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श्री
सु
इ
ष्टि
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राग है, ताकों कोई पुरुष कर हैं या चेष्टा का करनेहारा आत्मा है, सो मैं ही प्रत्यक्ष होते कोई देव भी करें जो तूं
वस्तु
सन्देह नाहीं । तैसे ही इस जड़ तन विषै देखने-जानने रूप क्रिया. अनेक हों। मैं ही देखूं जानूं हौं। सुख-दुख मैं ही वे हूँ और नाहीं। ऐसा नाहीं देखने कोई और हो है। तो सम्यग्दृष्टिनको वा देव को हो मिथ्या बुद्धि भारौं। परन्तु आप आत्मा है तामैं सन्देह नाहीं । ऐसी दृढ प्रतीत सहित प्रत्यक्ष भाव भास है। अब प्रत्यक्ष देखने-जाननेहारा आत्मा तो मैं हौं सो नाहीं, यह कैसे कह्या जाय ? जो सन्देह सहित होय तौ तामै 'हां' 'ना' भी कही जाय। निसन्देह विषै परोक्ष-सा सन्देह कैसे का जाय ? ऐसे दृढ़ जानि सम्यग्दृष्टिनकें आत्म स्वभाव को प्रत्यक्षता कही है। ऐसे अनेक वस्तु निसन्देह होय सौ प्रत्यक्ष प्रमारा कहिए है। ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण वस्तु का स्वरूप जिन-धर्म मैं बहुत है। तातें और के प्रत्यक्ष प्रमाण तें अखण्डित जिनधर्म, सत्य है । ऐसे लौकिक विषै धर्म दयामयी है और परम्पराय भी धर्म दयामयी, अनुमान मैं भो धर्म दयामयी और शास्त्र मैं भी धर्म दयामयी और प्रत्यक्ष भी धर्म दयामयी। ऐसे पञ्च प्रमाण जिन धर्म में मिलें हैं। तातै काहू के भी पञ्च प्रमाण करि अखण्डित, जिन-धर्म है, सो सत्य है। ऐसे अनेक नयन करि धर्म की परीक्षा करी सो जिन धर्म पूज्य है । इति प्रत्यक्ष प्रमाण । ५ ।
इति श्री सुदृष्टितरंगिणी नाम ग्रन्थ मध्ये शुद्ध धर्म परीक्षा, सप्तभंग नवनय, पंच प्रमाणादि कथन सुधर्म-कुधर्म में शेय-हैम-उपादेय वर्णनो नाम एकादश पर्व सम्पूर्णम् ॥ ११ ॥
आगे किस प्रकार को संगति करनी । सो तामैं ज्ञेय हैय उपादेय कहिए है
गाथा - सुहद्रुहदादि जहियो, सो उपादेयों संग हिंद करदो । हेय हेय विभावो, सुद्दिट्टी सो होय मादाय || ३४ ॥
अर्थ---जो दुखदायक जगत् निन्ध संग होय, सो तजिए और हितकारी संग होय सो उपादेय है। इस तरह योग्य-अयोग्य विचारि संग करै, सो आत्मा सम्यग्दृष्टि जानना । भावार्थ- सम्यग्दृष्टिन के ऐसा विचार सहज ही होय है विवेकी जो संगति करें, तामैं तीन भाव हो हैं। शुभाशुभ भाव संग का समुच्चय विचारना सी तो ज्ञेय संग है। ताही ज्ञेय कै दोय भेद हैं । एक तजन योग्य एक ग्रहण योग्य तहां ऐसा विचारै जी जिस संगति हैं आपको दोष लागे तथा अपयश होय, तथा आपकूं निन्दा आवती होय तथा पाप का बन्ध होता होय,
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