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________________ $44$ सु for ૪૭ सो छाँही अन्धों ने षट् अङ्ग हस्ती के पकड़े। किसी ने तौ पांव पकड़ा, किसी ने कान, किसी ने दांत, किसी ने ड़ि, किसी ने पूंछ, किसी ने पेट इत्यादिक एक-एक अङ्ग पकड़ तापै अपना हाथ फेरा सो अपना सरधान ऐसा किया जो हाथा ऐसा होय है। अपने मन में भिन्न-भिन्न कल्पना करि, हस्ती छोड़ा। सो पीछे सर्व अन्धे आपस में कहते थे। एक अन्धा बोला हे भाई! हमने हस्ती देखा, तब पांव पकड़नेहारा कहै जो हस्ती धम्म-सा होय है हमने भर देखा। कान नेहा ने कही असत्य बोला, हस्ती सूप-सा होय है, हमने नीके देखा है। तब दांत पकड़नेहारे ने कही तँ भी नहीं देखा हस्ती मूसल-सा होय है। तब सूंड़ पकड़नेहारे ने कही तैं भी नहीं देख्या, हस्ती दगली की बांह समान होय है। तब पेट पकड़नेहारा बोला, जो तूं भी असत्य बोला है हस्ती छैने (कंडे) के बिठा समानि होय है। तब पूंछ पकड़नेहारा बोल्या रे भाई ! तुम काहे को वृथा कहो हो, हमने हाथी मले प्रकार देख्या, हस्ती सोटि समान होय है। ऐसे इन षट् ही अन्धन में विवाद होय है, सो सर्व झूठ है। एक अङ्ग-सा हस्ती नांहीं । हस्ती का अङ्ग देख्या सो एक अङ्ग कूं हस्ती कहैं हैं । नेत्र होय तो सब हस्ती का स्वरूप दीखे, सो नेत्र नाहीं । तातें इन अन्धन का विवाद मिटता नही। अपन अपन अङ्ग कूं सबही हठते हैं हैं । तैसे ही तत्त्वज्ञान का स्वरूप अतत्त्वरूप करि कहें हैं। सो ही स्वरूप तोकों सामान्यपर्ने समझाय कर कहैं हैं । सो हे भव्य ! तू नीके करि धारण करियो । जीवात्मा का देखो, कोई मतवारे तो सब संसारीकें आकार मानें हैं तहाँ देव नरक, पशु, मनुष्य तिन अनन्ते असंख्याते शरीर में एक आत्मा मानें हैं । अरु कोई एक ज्योतिस्वरूप परमब्रह्म है ताका अंश सर्व जगत् के घट-घट विषै कंकरी- पथरी, जलथल, पवन-पानी सर्व जगह व्याप रहा है । जहाँ-तहाँ उस ही एक परमब्रह्म का रूप फैल रहा है। जो कुछ करे है सो वह हो करें हैं, ऐसा कर्ता हर्त्ता है; केई तो ऐसा हो जानि दृढ़ करि रहें हैं और कोऊ आत्मा को क्षण भंगुर मानें कि शरीर मैं आत्मा छिन छिन और और आयें हैं। कोई कर्तावादी कहैं कि जीव को कोई उपजावै है । ऐसी कहैं हैं कि भगवान नवीन जीव बनाय-बनाय संसार में धरता जाय है। वही चाहे तब मारे है। कोई एक मतवाले जीव का अभाव ही मानें हैं। केई मतवाले मोक्ष आत्मा पोछे फेरि संसार विषै अवतार मानें हैं। केई मतवाले मोक्ष विषै आत्मा कूं ज्ञानरहित मानें हैं। केई अज्ञानवादी ऐसा कहैं हैं जो आत्मा में परवस्तु के जानने का ज्ञान है, ४७ त रं गि णी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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