ही नाम मात्र संतोष है तृष्णा रूप नाहीं। ऐसा मानना। ये धर्मो, दिवस विष ही एक दिनमें एक बार ही, अल्प रस भोजन करनहारा, ताके रात्रि-भोजन कहाँ पाईरा? परन्तु जिनदेवको रोसी आज्ञा है। जो यहां पांचवीं प्रतिमा ताई, कोई प्रकार अतिचार लागै था। इस भय ते
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नीचली प्रतिमा में नाहीं कह्या अरु इस छुट्टी प्रतिमा विषै रात्रि भोजन का अरु दिन विषै कुशील का अतिचार भी नहीं लागे । तातें व्रत प्रगट किया। ऐसा जानना । सो रात्रि का पिसा, पोथा, रात्रि का बांधा, संध्या, शोध्या, बांच्या, घिस्या, छाया, धोया इत्यादिक रात्रि का आरंभ्या ऐसा भोजन होय । सो छट्टों प्रतिमा का धारी नाहीं खाय और रात्रि का आरंभ्या-भोजन खाय, तो रात्रि भोजन का दोष लागें । तातैं इनमें जो कोई अतिचार सूक्ष्म, पहले नोचली प्रतिभा में लागें थे, सो छट्टो प्रतिमा में यहां नाहीं लागें हैं। दिन में अपनी स्त्री कौं देख, विकार-भाव हो जाय थे। कभी-कभी सरागता सहित वचन होय जाय थे। काय तैं कोई विकार चेष्टा होय थो। सो अब यहाँ छड्डी प्रतिमा में मन-वचन-काय करि, दोष नाहीं लागे । तातें यहां घट्टी प्रतिमा विषै रात्रि-भोजन अरु दिन कूं कुशील का त्याग का है । तातें याका नाम – रात्रि-मुक्ति-त्याग का । ६१
इति श्रीसुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थके मध्ये, एकादश प्रतिमा विषे, छुट्टी प्रतिमाका कथन करनेवाला छत्तीसवां पर्व सम्पूर्ण ॥ ३६ ॥ आगे सात प्रतिमा का स्वरूप कहिये है। थाका नाम ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। सो छुट्टी ताई तो स्व- स्त्री का त्याग नहीं है। तौ भो महासन्तोषी, परन्तु पदस्थ योग तैं अपनी परणी स्त्री कूं, स्त्री-भाव करि जानें है। जो ये मेरी स्त्री है अरु सातवीं प्रतिमाधारी के स्व-पर- स्त्री दोऊन का त्याग है, सो पर स्त्री का त्यागी तो पूर्व में था ही। स्व- स्त्री का त्याग, सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा विषै है। अब यहाँ स्व-स्त्री, पर-स्त्री दोऊन का त्यागी भया । अपनी स्त्री कौं भी विकार-क्रिया तैं नहीं देखें। इस प्रतिमा विषै महाशील व्रत का धारी, ब्राह्मण - ब्रह्मचर्य व्रती भया। अब यहां चेतन-अचेतन स्त्री का त्याग भया । तातें इस प्रतिमाधारी कों, ब्रह्मचारी का है। सो यहां ब्रह्म शब्द के च्यारि भेद हैं। सो ही कहिये हैं—
गाथा -- वंभ सुभावो वादा, त्याज थंभोम जोय पय हारी। किय्या बंगाचारी, भत्तो कित्तेय वंभ कुल होई ॥ १४१ ॥ थाका अर्थ - भसुभावो आदा कहिये, आत्मा का स्वभाव हो ब्रह्म है । त्याज वंभोय जोय पय हारी कहिये, त्याग ब्रह्म सो याके निज-स्त्री का त्याग किय्या वैमाचारो कहिये, आचार व्रत का धारी, सो क्रिया ब्रह्म है। भत्तो कित्तेय वंभ कुल होई कहिये, भरत करि किये, सो कुल ब्रह्म हैं। भावार्थ- स्वभाव ब्रह्म, त्याग ब्रह्म, क्रिया ब्रह्म और कुल ब्रह्मये च्यारि हैं। इनका विशेष अर्थ -तहां स्वभाव ब्रह्म तो आत्मा का नाम है,
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सो ताके दोय भेद हैं। एक ब्रह्म, दूसरा पर-ब्रह्म। तहां कर्म-मल सहित, जन्म-मरण का धारो, चारि गति वासी। जीव, सो ब्रह्म है। राग-द्वेष का धारी, इष्ट वस्तु मिले सुखी होय, अनिष्ट वस्तु मिले दुखी होय, सो तो ब्रह्म जानना। भूख-तृषा नाम रोग जाकै उपजता होय, सो ब्रह्म है। ३। जन्म-जरा-मृत्यु रहित होय, अमूर्ति, सर्व दुखदोष रहित, केवल-ज्ञान का धारी अन्तर्यामी होय, सो पर-ब्रह्म है। ऐसे स्वभाव-ब्रह्म के दोय मैद जानना।२।। यहां ब्रह्म नाम आत्मा का जानना ।श दूसरा ब्रह्म, सातवों प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी, स्व-पर-स्त्री का त्यागी, ताका कथन-ऊपरि करि आये सो याका पद अनुक्रम ते, प्रथम प्रतिमा तें लगाय, सातवी प्रतिमा पर्यन्त, ज्यों-ज्यों त्याग बध्या, त्यों-त्यों प्रतिमा चढ़ी। ताते याका नाम त्याग-ब्रह्म है ।श तीसरी क्रिया-ब्रह्मचारी, ताके जानवेकों उपासकाध्ययन के सातवें अङ्ग ताके अनुसार, बड़े आदिपुराराजी विर्षे दश अधिकार कहे। ताके अनुसार कारण पाय, यहां भी लिखिये हैगाथा-सिसि विद्याय कुलाविधि, वण्णोत्तम पात सेम विवहारो। अवधा अदंड मणनीयो, पज्जा सम्मधाण यह भयो ॥१४२॥
अर्थ-सिसि विद्याय कहिये, बाल विद्या। कुलाविधि कहिये, कुलाविधि । वरणोत्तम कहिये, वर्णोत्तम । यात कहिये, पात्रत्व । सेय कहिये, श्रेष्ठ पद । विवहारो कहिये, व्यवहार सत्ता। अवधा कहिये, अबध्यता। मदण्ड कहिये, अदण्डता । मणनीयो कहिये, माननीयता । पजा सम्मधारा कहिये, प्रजा सम्बन्धान्तर । दह भयो कहिये, ए दश भेद हैं। भावार्थ बाल विद्या, कुलाविधि, वर्णोत्तम, पात्रत्व, श्रेष्ठता, व्यवहारता, अबध्यता, प्रदण्डता, माननीयता और प्रजा सम्बन्धान्तर–दश हैं। जो जीव इन दश क्रियान करि सहित होय सो क्रियाब्रह्म है, सो हो विशेष कर कहिर है । तहाँ बाल्यावस्थाते ही विद्या का अध्ययन करि, पण्डित होय । तो शुभाशुभ मार्ग जाने, स्वाद्यास्वाद्य जान, पाप-पुण्य का भेद जानै । कई अज्ञानी-कुवादी आपकों शुद्ध धर्म ते डिगाय, विषयी, मोही, हिंसक धर्म विष लगाया चाहैं तो नहीं लागे । पाखण्डीन के ठगने में नहीं आवै । ताते तीन कुल का उपज्या, भव्य का बालक होय, सो विद्याभ्यास करै । अरु विद्या नहीं पक्या होय, तो आप कुधर्म-सधर्म को परीक्षा नहीं कर सके। तब अपना भला-धर्मा बिगाडै । अरु अज्ञान भया, खाद्याखाद्य न समझ के, अभक्ष्य का भक्षण करि, अपनी बुद्धि नष्ट करें। विद्या
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बिना, जगत् में निन्दा पावै। दीन कहावै । दीनता के योग ते याचना करें। तब याचकता के योग ते, अपने ॥ । उत्तम-कुल कं कलङ्का लगावै। तातें ऐसा जानना, जो सर्व सत्र की दाता, अनेक गुण मण्डित, एक विद्या || ५२२
है। ऐसी विद्या का अध्ययन, बाल्यावस्था विर्षे हो करना । बालावस्था गये, जिहा कठिन होय है। कषाय-अंश विशेष होय । तिस दोष से विद्या-दाता का विनय नहीं सधै । बाल्यावस्था मन्द-कषाय सहित होय है । ताते बालपने में हो विद्या का अभ्यास करना । ता विद्या करि, पाप तजि पुण्य ग्रहण करे, सो परोपकारी होय है। अपना-पराया मला करें। याका नाम-बाल-विद्या अधिकार है। और दूसरे ब्राहाण कुल का उत्तम है। सर्व विर्षे बड़ा है। ब्राह्मण का बाचार भी सर्व ते उज्ज्वल, दया सहित, उत्तम है। अरु एक दिन में एक बार, एक स्थान बैठा, भोजन कर है सो भी जहां अन्धकार नहीं होय उद्योतकारी स्थान होय, तहाँ भोजन करै अरु अन्धकार गृह में भोजन करें, तो रात्रि-भोजन दोष पावै । तातें रात्रि रहित, अन्धकार रहित उत्तम स्थान में, निर्दोष आहार करै। इन आदिक अनेक शुभाचार होय अरु कदाचित् ऐसा उत्तम जाचार नहीं होय, तो क्रिया-भ्रष्ट भया। कन्द-मूलादि समय भोजन, रात्रि भोजन, अनगाल्या पानी खान-पान करि दया सहित कुभावना सहित होय । सो उत्कृष्ट कुलाचार ते भ्रष्ट होय । तात उत्तम आचार सहित ब्राहासक, ये कार्य तजना चाहिये। थाका नाम--कुलाविधि नाम अधिकार है।21 सर्व कुलन ते ब्राह्मण कुल को अधिकता है। तो याका उत्कृष्ट चलन ही चाहिये । महादयावान्, पर-जीवन की रक्षा रूप भाव होय अरु निर्दयी होय तौ शिकारी समान हिंसा करि, पापाचारी होयक, निन्दा पावै । ताते शुभाचारी सर्व झूठ का त्यागी होय, जो मूह भाषे, तो ब्रह्म को मर्यादा जाय 1 तातें ब्राहारा सत्यवादी चाहिये। सर्व-चोरी का त्यागी होय। जो चोरी करे, तो राज्य-पञ्च-दण्ड पावै । अपयश होय । तात् ब्राह्मण चोर कला-दोषत रहित चाहिये । पर-स्त्री का त्यागी होय । जो पर-स्त्री लम्पटी होय तो राजा ताका शिर, नाक, कान, पाव, हस्त छेदन करें। पश्च, जातित निकासे।तो ऊँच कुलकं दोष लागे। तातै ब्राहाण शीलवान चाहिये। ब्राह्मण सर्व बारम्भ बहुत परिग्रह का त्यागी होय निर्लोभी होय इत्यादिक गुणवान् होय, तो शोभा पावै। अनाचारी भया, महापारम्भ करे। महालोभी होय, दया रहित-सा दी तो उत्तम कुलकौं दोष लगावै। तातें ब्राहारा बहुत बाराभव
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बहुत परिग्रह का त्यागी चाहिये और ब्राह्मस, अपने से ही होन आचारी, ऐसे हीन देव, हीन गुरुका नाही सेवे, जैसा आप दयावान् है, शीलवान समता भावी है, तातें भी अधिक वीतराग देव गुरु होय, ताकी सेवे और जैसा आप पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब, परिग्रह के योगते, क्रोधी, मानी, दगाबाज, लोभी है। ऐसा ही क्रोध, मान आदि दोषोते भर या जो देव गुरु, ताळू नहीं सैवै । जाको सेवे, सो परीक्षा करि सेवै । अपने जैसे रागी-देवी, पर-स्त्री, धन, वाहनादि परिग्रह धारी, देव गुरुकों नहीं सेवे। सर्व दोष रहित, वीतराग, सर्वज्ञ, प्रारम्भ परिग्रह, स्त्री, धन, घर रहित देव-गुरु की सेवा करै । हीन देव गुरुकों नहीं सैवै तो वर्मोत्तम नाम तीसरा अधिकार है।३माहाश में की अधिकता है ताते या पात्रत्व-भाव है, ये पात्र हैं मादरतें दान देने योग्य है अरु बड़े पुरुषन करि, माननीय है । तातें विवेकी ब्राह्मराक, गुश बधावना योग्य है। ये शील, सन्तोष, दया, क्षमा, निर्लोभादि उत्तम गुण करि तो पूज्य है अरु इन गुण बिना, महापुरुषन करि, मानने योग्य नहीं. होय । बड़े-बड़े राजा गुणी जन ते अनादर पावै। पण्डितन की सभा में जाय, लजा पावै। तातें ब्राह्मणको दान, पूजा, जप, तप, संयम, शील, दया, सन्तोषादि अनेक-अनेक गुसन का संग्रह करना योग्य है। याका नाम-पात्रत्व नाम चौथा अधिकार है।४। और जहाँ श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, तिनकौं मिथ्या श्रद्धान तणि के, सर्वज्ञ देव-केवली माषित पदार्थन का श्रद्धान करना योग्य है। कोई सामान्य ज्ञान के धारनहारे मानी जीवन ने, अपना मान पोषवेकों भोले जीवन के बहकावेकों, अपनी इच्छा करि, कल्पित शास्त्र बनाये। तिनमें तीन लोक का स्वरूप यथार्थ कह्या तो तीन लोक का प्रमाण तुच्छ कहा। सो कोई तो भोले भव्य ऐसा मानें। जो लोक की रक्षा, निरन्तर भगवान् करें। नहीं तो कोई चोर या सर्व लोककौं चुराय वस्त्र में समेट लैय जाय। तातें भगवान् सदैव रक्षा करे हैं और कोई कहें हैं। जो काहू कर्ता ने लोक बनाया है ! सो कबहूँ काल पाय, क्षय भी होयगा। ऐसे कल्पित विकल्प करि लोक स्वरूप कहें हैं। सो असत्य है, ताके भेद को जाने और सर्वज्ञ केवलो करि
कह्या लोकाकाश रूप-अनादि, अकृत्रिम, अविनाशी, ध्रुव, पुरुषाकार सो सत्य है। ताके भेद कू जाने। ૧૨૨ | | शुद्ध केवली के भाषे लोक का श्रद्धान करें। मिथ्या कल्पित लोक के स्वरूप का श्रद्धान् तणे और भी जीव
| अजीव का प्रधान सहित शुद्ध सम्यग्ज्ञान का धारी, ब्राह्मण चाहिये और जो बाप के भी यथार्थ दर्शन-मान नहीं
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होय, तो औरन कूं मिध्या उपदेश देय, औरन का बुरा करै। अपने उत्तम कुलकूं दोष लगावें । तातें ब्राह्मणकूं यथार्थ श्रद्धान आपकं चाहिये, तो औरनकूं भी सत्य उपदेश देय, औरन का भला करै । तब ब्राह्मण कुल की श्रेष्ठता रहे। याका श्रेष्ठता नाम-पचिव अधिकार है | ५| जो ब्राह्मण आप पण्डित होय । दया-धर्म का धारी होय अन्य शिष्यजनक कल्याण के अर्थ – मोक्ष- लक्ष्मी का वांच्छ्नहारा होय । अनेक प्रायश्चित्त शास्त्रन का वेत्ता होय, श्रावकन के व्यवहार का परिपाटी का जाननहारा होय। जहां कोई श्रावककों प्रमादवशात्, संयम में दोष लगा होय, तो दया भाव करि, ताके मेंटवे कूं. शिष्यन के पाप नाशवे कुं, यथायोग्य प्रायश्चित्त बताय, शुद्ध करें। ऐसा ब्राह्मण चाहिये और कदाचित् आपही अशुद्ध होय. क्रोध-मान- माया -लोभ- पाखण्ड करि भरया होय तथा अज्ञानी होय; तो औरनकों धर्म-मारग कैसे बतावें ? जैसे --- कोई उग से उद्यान मैं
शुद्ध-राह । तो ठग. शुद्ध राह कैसे बतावे ? तथा कोई अन्धे सैं उद्यान की राह पूछे तो वह उद्यान की राह कैसे बतावें ? तैसे ही कषायसहित सो तो ठग समान, सो शुद्ध मार्ग नहीं बतावें । वह अज्ञान अन्धे समान है। सो आपही कौं सुमार्ग नहीं सू । तौ औरकों कैसे बतावें ? तातैं ब्राह्मण के ये दोऊ दोष कहै । सो कषाय अरु अज्ञानता तैं रहित सज्जन स्वभावी, दयामूर्ति, महापण्डित, अनेक प्रायश्चित्त शास्त्रन का ज्ञाता ब्राह्मण चाहिये । अरु जो ब्राह्मण आप प्रायश्चित्त शास्त्र तो नहीं जानें। आपको दोष लागे, तब आपकूं औरन पै दीन होय. प्रायश्चित्त याचना पड़े। तार्तें आपा-पर के सुधारक, अनेक नय का वेत्ता, गृहस्थन को क्रिया व्यवहार जानें वह व्यवहार नाम छट्टा अधिकार है । ६ । ब्राह्मण, उत्तम गुण-सम्पदा का धारी, उत्कृष्ट-पूजनीय गुण सहित, धीर बुद्धि, पूजा-जप-तप-संयम सहित अनेक गुण पालक, सत्पुरुष ब्राह्मण राजान करि अवध्य है। जैसेचोर, चकार, चमचोरादि सप्तव्यसन के धारी जीव, वधवे योग्य हैं। तैसे अनेक गुण का धारी ब्राह्मण. वधवे योग्य नाहीं । पूजने योग्य है और जो गुणी, पूजन योग्य, दीर्घ ज्ञानी कूं हनै, तो महापाप होय । ज्यों-ज्यों दीर्घ ज्ञानी का घात होय त्यों-त्यों विशेष पाप जानना । जैसे— राकेन्द्रिय के घात तैं, दो इन्द्रिय के घात का पाप बहुत है। ते इन्द्रिय का दो-इंद्रिय तैं बड़ा है। ते इन्द्रिय के घात तैं चौ-इन्द्रिय के घात का पाप विशेष है। ऐसे ज्यों-ज्यों ज्ञान बध्या, त्यों-यों इन्द्रिय बधो, सो इन्द्रियन के बघवे हैं, ज्ञान बध्या तातें ज्यों-ज्यों ज्ञान बधता
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होय, ताके घातका बड़ा-बड़ा पाप है। पशु ते पापाचारो चोर, ज्वारी, पर-स्त्री सेवी, इत्यादिक अशुभ कर्मा । मनुष्य के घातका पाप विशेष है सो इन ते मला मनुष्य व्यसनादि दोष रहित होय ताकै घातका पाप विशेष है || ५२४
ऐसे सामान्य मनुष्यनतें, जपी, तपी, संयमी, दानी, दयावान, निर्दोष, इनके विशेष ज्ञान है। सो इनके मारनेका | विशेष पाप है। तातें ऐसा जानना, जो ब्राहारा संयम, जप, तप, व्रतका धारी है। तातें थाकी घातका पाप विशेष | है। विवेकी राजा, ऐसा दीर्घ पाप नहों करै। तातै राजा तें, ब्राह्मण वध रहित है। पूजने योग्य है। मारने योग्य नाहीं। और यह धर्मका माहात्म्य है कि धर्मों को, कोई पाड़े नाहीं। और कदाचित् ब्राह्मण. दया रहित होय । लोभ-क्रोध-मान-मायादि व्यसनका धारी होय तो दीनता पावै। गुरा बिना महत्वता जाती रहै । सामान्य मनुष्यकी नाई राजा करि, दण्ड को प्राप्त होय है, हर कोई पीड़े। दुर्वचन कहै । ब्राह्मएका पद होते. सुमार्गका लोप होय । ऊंच-कुली कुमारगमैं लागै, तो दीनता पावै। अपयश पावै । धर्म-आचार मिटै। सुमार्ग-दया धर्म ते रहित भये, पूज्य पद मिटे। राजा ते अनादर पावै। तातें विवेको उत्तम ब्राह्मण को उत्तम-दान धर्म, संतोष, जप, तप, इन आदि अनेक गुणोंकी रक्षा करनी, बस-स्थावर सर्व जीवनका भला चाहना, यह उत्तम गुण है। सर्वक भलेमें अपना भला है। तातें ब्राह्मण कं धर्म-रत्ता करनी। याका नाम सातवा अवध्य गुण है।७। धर्म विर्षे स्थिरी-भूत है आत्मा जाका, ऐसा ब्राहणः सर्व करि अदंड है । काहू से दण्डने योग्य नाहीं। कोई धर्म-बुद्धि कू, धर्म-सेवनमें दोष लाग्या होय । तौ ताको शुद्ध करने कू यह धर्मात्मा ब्राह्मण ताकू दरड देय, शुद्ध करे। परन्तु, आप दण्ड-योग्य नाहीं। आप अपनी शांत-दशा दया-भाव सहित, शास्त्रनका अभ्यास करें। ताके अर्थ प्रगट करि, आप धर्मात्मा भया और धर्मो-जीवन कू उपदेश देय, सुमार्ग लगावै। जे धर्मात्मा होय । सो धर्मो-जीवका दिया उपदेश, तथा अतिचार लाग्या ताका प्रायश्चित्त, अङ्गीकार करें। तातें धर्मात्मा-पुरुष, राजा करि दण्डने
योग्य नाहीं। कदाचित् ऐसे धर्मी-जीवमें, कोई कर्म-योग ते दोष पड़ गया होय । तौ धर्मात्मा-राजा. यथा योग्य | दण्ड देय, फेरि ताक धर्म-विर्षे दृढ करें। ऐसा दण्ड नहीं देय, जाते याकौ धर्म तें अरुचि होय। धर्म सेवनमैं
आकुलता बधै। घर-धन नहीं लटे। तन-घात नहीं करें। ऐसा दण्ड देय, जाते याको धर्ममें प्रीति उपजै। जिन || धर्मका अतिशय देख, दया-धर्मका सेवन करें। यह धर्मात्मा ब्राह्मरा, सर्व लौकिक दोष ते रहित, उत्तम
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आचारवान्, दया-धर्मका धारी, राजाओं करि अदंड है। पापीजनकी नाई. धर्मात्मा कू भी दंड योग्य जाने । तो दण्डनेहारा राजा, प्रजाका पालनहारा, अन्यायके योग ते अपयशपाय, घोडे ही दिनों में राज्य-प्रष्ट होय।। २१ याकी अनीति देख, धर्मात्मा पुरुष तौ देश तज देंय । तब देश धर्मी-जन रहित भया। तामैं पाप-कार्यनको बधवारी होय। पापके बधत. देश-ग्राम धीरे-धीरे अनुक्रम करि नाश कुँ प्राप्त होय । तात धर्मात्मा-ब्राह्मण, पदंड है। यह अदण्ड नाम आठवा अधिकार है।८। बहुरि धर्मो-जीवन कौं सर्व पूजें। यथा-योग्य सर्व मानें। सो यह बात सत्य ही है। जो मर्मात्मा. - करित्रिका होग! सधौ-धोदन करि, मानने योग्य होय ही होय । कदाचित् विप्र विष, गुणनकी अधिकता नहीं होय । तो पूज्य-पद मिटै। बनादर पाय । पद भ्रष्ट होय । रंकदशा धारे। तातें विवेकी ब्राह्मरा, समतादिक गुणनका जतन करि, अपने विर्षे धारै। सो यह ज्ञान, चारित्र और तप, उत्कृष्ट ऋद्धि है सो जे गुणवान हैं, सो गुस-विभूतिका यात्र करो। यह गुरा-सम्पदा जप-तप पूज्य हैं। तिनकों भल कर भी विवेकी नहीं बिसाएँ। याका नाम माननीयता नववा अधिकार है।६। यह धर्मात्मा ब्राहाणका, प्रजा-संबन्धान्तर गुण है सो विवेकी अपना उत्कृष्ट गुण छोड़ि, जगत-जीव-अज्ञानकी नाई नहीं होय सो प्रजासंबन्धान्तर गुण कौ राख्ने । भावार्थ-जो जैसे गुण अन्य प्रजामें नहीं पाईये, ऐसे गुण आपमैं धारण करे। प्रणाके गुण से अधिक गुण-सम्पदाका धारी होय । तब प्रजा करि, पूज्य होय । प्रजा-जैसे, अजान चेष्टा रूप गुण, आपमें नहीं धारे। सो प्रजासे अन्तर जानना । प्रजा समान गुण, अज्ञान-विषयोकी चेष्टा आपमैं धार। तो अपना पूज्य-पद खोवै। महंतता नहीं रहै। प्रजा समान आप भी होय। तो जैसे निर्मल स्वर्णमें, कुधातुके सम्बन्ध करि मलिनता होय। और जैसे निर्मल स्फटिक मरिण, डाकके संयोय ते अपना स्वच्छ गुण तणि, श्याम-हरित-रक्तादि अनेक वर्ण को प्राप्त होय । तैसे हो यह धर्मात्मा जीव, ब्रह्मचारी, उत्कृष्ट गुणोंका धारी, आचारवान्, सौम्यमूर्ति संसारी-अज्ञानी जीवनकी संगति तें आप भी अज्ञानी-जीवनकी नाईं, इस प्रजामें एकमेक होय। क्रोध-मानमाया-लोभ रूप प्रवृत्ति तें, अपना पद लोप करें। सर्व गुणनका अभाव होय। तातै विवेकी धर्मात्मा ब्राहस,
अपने गुणन ते और अज्ञानी-गुण रहित जीवन कौं, गुण-खान करें। आप अज्ञानीकी संगति ते, अशानी नहीं। । होय । जैसे पारस-पाषाण अपने गुण तें लोह-कुधातु कौ कंचन कर, परन्तु आप लोह नहां होय । तैसे उत्तम |
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ब्रह्मवारी, अपना शील, संतोष, तप, संयम, व्रत, या सरित गरा जगतमें एगट करि, और जीवन को प्राप समान गुणवान करें। जो भोले, अज्ञानी, अशुभाचारी, दया रहित, पाप कलङ्क सहित जीव, तिनको धर्मोपदेश देय, तिनके दोष मेटि शुद्ध निर्दोष करें। यह गृहस्थाचार्य तीन कुलका उपण्या पदके ब्रहा धारी विषै यह प्रजा संबंधीतर गुण है। ताके योग तें औरन कौं गुणरूप करे। कदाचित् यह गुरु नहीं होय तो अज्ञानी के संग तैं आप अज्ञानी होय । गुण रहित होय। तब अपना पूज्य पद नहीं रहे। तार्ते प्रजाके गुणों हैं मिले नाहीं अलग रहे। याका नाम प्रजा संबन्धतिर दशवां अधिकार है। २०। ऐसे ये बाल विद्या तैं लगाय प्रजा संबन्धान्तर दश अधिकार कहे। ताको जुदी जुदी क्रियानका कथन कह्या। सो जो इन दश क्रिया रूप प्रवृत्ते । सो क्रिया ब्रह्म जानना । तीन कुलका उपज्या धर्मो जोव इन क्रियाओं सहित शीलादिक गुण पालै सो क्रिया ब्रह्म है। इति क्रिया ब्रह्म के दश मेद आगे ब्राह्मण झील गुणकी प्रतिपालना करें, सो ब्रह्मचारी कहावे । सो शोलाधिकार लिखिये है
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गाथा - सिव मिंद जाण द्वारय, भव सायर पार तार संणीए । अघ तम हर रबि जेहो, मोख मग्गोय बंभ भावाए ॥ १४३ ॥
अर्थ- शिव मिंद जाण द्वारय कहिये मोक्ष महलके जाने कूं द्वार। भव सायर पार तार तंखीरा कहिये संसार सागरके तरवे कूं नाव समान । अघ तम हर रवि जैहो कहिये, पाप रूप अन्धकार के नाशवे कूं सूर्य समान । मोख मग्गोय वंभ भावारा कहिये मोक्ष मार्ग रूप एक ब्रह्म भाव ही है। भावार्थ- ब्रह्मचर्य भाव है सो मोक्ष महल में जानेका एक ही ये मार्ग है। इस शील बिना मोक्षकों जावेका कोई द्वार नाहीं, कैसा है शोलभाव संसार समुद्र के तिरवे को जहाज समान है। कैसा है भव- समुद्र, महागम्भीर राग-द्वेष रूप जो जल, ताकरि भरया है। तामें विकार रूप अनेक तरंगे उठे हैं। और वेद-भाव, रति अरति क्रोध मान, माया लोभादि ये कषाय हैं। सो हो भये मगरादि जलचर क्रूर जीव। तिनके केलि (क्रीड़ा) करने का स्थान, ये भव सागर जानना ऐसे विकट भवसागर तारवे कूं ये शील व्रत नाव समान है। कैसा है शील, पाप अन्धकार करि चारि-गति के जीवन कूं, मोक्ष मार्ग नहीं सू। ऐसा अन्धकार नाशवें कूं यह ब्रह्मचर्य - भाव सूर्य समान है। तातें मोक्षका मार्ग, एक शोल ही है। भावार्थ - इस झील गुणा बिना अनेक धर्म-अञ्जनका साधन, कार्यकारी नाहीं । तातें
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मोक्षाभिलाषी जीवन कं, मोक्षके कारण रूप शील की ही रक्षा करनी चाहिये। आगे और भी शील गुण की महिमा कहिये हैगाथा-सोपाणो सिब गेहो, सिव तिय सावण दूत सम । पारा भूषण पास, वि. जासभ गुप..६४४॥
अर्थ-सोपालो सिव गेहो कहिये, ये ब्रह्मभाव मोक्ष मन्दिरके चढ़ावे को सोढ़ी समान है। सिव तिय लावण द्वत सम जोई कहिये, मोक्ष रुपी स्त्री के ल्याव को चतुरद्तो समान है। धम्मा भवरण भरणर्य कहिये, ये धर्मका आभूषण है। सिव दीयो जारा वम्भ गुण गेयो कहिये, शिव द्वीपके पहुंचावे-कों ब्रह्मचर्य वाहनसमान है। भावार्थ-जैसे मन्दिर पै जाय, सो सोढ़ीन परसे जांय हैं सो मोक्षमहल, अद्भुत सुखका स्थान है। सो लोकके शिखर पर है। मध्य लोक तें. सात राज ऊंचा है। तहां चढ़वे कुं शीलव्रत सीढ़ी समान है। इस शील रूप पैटोन की राह चढ़नेहारा भन्य, सहज ही में मोक्षमहलमें पहुंचे है। जैसे दूती, परस्त्रोन कुं शीघ्र ही मिलावै । तैसे मोक्ष रूपी स्त्रीके दिलावे कू, ब्रह्म दूतीसमान जानना। जैसे आभूषण करि तन शोभा पावै । तैसे धर्म के जेते अङ्ग हैं। दान पूजा, जप, तप, त्याग, चारित्र, इन आदि जे जे धर्म अङ्ग हैं । तिनके भले दिखावै कू, शोभायमान कू शील गुण है सो आभूषण समान है। जैसे कोई देशांतर जावे कू रथ, गाड़ी, सुखपालादि असवारी, सुख ते परदेश लेय जाय हैं। तैसे ही शिव द्वीपके पहुंचावे कं, शील-गुण है सो यान कहिये असवारी समान है। ताते इस शोल गुणकी रक्षा करनी योग्य है। आगे शील गुण की और महिमा कहिये हैगाथा-मोख तर दिठि मूलो, खग देव गरय पूज्य असुरायो। सिभवण घर जस करई, हरई भव दुःख वंभ बाताये ॥१४॥
अर्थ-मोख तरु दिठि मूल कहिये, ब्रह्म-भाव मोक्ष-वृक्षको जड़ है। खग देव रणरय पूज्य असुरायो कहिये, विद्याधर, देव, मनुष्य और असुरन करि पूज्य है। तिभवण चर जस करई कहियो, तीन लोकके जीव । ताका यश गावै हरई भव दुक्ख वम्म वाताये कहिये, संसारके दुःख कू ब्रह्मचर्य मैट है। भावार्थ-यह शील व्रत है सो मोक्ष रूपी वृक्षकी जड़ है। जैसे वृक्षकी जड़ नहीं होय, तो वृक्ष नहीं ठहरै। अल्प-कालमें क्षय होय। सैसे ही शील-भाव रूपो जड़ नहीं होय, तौ मोक्ष-रूपी कल्प-वृक्ष नहीं रहै। बिनशि जाय । बहुरि यह शील-भाव कैसा है ?विद्याधर, राजा, ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी, कल्पवासी ये च्यारि प्रकारके देव, चक्री, अर्थ-चक्री,
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कामदेव, बलमद्र, मण्डलेश्वरादि महान् ऋद्धि के धारो बड़े-बड़े राजा, इन सर्व देव-मनुष्यन करि पूजनीय है। शोल-भाव कैसा है ? जाका यश तीन लोक के प्राशी गावें हैं। बहुरि शील-भाव कैसा है ? जन्म-मरण दुःख का नाश करनहारा है इत्यादिक अनेक गुण सहित, यह शील व्रत है। ताकी रक्षा करना योग्य है। बागेशील का माहात्म्य और बताइये हैगाथा-सिंहण दाषा करई, चंपय पद गाग दाग नह होई । वण वारण मिग जायो, यह फल सीलोय होय गियमेण ।।१४६॥
अर्थ-सिंहण वाधा करई कहिये, ब्रह्मचारी की सिंह बाधा नहीं करें। चंपय पद नाग दाग राह होई | कहिये, पांव के नीचे नाग आवे तो भी नहीं काटें। वण वारण मिग जाथो कहिये, वन का हाथी मृग समान हो माय । यह फल सीलोय होय शियमेरा कहिये, ऐसा फल नियम से शील व्रत का होय है। भावार्थ-जहां भयानक आकार, तीक्ष्ण हैं नख अरु दाँत जाक, काल-पुत्र समान विकराल, भयानक रूप ऐसा नाहर, उद्यान में शीलवान को नहीं सतावे और काल समान विकराल, फण का धारी, विष का समूह, जाके मुख तें निकसे है अग्रिवत हलाहल विष-ज्वाला, मणिधारी, ऐसा भयानक नाग, शीलवान् पुरुषन के पांव नीचे दखि जाय, तो इल्लो समान दीन होय जाय । शोल के माहात्म्य करि, पीड़ा नहीं कर और महाउद्यान में वन का मदोन्मत्त हस्ती, स्वेच्छारूप वर्तता, अपनी लोला करि बड़े-बड़े वृक्ष तोड़ता नदी-सरोवर का जल विलोलता, काल समान मेयानक वर्षा-काल के मेघ समान गर्जता दीर्घ शब्द करता, अञ्जनगिरि समान ऊँचा मेघ-घटा समान श्याम वर्ण का धारी हस्ती तें गहन वन मैं भेंट हो जाय तो रोसा भयानक गयन्द शील के माहात्म्य करि ब्रह्मचारी • बाधा नहीं करें। मृग के समान सरल हो जाय इत्यादिक फल प्रगट करनहारा उत्तम शोल-गुण है। तातें ऐसे शील-गुण की रक्षा करना योग्य है। आगे और भी शोल-गुरण का माहात्म्य कहिये है'गावा-सुर सुह कर सिब करक, वहणी णिज पतम होय टुंह सामों। सुर-तरु दहुदा सुह दय, गहणोअण साय वंभ वय करई ॥१४॥
अर्थ--सुर सुह कर कहिये, स्वर्ग का सुख करनहारा सिव करऊ कहिये, मोत करनहारा वहणी णिज पतण होय दह सामो कहिये, शीलवान का अग्नि में पड़ना होय तो यह दुःख भी शान्त होय। सुर-तरु दक्षदा सहदय कहिये, दश प्रकार कल्पवृत्त के सुख का दाता है। गहलो वस साय वंभ वय करई कहिये, ब्रह्मचर्य
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व्रत सधन वन में सहाय करे। भावार्थ-यह ब्रह्मचर्य व्रत कैसा है ? याके फल ते नाना प्रकार, पंचेन्द्रिय,
देवोपुनीत अद्भुत, अमर-पर्याय के सस होय है और शीलवान जीव कं कर्म-रहित जो मोक्ष, ताके अखण्ड | अविनाशी, अचल, अतीन्द्रिय-सुख होय हैं। शीलवान् के चौतरफ अग्नि-ज्वाला जल रही होय, तौ भो ताहि बाधा नहीं होय तथा शीलवान् पुरुष को कोई पाप्ने काम-जारा गिगा जोमा सेन, पश होय। जैसे—सीता के शील-माहात्म्य करि, अग्नि जल भई । तैसे ही शीलवान् कुंअग्नि का भय नहीं होय । दश प्रकार के कल्पवृक्ष का दिया वांच्छित सुख, सो शील के माहात्म्य तें सहज हो होय । शीलवान् पुरुष अटवी मैं जाय पड़े, तो बाधा नहीं होय । कैसा है वन ? महाउद्यान बड़े-बड़े सघन वृत्त का समूह, तहां महाभयानक सिंहन के धडूके (गुफाएँ) हैं तहाँ मैघ की नाईं, हस्तीन को गर्जना होय । तहां सिंहन को गर्षना के शब्द सुनि, मदोन्मत्त हस्तीन के समूह स्वेच्छाचारी भये, वन के वृक्ष उखाड़ते. लीला करते फिरें। सो सिंह के शब्द सुनकर, हस्ती अपने छावान (बच्चों) सहित, भागते फिरें हैं। उतर गया हमद जिनका, सो मयवान भये भागते दीखें हैं। जा वन में बड़े-बड़े पर्वत, सो गुफान करि पोले होय रहे हैं। तिन गुफानत निकसे जो बढ़े दीर्घ तन के धारी अजगर सर्प, सौ दीर्घ उच्छवास लेते गुफा से निकसते देखिये है इत्यादिक भय से भरा जो भयानक वन, सो ऐसे वन वि शीलवान आय पड़े। तो शोल के माहात्म्य करि, निःखेद होय निकसै। ऐसे अतिशय सहित जो ये शोलगुण ताको रक्षा करनी विवेकीनों योग्य है। आगे और भी शोल-गुस का माहात्म्य बतावे हैंगाथा-सिसरो अबंभ भंजुई, वंभ बतोम वज छिण एको । काम भुयंगय मंतो, वसि करई वंभ एय गडाये ॥ १४८ ॥
अर्थ-सिसरो अवंभ भंजई कहिये, अब्रा रूपी पर्वत के फोड़वे कौं। वंभ बतीय वज्ज छिण राको कहिये, ब्रह्मचर्य राक वन के समान है। काम भुयंगय मंत्तो कहिये, काम रूपी सर्प के वश करवे कों ब्रह्मचर्य एक मन्त्र समान है। बसि करई वभ एय गरुडाये कहिये, तथा ताके वश करने कू ब्रह्मचर्य एक गरुड़ समान है। भावार्थ-कुशील रूपी उत्तुंग पर्वत के चूरण करवे • शील-भाव वज्र समान है। एक छिन में कुशील रूपी पर्वतन के फोड़े है और कैसा है शील-भाव ? कुशोल-भाव रुपी जो सर्प, ताके वश करवे कं मन्त्र समान है । तथा ताके वशी करवेक शील-भाव गरुड़ समान है। ऐसे शीलव्रत की रक्षा करना योग्य है। आगे और भी झील
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व्रत की महिमा बताइये है-- गाथा-मदणो मद गय मंभव, अंकस सिर दाग लाग वस करई । मण कपि वस कर फबई, अंभो वय-एय गेय णियमेण ११४९॥
अर्थ मदलो मद गय थंभउ कहिये, मदनरूपी मदोन्मत्त हस्ती ताके जीतवेकू। अंकस सिर दाग लाग वस करई कहिये, शिर में अंकुश के दाग लगाय वश करने समान । मग कपि वस कर फंदई कहिये, मनरूपी बन्दर के वश करनेकौं फन्द समान । वंभो वय एय गेय शियमेण कहिये, एकही ब्रह्मचर्य व्रत नियम से जानना । भावार्थकामरूपी मदोन्मत्त हस्ती, महाबलवान् सो ताके जीतवे• इन्द्र, देव, चक्री, कामदेव, नारायस, बलभद्र, कोटीभटादि महापुरुष, बड़े-बड़े बैरीन के जीतवे कुंबलवान, इनको आदि बड़े-बड़े सामन्त, ते भी इस कामरूपी | हस्ती के वशी करनेकं असमर्थ भये। ऐसे कामरूपी हस्ती के वशीकरवेक, ये शोल-भाव है, सो अंकुश के दाग समान है। कैसा है शील-भाव ? सो मनरूपी बन्दर के बांधवैकं, लोहे की सांकल समान है। इनकों आदि अनेक गुण सहित, शील-भाव जानना। आगे और भी शोल-व्रत की महिमा कहिये हैमाथा---गय बार कपाटो, अवंभ तक छेद सीच्छ फुलहारो । सिव गएछत सुह सुकणो, इन्दी मिग बाल बंभ बताये ॥१५०1
अर्थ-कुगय बार कपाटो कहिये, ५ ब्रा-माय कुगति द्वारका कपाट समान है। अवंभ तर छेद तीच्छ कुठहारो कहिये, कुशीलरूपी वृक्ष के छेदनेक तीक्ष्ण कुठार है। सिव गछछत सुह सुकणो कहिये, मोक्ष चलवेकू, शुभ शकुन है। इन्दी मिग जाल वंभ बताए कहिये, इन्द्रियरूपी मृग के पकड़वेकं ये ब्रह्मचर्य, जाल समान है। भावार्थ-यह ब्रह्मचर्य व्रत है. सो कुगति जो नरक-तिर्यञ्च गति, तिनमें नहीं जाने देयनेकू कपाट समान है और कैसा है शील-व्रत ? जो कुशीलरूपी बिकट वृक्ष सो आर्त-रौद्र-भावरूप कांटैन सहित भाकुल-मावरूपी छाया का धारी, अपयशरूपी फूल करि फूल्या, नरक तिर्यश्च गति हैं, फल जाके ऐसा कुशील वृक्ष, ताके छेदने कू शोल-भाव तीक्ष्रा कठार समान है। बहुरि कैसा है शोल-भाव ? जैसे-कोई बड़े लाभ निमित्त द्वीपान्तर जाते. भलै शकुन होय। तौ जाते ही कार्य सिद्ध होय । तैसे हो मोक्षरूपी द्वीप के गमन करनेहारे यतीश्वर तथा और भव्य श्रावक, तिनको शुद्ध शील व्रत का मिलाप, भले शकुन समान है। बहुरि कैसा है शील-भाव ? जैसे—काह का तैय्यार मया धान्य का खेत है। ताकी उद्यान में मृग उजाड़े हैं, खाय जाय हैं । तिन मृगों कों, स्याना खेत का
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के घेदन कूस्तो
धन ते, घरको मात्र के करने कूता
| लोभी किसान, जाल ते पकड़ के, अपना खेत बचाव है। तैसे ही अनेक गुणान का उपजावनहारा संयमरूपी
खेत, ताकों इन्द्रियरूपी मृग बिगाड़ें हैं। सो अपने संयम-खेत की रक्षा का करनहारा धर्मात्मा पुरुष, सो इन्द्रिय | रूपी मृग तिनकू शोलरूपी जाल तैं पकड़ि, अपने वश करि, अपने संयम स्खेत को बचावै इत्यादिक बनेक | गुणों का भण्डार यह शील-व्रत है। ताते याकी रक्षा किये, स्वर्ग-सम्पदा दासी होय। मौत-सम्पदा घर विर्षे गान। सो विदो हो ! इसकी रक्षा करो। इति शील-महिमा। भागे कुशील का स्वरूप कहिये हैगाथा-धम्म तक भंज गयन्दो, मिल्छा रयणीय माहि मिग्गाको । आपद धान गह भरई, ये सळ दोसाय अणणि अवंभो ॥१५॥
अर्थ-धम्म तरु भंज गयन्दो कहिये, धर्मरूपो वृक्ष के छेदने कू हस्ती। मिच्छा रयणीय माहि मिग्गाको कहिये, मिथ्यात्वरूपी रात्रि के करने कूताका नाथ चन्द्रमा समानि । मापद धरा गह मरई कहिये, आपदारूपी धन तें, घरको मरनहारा ये सऊ दोसाय जराशि अवम्भो कहिये, इन सब दोषों की जननी जब्रह्म है। भावार्थ-धर्मरूपी वृक्ष यशरूपी सुगन्धित फूलों करि फूल्या, स्वर्ग-मोक्ष है फल जाके ऐसा धर्मवृक्ष, ताकों तोड़-विध्वंस करने को कुशील भावना, मतङ्ग हस्ती समान है। सम्यग्ज्ञानरुपी दिन, सर्व पदार्थन का जनावनहारा ताके हरने कुजस मिथ्यात्वरूपी रात्रि के प्रकाश करने के कुशील-भावना रणनीपति--चन्द्रमा समान है और आपदा कहिये नाना प्रकार दुःख, दारिद्र, रोग, भय, जेई भई सम्पदा तिनतें घर भरनहारा कुशील है। भावार्थ-जाके कुशील है ताके घर आयदा काहूँ नहीं छूट इत्यादिक अनेक दोषों के जन्म देने कू समर्थ कुशील-भावना माता समान है। ऐसा जानि कुशील-भावना तजना भला है। आगे और भी कुशील का स्वभाव कहै हैंगाषा-भ हणण तिय कुटिला, कुमय गमण कर हरय सिव मन्गो । एहो भाष अबमो, हेयो काय भव्य वंभ पादेयो॥१२॥
अर्थ-वंम हराश तिथ कुटिला कहिये, ब्रह्म नाशने कू कुटिला स्त्री। कुगय गमरणकर कहिये, कगति में गमन करें। हरय सिव मागी कहिये, मोक्ष-मार्ग को हरैं। राहो माव अवंभो कहिये, ऐसा कशील । भाव है। हेयो कीय भव्य कहिये, ये भए जीव के हेय है। वंभ पादेयो कहिये, ब्रह्मचर्य-माव उपादेय है। | भावार्थ से कुटिला स्त्री है सो अनेक हाव-भाव करि, पर-पुरुषका मन मोहकर ताका शील हरे है। तैसे ही
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कुशील माव है, सो ब्रह्मचर्य के हरने कू कुटिला-स्त्री समान है। फिर कुशील भाव कैसा है ? कुगति जो नरक तिर्यच गति ताके मार्ग कं बतायें है। कैसा है कुशील ! जो मोह-मार्गसम्यग्दर्शन-शान-चारित्र, इनके हरे है। तातें हे भव्य हो ! यह कुशील भाव है सो याकौ तौ । अरु शील भाव कू अङ्गीकार करहु। ऐसे कह जो शोल भाव अरु कुशील भाव तिनका स्वभाव अपनी बुद्धिके बल करि पहिचान समता रसके स्वादी होय इस जगत बिडम्बना रूप विकार भाव सहित जो कुशील भाव तिनका तजन करि मोक्ष रूपी स्त्री के सम्बन्ध ते उत्पन्न, जो निराकुल, अद्भुत, अतीन्द्रिय सुख, ताही की तुम शीलभावके प्रसाद भौग करि, सुखी होऊ। यह को जो कुशीलभेद, तिन कुंतजि ऊपर कहे शील गुणकौं धारे। सो क्रिया-ब्रह्म जानना। इति कुशील निषेध, शीलकी महिमा कही। आगे च्यार भेद क्रिया-ब्रह्मके हैं। तिनकी क्रिया लिलिये हैगामा–सिर लिन उर लिङ्गो, कटि लिङ्गो उरय लिङ्ग पव भेयो । धारय सो दुज सुदो, वभ चारोय धार समभावो ॥१५३५
ई-शिएलिजर लहिरे, सिरका चिन्ह । उर लिङ्गो कहिये, उर (छाती) का चिन्ह । कटि लिंगो कहिये, कमरका चिन्ह । उरय लिंग कहिये, जंघाका चिन्ह । चव भेयो कहिए, र चार प्रकार क्रिया ब्रह्म है। धार समभावो कहिए, समता भावोंको धारण करें। बभचारोय कहिए, वही ब्रह्मचारी है। धारय सो दुण सद्धी कहिए, वही शुद्ध द्विज है। भावार्थ-भले तीन कलके उपजे धर्मात्मा-गृहस्थके बालक, ते काल गृहस्थाचार्यक पास विद्याका अभ्यास करें। तेते समय गुरुकी आज्ञा-प्रमाण ब्रह्मचर्य-व्रत पालें । अरु च्यारि चिन्ह सहित रहैं। सो सिर लिंग ताकौं कहिए, जो नग्न शोश रहै । सो चोटीमें गठि राखें, सो सिर लिंग है।३। उरु लिंग ताको कहिए, जो गले विर्षे रत्नत्रयका प्रसिद्ध चिन्ह, जिन-धर्मका निशान, पक्का जैन अपना जिन-धर्म प्रगट करनेके निमित्त, गलेमें सीन सूतकी-उर बिजनेऊ डालें सौ उरका चिन्ह है।३। डाभको तथा मजकी रस्सीका, कमरकी करधनीकी जायगा. ताका बन्धन राखै, सो कटिका चिन्ह है । ३। उर नाम जंघाका है। सो जांघपर उज्वल धोती राखै सो उरुका चिन्ह है।४। इन च्यारि गुरा सहित जो क्रिया होय सो क्रिया-ब्रह्म है। उरका चिन्ह जनेऊ है ताके नव गुण हैं। इन नव गुण सहित जो भव्य होय, सो जनेऊ राखें । अरु इन गुण बिना जनेऊ रावै, तो परंपराय तें, धर्मका लोप होय। ताकौं पाप-बंधका करनहारा कहिए सो वै नव गुण केसे, सो
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ही कहिर है-विज्ञानता, क्षमावान, जदत्त त्याग, अष्ट मूल गुणधारक, लोभ रहित, शुभाचारी, समिति धर, शीलवान् और त्याग गुण। भावार्थ:--विज्ञानता जो नाना प्रकार विशेष-गुणनको सावधानीराखना । क्षमावान होय, तपस्वी |५३॥ होय । दया सहित,आप समान सब जीवनका जाननहारा होय । उदार चित्त होय । सर्वज्ञ भाषित शास्त्रनका धारी पण्डित होय। यथा योग्य देव-गुरु-धर्म व आप सम, जाप तें लघु, इत्यादिक सर्वको विनयमैं समझता होय । आपका हृदय विनयवान् होय। इन आदिक विशेष ज्ञानवान होय सो विज्ञान लक्षण है।शदूसरा नमागुरा सो शांत स्वभाव हो श्री नहीं होः । सभी महलका इञ्छुक होय । अदेखसका नहीं होय। क्रोध, मान, माया, लोभ, पाखंडका त्यागी होय। कषायो नहीं होय । इत्यादिक गुणी. सो क्षमा गुण है। २. बदत्तका त्यागी होय । राह पड़ या द्रव्यों नहीं छोवें। बिना दिया, किसीका गड्या, धरया, भल्या धन लेय नाही। इत्यादिक चोरीका त्यागी होय सौ तीसरा अदत्त-त्याग गुण है।३। मूल गुणका धारी होय । ऊमर, कठूमर, पाकर, फल बड़ फल, पीपल फल, ए पांच उदंबर। मद्य, मांस, मदिरा, ए तीन मकार। सब मिल बाठ भए । सो इन आठनका त्याग, सो अष्ट मूल गुण हैं सो इन गुपनका धारी होय । रात्रि-भोजनका त्यागी होय। इत्यादिक समक्ष्य कन्द-मूलका त्यागी होय सो चौथा अष्ट मूल गुणाधारक गुण है।8। निर्लोभता-सी परिग्रह तृष्णाका त्यागी होय। संतोषी होय। अहङ्कार, ममकार जो मैं ऐसा, मोसा कोई दूसरा नाहीं, सो महतार है। यह मेरी. वह मेरी, तन, धन, पुत्र, स्त्री, घर, मेरा-ऐसा कहना सो ममकार है। जो ऐसे भावनका त्यागी होय । सो निर्लोभता पश्चम गुण है। ५। शुभाचारी होय । जो पूजा जप तप संयम सूं रहना। अयोग्य खान-पानका त्याग भला भोजन देखके लैना। इत्यादिक शुभक्रिया करि रहना। सो शुभाचार है। अनछना जल पावे नाहीं। ऐसे जल ते सपरे (स्नान करे) नाहीं। नदी, सरोवर बावरी कूपमें कूदके स्नान करै नाहों। इत्यादिक मले गुरा धारे। सो : शमाचार नाम छदा गुण है। ६ । सातवां समिति गुण-से धरती पै चले तो नीची दृष्टि कर देता चाले। अपनी दृष्टिमें छोटे-मोटे जीव आवै। तीन कं दया भाव करि बचावता चाले। फर्द्धमुख करि नाही चाले। शीघ्र शोघ्र नाहीं चाल । राह चलते इत उत नहीं देख भागै नांहीं। भाषा बोले सो बिचारके बोले। भोजन के समय बोलें नाहीं, लड़े नाही, काहू को गालो नहों काहै। इत्यादिक शुद्धता सहित देखके भोजन लैय । वस्तु कहीं से
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लैय सो देख कर लेय। घौसके नहीं रोष : तन कहीं पर तो देखके धरै। धरती बिना देखे नहीं धरै। मल-मूत्र अपने तनका डार सो जीव रहित स्थानमै देख शोध डारे। इत्यादिक शुद्धता सहित रहना, सो सातवा समिति गुण है। ७। आठवां शील गुण सो पर-स्त्री विर्षे विकार बुद्धिका त्यागी होय। निज स्त्रोके संभोग विर्षे. संतोषी होय। अल्प निद्राका करनहारा होय । अल्प निद्रा होय तो प्रमादी नहीं होय । दीर्घ निद्रा करे तो अपने गुणन के कलंकित करें। अल्प आहारी होय । बहुत भोजन करें तो शील कौ दुषरण होय । काष्ठ पाषाणादिको स्त्री देख विकार रूप चित्त नहीं करें। इत्यादिक शोलभाव राक्षे, सो आठवी शील गुण है।८। त्याग नवा गुण है। सो कुटुम्ब परिग्रह और शरीरमें मोहका त्यागी होय। अनरंजन भाव होय। मंद मोह को लिये सरल चित्तका धारी होय । चिन्ता शोक भय करि रहित होय । बड़ा दानी होय। इत्यादिक गुण सो त्याग गुण है।। रोसे कहे नव गुण सहित जो होय सो तिस भव्यात्मा कौ यज्ञोपवीत फलदाई होय । इन गुरण बिना यज्ञोपवीत राखें तौ परभव कौ दुषित करै। प्रायश्चित्तका धारक सत्पुरुष ब्रह्मचर्यका धारी तिन करि निंद्य होय । दुस पावै। जैसे मन्त्रका जाननहारा सर्प राखें । तो निर्दोष है। बिना मन्त्र जानै सर्प राखे। तौ दुखी होय। ऐसे कहे गुण प्रमाण यज्ञोपवीत राखै तौ शुभ उपजावै नाहों दुख उपजायें। ऐसा जानि गुण सहित यज्ञोपवीत राजै। सो क्रिया ब्रह्म है। आगे इन ही श्रावकनके भोजन समय सात अन्तराय होय हैं। सो कहिये हैं। प्रथम नाम जहां कौड़ी आदि निर्जीव हाड़ देख मांस पिंड देखें रोद्र धार देखें भोजन करते थालमें जीव पतन होय पंचेन्द्रियका मल देखे कच्चा पक्का सूखा चमड़ा देखें व स्पर्श और तजी वस्तु भोजनमें शई। रैसे सात अन्तराय हैं सो इनका निमित्त मिले तो दयावान् कोमल चित्तका धारी प्रावक भोजन तज। ता दिन अनशन करै। जब से
अन्तराय भया तब तैं अन्न जल नहीं लैथ। ऐसा जानना। आगे ये क्रिया ब्रह्मके पालने योग्य सत्रह नियम हैं। | सो कहिये हैं
गाथा-भोयण षड़ रस पाणो, लेप पुखोय गीत तंबोलो । णित अवंभ सणाणो, आभूषण पट्ट पम्माणो । १५४॥
अर्थ---भोयण कहिये, भोजन । षड रस कहिये, षट रस। पाशो कहिये, पान करने योग्य जलादिक । लेय कहिये, लेप करने योग्य वस्तु । पुखोय कहिये, पुष्य। गीत कहिये, राग। तंबोलो कहिये, नागर पान।
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श्री
सु
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位
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रित कहिये, नृत्य | अवंभ कहिये, कुशील। सणासो कहिये, खान आभूषण कहिये, गहना । पट्ट कहिये, वस्त्र । पम्माणो कहिये, इनका प्रमाण करना। इनका भावार्थ आगे कहेंगे।
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गाया — वाहण सज्जा असण, सचित संज्ञाय सप्त दस नियमो धम्मी सावयः धारय, जाम दिण पक्ष मास वस्सादि || १५४ अर्थ — वाहण कहिये, असवारी। सज्जा कहिये, शैय्या, सोने का स्थान आसरा कहिये, बैठने का स्थान । सचित्त कहिये, जीव सहित सो सचित्त । संज्ञाय कहिये, वस्तु । सत्त दस शियमो कहिये, ए सत्तरह नियम हैं । जाम दिन पक्ष मास वस्सादि कहिये, पहर-दिन पक्ष-मास वर्षादि तक धम्मी सावयः धारय कहिये, धर्मी श्रावक धारण करे। भावार्थ-भोजन, रस, पान, लेपन, फूल, ताम्बूल, गीत, नृत्य, जब्रहा, स्नान, आभूषण, वस्त्र, बान, शैय्या, आसण सचित्त और वस्तु – इन संग्रह का नियम करें। इनका अर्थ-तही गेहूँ, चना, चांवल, मूंग, मोंठ, यव, ज्वार आदि अत्र का प्रमाण जो मैं रते अत्र खाऊँगा, बाको अत्र तजे। ऐसे
भोजन की संख्या राखना, सो भोजन प्रमाण है |१| आज षट्स विषै येते रस खाऊँगा, सो अगार है। बाकी के ती। ऐसे षट् रसन में तैं, जो एक-दो-तीन व्यारि आदि रस का प्रमाण करना। सो रस नियम है | २ | पान करने योग्य जो जल, मही, दूध, ईवरस आदि वस्तुन का प्रमाण करना। जो येतो वस्तु पान योग्य राखी सो अगार है सो खाऊँगा बाकी त्यागी ऐसा प्रमाण करना, सो पान प्रमाण है । ३। येती सुगन्धी अगर, चन्दन, अगरणा, तेल, फुलेल इत्यादि इनका प्रमाण करना जो रोती खुशवीय राखी, बाकी तजी । तिनकी प्रतिज्ञा करनो, सो लेप नियम है |४| अनेक जाति के फूलनमें हैं, फूलन की संख्या राखनी, जो आज येते फूल राखे, सो सूंघना । ढाकने, पहरने इत्यादिक का प्रमाण करना, सो फूल नियम है १५ जो येते ताम्बूल राखे । सो खाना, सो ताम्बूल नियम है । ६ । आज ऐती राग सुननी । षट् राग, छत्तीस रागनी वरु तिनको जनेक भार्थी हैं, तिनमें तैं प्रमाण करें। सौ राग सुनै, बाकी नाहीं सुने । सो राग नियम है । ७ अनेक जाति के नृत्य हैं। पातरा नृत्य, वेश्या नृत्य, देवांगना नृत्य, घर-स्त्रीन का नृत्य, भाण्ड नृत्य, भवैया नृत्य, नएको नारी बनाय नृत्य, नारी नर-रूप धर नृत्य करें इत्यादिक अनेक हैं। तिनमें तैं प्रमाण करना। जो एते नृत्य आज देखने, बाकी का त्याग है सो नृत्य नियम है । पर- स्त्री का सर्वथा त्याग तो पहिले ही था अरु स्व- स्त्री
रं
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में संतोष सहित प्रमाण करना। जो आज रातीबार कुशील-सेवनका प्रमाण है। बाकीका त्याग है। ऐसा प्रमाण,
सो कुशील नियम है।। धाज राती बार स्नान करूंगा. बाकी तण्या सो स्नान नियम है।३०। बाज गते " आभूषण राख्ने सो पहरने बाकीका त्याग। ऐसा प्रमाण करना सो आभूषण नियम है । १५ । शैतै वस्त्र राखे। ||
ते सूतके एत रेशमा यो रोमीर इत्यादिक वस्त्रका प्रमाण करना सो वस्त्र नियम है।१२। हाथी, रथ, घोड़ा, ऊंट, बैल, रोज महिष, अंबाड़ी, भियाना, पालकी, नालको तस्त्रतरवां, गाड़ी इत्यादिक अनेक असवारीके | भेद हैं। तिनमें तैरते राखी बाकी तणीं। ऐसे अनेक पुश्य-प्रमाणमें भी संतोष करि असवारीकी संख्या रासन
सो वाहन नियम है।२३। सोवनेका स्थान, महल, पलंग, बिछौना, तकिया, पिछोरा, रजाई, इत्यादिकका प्रमाण करना सो शैय्या नियम है। १४। बहुरि एती जायेगा बैठना यती जगह जाना। ऐसा प्रमाण करना सो प्रासन प्रमाण है। २५। आज राती सचित्त वस्तु खावना बाकीका त्याग सो सचित्त नियम है। १६ । प्राण एती वस्त राखी सो लेना बाकीका त्याग है। ऐसी प्रतिज्ञा करनी, सो वस्तु नियम है। २७। रीसे ए सत्रह नियम कहे। सो धर्मात्मा अव्रती श्रावक पर्यंतक करना योग्य है। इनका प्रमाण होते इस जगत तें उदासी धर्मात्मा श्रावकका चित्त विषय भोगन त विरक्त रहै है। तातें प्रमाद नहीं बधने पावै। इनके विचार ते स्यात-स्यात (घडी-घडी में धर्मकी यादगारी रहै है। अनर्थ-दण्ड पाप छुटे है। सो जै धरिमा ब्रह्मचर्य व्रतका धारी इनक विचार करै सो क्रिया-ब्रह्म है। इति सत्रह नियम। आगे क्रिया-ब्रह्म धर्मात्मा श्रावक ताके इक्कीस गुण कहिए है। तहां प्रथम नाम-प्रथम लजावान् होय। अगर निर्लज्ज होय तो देव गुरु धर्मको मर्यादा लोप देय । कुल धर्म तणि कुधर्मका सेवन करें। बड़े गुरुजनको अविनय रूप प्रवृत्ति करें। माता-पिताकं खेदकारी होय। एतै दोष भरा धर्मका अभाव होय । तातें धर्मका स्वभाव लज्जा है। तातें धर्मी, लजा गुणका धारी है।। अदया, सर्व पापका बीज हैं। तातें दयावन्त होय, निर्दयी नहीं होय ।। तीव्र कषायी होय, तो लोकमें निन्दा पावै। धर्म-कल्पवृक्ष बिनशि जाय। तातें शांत स्वभावी होय, क्रोधादि कषाय-जाके नहीं होय । ३। केवली सर्वहभाषित धर्मका श्रद्धान सहित, जिन धर्मका उपदेशक होय। स्वेच्छाचारी, मिथ्या-धर्मका उपदेशक नहीं होय । ४ । पर-दोषनका ढांकनहारा होय। अपने जौगुणका प्रगट करनहारा होय । ५। परोपकारी होय। परद्वेषी नहीं होय।।
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सौम्य-मूर्ति होय। जाके देखे प्रोति उपजै। भयानक आकार नहीं होय । ७१ गुण-ग्राही होय। औगुस-ग्राही | नहीं होय।८। मार्दव धर्मका धारी, यथायोग्य विनयकं लिये होय।। सर्व जीवनकं, माप समान माने। सर्व ते मैत्री-भाव लिये होय। द्वेष-भाव रूप काह ते नहीं होय । १०। न्यायपक्षका धारी होय। अन्याय पक्षका पोखता नहीं होय।२२। मिष्ट मधुर स्वरका भाषणहारा होय। कठोर वचनी नहीं होय । १२ । गंभीर स्वभाव सहित. दीर्घ विचारी होय। बालकवत् सामान्य विचारी नहीं होय । २३। विशेष ज्ञानी होय। कोई कुवादीनको खोटी नय-युक्ति ते नहीं डिगै। आप अनेक सधुक्ति सदृष्टान्त सच्चे शास्त्रन्याय ने बताय, कुवादीनका खण्डनहारा, मला ज्ञानी होय।१४। सर्वकौं सुखी देख सुख पावनहारा सज्जन स्वभावी होय। दुर्जन अदेखा नहीं होय ! २५ दया धनाइला धादी जाननादि तुम सहित धर्मात्मा होय । पापी नहीं होय । १६ । भली बुद्धिका धारो होय । कुबुद्धि धारी नहीं होय । २७। योग्यायोग्यका जाननहारा होय, मूर्ख नहीं होय । १८। दीनता उद्धतता रहित, मध्यम-स्वभावी होय।२६। सहज ही विनयवान् होय अविनयी नहीं होय ।२०। पापारम्भ क्रिया ते रहित, शुभाचारी होय।२२। ऐसे कहे गुण सहित होय, सो किया ब्रह्म जानना। इति इक्कीस क्रिया ब्रह्मके गुण । आगे किया ब्रह्मके भेद, पर मतमें भी कहे हैं, सो कहिए हैं। जो ये गुण होंय सो किया ब्रह्म है। ताको क्रिया कहैं हैं। सो हो कहिये है-“उक्त च मार्कण्डेयजी कृत सुमति शास्त्र"-जे उत्तम ब्राह्मण होय सोरती क्रिया करें। सो बताईये है। जहां अनछान्या पानी पोवै, तो मदिरा समान दोष होय। अनगाले जलमें स्नान करै, तो काया जशुचि होय । अनगाले जल में रसोई करें, तो सात भय जलचर जीव होय । तातें उत्तम द्विजकों अनगाल्ये जलते क्रिया करना मना हैं। ऐसा जानना। आगे व्यास वचन महाभारतसे सातवें खण्डमें कहा है। ब्राह्मणकू शीलव्रतही श्रृङ्गार है। शील बिना पूजा जप तप सर्व नष्टकारी है। फलदाता नाही। तार्ते उत्तम गुसका लोभो शील सहित रहै है। और ब्राह्मण, दया पाल करि गमन करे है। आप समान सर्व जीवन को जानि तिनकी रक्षा करने निमित्त नोची दृष्टि किये चले। जो कीड़ी कंथुवादि अपनी दृष्टिमैं जावे तो बचावता धरती | देखता या विधिसं गमन करे। बिना देखै पांव नहीं धरै। भोगो जीवनके सोवनेका स्थान जो पलङ्ग तायै नहीं । सोवै। भूमि सोवै । और जाते राग भाव बधै, काम बधै, ऐसा वस्त्र नहीं राखे । राग रहित वैराग्यको कारण
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ऐसा वस्त्र पहिरै। शरीरकू चन्दन अरगणा तैल फुलेल इतरादिक सुगंधित वस्तु नहीं लगावै ताम्बूल पान नहीं साय। और संसारके मोही प्रमादी कुशीलवान् जीव तिनकी सो नाई निशंक होय निद्रा नहीं करें। कामी पुरुषकी नाई विषयनमें मोहित नहीं होय। भोगाभिलाषी कामी पुरुष तिनके मुखसं स्त्रीनकी कथा राग भाव सहित नहीं मनै। आने मुख ते काम कथा स्त्रीनके गुण रूप भोगकी कथा नहीं कहै। क्रोध मान माया लोम तजनका उपदेश औरनकं देय। अपने तन वै श्रृङ्गार नहीं करें। हस्ती घोटक पालकी रथादि बाहन पे नहीं चहै। दयाके हेत पांव प्यादा धरती शोधता चले। दन्त नहीं धोवे। इत्यादिक अपना ब्रह्मपद जो ब्रह्मचर्य तार्क रक्षा करता भलो क्रिया करै। प्रभात व शाम दो वखत, संध्या नहीं चूके। इन क्रियान सहित होय सो ब्रह्म सत्पुरुष करि शुश्रूषा योग्य होय है। रा लक्षरा क्रिया ब्रह्मके कहे। और इन क्रिया रहित होय सो क्रिया ब्रह्म नाहीं। जो कुशील भाव क्रोध मान माया लोभकू लिये अहंकार ममकार सहित होय सो शीलवान् करि शुश्रूषा नहीं पावै। दोष सहित है। ए गुण जाम नहीं होंय सो कुल ब्राह्मण है क्रिया ब्राह्मण नाहीं ऐसा जानना। इति व्यास वचन । आगे मार्कण्डेय कृत सुमति शास्त्र तामैं ऐसा कहा है। कि जो दिनके प्रथम पहरमें भोजन करे सो देव भोजन है। दूसरे पहर में भोजन करै सो ऋषीश्वरका भोजन है। तीसरे पहरमें भोजन करै सो फितनका भोजन करै। चौथे पहरमें भोजन करे सो दैत्यनका भोजन करे। तातें दिनका अष्टम भाग च्यारि घड़ी बाकी रहै। जब सूर्यकी कांति मंद होय । तब से उत्तम आचारी ब्रह्मचर्यका धारी भोजन नहीं करे। अरु कदाचित् करें तो अपने ब्रह्मचर्य पदक द्रषित करे। ऐसा जानना। आगे शिव पुराणमैं कहा है। जो उत्तम ब्रह्मव्रती राती वस्तु नहीं खाय। बैंगन, गाजर, मूली, आदी, सरन, मधु, मद्य, मोस इत्यादि अभक्ष्य वस्तु नहीं खाई। ब्रह्मना धारी उत्तम जीव नहीं खाय और कदाचित लोभ धारि के खाय तो जो बारह वर्ष दान पूजा जप तप किये तिनका फल मिटि जाय। तातें ब्रह्म भक्त रातो वस्तु नहीं खाय मागे और पुरासनमें भी कहा है। जो कृष्ण | महाराज, युधिष्ठिरजी सूं कहें हैं। भो युधिष्ठिर! मेरा भक्त होयके ब्रह्मती कंद-मुल खाय। तो दया पूजा दान, इन्द्रिय-मनका जीतना, ये सर्व क्रिया विफल होय। तातें मेरे भक्त कौ कन्द-मूल तजना योग्य है। और काश्यप मुनिके वचन हैं। जो ब्रह्मभक्त पूजा करे तो तब सुफल है। जब कन्द-मूल नहीं खाय। थाके
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साये से सर्व क्रिया नष्ट होय। और शिवपुराण में कहा है। जो दया समान दूसरा तीर्थ नाहीं। दया भाव है, सो ही एक मला तीर्थ है दया बिना तीर्थफल नाहीं ऐसे कहे जो अनेक धर्म अङ्ग सो इनकं पालें। वही उत्तम धर्मका धारी क्रियाब्रह्म है। इति क्रियाब्रह्म। आगे कुलब्रह्म के दशभेद अन्यमत संबन्धी कहे हैं सो ही बताईये है
काव्य-सुरो मुनीश्वरो विप्रो, वेश्यः क्षत्रिय शूद्रको। विज्ञातिपसुभातंग, म्लेच्छाश्च दश बातयः॥ अर्थ-देव जाति, मुनि जाति, विप्र जाति, वैश्य जाति, क्षत्रिय जाति, शद्र जाति, विजाति, पशु जाति म्लेच्छ जाति, मातङ्ग जाति-...ये दश भेद व्यास भाषित मत्स्यारा भारपार है! हाया बर्ग-जहाँ तस्वझान विर्षे प्रवीण होय, अपने आत्म कल्याण का अर्थो होय, निहिंसक क्रिया का करनहारा होय, बहु जारम्भ-परिग्रह का त्यागी सन्तोषी होय, त्रिकाल सन्ध्या की क्रिया में सावधान होय, आपा-पर के शान का धारी होय, आत्म-तत्त्ववेत्ता होय इत्यादिक गुण सहित होय, सो देव जाति का ब्राह्मण है । और जो उत्तम तीन कुल.का भोजन करनहारा होय, नगर का वास तजि वन का निवासी होय, तीनकाल जात्मध्यान में प्रवर्तनहारा होय इत्यादिक गुणसहित होय, सो ऋषीश्वर जाति का ब्राह्मण है। २१और अनेक प्रासुक सुगन्ध द्रव्य मिलाय, अग्नि मैं खे-होमै । अग्नि कबहूँ बुझने नहीं देय । होम-क्रिया में सावधान होय, दयारूप धर्म जानता होय, देव-गुरु-पूजा मैं विनयवान होय, अपने भोजन में तें अतिथि कौं देय, गैसे अतिथि व्रत का धारी होय, गृहस्थ के षट् कर्म-क्रिया में सावधान होय, ऐसे गुणसहित जो होय, सो विप्र जाति का ब्राह्मण है।३। और जे हस्ती, घोटक, रथादि की असवारी विर्षे प्रवोश होय । युद्ध करवं की जाकै चाह होय । युद्ध की अनेक-कला तीर गोली, खड़ग, पटा, सेल्ह, धूप, बांकि, खंजर, छुरी, कटारी इत्यादिक शस्त्र-कला मैं सावधान होय ! लड़ने में मरने कू नहीं डरता होय । मन का शुरवीर होय । बड़े आरम्म, राज्य-सम्पदा का मोगो होय । जो इन गुणन सहित होय, सो क्षत्रिय जाति का ब्राह्मण है।४। ब्राहारा के कुल में तो उपज्या होय अरु खेती करता होय । गाय, महिष, वृषभादि पशन के पालने की कला में प्रवीरा होय । बाचार रहित खान-पान का करनहारा होय । इन लक्षण सहित होय, सी शुद्र जाति का ब्राह्मण हैश ब्राह्मस के कुल में || उपज्या होय अरु इन वाणिज्य व्यापार की चतुराई जानता होय। वस्त्र परीक्षा सोना, चाँदी की परीक्षा ।
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जानता होय । रुपया, मुहुर, रत्न को परीक्षा जानता होय । अत्रादिक लेन-देन में सावधान होय । अनेक लेखे करने की जो कला व्याज फैलाना आदि ज्ञान सहित आजीविका करता होय, सो वैश्य जाति का ब्राह्मस है।६। ब्राह्मण कुल में तो अवतार लिया होय अरु पराई निन्दा करनहारा होय। पर-दोष का देखनहारा
होय । अनेक पर-स्त्री का भोगनहारा पशु समान कुशीलवान होय । पंचेन्द्रिय विषय में लोलुपी होय। अपना || यश, अपने मुख तें करता होय । अपनी सन्तोष-वृत्ति कुंतज, द्रव्य के लोभ कू अनेक स्वांग धरि, छल-बल
करि, धन पैदा करता होय । अनेक गावना, बजावना, नृत्य करनादि कला कर आजीविका करता होय । अनेक यन्त्र, मन्त्र, तन्त्रादि के चमत्कार लोगनकं दिखाय, अपने कुटुम्ब का पालन करता होय। इन लक्षण सहित होय । ताकू विजाति ब्राहाण कहिये। ७। ब्राह्मण के कुल में तो जवतार लिया होय अरु खाने योग्य वस्तु अरु ऊँच-कुलो मनुष्य के नहीं खाये योग्य वस्तु विष, विचार रहित होय । क्रोध वचन, गाली वचन, श्राप वचन, कुफर जो भण्ड वचन इत्यादिक दुर्वचन; पर-पीड़ाकारी, पापमयो, बोलने का स्वभाव होय मली-क्रिया रहित | होय । महाप्रमादी, बहुत सोवने का स्वभाव होय इत्यादिक लक्षण आमें होय, सो पशु जाति का ब्राह्मण है।८। ब्राह्मण कुल में तो अवतार घर-चा होय अरु नदी, तालाब, बावड़ीन की क्रोड़ा-तैरना-कूदना, ताकू भला लागता होय । मद्य-मांस मक्षण करता होय । बहुत हिंसा करनहारा होय । दया-धर्म शुभाचार रहित होय इत्यादिक लक्षस जामें होय, सो म्लेच्छ जाति का ब्राह्मण है। ।। और महाहिंसा का करनहारा होय। मनुष्य-पश के मारने कू निर्दयी होय। भली-भली द्विज योग्य क्रिया, तिनकरि रहित होय। हिताहित विचार करि, रहित होय। पूजा, दान, जप, तप आदि धर्म-किया करि शून्य होय। पाप परिणति सहित होय । इन आदि लक्षण सहित, सो मातङ्ग जाति का ब्राह्मण है । १०। ऐसे ब्राह्मण के दश भेद कहे, सो आचार के योग त कहे; परन्तु ब्राहलय के कुल में उपज्या है, सो जिस कुल में उपज्या होय, सी ही नाम कहना सो क्रिया चाहे जैसी करो। ब्रालय में उपज्या, ताकौं ब्राह्मण कहना, सो कुल-ब्रह्म है । या प्रकार स्वभाव-ब्रह्म, क्रिया ब्रह्म, त्याग ब्रह्म, कुल ब्रह्म-ये च्यारि ब्रह्म के मैद कहे। सो सातवी प्रतिमा धारी, च्यारि कुल का उपण्या धर्मात्मा श्रावक, सर्वस्वीका त्यागा, सौम्य मूर्ति, ये सातवीं प्रतिमा धारै । सो ये त्याग-ब्रह्म जानना।
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इति श्रीसुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में, बावक भेद रूम एकादश प्रतिमा विषे सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा के भेद ft महिमा, भोजन के सात अन्तराय, सत्रह नियम, आवक के इक्कीस गुण, अन्य-भत सम्बन्धी देतीक, सीड सहित किया ब्रह्मभेद, वश-भेद, कुल-वाह्य, कथन करनेवाला सैंतीसव पर्व सम्पूर्ण भया ॥ ३७ ॥
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आगे अष्टमी प्रतिमा का कथन लिखिये है। तहां अष्टमो प्रतिमा, आरम्भ-त्याग है। सो कोई भव्य, जब अष्टमी, प्रतिमा धारे। तब पापारम्भ तैं उदास होय, वह मोक्षाभिलाषो ऐसा विचारें। जो इस संसार में, गृहारम्भ के पाप तैं मोह के वशीभूत भया यह आत्मा, नरक-दुःख में अपनी आत्मा डुबोते है और जिनतें मोहबुद्धि करि, माफ कर शिर में धर्म से सो पायकल आये, इन मोहीन का नाम भी नहीं दीखेगा। द्रव्य खाय खाय सर्व अपने-अपने मारग लागेंगे अरु तिन पापन का फल, मोकौं ही भोगना पड़ेगा। जैसे— एक चोर के घर में आप, माता, पिता, स्त्री, पुत्र – ये पांच आदमी थे। ये पांचों कौं हो पाप फल ते भूखों मरते, अन्न बिना तीन दिन भये। तब पुत्र ने रुदन करि कह्या हे पिता ! अब हम सब घर-जन अन्न बिना मरे हैं। भोजन बिना तीन दिवस भये, सो दुःख हैं । तातें अन्न लाथ देव । तब चोर ने कही हे पुत्र ! बहुत फिरौ हों, परन्तु पाप-उदय तैं, कछू मिलता नाहीं । अब तुम धीरज धरो, मैं और जाऊँ हूँ। सो ये चोर कुटुम्ब के मोह तैं चोरो कौं गया। एक घर में खोर होय थी सो इस चोर ने अपनी चतुरता तैं, खोर का बासन चुरा लिया। सो ल्याय घर में आया। कुटुम्ब के आगे धरी, सो पांच थालियों में पांचों ने परोसी । तब सब ने कहो - भोजन तो भला ल्याया परन्तु मिष्टान होता तौ मला था। तब चोर कला-वारे ने कहो तुमने कहा है तो मैं मिष्टान भी ल्याऊँ हूँ। तब यह चोर तो मिष्टान्न कौं गया। सो बड़ी देर लागी। सो इनको थिरता नहीं रही। सो अपनी-अपनी थाली की खीर भूख के मारे खाय गये। बाकी जो चोर गया था सी ताका थाल ढांक ररुया । सो एते में एक मिजवान आया, सी चोरीबारे का खीर का थाल मिजवान के आगे धर या सो मिजवान ने खाया। तब वह चोर किसी का मिष्टान चुरा के आया सो देखे तो खीर नाहीं । घरवारों कों पूछो, तब उन्होंने कही—मिजवान आया ताने खाईं। थे चोर तीन दिन का भूखा दुखी है । एते में खीर अरु मिष्टान की खोज करते कोतवाल चोर कूं हैरते आए, सो कोतवाल ने इस चोर कूं पकड़ा। सो घर-जन अरु मिजवान खोर खावनहारे सर्व भाग गये। था चौर की मुसकें बंधीं । सो
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नाना प्रकारको मार चोर भोगी, महादुखी भया । तैसे ही कुटुम्ब के निमित्त पापारम्भ करों हों. सो चोर की नाई मोकं दुःख भोगना पड़ेगा। ये कुटुम्ब दुःख के आए सर्व जाते रहेंगे। ऐसे ये शिव-सुख का अभिलाषी संसारभोग तैं उदास, ऐसा विचार । कुटुम्ब तैं अरु गृहारम्भ तें ममत्व छांड़ि, पीछे घर में अपने पुत्रादिक कूं विवेकी देख जो यह घर-भार चलायने कूं समर्थ, ताहि बुलाय कैं, प्रथम तौ ताकी हित-मित हितोपदेश देय, सन्तोषित करे। पीछे अपने चित्त का रहस्य बताय, ताकौं कहे। हे भव्य ! अबलौं' तो घर-भार हमने चलाया। अब तोकौं सपूत, सज्जन- अङ्गी, विवेकी, विनयवान् देख बड़ा हर्ष भया हमारी गृह-पालन की चिन्ता गई। सो हे धर्मो ! अब तुम इस कुटुम्बको रक्षा करौ। न्यायपूर्वक धनोपार्जन करौ धर्म सेवन कर, पर-भव सुधारो। ऐसा कहि, पोछे सर्व जाति, कुन कूं बलाश, विनय सहित दिन तक कि है पञ्च हो ! अब तोई हमने, कुटुम्ब के संग तें प्रारम्भ किया। अब हमारा मनोरथ, पर-भव सुख के निमित्त, आरम्भ रहित धर्म- सेवन का है। तुम सर्व भाईयन के सहाय हैं, यह भव सुधरथा । तुम्हारा दिया धन-यश पाया। अब इस गृह का भार, इस पुत्रक सौंप्या है, सो अब तुम, याकी प्रतिपालना करो, जैसे सर्व भाई मोर्ते धर्म स्नेह करि, मेरो प्रतिपालना करो। तैसे ही याको करो। जैसे प्रयोजन पाय, मोसे आज्ञा करों थे, तैसे इस पर करोगे। जैसे मो-भूलै कूं क्षमा-भाव करि शिक्षा देय थे, तैसे याकूं शिक्षा देय प्रवोश करोगे । तातें अब मैं तुम सर्व भाईयन तैं ऐसो विनति करों हौं। जो अब ताई आरम्भ-प्रारम्भ विषै मोर्चे कृपा करि, मोकौं यादि करके मेरा नाम ले नैवता-बुलावा भेजो थे, सो अब पञ्चायती व विवाहादिक के आरम्भ विषै या यादि करि थाके नाम न्योता - बुलावा भेजोगे । अब मैं गृह आरम्भ तैं तुम सर्व भाइयन की साक्षी हैं न्यारा हों इत्यादिक सर्व पञ्च तैं शुभ वचन कहै। तब सर्व पञ्च इनकी धीरता देख बहुत प्रशंसा कर इनका कह्या करें । तिस हो दिन तैं आप पापारम्भ का त्यागी भया । पापारम्भ तैं न्यारा होय घर विषै तिष्ठता धर्म-साधन करे। घर हो में स्तुति करता पूजा, दान, ध्यान, संयम करता काल गमावें। भोजन समय घर-जन बुलायें तब भोजन को जाय अरु अपने पदस्थ -प्रमाण परिग्रह अल्प राखे । सो आरम्भ त्यागी आठवीं प्रतिमा का धारी है। इति आठवीं प्रतिमाप आगे नववीं प्रतिमा का स्वरूप कहिये है। अब नववीं परिग्रह त्याग प्रतिमा विषै सर्व
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परिग्रह - आरम्भ के ममत्व का त्यागी होय । आगे अष्टम प्रतिमा में अल्प परिग्रह का त्यागी नहीं था। सामान्य परिग्रह था। सो अब सर्व परिग्रह त्याग कर एकान्त स्थान विषै धर्मध्यान सेवन करें। प्रथम दिन कोई नेवता दे जाय ताके घर भोजन करें। अपना घर तथा पराया घर एक-सा देखें। पाद्य पक्षेवरी राखै न्यौता जीमें। सो महा सौम्य मूर्ति धारी दयाधर्मपालक है। ऐसे गुण नववीं प्रतिमा धारक के जानना । इति नववीं परिग्रह त्याग प्रतिमा । ६ । जागे दशवीं प्रतिमाका स्वरूप कहिये है। अब अनुमति जो उपदेश सो दशवीं प्रतिमा का धारी पापा भजन-मात्र भी कहके नहीं करें। यह न्यौता नहीं माने। भोजन समय कोई बुलाय ले जाय तौ मोज़न करें। न्यौता नहीं जाय। बिना न्यौता जो मैं सो अनुमति त्यागी है । इति दशवीं प्रतिमा । १० । जागे ग्यारहवीं प्रतिमाके धारी श्रावक तिनके दो भेद हैं- एक क्षुल्लक दूसरा ऐलक । तहाँ कटि-बंधन अरु लँगोटमात्र परिग्रह राखनेहारा वन विहारी उदंड ( अनुद्दिष्ट ) आहार करें। अरु धरती बिछायकूं आसमान ओढ़वे कूं महा दयालु मुनि समान चित्तका धारी; नग्न बिना इक्कोस परिषहका जीतनहारा निर्मल आचारी कमण्डलु पोछोका राखनहारा यति समान व्रत का धारी मुनि पदका अभिलाषी इस धर्मात्मा कूं कोई सूक्ष्म जातिका अंश लिये शङ्कारूप परिणति है। सूक्ष्म अंश काम विकार के मन, वचन, कायमै, कोई जातिके मंगा लिये हैं । जो केवली गम्य हैं। आपकों भासे हैं, तातें ये नगन-मुद्रा नहीं धारै। ये सूक्ष्म काम विकार गये, यति पद लेनेके योग्य होयगा । ऐसा श्रावक, सो ऐलक श्रावक है सो यह ऐलक श्रावकका पद, तीन कुलके उपजे भव्यात्माकूं हीय है। शुद्रकं नाहीं होय है । २ । क्षुल्लक पद है सो नोच कुल. तथा ऊंच कुल दोऊ जातिकूं होय है। सो क्षुल्लकके पास, कद्दू कपड़ा मात्र परिग्रह होय । एक दुपट्टा, एक शिर फैंटा राखेँ । सो नहीं तो बहुत बारीक मुलायम, तातैं सराग भाव होंय । अरु नहीं बहुत दृढ़, तिनमें जीव पड़ें। मलिन भये र सा दीखें, ऐसे भी नाहीं। मध्यम भाव धेरै, राग रहित, ऐसे वस्त्र राख सो जे शूद्र जातिके क्षुल्लक होय । सो शूद्रके दो भेद हैं। एक स्पृश्य शूद्र, दूसरा अस्पृश्य शूद्र तहां धोबी, नाई, बढ़ई, दर्जी इत्यादिक
जिनके छूये लोकमें ग्लानि नाहीं सो स्पृश्य शूद्र हैं । २। जहां भङ्गी, चाण्डाल, चमार, कोली इन आदिक जिनके छूये लौकिक में ग्लानि होय, स्नान किये शुद्ध होंय, सो अस्पृश्म शूद्र हैं। २ । सो इन दोऊनमें तैं,
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स्पृश्य-शूद्रकौं तो क्षुल्लक व्रत होय और अस्पृश्य शूद्रकू व्रत नाहीं होय । सम्यग्दर्शनादि गुस होय हैं, सो तहाँ ऊँच-कुल का क्षुल्लक श्रावक तौ भोजन की जाय, सो गृहस्थ के चौके में ही भोजन करे और शूद्र जाति का क्षुल्लक है, सी गृहस्थ के भोजन स्थान में नहीं जाय। क्योंकि याका कुल, हीन है ताते ये धर्मात्मा, संसार से उदासीन, व्रत का धारो, धर्म-मर्यादा का जाननहारा, पुण्य-फल का लोभी, पर-भव के सुधारने की अभिलाषा जाके,परम्पराय मोक्ष का इच्छुक जन्म-मरण तें भय भीत भया है चित्त जाका ऐसा सौम्य स्वभावी-धर्ममर्ति, मार्दव-धर्म का साधनेहारा यह नीच-कुली श्रावक अपना नीच-कुल प्रगट करने कं, एक लोहे का पात्र भोजन करने के अपने पास रासै। जब कोई धर्मात्मा श्रावक इस क्षुल्लकको भोजन निमित अपने घर ल्यावै। सब यह शुद्र-कुली धर्मात्मा याके संग तहाँ ताई जाय जहां तोई काह का अटक नहीं होय । पीछे चौक में खड़ा होय रहे। तब श्रावक इनकं उत्तम जानि आगे बुलावे। तब यह धर्मो चौक मैं ही तिष्ठ पर लोह का पात्र दिखावे। तब लोह के पात्रकू देख के दाता जाने, जो यह शूद्र जाति है। तातें यह धर्मात्मा ऊंचे नहीं पाया तब दाता श्रावक, इस क्षुल्लककं भलै आदर ३. विनय सहित, अनुमोदना करता, हर्ष सहित भोजन देय। सो उस बाखर (घर) में च्यार, दो, एक घर श्रावकन के होंय, तौ थोड़ा-थोड़ा सर्व घर ते भोजन लेय। नाहीं होय तो दोय घर का एक घर का भोजन करें। अपना कुल छिपावै नाहीं । यह उत्तम व्रत का धारी श्रावक है। ऐसे ऊँच-कुल तथा स्पृश्य नीच-कुल दोय ही कुल में यह श्रावक पद होय है । २। और ऐलक पद ऊँच-कुलीकू ही होय है। यह स्कृष्ट श्रावक पद है। ऐसे सातवों प्रतिमा तें लगाय ग्यारहवीं पर्यन्त भेद कहे। सो ये त्याग ब्रह्म के भेद जानना । जैसा-जैसा त्याग, जिस-जिस स्थान मया, सो-सो नाम पाया। सी श्रावक के उत्कृष्ट त्याग की हद, ऐलक लैंगोट-मात्र परिग्रह धारी की है। याके श्रागे श्रावक भेद नाहीं। इसके पीछे मुनि का हो पद है। तातें सातवों प्रतिमा त लगाय ग्यारहवी प्रतिमा पर्यन्त श्रावकों ब्रह्मचर्य पदवी है। पीछे लँगोटी-परिग्रह परिहार भये, यति ।। का पद होय है। तातें भरत-क्षेत्र का इन्द्र, भरतनाथ, आदिनाथ का बड़ा पुत्र, भरत, चक्री, महाधर्मात्मा, ताने परम्पराय धर्म-मर्यादा चलायवेकू स्थापे सेसे ब्रह्म भेद, सो कुल ब्रह्म कहिये । था अवसर्पिणीकाल के आदि, नव कोड़ा-कौड़ी सागर काल पर्यन्त तौ भोग-भूमि वर्ती। तहां वर्ण भेद नाही. सर्व एकसे। पीछे चौदहवें कुलकर
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नाभिराजा भये। तिनके कल-मण्डन, श्री वादिनाथ पुत्र भये, सो हमने सर्व कर्म-भूमि का उपदेश दिया। क्षत्रिय, वेश्य, शद्र. तीन वर्ण स्थाप संसारी-मार्ग बताया अरु इनके पत्र भरत नै, धर्म की प्रवृत्ति चलाने क, ब्राह्मण-कुल थाज्या। सो च्यारि वर्ण जानना। जब काल-दोष ते, सर्व कलन का माचार हीन भया। तातें ब्रह्म-क्रिया दया बिना भई। जीव जनक क्रिया रूप भये परन्तु कुल भेद नहीं गया। अनेक प्रकार आचार होय, तो भी कुल-ब्रह्म कह्या. सो जग में प्रगट ही है।श कुल तो कैसा ही होय बस क्रिया माचार जाका दया सहित उत्तम शीलादिक गुण सहित होय, सो किया ब्रह्म कहिये ।। स्त्री आदि परिग्रह का त्यागी होय, सो त्याग ब्रह्म कहिये।३। चेतन्य गुण सहित, अमूर्ति, जीव पदार्थ, सो स्वभाव ब्रह्म है।8। ये च्यारि भेद, ब्रह्म के कहे। सो विवेको उत्तम पुरुषनक सबका सहए धारण करना योगा है। इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणो नाम अन्य के मध्य में अष्टमी प्रतिमा से लगाय ग्यारहवीं प्रतिमा पर्यन्त,
कथन करनेवाला अड़तीसवाँ पर्व सम्पूर्ण भया ॥ ३८ ॥ ऐसे यह श्रावक-धर्म कह्या और मुनि-धर्म के अष्टाविंशति (२८)मुल गुण हैं। ताका स्वरूप कह आये सो ॥ यह मुनि-श्रावक का धर्म, परम्पराय मोक्ष फल प्रगट करे है। याका तरन्त फल तौ देव-सोक की विभूति सहित नाना प्रकार इन्द्रिय-जनित भोग हैं। जार्को जैता काल संसार में रहना होय, सो जीव श्रावक-धर्म त मनुष्य-देव के सुख पावै। पीछे भव-स्थिति पूर्ण भये, मुनि-धर्म का साधन कर, मोक्ष पद पावै है। तातें जो कोई भव्यक, इन्द्रिय सुख का लोभ होय, सो इस श्रावक-धर्म का साधन करौ और जे भव्य निकट संसारी अतीन्द्रिय सुत्र चाहे, सो मुनि-धर्म आदरौ। ऐसा यह मुनि-श्रावक का धर्म भव्य जीवनकू सदा-काल, मङ्गलकारी होऊ। यह सुदृष्टितरजिसी नाम ग्रन्थ है। सो या विर्षे प्रथम तो गेय-हेय-उपादेय का कथन है सो विवेकी अपना हित जानि, हेय-गैय-उपादेय करौ केताक कथन या विई, विवेक को वृद्धि के निमित्त उपदेश रूप है 1 ताके रहस्यकौं जानि, धर्मात्मा अपना कल्याण करौ। अब यहां इस ग्रन्ध का करता जैन-शास्त्र के अर्थ कू अगाधि पानि, अपनी बुद्धि सामान्यता रूप, जानता भया। जो यह जिन-वचन का अर्थ तौ, अपार है, याके सम्पूर्ण व्याख्यान करने कौं, गराधर देव भी समर्थ नाहीं। तो हमसे किंचित् बुद्धि-धन के धारीन ते, सर्व अर्थ कैसे कह्या पाय ? असा
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जानि, इस ग्रन्थ के पूरण करने की है अभिलाषा जाके। सो अन्त में मङ्गल होने के निमित, महान् पुरुषन के ! नाम, जिनके कुल-समरण होवे करि, मङ्गल होय है। सो ऐसे तीर्थकरादि, प्रेसठ-शलाका पुरुष के नाम, पुण्य के कारण हैं। तात यहां प्रथम चौबीस तीर्थङ्कर तिनके नाम कहिये हैं-ऋषभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मनाथ, सुपाश्र्वनाथ, चन्द्रप्रभु, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, शान्तिनाथ, कुन्धनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ,नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ
और महावीर सम..दो पीस लीवर निन, अवसर्पिणी काल के तीर्थ । भागे चौबीस-जिनके पिताके नाम-नाभिराजा, जितशत्र, जयतार सुवीर, मेघ, धरण, सम्प्रतिष्ठित,महासेन, सुग्रीव, दृढ़रथ, विमल, वासुदेव, | जयति, धर्म, सिद्धसेन, भानु, विश्वसेन, सूर्य, सुन्दरसेन, कुम्भ, य
और सिद्धारथ राजा-ये चौबीस प्रणा के प्रतिपालक, महान् राजेन्द्र भये । सो तीर्थररूपी दिनकर (सूर्य) के उदय करनेकौं उदयाचल पर्वत समान जानना । इति जिन पिता । अब जिन माता का नाम-मरुदेवी, | विजयादेवी, श्रीषेशादेवी, सिद्धार्थदिवी, मङ्गलादेवी, ससीमादेवी, पृथ्वीदेवी, सलक्षणादेवी, रामीदेवी, सनन्दादेवी, विमलादेवी, पयादेवी, रामादेवी, सूर्यादेवी, सुव्रतादेवी, एलादेवी, श्रीमतीदेवी, सुमित्रादेवी, सरस्वतीदेवो, धामादेवी, विमलादेवी, शिवादेवी, वामादेवी और त्रिशलादेवी-ये चौबीस महादेवी, परम पवित्र जगत् गुरु की माता सी जगत को माता, पर सती भगवानरूपी सूर्य के जन्म देवेक पूरव दिशा समान, तिनके नाम भव्यनकों मङ्गल करौ। ये माता, जगत्पति भगवानरूपी रत्र के उपजायवेक, रतन-नानि हैं। ये चौबीस जिन की माता के नाम की माला कही। आगे चौबीस जिन को काय की ऊँचाई कहते हैं। पांचसौ धनुष, साढ़े चार सौ, चार सौ, साढ़े तीन सौ, तीन सौ, ढ़ाई सौ, दोय सौ. डेढ़ सौ, एक सौ, नव्वै, बस्सी, सत्तरि, साठ, पचास, पैंतालीस, चालीस, पैंतीस, तीस, पच्चीस, बीस, पन्द्रह, दश, नव हाथ और सात हाथ-यै चौबीस जिन के शरीर की ऊंचाई अनुक्रम तें कही। अब चौबीस-जिन के प्रतिबिम्ब पहिचानवें को चिह कहिये हैं..आदिनाथ का बलका चिह्न और जिनों का अनुक्रमतें कहिये हैं हस्ती, घोटक, कपि (बन्दर) कोक (चकवा) लाल कमल, साथिया, चन्द्रमा, मगर, कल्प वृक्ष, गैंडा महिष, सूकर, सैही, वप्रदण्ड, हिरस, बकरा, मछली, स्वय
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कलश, कछुवा, कनक, कमल, शड, सर्प और सिंह—ये चौबीस जिन के चिह्न कहे । सो एक हजार आठ चिह्न, सर्व शरीर अङ्गोपाङ्ग में यथायोग्य स्थान पर होय हैं । अरु रा चिह्न जो प्रतिबिम्ब के सिंहासन में लिखिए हैं। सो भगवान् के दाहने चरण वि जानना । जैसे आदिदेव के चरण में वृषभ का चिह्न है। तैसे ही सर्व जिन के पावन में जानना । इति जिन-चिह्न। आगे चौबीस जिन के शरीर का वर्ण कहिये है। तहाँ चन्द्रप्रभ अरु पुष्पदन्त ये दोय जिन, शुक्ल वर्ण भए अरु मुनिसुव्रत स्वामी, बअनगिरि समान श्याम वर्ण है 1 नैमिनाथ जिन मोर कंठ समान हरित तन धारी हैं और पद्मप्रभ, रक्त कमल समान तन धारी हैं और बारहवें वासुपूज्य जिन, टेसू के फूल समान तन धारी है और सातवें सुपार्श्वनाथ जिनकी काय, वैडूर्य मरिण समान, हरित वर्ण है और पार्श्वनाथ-जिनकी काय, सजल मेध घटा समान, श्याम वरा है और बाकी षोड़श जिनके शरीर, ताये स्वर्ण समान वर्ण के हैं । ये चौबीसजिन के तन का वर्ण कह्या। अब आगे ये जिन, पूर्व-भव में जो मनुष्य थे सो वह नाम कहिये हैं। वृषभदेव पुरवभव में वननाभि चक्रवर्ती थे और शेष-जिनके पूर्व-भव के नाम क्रम करि कहिये हैं। विमल राजा, विमल वाहन, महाबल भूष, अतिबल, अपराजित, नन्दसेन राजा, पद्म, महापदा, पद्म गुल्म, नोल गुल्म, पद्मोत्तर, पद्मासन, फ्य, दशरथ, मेघरथ, सिंहस्थ, धनपति, वैश्रवण, श्रीधर्म, सिद्धास्थ, सुप्रतिष्ठित, आनन्दराय और अन्तिम जिन महाबीर स्वामी, पूर्वभव में नन्द राजा थे। ये सर्व राजाओं में, आदि देव का जीव तो चक्री था और तैबीस महामण्डलेश्वर राजा थे। पीछे कतेक दिन राज्य करि, संसार से विरक्त भए, सो राज्य तज-सज, दीक्षा धरी। सो जिन पैं दीक्षा धरी, रोसे चौबीस-जिन के पूर्व-भव के दीक्षा गुरु, तिन आचार्यन के नाम क्रम तैं कहिये हैबज्रनाभि चक्री ने, बासेन आचार्य ते दीक्षा लई। विमल राजा के गुरु अरिदमन नाम आचार्य, स्वयंप्रम मुनि, विमलवाहन यति, श्रीमन्दिर गुरु, पिहितासव यति, अरिंदाव यति, युगमंधर ऋषीश्वर. सर्व जनानन्द ऋषि, उभयानन्द योगी, वज्रदन्त योगीश्वर, बननाभि, सर्व गुप्त वीतराग, त्रिगुप्त तपस्वी, चितारक्षक गुरु, विमलवाहन गुरुदेव, धनस्थ मुनि, संवर यति, वरधर्म ऋषि, सुनन्द गुरु, आनन्द योगी. वीत शोक प्राचार्य, दामर नाम मुनि और प्रोष्ठल यति-ये चौबीस यतीश्वर जगत् पूज्य हैं। इनके पास चौबीस जिन के जीव ने, पूर्व-भव में दीक्षा धरी थी, सो ये सर्व यति जगत् कर पूज्य हैं । इति चौबीस जिन के पूर्वभव के नाम
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अरु पूर्वभव में जिनके पास दीक्षा धारी, तिन गुरुनके नाम कहे। आगे मुनि होय, कौन-कौन, किस-किस स्वर्ग गये। अरु तहां तें चय, तीर्थंकर भये। तिन स्थानके नाम कहिए हैं-आदिनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, ये च्यारि-जिन तो, सर्वार्थ सिद्धि ते आये है। बस अजितनाश, अभिनन्दा गा, ये सौर विजय विमान ते आये और चन्द्रप्रभ अरु सुमतिनाथ ये दोय जिन, वैजयंत विमान ते आए। अरु नेमिनाथ अरहनाथ ये दोय जिन, बैजयन्त विमान से आए। अरु नमिनाथ अरु मल्लिनाथ ये दोय-जिन, अपराजित विमान ते आए। थे तो पञ्च अनुत्तरनके कहे। अरु पुष्पदन्त, आरण नाम पन्द्रहवें स्वर्ग में आए। अरु शीतलनाथ, अच्युत स्वर्ग ते भार। अरु श्रेयांसनाथ, अनन्तनाथ अस महावीर, ये तीन जिन, बारहवें स्वर्ग ते आए । जर विमलनाथ, पार्वनाथ, मुनिसुव्रत, संभवनाथ, सुपार्श्वनाथ, पद्मप्रभ ये छह जिन ग्रैवेयक रौं आए । अरु वासपूज्य स्वामी, महाशुक्र नामा दशवें स्वर्ग ते आए। ऐसे चौबीस-जिन जहाँ त पाए, सो स्थान कहे। आगे चौबीस-जिनकी, जन्मपुरी के नाम अनुक्रम तैं कहिए है-अयोध्यापुरी, अयोध्यापुरी, श्रावस्तीपुरी, अयोध्यापुरी, अयोध्यापुरी, कौशांबी पुरी, काशीपुरी, चन्द्रपुरी, किष्किंधापुरी, भद्रशालपुरो, सिंहपुरी, चम्पापुरी, कपिलापुरी, अयोध्यापुरी. रतनपुरो, हस्तिनापुरो, हस्तिनापुरी, हस्तिनापुरी, मिथिलापुरी, कुशाग्रपुर मथुरापुरी, शौर्यपुर, वाराणसी और कुण्डलपुर । इति जन्म नगरी। आगे जन्मके नक्षत्र अनुक्रम ते बताईए हैं-उत्तराषाढ़में वृषभका जन्म, रोहसी, ज्येष्ठा, पुनर्वसु. मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़, श्रवण, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपदा, रेवती, पुष्प, भरणी. कृत्तिका, रोहणी, अधिनी, श्रवण, अचिनी, चित्रा, विशाखा, और उत्तरा फाल्गुनी। इति जन्म नक्षत्र । आगे जिन वृक्षनके नीचे दीक्षा लई तिनके नाम-वृषभदेव का दीक्षा वृक्ष वट। औरन के क्रमसे सपृच्छद, शाल, सरल, प्रयगु, प्रयंगु सिरीष वृक्ष, नाग सालिष, शाल, बिन्दुक, जयप्रिय, जंबु पोपल, दधिपर्श, नन्द, तिलक, जाम्र, अशोक, मौलश्री, मेषपर्श, भव, अरु शाल। ये चौबोस-जिनके दीक्षा-वृक्ष कहे। इनके नीचे दीक्षा धारी। आगे निर्वाण होनेके नक्षत्र कहिरा है-तहां सुपार्श्वनाथका निर्वाण नक्षत्र अनुराधा। चन्द्रप्रमका निर्वाण नक्षत्र ज्येष्ठा। वासुपूज्यका निर्वाण नक्षत्र अश्विनी। विमलनाथका निर्वाण नक्षत्र भरणी। महावीर स्वामी का नक्षत्र स्वाती है। ये पांच जिन के निर्वाण नक्षत्र कहे। औरन के निर्वाण नक्षत्र पर जन्म नक्षत्र एकही जानना। ऐसे
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निर्वाण नक्षत्र कहे । इन चौबोस-जिनमें तं शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ ये तीन जिन तौ षट्सडनाथ चकी मए। और सर्व तीर्थकर महा-मंडलेश्वर भए। तथा दीक्षा धारि निर्वाण गर । वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नैमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर ये पांच जिन तौ कुमार अवस्था में बाल-ब्रह्मचारी ही दिगम्बर भए ! ब्याह नाहीं किया। अरु राज्य भी नाहीं किया। पिताके जीवित कंवारे ही मुनि भए। सर्व जिनराज भोग्य-सम्पदा भोग यतिपति भए। सो वृषभ का तप कल्याशक विनीता पुरो विर्ष। नामनाथ का तप कल्याणक द्वारकापुरी विः । सर्वका तप कल्याणक, अपनी-अपनी जन्म-नगरीमें भया। सो मल्लिनाथ अरु पार्श्वनाथ ये दोऊ जिन तौ तप लिये पीछे, तेले-तेलेका नियम करते भये। वासपूज्य स्वामी, एकान्तर उपवास धारते भये। सर्व-जिनने वेले-वेले पारणा किया। सो श्रेयांसनाथ, सुमतिनाथ, मल्लिनाथ ये तीन जिन तो पूर्वाह्न समय दीक्षा धारतै भये। और मर्च जिन अपराह कहिये सन्ध्या समय, दीक्षा धारते भये । इति चौबीस जिनके निर्वाण-नक्षत्रादिका कथन । जागे चौबीस जिनके दीक्षाके वन कहिए हैं-ऋषभनाथ तौ सिद्धार्थ वन वि, दिगम्बर भए। महावीर ज्ञानवन विणे, यति भए। वासुपूज्यने कीड़ोद्यान नाम वन वि, मुनि-पद धरा। और धर्मनाथ वप्रका नाम वन विर्षे, यति भये । पाश्र्वनाथने मनोरमा नाम उद्यान विर्षे, परिग्रह तजा। मुनिसुव्रत जिन, नील गुफाके निकट, निन्ध भए । पौर सर्व जिन अपने-अपने नगर के निकट, आम्र-वन वि योगीश्वर भए । इति तप बन। आगे चौबीस जिन के तप कल्याणक विर्षे, गमन समय की पालकी, तिनके नाम कहिए-तहां वृषभदेवकी पालकीका नाम सुदर्शना। आगे अनुक्रम तैं जानना-सिद्धार्था, कमलामा, अर्थ-सिद्धा, अभयङ्करी, निवृत्तिकरि, मनोरमा, मनोहरा, सूर्यप्रभा, विमलप्रभा, पुष्पप्रभा. देवदत्ता, सागरदत्ता. नागदत्ता, सिद्धार्थका, विजया वैजयन्ति,जयन्ति, अपराजिता उत्तर करु, देव-कुरु, विमलामा, और चन्द्राभा। ये चौबीस-जिनके तप समयको पालकी इन्द्रों कृत कहीं। भागे चौबीसजिनकी दीक्षाकी तिथि, क्रमशः कहिए हैं। चैत्र वदी ६, माघसुदी ६, मार्गशीर्ष सुदी १५, माघ सुदी १२, वैशाख सुदी६, कार्तिक बदी २३, जेठ सुदी १२. पौष वदी १. मार्गशीर्ष सुदी १,माघ वदी १२, फाल्गुन वदी १३, फाल्गुन वदी १४. माघ सुदी ४, जेठ वदी १२. माघ सुदी १३. ज्येष्ठ वदी १३. वैसाख सुदी १, मार्गशीर्ष सुदी १०, मार्गशीर्ष सुदी ११, वैसाख वदी ६. आषाढ़ वदी १०, श्रावण वदी ४, पौष वदी ११, और मार्गशीर्ष वदी १०,
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ए चौबीस - जिनकेतप-दिन जानना। आगे चोबीस-जिनके केवलज्ञानके दिन अनुक्रम तें कहिए है--- फाल्गुण वदी १२. पौष सुदी ११, कार्तिक वदी ४, पौष सुदी १४, चैत्र सुदी १४, चैत्र सुदी १५ फाल्गुण वदी ६० फाल्गु वदी ७, कार्तिक वदी १४, पौष वदी १४. माघ वदी अमावस्या, माघ सुदी २, माघ सुदी ६, चैत्र वदी ३०, पौष सुदी १५ पौष सुदी १०, चैत्र सुदी ३, कार्तिक सुदी १२, पौष वदी २, वैशाख वदी ६, मार्गशीर्ष वदी १२. आसोज सुदी १, चैत्र वदी अमावास्या, और वैसाख सुदी १० । ये चौबीस-जिनके केवलज्ञान की तिथि कहीं। आगे चौबीस - जिनके निर्वाण दिन, अनुक्रम तैं कहिये है- माघ वदी १४, चैत्र सुदी १, चैत्र सुदी ६, वैशाख सुदी ६, चैत्र सुदी १२, फाल्गुन वदी ४ फाल्गुन वदी २, फाल्गुन वदी ७. भादौं वदी ८ आसोज सुदी श्रावस सुदोमा भाद्रपद सुदी १४ आषाढ वदीप, चैत्र वदी अमावस्या, जेठ वदी ४. ज्येष्ठ वदी १४ वैशाख सुदी १, चैत्र वदी अमावस्या, फाल्गुन सुदी ५ फाल्गुन सुदी १२, वैशाख सुदी १४ आषाढ़ सुदी ८ श्रावण सुदी ७, और कार्तिक वदी अमावस्या । ये चौबीस - जिनके निर्वाण दिन कहे। आगे गर्म दिन कहिये है। तप, ज्ञान, निर्वाण ये तीन कल्याणक तौ वीतराग दशाके कहे। जागे दोय कल्याणक, सराग अवस्थाके हैं। सो ये गर्भ-कल्याणक तौ परोक्ष-सराग उत्सव है । और जिनराजका जन्मका प्रत्यक्षसराग पुण्य जतिशय है सो प्रथम जिनराजके गर्भ - कल्याणकके परोक्ष-उत्सवके दिन, क्रम तैं कहिये है- आषाढ वदी २ जेठ वदी अमावस्या. फाल्गुन वदी, वैशाख सुदी ६ श्रावण सुदी २ माघ वदी ६. भादव सुदी ६, चैत्र वदी ५, फाल्गुन वदी ६० चैत्र वदीप, जेठ वदी ६, आषाढ वदी ६, ज्येष्ठ वदी १०, कार्तिक वदी १, वैशाख वदी १३. भाद्रपद सुदी ७, श्रावण वदी १० फाल्गुन सुदी ३, चैत्र सुदी १. श्रावण वदी २. आसोज वदी २, कार्तिक सुदी ६, वैशाख वदी २, और आषाढ़ सुदी २ । इति गर्भ दिन । आगे जन्म-दिन क्रम तैं कहिये है-चैत्र वदी ६, माघ सुदी १०, माघ सुदी १२ कार्तिक सुदी १५, चैत्र सुदी १२, कार्तिक वदी १३. जेठ वदी १२, पौष वदी १२. मार्गशीर्ष सुदी १, माघ वदी १२, फाल्गुन वदी ११ फाल्गुन वदी १४, माघ सुदी १४, जेठ वदी १२, माघ सुदी १३, जेठ वदी १४, वैशाख सुदी १. मार्गशीर्ष सुदी १४, मार्गशीर्ष सुदी १२. वैशाख सुदी १०, आषाढ़ वदी १०. श्रावण सुदी ६, पौष वदी ११, और चैत्र सुदी १३ । ये चौबीस-जिनके जन्म-दिन कहे। आगे चौबीस-जिनके पारशा का अन्तर हये
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है-आदिनाथ स्वामी ने तो एक वर्ष पीछे पारणा किया सो इक्ष-रसका भोजन किया। अरु मल्लिनाथ. पार्श्वनाथ । इन दोय जिनका तैले पारणा भया सो गायके दुधको खीर खाय पारणा किया और वासुपूज्य स्वामी ने एकान्तर पारणा किया सी गायके दुधको खीर स्वाय पारणा किया। सर्व जिन-देवनका वैले पारणा भया। सो भी सर्व गायके दूधको खोर स्वाथ पारणा किया। इति पारणा प्रमाण। आगे चौबीस-जिनके प्रथम पारणेको नगरोके नाम अरु तिन नगरनके राजा-प्रथम दानेश्वर तिनके नाम अनुक्रम तैं कहिये हैं--हस्तिनापुर विर्षे श्रेयांस राजा। अयोध्यापुरी विर्षं ब्रह्मदत्त नाम राजा। श्रावस्तीपुरी विर्षे सुरेन्द्रदत्त राजा, विनीता नगरी विर्षे राजा इन्द्रदत्त। विजयपुर विर्षे राजा पदम । मंगलापुर विर्षे राजा सोमदत्त । पाटली खंड वि राजा महादत्त । पदमखंडपुर विर्षे राजा सोमदेव । श्वेत नगरो विर्षे राजा पहुए। अरिष्टपुर विर्षे राजा पुनर्वसु । इष्टपुर विर्षे राजा सुनंद। सिद्धारथपुर विौं जयराजा। महापुर वि* राजा विशाख । ध्यानपुर विष राजा धर्म-वर्धन। वर्धमानपुर विर्षे राजा सुमति। सोमनपुर विर्षे राजा धर्म मित्र । मन्दिरपुर विर्षे राजा अपराजित । हस्तिनापुर विर्षे राजा नन्दषेण । चक्रपुर विर्षे राजा वृषभदत्त । मथुरापुर गिर्षे राजा दत्त। राजगृहपुर विर्षे राजा संजय । द्वारापुरी विर्षे राणा वरदत्त, काम्याकृतपुर विर्षे राजा धन्य । कुंडलपुर विर्षे राजा वकुल ये चौबीस-जिनके प्रथम पारणाके पुर अरु दानेश्वर राजा कहे। इन सर्वके घर पञ्चाश्चर्य भये। अरु ये चौबीस प्रथम दानेश्वर महा भाग्य राजा तिनके शरीरका वर्ण कहिये है—सो आदिके श्रेयांस राणा अरु ब्रह्मदत्त राजा ये दोय तौ श्याम शरीर धारी महासुन्दर भये । और सर्वबाईस जिनराजके दान देनेहारे भपनका शरीर ताये स्वर्ण समान जानना। इनमें से कोई तो मोन गर कोई कल्पवासी होय मैं तथा चय के मोक्ष जायगे ऐसा कथन बड़े हरिवंश पुराणके कर्ता श्रीजिनसेनाचार्य ने कहा है। कहीं-कहीं शास्त्र गिर्क गैसा भी कहा है जो प्रथम दानेश्वार मोक्ष ही जाय हैं। सो निशेष पाठान्तर भेद यथावत् जो केगलज्ञानमें भाष्या होय सो प्रमाण है। इति प्रथम दानश्वार राजानके नाम अरु तहाँ प्रथम पारणाकी पुरी कहीं। आगे चौबीस-जिनकुंकेतेक-केतक उपणास पीछे केवलज्ञान भया। सो कहिये है-तहां वृषभ देवा, मल्लिनाथ, पाश्र्वनाथ इन तीन जिनकं तैला व्यतीत भए केवलज्ञान प्रकटचा। वासुपूज्यको एक उपणास पूर्ण भये केलालज्ञान सूर्य उत्पन्न मया। और सर्व जिन कू वैला व्यतीत भये,
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केवलज्ञान भया। इति केवलज्ञानके पूर्व के उपवास। आगे चौबोस-जिनके केवलज्ञान उपजनके क्षेत्र कहिये । ।। है-तहां वृषभदेवका केवल-कल्याणक तौ पुरमताल नाम नगरीके निकट, सकटामुख, नाम वन विर्षे भया।
नेमिनाथका गिरनारजी विणे, पाश्र्वनाथका काशीके निकट. महावीरजीका ऋजुकला नदीके तट। बाकी सर्व जिनके केवल-कल्याणक, मनोहर वन विष भये सो वृषभनाथ, श्रेयांस-जिन, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ इन
| पांच जिन कूतो केवलज्ञान प्रभात समय भया। और सर्व कू दिनके पिछरे पहरमें केवलज्ञान मया । इति । केवलज्ञानके स्थान और काल। आगे निर्वाण होनेके काल कहैं हैं-तहां वृषभनाथ, अजितनाथ, श्रेयांसजिन,
शीतलजिन, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ इन जिन कौ तौ दिनके प्रथम पहरमें मोक्ष भया । अरु संभवनाथ, पद्मनाथ, पुष्पदंत ये जिन दिनके पिछले पहरमें मोक्ष गए। वासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, शीतलनाथ, कुंथुनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ इनको मुक्ति रात्रि-समय भयो और धर्मनाथ, अरहनाथ, नमिनाध, महावीर इनकी मुक्ति, सूर्यके उदयकाल समय प्रभात हो भयो। इति चौबीस-जिनके मुक्ति समय। आगे चौबीस-जिनके मोक्ष-गमन आसन कहिए है.-तहां वृषभनाथा, वासपूज्य, नमिनाथ, ए तीन जिन तौ पदमासन से मोक्ष गए। और सर्व जिन कायोत्सर्ग(खड़गासन) आसन ते सिद्ध-लोक गए। इति मोक्ष-गमनके आसन । आगे चौबीस-जिनका समवशरण विघटना अरु वाणी (दिव्यध्वनि) नहीं खिरना ताका प्रमारा कहिय है-तहां आदि-जिनके अरु अन्त-जिनके इन दोय जिनके तौ मोक्ष जानेके जब चार दिन रहे तब समवशरण विघटत्या। अरु वाणी नहीं खिरो। अन्य सर्व जिनके एक महीना पहिले समवशरण विघटया अरु दिव्यध्वनि नहीं खिरी1 आगे चौबीस-जिनके संग केते-केते यति मोझ भए तिनका प्रमाण कहिए है-महावीरके संग ३६ मुनि मोक्ष गए। पाइ नाथकी लार ५३६ मुनि मुक्ति पहुँचे। नैमिनाथके संग ५३६ ऋषीश्वर मोक्ष गए। मल्लिनाथके साथ ५०० यति मोक्ष भए। और शान्तिनाथके संग ६०० योगीश्वर मोक्ष गए। और धर्मनाथकी लार (संग)८०१ तपोधन मोक्ष भए। विमलनाधाके लार ६६१२ जाचार्य
मोक्ष भए। अनन्तनाथके संग ५५०७ निर्माता, निरञ्जन भरा और पद्मप्रमके साथ ३८०० दिगम्बर भए । ।। अरु सिद्ध लोक गए। और वृषभदेवके लार १०००० गुरुनाया अमूर्ति भए। शकी सर्व तीर्थकरोंके साथ
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एक-एक हजार मुनि मोक्ष गए। इति भागे बारह चक्रवर्तीके नाम-तहां प्रथम चक्रवर्ती भरत, सो बादिनाथके समय भए। आगे दूसरा सगर नाम षटखण्डी, सो अजितनाथके समय भया। तीसरा मघवा नाम चक्री, अरु चौथा सनत्कुमार चक्री, र धर्मनाथ-जिनके मोक्ष गए पीछे, अरु शान्तिनाथके पहिले. अन्तरालमें भए। शान्तिनाथ, कंथुनाथा, अरहनाथ ए तीन जिन, अपने-अपने समयमें, आपही चक्री भए । और अरहनाथके मोक्ष गर पोछे, अरु मल्लिनाथके पहिले, इस अन्तरालमें आठवां सभूमि नाम चक्री भया। और मल्लिनाथके पीछे, अरु मुनिसुव्रतके पहिले अन्तरालमें नववां महापटुम नाम चक्रो भया। अरु मुनिसुव्रतके पीछे अस नमिनाधके पहिले, दशवें हरिषेण नाम चक्रो भये । नमिनाशके पोछे अरु नेमिनाथके पहिले. ग्यारहवें जयसेन नाम चक्री भये। नेमिनाथ के पीछे अरु पार्शनाधक पहिले बारहने ब्रह्मदत्त नाम चक्री भए। इति चक्रवर्ती नाम। आगे इन चक्रीनको गति-गमन कहिंग है-तहां आठवां सममि अरु बारहवा ब्रह्मदत्त ए दोय तौ सप्तम नरक सिधारे। अरु तीसरा मघवा नाम चकी, अरु चौथा सनत्कुमार चक्री ए दोय, तीसरे स्वर्ग गये। अरु बाकी
आठ चक्री, आठ-कर्म नाश कर, अष्टम भूमि (मोक्ष) वि. सिद्धपद धार विराम हरि चन्द्रो गति । जागे नव नारायणके नाम तथा किनके समय भये सो कहिए है। तहां पहिला त्रिपृष्ठ नाम नारायण तो श्रेयांसनाथाके समयमें भया।। दुसरा द्विपृष्ठ नारायण वासपज्य जिनके समयमैं भया।२। तीसरा स्वयंभू नाम नारायण, निमलनाथके समय में मया।३। और चौथा पुरुषोत्तम नारायश, अनन्तनाथके समय भया 1४। पोचना पुरुषसिंह नारायण धर्मनाथके समय भया।। बुढा पुण्डरीक नारायण अरहनाटाके पीछे अरु मल्लिनाथके पहिले अन्तरालमैं भया।६। मल्लिनाशके पीछे अरु मुनि सुव्रतनाथके पहिले इस अन्तरालमें, सातयां दत्त नाम नारायण भया । ७ । मुनिसुव्रतनाथके पीछे अरु नमिनाथके पहिले, आठवां लक्ष्मण नाम नारायण भया ।८ नववें नारायण कृष्ण देव भए, सो नेमिनाथके समय मये।६। र नव नारायणके नाम कहे सो इनमें पहिला त्रिपृष्ठ, दूसरा द्विपृष्ठ, तीसरा स्वयंभू, चौथा पुरुषोत्तम, पांचवां पुरुषसिंह, छठा पुण्डरीक- श षट्तो षट्वीं मघवी नाम पृथ्वीके धाम पधारे। और सातवा दत्त, आठवां और नौवो ए मेघा पृथ्वीमें गए। एनवं ही नारायस, तीन सण्डके नाथ महा विभूति सहित देव-विद्याधर-भूमिगोचरी बड़े-बड़े राजान् करि वन्दनीय, प्रजाके प्रतिपालक हैं।
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इनके राज्य में अन्याय नाहीं । लोकनकों दारिद्र नाहीं। सर्व सुखी होय हैं । ये नारायण परम्पराय ज्योतिस्वरूप होंगे । इति नारायण नाम । आगे बलभद्रन के नाम कहिये है। तहां प्रथम बलदेव अचल, विजयभद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दमित्र, रामचन्द्र और पद्म-ये नव बलभद्र हैं, सो नारायण के बड़े भाई पानना। इति बलभद्र नाम । आगे नारायण के प्रतिपक्षी (प्रतिनारायण) केशव के नाम कहिये है । तहाँ प्रथम अश्वग्रोव, तारक, मेरुक, मधु-कैटभ, निशुम्भ, बलि, प्रह्लाद, रावण और परासिन्धु । तिनमें आठ तौ विद्याधरन में भए अरु जरासिन्धु भूमिगोचरी भथे। इति प्रतिनारायण नाम। आगे बलभद्र की गति-गमन कहिये है। वहां विजय, अचल, भद्र, सुभद्र, सुदर्शन, आनन्द, नन्दमित्र और रामचन्द्र-ये आठ बलदेव तौ पाठ कर्म नाश करि सिद्ध भरा और नववा पन्ना मलदेस सो दियर शानिया दिन पानाद्धिधारी देव भया । तहाँ ते चय मोक्ष जायंगे तथा कृष्स महाराज तीर्थकर का अवतार धारेंगे और अनेक जीवनकी धर्मोपदेश देय सुमार्ग लगाय आप परमधामकौं पायेंगे, अब ताई अवतार धारचा अब अवतार नाहीं धारेंगे। इति बलभद्र गति। आगे चौबीस-जिन की आयु का प्रमाण अनुक्रम करि कहिये है। चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व साठ लाख पूर्व, पचास लास पूर्व, चालीस लाख पूर्व, तीस लाख पूर्व, बीस लाख पूर्व, दस लाख पूर्व, दोय लास्त्र पूर्व, एक लाख पूर्व, चौरासी लाख वर्ष, बहत्तरि लास वर्ष, साठ लाख वर्ष, तीस लाख वर्ष, दस लाख वर्ष, एक लाख वर्ष, पंचानवै हजार वर्ष, चौरासी हजार वर्ष, पचपन हजार वर्ष, तीस हजार वर्ष, दस हजार वर्ष, एक हजार वर्ष, सौ वर्ष और बहत्तरि वर्ष—ये चौबीस जिन-जगत् मङ्गल करें। इति चौबीस जिन की आयु । आगे चक्रवर्तीन की आयु कहिये है। प्रथम की चौरासी लास्त्र पूर्व, दूसरे की बहत्तरि लाख पूर्व, तीये की पाँच लाख वर्ष, चौथे की तीन लाख वर्ष, पांचवें की एक लाख वर्ष, घट्ट की पंचानवे हजार वर्ष, सातवें की चौरासी हजार वर्ष, आठवें की साठ हजार वर्ष, नौवें की तीस हजार वर्ष, दावे की पब्बीस हजार वर्ष, ग्यारहवें की तीन हजार वर्ष और बारहवें की सात सौ वर्ष। इति चक्री-आयु । आगे नारायण की जायु कहिये है-प्रथम को चौरासी लाख वर्ष दुसरे की बहत्तरि लाख वर्ष, तीसरे की साठ लाख दर्ष,ौधे की तीस लाख वर्ष, पांचवें की दश लाख वर्ष, छठवें की साठ हजार वर्ष, सातवें की तीस हजार
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वर्ष, आठवें की बारह हजार वर्ष और नववे की एक हजार वर्ष । यह नारायण की वायु कही ।। इतनी ही नव प्रति-नारायस की आयु जानना। बलभद्र की कडू अधिक है, सो जागे कहेंगे। इति नाराबस, प्रति-नारायस की आयु । जागे बलभद्र की आयु कहिये है। तहाँ पहिले बलभद्र की वायु सत्यासी लाख वर्ष, दूजे को सत्तरि लाख वर्ष.तीसरे की साठ लाग्न वर्ष,चौधे की बत्तीस लाख वर्ष, पांचवें की कछु अधिक दश लाख वर्ण, घट की पैंसठ हजार वर्ष, सातवें की बतोस हजार वर्ष, आठवें की सग्रह हजार वर्ष और नववे की बारह सौ वर्ण-ये नव बलभद्र की आयु कहीं। आगे चक्री व नारायण का उपजने का समय कहिये है। तहा मादि जिन से लेय पन्द्रहवें धर्मनाथ पर्यन्त तिनमें वृषभ अजित इनके समय में तो दोय चक्री भये अरु पचास लार कोडि सागर काल का बीचि अन्तर भया। तामें कोई पदवीधारी पुरुष नहीं भया अरू श्रेयांस ते लगाय धर्मनाथ पर्यन्त पांच तीर्थङ्करों के समय में पांच नारायण मये। सो तीर्थक्करों के काल में ही सभा-नायक मये। अन्तराल में नाहों भये। धर्मनाथ के पीछे तीसरे चौथे चक्री भये । ता पीछे शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, बरहनाथ ये तीन तीर्थर ही चनी भये। ता पीछे छठवाँ नारायरा भया । ताके पीछे पाठवा चक्रवर्ती भया। ताके पीछे मल्लिनाथ जिन भये। मल्लिनाथ जिन के पीछे नौवां महापा चक्री भया। ता पीछे सातवां नारायण भया। ता पोछे मुनिसुव्रतनाथ मये। ताके पीछे दशवां चक्री हरिषेण भया। ताके पीछे पाठवां नारायण भया। ताके पीछे नमिनाथ-जिन भये बरु नमिनाथ के पोछे ग्यारहवां चक्री भया । ताके पीछे नैमिनाथ भये तिनके समय में नव नारायण और बलभद्रये तिन छते ही सभानायक भए और नैमिनाथ के पीछे बारहवां चक्री भया। ताके पीछे पार्श्वनाथ और महाबीर भये। इस मांति त्रेसठ शलाका पुरुष भरा, तिनकी रचना कही। इति चक्रो और नारायण के उपजने का समय कह्या। आगे तीर्थङ्कर की आयु की विगत कहिश है। तहां ऋषभदेव का कुमारकाल, बीस लाख पूर्व का। श्रेसठ लाख पूर्व राज्य किया। तप एक हजार वर्ष किया और केवलज्ञान सहित उपदेश हजार वर्ष घाटि, लाख पूर्व किया। ये सर्व चौरासी लाख पूर्व की विगत कही।।। अजितनाथ-जिन का कुमार काल, अठारह लाख पूर्व। एक पूर्वाङ्ग अधिक, तिरेपण लाल पूर्व राज्य में व्यतीते संयम का काल बारह वर्ण रहा एक पूर्वाङ्ग अरु बारह वर्ष घाटि एक लाख पूर्व केवलज्ञान सहित, समवशरण सहित विहार किया। यह बहसरि लान पूर्व
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का विस्तार का । २ । सम्भवनाथ का काल साठ लाख पूर्व तामें तैं कुमारकाल पन्द्रह लाख पूर्व अरु च्यारि पूर्वाङ्ग अधिक चवालीस लाख पूर्व राज्य किया और चौदह वर्ष संघम किया अरु च्यारि पूर्वाङ्ग अरु चौदह वर्ष घाट एक लाख पूर्व केवलज्ञान सहित रहे । पीछे मोक्ष गए। ३ । आगे अभिनन्दन की आयु पचास लाख पूर्व है। तामें कुमार काल साढ़े बारह लाख पूर्व अरु राज्य विषै साढ़े छत्तीस लाख पूर्व अरु जाठ पूर्वाङ्ग । अठारह वर्ष संयमकाल । आठ पूर्वाङ्ग अरु जठारह वर्ण घाटि, एक लाख पूर्व, केवलज्ञान सहित उपदेश करि मोक्ष गए। ४ । आगे सुमतिनाथ की आयु चालीस लाख पूर्व । तामें कुमारकाल दश लाख पूर्व है। राज्यावस्था का काल गुणतोस (२६) लाख पूर्व अरु बारह पूर्वाङ्ग संयमकाल बीस वर्ष अरु बारह पूर्वाङ्ग, बीस वर्ष घाटि एक लाख पूर्व केवलज्ञान सहित रहे। पीछे मोक्ष गए ५ की तीस लत । नाम हैं कुगार काल साढ़े सात लाख पूर्व । साढ़े इक्कीस लाख पूर्व अरु सोलह पूर्वाङ्ग राज्य किया। संयम काल छः महिना वरु सोलह पूर्वाङ्ग अरु छ: महिना घाटि एक लाख पूर्व ताई केवलज्ञान सहित उपदेश देय सिद्ध भए । ६ । जरु सुपार्श्व- जिनकी आयु बीस लाख पूर्व तामें तैं कुमारकाल पाँच लाख पूर्व अरु चौदह लाख पूर्व बीस पूर्वाङ्ग राज्य किया। संयम का काल, नव वर्ष अरु बीस पूर्वाङ्ग नव वर्ष घाटि एक लाख पूर्व केवलज्ञान सहित विहार करि, सिद्ध भरा | चन्द्रप्रभ का आयु समय, दश लाख पूर्व । तामें कुमार काल अढाई लाख पूर्व राज्यावस्था साढ़े छः लाख पूर्व अरु चौबीस पूर्वाङ्ग । संयमकाल तीन महिना जरु तीन महिना चौबीस पूर्वाङ्ग घाटि एक लाख पूर्व ताईं समवसरण सहित केवलज्ञान पाय विहार करि मोक्ष गए । पुष्पदन्त-जिन की आयु, दौय लाख पूर्व की है। ता कुमारकाल, पचास हजार पूर्व पचास हजार पूर्व जरु अट्ठाईस पूर्वाङ्ग, राज्य किया और संयमकाल च्यारि महिना । अट्ठाईस पूर्वाङ्ग च्यारि महिना घाटि, एक लाख पूर्व केवलज्ञान सहित विहार करि मोक्ष गए || शीतल जिन की आयु का प्रमाण, एक लाख पूर्व में। तामैं कुमारकाल, पच्चीस हजार पूर्व । राज्य काल पचास हजार पूर्व संयमकाल तीन मास अरु तीन महिना घाटि पचीस हजार पूर्व, केवलज्ञान सहित रहे | १० | श्रेयांस जिनकी आयु चौरासी लाख वर्ष की है। तामें कुमारकाल इक्कीस लाख वर्ण । राज्य पद व्यालीस लाख वर्ष। संयम का काल दोय मास । दोय महिना घाटि इक्कीस लाख वर्ष केवलज्ञान काल है । २श
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वासुपूज्य की आयु, बहत्तरि लाख वर्ष की है। तामें कुमार काल, अट्ठारह लाख वर्ष है। राज्यावस्था में नहीं रहे अरु व्याह भी नहीं किया, अट्ठारह लाख वर्ष के भय, तब ही तप लिया। सो संयमकाल, एक मास रहे। कैवलज्ञान सहित एक मास घाटि चौवन लाख वर्ष रह के, शिव गये।१२। विमल जिन की आयु साठ लाख वर्ष की है । तामें कुमारकाल पन्द्रह लाख वर्ष । राज्यावस्था तीस लाख वर्ष और संयमकाल, तोन महिना। तीन महीना घाटि पन्द्रह लाख वर्ष केवलज्ञान सहित रहे। पीछे निर्वास गये । १३ । अनन्त-जिन को आयु तीस लाख वर्ष है। तामें कुमारकाल, साढ़े सात लाख वर्ष । राज्यावस्था, पन्द्रह लास वर्ष । संयमकाल दीय मास । केवलज्ञान विर्षे दोय मास घाटि, साढ़े सात लाख वर्ष रहे ।१४। धर्म-जिन की आयु दश लाख वर्ष । तामें कुमारकाल, अढ़ाई लाख वर्ष और राज्यावस्था, पांच लाख वर्ष । संयमकाल एक मास। एक मास घाटि अढ़ाई लाख वर्ष, विहार करि मोक्ष गये । १५ । और शान्तिनाथ को आयु, एक लाख वर्ष । तामें कुमारकाल, पच्चीस हजार वर्ष । राज्यकाल, पचास हजार वर्ष । संयमकाल. सोलह वर्ष । सोलह वर्ष धाटि पच्चीस हजार वर्ष केवलज्ञान सहित विहार करि, मोक्ष गये ।१६। कुन्थुनाथ को भायु पनच्यानबै हजार वर्ष। तामें कुमारकाल पौने चौबीस हजार वर्ष । राज्यावस्था. सैंतालीस हजार वर्ष । संयमकाल सोलह वर्ष । सोलह वर्ष घाटि पौने चौबीस हजार वर्ष केवलज्ञान सहित उपदेश देय मोक्ष गये ।२७। अरह-जिन की आयु का प्रमाण चौरासी हजार वर्ष है। तामें कुमारकाल इकईस हजार वर्ष । राज्यावस्था ज्यालीस हजार वर्ष । संयमकाल सोलह वर्ष अरु सोलह वर्ण घाटि इक्कीस हजार वर्ष ताई, केवलज्ञान सहित उपदेश करि मोक्ष गये ।१८। मल्लिनाथ को आयु पचपन हजार वर्ण । तामें कुमारकाल सौ वर्ण । इनने राज्य नहीं किया। सौ वर्ष की अवस्था हो मैं तप धारया। संयमकाल षट् दिन और षट् दिन घाटि चौवन हजार नव सौ वर्षा ताई केवलज्ञान सहित उपदेश देय मोत गये।२६। मुनिसुव्रत-जिन को प्रायु तीस हजार वर्ष । तामें साढ़े सात हजार वर्ष कुमारकाल। राज्यकाल पन्द्रह हजार वर्ण । संयमकाल ग्यारह महिना । ग्यारह महिना घाटि साढ़े सात हजार वर्ष केवलज्ञान सहित विहार करि मोक्ष गये ।२० नमिनाथ की आयु दश हजार वर्ण । तामें कुमारकाल बढ़ाई हजार वर्ण । राज्यकाल पाँच हजार वर्ष। संथमकाल नौ वर्ष और नव वर्ष घाटि अढ़ाई हजार वर्ष, केवलज्ञान
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सहित विहार करि मोक्ष गए।२१। और नेमिनाथ-जिनकी आयु एक हजार वर्ष । तामें कुमारकाल तीनसौ वर्ष। राज्य इनने नहीं किया। तीनसौ वर्षक होयकें तप लिया। संयमकाल एप्पन दिन । धप्पन दिन धाटि सातसौ वर्ष केवलज्ञान हैं धर्मोपदेश देय सिद्ध भए ।२२। पार्श्वनाथ-जिन की आयु, सौ वर्ष की। तामें कुमारकाल, तीस वर्ष। इनने व्याह और राज्य नहीं किया। तीस वर्णमें ही. दीक्षा धरी। संयम-काल, च्यार महिना। अरु च्यार महिना घाटि, सप्तर वर्ण, केवल-झान सहित रह, भव्यन कूसम्बोध करि, मोक्ष गये ।२३। महावीर-जिनकी आयु, बत्तरि वर्ष । तामें कुमारकाल, तीस वर्ष। इनने व्याह व राज्य नहीं किया। तीस वर्षामें तप धरा। संयमकाल, बारह वर्ष। बाकी वर्ष केवलज्ञान सहित रहकर, मोक्ष गये।२४। यह सर्व जिनकी बायुको विगत कही। तामें कोई की जायके च्यारि विभाग, कोई की आयु के राज्यावस्था बिना, तीन विभाग को। आगे चौबीसजिनके, च्यारि प्रकार संघका प्रमाण कहिये है। तहाँ पहिले चौबीस-जिनके गणधर देवनका प्रमाण अनुक्रम तें कहिये है-८४,६०,१०५, २०३, १२६,१११.६५, ६३,८८,८१, ७७.६६,५५,५०,४३, ३६,३५,३०, २८,१८,२७, २१,२०, और श्ये चौबीस-जिनके, चौदह सौ त्रेपण (२४५३) गणधर जानना। तिनमें हैं एक-एक जिनके मुख्य एक-एक गणधरनके नाम कहिये हैं वृषमसेन, सिंहसेन, चारुदत्त. वन चमर, वप्रबलि, चरवलिदरिडक, वैदर्भ, जनागार, कंथ, सुधर्म,नन्दराज, जय, अरिष्ट, चक्रायु, स्वयंभ, कंथ, विशाल, मल्लि, सोम, वरदत्त स्वयंभू और इन्द्रभूति । ये चौबीस मुख्य गणधर कहे। ये सर्व गणधर सप्त ऋद्धि करि सहित हैं । सर्व जिन श्रुतके पारगामी हैं । बागे एक-एक जिनके सङ्ग, केते-केते राजा वैरागी भये ; तिनका प्रमाण कहिये हैंमहावीर के संग तीन सौ राजा यति भये ।। पार्श्वनाथ के साथ वह सौ छह । २ । मल्लिनाथ के साथ छह सौ छह । ३। वासुपूज्य की लार छह सौ। ४ । आदिनाथके साथ चारि हजार राणा यति भये। ५। बाकी सर्व जिनके संग एक-एक हजार राजाओंने तप लिया। आगे चौबीस जिनके यतीश्वरन की संख्या कहिये है। तहां वृषभदेव के सर्व मुनीश्वर ८४ हजार हैं अजित के एक लाख हैं। सम्भवके दोय लाख । अभिनन्दन के | तीन लाख । सुमतिनाथ के तीन लाख बीस हजार । पानाथ के तीन लाख तीस हजार । सुपार्श्वनाथ के तीनलाख। चन्द्रप्रभ के सर्व मुनि अढ़ाई लाख। पुष्पदन्त-जिन के दोय लाख ! शीतलनाथ के एक लाख। श्रेयांसनाथ के,
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चौरासो हजार। वासपूज्य के बहत्तरि हजार। विमलनाथ के अड़सठ हजार। अनन्तनाथ के छयासठ हजार। बननाथ चौसठ हजार । शान्तिनाथ के बासठ हजार । कुन्थुनाथ के साठ हजार। अरहनाथ के पचास हजार। मल्लिनाथ के चालीस हजार। मुनिसुव्रत के सोस हजार। नमिनाथ के बीस हजार । नैमिनाथ के अठारह हजार। पाश्वनाथ के सोलह हमार। महावीर के चौदह हजार सर्व मुनीश्वर हैं। ये चौबीस-जिन के सर्व मुनि कहे। सो मुनि का संघ सात प्रकार है-चौदह पूर्व के पाठी, सूत्र अभ्यासी, अवधिज्ञानी, केवली, विक्रिया अद्धि के धारी, विपुलमती, मनः पर्यथी और वादिव ऋद्धि के धारी-इन सात भेद रूप मुनिसंघ है। सो वृषभदेव के चौरासी हजार मुनि हैं। तिनमें चौदह पूर्व के पाठी साढ़े सैंतालीस सौ हैं। सूत्र अभ्यासी शिष्य इकतालीस सौ पचासा। अवधिलानी नौ हजार । केवलज्ञानी बीस हजार । विक्रिया ऋद्धि के धारी तीस हजारः सौ। विपुलमती मनः पर्ययज्ञानी बारह हजार साढ़े सात सौ । वादिन ऋद्धि के धारी बारह हजार साढ़े सात सौ हैं। ये सर्व मिलि चौरासी हजार आदि-देव के मुनि कहे अजित के चौदह पूर्व के पाठो तीन हजार पाँच सौ मुनि । आचाराङ्ग सूत्र के धारी शिष्य इक्कीस हजार छः सौ। अवधिज्ञानी नव हजार चार सौ। केवलज्ञानी बीस हजार दो सौ पवास । विक्रिया ऋद्धि के धारी बीस हजार च्यारि सौ पचास। विपुलमति मनः पर्यय धारो बारह हजार च्यारि सौ। वादित्र ऋद्धि के धारी बारह हजार च्यारि सौ। ये सर्व जाति के मिलि अजित-जिन के एक लाख मुनि हैं।२। सम्भव-जिन के चौदह पूर्व के पाठी साढ़े इक्कीस सौ। सूत्र अभ्यासी शिष्य-मुनि एक लास्स उनीस हजार तीन सौ। अवधिज्ञानी नव हजार छः सौ। केवलज्ञानी पन्द्रह हजार। विक्रिया ऋद्धि के धारी गुणतीस हजार साढ़े आठ सौ। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान के धारी बारह हजार है। वादिन ऋद्धि के धारी बारह हजार एक सौ हैं । ये तीसरे जिन का संघ सात प्रकार दोय लाख कह्या ।३। आगे चौथे अभिनन्दन-जिन के मुनि तीन लाख हैं। तिनमें चौदह पूर्व के पाठी पच्चीस सौ हैं। सूत्र अभ्यासी शिष्य दोय लाख तीस हजार पचास है। अवधिज्ञानी नौ हजार आठ सौ। केवलज्ञानी सोलह हजार। विक्रिया ऋद्धि के धारी गुनीस हणाए। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान के धारी ग्यारह हजार साढ़े छः सौ। वादिन ऋद्धि के धारी ग्यारह हजार। ये अभिनन्दन-जिन के तीन लाख साधन में सात भेद कहे।४। आगे पांचवें सुमतिनाथ के तीन लाख बीस हजार मुनि है। तामें चौदह पर्व
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के पाठी चौबीस सौ। सूत्र अभ्यासी शिष्य मुनि दोय लाख चौंसठ हजार तीन सौ पचास । अवधिज्ञान के धारी ग्यारह हजार । केवलज्ञान के धारी तेरह हजार । विक्रिया ऋद्धि के धारी अट्ठारह हजार च्यारि सौ। | विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी दश हजार च्यारि सौ । अादित्र ऋदिले. मारो रातभार मानि सौ सालात हैं।
ये सर्व पांचवें जिन के सात जाति के मुनि तीन लाख बीस हजार कहे। ५। आगे छ? पाप्रम-जिनके तीन लाख तीस हजार मुनि कहे। तिनमैं चौदह पूर्व के ज्ञानी तेईस सौ सूत्र के अभ्यासी शिष्य-मुनि, दौय लाख गुणहत्तरि हजार । अवधिज्ञानी, दश हजार । केवलज्ञान के धारी बारह हजार आठ सौ । विक्रिया ऋद्धि के धारी, सोलह हजार तीन सौ। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानो, दश हजार छः सौ। वादिन ऋद्धि के धारो, नौ हजार। ये बड़े जिनके, सात जाति के मुनि, सब मिलि तीन लाख तीस हजार कहे ।। आगे सुपाश्र्वनाथ के संघ के, तीन लाख मुनि है। तामें चौदह पूर्व के धारी दोय हजार तीस यति हैं। सूत्र अभ्यासी शिष्यमुनि, दोय लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस हैं । अवधिज्ञानी, नव हजार । केवली, ग्यारह हजार तीन सौ। विक्रिया ऋद्धि के धारी पन्द्रह हजार डेढ़ सौ । विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, नव हजार छ: सौ । वादिन ऋद्धि के धारी, आठ हजार । ये सर्व, सात जाति के मुनि मिल कर तीन लाख, सातवे जिन के हैं ७ बाठवें जिन के, अढ़ाई लाख मुनि हैं । तिनमें चौदह पूर्व के पाठी, दोय हजार हैं। सूत्र अभ्यासो शिष्य मुनि, दोय लाख दश हजार च्यारि सौ । जवधिज्ञानके धारी, आठ हजार । केवली, दश हजार ! विक्रिया ऋद्धिके धारी, च्यारिहजार। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान के धारी, पाठ हजार । वादिन ऋद्धि के धारी, सात हजार छःसौ। ये चन्द्रप्रभ-जिन के सात जाति के मुनि, अढ़ाई लाख कहे।८। आगै पुष्पदन्त-जिन के, दोय लाख मुनि हैं। तिनमें चौदह पूर्व के धारी, पन्द्रह सौ। सूत्रपाठी शिण्य-मुनि, एक लाख पैंसठ हजार पांच सौ । अवधिज्ञान के धारी, जाठ हजार च्यारि सौ। केवलज्ञानी, साढ़े सात हजार। विक्रिया ऋद्धि के धारी, तीन हजार च्यारि सौ। विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानी, पंसठ सौं। वादित्र ऋद्धि के धारी, बहत्तरि सौ। ये नववें-जिनके, सात जाति के मुनि, सर्व मिलि, दोय लास कहै ।।। शीतलनाथ के संघ सम्बन्धी मुनि, एक लाख। ता विर्षे चौदह पूर्व के धारी, चौदह सौ। सूत्र अभ्यासी शिष्य-मुनि, गुणसठि हजार दो सौ। अवधिज्ञानी, बहत्तरि सौ। केवली, सात हजार। विक्रिया ऋद्धि के धारी,
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बारह हजार। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, पचहत्तर सौ। वादिन ऋद्धि के धारी, सत्तावन सौ। ये सर्व मिलि, दशा-जिन के, एक लाख मुनि कहे। १०। आगे श्रेयांस-जिन के, चौरासी हजार मुनि। तामें चौदह पूर्व के धारी, तेरह सौ। सूत्रपाठी शिष्य-मुनि, अड़तालीस हजार दोय सौ। अवधिज्ञान के धारी, छ: हजार । केवलज्ञानी, साढ़े छः हजार विक्रिया द्धि के धारी, ग्यारह हजार। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, चौवन सौ। बाकी वादिन ऋद्धि के धारक हैं। ये चौरासी हजार यति, ग्यारह जिनके कहे।शवासपज्य-जिनके संघ के मुनि, बहत्तर हजार बुद्धि-सागर यति हैं । कतैक, चौदह पूर्व के धारी हैं । केतक, सूत्र अभ्यासी शिष्य-मुनि । कतैक, अवधिज्ञान के धारी। प्ठः हजार, केवली। विक्रिया द्धि के धारी, दश हजार। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, . हजार । वादिन के धारी, ब्यालीस सौ हैं। ये सात जाति के संघ सहित बहत्तर हजार मुनि कहे। १२ । बड़सठ हजार यति. विमलनाथ-जिन के काह। वहाँ चौदह पूर्व के पार, बारह सौ। सूत्रमा शिष्य जाति के मुनि, अड़तीस हजार पांच सौ । अवधिज्ञान के धारी, अड़तालीस सौ। केवली, पचपन सौ। विक्रिया ऋद्धि के धारी, नौ हजार । विपुलमति मतः पर्यय ज्ञानी, पचपन सौ। वादिन ऋद्धि के धारी मुनीश्वर छत्तीस सौ। ये सर्व जाति के मुनि अड़सठ हजार कहे ।१३। अनन्तनाथ के संघ में छचासठ हजार मुनि हैं । तामें चौदह पूर्व धारी एक हजार। सूत्र अभ्यासी शिष्य-मुनि गुणसठ हजार पांच सौ । अवधिज्ञानी तियालीस सौ। केवलज्ञानी पांच हजार । विक्रिया ऋद्धि के धारी आठ हजार। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी पांच हजार हैं। वादिन ऋद्धि के धारी बत्तीस सौ। ये सात जाति के मुनि छयासठ हजार कहे । २४। धर्मनाथ-जिन के यति चौंसठ हजार हैं। तामें चौदह पूर्व के धारी नौ सौ। शिष्य जाति के चालीस हजार सात सौ। अवधिज्ञानी छत्तीस सौ। केवली पैंतालीस सौ। विक्रिया ऋद्धि के धारी, सात हजार। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, पैतालीस सौ। वादिन ऋद्धि के धारी ! अट्ठाईस सौ हैं। ये सर्व मिलि, चौसठ हजार, धर्मनाथ जिन का मुनिसंघ कह्या। १५ । शान्तिनाथ-जिन के, बासठ हजार यति हैं। तिनमें चौदह पूर्व के धारी, आठ सौ। शिष्य जाति के मुनि, इकतालीस हजार पाठ सौ।। अवधिज्ञानी, तीन हजार । केवलज्ञानी, च्यारि हजार। विक्रिया ऋद्धि के धारी, छः हजार। विपुलमति मनः पर्यय झानी, च्यारि हजार। वादित्र ऋद्धि के धारी, चौबीस सौ। ये बासठ हजार, सोलवें तीर्थतार के मुनीश्वर
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कहे। २६। कुन्थुनाथ जिन के साठ हजार यति है। चौदह पूर्वके धारी, सात सौ। शिष्य जातिके मुनि, तेतालीस हजार डेढ़ सौ। अवधिज्ञानी, अढ़ाई हजार। केवलज्ञानी, दोय हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धिके धारी, इक्यावन सौ। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, सैंतीस सौ पचास । वादिन ऋद्धि धारी, दोय हजार। ये साठ हजार संघ, कुन्थुनाथ-जिनका कह्या । २७। अरहनाथका संघ, पचास हजार है। तामें चौदह पूर्वक धारी, छह | सौ दश। शिष्य जातिके मनि.पैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस। अवधिमानी. अदाईस सौ। कैवलबानी. अदाईस सौ। विक्रिया ऋद्धिके धारी, तेतालीस सौ। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, बीस सौ पचपन । वादिन शद्धिक धारी, सोलह सौ हैं। ये सर्व जातिके, पचास हजार मुनि हैं। १८ अरु मल्लिनाथके, चालीस हजार यति हैं। तिनमें चौदह पूर्वके धारी, पांच सौ पचास। शिष्य जातिके. गुणतीस हजार। अवधिज्ञानी बाईस सौ। केवली, साढ़े छब्बीस सौ। विक्रिया ऋद्धिके धारी, चौदह सौ । विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी बाईस सौ। वादिन ऋद्धिके धारी, बॉस सी। चालीस हजार सथ मलिनाथ-जिनका कह्या । १६ । और मुनिसुव्रतनाथके, तीस हमार यति हैं। तामें चौदह पूर्वके धारी, पांच सौ। शिष्य मुनि, इक्कीस हजार। अवधिज्ञानी, बठारह सौ। केवली, बठारह
सौ। विक्रिया ऋद्धिके धारी, बाईस सौ। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, पन्द्रह सौ । वादिन ऋद्धिक धारी, बारह | सौ। ये सात जाति मिलि, तीस हजार मथे । २०। नमिनाथके, बीस हजार यति। चौदह पूर्वके धारी, साढ़े च्यारि सौ। शिष्य जातिके यति. तेरह हजार छह सौ। अवधिज्ञानी, सोलह सौ । केवली, सोलह सौ । विक्रिया ऋद्धिके धारी, पंद्रह सौ । विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी साढ़े बारह सौ । वादिन काद्धिके धारी, एक हजार है। ये बीस हजार यति, इकोसर्वे-जिनके कहे ।२श नेमिनाथके, अठारह हजार यति है। तिनमें चौदह पूर्व धारी, च्यारि सौ। शिष्य जातिके मुनि, ग्यारह हजार पाठ सौ । अवधिज्ञानी, पंद्रह सौ। केवलो पन्द्रह सौ विक्रिया ऋद्धिके धारी. ग्यारह सौ। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, नौ सौ। वादिन ऋद्धिके धारी, बाठ सौ। ये अठारह हजार यति, नेमिनाथ-जिनके कहे।२२. पार्श्वनाथके, सोलह हजार यति है। तिनमें चौदह पूर्वकेधारी, साढ़े तीन सौ शिष्य जातिके मुनि, दश हजार नौ सौ। अवधिज्ञानी, चौदह सौ। केवली, एक हजार। विक्रिया ऋद्धिके धारी, एक हजार। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, साढ़े सात सौ। वादिन ऋद्धिके धारी, छह सौ। ये सोलह हजार यति पार्श्वनाथ
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जिन के कहे ।२३। महावीर-जिनके, चौदह हजार यति हैं। चौदह पूर्व के धारी, तीन सौ। शिष्य जाति के मुनि, नौ हजार नौ सौ । अवधिज्ञानी, तेरह सौ। केवली, सात सौ। विक्रिया ऋद्धि के धारी, नौ सौ। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञानी, पांच सौ। वादित्र ऋद्धि के धारो, च्यारि सौ। ये चौदह हजार मुनि, वर्द्धमान-जिन के कहे।२४।। इति चौबीस-जिन के, मुनि-संघ, सात-सात प्रकार। अागे चौबीस-जिन के संघ की, आर्यिका का प्रमाण कहिये है-तहां आदि-देव के संघ की आर्यिका, तीन लाख पचास हजार। अजितनाथ की, तीन लाख बीस हजार । सम्भव, अभिनन्दन, सुमति–इन तीनों को तीन-तीन लाख, तीस-तीस हजार। प्रदाप्रम को, च्यारि लाख बोस हजार । सुपार्श्वनाथ की, तीन लाख तीस हजार। चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल-ये तीन जिन की, तीन-तीन लाख अस्सी-अस्सी हजार। श्रेयांस को, एक लाख बीस हजार। वासुपूज्य की, एक लाख छ हजार। विमल-जिन की, एक लाख तीन हजार। अनन्तनाथ की, एक लाख आठ हजार। धर्मनाथ की, बासठ हजार च्यारि सौ। शान्ति-जिन की, साठ हजार तीन सौ। कुन्धुनाथ की, साठ हजार तीन सौ। अरहनाथ की, साठहजार। मल्लिनाथ को, पचपन हजार । मुनिसुव्रत की, पचास हजार । नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वर्द्धमान-इन च्यारि-जिन की, यथायोग्य ग्रन्थों से जानना। ये चौबीस-जिन के संघ को आर्थिका का प्रमाण कह्या । आगे श्रावक-श्राविकाओं का प्रमाण कहिये है-तहां वृषभदेव से चन्द्रप्रभ पर्यन्त, आठ तीर्थङ्करन के समय, तीन लाख श्रावक भये अरु पुष्पदन्त से लगाय, शान्तिनाथ पर्यन्त, दोय-दीय लाख श्रावक भये और कुन्थुनाथसू लेय, महावीर पर्यन्त, एक-एक लाख श्रावक । ये तो श्रावक-संख्या कही। अब श्राविका का प्रमाण तहां वृषभदेव तें लगाय, महावीर पर्यन्त यथायोग्य ग्रन्थों द्वारा श्राविका जान लेना। ऐसे चौबीस-जिन का संघ च्यारि प्रकार कहा। भागे चौबीस-जिन के शिष्य, सिद्ध भये । तिनका प्रमाण अनुक्रमते कहिर हैं---तहां वृषभदेव के शिष्य, साठ हजार नौ सौ सिद्ध भए । अजितजिन के, बहत्तरि हजार एक सौ । सम्भव-जिन के, एक लाख सत्तरि हजार एक सौ। अभिनन्दन-जिन के. दोय | लाख अस्सी हजार एक सौ । सुमतिनाथ के, तीन लाख एक हजार छः सौ। पमनाथ के, तीन लाख तेरह हजार
छः सौ । सुपार्श्वनाथके, दोय लाख पच्यासी हजार। चन्द्रप्रमके, दोय लाख चौंतीस हजार। पुष्पदन्तके.एक लाख गुन्यासी हजार छः सौ। शीतलनाथ के, अस्सी हजार छः सौ। श्रेयांस-जिन के, पैंसठ हजार छ: सौ। वासुपूज्य के,
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चौवन हजार छः सौं । विमल-जिनके,इक्यावन हजार तीन सौ। अनन्त-जिनके, इक्यावन हजार धर्मनाथ-जिनके, मुश्चास हजार सात सौ। शान्तिनाथके, अड़तालीस हजार च्यारि सौ। कंथ-जिनके छयालीस हजार आठ सौ। अरह-जिनके, तीस हजार दोय सौ। मल्लिनाथ-जिनके, अट्ठाईस हजार आठ। मुनिसुव्रत-जिनके, गुणतीस | हजार दोय सौ नमि-जिनके, नौ हजार छह सौ। नेमिनाथ-जिनके, आठ हजार । पाश्र्वनाथ-जिनके, छह हजार दोय सौ। और महावीर के शिष्य, सात हजार दोय सौं, मोक्ष गये। ये चौबीस-जिनके शिष्य, मोक्ष मये। तिनका प्रमाण कह्या। सो वृषभदेव ते शान्ति पर्यन्त, सोलह तीर्थकर सिद्ध लोक पधारे। तब ताई, तिनके शिष्य शनये मागाई... सोलह तीर्शकरोंकों जब तैं केवलज्ञान उपज्या। तब तँ लगाय, निर्वाण भया तब ताई, तिनके शिष्य मोक्ष गये। अरु शेष आठ तीर्थंकरोंके शिष्य, निर्वाण पीछे, महिनामें, केई शिष्य दोय महिनामें कई च्यारि मासमें केई, वर्ष में, कई दोय वर्षादिक पीछे मोक्ष गये। ऐसे सब-जिनके शिष्यनका मोक्ष जानता । आगे चौबीस-जिनका परस्पर अन्तर कहिये है-तहां वृषभदेव पीछे पचास लाख कोड़ि सागर काल व्यतीत भया, तब दूसरे अजितनाथ भये । अजितनाथ तें. तीस लाख कोड़ि सागर पीछे, तीसरे संभवजिन भये। संभवनाथके पीछे दश लाख कोडि सागरके अन्तर तँ, चौथै अभिनन्दन-जिन भये। अभिनन्दन तें. नव लाख कोडि सागर पीछे, सुमतिनाथ भये। बरु सुमतिनाथके पीछे, नब्बे हजार कोडि सागर अन्तरालमैं पदमनाथ भये। पद्मनाथके पोछे नव हजार कोड़ि सागर अन्तर मये, सुपाव भये। सुपार्श्वनाथके पीछे नौ सो कोड़ि सागर अन्तरकाल गये, चन्द्रप्रभ पीछे नब्बे कोडि सागर अन्तर गये, पुष्पदन्त हुए। पुष्पदन्तक पीछ नव कोड़ि सागर अन्तर भय, शीतल-जिन भए । शीतल-जिनके पीछ, अरु श्रेयांसनाथके बीचि अन्तर, छयासठि लाख बीस हजार वर्ष' घाटि एक कोडि सागर। श्रेयांस-जिनके पीछे चौवन सागर अन्तर भए, वासुपूज्य-जिन भए। और वासुपूज्य पीछे, तैतीस सागर अन्तर ते विमल-जिन भरा। विमलके पीछे, नो सागर अन्तर ते, अनन्त-जिन । भए । अनन्तनाथके पीछे, आधा पल्य काल व्यतीत भर धर्मनाथ भए । धर्मनाथके पीछे, पौन पल्य घाट तीन सागर अन्तर गए शान्तिनाथ भरा। शान्तिनाथ के पीछे आधा पल्यका अन्तर भए कुन्थुनाथ भए । कुन्धुनाथ के पीछे, हजार कोड़ि वर्ष घाट, पाव पल्य अन्तर गए अरहनाथ भये। अरहनाथ के पीछे हजार कोड़ि वर्ष अन्तर गर,
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मल्लिनाथ भये । मल्लिनाथ के पीछे चौवन लाख वर्ष अन्तर गये, मुनिसुव्रत-जिन हुए। मुनिसुव्र के पीछ, छह लाख वर्ष अन्तर गये, नमि-जिन हुए। नमिनाथ के पीछे पचास लाख वर्ष अन्तर गर, नेमिनाथ मरा । नेमिनाथके पीछे पौने चौरासी हजार वर्ष अन्तर मये, पार्श्वनाथ भए । अरु पार्श्वनाथके पोछे, अढ़ाई सौ वर्षका अन्तर पड़े वर्द्धमान-जिन भए। रोसे चौबीस जिनके तैबोस अन्तराल कहे। सो जब महावीर मोक्ष पधारे, तब चौथे कालके तीन वर्ष साढ़े आठ महिना, बाकी थे। चौथा काल ज्यालीस हजार वर्ष घाटि एक कोड़ा-कोड़ी सागरका है। तो गालीस सदार नाई मैं इक्कीस हजार वर्षका पञ्चमकाल है। अरु इक्कोस हजार वर्षका छट्ठा काल है। सो पञ्चमकालकं अन्त पर्यन्त, महावीरका धर्म है ; छठे कालमें, धर्मका अभाव है, इति चौबीस-जिन अन्तर। आगे धर्मका विरह-काल कहिय है-तहां वृषभदेवसू लगाय, पुष्पदन्त पर्यन्त तो धर्म अखण्ड चल्या। कबहूं श्रावक कबहूं मुनि कबहूं केवलझानो भया करें। तिनके प्रसाद तें धर्मोपदेश भया कर था। अन्तराल नाहीं पड़या। पुष्पदन्तके पीछे पाव पल्य तांई धर्मका अन्तर भया। और शीतलनाथके पीछे आधा एल्य ताई, धर्मका विच्छेद भया। और श्रेयांस-जिनके पीछे पौन पल्य ताई, धर्मका विच्छद भया। वासुपूज्यके पीछे एक पल्य ताई धर्मका विच्छेद हुआ। विमलनाथ-जिन भए। विमल-जिन पीछे पौन पल्य धर्मका अभाव मया पोई अनन्तनाथ भए। अनन्तनाथके पीछे आधा पल्य धर्मका विच्छेद भया। और धर्मनाथके पीछे पाव पल्य, धर्मका अभाव भया। ऐसे तीर्थंकरोंके जन्तरालमें च्यारि पल्य ताई, मनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका, च्यारि संघका अभाव रह्या । जिन-धर्म मिट गया। जब तीर्थकर प्रगटे, तब फेरि धर्म चल्या। ऐसा अन्तर भया। और प्रथम ते आठ तीर्थकरोंके समय, निरन्तर धर्म रखा। और पहिले तीर्थकर तें लगाय सात तीर्थकर पर्यन्त, तो केवलज्ञान रूपी सम्पदा निरन्तर चली आई ! केवलज्ञानका कबहूं अन्तर नहीं भया । चन्द्रप्रभ पीछे, नब्बे केवली मये। बाकी कालमें केवली नहीं रहे. मुनि ही रहे। पुष्पदन्तके पीछे, नब्बे केवली भये । शीतलनाथके तीर्थमैं चौरासी केतली मये। श्रेयांसके
पीछे इनके तीर्थम ७२ केवली भये। वासुपूज्यके पोछ, इनके तीर्थ में चवालीस केवली भये। विमलनाथके ५६६ | पीछे इनके तीर्थ में, चालीस केवली भये। अनन्तनाथके पीछे छत्तीस केवली भये। धर्मनाथके पीछ बत्तीस
केवली भये। कुन्थुनाथक पोछ चौबीस केवली भये। अरहनाथाके पीछे सोलह केवली
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बारह केवली भये । नमि के पीछे, आठ केवलो भये। नेमि के पीछे, च्यारि केवली भये। पाश्र्वनाथ के पीछे, तीन केवलो भये। महावीर के पीछे. तीन केवलो भये। ऐसे चौबीस तीर्थक्करों के पीछे, जेते-जेते केवली भये, तिनकी संख्या कही। सो जहाँ लं दुसरे तीर्थकर नहीं उपजे, तेते काल पहिले तीर्थकर का वारा (तीर्थ)कहिये हैं। जैसेप्रथम तीर्थङ्कर पीछे अजितनाथ उपजे, तब लौ पचास लाख कोड़ि सागर, प्रथम-जिन का काल समझना। जैसा सर्वत्र जानना । महावीरके पीछे बासठ वर्ष में तीन केवलो भये । तिनके नाम-गौतम गणधर कवली, सुधर्माचार्य केवली और तीसरे जम्बू स्वामी अन्त के केवलो भये। यहां से आगे केवली नाहीं। इन जम्बू स्वामी के पीछे, सौ वर्ष मैं ग्यारह अङ्ग चौदह पूर्व के पाठी आचार्य हुए। जिनके नाम सुनहु-विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु-ये पांच जाचार्य, महाबुद्धि सागर, सर्वश्रुत के पाठो भये और इनके पीछे एक सौ तिरासी वर्ष में ग्यारह आचार्य और होयगे, सो ग्यारह प्रङ्ग अरु दश पूर्व के पाठी होंगे। तिनके नाम-विशाख प्रोष्ठल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिमान, गंगदेव और धर्मसेन। इनके जागे, पूर्वन पाठी नाही। इन जागे दोय सी बोस वर्ष में पांच पाचार्थ, बारह जङ्ग के पाठी होयगे। तिनके नाम-निषध, जयपाल, पारडव, ध्रुवसैन और कंस-इन ताई ग्यारह मङ्गका ज्ञान रहेगा। आगे इनके पीछे सुभद्राचार्य, यशोभद्राचार्य, मद्रबाहु आचार्य, लोहाचार्य-ये च्यारि मुमि, एक सौ अट्ठारह वर्ष में एक आचाराङ्ग के पाठी होयगे। इन पागे, अङ्गन का ज्ञान नाहीं। आगे कहे महावीर के गणधर ग्यारह तिनको आयु कहिये हैपहिले गराधर को जायु, बानवे वर्ष है। दूसरे की, चौरासी वर्ष की है। तीसरे की आयु, अस्सी वर्ष । चौथे की, सौ वर्ष। पांचवें की, तियासी वर्ष। छठवें की, पिचासी वर्ष। सप्तम की, अठत्तर वर्ष। अष्टम की, ७२ वर्ष । नववे की, ६० वर्ष । दश की, ५० वर्ष और ग्यारहवें को, ४० वर्ष-ये गराधरन की आयु कही। ऐसे चौबीस-जिन का संघ कह्या। आगे जब तीजे काल में, पल्य का अष्टम भाग बाकी रह्या, तब चौदह कुलकर
भये। तिनके नाम-प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, | अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराय-अब इनकी बायु-कायादिक रचना कहिये है
पहिला कुलकर प्रतिश्रुत, ताकी अट्ठारह सौ धनुष काय । इनके समय ज्योतिषी जाति के कल्पवृक्षन की ज्योति
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कछु मन्द भई। सो सूर्य-चन्द्रमा दीखते भयै। तिनकं देख, प्रजा डरी। जो ये कहा है? तब कुलकर ते पूछी । Jहे प्रभो ! ये वहा सवाला नहीं दीष्टे सोये हमारा कहा करेंगे, सो कहौ । तब कुलकर महाविवको सर्वकू । सम्बोधे। कही भय मति करौ। ये ज्योतिषी देवन के इन्द्र हैं। इनके विमान, अनादि-निधन है। अ
विमान, अनादि-निधन हैं। अब ताई कल्यवृतन की प्रभाते नहीं दीखते थे, सो अब वृक्षन की ज्योति मन्द भई तातें दीखे। खेद-कारी नाहीं। ऐसे संबोध, प्रजा को सुखी किया।शदूसरे कुलकर की काय १३०० धनुष । इनके काल में, ज्योतिषी जाति के कल्पवृक्षन की प्रभा, मन्द भई। तब तारा-नक्षत्रन के विमान दीखे। तिनकं देख, भोरी दुनियां डरी। तब जाय कुलकर पै पूछी। तब कुलकर ने सर्व भेद बताय सुखी किये। तातें सन्मति नाम भया।२। तीसरे कुलकर की काय, आठ सौ धनुष। थाके समय सिंहादिक जीव कर भये। तिनकू देख, भोरे लोक डरते भये। तब कुलकर • पूछी। प्रभो अब ताई इन जीवनतै रमै थे, सो नाना सुख होय था। अब ये भय करि, मारे हैं। तब कुलकर लोकन कू भोरे-सरल परिणामी जानि कही तुम इनका विश्वास मति करौ। लष्ट-मुष्ट ते निवारौ। ऐसे कह सुखी किये। सो इनका नाम-क्षेमङ्कर कह्या । ३। और चौथे कुलकर के समय, शरीर की उतुङ्गता, सात सौ । पचत्तरि धनुष है । याके समय सिंहादिक जोय कर भये । तब कुलकर काही-सुम लाठी राखौ। आवे तब मारौ। विश्वास मति करौ। काल दोष ते, आगे विशेष कर होयगे। ऐसे उपाय बताय सुखी किये। तातै क्षेमंधर नाम भया । ४ । पञ्चम कुलकर के समय, काय सात सौ पचास धनुष रही। कल्पवृक्ष घटि चले। कोऊ के कैसा कल्पवृक्ष नाही, कोऊ कैसा नाहीं। इसमें परस्पर खेद करते भये। तब कुलकर पै गये। सो कुलकर ने, अपनी-अपनी सीमा बताय दई। जो अपने-अपने क्षेत्र में होय सो भोगों और दुसरे की सीमा का, ताकी आज्ञा के बिना मति लांघौ। आपस में याच लेव! जो फल जाके नहीं होंय सो वा लीने और वाकें जो फल नहीं होय,
सो वाकौ दिये। ऐसे उपाय कर सीमा बाँधी । तातै सीमंकर नाम पाया। ५। छ? कुलकर को काय सात सौ ५६० पच्चीस धनुष है। इनके समय, कल्पवृक्ष विशेष घटि चले। तब परस्पर लोग खेद करि कषाय रूप होने लगे।
तब कुलकर ने, अपने-अपने कल्पवृक्ष के चिह कर दिये, सो जो जाके चिह्न का है, सो ही भोगै। तातै इनका नाम-सोमंधर भया।६। सातवें कुलकर की काय को ऊँचाई, सात सौ धनुष को थी। याने लोकन कं, हस्ती
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घोटकन की असवारी बताई। तातें इनका नाम, विमलवाहन भया। ७1 आठवे कुलकरका शरीर छह सौ पचत्तरि धनुष है। इनके समय माता-पिता, बालकका मुख देख मरण करते मये। पहिले माता-पिता पुत्रका मुख नहीं देखें थे। सो अष्टम कुलकरते देखतं मया और नवबें कुलकरका शरीर घह सौ पचास धनुष ' भया। याके समय माता-पिता बालक भये पीछे केतक काल जीवते भये। । । दश कुलकर का शरीर यह सौ पच्चीस धनुष भया । याके समय माता-पिता बालकन कू लेकर चन्द्रमादि की समस्या करि रमावते भये ।२०। और ग्यारहवें कुलकर का शरीर छह सौ धनुष मया। याके समय में परिवार सहित लोक बहुत जीवते भये। १३ । बारहवें कुलकर का शरीर पांच सौ पचत्तरि धनुष है। अब लोग पुत्र सहित सुखी होते भये ॥२२॥ और तेरहवें कुलकर का शरीर पांच सौ पचास धनुष ऊंचा था। ता समय बालक जर सहित उपजते भये। ताहि देख लोग डरे। तब कुलकर कुंजर सहित बालक दिखाया। सो याने जरा-छेदने की विधि बताई।१३। और चौदवें कुलकर नाभि राय भये। सो इनके समय बालक नाभि (नाल ) सहित होने लगे। तब-नाभि छेदने को कला इनने बताई। तातें नामिराय भये। इनका शरीर पांच सौ पच्चीस धनुष भया।१४। ऐसे चौदह कुलकर महा बुद्धिमान् इनमें स्वयमेव ही अनेक कला-चतुराई होय। महा सौम्यदृष्टि, मंद-कषायी होय। ऐसे पत्यके आठवें भाग कालमें, कुलकर चौदह भये। पीछे तीसरे कालके तीन वर्ष साढ़े आठ महिना बाकी रहे तब श्री आदिनाथ का निर्वाण-कल्याणक भया। चौथे कालके तीन वर्ष साढ़े आठ महिना बाकी रहे. तब अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामीका निर्वास कल्याणक भया । महावीरके मोक्ष गये पीछे इक्कीस हजार वर्षके पञ्चमकालमें इमोस कलंकी होयगे। इनके बीचि, इकईस 'उपकलंको होंगे। भावार्थ-इशीस हजार वर्षका पञ्चमकाल है। तामें हजार वर्ष भये एक कलंकी होंयगे । ता पीछे पांच सौ वर्ष पीछे एक उपकलंकी होयगे। ता पीछे यौन सौ वर्ष गये एक कलंकी होयगे। ऐसे हजार हजार वर्ष गये कलंकी हजार हजार वर्ष गये उपकलंकी जानना। बहुत उपद्रवी, धने-क्षेत्रके धर्म-घातक होय; सो कलंकी कहिये। अस अल्प-क्षेत्रके धर्म-घातक होय सो उपकांकी कहिये। सो कलंकी-उपकलंकी सब हो पायाँधकारके उदय करने को रात्रि समान हायगे। इनके। राज्यमें धर्मरूपी सूर्यका प्रकाश, मिट जायगा। पाप का अधिकार रहेगा सो पाप-मुर्ति, धर्म के घातक फल ते,
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अशुभ गति गमन करेंगे। ऐसे कुलकर व कलंकी कथन कहा। आगे बारह चक्रवर्तीन की आयु कहिये हैं-तहां मरत चक्रोको आयु चौरासी लाख पूर्वकी। तामें कुमारकाल सतत्तर लाख पूर्व है। महामण्डलेश्वर पदका राज्य चालीस हजार वर्ष । पीछे चकरन उत्पन्न भया। पीछे दिग्विजय, साठ हजार वर्ष । राज्य एक लाख वर्ष घाटि, छह लाख पूर्व। संयमकाल, अन्तर्महुर्त। केवलज्ञान सहित किंचित् ऊन एक लाख पूर्व रह के सिद्ध भए। २। दूसरे सगर चक्री की आयु बहत्तरि लान पूर्व। तामें इनका कुमारकालादि यथायोग्य जान लेना ।। तीसरा चक्की मघवा नाम। ताकी आयु पांच लाख वर्ष । तामें कुमारकाल, पच्चीस हजार वर्ष। मण्डलेश्वर पद, पच्चीस हजार वर्ष । पीछे चक्र लाभ भरा दिग्विजय. दश हजार वर्ण। राज्य, तीन लाख नब्बे हजार वर्ष । संयमकाल, पचास हजार वर्ष बाद, स्वर्गलोक गए।३: चौथे चक्की, सनतकुमार। ताकी आयु, तीन लास्त्र वर्ष। तामें कुमारकाल, पचास हजार वर्ष 1 मण्डलेश्वर पद पचास हजार वर्ष। पीछे चक्र लाम ते दिग्विजय, दश हजार वर्ष । राज्यावस्था, नब्बे हजार वर्ष 1 संयमकाल, एक लाख वर्ष। पीछे स्वर्गगमन किया ।४। पञ्चम झांतिनाथजिन, चक्रो। तिनकी आयु एक लाख वर्ष । तामें कुमारकाल, पच्चीस हजार वर्ष । मण्डलेश्वर पद, पच्चीस हजार वर्ष। दिग्विजय आठ सो वर्ष । चक्री पद, चौबीस हजार दोय सौ वर्ष । संयमकाल, सोलह वर्ष। सोलह वर्ष घाटि पच्चीस हजार वर्ष, समोवशरण सहित विहार किया। पीछे सिद्ध भए । ५। छ8 कुन्धुनाथ-जिन चक्री। तिनको जाय, पंचागबै हजार वर्ष । तामें कुमारकाल, पौने चौबीस हजार वर्ष । मण्डलिक राज्य पद, पौने चौबीस हजार वर्ष। दिग्विजय, छह सौ वर्ष । चक्री पद, तेबीस हजार डेढ़ सौ वर्ष । संयमकाल, सोलह वर्ण । केवल अवस्था. सोलह वर्ष घाटि पौने चौबीस हजार वर्ण। पीछे मोक्ष गये।६। सातवें बरहनाथ-जिन, चक्री। तिनको आयु, चौरासी हजार वर्षा। तामें कुमारकाल, इक्कीस हजार वर्ष मण्डलिक राज्य पद, इक्कीस हजार वर्ष। दिग्विजय, च्यारि सौ वर्ष । चक्री पद, बीस हजार छह सौ वर्ष । संयमकाल, सोलह वर्ष । सोलह वर्ष धाटि, इक्कीस हजार वर्ष, केवलज्ञान सहित उपदेश दिया। पीछे लोक शिस्वर विराज । ७। बाठा चक्री, सुमि ताकी आयु, अड़सठ हजार वर्ष। तामें कमारकाल, पांच हजार वर्ष । और दिग्विजय, पांच सौ वर्ष । चक्री पद, । बासठ हजार पांच सौ वर्ण । अरु यह बाल्यावस्थामैं, परशुरामके भय तें सन्यासीनके जाश्रम विर्षे गोप रहे।
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ता वैराग्य नहीं मया । राज्यावस्थामें मरण किया सो महातम नाम, सप्तम लोक-पातालमें पधारे। ८ । नौवें, महापद्म चक्री । ताकी आयु, तीस हजार वर्ष । तामें कुमारकाल, पांच सौ वर्ष । माण्डलिक पद, पांच सौ वर्ष । तीन सौ वर्ण, दिग्विजय । चक्री पद, अट्ठारह हजार सात सौ वर्ष संयमकाल, दश हजार वर्ष । थाही में मुनिपद् अरु केवलपद पाय, पोछे सिद्ध भये । दशवें सुषेण चक्री । तिनकी आयु, छब्बीस हजार वर्ण । तामें कुमारकाल, सवा तीन सौ वर्ष दिग्विजय डेढ़ सौ वर्ष चक्रीपद, पच्चीस हजार एक सौ पचत्तरि वर्ण । संयमकाल, साढ़े तीन सौ वर्ष । तामें दीक्षा अरु केवलज्ञान दोऊ जाय गये। पोछे मोक्ष गये । २०३ ग्यारहवें जयसेन चक्री । तिनकी आयु चौबोस सौ वर्ष । तामैं कुमार-काल, सौ वर्ण दिग्विजय, सौ वर्ष चक्री पदराज्य, अट्ठारह सौ वर्ष । संयम-काल केवलज्ञान सहित च्यारि सौ वर्ष । १२ । बारहवां ब्रह्मदत्त चक्री । ताकी आयु, सात सौ वर्ष । ये चक्री नेमिनाथके पोछे, अरु पाश्र्वनाथके पहिले इस जन्तरालमें भये । सी इनका कुमारकाल, अद्वाबीस वर्ष । माण्डलिक पद, छप्पन वर्ष दिग्विजय, सोलह वर्ष । चक्री पदका राज्य, छह सौ वर्ष इस दीक्षा नहीं सीनी। राज्यपद मरण करि, सप्तमी माघवी धरा पधारे। १२ । यह बारह चक्रीकी, आयुकी, विगत कही। सो इनमें, जाठ चक्की तौ सिद्ध भये । दोय, स्वर्ग लोक गए। दोय पाताल-धरा पधारे। आगे नव, अर्द्धचक्रीनका कथन कहिए है- प्रथम वासुदेव त्रिपिष्ठको आयु. चौरासी लाख वर्ष। तामें कुमारकाल पच्चीस हजार वर्ष । दिग्विजय काल एक हजार वर्ष । अरु राज्यपद तियासी लाख चुहत्तर हजार वर्ष । २ । दूसरा वासुदेव द्विपिष्ठ । ताको आयु बहत्तर लाख वर्ष । तामें कुमार काल पच्चीस हजार वर्ष । मण्डलेश्वर पदका राज्य पच्चीस हजार वर्ष । दिग्विजयका काल सौ वर्ष । अरुं वासुदेव पद इकत्तरि लाख गुणचास हजार नौ सौ वर्ष । २। तीसरा वासुदेव स्वयम्भू ताकी आयु साठ लाख वर्ष। ताका कुमारकाल पचीस सौ वर्ष । अरु मालिक पद पचीस सौ वर्ष । दिग्विजय नब्बे वर्ष। अरु तिन खंडका राज्य गुणसठि लाख चौरानवें हजार नव सौ दश वर्ष । ३ । अरु चौथा वासुदेव पुरुषोत्तम । ताकी आयु तीस लाख वर्ष । तामै कुमार- काल सात सौ वर्ष । माण्डलीक राज्य-पद तेरा सौ वर्ष दिग्विजय अस्सी वर्ष । तीन खण्डका राज्य गुणतीस लाख सत्थानवें हजार नव सौ बीस वर्ष 181 पञ्चम वासदेव सुदर्शन। ताकी आयु दश लाख वर्ष । तामें
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कुमार-काल तीन सौ वर्ष । माण्डलिक पद सौ वर्ष । दिग्विजय सत्तरि वर्ष। और चको पद नौ लाख निन्यावे हजार पाँच सौ तीस वर्षांश और छठा, पुण्डरीक वासुदेव भया। ताकी आयु पैंसठ हजार वर्ष । तामें कुमारकाल, अढ़ाई सौ वर्ष । माण्डलीक पद, अढ़ाई सौ वर्ष । दिग्विजय. साठ वर्ष। तीन खण्डका राज्य, चौसठ हजार च्यारि सौ चालीस वर्षदा और सातवां, दत्त नाम नारायण । ताको आयु बत्तीस हजार वर्ष । तामें कुमार-काल, | दोय सौ वष । माण्डलिक पद पचास वर्ष। दिग्विजय, पचास वर्ष तीन खण्डका राज्य, इकतीस हजार
सात सौ वष । ७। और आठवा वासुदेव लक्ष्मण। ताकी आयु बारह हजार वर्ष। कुमार-काल, सौ वर्ष दिग्विजय काल, चालीस वर्ष। अरु राज्य काल, ग्यारह हजार आठ सौ साठ वर्ष। ८। और नवा वासदेव, कृष्णदेवा ताकी आयु, एक हजार वर्ष । तामें कुमार-काल, सोलह वर्ष । माण्डलिक पदछप्पन वर्ष। दिग्विजय आठ वर्ष। अरु वासुदेव पद, का राज्य, नौ सौ बीस वर्ष।। ये नव वासुदेवोंकी आयुका विस्तार कह्या । आगे आठवें, नव नारायण के पिता-दादादिक पुरुषन के नाम। इन के पुत्रन के नाम। इन के समय जो बड़ेबड़े महान राजा मये, तिनके नाम कहिये हैं। आठवें नारायणको तीन योढ़ी कहिये हैं-तहां जागे अनेक राजान करि वन्दनीय, सूर्य समानि तेज का धारी, प्रजा का माता-पिता महान्यायवान्, रघु राजा भया। तिन तें रघुवंश प्रगट भया। ताके वंशमैं, बड़े-बड़े राजा मये। सो प्रजापालक, न्यायके प्रभाव ते. तिनका यश प्रगट मया पीछे सांसारिक सामग्री विनाशिक जानि, पुत्रनक पुर देशनका राज्य सौंप दीक्षा धरि-धरि, स्वर्ग-मोक्षक गये। ऐसे अनेक राजा भये। तिनके पीछे राजा अनिरम्य भये। सो न्यायके सूर्य प्रजारूपी कमलकुं सूर्य समान
आनन्दकारी, तिनकै राजा दशरथ, यशकी मूर्ति होते मथे। सो ए राजा अनिरन्यके पुत्र राजा दशरथ, महा प्रतापी भाये। जिनके तेजकै आगे, वैरी रूपी सरोवर सूखते भये। महा न्यायका जहाज भया। पीछे दशरथजीके च्यारि महादेवी, परमसती.देवीनके रूपकं जीतनहारी, रानी होती भई। तिन रानीके नाम कौशल्या. || सुमित्रा, कैकई, और सुप्रभा। ये च्यारि महा भागवन्ती रानी, इनके च्यारि पुत्र भये। सो कौशल्याके गर्भ ।। ते तौ, श्रीरामचन्द्रजीका अवतार माया. सो बलभद्र भये। सुमित्राके गर्भ त, श्री लक्ष्मण कुमार अवतार पावते भाये सो ए नारायण भए । कैकई के गर्भ से, भरत नाम कुमार भए । सुप्रभाके गर्भ तें शत्रुन कुमार अवतरते भए।
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पुत्र, न्याय के जहाज पृथ्वीरूपी मन्दिर के स्तम्भनकूं, च्यारि स्तम्भ ही होते भरा और श्रीरामचन्द्र के दोय पुत्र भए । तिनके नाम-लव और अंकुश इन दोय पुत्रन ने, सोताजी के गर्भ अवतार पाया। ये रघुवंशी कहाए । इति रघुवंश । आगे इन राम-लक्ष्मण के समय में जो-जो रावणादि राजा भए । तिनकी परम्पराय (वंश) कहिए है— तहां भीम नाम राक्षस ने मैधवाहनकूं, पूर्व-भव का पुत्र जानि, लङ्का, पाताल लङ्का, राक्षस-विद्या और नव रतन का हार दिया। पोछे, अनेक राजा भए । ता पीछे राक्षस नाम राजा भया । इनने राक्षसवंश चलाया। पीछे अनेक राजा भए । सां यह विद्याधरन का वंश, आकाश समान निर्मल तामें महाप्रतापी राजा सुकेत भए । ता सुकेत के तीन पुत्र भरा। माली, सुमाली और माल्यवान्। सो माली तौ, इन्द्र नाम विद्याधर से युद्ध में मारया परचा और सुमाली के रत्नश्रवा नाम पुत्र भया सो वंश का उजागर, तानै न्याय सहित राज्य किया अरु रत्नश्रवा की पट्टरानी केकसी ताके उदर तें तीन पुत्र भए । दशमुख, कुम्भकर्ण, चन्द्रनखा पुत्री, पोछे विभोषण पुत्र भया। ये तीन पुत्र और एक पुत्री, स्त्रश्रवा के भए । सो ये तीनों भाई देव समान रूप, गुण व पराक्रम के धारी भए । रावण के दोय पुत्र इन्द्रजीत, मेघनाद, मन्दोदरी के गर्म तैं भए । मन्दोदरी का पिता राजा मय, महासामन्त, अनेक विद्याधरन का नाथ मया और मेघप्रभा नाम विद्याधर ताके पुत्र खरदूषण ने रावण को बहिन चन्द्रनखा, बलात्कार हरी पीछे चन्द्रनखाकूं, खरदूषण ने परणीं । यह खरदूषण भी महायोद्धा है अरु चन्द्रोदय राजा का पुत्र विराधित, सो रावण का महासामन्त है और विजयार्द्ध पर रथनूपुर इन्द्रलोक समान पुर है, सो ताका राजा संचार है। ताके इन्द्र नाम पुत्र भया सो महाबली भया । ताने अपने सेवक विद्याधरनक, देवन के नाम थापे और अपना नाम इन्द्र घरचा 1 उस महाबली ने रावण के दादा मालीकूं, युद्ध मैं मारचा । ता पोछे रावण महाप्रतापी, पराक्रमी या सो अपने दादा का बैर लेने, इन्द्रसूं युद्ध किया सो युद्ध में जीत्या । ता इन्द्र, जीवता ही पकड़ ल्याया । पीछे कही — मेरे घर पानी भरौ, तो छोडूं । तब इन्द्र नाम विद्याधर ने मान तजि कही - भरूंगा। ऐसी कही-तब इन्द्रकूं रावण ने तज्या सो इन्द्र ने संसार तैं उदास होय, राज्य तजि, दीक्षा धरी । नाना तप किए। जसपुर का वैश्रवा नाम राजा ताके कौशकी पट्टरानी महासतो ताके गर्भ तैं वैश्रवण नामा पुत्र
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का अवतार भया सो राजा इन्द्र का मुख्य सेवक सो इन्द्र के संग, यतीश्वर भया। ऐसे इन्द्र रावण का सम्बन्ध जानहु-ये रातसर्वशी रावण है । राक्षस-देव नाहीं। रावण मनुष्य है। आगे विद्याधरों में वानरवंशो हैं। तिनको कथा सुनौ-आगे श्रीकण्ठ नाम विद्याधर भए । तिनने समुद्र के टापू में वन्दर-द्वीप वसाया। ता श्रीकण्ठ के कुल में, राजा अमरप्रभ भए। शिम ध्वजा में य-दर का चित कराया। इस यन्दरवंशी प्रसिद्ध भए । पोछे अमरप्रभ के कुल में, कहकन्द नामा राजा भए, सी कहकन्द के दोय पुत्र भए । सो एक नाम सूरजरज अरु दूसरे का ऋष्यरथ । सुरजरजकों, बालि अरु सग्रोव-ये दोय पुत्र मए अरु ऋष्यरण के, नल अरु नोल भए । अरु सुग्रीव के, अङ्ग अरु अङ्गद-ये दोय पुत्र भए। ये सुग्रीव का वंश कह्या और इस हो वंश विर्षे, राजान का राजा, महातेजस्वी, अनेक विद्याधरन का नाथ राजा प्रहलाद भया। ताके पुत्र महा पुण्याधिकारी, पवन समान महाबलवान्, राजा पवनअय भए । तिन पवनय के, अञ्जना के गर्भ से महाबड़भागो, चरमशरीरी, हनुमान पुत्र भरा । सो कामदेव भरा। ये वन्दर-वंशीन का कुल कया। ये मनुष्य, महारूपवान राजा हैं । वन्दर नाही हैं । इनका वंश, वन्दर है । ऐसा जानना । ऐसे बन्दर-वंश कह्या । इति आठवें नारायण के समय का कथन, सामान्य कह्या । इनका विशेष, श्रीपदापुराराजी तें जानना । अागे नववें नारायण व बलभद्र के कुल की पट्टावलो तथा इनके समय भये महान् राजा पाण्डवादिक तिनकी उत्पत्ति कहिये है। तहां मुनिसुव्रत स्वामी का कुल हरिवंश तामें अनेक कुल-मण्डन भये । ता पोछे महाप्रतापी राजा यद भये । इनसे यदुवंश प्रगट्या । तिनके कल में, राजा नरपति भये। तिनके दोय पुत्र भये । एक शर, दुसरे सूवीर। सो शर के, अन्धकवृष्टि नाम पुत्र भये और सुवीर के, भोजकवृष्टि मये। सो अन्धकवृष्टि के दश पुत्र भये । तिनमें बड़े पुत्र का नाम तो, समुद्रविजय है अरु सब तैं छोटे का नाम, वसुदेव है। भोजकवृष्टि के तीन पुत्र भये। उग्रसेन, महासेन और देवसेन सो उग्रसैन के, कंस नाम पुत्र भया अरु देवसेन के, देवकी नाम पुत्रो भयो। समुद्रविजय, जगत्-गुरु नेमिनाथ, अवतार लेते भये । सो तप लेय, मोक्ष गये अरु वसुदेव के, पन्ना नाम बलभद्र, नारायण कृष्णदेव, जरत्कुमार और गजकुमार-2 च्यारि पुत्र भये और कृष्णा महाराज के प्रद्युम्नकुमार, शम्भुकुमार और मानुकुमार-ये तोन पुत्र भये और अन्धकवृष्टि के कुन्ती अस माद्री-ये दोय पुत्री
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मई। ऐसे राजा यदु का वंश सामान्य कया । इति यदुवंश आगे कौरव पाण्डव वंश कहिए है। तहाँ कुरुवंशीन में, आगे शान्तिक नाम राजा भए । तिनकी शिवकी नाम, महासतो रानी भई। ता शिवको के गर्भ तैं, पाराशर नाम महाप्रतापी राजा भए । तिनके, गङ्गा नाम स्त्री होतो भई सो ये राजा गङ्गाधर की पुत्री है। इस गङ्गा के गांगेय पुत्र भया । सो ये गगिय, महान्यायो, बाल- ब्रह्मचारी भए पाराशर को दूसरी रानी, धीवर के घर पलती गुणवती नाम राजकन्या, पाराशर ने व्याही ता पुरायती दीवर पुत्री, सार्क व्यास नाम राजा अवतरे, सो महागुवान राजा भए । तिनके सुभद्रा नाम रानी भई ताके गर्भ तें, व्यास राजा के तीन पुत्र भरा। धृतराष्ट्र, पाण्डवकुमार और विदुर । सो धृतराष्ट्र के दुर्योधन, दुश्शासनादि पुत्र भए । पाण्डव नै अन्धकवृष्टिजी को, कुन्ती और माद्री – ये दोय पुत्री परणी सो कुन्तो के व्यारि पुत्र भए । सो बड़े तौ कर्ण, सो इनको बालपने में सन्दूक में धरि जल में बहाए थे। सो चन्द्रपुरी में राजा सूर्य के यहां पले । ये गुप्त भए थे। ताते पर घर पलै+ पोछे कुन्ती के तीन पुत्र और भरा। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन अरु माद्री के नकुल, सहदेव - ये दोय मग जरु अर्जुन के अभिमन्यु नाम पुत्र भया । ऐसे कौरव पाण्डवन की उत्पत्ति कही। इति पाण्डववंश, सामान्य कथन । आगे द्रोणाचार्य को वंश-पट्टावली कहिए है। तहाँ वंश तौ भार्गव है। तामें वामदेव, महाविद्यातिलक भए । तार्के, कापिष्ठल- पुत्र भया । तिनकैं यशस्थामा पुत्र मया । तार्के, श्रवर नाम पुत्र भया । तार्के, सरासर नाम पुत्र भया ताकेँ, द्रावण नाम पुत्र भया । तार्के विद्रावण पुत्र भया । ताकेँ, द्रोणाचार्य भए । तार्के, अश्वत्थामा पुत्र भया । इति द्रोणाचार्य कुल। आगे जरा सिन्धु को पट्टावली कहिए है - हरिवंश के वसु के मगधदेश का राजा निहतशत्र भया । तिनके, राजा सतिपति भए । तिनके, वृहद्रथ राजा भए । तिनके राजा जरासिन्धु और अपराजित राजा भए । सो जरासन्धु नवां प्रतिहरि भया । ताकै, कालयमन पुत्र भया । यह जरासिन्धु का वंश काह्या । इति नववें नारायण के समय के पुरुषन का कथन आगे सगर चक्रो का वंश कहिए है। तहां इक्ष्वाकु तो वंश है। आदिजिन के पोछे, असंख्यात राजा भए । ता पोछें, राजा धरणीधर तिनके, तिरयशजय भये । तिनके पुत्र, जितशत्रु और विजयसागर ये दोय भए । सो जितशत्रु के तो अजितनाथ भरा अरु दूसरे भाई, विजय सागरकै, सगर चक्री भए। तिनके, साठ हजार पुत्र भरा और भागीरथजी भये। ऐसा जानना। ये सगर-वंश। ऐसे महान् पुरुषों की
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परिपाटी कही। सो भव्यनकं मङ्गलकारी होऊ। आगे ग्यारह रुद्रन का कथन कहिए है। तहाँ प्रथम भीम नामा रुद्र है। सो आदिनाथ के समय भए । ताको आयु. तियासी लाख पूर्व की है। शरीर को ऊँचाई, पांच सौ धनुष है । २ । दूसरा जयतिशत्रु नाम सी अजितनाथ के समय भया । इनकी आयु इतर लाख पूर्व ! शरीर को ऊँचाई साढ़े च्यारि सौ धनुष है । २ । तीसरा, नववें तीर्थङ्कर के समय भया, सो रुद्र नाम का रुद्र है। इनकी आयु, दोय लाख पूर्व को है। काय, सौ धनुष है । ३। चौथा रुद्र विश्वानल है। सो दशवें तीर्थङ्कर के समय भया । आधु. एक लाख पूर्व । काय की ऊँचाई नब्बे धनुष । ४ । पचिव रुद्र, सुप्रतिष्ठ है। सो श्रेयांस तीर्थङ्कर के समय भया । याकी आयु, चौरासी लाख वर्ष । काय उतुङ्ग ८० धनुष है। ५। और छठवां रुद्र, वासुपूज्य जिनके समय भया । ताका नाम, अचल रुद्र है आय, ताकी साठ लाख वर्ष हैं। काय सत्तर धनुष की है । ६ । सातव रुद्र. पुण्डरीक नाम सो विमलनाथ के समय भया । ताकी आयु, पचास लाख वर्ष है। काय, साठ धनुष है। ७ । और आठवां, अजितधर नाम रुद्र । सो अनन्तनाथ के समय भया। ताकी आयु. चालीस लाख वर्ष है। काय, पचास धनुष है। | नववा रुद्र, जितनामि है सो धर्मनाथ के समय मया । ताकी जय, बीस लाख वर्ष । काय, अट्ठाईस धनुष है | दशव रुद्रपीठि नाम है सो शान्तिनाथ के समय भया । ताकी आयु. एक लाख वर्ष । काघ, चौबीस धनुष को है । ३०१ ग्यारवां रुद्र, सात्यकी है सो अन्त में महावीर के समय भया । आघु ताकी गुणत्तरि वर्ष है। काय, सात हाथ की है । २१1ये सर्व रुद्र, ग्यारह अङ्ग व दश पूर्व के पाठो होय हैं और जिनका क्रोध रूप, सहज स्वभाव है। इन ग्यारहों का हो कुमारकाल, संयम काल, संयम छूटने का काल असंयम-काल ही है। ये पहिले संयम धारें हैं। अनेक तप-बल, तैं, इनको ज्ञान शक्ति ऋद्धिशक्ति बधै प्रगटे है। तब पीछे भोगाभिलाषी, मानार्थी होय, संयम तर्जें हैं। ऐसा सर्व रुद्रन का सहज स्वभाव जानना । इति रुद्र कथन । आगे नव नारद का स्वरूप कहिये है | ये नव नारद हैं, सो नारायण के समय ही होय । सो तिनकी आयु काय, नारायण बलभद्र प्रमाण जानना | सो तिनके नाम सुनहु भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, दुर्मुख, नरक-मुख और अधोमुख । इति नारद नाम आगे चौबीस कामदेव के नाम कहिये हैं। बाहुबलि, अमिततेज, श्रीधर, दश-भद्र, प्रसेनजित, चन्द्रवर्ण, अग्रिमुक्त, सनत्कुमार, वत्सराज, कनकप्रभु, मेघवर्ण, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ,
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विजयराज, श्रीचन्द्र, नलराजा, हनुमान, बालराजा, वासुदव, प्रद्युम्र, नागकुमार, श्रापालार जम्बुस्यामा । य
गील काम काहे : सेमंतीवरादि मांगनखर कह्या । सो अन्त के महावीर स्वामी के मोक्ष गये पीछे, जब ||६०५ वर्ष गये। तब राजा वीर विक्रमादित्य भये और भगवान के मोक्ष गये पोछे, हजार वर्ष बाद कलङ्की भया।
सो या भौति पञ्चमकाल की मर्यादा में २२ कलंकी, २१ उपकलंकी, ऐसे ४२ राजा धर्म नाशक होयगे। तहाँ, अन्त का कलंकी, पञ्चमकाल के अन्त में, जलमथ नाम होयगा। ता समय में भो च्यारि प्रकार के संघके, च्यारि जीव रहेंगे। तिनके नाम-तहां इन्द्रराज नाम आचार्य के शिष्य, वीरांगद नाम यतीश्वर होंगे।। और सर्वश्री नाम अर्जिका हो है। २ । अनिल नामा महाधर्मात्मा श्रावक हो है। ३। और पंगुसेना नाम श्राविका हो है।४। ये मुनि, आर्थिका, श्रावक, श्राविका, च्यारि मनुष्य, अन्तिम धर्मात्मा हैं । इन पीछे, धर्मी जीवन का अभाव हो है। इनके सम्मथ, जलमथ नामा कलंकी, अपने मन्त्रिन से पूछेगा। भो मन्त्री! कोई मेरी आज्ञा रहित भी है, अक सर्व जीव मेरी आज्ञा माने हैं ? तब मन्त्री कहेंगे। नाथ! तुम्हारी आज्ञा सर्व जीव मानें हैं। एक वीतरागी मुनि, तुम्हारी जाना में नहीं हैं। तब राजा कहेगा। मुनि कहा करें हैं ? कहां रहैं हैं ? तब मन्त्री कहेगा। वन में रहैं हैं। तन तें भी निष्प्रेम हैं। शत्रु-मित्र, तृण-कश्चन, उन्हें समान हैं। महावीतराग सौम्पष्टि हैं। भोजन समय, श्रावकन के घर अनेक दोष टाल, शुद्ध-प्रासुक आहार लेय ध्यान में लीन रहैं हैं। सो यति कोई की आज्ञा में नहीं हैं। तब कलंकी कहेगा । हमारी बस्तीमैं जब भोजन लेय तब प्रथम ग्रास, हासल (कर)का देंथ । तब मुनि के भोजन में से प्रथम ग्रास लेंयगे। तब यति अन्तराय करि वन में जाय, सन्यास धरि, तीसरे दिन पर्याय छोड़, कार्तिक बदी अमावस्या के दिन, एक सागर को आयु, सहित स्वर्ग में देव होयगे और तब ही ये बात सुनि करि बाको आर्थिका, श्रावक, प्रायिका-न्ये तीन जीव संन्यास धरि, ताही स्वर्ग में महाअद्धि धारी देव उपजेंगे। ता दिन ही प्रथम पहर, धर्म-नाश होयगा। आर्यखण्ड में धर्म का अभाव होयगा और ता दिन के मध्य
राज्य का नाश होयगा। ताही दिन के अन्त समय अग्नि नाश होयगी। आर्यखण्ड में अग्नि नाहीं मिलेगी। वस्त्र नाश होयगे। तब सर्व नग्न रहेंगे और अन्न नाश भये, सर्व जीव मांसाहारी होंगे। मुनिकों उपसर्ग जानि, । असुरेन्द्र वाय, कलंकीको वन से मारेगा। सो मर कर कुगति जायगा। पीछे सर्व अन्ध होयगे। महाक्रोधी
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होंगे 1 मर कर नरक-पशू होंगे। तहाँ हो के आय उपजैंगे। दोय शुभ-गति का आवागमन, आर्यखण्ड तैं मिट आर्यखण्ड के जोव महादुखी होंगे। ऐसे अवसर्पिणी का पञ्चमकाल पूरा होय। ता पीछे घट्ट काल के २१ हजार वर्ष, महादुख तें पूर्ण होंगे। पोछे जब छट्ठो काल के, ४६ दिन बाकी रहेंगे। तब सात दिन, खोटो वर्षा होयगी । तिनके नाम - अति तीव्र पवन को वर्षा होय । ता करि सर्व पर्वत पातउवा (पत्ता) की नई उड़ेंगे । २ । बहुत शीत को वर्षा । २ । खारे जल की वर्षा | ३| जहर की वर्षा । ४ । वज्रानि की वर्षा || बालू-रज की वर्षा |६| धूम को वर्षा ताकरि अन्धकार होयगा | ७| इन सात वर्षान हैं, इस क्षेत्र में प्रलय होयगा । ऐसे सामान्य सवसर्पिणी का व्याख्यान किया। आगे उत्सर्पिणी का काल लगेगा। तहां छट्टो काल लगते हो भलो वर्षा होगी। ताकरि पृथ्वी रस रूप होगी। भागे एलय में केई जीव, विद्याधर देवों ने, कर ( हाथ में ) लेय गङ्गा-सिन्धु नदी के तट, विजयार्द्ध की गुफा में जाय धरे थे सो अब साता भये आयेंगे। तिन करि फेरि रचना होयगी । तहाँ उत्सर्पिणी का प्रथम काल लगेगा। तांमें रीति, छुट्ट कैसी होयगी। परन्तु या छुट्टी काल में आयु-काय की वृद्धि और ज्ञान की बधवारी होयगी। ऐसे घट्ट े काल कैसे २१ हजार वर्ष पूर्ण होंयेंगे ? तब फिर पांचवा अरु उत्सर्पिणी का दूसरा काल लगेगा। ताके इक्कीस हजार वर्ष तामें २० हजार वर्ष व्यतीत भये जब एक हजार वर्ष बाकी रहेगा। तब उत्सर्पिणी काल के चौदह कुलकर होंगे। तिनके नाम — कनक, कनकप्रभ, कनकराज, कनकध्वज और कनकपुञ्ज ये पांच तो कनक (सोना) समान तन के धारी होंगे। नलिन, नलिनप्रभ, नलिनराज, नलिनपुञ्ज और नलिनध्वज- ये पांच कमल के समान तन के धारी होंयगे। शेष पद्मप्रभ, पद्मराज, पद्मपूज्य और पद्मध्वज-ये चौदह कुलकर, पांचवें काल के अन्त में होंयगे। फेरि, चौधा काल लगेगा। सो कोड़ा कोड़ो सागर का तामें, चौबीस तीर्थंकर होंगे। तिनके नाम महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत्र, उदक, प्रौष्टिल, जयकीर्ति, सुव्रत, अरहनाथ, पुण्यमूर्ति, निःकषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंप्रभ, अनुवृत्तिक, जय, विमल, देवपाल और अनन्तवीर्य — ये चौबीस-जिन, उत्सर्पिणी के चौथे काल में, धर्म-तीर्थके कर्त्ता, मोह अन्धकार के दूर करवेकौं सूर्य समान होंयगे । इति आगामी चौबीस जिन। आगे आगामी बारह चक्रवर्ती के नाम कहिये हैं- भरत, दीर्घदत्त जयदत्त, गूढदत्त, श्रीषेण श्रीभूति,
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श्रीकान्त, पद्म, महापद्म, चित्रवान, विमलवाहन और अरिष्टसेन। आगे जागामी नव नारायण के नाम कहिये हैंनन्द, नन्दमित्र, नन्दन, नन्दभूति, महाबल, अतिबल, भद्रबल, द्विपिष्ट और त्रिपिष्ट — ये नव नारायण होंगे। इनही नारायण के बड़े भाई, आगामी बलभद्र, होंगे। तिनके नाम - चन्द्र, महाचन्द्र, चन्द्रधर सिंहचन्द्र, हरिश्चन्द्र, श्रीचन्द्र, पूर्णचन्द्र, शुभचन्द्र और बालचन्द्र -- ये नव बलभद्र, जागे होंगे। आगे नव प्रतिनारायण होंगे। तिनके नाम श्रोकरुठ, हरिण्ट, नीलकण्ठ, अश्वण्ड, सुकण्ठ, शिष्यकण्ठ, अश्वग्रीव, हयग्रीव और मयूरग्रीव - ये नव प्रतिनारायण होंगे। इति प्रतिनारायण नाम। आगे आगामी ग्यारह रुद्र होंगे। तिनके नाम — प्रमद. सम्मद, हर्ष, प्रकाम, कामाद, भव, हर, मनोभव, मारु, काम और अङ्गन- ये ग्यारह रुद्र कहे। ऐसे उत्सर्पिणी मैं तोर्थङ्कर, चक्री नारायण बलभद्र, प्रतिनारायण – ये बड़े पुरुष होंगे। आगे भरतक्षेत्र सम्बन्धी, अतीत चौबीस - जिन हो गये । तिनके नाम कहिये हैं – निर्वाणनाथ, सागर, महासाधु, विमलप्रभ, श्रीधर, सुदत्तनाथ, अमलप्रभ, उद्धर, अङ्गिर, सन्मति, सिन्धु, कुसुमाञ्जलि, शिवगण, उत्साह, ज्ञानेश्वर, परमेश्वर, विमलेश्वर, यशोधर, कृष्णमति, ज्ञानमति, शुद्धमति, श्रीभद्र, अतिकान्त और शान्त --- ऐसे तीन काल सम्बन्धी, तीन चौबीसी तिनके नाम लेय अन्त-मङ्गलकं उन्हें नमस्कार किया। ये भगवान् भव्यनकूं मङ्गल करो और इनके माता-पिता आयु का प्रमाण चिह्न का वर्णन कह्या इनके वारे जो महान् नर भये । कामदेव, चक्की, नारायण बलभद्र, प्रतिनायाण, कुलकर, रुद्र, नारद-इन आदि ये महान पुरुष भव्य राशि निकट संसारी इनका भी नाम मङ्गलकारी है। क्योंकि ये सर्व मोक्षगामी जिन-धर्म के पारगामी हैं। इनकी कथा मङ्गल के अर्थ यहां प्ररूपण करी । इति तीनकाल सम्बन्धी तीर्थङ्करादि त्रेसठ शलाका पुरुषन के नाम आगे अन्त-मङ्गलको भरतत्क्षेत्र सम्बन्धी सिद्धक्षेत्र के नाम कहिये हैं कैसे हैं सिद्धक्षेत्र जहां तैं महाव्रत के धारी योगीश्वर शुक्लध्यान अनि करि अष्ट कर्म रूप ईंधन जलाय निरञ्जन होय सिद्धक्षेत्र लोक के अन्त तहां जाय विराजते जहां अनन्त-सिद्ध बिराजे हैं। तातें जहां तैं प्रभु मोक्ष गए तहाँ जाय तिन सिद्धक्षेत्रन की प्रत्यक्ष वन्दना करने को तो मो मैं शक्ति नाहीं । तातें इस ग्रन्थ के पूर्ण करने के अन्त - मङ्गल के मिस करि सर्व क्षेत्रन के नाम लेथ मङ्गलाचरण कीजिये है सो प्रथम ही आदिनाथ का निर्वाणक्षेत्र कैलाश पर्वत है, सो अष्टापद कौं नमस्कार होऊ । २ । अजितनाथ आदि बीस तीर्थङ्करों का
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निर्वाणक्षेत्र सम्मेदशिखर है। ताको नमस्कार होऊ। २ वासपज्य-जिन का निर्वाणक्षेत्र, चम्पापुरी का वन है ताकू नमस्कार होऊ।३। नैमिनाथ-जिन कू आदि लैय बहत्तरि कोडि मुनि का निर्वाणक्षेत्र गिरनार शिखर ताकों नमस्कार होऊ।४।महावीर का निर्वाणक्षेत्र पावापुर का पर्वत है। ताकं नमस्कार होऊ। ५। वरदत्त आदि साढ़े तीन कोडि मुनि तारङ्गा शिखर" मोक्ष गये। तिस क्षेत्र नमस्कार होऊ ।६। लाड नरेन्द्र आदि पाँच कोडि मुनि का निर्वाणक्षेत्र पावागिर है। ताको नमस्कार होऊ। ७। तीन पाण्डवन कू आदि लेय अष्ट कोड़ि मुनि का निर्वाणक्षेत्र शत्रुजय क्षेत्र है। ताकी नमस्कार होऊ ।८। बल भद्रादि आठ कोडि मुनि के मोक्ष होने का क्षेत्र गजपंथ शिखर ताकौं नमस्कार होऊ।।। रामचन्द्र, सुग्रीव, हनुमान दिलाकडी वरों शिक्षेत सुद्धोगित है। ता क्षेत्र कू नमस्कार होऊ ।२०। रावण के पुत्रादि साढ़े बारह कोड़ि मुनि का निर्वाणक्षेत्र रेवा-नदी के तट पर सिद्धवर-कूट है। तिस क्षेत्रकू नमस्कार होऊ । ११ । इन्द्रजीत, कुम्भकर्स, रावण के भाई-पुत्र तिनका निर्वाणक्षेत्र चुलिगिर नाम शिखर है। ता क्षेत्र कं नमस्कार होऊ । २२। अचलापुर को ईशान दिशा में, मेढ़गिर नाम शिखर है ताकौं मुक्तागिर भी कहै हैं। सो यहाँ तें साढ़े तीन कोड़ि मुनि मुक्ति गये। सो ताकू नमस्कार होऊ ।२३। राजा दशरथ के पुत्रनकं आदि लेथ एक कोडि मुनि का निर्वाणक्षेत्र, कोटिशिला | है। ताफू नमस्कार होऊ । २४1 इत्यादिक अढाई द्वीप वि तिष्ठते सिद्धक्षेत्र, तिनक नमस्कार होऊ। ये । सिद्धक्षेत्र, इस ग्रन्ध के अन्त-समाप्ति विष, कवीश्वर कं भव-भव मङ्गल करने में, सहाय होऊ तथा इस ग्रन्थ
के अभ्यासी भव्य जीव तिनक, सिद्धक्षेत्र-यात्रा समान फल विर्षे, सहाय होऊ। ऐसे सिद्धक्षेत्र कं नमस्कार करि अन्त-मङ्गल किया। आगे सिद्ध-लोक समान, अकृत्रिम-चैत्यालय मङ्गलकारी हैं। तात यहां ग्रन्थ के अन्त में, आठ कोडि छजन लाख सत्यानवे हजार व्यारि सौ इक्यासी जिन-मन्दिर, अनादिनिधन अकृत्रिम हैं। तिन प्रत्येक में एक सौ आठ जिनबिम्ब हैं। तिनकं नमस्कार होऊ। तिनमें सात कोड़ि बहत्तर लाख, तौ पाताल-लोक हैं। च्यारि सौ अदावन, मध्यलोक में है। चौरासी लाख सनतानवै हजार तैबीस, ऊर्ध्व-लोक में हैं ते सब, मङ्गल को राशि हैं जिन-मन्दिर, सो कहिये हैं-उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य, भेद करि तीन प्रकार हैं। । सो उत्कृष्ट जिन-मन्दिर, लम्बे २०० योजन, चौड़े ५० योजन और ऊंचे ७५ योजन हैं और मध्य चैत्यालयों का
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प्रमाण-५० योजन लम्वे, २५ योजन चोड़े, और साढ़े सैंतोस योजन ऊंचे हैं। जघन्य चैत्यालयों का प्रमाण २५ योजन लम्बे, साढ़े बारह योजन चौडे और १८ योजन ऊंचे हैं। सो भदशाल वन विषै, नन्दनवन विष, नन्दीश्वर | ५१ द्वीप विणे, और कल्पवासीन के विमानन विौं तौ उत्कृष्ट अवगाहनाके धारक जिनमन्दिर हैं। तिनकी नींव भूमि में दोय कोस है सौमनस वन, रुचिकगिर पर्वत, कुण्डलगिर पर्वत, वक्षारगिर पर्वत, इष्वाकार पर्वत, और मानुषोत्तर पर्वत तथा कुलाचलन पै, मध्य अवगाहना के जिनमन्दिर हैं। विजयाद्ध. जम्जूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष, हन पर चैत्यालयनको अवगाहना-एक कोस लम्बाई, आध कोस चौड़ाई, और पौन कोस ऊंचाई है। और भवनवासी-घ्यन्तर देवों के क्षेत्रों के प्रकृत्रिम चैत्यालयोंकी जवगाहनाका प्रमाण, अन्य ग्रन्थ करि जानना। उत्कृष्ट चत्यालघनके सन्मुख के बड़े द्वार, २६ योजन ऊंचे, और आठ योजन चौड़े हैं। और उत्कृष्ट चैत्यालयनके दोऊ तरफके. छोटे-द्वार, आठ योजन ऊंचे, और च्यारि योजन चौड़े हैं। मध्य चैत्यालयनके सन्मुख के बड़े द्वार, योजन ऊंचे व कारि योजन पास है। मध्य त्यालयनके दोऊ पावनके छोटे द्वार, ४ योजन ऊंचे व २ योजन चौड़े हैं। जघन्यावगाहनाके चैत्यालय, २५ योजन लम्बे, व २२॥ योजन चौड़े और १८॥ योजन ऊंचे हैं। तिनके सन्मुखके बड़े द्वार योजन ऊंचे और दोय योजन चौड़े हैं। जघन्य चैत्यालयनके छोटे द्वार, दोय योजन ऊंचे व एक योजन चौड़े है। ऐसे तीन भैद रूप, चैत्यालय जानना। इन चैत्यालयनके तीन-तीन, रत्नमयी कोट हैं। एक-एक कोटके, च्यारि दरवजे हैं। तहाँ प्रथम दरवाजे ते. मन्दिर पर्यंत जावे कों, च्यारि गली हैं। तहाँ चारों तरफ, ४मानस्तंभ हैं । दरवाणन पैं, ६ रत्नस्तूप है तिन तिन कोटके बीचि, दोय अन्तराल हैं। तिन अन्तरालनमें पहिले-दूसरे कोटके बीच तौ वन है और दूसरे-तीसरे कोटके बीचिमें ध्वजा-समूह है। तीसरे कोटके अरु जिन मन्दिरके बीच, गर्भगृह हैं। जैसे लौकिकमें जुदे-जुदे कोठे होंय, तैसे जुदे-जुदे गर्भगृह जानना। और तिन गर्भ-गृहनके बीच, देवछन्द नाम मण्डप है। । सो मंडप, रत्नमयी स्तभनके ऊपर कनक वर्ण है। सो मंडप,८योजन लम्बा २ योजन चौड़ा और ४ योजन
ऊंचा है। ताके मध्य विष, रत्न-कनक मय सिंहासन है। तिसपर विराजमान, श्रीजिन-बिम्ब हैं | जिन-बिम्ब कैसा है, मानो साक्षात् तीर्थकर देव ही हैं। पांच सौ धनुष, रत्नमई अवगाहना है।
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तहां बह ऊर: सिपी सरिय पोश्चम बत्र सो सुन्दर केशनकी आमाक धारे है। और महा उज्जवल, हीरा मयी दांत शोमैं हैं। और मुंगा समान लाल, अधर-ओष्ठ शोमैं हैं। नवीन कोंपल समान लाल ||५८२ उत्तम शोभा सहित, कोमल हस्तकी हथेलो, और पांवकी पगथली, शोभायमान हैं। ऐसे श्री जिनेन्द्र के प्रतिबिम्ब हैं। सो मानौं अब हो बोलें हैं। तथा अबही विहार करेंगे। मानौ देखें हैं। मानौं ध्यान रूप हैं। मानौं वाणी खिरे है। मानौं चैतन्य ही हैं। २००८ चिन्ह सहित हैं। तिनपर ६४ जातिके व्यंतरदेव, रत्नमयी आकार लिये खड़े हैं। पंक्तिबंध हस्त जोड़े खड़े हैं। सो मानों चमर ही ढोर रहे हैं। और तीन लौकके छन्न समान तीन छत्र, रत्नमयी, शीश पे शोभायमान हैं। ऐसे जिनबिम्बि एक-एक गर्भगृहमें, एक-एक हैं। ३०८ गर्भगृह हैं। तिनमें २७८ प्रतिबिम्ब विराजमान हैं। तिनको नमस्कार होऊ। रीसे कहे जिनबिम्ब, तिनके निकट दोऊ पार्श्वन वि श्री देवी, सरस्वती देवी, सर्वल्ह जक्ष देव, और सनत्कुमार देव। इन च्यारिके, रत्रमयी आकार पाईये हैं। ये महा भक्त हैं। जिनबिम्बनके निकट, अष्ट. मंगल-द्रव्य शोभे हैं । तिनके नाम-मारी, कलश, आरसी, ध्वजा पंखा, चमर, छत्र, और ठरणा सो एक जातिके, एक सौ आठ--एक सौ आठ जानना। जैसे भारी २०८. कलश २०८, ऐसे जानना। ऐसे गर्भगृह का सामान्य स्वरूप का। आगे इस गृह-बाह्य जो रचना और है। सो कहिए है.-पर्वमें कह्या जो देवछन्द मण्डप, सो नाना प्रकार रवमयी, स्वर्णमयी-फूलमालान करि शोभायमान है। ता मण्डप के पूर्व दिशाकं, जिन-मन्दिर है। ताके मध्य में, स्वर्ण-रूपामयी, ३२ हजार धूपघट है। और बड़े द्वारके दोऊ पावन विौं, २४ हजार धूप-घट हैं। बड़े द्वारनके बाह्य, ८००० रनमयी माला, शोभायमान हैं। तिन मालान के बोचि २४००० स्वर्णमयी माला हैं। तिन बड़े द्वारन के आगे सन्मुख, छोटे मण्डप हैं। ता विर्षे सोलह-सोलह हजार कनक मयी धूप-घट, अरु कनक मयो माला, अरु कनक कलश पाइये है। तहां मुख्य मण्डप के मध्य, अनेक प्रकार रमणीय शब्द करनहारा, स्त्रमयी छोटा घंटा है। सन्मुख द्वारके दोऊ तरफ के छोटे द्वार, तिन 4 सर्व रचना, मालादिक का विस्तार, बड़े द्वार ते आधा जानना। और सर्व मन्दिर के, तीन–तीन द्वार हैं। पीछे कूद्वार नाहीं। मन्दिर को पोधली भीति की तरफ, ८००० रत्नमयी और २४००० स्वर्णमयो माला हैं। घंटा, अपघड़े आदि अनेक रचना, पीछे कं जानना। सो तहाँ घंटा कह्या, सो तो मंडपकी
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छत्त हैं. लंबता जानना । और धूपघट, धरती प जानना । और माला, चौतरफ मोति, तिनतें लटकती जाननी । ऐसे रचना सहित जिन मन्दिर हैं। ताके आगे १०० योजन लम्बा, ५० योजन चौड़ा और १६ योजन ऊंचा, जिन मन्दिर समान, एक मुख्य मंडप है। सो अनेक रचना सहित जानना । ताही मुख्य मण्डप के आगे एक चौकोर, प्रेक्षण मंडप है। ताका विस्तार २०० योजन लम्बा-चौड़ा, और कुछ अधिक सोलह योजन ऊंचा है। और इस प्रेक्षण मण्डप के आगे, दोय योजन ऊंचा, ८० योजन चौड़ा - लम्बा एक पीठि कहिये चबूतरा है। सो कनकमयो जानना । तिस पीठिका के मध्य, चौकोर, मणिमत्र, ६४ भोजन लम्बा, १६ योजन ऊंचा एक मन्डप है। इसही मण्डप के आगे, एक मणिमयी, स्तूप की पीठिका है। सो पीठिका, ४० योजन ऊंची है । तिस पीठिका के चौतरफ, १२ वेदी हैं । तिन एक-एक वेदों के व्यारि-व्यारि द्वार हैं। ता पीठिका के मध्य, तीन कटनी सहित ६४ योजन ऊंचा, अनेक-रत्नमयी स्तूप है। ता स्तूप के ऊपर, जिनबिम्ब विराजमान हैं । सो ऐसे, ६ स्तूप हैं । तिन सबका ऐसा हो वन जानना । तिन स्तूपोंके आगे, १००० योजन लम्बा-चौड़ा, एक स्वर्णमयी पीठ है। ताके चौगिरद, १२ वेदी हैं। तीन कोट व च्यारि च्यारि द्वारन करि सहित, कोटवेदी जानना | तिस पीठि के ऊपर, एक सिद्धार्थ नामा वृक्ष है। ताका स्कन्ध ४ योजन लम्बा, और चौड़ा १ योजन है। ताकी व्यारिः बड़ी साखायें, १२ योजन लम्बी हैं। छोटी शाखा अनेक हैं। और वृक्ष, ऊपर १२ योजन चौड़ा है । और अनेक पात, फूल, फलन करि सहित है । सो यह वृत्त, रत्नमयी जानना। यह एक सिद्धार्थ नामा, बड़ा वृक्ष जानना । ताके परिवार में अनेक वृक्ष हैं। ऐसो हो रचना सहित तथा ऐसाही विस्तार धरै, चैत्य वृक्ष है। ऐसे सिद्धार्थ व चैत्य थे दोय महा वृक्ष हैं। सो सिद्धार्थवृक्षके मूल विषै तिष्ठति, सिद्ध-प्रतिमा है। और चैत्यवृक्षके मूलभाग विषै तिष्ठती समभूमि पै, तीन पीठका, सिंहासन, छत्र आदि अनेक प्रकारको रचना सहित च्यारों दिशा विषै. अरहंत प्रतिमा विराजमान हैं। तहाँ अरहंत व सिद्ध प्रतिमा विष, विशेष एता जानना । जो सिद्ध प्रतिमा चमर-छत्रादिको रचना नाहीं। और अरहंत प्रतिमा कैं, बमर-छत्रादिकी रचना होय है । और तिस पीठिके आगे एक पीठि है तामै नाना प्रकार ध्वजा शो हैं । तिन ध्वजाके, स्वर्णमयी दण्ड हैं सो दण्ड, १६ योजन लम्बे हैं। और एक योजन चौड़े हैं। और तिन ध्वजाके अनेक प्रकार वर्ण हैं । रत्नमयो वस्त्र हैं
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तिन ध्वजा के ऊपर, तीन-तीन छन्त्र शोमैं हैं। तिन ध्वजान के आगे, जिन-मन्दिर हैं। तिन जिन मन्दिरों के || ar आगे, चौतरफ, च्यारि दिशानकों, च्यारि हद ( तलाव) हैं। सो हद २०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और दश योजन गहरे हैं। ये हद, कनकमधी वेदोन करि भले शोभायमान हैं। तिनमें कमल फूल रहे हैं। ताके आगे मार्गरूप च्यारि बोथों हैं। तिन बीथन के दोऊ पावन विषै.५० योजन ऊँचे, २५ योजन चौड़े, रत्नमयी. देव के क्रोडा-मन्दिर हैं। तिन मन्दिरन के आगे, तोरण हैं सो तोरण मणिमयी स्तम्भन परि, गोल, भीति रहित हो हैं । सो अनेक रचना सहित, रमणीय हैं। सो तोरणा, मोती-माला, साटा-साह करि होभायमान हैं। सो तोरण ५० योजन ऊंचे, २५ योजन चौड़े हैं । तिन तोरणों के ऊपर भाग में, जिनबिम्ब विराजमान हैं । तिन तोरण के आगे, स्फटिकमरिण का प्रथम कोट है। तहां प्राम्यन्तर कोट के द्वार के दोऊ पार्श्वन वि, रत्नमयी मन्दिर हैं। सी मन्दिर १०० योजन ऊँचे ५० योजन चौड़े हैं। ऐसे प्रथम कोट पर्वत वर्णन किया। प्रागे पूर्व द्वार विर्षे, जो | मण्डपादि का प्रमाण कह्या। तातै आधा प्रमाण, दक्षिण व उत्तर द्वार का जानना और कथन, तीनों तरफ का समान है। ऐसे कहि, अब पहिले-दूसरे कोट के अन्तराल में, जो ध्वजा-समूह पाईये है। सो ध्वजान में दश जाति के चिह्न हैं। सिंह, हस्ती, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्रमा, सूर्य, हंस, कमल और चक्र ऐसे दश चिह्न सहित ध्वजा समूह है सो एक-एक चिह्न को ध्वजा, १०८ हैं। जैसे-सिंह जाति को ध्वजा, १०८ हैं। ऐसे सर्व जाति की ध्वजायें जानना। सो जिन-मन्दिर के एक तरफ की ध्वजायें, २०६० मई। जिन-मन्दिर के करों
तरफ की ४३२० तौ बड़ी ध्वजा जाननी। इन बड़ी ध्वजान के साथ, एक सौ आठ-एक सौ आठ घोर्टी ध्वजायें | जाननी। ऐसे ध्वजा का वन कया और तीसरे व दूसरे कोट के अन्तराल में जो रचना है। सो कहिये है-तहां च्यारों तरफ, च्यारि वन हैं। अशोक-वन, सप्तच्छद-वन, चम्पक-वन और आम्र-वन-ये च्यारि वन तिनके फूल तो स्वर्णमयी अरु पत्ते बैड्र्य रत्नमयी, हरित वर्ग हैं। तिनकी कॉपल मरकतमणिमयी हैं। तिनके फल महामनोज्ञ रत्रमयी हैं। ऐसे च्यारि हो वन दश प्रकार के कल्पवृत्तन सहित, रमणीय हैं। तिन वनन विर्षे एक-एक चैत्य वृक्ष है। तिनके मूल भाग में च्यारों दिशान में पद्मासन श्री अरहन्त बिम्ब चमर-छत्रादि प्रातिहार्य करि शोभित विराज हैं। ऐसे एक-शक वन में एक-एक चैत्य वृक्ष है । तिनके तीन-तीन कोट हैं। तिनकी तीन-तीन कटनी
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सहित पीठिका हैं इत्यादिक रचना सहित रत्नमयी चत्यवृत्त हैं। इन आदि बागवाड़ी, ध्वजापंक्ति, कलश. धूप, घट, मोतोमाला आदि अनेक रचना सहित, अकृत्रिम जिन-मन्दिरों का सामान्य स्वरूप कहा। ताके निकट सामायिक करने के मन्दिर हैं। तहाँ भव्य सामायिक करें हैं। वन्दना मण्डप हैं तिसके पास स्रान LE५ करने के स्थान हैं। जहां भव्यजन पूजन करनेक सान करें सो अभिषेक मण्डप हैं। तहां भक्त-जन नृत्य करने के स्थान सो नृत्य मण्डप हैं । तहां गान करने के स्थान सो जहा भव्य भगवान की गुरामाला का गान करें सो सङ्गीत मण्डप हैं और तहो नाना प्रकार की चित्राम-कलादि की अनेक रचना महाशोभा सहित स्थान, तिनकौं देख, भव्य अनुमोदना करें। तिनकौं देखते मन तृप्त न होय सो अवलोकन मण्डप है। तहां केईक धर्मात्मा-जीवन के, धर्म क्रीड़ा के स्थान हैं और कैएक स्थान ऐसे हैं जहाँ धर्मात्मा पुरुष शास्त्रन का स्वाध्याय करें। गुणग्रहण मण्डप हैं । केई स्थान अनेक पट-चित्राम दिखावने के स्थान हैं। पटशाला-स्थान है । ऐसे अनेक स्थान अकृत्रिम चैत्यालयन के निकट पाइथे। तहां धर्मात्मा धर्म का साधन करें हैं। ऐसे जिन-मन्दिर अकृत्रिम तीन लोक सम्बन्धी हैं। तिन सर्वको अन्तिम मङ्गल निमित्त हमारा मन-वच-काय करि बारम्बार नमस्कार होऊ । सर्व कर्म रहित सिद्ध भगवान अरु च्यारे घातिया कर्म रहित अनन्त चतुष्टय सहित बरहंत देव अरु मुनि संघ वि अधिपति आचार्य: ग्रन्थाभ्यास विर्षे आप प्रवर्ते अरु औरनकं प्रवत्तविं गैसे उपाध्याय और २८मूलगुण सहित साधु ऐते कहे पञ्च परमेष्ठी, पञ्च परम गुरु तिनकौं मन-वचन-काय युद्ध करि अन्तमङ्गल के निमित्त हमारा नमस्कार होऊ। ऐसे इस ग्रन्थ के पूर्ण होतें भया जो हर्ष ताकरि अन्तिम मङ्गल निमित्त अपने इष्टदेवकों नमस्कार करि पाय मल धोय निर्मल होने का कारण जानि कवीश्वर ने कृत-कृत्यावस्थाक प्राप्त होय अपना भव सफल मान्या। इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्ये में ग्रन्थ पूर्ण होते ममल, निमित्त; नमस्कार पूर्वक, अकृत्रिम घेत्यालय
वर्णन पचपरमेष्ठी वर्णन नाम का गुणतालीसवां पर्व सम्पूर्ण भया ॥ ३९॥ आगे और मङ्गलकारी, जिनराजके समोवशरण हैं। ताका संक्षेप वर्णन कीजिये है। मङ्गलमति कल्याणका आकार समोवशरण, भगवानके विराजनेका स्थान अनेक महिमाकों लिये देवोपुनीत समोवशरस है। साका|
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दर्शन किये नाम लिये, स्मरण किये, पाप नाश होय, पुण्य संचय होय। रौसा जानि. ग्रन्थके अन्त मङ्गलक,
अनेक शास्त्रका रहस्य लेन समोवशरणका स्वरुप कहिये हैं-तहां प्रथमही समोवशरणको भूमि, समभूमि ते ।। || ५००० धनुष आकाशमें ऊची है। ताके च्यारों दिशा विष, समभूमि ते लगाय, समोक्शरण भूमि पर्यंत, बीस
हजार पैंडी, च्यारो दिशाओंमें हैं । ते पैंड़ों (सोढ़ी) स्वर्णमयी हैं । सो पड़ों, वृषभदेवके हाथसे एक हाथ चौड़ी एक हाथ ऊ चौं, और एक कोस लम्बी हैं। और अन्य-जिनकी, क्रम तें होन हैं। सोहीनका प्रमाण कहिये हैं। वृषमदेवका जो प्रमाण है तामें २४ का भाग दीजिये, तामें से एक भाग घटावना। ऐसे नेमिनाथ तक, एक एक भाग घटावना । और पार्श्वनाथ व वीरके तिस ते आधा भाग घटावना सो समभूमि ते २॥ कोस आकाशमैं जाईये। तहां वृषभदेवकी बारह योजन, नील रनमयो गोल-शिला है। सो तो समोवशरणकी समभूमि है। या पै सर्व रचना है। और तीर्थकरनके समोवशरणका हीनक्रम है। सो नेमिनाथ पर्यंत आधा-आधा योजन, हीन है। पार्श्वनाथ वोरका पाव-पाव योजन घटता है। ऐसे महावीरका, २ योजनका समोवशरण है। तिस शिला विषे, शिवाननको सीध मैं ४ गली, च्यारों दिशामें हैं। ते गली, शिवानन (भगवान)को लम्बाई प्रमाण चौड़ी हैं। जैसे वृषभ देवको शक कोस चौड़ी, लम्बी २३ कोस गलों हैं सो धूलशालके दरवाजे तें लगाय, गंधकुटीके द्वार पर्यन्त लम्बाई जानती। और इन गलौनके दोऊ तरफ, स्फटिकमणिमयी भीति हैं। इनको वेदो कहिये। इन दोऊ वेदीनके बोचि जो चौड़ाई, सो गलीको चौड़ाई है और उन वैदीन की चौड़ाई वृषभदेवके हाथ ते ७५० धनुष है। और जिनकी होन है। तिन गलोनके बोचि,४ अन्तराल रुप ममि हैं। तिम विष, ४ कोट व ५ वेदी हैं। अरु इन नवके अन्तराल विर्षे, भूमि है सो शिलाकै अन्तभाग विर्षे कोट है। ताके परे, चैत्यप्रसाद नाम भूमि है। ताके परे, वेदी है। ताके परं खातिका की भूमि है। ताके परे वैदी है। ताक परे, पुष्पवाडीको भूमि है। ताके परे, दुसरा कोट है। ताके परे, उपबनकी भूमि है। तावे परे, वैदी है। ताके परे, ध्वजा-समूहकी भूमि है। ताक परे, तीसरा कोट है । ताक परे, कल्पवृक्षको भूमि है । ताक परे, वेदो है। ताक परे, मन्दिरकी भूमि है। ताके परे, चौथा कोट है । ताके परे, सभा को भूमि है। ताके परे, वेदी है। ऐसे तिन गलिनके अन्तराल रूप भूमि वि. रचना जाननी। तिन गलिन वि.४ कोट व ५ वैदीनके द्वार हैं सो एक गली सम्बन्धी, नव द्वार हैं। च्यारों
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गली सम्बन्धी, ३६ दरवाजे हुए। प्रथम कोट व प्रथम वेदी ताके बीचि सो प्रथम भूमि है। ताते प्रथम कोट व प्रथम वेदी, इनके बीच गली, सो प्रथम भूमि कहिये। ऐसे ही अन्य द्वारनके बीच द्वितीयादि भूमि जानना । तहाँ प्रथम भूमिकी गली ताके मध्य विषै तौ मानस्तम है सो च्यारि दिशा सम्बन्धी, ४ मानस्तम हैं। एक-एक मानस्तभके च्यारों दिशानमें च्यारि च्यारि बावड़ी हैं। इस गलीके दोऊ पार्श्वन विषै दोय नाटयशाला है। ऐसी ही चौथी गली विषै दोय नाट्यशाला हैं । घट्टी गली के दोऊ पावन विषै या दूनी नाट्यशाला हैं और सप्तमी भूमि में, च्यारि दिशा में नौ-नौ रत्न- स्तूप हैं। आठवीं भूमि विषै बारह सभा हैं। जो गली के पार्श्वन की लम्बाई सहित वेदी हैं सो अनेक द्वारन सहित हैं। तिन द्वारन के रत्नमयी कपाट हैं कोई भव्य, इनके चौतरफ को रचना देखे चाहे हैं। तो इन गलीन के द्वारन होय, जाय आयें है। या प्रकार गलोन की सामान्य रचना कही जो इन सर्वके मध्यभागमें तीनि पीठि हैं। ताके ऊपर गन्धकुटी है। तामें सिंहासन है । तापै कमल है। तापर श्रीभगवान् अन्तरिक्ष च्यारि अंगुल, विराज हैं सो अष्ट प्रातिहार्य सहित च्यारि चतुष्टय लिये, विराजमान जानना । ऐसे इनकी सामान्यपने रचना कहो । अब तिनके स्थान बताइए है। इनका विशेष कहिए है। तहाँ ४ कोट कहे तिनमें पहिला कोट, समवशरण को अन्तभूमि विषै है सो पञ्च-वर्ण, रत्न चूर्ण का है। तातें याका नाम, धूलिशाल है। नाना प्रकार वर्ण सहित इन्द्र धनुष समान विचित्र है। दूसरा कोट, तपाय स्वर्ण समान लाल है। तीसरा कोट, स्वर्ण समान पीत है। चौथा कोट स्फटिकमणि समान श्वेत है। पांचों ही वेदी, स्वर्ण समान पीत हैं। ये च्यारि कोट पांच वेदी नव हो के ऊपर, अनेक वर्ण की ध्वजा अरु अनेक शोभा सहित महल शोभायमान हैं। यहां वैदी अरु कोट विषै एता विशेष है जो वेदी तौ नीचे तैं लैय ऊपर पर्यन्त, समान चौड़ी हैं। अरु अरु कोट नीचे तैं चौड़ा अरु ऊपर होनक्रम है। अब इनके बीचि, आठ भूमि हैं। ताका विशेष कहिये है —-तहां प्रथम भूमि विषै, एक चैत्यालय है अरु पाँच अन्य मन्दिर हैं। इनके बीच बावड़ी, वन, वृक्ष इत्यादि को अनेक रचना है। दूसरी भूमि विषै, खातिका है । सो रत्नमयी पगथेन (पैंड़ी ) करि सहित है। निर्मल-जल करि भरी है। सो जल की उड़ाई (गहरी ) जिन देव के शरीर तैं चौथे भाग है अरु वह स्वाई, कमलन करि पूरित, नाना प्रकार जलचर व हंसादिक जीवन करि शोभनीय है और तीसरी भूमि
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विष, फुलवाड़ी है। जो नाना प्रकार वृक्ष, फूल बेलि करि शोभायमान है अरु चौथो भूमि विष, उपवन हैं। सो च्यारि दिशान विषै च्यारि उपवन हैं। तिनके नाम- अशोक वन, सप्तपण-वन, चम्पक- वन अरु आम्रवन—ये वन, नाना प्रकार उत्तम वृक्ष करि सहित हैं और इन वन विषै, नाना प्रकार के देव-क्रीड़न के मन्दिर हैं तथा ये वन, नृत्यशाला बावड़ी, क्रीड़ा पर्वत, तिनकरि शोभनीय हैं इत्यादिक और भलो रचना जाननो । तहां अशोक वन विष, अशोक नाम चैत्यवृक्ष है। ताके चौतरफ, तोन कोन के भीतर, तीन पीठि हैं। तायें, अशोक वृक्ष है ताके मूलभाग विष, च्यारों दिशा में, च्यारि अर्हन्त प्रतिमा हैं। तिन प्रतिमा जी के आगे एक-एक मानस्तम्भ है। ऐसे और तीन वनन में - सप्तपर्ण चैत्य वृद्ध सप्तपर्ण-वन में है। चम्पक- वन में चम्पक चैत्य-वृक्ष । आम्र-वन में आम्र चैत्य - वृक्ष | ऐसे वन की रचना जाननी और इस वन की बावड़ोन के जल करि स्नान कीजिए, तो एक भव की अगली - पिछली दीखें और बावड़ोन के जल में देखिए, तौ अपने सात भव को अगली - पिछली दीखे हैं। पश्चमभूमि विषै, ध्वजान का समूह है। तहां एक दिशा सम्बन्धी ध्वजा कहिए हैं – सिंह, हाथी, वृषभ, मोर, माला, आकाश, गरुड़, चक्र, कमल और हंस-इन दश जाति की ध्वजा हैं सो एक-एक चिह्न को, २०८ महाध्वजा हैं। इन एक-एक महाध्वजा सम्बन्धी १०८ छोटी ध्वजा और जाननो। ऐसे एक दिशा सम्बन्धी ध्वजा कहीं । उधारों ही दिशा सम्बन्धो मिलाइए, तौ ४७०८८० ध्वजा होंय ते सर्व ध्वजा, रत्नमयो दण्डन करि सहित हैं। ते दण्ड, वृषभदेव के ८८ अंगुल चौड़े हैं। परस्पर ध्वजा का २५ धनुष अन्तराल जानना और छुट्टी भूमि विषै, कल्पवृक्षन के वन तह - बासन, गृह, आभूषण, वस्त्र, भोग, पान, ज्योतिष, माला, वादित्र और दीपक —ये दश जाति के वन हैं सो च्यारि दिशा में, ४ ही वन हैं। तहाँ एक-एक दिशा में, एक-एक वन में, च्यारि चैत्य वृक्ष हैं। तिनके नाम - मेरु, मन्दार, पारजाति और सन्तानक—ये च्यारि कल्पवृक्ष, चैत्य वृक्ष हैं। इनका विस्तार वर्णन, पीछे अशोक चैत्य वृक्ष का कथन करि आए हैं, तहां समान जानना । एता विशेष है, जो यहां सिद्ध-प्रतिमा विराजमान हैं । सर्व वापी, मन्दिर, क्रीड़ा पर्वतादि सर्व रचना, यहाँ-वहां समान जानना और सातवीं भूमि विषै, रत्नमयो मन्दिरन को पंक्ति, वन को अनेक शोभा सहित है। तहां देव-देवी, भगवान का गुणगान करें हैं । आठवां भूमि में १२ सभा हैं। तहां तिस पृथ्वी सम्बन्धी च्यारि अन्तराल, तिनमें दोय- दोय तो गली की वेदी हैं
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और दीय-दोय तिनके बोचि स्फटिक मणिमयी मोति हैं। इन च्यारों भीति के बोचि, तीन अन्तराल हैं। सो हो तीन कोठे। ऐसे च्यारों दिशान के, १२ कोठे भए अरु २६ भोति भई । तहाँ रत्न-स्तम्भ हैं तिनपै घरचा श्रीमराडर है। मोती की माला, रत्न घण्टा, धूप घटादि अनेक रचना सहित है और जगह तें, यहां रचना उत्कृष्ट है। तहाँ १२ सभा के, बारह कोठे हैं। तिनमें अनुकमत-मुनिराज, कल्वासी देवी, मनुष्यणी, ज्योतिषी देव की देवियों, व्यन्तर देव की देवियां, भवनवासिनी देवी, भवनवासी देव, व्यन्तर देव, ज्योतिषी देव, कल्पवासो देव, मनुष्य और बारहवीं सभा में तिर्यच बैठे हैं। ऐसे अष्टमी भूमि में १२ सभा कहाँ। अब इन आठ भूमिन की गली का विशेष कहिग - प्रथम हो निशाल कोट है। ताले दरमाप्त हैं। तिनके क्रम तें नाम कहिए हैं-पूर्व दिशा का विजय, दक्षिण दिशा का वैजयन्त, पश्चिम दिशा का जयन्त और उत्तर दिशा का अपराजित--ऐसे नाम हैं। च्यारि कोट व पांच वेदीन के, छत्तीस द्वार, च्यारों दिशा सम्बन्धी हैं । तामें धूलिशाल कोट के च्यारि दरवाजे तो स्वर्णमयी हैं। बोधि के दोय कोट ४ वेदी इन छः के २४ दरवाजे, रूपामयी हैं। चौथा स्फटिक मणि का कोट अरु आभ्यन्तर की वेदी के द्वार जाठ, सो पत्रा समान हरे हैं। इन सर्व छत्तीस ही दरवाजेन के आम्धन्तर-बाह्य दोऊ तरफ, मङ्गल-द्रव्य और नवनिधि के समूह है। तहां एक द्वार के, दोय पार्व हैं सो ही बाह्य-प्राभ्यन्तर करि, ४ पार्श्व भए सो एक-एक पार्य के विर्षे, जाठ-आठ मङ्गल द्रव्य है सो एक-एक मङ्गल द्रव्य, २०५होय हैं । जैसे-छत्र २०८,चमर १०८, ऐसे ही सर्व जानना । नौ निधि, नव जाति की हैं सो एक-एक जाति की निधि, एक सौ आठ-एक सौ साठ हो हैं ऐसी जानना । सो एक-एक पार्श्व विर्षे, राती रचना जाननी धूप-घट हैं। तिनमें सुगन्ध-द्रव्य, देवादि खेवे हैं । तिनमें महासुगन्ध प्रगट होय रही है और सर्व द्वारन, रत्नमयी तोरण हैं। ते मोती-माला कल्पवृक्षन के फूलन की माला, रत्र घण्टा इत्यादिक रचना सहित हैं । सो तोरण द्वार, कोटन ते ऊँचे जानना। तोरण ते, कोटन के दरवाजे ऊँचे हैं। समवशरण के एक तरफ के नौ द्वार हैं। तहां धूलिशाल से लगाय, तीन दरवाजेन पै तो, ज्योतिषी द्वारपाल हैं और दोय द्वारन के ऊपर, यक्ष जाति के व्यन्तर देव द्वारपाल हैं। अगले दोय द्वारन पै द्वारपाल, नागकुमार-भवनवासी देव है और दोय द्वारन के ऊपर द्वारपाल, कल्पवासी देव है।
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ऐसे च्यारों दिशा विष च्यारि जाति के देव, द्वारपाल हैं सौ सर्व महाभक्तिमान मये, हाथनमें असि लिये हैं। केई स्वर्ण को छोड़ो लिये हैं। केई गुर्ज लिये हैं। कई दण्ड लिये खड़े हैं। ऐसे दरवाजेन का स्वरूप कह्या । अब प्रथम भूमि की गली विषै, मानस्तम्भ है। ताका स्वरूप कहिये है सो प्रथम गली के मध्य विषै व्यारि-व्यारि द्वार सहित तीन कोट हैं। ते कोटन के द्वार, अनेक घण्टा, ध्वजा, मालान करि शोभनीय हैं। तहां प्रथम-दूसरे कोट और दूसरे-तीसरे कोट के बीच विषै वन है। सो वन, अनेक शुभ वृतन करि शोभायमान हैं। तहां कोयल, मयूर आदि अनेक पक्षीन की ध्वनि होय रही है। तिस वन विषै लोकशल देवन के नगर हैं। तहां प्रथम वन की च्यारों दिशा विषै, एक दिशा में इन्द्र-लोकपाल का भवन है। दूसरी तरफ, यम नामा लोकपाल का नगर है। तीसरी तरफ वरुण नामा लोकपाल का नगर है। सौी तरफ कुनैर नाला नगर है। ऐसे प्रथम वन के अन्तराल का कथन किया और दूसरे-तीसरे कोट के दूसरे अन्तराल में एक तरफ अग्नि जाति के लोकपालन का नगर है । एक तरफ नैऋत्य जाति के देवन का नगर है। एक तरफ पवन कुमार देवन का नगर है। एक तरफ ईशान जाति के देवन का नगर है। ऐसे ये तीन कोठन के दोय अन्तरालन के नगर कहे। तीसरे कोट के आभ्यन्तर में तीन कटनीदार ऊपर-ऊपर तीन पीठि हैं। सो प्रथम पीठि तो पत्रा समान हरा है । तापै दूसरा पीठि स्वर्णमयी है । तायें तोसरा पीठि अनेक रत्नमयो है । तिनको ऊँचाई वृषभदेव के हाथ तें आठ धनुष तो प्रथम पीठि की है। ऊपर को दोय पीठि च्यारि च्यारि धनुष की हैं। तीर्थङ्करन के होन-क्रम की हैं। अब इन पीठिन की चौड़ाई कहिये है सो नीचले दोय पीठिन को चौड़ाई तो अन्य ग्रन्थ तें जानना। ऊपर के तीसरे पीठि की चौड़ाई वृषभ के २००० धनुष की है। तीर्थङ्करन के हीन क्रम को हैं। तहां तीसरे पीठि में मानस्तम्भ है सो मानस्तम्भ नीचे से तो चौकोर और ऊपर हैं गोल है। तहां नीचे तो वज्रमयी है मध्य में स्फटिकमयी और ऊपर पत्रा समान हरा है। ताकी दोय हजार धारा हैं। जैसे—स्तम्भ के पहलू होय तैसी धारा हैं। सो मानस्तम्म घण्टा मोतीमाला कल्पवृक्षन के फूलन की माला ध्वजा इन आदि अनेक रचना सहित शोभा कौं धरें है। तिस मानस्तम्भ के ऊपर भाग में च्यारि दिशाओं में च्यारि अर्हन्त बिम्ब हैं। सो अष्ट प्रातिहार्यन करि सहित हैं। अशोक वृक्ष, पुष्प वर्षा, दिव्य-ध्वनि, चमर, सिंहासन, मामण्डल, देवन के किये दुन्दुमी शब्द और छत्र - अष्ट
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प्रातिहार्य हैं। तहां दिव्यध्वनि की तो आभासा है। मानूं अब हो दिव्य ध्वनि खिरगी और सर्व प्रातिहार्य पाइये है । तिनके दर्शन किये पाप नाश होय है। इस मानस्तम्भ की प्रभा आकाश विषै योजन पर्यन्त उद्योत करें है। तिसके देखते आश्चर्य उपजे है। ताके अतिशय करि इन्द्रादिक देवन का मान नहीं रहे। सर्व का मान जाय । सर्व नमस्कार करें हैं। ऐसो महिमा धरै है । तातैं याका नाम मानस्तम्भ है। ऐसे सामान्य मानस्तम्भ का स्वरूप कहा। ऐसे ही च्यारों दिशान के मानस्तम्भ का स्वरूप जानना । तिन मानस्तम्भ के कोट मैं च्यारों दिशा में च्यारि च्यारि बावड़ी हैं। तहाँ पूर्व दिशा के मानस्तम्भ सम्बन्धी बावड़ीन के नाम-नन्दा, नन्दोत्तरा, नन्द्रवती और नन्दघोषा । दक्षिण के मानस्तम्भ सम्बन्धी बावड़ोन के नाम -- विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता । पश्चिम दिशा सम्बन्धी मानस्तम्भ की बावड़ीन के नाम - अशोक, सुग्रतिबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरीकणी। आगे उत्तर दिशा सम्बन्धी मानस्तम्भ को बावड़ीन के नामनन्दा, महानन्दा, सुप्रबुद्धा और प्रमङ्करी । ऐसे च्यारि दिशा सम्बन्धी च्यारि मानस्तम्भ की सोलह बावड़ी जानना। इन एक-एक बावड़ी के बाह्य मुख पर दोय-दोय कुण्ड हैं तहां के जल हैं भव्य जीव पाद प्रक्षालन करें हैं। बावड़ी जल हैं, प्रतिमाजी का अभिषेक होय है। ये सर्व बावड़ी हैं, सो स्वर्ण-रत्नमयी हैं। रत्नमयो पगथेन (पैंड़ोन) करि सहित, चौकोर हैं। निर्मल जल करि भरी, कमलन करि शोभायमान हैं। ऐसे मानस्तम्भ का सामान्य स्वरूप कह्या आगे नाट्यशाला का संक्षेप स्वरूप कहिये है --तहाँ प्रथम गली के दोऊ पार्श्वन को, दोय नाट्यशाला हैं। सो तीन खण्ड की हैं। तहाँ एक-एक नाट्यशाला विषै ३२ अखाड़े हैं। एक-एक अखाड़े में ३२ ३२ भवनवासिनी देवी नृत्य करें हैं। एक-एक नृत्यशाला के दोऊ पावन विषै, दोय-दोय धूप घड़े हैं और ये नृत्यशाला, रत्नमयी अनेक शोभा सहित हैं। ऐसी ही रचना सहित चौथी गली विषै, नृत्यशाला हैं। विशेष यता है । जो यहां कल्पवासिनी देवियां, नृत्य करें। ऐसे ही छुट्टी गली विषै, नाट्यशाला हैं सो पांच खण्ड को हैं । यहाँ ज्योतिषी जाति की देवांगना नृत्य करें हैं। ऐसे नाट्यशाला कहीं । सो यहां अपने-अपने नियोग प्रमाण, भक्ति को भरी देवी, नृत्य करि, अपना भव सफल करें है आगे रत्न स्तूप का स्वरूप कहिये है-तहां सप्तवीं गली विषै एक-एक दिशा विषै, नौ-नौ रत्न स्तूप हैं । सो ये रत्न राशि समान, उत्तुङ्ग शिखर को धरें हैं । तिनके बोच में २०० तोरण हैं। तिन स्तूपन के अग्रभाग पर,
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अर्हन्त प्रतिमा विराजमान है। सो तहां अष्ट-भ्रष्ट मङ्गल द्रव्य व प्रातिहार्यन सहित हैं। छत्र, चमर सिंहासनादि अनेक अतिशय पाइये हैं। ऐसे स्तूप का संक्षेप कथा या प्रकार इन पृथ्वीन की रचना कही । पञ्चम वेदी के आभ्यन्तर-मध्य विषै तीन पीठि हैं। सो ऊपर-ऊपर गोल हैं। सो प्रथम पीठि आठ धनुष ऊँचा है। सो वैडूर्य रत्नमयी हरा जानना और दूसरा पीठि स्वर्णमयी, ४ धनुष ऊँचा है। तीसरा पीठि, अनेक रत्नमयी, च्यारि धनुष ऊँचा हैं। तहां प्रथम पोठि की, सोलह पगया है। दोय पीठि की ८-८ पगथली हैं। तिन पीठि की चौड़ाई वृषभ देव के समय, प्रथम पीठि दोय कोस चौड़ाई सहित है और जिनराज के होनक्रम है। प्रथम पीठि विषै चारों दिशा में व्यारि यक्षदेव, मस्तक पै धर्मचक धेरै, दोय हस्त जोड़े, विनय तें खड़े हैं। ता धर्मचक्र के १००० आश हैं । पहिआ ( चक्र ) के आकार, गोल है। ताके तेज के आगे अनेक सूर्य, मन्द भास हैं। तहाँ प्रथम पोठि पैं, अष्ट मङ्गलद्रव्य हैं और गणधरदेव, इन्द्र, चक्री आदि भक्तजन हैं, सो इस प्रथम पोठि पै चढ़ि, जिनदेव की पूजा भक्ति करें हैं। आगे नहीं चढ़ें। पूजा करि, पोछे पायन, पगथेन की राह उतरें हैं। सो अपनी सभा में आय लिदैं हैं। दूसरे पीठि में आठ ध्वजा हैं। तिन ध्वजान में चक्र, हस्ती, सिंह, माला, वृषभ, आकाश, गरुड़ और कमल इनके आकार हैं अरु यहां भी मङ्गल-द्रव्यादि अनेक रचना है और तीसरे पीठि पै गन्धकुटी है। सो कार है। सो गन्धकुटी वृषभदेव के समय को ६०० धनुष चौड़ी है। इतनी ही ऊँची व लम्बी है और जिनके होनक्रम की है। सो गन्धकुटी अनेक मोती-माला कल्पवृक्षन के फूलन की माला रत्नमाला अनेक जाति की ध्वजा सुगन्ध द्रव्यादि सहित शोभायमान है। तार्ते याका नाम गन्धकुटी है। ताके मध्य सिंहासन है। सो स्फटिक मणिमयी, निर्मल है। अनेक रत्न जड़ित, शो" है । अनेक घण्टान करि शोभायमान है। ताके च्यारि पान की जायगा, च्यारि रत्नमयी सिंहन के आकार हैं। सो बैठे सिंहाकार हैं सो मानूं प्रत्यक्ष जीवित ही हैं। तथा मानो भगवान् की भक्ति करने कों श्रावक व्रत के धारी, सौम्य भावना सहित, धर्म-श्रवण कौं आये हैं। ऐसे सिंह बैठे हैं। तातें यात्राौं सिंहासन नाम दिया है। ता सिंहासन के मध्य, कमल है। ता कमल पर, अन्तरिक्ष भगवान् विराजमान हैं। सो कमल, हजार पाखुड़ी का लाल वर्ण सहित है। ताकी कर्णिका पै, भगवान् विराजे हैं । तिनकं बारम्बार हमारा नमस्कार होऊ । अब इस ही समवशरण के कोट, वेदी आदि रचना की ऊँचाई
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का प्रमाण कहिये है--सो समवशरण को पाँच वेदी, च्यारि कोट और गलोन को वेदो। सो इनकी ऊँचाई तौ । अपने तीर्थक्कर के शरीर की ऊँचाई त चौगुणी है और क्रीड़ा-मन्दिर तथा जिन-मन्दिर तथा कोट-चैदी के द्वार के रतन-स्तूप, मानस्तम्भ, ध्वजादण्ड, क्रीड़ा-पर्वत, नृत्यशाला, चैत्यवृक्ष, कल्पवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, अशोकवृक्ष तथा बारह सभा, श्रीमण्डप, राते स्थान अपने-अपने तीर्थकरन के शरीर की ऊँचाईतें.बारह गुण ऊंचे हैं। समोवशरस का प्रमाण-वृषभदेव का बारह योजन प्रमाण है । औरन के यथायोग्य घटता है और जसे- पिणी के जिनों का समोवशरण-प्रमाण, घटता कह्या । तैसे ही उत्सर्पिणी के जिनों का समोवशरण-प्रमाण बधता जानना और विदेह क्षेत्रन में समोवशरण का प्रमाण, वृषभ देव के समान, सदेव सर्व जिन का जानना। ऐसे समोवशरण का कथन किया। सो त्रैलोक्य प्राप्ति, धर्म संग्रह, समोवशरण स्तोत्र, धादिपुराण इत्यादिक ग्रन्थों के अनुसार वर्शन किया। कोई आचार्य करि सामान्य-विशेष रचना का कथन होय,सौ केवलज्ञान-गम्य है।ऐसे सामान्य समोवशरण
को रचना कहो। गैसे समोवशरण विर्षे श्रीजिनेन्द्र विराजे है। सो अष्ट प्रातिहार्य करि मण्डित है सो तिन प्रातिहार्यन का विशेष कहिये है । सो तहाँ गन्धकुटी के मध्य जाका मूल अरु चौगिरद बड़े विस्तार धरै, नाना प्रकार रत्रमयी शाखान व रत्नमयी फल-फूल पत्र सहित, अशोक वृक्ष है। ताके देखे अनेक जाति का शोक जाता है है। ताते याका नाम अशोक पक्ष है।श देवन करि वर्षाई. सर्व समोवशरण में अनेक वर्णमयी महासंगन्ध सहित कल्पवृतन के फूलन की वर्षा, सो अद्भुत महिमाकारी मानौ ण्योतिषो देवन के विमान ही माकाश ते भगवान् के दर्शनकं आये हैं। ऐसी प्रभा सहित फूलन की वर्षा होनी सो पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य है। २। आकाश विर्षे देवनि करि बजाये। २२ करोड़ जाति के अनेक सुन्दर वादिनन के शब्द, सो दुन्दुभी वादित्र है। उसी का नाम दुन्दुभी प्रातिहार्य है। ३। जैसा जिनदेव के शरीर का वर्ण, ता समान शरीर की चौगिरद, गोलाकार, शरीर की प्रभा का मण्डल सो प्रभामण्डल है। तामें भव्य जीव अपने-अपने अगले-पिछले भव देखें हैं। उसी का नाम प्रभामण्डल है।४। तथा अनेक रत्नमयी सिंहासन शो है 1 ताप जिनदेव विराज । सो सिंहासन प्रातिहार्य है।श एक दिन रात्रि विर्षे ४ बार छ:-छः घड़ी पर्यन्त, भगवान् की वाणी निरै। सो दिव्य-ध्वनि है। सो जेसे मेघ गर्जे तैसे शब्द करती औंठ नाही हिले, तालवा नाही हिले, सर्व शरीर से उत्पन्न भई, अक्षर रहित, भगवान् को वाशी खिरे
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ताके निमित्त पाय जो जीव जिस भाषा करि सममें जाका जैसा अभिप्राय होय तथा जाकं जैसा उपदेश योग्य होय तिस जीव के श्रोत्र-इन्द्रिय द्वार तिष्ठै पुद्गलस्कन्ध, तिसही अर्थ के लिये तैसे ही अक्षर रूप होय, परिणमैं है। ||९४ तिस करि सर्व जीव, जुदा-जुदा उपदेश धारण करें हैं। ऐसे अतिशय सहित भगवान् की वाणी का होना सो दिव्यध्वनि प्रातिहार्य है।६। तीन रत्नमयो छत्र. भगवान के मस्तक फिरें। सो छात्र प्रातिहार्य है।७। देवन करि ढोरे गये ६४ रत्नमयी चमर गंगाधारा समान उज्ज्वल सो चमर प्रातिहार्य सहित भगवान् समोवशरण में विराज हैं।८। भगवान के है तो एक मुख, परन्तु च्यारों दिशा विर्षे तिष्ठते जीव तिनकू च्यारों ही तरफ मुख दो च्यारों हो दिशा के जीव ऐसा जाने, जो भगवान का मुख हमारे सन्मुख है तथा उन्हें भगवान् के च्यारि मुख दी है। भगवान् की मुद्रा, बिना यत्न ही नासाग्र-दृष्टि धरै, ध्यान रूप समता-रसमयी होय है। तातें भगवान् का दर्शन करनहारे भवान की. दर्शन करते ही, ध्यान मदा का स्मरण होय, शान्त दशा होय है। तात वीतराग-भाव बध है सो मुद्रा अतिशय सहित है । कदाचित् शान्तमुद्रा नहीं होती तो भक्तन का भला नहीं होता। तातै पर-जीवन का भला करनहारी, विश्वास उपजावनहारी, ध्यान रूप, पद्मासन, कायोत्सर्ग मुद्रा हो है सो ध्यान मुद्रा के धारी भगवान् तिनकी बाह्य संपदा तो समोवशरण है। आम्पन्तर संपदा अनन्त-चतुष्टयादि अनन्त गुण हैं। ऐसे भगवान् कं हमारा नमस्कार होऊ और जो भव्य भगवान के दर्शनक, समोवशरण में जांय हैं, सो देव-विद्याधर तौ स्वेच्छा से जाय हैं। भूमि-गोचरी मनुष्य तथा तिर्यंच, पगथेन की राह चढ़ि करि जाय हैं सो कई जीव तो सीधे ही पगथैन चढ़ि दर्शनकौं चले जांथ हैं। कई जीव पगथेन चढ़ि के पीछे समभुमि 4 जाय कैं, समोवशरण की गली की राह होय, अनेक रचना देखते, दर्शनकौं जांय हैं सो जे देव, विद्याधर. चक्री आदि भव्य हैं। सो प्रथम पोठि पर्यंत जाय हैं अरु दर्शन करि, अपने कोठेमें जाय तिष्ठे हैं। पीछे केई जीव बाहिर आय, जिन-गुण-गानादि करें हैं सो समोवशरण विौं गये, ऐसा अतिशय होय है कि अन्धे तौ नेत्र से देखें, बहरे सुनें, रोगी निरोग होय । अनेक दुख सहित जीव दुख तजि सुखी होय हैं समोवशरण में गये अनेक आरति, दुख. शोक, चिन्ता. मय दूर होय हैं। तहा सर्व प्रकार सुखी होय हैं। परस्पर जीवनके वैर-भाव नहीं रहे है। तहां सिंह-गाय-भोर-सर्प, मुसा-मारि, कुत्ता-बिल्ली इत्यादिक जति-विरोधी जीव, वैर-भाव तजि मैत्री-भाव करें हैं। तहा स्थान तो संख्यात अंगुल प्रमाण है। परन्तु तहा
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जीव असंख्यात जावें, तो भी भीड़ नहीं होय । तहां क्षुधा तृषा, नहीं लागे । राग-द्वेष नहीं होय । क्रोध मान माया लोभ नहीं उपजैं। इन आदिक समवशरण में अनेक अतिशय होंय हैं। और समोवशरणके बाह्य १०० योजन पर्यंत, दुर्भिक्ष, ईति, मोति नहीं होय । या प्रकार भगवान्का अतिशय होय है । इन्द्रको आज्ञा तें धनपति देव, समोवशरण रचे है। ऐसे समोवशरण में विराजमान श्रीभगवान् तिनका दर्शन जिनकूं प्रत्यक्ष होय ते भव्य धन्य हैं। हम पुण्य-सम्पदा रहित. प्रत्यक्ष दर्शनकों असमर्थ हैं। तातें मन, वच, तन, करि, जिनदेवको परोक्ष नमस्कार करें। सौ वे भगवान्, हम इस ग्रन्थके पूरण होतें अन्त- मङ्गल विषै, सहाय होऊ । ऐसे समोवशरण वन किया। आगे भगवान्के विहार कर्मका स्वरूप कहिये है। तहां समोवशरण विषै विराजमान भगवान्के विहारका जब समय हो, तब इन्द्र महाराज अवधि तैं जानिकें, लौकिक समय साधवेकूं, ऐसी विनति करें हैं। है भगवान् ! यह विहार समय है, सो विहार र अनेक भव्य जोवनकूं धर्मोपदेश देयके, उनको सुमार्ग बताय तिनका मला कीजिये। तब देवेन्द्रका प्रश्न पाय, भगवानका तौ विहार-कर्म होय । अरु पिछली समोवशरणरचना विघट जाय सो भगवान् जिस मार्ग विषै विहार करें, तिस मार्ग विषै दोऊ तरफ नाना प्रकार भट् ऋतुके फल-फूल सहित अनेक वृक्षनकी सघन पंक्ति, होय जाय हैं। दोऊ तरफ, चौवलनकै खेत, महा रमणीक हरित वर्ण होय जाय हैं नदी, बावड़ी, महल पंक्ति, पर्वतनकी शोभा, मनोहर होय जाय है । तिस मार्ग की सर्व भूमि दर्पण समान निर्मल होय जाय है । तिसके दोऊ तरफ चांवलनके फूलै वनकी पंक्ति, अरु तिन चोवलन के निकट दोऊ तरफ निर्मल जलको धारा धरें, नदी समान नहर, चल्या करें है। और तिस मार्ग पै, जाकाश तैं मेघकुमार जातिके देव, सुगंधित जलके करा, मोती समान बारीका बर्षावते जांथ हैं। और पवनकुमार जातिके देव, मन्द-सुगंध पवन, चलावते जाँय हैं। एक योजन पर्यन्त, सर्व भूमि, कंटक रहित करते जांय हैं। तिस मार्ग विषै, भगवान तौ समोवशरणको ऊंचाई प्रमाण आकाशमें गमन करें, तिनके पद-कमलनके नीचे, १५-१५ कमल के फूलनकी पंक्ति, १५ पंक्ति देव रचि देंय । सो २२५ कमलनका समुदाय, एक जायेंगे झूमका रूप रहे । ताके मध्यके कमल पै, च्यारि अंगुलके अन्तर में पांव धरते भगवान् आकाश विषै मनुष्य की नाई ग भरतै विहार करें। यहां प्रश्न जो भगवान् कैं तो इच्छा नाहीं । सो इच्छा बिना डग कैसे भरी जाय ? ताका
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समाधान-जो भगवान के, च्यारि अघातिया कर्म बैठे हैं। तिनके कारण पाय, वासी खिरना, उठना, बैठना, चलना, डग भरना आदि क्रिया संभव है। यामें इच्छा-बिना किया होय है, यात दोष नाहीं। ऐसा जानना। ऐसे तो भगवान का विहार होय। मुनि आर्यिका, श्रावक नाविका, च्यारि-प्रकार संघका विहार, भूमि विर्षे होय है। कैसी है भूमि, सौ बीथी ( मार्ग) रूप है सो खोथोके दोऊ तरफ तो कोट हैं। ताके मध्य, एक योजन लम्बी, आध योजन चौड़ी रास्ता समान, देवन करि रची हुई, महा शौभायमान, रमणीय, निर्मल स्थान आप गली है सो देव, विद्याधर, चारण-मुनि, और सामान्य केवली तो आकाशमें गमन करे हैं। सो नहीं तो भगवान से अति नजदीक, नहीं अति दूर, यथा-योग्य स्थान गमन करे हैं। सो इन्द्र हैं तै तौ भगवान के नजदीक, भक्ति सहित चले जाय हैं। और सामान्य, चार प्रकारके देव हैं। सो दूर चले जाय हैं। सो केई देव तौ, चमर टोरते | जांय हैं। केई देव जय-जय शब्द करते जोय हैं। केई देव, चौबदारकी नाई, हाथमें रत्र-छाड़ी लिये, देवना चलै-चलो. चले-चलो, कहते जांय हैं। देवोंके समूहकों विनय तें, सिलसिले से लगावते हैं। इत उत करते जाय हैं 1 और केई देव, भगवानकी स्तुति करते जोय हैं । केई देव वन्दना नमस्कार करते जांय हैं। केई हर्षक भरे कौतूहल करते जाय हैं। और ऐसे ही मनुष्य तिर्यंच, भूमि विर्षे, हपते चले जोय है। केई भव्य, भगवान की तरफ देखते जाय हैं । इत्यादिक विहार समय, अनेक शुभ कार्य होंय हैं। सो सर्व व्याख्यान, विशेष ज्ञानीक गम्य है। हमारी शक्ति सर्व कथा कहनेकी नाहीं। ऐसे विहार-कर्मका कथन किया। सो मागू भगवान् जहाँ जाय विराजेंगे. तहां इन्द्रादिक देव, समोवशरणको रचना पूर्वोक्त रचें है। ता विषै, भगवान । हार कार, जाय विराजें हैं। तिन मगवानकुं, हमारा नमस्कार होऊ। ये जिनेन्द्र देव, इस ग्रन्धके अन्त-मङ्गलकू करह । ___इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम अन्य के मध्य में अन्त-मङ्गल निमित्त अरहंतदेवकं नमस्कार पूर्वक समवशरण कपन,
विहार-कर्म कथन करनेवाला चालीसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥४॥ आगे और भी अन्त-मंगलके निमित्त, भगवानके महा भक्त, स्तोत्रनके कर्ता आचार्य, तिन कूनमस्कार करिये है। तहां प्रथम श्री वादिराजनाम बाचार्य, जिन-धर्मके उद्योत करवेकू सूर्य समान महा तेजस्वी, एकी|| भाव स्तोत्रके कर्ता, तिन कू नमस्कार होऊ । वादिराज मुनिने, जा कारख पाय एकीमाव स्तोत्र किया, सो
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कहिये है-इनने गृहस्थ अवस्था में अनेक राज्य-भोगनके भोक्ता होय, कामदेव-समान रूप धरै, संसार-भोगन
ते उदास होय, राज्य भार तजि, यति-व्रत धारचा। सो महावीतराग पद के धारी को. पूर्व कर्म उदय, शरीर में । कुष्ट रोग प्रकट्या । सो तन, जगह-जगह तें फूट निकस्य।। महादुर्गन्ध उपजी। सो यह वीतरागी, तन ते निष्प्रेम | है। आगे ही सूं शरीर कू पुद्गल-सप्तधातु का प्रिण्ड जाने आत्मा-रस रमता योगीश्वर, शरीर का उपचार कडू
नहीं वच्छिता भया। सो विहार करते, एक नगर के वन में सिण्डै। सो जब बस्ती में आहार कूजाय, सो नगर में महाधर्मात्मा श्रावक, निर्विचिकित्सा गुण के धारी, यति कों नवधा-भक्ति सहित, हर्ष सौ दान देय, अपना मव सफल माने। ऐसे वन में रहते, कई दिन भये। सो राजा का मन्त्री, एक सेठ था। जो महाधर्मात्मा प्रभात उठे वन में जाय, रोज वादिराज मुनि का दर्शन करि, धर्म सुनि, तब पीवे राजा के दरवार में जाय । सो कोऊ पापी, इस सेठ के द्वेषो पुरुष ने, जाय राजा कही--भो राजन्! इस सेठ का गुरु, कोढ़ी है। सो यह प्रथम ही उस कोढ़ी के दर्शन कुंजाय, ताके मुख ते धर्म सुनि, पीछे आपकी सेवा में आवे है। थाका गुरु महाकोढ़ी है। ताकी दुर्गन्ध आगे, कोई नहीं ठहरे। सी थे बात उचित नाहीं। तब कहीं--यह बात कुठ है। ये सेठ, हमारा ऐसा अविनय नहीं करै। तब चुगल ने कही-यामें असत्य होय, तौ जो गुनहगार को गति होय, सो मेरी करौ। तब राजा ने दूसरे दिन सेठ सूं कही हे सेठ ! क्या तेरा गुरु कोढ़ी है ? तब सेठ इसका उत्तर अविनय वचन जानि, राजासं कही-भो नाथ ! कहनेहारे नै असत्य कही है। गुरु शुद्ध हैं । तब राजानें कही-जो शुद्ध हैं तो हम प्रभात दर्शन को चालेंगे। ऐसे राजा के वचन सुनि, सेठ चिन्ता क प्राप्त भया। जो मैं राजा असत्य बोल्या, सो तौ विनय ते बोल्या। मेरे मुख तँ मैं, गुरु कौ कुष्ट है, ऐसा अयोग्य-वचन कैसे कहीं ? येसो जानि असत्य कहा। अरु प्रभात, राजा दर्शन• जाय, गुरु का शरीर प्रत्यक्ष रोग सहित देखेगा, तो यह पापिष्ठ गुरुको उपद्रव करेगा। अरु मेरा मरण भया ही है। परन्तु गुरु की उपसर्ग नहीं होय तौ मला है इत्यादिक प्रकार सैठ महाचिन्तावान होय पीछे वन में गुरु के पास गया। सो मुनीश्वर ज्ञान-मरडार कही-भो वत्स! तेरा मुख चिन्तावान्-उदास क्यों ? अरु तूं प्रभात आया था सो अवार आवने का कारण कहा ? तब सेठ ने गुरु के पास राणा के बावने की सर्व कथा कही-अरु विनती करी कि यह राजा महार स्वभावी है। सो मोकू मारेगा तो मारौ। परन्तु
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आय यहाँ त विहार करौ तौ मला है। नहीं तो उपसर्ग करेगा। मैं महापापी ताके निमित्त पाय उपद्रव हो है। इत्यादिक सेठ कू महाभयावन्त भया, अपनी आलोचना • लिए वचन बोलता देख, मुनीश्वर करुणा करि, धर्म । ५९८ को प्रभावना करने कू बोलते भए । भो वत्स! भो भार्य! भय मत करौ। राजा दर्शन कू आवै, तो आवने देवो। मेरी गुरु के बाद न नुनि में हर्ष पाशा मधा। जो जगत् का नाथ, मेरे गुरु ने, मोहि अभयदान दिया। | सो अब भय नाहों। तब भी सेठ ने विचारी, जो गुरु के तन मैं तो, यह प्रत्यक्ष रोग है अरु गुरु ने अभयदान दिया। सो यह वचन गुरु का, आश्चर्य उपजाव है तथा सेठ विचार है। यह वीतराग गुरु की, अखण्ड आज्ञा है । सो मेरु चलायमान होय तो होथ, परन्तु गुरु का वचन अन्यथा नाही होय । ताते. गुरु कही-भय मति करौ, सो अब मोहि, भय नाहीं। ऐसा दृढ़ निश्चय करि, सेठ भी अपने मन्दिर गया । तब यतीचर ने भगवान की स्तुति करी। चौबीस काव्य में, स्तोत्र किया । सो मन-वचन-काय एकत्व शुभ रूप करि, जिनदेव के गुणानुवाद गाये। सो भक्ति के भाव तैं. अन्त काव्य के पूरण होते, यति के तन का सर्व रोग, नाश भया। सूर्य के तेज समान, तन को दीग्निप्रगट मई। सो यति ने बांयें हाथ की छोटी अंगुली की एक नौक, राजा के प्रतीति के अर्थ, रोग सहित रहने दई। बाकी सर्व-तन, कञ्चन वर्ण भधा। जब प्रभात, राजा दर्शन निमित, चतुरंग सेना मिलाय, महादल हित अाया अरु यति के तन का रोग, सब नगर जान था सो इस कौतुक के सनि, सब नगर के लोग भी, कौतुक-हेतु आये । सो वन में मनुष्य का समूह फैल गया। राजा तहां आया, जहाँ यतीश्वर विराजें। सो बाहन से उतरि, मुनि के दर्शन कूआगे गया। सो शरद ऋतु को पूर्णमासी के चन्द्रमा समान निर्मल कान्ति धारे, समता समुद्र, वीतरागी योगीश्वरकू देस, मुनि के तन की दीप्ति को देख. विस्मयकं प्राप्त भया । दूर ते नमस्कार किया। राजा ने मुनि की अनेक स्तुति करी अरु जानें, राजा पै चुगली करी थी. तायै राजा कोय करि. ताकौ दण्ड देवे का विचार करता मया। तब यतीन्द्र ने, राजा के मन का अभिप्राय जानि, आज्ञा करी। मो नृपेन्द्र ! कोप मति
करौं । वान असत्य नहीं कही थी। हमारा तन कुष्ट-रोग सहित था। परन्तु या सैठ ने, मेरे रोग का नाम, अवि| नय-मय ते नहीं लिया। सो याके भय निवारण कं, प्रभु की स्तुति के प्रसाद है, शरीर शुद्ध भया। बाकी यह
शरीर, महाअशुचि, सा धातु का पिण्ड ग्लानि का स्थान है। याके विर्षे, यति निष्प्रिय है। परन्तु सेठ के
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धर्मानुराग सूं, यह कार्य किया है। अपने बांये करकी अंगुली को नौंक, रोग सहित राखी थी, सो राजा को बताई। कही, भो नरेन्द्र ! यह अँगुलि समान, यह सर्व तन था। सो धर्म के प्रसाद करि, प्रभुको भक्ति के प्रसाद करि, यह तन शुद्ध भया। तातें तूं कोप मति करै । वाने सत्यही कही थी। ऐसे वचन मुनिके सुनि, राजा अचरज कुं प्राप्त भया । मिथ्या बुद्धि गई। अरु शुद्ध धर्मका धारी मया । बारम्बार सर्वज्ञ का धर्म प्रशंस्या । सर्व लोग यह अतिशय देख, मिथ्या भाव तजि, शुद्ध धर्मके धारक भए । और श्री वादिराज मुनीन्द्रकी स्तुति करते भये । अरु वादिराज - योगीश्वर का किया एकीभाव स्तोत्र कौं, घनै भव्य, मङ्गलके अर्थ सुनते भये, पढ़ते भये । ऐसा एकीभाव स्तोत्र अरु इसके कर्ता श्री वादिराज मुनीश्वर जगत गुरु. इस ग्रन्थके अन्त में, इस ग्रन्थके कर्त्ता कूं, तथा इस ग्रन्थके पढ़नेहारेन कूं मङ्गल करों। ऐसे वादिराज नामा आचार्य कूं नमस्कार करि अन्त-मंगल विषै तिनके गुणनका स्मरण किया। आगे इस ग्रन्थके अन्त मंगल करते, श्री भक्तामर स्तोत्र के कर्ता श्री मान करिये है। कैसे हैं श्री मानतुंगाचार्य, प्रत्यक्ष जिनधर्म प्रकाशनेकू दिनकर सूर्य समान हैं । अरु मिथ्या-सन्देह मयो शिखर, ताके मंजन, इन्द्रवज्रके समानि हैं। प्रत्यक्ष भगवन्त देव के महाभक्त हैं। तथा कुवादीनको अतत्व श्रद्धान रूपी प्रवाह रूप नदी, सो कुनय रूप तरंगनि सहित, सो ज्ञान रूपी जीर्ण वृक्ष तिनकौं उपाड़ती, अपनी स्वेच्छा वेग रूप बढ़ती ऐसी तरंगिणी, ताके
कवे मानतुंग गुरु, कुलाचल शिखर समान हैं। ऐसे गुरुकूं नमस्कार होऊ। जिन नैं भक्तामर स्तोत्र करि प्रगट यश पाया । तिनतें भक्तामर स्तोत्र कैसे भया, सो कहिये है। तहां उज्जैन नगरी, जहां राज सिंह महा-प्रतापी, राज्य करै । ताके रत्नावली नाम स्त्री, सो महा सती, शची समान रूपवती है सो तिनकें पुत्र नाहीं राजा चिन्ता भई । तब मन्त्रीने कही। हे नाथ धर्म सेवन कीजे । ताके प्रसाद, सब सुख होय है। ऐसे करते, एक दिन राजा, परिवार सहित वन गया। सो एक सरोवरके तीर मुंजके वृक्ष नोचे, एक बालक देख्या । सो बालक, रानोकूं दिया और ताका नाम मुंजकुमार रखा । सो बालक अपने रूप गुण सहित, बढता भया। पीछे केतैक दिन गये, रत्नावली रानो गर्भ रह्या । सो नव मास पूर्ण भये, पुत्र भया। ताका नाम, सिंहलकुमार रखा। यह अनुक्रम तैं, तरुण भया । तब पिताने, सिंहलकुमारके व्याह किये सो शुभ राजों को पुत्रों, तिनमें एक मृगावती नामा रानी सहित कुमार
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कैं दोय पुत्र घुगल भये । तिनमें बड़ेका नाम शुभचन्द्र, अरु छोटेका नाम भतृहरि । ये दोय-पुत्र क्रम से, स्याने भये । जनेक विद्या-प्रवीण भये । एकदिन राजा सिंह, संसार तें उदास भये सो मुंजकूं राज्य, अरु सिंहलकू युवराज पद देय, आप यति पद धारि, आत्म कल्याण किया। अब राजा मुंज, राज्य करे सो एक दिन, राजा वन-क्रीड़ाकों गया था सो जावते, एक मन्दिर के द्वार, एक तेली ने कुदार नाम विद्या साधी थी सो ताने कही — हे राजन् मोकूं विद्या सधी है सो मो समान, पृथ्वी में बली नाहीं । तब राजा ने कही तू नौच-कुली कूं राती विद्या का बल कबहूं हो सकता नाहीं । तब तेली ने दोऊ हाथतें जोर करि विद्या का कुदार, धरती में गाड़या । कहो जो कोई योद्धा होय. तो काढ़ी। तब राजा ने अपने सामन्तनकूं कही काढ़ौ सो सर्व सामन्त, बड़े-बड़े मल्ल पचि पचिहारे, कुदार नाहीं निकस्या। तब राजा सिंहल उठ्या सो एक हाथ कुदार निकास्या । पा सिंहल ने एक हाथते, कुदार गाड्या अरु कही पाकी काढौ, तो जानें। तब तैली, विद्या-बल करि हारधा तथा राजा के मल्ल-सुमट पचिहारे, कुदार नाहीं निकस्या । यतेमें राजा सिंहलके दोय पुत्र जाये । 'अरु पितातें कही। प्रभो! हमकौं आज्ञा करो तो हम कादें। तब राजा, हँस करि कही। भो पुत्र हो यहाँ तिहारा काम नाहीं । तिहारी बराबरी के लड़का - बालकन में कोड़ा करो । तब कुमारों ने कही हे नाथ! बिना हाथ लगाये कादै, तो आपके पुत्र जानहु । सो हठ करि, पिता तैं आज्ञा लेय, अपने मस्तक के केश लेय, कुदार में उरकाय कैं टक्या सोच कें कुदार निकस्था सो इनका पौरुष देख, राजा मुज ने मन्त्री सूं कही इनकूं मारौ इन बालकन छतै, मेरा राज्य जमैं नाहीं । तब मन्त्री ने इन कुमारनकूं कही तुम्हारा बाबा तुमको मारधा चाह । तातें तुम कोई दिन यहां सू' भागो। तब दोऊ कुमारननैं, अपने पितासूं कही - भो नाथ | हम कूं राजा मुअ मारचा चाह है, सो हमकों कहा माझा होय है ? तब राजा सिंहल ने कही तुम ताक मारौ । जो आपको हमें, तो हनताको श्राप भी हनिये । याका दोष नाहीं । यह राजनीति है। ऐसे वचन पिता के सुनि, शुभचन्द्र अरु भर्तृहरि इन दोऊ कुमारननैं कही हे नाथ! हमारें तो वे आपको समान हैं सो बाबा को कैसे मारें ? सो संसार तें उदास होय, विरक्त भये । अरु दोऊ भाई, तप धरते भये । सो शुभचन्द्र तो वन में जाय, धर्म धुरन्धर गुरु के पास जिन दीक्षा धरि मुनि भये । नाना तप करि अनेक ऋद्धि पाई। छोटे भाई
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भतृहरिने वनमें जाय तापसीके व्रत धार सो अनेक अज्ञान तप करे। सो एक दिन वनमें भूल्या सो तृषावन्त भया नोर देखता, एक जायगा वन दान तापसी, रिमादिलेगा नाप करें. तमा रहुंचा । सो भतृहरिने तिस तापसीके पास जाय, नमस्कार किया। तब तापसीने, भतृहरि सू कही। तुम अपना नाम-कुल कहो। | तब मतृहरिने नाम-कुल का सो भतृहरिने, याको बड़ी सेवा करी तब तापसीने राजी होय, कलही तुम्बी भर दोनी। और कही। यातें तांबा, कान होय है। अनेक मन्त्र तन्त्र आदि चमत्कारी-विद्या दई। ऐसे बारह वर्ष ताई, मतृहरिजोने, तापसीको सेवा करी। पीछे गुरुके पास ते, सीख मांगी। पीछे भाई शुभचन्द्रणी की खबर को चेला भेजे। सो चेलोंने, शुभचन्द्र को गन्धमर्दन पर्वत पे ध्यानारद, नगन तन, वीतराग देने सो भतृहरिके चेला, दोय दिन उपवास करि, भूख त भागे सो आय मतृहरि कृ कही। तुम्हारे माई लंगोट माहीं। भूख तें तोश है। अरु तुम, राज भोगो हो। सो कछु भाई को देव। जाते ताका दारिद्र जाय। तब मातृहरि ने, पाथा कलर का तम्बा, माई को भेजा। सो शुभचन्द्रने पत्थर पै डाल दिया। तब चेलाने, भतृहरि सं कही। वह भाग्यहीन है, कलङ्क डाल दिया। तब भतृहरिने अाप, शुभचन्द्र जो पै जाय, पिता समान बड़े भाई कू जानि, विनय ते नमस्कार करि कलंक को तुम्बो बागे धरी। तब शुभचन्द्रजी ने कही. तूम्बीमें कहा है ? तब मतृहरिने कही। भो प्रभो । तांबातें कंचन करें, या ऐसा गुण है । तब शुभचन्द्रणी ने तूम्बा उठाय, शिलापर धरि पटक्या।
सो भतहार कही। भो भ्राता यह अनेक राज्य--सम्पदा का द्रव्य, आपने डाल दिया, सो भली नहीं । है भ्रात। बारह वर्ष गुरु की सेवा बारी, तब मोकू उन्होंने दीनी थी। इस तरह भातृहरि कौं खेद-चिन्न देख शुभचन्द्रजी ने की। भो वत्स ! राज्य तणि, वन वसे। अब भी कलंक नहीं तज्या। यह कलंक, मुनीबरों कू कलंक समान है। तातें तजना योग्य है । अरु भो वत्स! तेरे कलंक , याहन तो कंचन नहीं मया। बरु तेरे स्वर्ण की चाह होय, ता देन! ता सुभदन्द्र ने, 'चाको गांव-नीको रग लेप, एक बड़ी शिला पे डाली। सो सर्व शिला कंचनकी मह । सो मत हरि यह अतिशय देख, बड़े भाईके पायन पड़े।
अनेक स्तुति करि, शिन-दीक्षा याची। तब शुभचन्द्रजी ने दीक्षा दई। अरु इनके संबोधवै कों, झानाव | नाम ग्रन्थ बनाय, दीवामें डढ़ किया। सो पीछे, दोध माई. जिन-दोना सहित तप करते भये। अस वहा,
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उज्जैन नगरी का राज्य, राजा मुंज करें। सो एक दिन राजा मुंज, मनमें दगा विचारता भया। जो, सिंहल जोरावर है । यातें मेरा राज्य नहीं रहेगा। तब मन्त्री कूकही। सिंहल कू मारौं। तब मन्त्रीने कही। दोष कहा ६०२
सो कहो। निर्दोष को मारे, महा-पाप है। तब एक दासी सौ मिलि, ताको अंधा किया। तिस चेटोने. सिंहल । कों, तेल मदन करतें, ताके नेत्र फोड़े। तब राजा मुंज, यह सुनि दुख करता भया। जो पुत्र तौ दीक्षा ले गये, || भाई अंधा भया। अब कुल नाश भया। मैंने महा-पाप किया। इत्यादि प्रकार पछताता भया सौ एते. एक | भोजक-याचकने आय, राजा मुंज कूबधाई दई। कहो मो राजन् ! तुम्हारे भाई सिंहलके पुत्र भया। तब || राजा मुंज राजी होय. सिंहलके घर आया सो द्वार पै एक श्लोक लिखा देख्या
श्लोक-वर्षाणि पञ्च पञ्चाशत्, सप्त मासान् दिनत्रयं । भोजराजेन भोक्तव्या, सुखेन पक्षिण दिशा ॥ १ ॥ __यह श्लोक देस, राजा मुंजने पण्डितन बुलवाय, कही। श्लोक किसने लिच्या १ तब एक पण्डितने कही। | भो राजन् । इस बालक गएका मारामार होनहार, मैंने लिख्या है। ये भोजराज, दक्षिण दिशा ५५ वर्ष
७ महीना ३ दिन राज्य करेगा। ऐसी सनि, सर्व राजी भये। बालक अनेक विद्यानिधान, क्रम करि बड़ा भया। तब राजा मुंजने भोजपुत्रका व्याह करि, राज्य दिया सो राजा भोज, जगत्में अपने प्रताप करि, राज्य करें। इस भोजराजाके यहां. एकवररुचि नाम पण्डित रह सौ ताकी पुत्री. वर-योग्य भई। सो पिता ने पुत्री सूकही। तू कहै, ताहि परणाऊं। तब पुत्री ने कहीं। ऊंच-कुलकी कन्या, अपने आय, घर नहीं याचै। जो भाग्यमें होय, सो पावै । तथा व्यवहारनय करि, माता-पिता जाकू परिणावै, सो प्रमाण है। ऐसे पुत्रीके वचन सुनि, पिता महाकोप करि, एक महा दरिद्र. मूर्ख पुरुष खोज, ताहि कन्या परिणाई। तब कन्या ने कहो, पूर्व-कर्म की कौन मैट ? रोसी जानि, वह समता धरती भई। पोछे वररुचि विचारो जो राजा भोज पूछेगा, तुम्हारा दामाद कैसा । पण्डित है? तो मोहि लज्जा उपजेगी। ऐसा जानि वररुचि, ता दामाद कं बहत पढ़ावै। परन्तु ताकी एक अक्षर | भी नहीं आवै । बहुत कालमें, आशीर्वाद वढ़ाया सो राजा भोजको सभामें अनेक पन्डित इकट्ट भये । तहाँ वररुषि- गि का दामाद जाय, राजा को आशीष वचन देते अशुद्ध बोल्या। तब राणा ने कही, मूर्ख है। तब वररुचि ने भशुद्ध वचन कौं, अपनी पंडिताई करि, शुद्ध करि, राजा को बताया। घर जाय अमाई को, मान-संडनहारे वचन कहे।।
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तब ये अपने को मूर्ख जानि, कालिका देवी के मठ में, अधोमुन जाय पर चा। कही मोय विद्या-वर देहू, नहीं तो || मैं मरि हौं। तब सातवें दिन, देवी प्रसन्न भई। वांच्छित वर दिया। कही-तेरा नाम कवि-कालिदास हो और वचन-सिद्ध वर दिया सो देवी के प्रसाद ते, अनेक विद्या-शब्द स्फुरे। ताकरि सर्व पण्डित मोते। तब सबने । कही-विद्या कहां पाई ? तब यानें कही-कालिका देवो के पास पाई। तब वररुचि याके पायन परचा। कही-मेरी कन्या धन्य है । याके वचन, सत्य हैं। अब ये कालिदास प्रगट भश। सो एक दिन राजा भोज की सभा में जाय, कालिका • अाराधी सो सर्व सभा कालिका को देख, नमस्कार करि, कालिदास की प्रशंसा करती मई। ऐसे काजिदार यसिद्ध भगा सुदत सेठ, थाही उजनी नगरी में रहै । सो महाधर्मात्मा, ताके मनोहर नाम पुत्र था सो एक दिन सेठ, पुत्र सहित, राजा भोज में गया। तब राजा ने सैठ ते पूछी। तिहारा पुत्र कहा पढ़या है? तब सेठ कही भो नाथ ! नाममाला ग्रन्थ, अर्थ सहित पढ़या। तब भोजराज कहीनाममाला का कर्ता कौन ? तब सैठ कही–धनञ्जय नाम महापण्डित है। तब राजा कही–धनञ्जय तें मिलानो। | सो राजा-भोज महापण्डित, गुणीजन का दास, सो धनजय फू' बुलाया। आदर सहित राजा ने भले मनुष्य भेजे। तब कालिदास बोल्था। हे राजन् । धनजय, कधू समझता नाहीं। जब धनञ्जय-कवि आया, तब राजा ने धनन्जय कू,ऊँचे आसन पर बैठक दई और कही–तुम्हारा नाम बड़ा। सो कौन ग्रन्थ किये ? तब धनजय कहीभो राजेन्द्र! मेरे किये ग्रन्धमैं, इन पण्डितों ने मेरा नाम लोप, अपना नाम धरचा है। तब भोजराज ने, पण्डितों को उलाहना दिया, कि तुम काहे के परिडत हो। तब सर्व पण्डितों ने कही-मो राजन् ! यह धनञ्जय कब का पण्डित है। याका गुरु तौ, मानतुङ्ग मुनि है । जो महामूर्ख है। या विद्या, कहाँ तै बाई ? याका गुरु अब भी वन में है। सो जाय, हम तें वाद करें। तब धनक्षय कही-भी पण्डित हो! गुरु का नाम तौ, उत्तम गुण-रूप है सो वै वहीं विराज रहैं। परन्तु तुम्हारे वाद की इच्छा होय. तो मौतें वाद करौ। तब इनमें परस्पर वाद होता भया। सो अनेक नय, दृष्टान्त, प्रश्नोत्तर करि कालिदास आदि सर्व परिडतों कू राजा भोज की सभा मैं धनजय ने जोत्या। सब वचन-बद्ध भये। तब कालिदास कोप करि बोल्या। हे राजन! यह महामूर्ख है। सो यातें कहा कहा वाद करें। याका गुरु मानतुङ्ग है। सो ताकौं बुलाइये, तातें वाद करेंगे। तब राणा ने अपने भले मनुष्य
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मानतुङ्ग नामा मुनीश्वर के ल्यायवै को भेजे । तिनतें मुनीश्वर सूकही-है नाथ [ राजा भोज नै नमस्कार कह्या है अरु जापकू बुलाये हैं। तब यति ने कही-हमारा राजगृह में प्रयोजन नाहीं। ऐसी कही और नहीं गये तब कालिदास कही-भो राजन् ! वह मानतुद्रमान का शिखर है। महामानी है सो भली तरह नहीं जायेगा तब राजा भोज, कोप करि कही यतिको, पकड़ि ल्यावो। ऐसी सुनि, राजा के सेवक गये, सो यतिकू उठाय ल्याये राणा के पास घर था सो यति मौन सहित, पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान करते, तिष्ठते भये। तब राजा. कोप करि कही-याको बन्दीगृह में धरौ। तब राजा की जाज्ञा याय, किरों ने यतिको मौहरे में दिया सो अड़तालीस कोठों के मीतर मुदे और सब कोठों के जुदे-जुदे ताले दिये। राजा की तिन मुहर करी जरु यति के पावन में बड़ी अरु हाथ में हथकड़ी, गले में जेल (सांकल) डाली इत्यादिक दृढ़ बन्धन किये । ताप, अनेक विश्वासी सुभट राखे । ऐसे महासंकट के स्थान में, मुनीश्वरकू नाझ्या। सो वीतरागी यति, समता सहित रहे । तहा तोन-दिन भये, तब यतीश्वर ने विचारी कि यामें जिन-धर्म की न्यूनता दिखेगी। पापीपन, धर्मी-पुरुषनकू पीड़ेंगे। रोसी जानि जादिनाथ स्वामी का स्तुति, महाभक्ति-भावन सहित करी। ४८ काव्य किये। तिनमें अनेक मन्त्र, अतिशय सहित गर्भित करि भक्तामर नाम दिया सो मन्त्र समान उत्तम काव्य किया। तिनमें आदिनाथ भगवान के गुण कहे । सो प्रभु की स्तुति के प्रसाद करि सर्व कोठों के ताले अकस्मात् टूटि गये। यति के सन-बन्धन झड़ गये । यति निबंधन होय आये । सो तिनकों देख. सेवक डरे तब यतिकी बहुत बंधन में दिये सो फेरि बन्धन टूटि गये। तब राजा भोज जाय, सेवक ने कही-भो नाथ ! यति बाहर निकसि आये हैं। तीन बार बन्धन में दिये तीनों बार, बन्धन मा-आप टूटे हैं। ऐसा आश्चर्य न देखा, न सुन्या। तब राजा भोज ने, कालिदास आदि सर्व पण्डितोंकों कहीजो यह अतिशय यति का भया। तब सब ने कही-मो राजा ! यह यति, महाजादुगर है । सो मन्त्र-तन्त्र करि निकस्या है। बन्धन तोड़े हैं। तब राणा | ने दृढ़ बन्धन करि पुनः कोठरी मैं बन्द करि चौकी राखी। तब यति ने मक्तामर स्तुति का याठ किया। | सो सर्व बन्धन टूटे। निर्बन्धन होय यति भोजराज की सभा में आये। तब राणा यतिको देख कांपता मया ।
और कालिदासकूबुलाय कही-यति का तैण मेरे बूते सह्या नहीं जाय है । ताका यत्न करो । तब कालिदास
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| कही--राजन डरौ मति और उसने कालिका देवीकू माराधी। जब देवी पायी। सौ महाविकराल रूप || बनाय ताने कही-भो कालिदास ! क्यों आराधी सो कहा ? गते हो में चक्रेश्वरी देवी आय पतिको नमस्कार | ६५ किया अरु कालिकाकू देख चक्रेश्वरी ने कही-रे महापापिनो! तेंने मूर्खन के संग करि अपना आत्मा पाप-लित करि पर-भव बिगाड्या । अब तोकौं स्थान भ्रष्ट करि हौं । द्वीपत निकास हो । तेनै यतिको उपसर्ग | किये। ऐसे चक्रेश्वरी के वचन कालिका सुन पाप-फलते कम्पायमान होय चक्रेश्वरी के पायन पड़ी।कही
भो माता ! मो अपराध क्षमा करि । मो आज्ञा करौ, सो करौं । रौसे नाना प्रकार चक्रोश्वरी की स्तुति करि, पीछे कालिका, मानतुङ्ग गुरु के पायन पड़ी गुरु की अनेक विनति करती मई अरु कही-मी यति । मौकों आज्ञा करौ. सो करूं तब यति कही-भो देवी। पूर्व भव में पुण्य किया. ताके फल देवी मई। बड़ी शक्ति पाई। विवेक पाया। अब तू ही हिंसा को कर्ता भई, सो मला नाहीं। जब हिंसा तषि, दया-धर्म का सेवन करौ । ऐसी आला. गुरु ने करी तब कालिका ने मुनिकू नमस्कार करि कही-मो प्रभो । बाप तें, मनवचन-काय करि हिंसा का त्याग किया । आपकी आना मोको कल्याण के बर्थ है, सो मैंने बङ्गीकार करी। भो यतिनाथ ! मो अपराध क्षमा करौ। ऐसे कालिका देवीको सेवा करती देख राजा भोज पाय मुनि के पायन पड़ता भया। दीन होय गद्गद् वाणी करि कहता मया। भो दयानिधान ! रस | रक्ष! मो अपराध क्षमा करौ । मो दयामूर्ति | मेरा प्रायश्चित्त कहो अरु भव-भ्रमण मिटै, सो उपदेश देहु । तब गुरु ने कहीभो भोजराज [ आदिनाथ का धर्म सेये, कल्याण होयगा। तब राजा भोज, मानतुन मुनि पै, श्रावक के व्रत लेता भया। यह अतिशय देखकर, जे पण्डित, वाद को माये थे: सो मान तजि, मिथ्याभाव छाडि, श्रावकव्रत धारते भये । तब कालिदास आय मानतुङ्ग मुनि के पायन पड्या। कही-हे नाथ ! मेरा अपराध क्षमा करो अरु मोहि श्रावक-व्रत देहु । तब गुरु ने दया करि कालिदासकौं श्रावक-व्रत दिये । पोछे राजा भोज ने, गुरुपै नमस्कार करि कही-भो गुरुदेव ! एक सन्देह मोहि है सौ कहूं हूं । भो गुरुदेव ! आपके सर्व बन्धन टूटे सो मन्त्र कौन है ? सो कहौ । ये मन्त्र हमकौं दया करि देहु । तब गुरु कही-भक्तामर महामन्त्र भनेक विघ्न का नाशक है ताका स्मरण, पठन, ध्यान, सुखकारी है। ऐसा अतिशय देख, अनेक मिथ्या भाव तजत
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भये। सो श्री मानतुङ्ग आचार्य ने प्रथम तौ भक्तामर स्तवन राजा भोजकों पढ़ाया। ता पीछे, सर्व जगत के | भव्य-जीव ताकौं पठन करते मये। सो भक्तामर के कर्ता, विघ्न के हर्ता, मङ्गल के कर्ता, श्री मानतुङ्ग गुरु सु! मोकौं इस ग्रन्थ के पुरण होतें, अन्स-मङ्गल में सहाय करौ। ऐसे महाअतिशय के धारक, पञ्चमकाल में साधु भये । तिनकू मैंने ग्रन्थ के अन्त-मङ्गल निमित्त स्मरण किया। . इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में अन्त-मङ्गल निमित्त, एकीभाव के कर्ता श्री धादिराज मुनीश्वर तिमके गुणोंका स्मरण तथा भक्तामरके कर्ता थीमानतुन नामा गुरु; तिनके गुणनका चिन्तन, तथा स्तोत्रनके
____ कारणों का वर्णन करनेवाला इकतालीसवां पर्व सम्पूर्ण भया । ४१ ॥ ऐसे इस ग्रन्थ के पूर्ण होते, अन्त-मङ्गल के निमित्त, कल्याण के अर्थ, इष्टदेव, पञ्च परम गुरु, सिद्धक्षेत्र, समोवशरण विषं विराजते भगवान्, अकृत्रिम जिन-भवन, इन आदिक सर्व का स्मरण, ध्यान करि, तिनकू नमस्कार किया। ताकरि हमने अपना मनुष्य-जन्म पाना, सफल मान्या। काहे ते सो कहिये है—जो यह ग्रन्थ, सागर समान गम्भोर, नय तरङ्गन करि भरया, नहीं दृष्टि परे है सामान्य ज्ञान में अर्थरूपी मर्यादा कहिये पार जाको। रोसे अगाध गुण-निधि का पार पाना, हमसे ज्ञान दरिद्रीना, महादुर्लभ । सो इष्ट देव गुरु के प्रसाद, तिनको भक्तिके अतिशय करि ग्रन्थ पूरण भया। सो यह आश्चर्य ऐसा भया जैसे कोई भुजा रहित पुरुष, अन्तक स्वयंपूरमण समुद्रको तिरके पार होय, लोकनकू विस्मय उपजावै । ऐसा ये कार्य जानना। तथा कोई धन रहित दरिद्री पुरुषने व्याह रच्या। अरु बड़ी जायगा सगाईका संबंध करि, हजारों मनुष्य नेवते देय परदेश से बुलाये। सो इसको क्रिया देख, जो धनवान थैः सो हाँ सि करते भये। जो देखो, घर विर्षे तो एक दिनको अन्त्र नाहीं। अरु व्याह, ऐसा भारी रच्या है । सो कैसे बनेंगा ? अरु यह पुरुष भी, अपनी अज्ञान-चेष्टा देख, चिंतावान | भया। मैंने अपना पुण्य-बल नाही विचार था, अरु कारण दीर्घ रध्या! यह केसे पूर्ण होयगा। ऐसे यह पुरुष चिन्ता करता रात्रिको तिष्ठ था। सो याके पुण्य तें, कोई देवता आय, चिन्तामणि देय गया। सो या पुरुषने चिन्तामणिके प्रभाव से, प्रभात मला ब्याह किया। वांच्छित सबनको भोजनज्योनार देय, जगतको आश्चर्य उपजाय, यश पाया। तैसे ही मैं ज्ञान-धन रहित, ग्रन्थ रूपी बड़ी शादी रची थी। ताके पूर्ण होनेकी बड़ी चिन्ता
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________________ 107 थी। जो यह कार्य कैसे सिद्ध होयगा? सो कोई पूर्व-पुण्य ते. इष्ट देवने, ज्ञान अंश मया चिन्तामणि दिया। ताके प्रसाद करि, निर्विघ्न कार्यकी सिद्धि पाई। सो इस बातका हमकों महा अद्भुत सुख भया। तथा जैसे कोई बालक-बुद्धि-पुरुष, शक्ति रहित काष्ठका खडग धाधि प्रबल वैरोका गढ़ जीतिनेकौं संग्राम करि, जीति पाय, गढ़ लैंय जगत को आश्चर्य उपजाथ, यश पावता मया। तैसे ही मैं ज्ञान-बल रहित तुच्छ अक्षर मान लें, रोसा महान ग्रन्थ पूर्ण किया / सो ये भी प्राश्चर्य है। इन मादिक आश्चर्य सहित, इस ग्रन्थके पूर्ण होते हर्ष भया / ग्रन्थकर्ता अपना जन्म, कृत-कृत्य मानता भया। जो या तन तें, शुभ कार्य करना था, सो किया। ऐसे अपना भव धन्य मान्या। परभव सुधरनेकी साई (ब्याना)समान, आशा भई ताकरि परम-सुख भया / इस ग्रन्थ विर्षे अनेक सान तरङ्ग उपजों जाका कथन पाइये है। ताल धाके अध्ययन किर, सष्टि होय / अरु ज्ञान-तरडनका रहस्य जानै / तो तत्त्वज्ञान पाय परम सुखी होय, मोक्ष मार्गका ज्ञाता होय / पाप-पुण्यके शुभाशुभका भी वैत्ता होय। उच्च पद पाय, परंपराय जन्म मरण मैटै ऐसा जानि इस ग्रन्थकै अभ्यास विर्षे प्रवर्तना योग्य है। ऐसे इस ग्रन्थको बालबोध व चनिका रूप टीका, अपनी आलोचनाकू लिए, आदि-अंत इष्ट देव-गुरुको नमस्कार करि पूर्ण करी। मे वस्तु गुण सहता, वस्तु कर्म रहना, सिद्ध कहता सो देवा / चतु पात निवारे, चगुण घारे, तन पिति कारे तिस सेवा / / ताको सो वानी धर्म कहानी, शिव दरशानी, मैं ध्याऊ / ते नगन बारीरा, सब जग पी-हरा, तप घर धीय गुण गाऊं // 1 // ये देव परम गुरु, तिष्ठी मो सर, हे शिष सुख कर जगनाथा। मैं इनको दासा, और न आषा, है यह प्यासा, रक्ष तथा 11 यह टेक हमारी हे गुणकारो, तुम थुति प्यारी, पाप हरा / सो मोदीजे, ढोल न कीजे, लेय घरोजे, मोक्ष-धरा // 2 // यह सुदृष्टि तरङ्ग है, ताको यह विस्तार। सागर सम जो यह तिरै, सम्यक टेक सुधार।३। गुरु आज्ञा-नौका चढे, शङ्का सकल निधार / ते सदृष्टि तरङ्गके, उतरे पैले पार।। शीतल-जिनके जन्म थलि, ग्रन्थ समापति कीन। विघ्न मिटे मङ्गल थये भये पाप सब हीन / 5 / टेक गई अघ कारनी, रही टेक मुनि दाय। सो यह मव-मव टैक हम, मिलै टेक वृष दाय / 6 . संवत् अष्टादश शतक. फिर ऊपर अड़तोस / सावन सुदि राकादशी, अर्धनिशि पूरण कीन।७। 6.7 तिर | इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम अन्य के मध्यमें कवि आलोचनादि का वर्णन करनेवाला व्यालोसंवा पर्व सम्पूर्ण // 42 // इति श्री पण्डित टेकचन्द्र जो कृत, सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्म तथा ताकी बालबोधिनी टीका सम्पूर्ण /