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________________ भी सु टि १२० भय नाहीं टारे, सो भगतन को कैसे सुखी करें ? तातैं सर्वज्ञ देवकै भय नाहीं । २० । जाकैं विस्मय होय। जो यह कहा गया तथा बड़ा आश्चर्य भया, ऐसा विद्या रहित अज्ञानोनकें होय, याका नाम विस्मय है। सो जाके विस्मय होय, सो भगवान् नाहीं । केवलज्ञानीकें कछू विस्मय नाहीं । २२ । निद्रा के जोरतें प्राणी सर्व सुध-बुध भूलि जाय। महाप्रभाट की करनहारी, मृतक समान करनहारी, ऐसी निद्रा जाकै होय, सो भगवान् नाहीं । भगवान् सदेव चैतन्यमूर्तिक, जागृत दशारूप, सर्व प्रमाद रहित, जगत् गुरुकैं निद्रा नाहीं । १२ । और जाके खेद होय, सो देव नाहीं । जो अपना ही खेद नाहीं मेट सकें, सो भगतकों निर्खेद कैसे करें ? तातैं भगवान् सर्व सुखोकं खेद नाहीं । १३ । शरीरमैं पसेव होय, सो होन पराक्रमते होय है । तातें जाकेँ पसेव होय, सो भगवान् नाहीं । अनन्तवली भगवान् कैं पसेव नाहीं | १४ | मद है सो मान कर्म के उदय तैं, मानी संसारी अनेक क्रोधादि कषायन के पात्र तिनकैं होथ है। सो जाकैं मद होय, सो भगवान् नाहीं । भगवान् के मद नाहीं | १५ | पर वस्तु कूं देखि अरति होय है । जो जरति के उद्यतै होय, सो अरति है । जाके कर्म उदय अरति होय, सो भगवान् नाहीं, वीतराग भगवान् के अरति नाहीं । २६ । महादुख का मूल, संसार को बोज, संसार भ्रमण करावनहारा ऐसा मोह जार्के होय, सो भगवान् नाहीं । जगत् उदासी भगवान के मोह नाहीं । १७। और जाकें रति कर्म के उदय, अनेक वस्तुनमै हर्ष माने-रंजावें, ऐसा रति-कर्म का जोरि जाकैं होय, सो देव नाहीं । भगवान् वीतरा देव कैं रति नाहीं । १८ । ऐसे कहे अठारह दोष जाके पाईं, सो भगवान् नाहीं । भगवान्‌कें र अठारह दोष, सब प्रकार नाहीं, ऐसे जानना और भगवान्कै छ चालीस गुण होय हैं, तिनका कथन कहिए है अतिशय चौतीस तहां प्रथम हो भगवान् अन्त का शरीर धरें हैं। जब गर्भ अवतार होय, तब ए दश अतिशय होय हैं-सी तहाँ पसेब ( पसीना ) नाहीं समचतुरस्त्र संस्थान है, वज्रवृषभनाराचसंहनन, तनमैं मल नाहीं शरीर महासुगन्ध, अनन्त महासुन्दररूप होय है, शरीर में अनेक भले लक्षण होय हैं, तन मैं श्वेत रुधिर होय, वचन महासुन्दर मधुर होय और तिनके तनमें अनन्त बल होय ऐसे दृश अतिशय तो जन्मते ही होंय, सो भगवान् (जानना । दश अतिशय केवलज्ञान भये पीछे होय हैं। तिनके नाम-तहां समोशरण मैं चतुर्मुख दीखें। भगवान् का समोशरण जहाँ होय, तहांतें चौतरफ सौ योजन दुर्भिक्ष नहीं होय। आकाश निर्मल होय। सर्व जीवनकें १२० मि लौ
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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