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________________ जीव अनन्ते पाइये हैं। तिन विषं मैं एक सत्तागुणपर्याय का धारी आत्मा, सो अपने शुभाशुभ कर्मन का फल भोगनहारा अरु अपने भावन अनुसार शुभाशुभ कर्मबन्ध का करनेहारा, एक मैं ही हूँ। सो जब मैं ही रागादिक उपाधि से छुट्र, तौ कर्मबन्धन नाश करि, सिद्धलोक का वासी होहुँ । ऐसा आत्मा के मैदा-भेद रूप अनुभवविर्षे जाके दृढ़ सरघान होय सो निश्चयसम्यक्त्व है। सो मुक्ति स्त्री के विवाहको प्रथम सगाई समानि है। रीसे कहे जे व्यवहार अरु निश्चय सम्यक्त्व, सो तावसरधान होते होय हैं। ताते जिनेन्द्रदेव ने प्ररूप जी जीव-अजीव तत्व, तिन जीवाजीवतत्वन का दृढ़ यथावत् सरधान, सो भव्यन कू करना योग्य है। यहाँ प्रश्न, जीव-अजीव र दोय तत्व तो और भी अनेक मतन में कहे हैं। तुमही अपने जिनदेव के भाषे कहने की महिमा काहेको कहो हो? यामें महत्ता का मई ? ताका समाधान हे माई। सने कही सो प्रमाण है। परन्तु सर्वमतनिविर्षे जोवाजीवताव भेद कहा है सो जिनदेव के कहनेविर्षे अरु अन्यमतन के कहने विर्षे बड़ा अन्तर है। जैसे बालक के वचन अरु बड़े पण्डित पुरुषन के वचन मैं अन्तर, एता है। जो बालक समानि ज्ञानी भोरे जीव के वचन प्रतीतरहित हैं और बड़े पण्डित पुरुष के वचन प्रतीत सहित होय हैं। तैसे ही सामान्य ज्ञान के धारी तुच्छबुद्धि अज्ञानी के वचनविर्षे अरु अन्तर्यामी सर्वज्ञ केवली के वचनविर्षे बड़ा अन्तर है। ताते जिनदेव के कहे जीवाजीवतत्व हैं सो सत्य हैं। तुच्छज्ञानी के कहे तत्त्वभेद प्रमाण नांही। ताते हे भाई! जिनदेव करि कहे तरवन की महत्ता रहेगी देखी जो सामान्य ज्ञानी के वचन तौ असत्य हैं और केवलज्ञानी सर्वज्ञ के वचन सत्य हैं ताते प्रमाण हैं। गात ताका धारण भये तेरा भी भ्रम जाय। ज्ञान की प्राप्ति होय और सम्यक्त्व का लाभ होय । ताते तु धर्मार्थी है सो हे भव्य ! तेरे शुभफल के मिलाप की इच्छा होई मिथ्यात्व फन्द छूटने की वांछा होई तौ मले प्रकारधारना। भो भव्य तु देखि जो और मतन में तावन का स्वरूप कहा है, सो जैसे अन्धन का हाथी देखना। एक-एक अङ्ग हस्ती का कह के, हस्ती के आकार का अभाव करना। तैसे ही भोरे जीवन का तत्व-भेद कहना है। जो | तत्व का एक अङ्गलेयकें प्रकारों हैं सो ताव का अभाव अतावरूप कहैं हैं। जैसे छ अन्धोंने एक हस्ती आवता सुना। तब अन्धों ने कही आपन ने हस्ती नहीं देखा, सो एक हस्ती आवै है ताहि लिपटि जावो। अरु ताके तन हाथ फैरिये ज्यों सर्व हाथी जानिये। ऐसा विचारिक उस हो हस्तीकं नजीक आया जान, हस्ती पकड़ा।
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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