SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सु इ ष्टि ११९ गाथा दोह अठारह रहियो, गुरासद् चालीस होय संजुत्तो सवग्गी बौबरायो, सदेवो भव्वतार पण मामी ॥ १८ ॥ अर्थ- दोह जठारह कहिये, अष्टादशदोष रहित होय गुण सड चालीस होय, संजुत्तो कहिए, छचालीस गुणसहित होय । सवग्गो कहिए, सर्वज्ञ होय । वीयरायो कहिए, वीतरागी होय । सदेवो कहिए, सो देव । भव्वतार कहिए, भव्यन का तारक होय । प्रणमामी कहिए, ताक नमस्कार करों हौं। भावार्थ- जाके रागद्वेष नहीं, सो वीतरागी है। केवलज्ञान सहित होय सो सर्वज्ञ कहिए । जाका नाम लिए पाप का नाश होय ऐसे अतिशय का धारी होय और क्षुधादिक अठारह दोष रहित होय और छचालीस गुण सहित होय, सो देव जानना । तहाँ प्रथम अठारह दोषन का स्वरूप कहिए है। सो प्रथम क्षुधा जगत् के जीवनकौं महादुःख करनहारा, ताके यो बिना मरण होय थे शुधा बड़ा रोग है को जाके रोहीत्रा होय, सो देव नाहीं । जाके बूते (किये), अपनी क्षुधा महाव्याधि हो नहीं मिटी. तो भक्तन को क्षुधा कैसे मेटे ? तातें भगवान् के क्षुधा रोग नाहीं । २ । बहुरि तृषा समान तीव्ररोग दुखदाई नाहीं, जो जलनामा औषध नहीं मिलें, तो प्राण जाय। ऐसो तृषारूपी व्याधि जाकै होय, सो देव नाहीं । भगवान् तृषारोग नहीं। अपनी तृषा-तपन जाकैं नहीं मिटी, तौ भगतन की तृषा-तपन कैसे मेटे ? तातैं प्रभु तृषा नाहीं । २ । बहुरि जहाँ राग भाव होय, सो भगवान् नाहीं, भगवानजी के राग-भाव नाहीं ? ३ । जाकै द्वेष भाव हो, सो पर का बुरा करें। तातें जाकैं राग-द्वेष होय, सो भगवान् नाहीं । अरु भगवान् कैं द्वेष भाव नाहीं । ४ । जो माता के गर्भ में आवै, गर्भ के महा दुःख, मल-मूत्र विषै नव मास अधोशीश ऊर्ध्व पाँव महासंकट मैं अवतार लेय, सो भगवान् नाहीं । अरु भगवान्क अवतार नाहीं । ५ । जरा जो बुढ़ापा जाकरि सर्व अङ्ग शिथिल होय, दीनता पायें, ऐसी जरा जार्के होय. सौ भगवान् नहीं। भगवान् के जरा नाहीं ॥ ६॥ जाका मरण होय, सो भगवान् नाहीं। जो अपना ही मरण नहीं मैटै तौ भगत का मरण कैसे मेटै ? तातें भगवान् कैं मरण नाहीं । जार्के रोग होय, सी देव नाहीं. भी अपना रोग हीं नहीं हरै, सो भगत कूं कैसे सुखो करें ? ताते भगवान् के रोग नाहीं । जार्के इष्ट वस्तु का वियोग होर्तें शोक होय, सो देव नाहीं। जो अपना ही शोकदुःख नहीं टारि सके, सो देव, भगत का शोक कैसे टारि सकें है ? तातै जाऊँ झोक होय, सो देव नाहीं । भगवान के लोक नाहीं । ६ । जाकें शत्रु, रोग, मरसादि दुःखन का भय होय, सो भगवान् नाहीं। जो अपना ही ११९ त रं गि मो
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy