SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 499
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। याहीका नाम स्तेय वस्तु आदान दोष है। २। और राजाकी मर्यादा लोपना, राजाकी आझा, टालना, सो राज्य-विरुद्ध नाम दोष है। ३। और जहाँ लेनेके तोलादि तो बड़े होंय, और परकौं देनेके पाई, कुड़ा तोला सेर । पंसेरी सो छोटी-हीन राहै। सो याका नाम होनाधिक मानोन्मान नाम अतिचार है।४। और बड़े मोलकी वस्तुमें, थोड़े मोलको वस्तुकों मिलायके बेचना। सो प्रतिरूपक व्यवहार नाम दोष है। ५। ऐसे इन पांच अतिचार रहित होथ सो अचौर्य नाम अणुव्रत है। इति अचौर्याणुव्रत । ३ । आगे ब्रह्मचाणुव्रत कौं हैं: पाकै छोटो र-त्री, पुत्री की. सी. पहिन व बड़ी स्त्री माता समान है। रोसो दृष्टि तौ पर स्त्रीन पै रहै। और अपनी परणी स्त्रीमें संतोषी, तीव्र राग रहित समता भाव सहित संतान उत्पत्ति निमित्त स्व-स्त्री त रति समय संगम करें। बाकी च्यारी प्रकार चैतन अचेतन स्त्री, विर्षे रागद्वेषका अभाव विकार दृष्टि करि नहीं देखें। तथा पर-स्त्रीनमें काम चेष्टा रूपविकार वचन हाँसि वचन परस्पर प्रेम बधावने हारे निर्लज्ज वचन कुशील-राग करि मरी दृष्टि देखना परस्त्रोन ते गोष्ठीचर्चा वार्ता करनी इत्यादिक परस्त्री संबंधी दोष हैं ! कैसी है पर-स्त्रीकी दृष्टि ? विषनाग समान राग-जहर करि भरी यौवन करि मदोन्मत्त, विकराल स्वरूपको धरनहारी। शीलवान् पुरुषोंकों भयकारी। महा विष नागनी। बालक, वृद्ध, देव. पशु सर्व तीन गतिके जोवनक डसनहारो। बड़ोंकी आज्ञा रूपी मंत्र मर्यादा की लोपनहारी। ऐसी परस्त्रीका त्याग सो ब्रह्माणुव्रत है सो याके पांच अतिचार हैं सोही कहिये हैं। प्रथम नाम परविवाह करन, इत्वरिका गमन, परगृहीतागृहीत गमन, अनंग क्रीड़ा, काम तीव्राभिनिवेश। ये पांच हैं। इनका अर्थ तहां पराया विवाह करावना। बीचिमें पड़ि, सगाई करावना। बीचमें फिरि, लड़का-लड़कीनके नाता मिलाय, साख मिलाय, व्याहके नेग चार करावना। इत्यादिक व्याह के कार्य करावना सी पर-विवाह करण नाम दोष है ।श और दासोक घरमें राखना तात स्त्रीव्यवहारको चेष्टा करनी। सो इत्वरिका-गमन नाम अतिचार है। २। और पर-कर-गृहीत जे स्त्री, जिनका भर्तार जीवता होय तथा पर कर नहीं गृहीत जो विधवा स्त्री-मार रहित तथा कुवारी विवाह रहित इनसे विकार चेष्टा करि तिनके घर गमनागमन करना। सो पर गृहीतागृहीत गमन नाम दोष है। ३1 और | जहां स्त्रोका भोग योग्य योनि स्थान तजि वाह्य अङ्गन से कोड़ा करनी। जैसे श्वानादि पशु भोग-योग-स्थान
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy