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________________ श्री सु ਵਿ २७३ स्वार्थ के बन्धन बन्धे हैं. गाथा - जगक पितामह जणणी, तिथ सुत मित्रादि बन्ध पुतीए । सामी भिखिक दासी ए सहु णिज्जकाज बंध बंधाणी ॥५४॥ अर्थ -- जक कहिये, पिता । पितामह कहिये, पिता का पिता । जराशी कहिये, माता । तिय कहिये, स्त्री सुत कहिये, पुत्र । मित्तादि कहिये, मित्र । बन्धु कहिये, भाई। पुत्तीरा कहिये, पुत्री स्वामी कहिये, सरदार । भिक्खिक कहिये, मँगता । दासो कहिये, चाकर । ए सहु कहिये, ये सर्व हो। जि काज बन्ध बन्धाशी कहिये अपने-अपने कार्यरूपी बन्धन करि बंधे हैं। भावार्थ जातें आप उपज्या, सो अपना पिता है। सो पिता पुत्र की बालापने में सेवा करें है। नाना प्रकार खान-पान शीत-उष्यात रक्षा करें है। सो ऐसा विचार है जो ए मेरा पुत्र है। यातें मेरा नाम चलेगा। मेरी वृद्धयने में सेवा करेगा। इत्यादि स्वार्थ के बन्धन में बन्ध्या मोह वस होय, नेह उपजाय पुत्र की रक्षा करें है और पीछे पुत्र कुप्त होय, अविनयवान् होय तौ तातें स्वार्थ नहीं सधता जानि मोह तजें । घर निकास देय, मारि डालै जुदा करें। बटाऊ ( साझीदार ) हूतैं बुरा लागे और पिता का पिता मोतेर्ते मोह करें है । यह जान कर कि ए हमारे पुत्र का पुत्र है। सो मेरा नाती है। यह बड़ा होयगा तब मेरी वृद्ध अवस्था में सेवा करेगा। ऐसा स्वार्थ के बन्धन में बन्ध्या, नाती जानि बाबा रक्षा करें और माता ने नव मांस उदर में रक्षा करी जनम भये पोछे मोह के वश ये पुत्र की रक्षा करें है । सो भरी राति में शीतकाल समय मल-मूत्र करें तथ आप तो शीत आगे (गोले ) में रहे अरु पुत्र को सूखे में राख है। सो ऐसा विचार है जो बड़ा ! होय कमाय मोकूं खुवाय सुखी करेगा। मेरो आज्ञा मानेगा। ऐसे स्वार्थ के बन्धन तैं बंधी माता पुत्र की रक्षा करें है और पति नाना कष्ट पाय द्रव्य पैदा करें, सो लायक स्त्री कूं देय । नाना प्रकार पंचेन्द्रिय जनित भोग सामग्री मिलाय स्त्री सुखो करें है । तातें स्त्री ऐसा जानें है। सो मेरे मन वांच्छित भोग का देनेहारा एक भर्तार है। ऐसे स्वार्थ तैं थोत्रो भर्तार को सेवा करें है और कदाचित् भर्तार मन्द कुमाऊ होय होन भागी होय दरिद्री होय अपने सुख का कारण नाहां होय तो अपने स्वार्थ रहित भर्तारको तर्फे है और पुत्र अपने योग्य खान-पान असवारी वस्त्र के दाग़ माता-पिता गानिक, पुत्र माता-पिता की सेवा करें है और ऐसा जाने है । ये माता-पिता हमारा जतन कर हैं। ऐसे स्वार्थ तैं बन्ध्या पुत्र माता-पिता की सेवा करें है, आज्ञा माने है। ३५ २७३ गि पी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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