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________________ श्री सु ह ष्टि ९१ शुद्ध, परमात्मा निरंजन अमूर्तिक इत्यादि गुण प्रगट होय, सिद्धलोकक प्राप्त होय हैं। ऐसे सिद्ध भगवानको हमारा नमस्कार होऊ । ऐसे उदय का सामान्य स्वभाव कह्या । इति उदय । आगे सत्ता का स्वरूप संक्षेप से कहिए है। तहाँ सत्ता योग्य प्रकृति एकसौ अड़तालीस हैं। नाना जीव अपेक्षा जहाँ विशेष है सो पहले कहिये है। जो जीव सम्यक् पायकें ऊपरले गुणस्थान में कबई नहीं गया होय, सो ऐसा अनादि मिथ्यादृष्टि, ताके जाहारक चतुष्ककी न्यारि, सम्यकप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और तीर्थकर -- इन सात बिना २४२ की सत्ता है। सादि मिध्यादृष्टिर्के जाके मिश्रमोहनीय की सत्ता होय, ताके १४२ की सत्ता है। जहां मिश्रमोहनीय की सत्ता नाहीं, ताकी जगह सम्यक प्रकृति की सत्ता होय तो भी २४२ को ही सत्ता होय । २४२ तो अगला अरु मिश्रमोहनीय व सम्यकप्रकृति इन दोय की और भए २४३ की सत्ता होय है । जाके तीर्थंकर की सत्ता होय मिश्रमोहनीय का नहीं होय ताके भो १४३ की ही सत्ता होय है । जाके मिश्रमोहनीय व बाहारक चतुष्ककी सत्ता होय ताके २४८ की सत्ता होय। ऐसे सामान्य सत्ता का स्वरूप कहिए है। विशेष भंग इहाँ ग्रन्थ बढ़ने के भय से तथा यह बालबोध ग्रन्थ है सो कठिन होने के भयतें नहीं लिखे हैं। इनका विशेष श्रीगोम्मटसारणी के "कर्मकाण्ड" महाधिकार तामें विशेष सत्ता अधिकार है तहां तैं जानना। ऐसे सत्ता योग्य प्रकृति नाना जीव अपेक्षा २४८ हैं। तहाँ प्रथम गुणस्थान में २४८ को सत्ता है। आहारकद्विक, तीर्थकर इन तीन बिना सासादन में २४५ की सत्ता है। इन तीन प्रकृति की आर्के सत्ता होय, ताके दूसरा गुणस्थान नहीं होय । सो तीसरे गुणस्थान में श्राहारकद्विक आय मिला। तातें मिश्र मैं १४७ की सत्ता भयो। चौथे गुणस्थानमैं तीर्थकर भी मिला, सो चौथे में १४८ की सत्ता है। यहाँ चौथे गुणस्थान में नरकायु की व्युच्छित्ति कर पांचवें गुरुस्थान आया। भावार्थ -- जाके नरकायु की सत्ता होय ताके पंचम गुणस्थान नहीं होय, तातें पांचवें में १४७ की सत्ता है । जाके तिर्थं चायु की सत्ता होय तिनको महाव्रत नहीं होय, तातै तिर्यचायु की व्युच्छित्ति पांचवें में करि छठे में आया। सहाँ प्रमत्त में २४६ की सत्ता है । इहां व्युच्छित्ति नाहीं। आगे जे जीव उपशम श्रेणी चढ़ें तार्के ग्यारहवें गुणस्थान लूं २४६ की सत्ता होय है, आगे गमन नाहीं । क्षायिक श्रेणी चढ़नेवाला जीव सप्तम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी की ४, दर्शनमोहनीय की ३, देवायु—इन आउन की व्युच्छित्ति अप्रमत्तमैं करि ११ त रं गि श्री
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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