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________________ मैं पर-जीवन का रूप देख, निरविकार चित्त किये देख, सुख मान्या होय तथा पर-जीवन कं रूप के योग ते अनादर पाया देख तिनकी दया करि, रूपवान होना यांच्या होय । धर्म का सेवन करि, रुपवान होना वोच्छया होय इत्यादिक शुभ भावन तें रूपवान होय है।३४। तब फेरि शिष्य प्रश्र किया। हे धर्ममूर्ति ! यह जीव पुण्य के उदय कार अनेक भोग्य वस्तु मिली तिनको भी नहीं भोग सकै, सो यह कौन पाप का फल है? तब गुरु कहो जिन जीवन में पर-भव में अन्य जीवन कौं अन्न, जल, मेवा, पान, मिठाई इत्यादिक खावने विर्षे अन्तराय किया होय। तिनक भलो वस्तु द्वेष-भाव करि, खावने नहीं दई होय । औरनको सूखी-रुखी कोरी-रस रहित खावता देखि, आप खुशी भया होय। औरनको सुख ते खान-पान करते देख नहीं सुहाया होय। औरन कू भूखे-प्यासे देख, तिनको हाँ सि करि होय, दुर्वचन कहि दुःखी किये होंय आप रसना इन्द्रिय का लोलुपी होय नाना प्रकार भोग वस्तु भोगो होय। अपने विषय-पोषने कौ नाना प्रकार छल-बल दगाबाजी करि रसनादिक के विषय-मोग सुख मान्या होय तथा पर का भोजन श्वान-मार्जारादि पश ले गये देख आप सुखी भया होय इत्यादिक पापन तैं छती (उपस्थित) वस्तु भोग में नहीं आवै और कदाचित् लोभ का मारया दुग्धादि भली वस्तु साय हो तो रोग वधै दुःखी होय तातै अन्तराय-कर्म के उदय भली वस्तु नहीं पचे है।३। और शिष्य प्रश्न किया। हे सुखमूर्ति जाके घर में सुन्दर स्त्री, वस्त्र, आभूषण, घोटक, रतनादिक मली वस्तु उपभोग योग्य पाईये और भोग नहीं सकै सो यह कौन पाप का फल है सो कहाँ। तब गुरु कही—जिन जीवन को पर-भव विर्षे पराये हस्ती, घोटक, स्त्री. बाहनादि उपभोग योग्य पदार्थ सुन्दर देख के आपको नहीं सुहाये होंय तिनके मलै पदार्थ देख छल-बल करि लूट लिये होय । भय देय जोरावरी खोंस लेय आप भोगे होय । पराये भले पदार्थ उपभोग योग्य देख जाकौं नहीं सुहाये होंय । पराये घर में भली वस्तु रतन, हस्ती आदि देख भय बताया होय कि जो ये भलो वस्तु राज में छिना देहौं। कहै कि ये वस्तु राजा देखेगा तो खोंसेगा इत्यादिक पाप त अच्छी वस्तु नहीं भौग सके है । ३६ । बहुरि शिष्य प्रश्न करता मया। हे गुरो! ये जीव तीव्र क्रोध का धारी किस पाप ते होय? तब गुरु कही हे वत्स :जा जीवनें पर-भव में क्रोधी जीवनक क्रोध करते देखि, भलै जाने होंय तथा पर-जीवन ते युद्ध करने का जाका स्वभाव पर-भव मैं बहुत रह्या होय तथा पर कयुद्ध करते देखि, सुख मान्या होय तथा ४०८
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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