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________________ गया होय, सो खप्त कहावै। तीनों राकसे हैं। इनको दिवाने कहिये, बेसूब कहिये इत्यादिक मद्य लेने में जगत् | निन्दा होय. घर धन जाय, सो प्रसिद्ध है। और देखो, जो दारू पोथकै कोईने यश पाया होय. तो बताओ। देखो, यादव-सुतौंने धोखे ते मद पीया सौ सर्व कुल सहित द्वारका का नाश भया । तातें है भाई! तेरे घरमें धन दाम बहुत होय तो जलमें डारि दे। परन्तु व्यसन विर्षे मत लगावौ। हे भव्य, दाल ते दावानल भली है। अग्नि प्रवेश भला है। तन वि पीड़ा भई भली है 1 इत्यादिक दुखन ते एक एक भव विर्षे दुख होय है और दारू ते अनेक भवों में दुख होय है। तातै दारू तें, हलाहल विष मला है, परन्तु दारू व्यसन भला नाहों। ताते अनेक प्रकार पापकारी जानि, धर्मार्थो श्रावकको अपने व्रतकी रक्षा कौं, अतिवार सहित दारू व्यसनका त्याग करना योग्य है । इति दारू व्यसन।३। आगे वेश्या व्यसन कहिये है। कैसी है यह वेश्या, जाके चित्त करि मोह्या गया है कामी पुरुषनका मन सो ताकै सदैव धर्मका अभाव है। जो परके पासका दाम लेय, व्यभिचार क्रिया रूप प्रवृत्तै. सो ताक वेश्या कहिये। याकी संगति तें, चित विकल होय है । या वेश्याके काहू ते स्नेह नाही, एक द्रव्य तें स्नेह है। जो कोई महा नोच-कुलो होय, अरु ताके पास धन होय, तौ वेश्या ताते संगम करें। ग्लानि नाही करें। जाका तन विरूप होय, लदि-दीन होय, तर हीनदोष नाम ना करोगानो देश्या ताका | आदर करे, तातें स्नेह करें। महा बुद्धिमान होय, कामदेव समान रूपका धारी होय, पराये मनका मोहनेहारा हाय, ऊंच कुलो-बड़े वंशका होय इत्यादिक गुण सहित, शुभ-लक्षणो होय, अरु कदाचित् धन रहित होय, तो वैश्याके घर जाय आदर नहीं पावै। धन रहित पुरुष तें वेश्या स्नेह नाहीं करै। याकै धन मित्र है, और नाहीं। तात वेश्याका नाम धन-मित्रा भी कहिये है। केसी है यह वेश्या, जो याका तन ममिके मार्ग समान है। जैसे मार्ग नीच-ऊंच सर्वही चलें हैं, तैसेही वैश्याका तत है। याके तन पर भी नोच-ऊंच सभी जाय। यह वैश्या, महा लोभको खानि है। धनके निमित्त अपना तन बैंच है। महा निर्लज है। निर्लज्ज पुरुषोंके भोगका स्थान है। जंठी पातल समान है । जैसे काहूने जूठो पातल फेंकी। ताके ऊपर अनेक श्वान चाटवे आवे हैं । तैसे हो काहूंकी || मि भोग-नाखी वैश्या रूपो जंठी पातल, ताके ऊपर अनेक व्यसनी श्वान आवे हैं। जगत निन्द्य है। तातें वैश्याके सर्व चिन्ह पापकारी जानि, बुद्धिमान कूतजना योग्य है। और ये वेश्या,शील वृक्ष के छेदवैकं कुठार समान है। याका संग
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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