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________________ श्री सु ť fe ४३२ जिस नाशक, डा दण्ड लगाय, बन्दी में दिवाये होंय तथा पर कौं बन्दीगृह में देख, अनुमोदना करि खुशी भया होय इत्यादिक पाप तैं, जीव नृपादक का बन्दी होथ । १२६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जोव अकस्मात् शस्त्र हैं पसीने, गोला हैं विष तैं इत्यादिक कारण तें मृत्यु पावै । सो किस पाप के फल पावैं ? सी कहो तब गुरु कही जाने पर भव में पर जीवन कूं दोष लगाय, विष देय मारे तथा विष ? मूरा देख, हर्ष पाया होय। सो जीव इस पाप से अकस्मात् मृत्यु पावें और जानें पर जीवन कौं फांसो त मरे हों तथा फांसो हैं मूये सुनि, अनुमोदना करि हर्ष पाया होय । ते जीव चोरन का निमित्त पाय, फांसी तें मरे और जिनने पर जीवन को तीर, गोली, बछ, कटारी, छुरी तलवारादि शस्त्र तैं मारे होंय तथा मुये सुनि, अनुमोदना करी होय । ते जीव अकस्मात् शस्त्र तैं मौति पावैं और जिन जीवन नैं पर भव में सिंहादि जीवन को शस्त्र तें हते होंथ तथा औरन तैं मारे सुनि, सुख पाया होय ते जीव सिंहादिक दुष्ट जीवन तें कस्मात मृत्यु पायें और जिनने पर जीवन के अग्नि में जाले होंय तथा अग्नि में जले सुनि, हर्ष पाया होय । सो जीव अकस्मात् अग्नि में जलें और पर जीवन को जिनने जल में डुबोय मारे होंय तथा जल में डूबे सुनि, सुख पाया होय । ते जीव अकस्मात् जल में डूब मरें इत्यादिक जे पाप क्रिया, ताही निमित्त पाय अकस्मात् मरण होय । १२७ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जीव पर का खानाजाद गुलाम, किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही- जानें पर भव में बलात्कार पर जीवन की गुलाम किये होंय तथा धन लोभ देय तथा भूखेकौं खान-पान वरचादिकका लोभ लगाय तथा परण्या मनुष्य विकते देख मोल देव इत्यादिक कारण तें पर-जीवन कौं गुलाम किये होंय तथा अन्य जीव कोई का गुलाम भया होय तथा अपने बोचि दूत होय, किसीको किसी का गुलाम कराया, दलाली खाय हर्ष पाया होय इत्यादिक पापन तैं जोव भवान्तर मैं आय, अन्य घर बिक गुलाम होय । ११८ । बहुरि शिष्य पूछी। हे नाथ! यह जीव लोक-निन्द्य कौन पाप तैं होय ? तब गुरु कही जाने जगत्सृज्य जो वीतराग देव-धर्म-गुरु की निन्दा करी होय तथा और कोई देव-धर्म-गुरु के निन्दक जानि तिनमें प्रीति भाव किया होय तथा तीन जगत्पूज्य, प्रशंसा योग्य ऐसे वीतरागादि उत्तम गुण, तिनकी निन्दा करी होय तथा धर्मात्मा पुरुषन की निन्दा करी होय तथा लोक-निन्द्य पुरुषन के संगकौं पाय, अनेक निन्द्य-कार्य ४१२
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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