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________________ S भाषा, अनेक देशन के अत्तरन की स्थापना आदि अनेक शास्त्र-कलादिक पढ़ाय प्रवीण करें। ताके जोग ते । इस लोक विष श्रेष्ठता पावे, सर्व उत्तमलोकन कर पूज्यपद पावै पाखण्डी वापीन करि ठग्या न जाय । सर्वकला- || पूरण सुखी होय तातें अनेक कर्मकला सिखावै। रोसे गुरु की दया करि, पाई जो विद्यानिधि, ताकरि उत्तम || तीनि कुल के बालक, अपनी बुद्धि को निर्मल करि, सर्वसंसार दशा का वेत्ता होय। सो गुरुप्रसाद के जोग ! पाया जो जीव अजीव तत्व का भेद, तातै निर्मल बुद्धि परद्रव्यन ते भिन्नचित्तकरि जड़पदार्थ शरीरादि तिनमें निर्ममत्वता करिक, कर्मबन्धन ते छुटवे की है इच्छा जाकें, सो जामनमरण दुःस्वनतें भय खाय, दीक्षा धरै तथा नयाँद दीक्षा को समरथ नहीं हाय ती अशुभोपयोगी पापारम्भ का फल दुःख जानि, पापकार्य मैं जतन तें दयामई भाव सहित प्रवर्ते। श्रावकधर्म का साधन करता गृहस्थ ही रहै सो चारित्र मोह के हृदय तें कुट्रम्ब शरीरादिक के पोषवेकों तथा अपनी मन इन्द्रिय वशोभत नहीं भई तिनके पोषनकों तथा अपने पदस्थप्रमाण कषायनि के जोगते मान-बड़ाई पोषधकों, अपने गुरु का दिया ज्ञान ताको प्रगट कर जगतविर्षे जस रूपी बेल बधाय, न्याय-: मार्ग सहित अपनी बुद्धि बलतें धन का उपार्जन करें। ताकरि अपने तन, कुटम्ब की रक्षा करें। सर्व कुटम्ब लोकन ते यथायोग्य विनयवचन बोल, सर्वको हित उपजावे। आपते गुरुजनते, माता-पिता होंय तिनत, नम्रतापूर्ण वचन सुन्दरविनय सहित प्रकाशिक तिनकौं सुस्ती करें। अरु आपते छोटे होंय तिनते महा हित-मित, अमृत समान कोमल वचन बोलिके हँस मुख ते सौम्यदृष्टि करि देखि तिनक पुचकार सुखी करें। ऐसे यथायोग्य सम्भाषण कर, सबको साता करें। यह तत्ववेत्ता सदैव राज-सम्पदादि भोगता ऐसा विचार चित्तविर्षे किया करै, जो मैं अनादि काल से संसार भ्रमण करता नरकादिक कुगतिन का पापफल भोग दुःखी भया। कबहूँ शुभपरिणति के कलकर पुण्य ते देवादि शुभगति के इन्द्रियजनित सुख मनवांछित भोगे। परन्तु इस जीव की । भोगतृष्णा नहीं मिटी, संसार भ्रमण नहीं मिटा। मैं जन्म-मरण के दुःखन तें कब छुटगा? धन्य हैं मुनि तीर्थङ्कर | देव, जिनने राज्यसम्पदा तजि, सिद्ध लोक पाया। सो मैं भी अब भला अवसर पाया है। सो ऐसा कार्य कर ४ | जाते संसार का भ्रमण छटै। सदव ऐसा उपाय विचारै। दीक्षा के द्रव्य क्षेत्र काल भावन की एकता का | निमित्त न मिले तो धर्मात्मा श्रावक पुत्र, अपनी बुद्धि बलते कमलसमान अलिप्त भया गृह में रहै । सो सर्वगृहपालवेक ATRA
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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