SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ YA त्याग सुनि चोर हैं ते धर्म-सभा तजै। परन्तु चोरी नहीं तऊँ। सो ऐसा प्राणो धर्म-सोख काहे को मान है ? ये; सीख सपूत की है। तातै प्रावकन कं अतिचार सहित, चोरी उपसन तजना योग्य है। इति चोरी व्यसना६। आगे परदारा व्यसन कहिये है---जहां पर-स्त्रोन के रूप हाव-भाव कौं देव, भोगवे को इच्छा सो परदारा व्यसन है या व्यसनो को दृष्टि तौ भगिनी, पुत्री, माता को भी रूपवान देख विकार रूप ही प्रवत्त है और जे धर्मात्मा हैं सो पर-स्त्रोन कॅ भगिनी, माता, पुत्री समान देखें हैं। ऐसा भिन्न भेद इनको दृष्टि में जानना। ये। जीव उसही दृष्टि (आँख)तें भगिनी, पुत्री को देखें हैं । अरु उसही दृष्टि से अपनी स्त्री कूदेखें हैं। सो धर्मात्मा तौ यथावत् जाने हैं। अरु व्यसनी, विचार राष्टिकरिया है। रुह जीपन की हा काही भेद जानना। कैसी है या व्यसनी की दृष्टि? दोऊ भव-दुःख अपयश की करनहारी है। इस व्यसनी कौं पर-स्त्री गमन तें पकड़िये. तो जाति ते निषेधै हैं और राजा है सो ताका तन छेदन करि. घर लटै है और सर-रोहण करि, देश ते निषेधे है। तातें है भाई। कहा जाने नरक-फल पर-मव में कब लागै? हाल ही में जीव कौं नरक समान दुःख देखने पड़े हैं। लोक में निन्दा होय है। नाक-कान-हस्त-पांव अङ्गादि छिदै हैं। सो ये फल तो खराबी के यहां ही प्रत्यक्ष देखना होय है 1 तात धर्मी-जन, अपने हित कौ पर-स्त्री, धर्मरूपो कल्पवृक्ष के दवे कू करोत समान जानना और ये पर-स्त्री यश रूपी पर्वत के नाशवे कुंबन समान है। देखो रावरा-सा महाबली तीन खण्ड का स्वामी, यश का तिलक, जाके यश-सौभाग्य को देव भी महिमा करें-रोसा दीर्घ पुरयी, सो भी पर-स्त्री के दोष ते अपयश पाय, होन-गति का वासी भया। राज्य गया, कुल क्षय भया, पर-गति बिगड़ी। तातै हे भाई ! नाग के मुख हस्त देना, विष भोजन करना, ये तो मला है; परन्तु पर-स्त्री-संग, मला नाहीं। छुरी, कटारी, बर्ची की धारत पै कूदना भला। इन ते एक भव दुःख होय। बरु पर-स्त्रो संगति हैं, भव-भव में दुःख होय । तातै विवेकीन कौं पर-स्त्रीन का त्यागना भला है। अरु जिन बातम में पर-स्त्री-संग का दोष लागै, ऐसे अतिचार भी तजना योग्य है। सो अतिवार कहिये हैं। पर-स्त्रीन ते सराग भाव सहित हैं सि बोलना। कौतुक सहित तिनके तन से लिपटना। पर-स्त्रीन के षट्-आभूषण देव कहै, जो तुम कौ यह भला लाग है ये मला नहीं सोहै है। पर-स्त्रीन के अङ्ग-उपाङ्ग चाल की सराहना करना। ये सर्व पर-स्त्री व्यसन समान दोष
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy