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________________ देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वो, नरक प्राथु, वैक्रियिक, वैक्रियिक अंगोपांग, तिर्यगत्यानु पूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वो. दुर्भग, अयशस्कीर्ति, बनादेव-रा सत्तरह व्युजित्ति करि पंचगुखस्थान में पाया। तहाँ सत्यासी का उदय है। इहाँ बाठ की व्युनिछति, प्रत्याख्यान च्यारि।४। तिर्यंचगति, तिथंचायु, नीचगोत्र उद्योतनाम-ए आठ की व्युच्छित्ति करि पाँचमें तें छठेमें आया। यहाँ आहारकदिक मिले तब इक्यासी का उदय होय हैं। इहां आहारकद्विक की दोय मोटी निद्रा तीन इन पंचन को व्युच्छित्ति छठे में करि सातवें में आया सो आप्रमत्त में छिहत्तरि का उदय है। यहाँ संहनन अन्त के तीन सम्यकप्रकृति, इन ज्यारि ब्युच्छित्ति करि जाठवें मैं आया, सो यहाँ बहत्तर का उदय है। यहाँ षट् हास्यादिक की व्युच्छित्ति करि नववें मैं आया, तो यहां छ्यासठि का उदय है। नवर्वे में तीनवेद, अस्पतन की होम बिनासन, इन पद की व्युब्धिति करि साठि लेय दशवें मैं आया। दश में सूक्ष्मलोभ को ब्युब्धित्ति कटि ग्यारहवें मैं आया. यहाँ गुणसठि का उदय । नाराच, वज्रनाराच, इन दोय की व्युच्छित्ति करि बारहवें में गया। यहां विशेष राता जो नाराच, वज्रनाराच, इन दोय संहनन सहित क्षाधिक श्रेणी नहीं चढ़े है। जो उपशान्त के मार्ग आवै सो उपशम श्रेणीवाला प्राव है। जे जीव क्षायिक श्रेणी चर्दै सो पंच संहनन की व्युन्छित्ति सातवें में ही करें हैं। एक वज्रवृषमनाराचसंहननसहित श्रेणी चढ़ि दशमें ते बारहवें में ही आवै। ग्यारहवें मैं नहीं जाय। ऐसा जानना और इहां उपशम श्रेणीवाले की अपेक्षा ग्यारहवें में नाराच, वज्रनाराक्सहनन की व्युच्छित्ति कही है। प्रथम संहननवाला तो दोऊ श्रेशि चदै है ऐसा जानना। अब ५७ लेय बारहवें मैं आया। तहां ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ६, अन्तराय ५-ए सोलह प्रकृति बारहवें में व्युच्छित्ति करि तैरहवें में आया। तहाँ तीर्थंकर प्रकृति आय मिली वियालीस का उदय सयोग मैं है। तहां तीसकी व्युच्छित्ति-वाचतुष्ककी ४, अगुरुचतुष्ककी ४, संस्थान ६, चाल २, औदारिक १, औदारिक अंगोपांग, तैजस, कार्मण, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर, सुस्वर, दुस्वर, प्रत्येक, निर्माण, वप्रवृषभनाराच संहनन, वेदनीय---य तोस की व्युच्छित्ति तैरहवें मैं करि ग्यारह लेय अयोगगुणस्थान गया। तहाँ चौदहवें में बारह का उदय अरु बारह ही प्रकृति की व्युच्छित्ति पंचेन्द्रिय, पर्यापि, त्रस. बादर, मनुष्यगति, मनुष्यायु, ऊँचगोत्र, यशस्कीर्ति, बादेय, सुभग, तीर्थकर, वेदनीय-इन बारहों ही की चौदहवें मैं व्युच्छित्ति करि, जात्मा अष्टकर्मरहित
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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