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________________ बैलि जगत मण्डल में पसरे है। जिनने वेश्या का संग किया ते प्राणी अपना पाया भव हारते भये । वेश्या के संग तें खाद्य-अखाद्य का विवेक नाहीं रहै है। अमक्ष्य भोजन करें। लज्जा रहित वचन कहै । वेश्या का । संग करनहारा जीव देव-गुरु-धर्म को आज्ञा ऐसे लोप है; जैसे-मदोन्मत्त हस्ती अंकुशकों लोपै । वैश्या | व्यसनी, माता-पितादि गुरुजन की आज्ञातै प्रतिकूल होय है । कोई तौ नेत्र रहित अन्ध होय है । परन्तु वैश्या ! । व्यसनी कर अन्ध है इत्यादिक अनेक दोष सहित वेश्या व्यसन है। सो विवेकी धर्मात्मान• अपने व्रत की रक्षाकू अतीचार सहित वैश्या-व्यसन तजना योग्य है। इति वेश्या-व्यसन । ४ । आगे पारधी व्यसन लिखिये ।। है यह व्यसन, निर्दय चित्त के धारी जीवों का है। जे नोच-कुल के उपजे, तिनत ऐसा अन्याय बनें है। ऊँचकुलो, दयावान, सुभाचारी, सत्-पुरुषन तें, पर-जीव-घात नाही बने है। यह बड़ा आश्चर्य है कि लोक मैं । तौ पराये परणाम खुशी करवे कों, मला खान-पान दीजिये है। मुझे पशुन कौं घास डालि, सुखी कीजिये। है। आय का सत्कार कोजिये है । कोई अपने घर मंगता-रङ्क आवै तो ताकी दया करि, दीननकौं भोजनदान दीजिये है। परतें मिष्ट वचन बोलि, ताका यथायोग्य विनय करि, ताकौ साता कीजिये है इत्यादिक। क्रिया करि, जैसे बने तैसे यश के निमित्त तथा पुज्य के निमित मला मला कार्य कार और जीवनको सुखी करें हैं । सो जगत् में जिनकी ऐसी उज्ज्वल प्रवृत्ति, दया सहित देखिये है, वे ही सुबुद्धि जीव जानि-पुष्ट्रिक पर-जीव दोन-पशु तिनके तन वि शस्त्र मारि, तिनको हत। सो ये बड़ा आश्चर्य है। ऐसे सज्ञानी जीवन के भाव ऐसे कठोर कैसे हो जाँय हैं ? सो उन पशन के ही पाप का उदय है कि जो सज्जन सदावत देय, शीत में वस्त्र देय दीनन को रक्षा करें। वै ही पुरुष जब पशूनकै शस्त्र-तीर-गोलो मारे हैं तब तिनकों दया नहीं आवै। ऐसे बड़े आदमी, बुद्धिमान, दयावान, धर्म निमित्त धन के लगावनहारे, ते पर-प्राण का घात कैसे करें हैं ? तातें ऐसा जानना, जाकै पर-प्राण-पीड़िते , दया नाहीं होय, सो दया रहित भावन का धारी, त शिकारी कहिये। अपने पुत्र पालवे को, पराये पुत्र हते उसे पारधी कहिये। ते जीव पाप के अधिकारी होय, नरक के पात्र होय हैं । अपनी जिह्वा-इन्द्रिय पोपवे की तथा अपनी भूख मिटावन की, पराये पुत्र दीन। पशनको हते है, दया रहित पारधी जानना। केसे हैं वन-जीव ? महादीन हैं। महाभयवान हैं। कोई ते ॥
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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