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________________ श्री सु इ fe ४५ 1 उद्यम करे। औरन कूं मोही-सा दोखे अनेक तन क्रिया वचन क्रिया कर सर्व को सन्तोष करि सुख उपजावे । परन्तु यह धर्मात्मा गुरु के पास देखा जो प्रथमानुयोग का रहस्य सो पापारम्भ का फल खोटा जानि गृहकार्यन में रंजायमान न होय । यह तत्त्ववेत्ता उदासीन वृत्ति का धारणहारा, पापारम्भ रहित भया, अपने जुग भव सुधारता अपने शुद्धधर्म की रक्षा करता, विचक्षण, अपने घर के पुत्र-कलत्र कुटुम्बादिक की रक्षा करे। ऐसे जे भव्यप्रासी गृह में रहैं ते परभव में सुखी होंय जे बालक अवस्थाही के अज्ञानी, कुबाचारी, पाप भयरहित, शरीर भोगन में मोहित, इन्द्रिय सुख के लोमी, तन-धन-सम्पदा शाश्वती जाननहारा धर्मभावना रहित हैं, ते जीव गृहारम्भ में अदयासहित प्रवर्त पापबन्धकरि कुगतिविषै दुःखी होय हैं। तांतें सुबुद्धि तीनि कुल के उपजे बालकनकूं अपने सुखनिमित्त, बालपने ही तैं विद्या पढ़ावना योग्य है। जो धर्मात्मा विद्यावान पुत्र होई तौ माता-पिता को सुखकारी होय । जो मूर्ख, अज्ञानी, पापाचारी, अविनोति पुत्र होय तो माता-पितान को दुखकारी होय । ऐसा जानि धर्मात्मा विवेकी पुरुष होय हैं सो अपने पुत्रनकूं धर्मशास्त्रनि विषै प्रवेश करावें हैं । जे पण्डिस धर्मात्मा, धर्मशास्वन का अभ्यास करें सो धर्मशास्त्र के अभ्यास तें सम्यकदृष्टि का लाभ होय हैं। सम्यक्त्व के होते, जीव-जजीव तत्व का जानपना होय है। सो जीवतत्व तो देखने-जानने रूप है, अरु अजोवतत्व के पांच भेद हैं। ए पांचही जड़ हैं. ज्ञानरहित हैं। ऐसे जीव-अजीव तत्व जिनदेव ने प्ररूपे हैं। तैसेही सम्यग्दृष्टि श्रद्धान द्वारा धारण करि, पदार्थन में है- उपादेय करें हैं। ऐसा विचार हैं जो जिनदेव ने जीवाजीव तत्व भेद कहे हैं सो प्रमाण हैं, सत्य हैं। ऐसा दृढ़ श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। दर्शन मोहनीय को तीनि अनन्तानुबन्धी का चारि, इन सात प्रकृतिन का उपशम होना तथा क्षय होना, ऐसे सात प्रकृतिन के क्षय तथा उपशम होते प्रगटा जो आत्मा का अन्तरङ्ग गुरा पर्यायसहित प्रत्येक अनुभव को लिये शुभज्ञान, तातैं षट्द्रव्यन में ऐसा भाव जानता भया जो जीव, अजीव तत्त्व कर दीय भेद तत्व हैं, सो पंचद्रव्य तो ज्ञान-रहित अचेतन हैं, तिनके गुण भी अचेतन हैं, पर्याय भी अचेतन हैं। एक जीवतत्त्व चेतन है ताके गुण पर्याय भी चेतन देखने-जानने हारे हैं, सो ऐसे जीवतत्व भी अनन्त हैं। सो सर्व जीव अपनी-अपनी सत्ता को भिन्न-भिन्न लिये हैं। कोऊ जीव काहूंत मिलता नहीं, सर्व की सत्ता जुदी-जुदी है और सर्व के गुण- पर्याय भी मित्र-मित्र सत्ता को लिये हैं, कोऊ के गुण पर्याय कौतें मिलते नाही ऐसे सर्व संसारी ४५
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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