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________________ किये, धर्म साधन किश था ताका फल नाश होय है। तातें विवेकी-धर्मात्मा पुरुषतको वैश्या-संगति तजना योग्य है और जिन-जिन कार्यन मैं वेश्या संग किये का-सा दोष होय, सो भी कार्य, व्रत के रक्षक धर्मो-पुरुष तर्ज हैं। सो हो बताइये है। जाके वेश्या व्यसन का त्याग होय, सो रातो जायगा नाही जाय । अरु कदाचित जाय, नौ अपने व्रतको अतितर - पहलेल्या का स्थान होय, तहां नहीं जाते और जहां वेश्या-कञ्चनी का नृत्य, गान, वादित्र होय, तहां नहीं जाय और वेश्यात वाणिज्य नाहीं करें और वैश्या के मुहल्ले जाय वसना नाहों और वेश्या तैं हाँ सि, कौतुक, वचनालाप नहीं करे इत्यादिक कहे जो कार्य, सो व्यसन समान पाप उपजावै हैं और वैश्याकेतनको नहीं निरखै और वैश्याके हाव-भाव नहीं देखै। ताके गान, रूप, वादिन नृत्यादिक नाहीं सुनै-देखें। आगे तिनको प्रशंसा अनुमोदना नाही करै। बार-बार वैश्या के गुणन को कथा नाहीं करें। ताको कथा औरनत सुनि, हर्ष नाही करै। वैश्या का सत्कार नाहों करै ताके संगी-कुटुम्बीन ते हित माव नाही करें। इत्यादिक वेश्या सेवन के दोष हैं । सो सर्व का त्याग करते हो अपने व्रत को रक्षा ही है। हे भव्य ! वेश्या के संग विर्षे गुण नाहीं। याके संग तें लोकन मैं अपयश निन्दा होय है। वेश्या का संग, चोरटे पराये धन के हरनहार करे हैं तथा जे लुच्चे, जुवारी आदि निर्लज पुरुष हैं ते वैश्या के घर जाय हैं तथा कुलहीन पुरुष ही वेश्या का संग करें हैं तथा जाके आगे-पीछे कोई कुटम्ब नाहीं, सो वेश्या गमन कर है। देखो, प्रागे चारुदत्त सेठ पुत्र ने वेश्या का संग किया था। सो वेश्या ने ताका सर्व घर धन लेय, पीछे उसे दुर्गन्ध भरी छारछोवी (पाखाना) मैं डाल दिया। सो नरक सम्मान दुःख, इहां ही भोगता भया। जगत्-बिछौना समान, वेश्या जानना। याका तन सर्व जन नीच-ऊँच स्परौं हैं। वेश्या के संग तें, शील का अभाव होय है। ताका फल, दुर्गति होय है। ये वैश्या महादगाबाजी की मूर्ति है। अरु रोसे ही महानिर्लज दगाबाजी की खानि, दुर्बद्धि पुरुष ताका संग करें हैं। अहो मव्य ! सिंह की गुफा में जाना तो मला है। परन्तु वेश्या का संग मला नाहीं। तातें है भव्य ! घनी कहने करि कहा- वेश्या का संग तजना ही मला है। इस वेश्या व्यसनो कौ चोर, लुच्चे, वेश्या के गमनी भला कहैं हैं। तब यह मूर्ख अपनी प्रशंसा सुनि, प्रफुल्लित होय हैं और जब विवेको, ऊँच-कुली, पण्डितन में जाय है तब | उस अधोमुख होना पड़े हैं। अपने भले कुल में कलंक चढ़ावै है या वैश्या के संग ते सर्व प्रकार कुकीर्ति की ga ४८०
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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